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ट्रेन में लड़की — कंचन जायसवाल की सफ़र कथा | Short story by Kanchan Jaiswal

युवा रचनाकार कंचन जायसवाल की रचना 'ट्रेन में लड़की' जिसे सफ़र कथा कह रहा हूँ, पढ़ते हुए यह महसूस हुआ कि इस तरह की गद्यात्मक रचनाएं लिखी, छापी और पढ़ी जानी चाहिए, प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए । कहानी ही सबकुछ नहीं होती। ~ सं ०


Short story by Kanchan Jaiswal


सफ़र कथा 

ट्रेन में लड़की

कंचन  जायसवाल  

पेशे से अध्यापक. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका 1857 से 1947 तक विषय पर पी.एच.डी. स्त्रियां और सपने कविता संग्रह प्रकाशित. कथादेश ,रेवान्त, आजकल पत्रिकाओं में कविता, कहानी प्रकाशित. मो. न. 7905309214 

यह सफ़र था नोएडा से घर की ओर। मैं शताब्दी में बैठी सी-5 में सीट नंबर 37 पर जो कि मेरी सीट नहीं थी, यह मुझे थोड़ी ही देर में पता चल गया जब उस सीट का वास्तविक हकदार अपनी टिकट लेकर मेरे सामने खड़ा हो गया। मैं हकलाई सी बोल उठी— मेरी सीट यही है। नहीं— आप मेरी सीट पर बैठी हैं। मुझे लड़की सही लगी क्योंकि मैं पहली बार अकेले शताब्दी से चल रही थी। टिकट में मैं अपना सीट नंबर देखने लगी। पर हाय री अनाड़ी बुद्धि— मुझे दिख ही नहीं रहा था। मैंने बगल में बैठी दूसरी लड़की से कहा, देखो जरा सीट नंबर कहाँ लिखा है। उसने झट से कहा— 75 है। मैं झट से दोनों हैंडबैग लेकर आगे की ओर बढ़ी। 75 नंबर मेरी विंडो सीट थी। मेरी उस सीट के बगल में बैठी लड़की मास्क लगाए हुए थी। कोरोना का असर लोगों के जेहन से गया नहीं था। स्मार्ट लोग अभी भी भीड़भाड़ वाली जगहों पर मास्क लगाने का जोखिम लेते थे। मुझे अटपटा सा लग रहा था। मैं अपनी सीट पर बैठ गई। तभी हसबैंड का फोन आया—अरे, तुम्हारा सीट नंबर 75 है, तुम गलत सीट पर बैठ गई हो। मैंने मारे खीझ में फोन काट दिया।

ट्रेन चल पड़ी। खूबसूरत सफ़र की शुरुआत सुबह के सुंदर नजारों से शुरू हो गई। सुबह के 6 बज चुके थे। आसमान लालिमा लिये हुऐ धीरे-धीरे अंगड़ाई ले रहा था। थोड़ी देर शांत मन से मैं बाहर की ओर देखती रही। फिर मैंने बगल में बैठी लड़की पर कनावियों से नजर डाला। मुझे लगा कि कोई फूं फां होगी, मगर मुझे वो कुछ खास नहीं लगी। मैंने अपने हैंडबैग से मैगजीन निकाला ‘वनमाली‘ और उसे पढ़ना शुरू कर दिया। अपने पढ़ने-लिखने के शौक में मैंने मैगजीन को सब्सक्राइब कर रखा है। पर जब से यह मैंगजीन मुझे मिल रही है, यह पहली है जिसे मैंने खोल कर पढ़ा है। आते समय सफ़र में कुछ कविताएं और भाषा पर एक लेख और अभी वापसी में मैं कहानियाँ पढ़ रही हूँ। संतोष जी की कहानी साधारण में असाधारण लगी। नाना और पोती के बीच प्यार और परिवर्तन की कहानी। अभी ईरानी रायटर की एक अनुवादित कहानी पढ़ रही हूँ। बड़ी मजेदार है कहानी नली। जिसमें एक आदमी एक नली बना कर उसमें घुस जाता है और उसकी परिकल्पना है कि इस नली में घुसकर वो किसी अनजानी दुनिया में पहुँच जाएगा, जो उसके जैसे लोगों की दुनिया होगी, जहाँ असमान्य होना, नॉर्मल, से थोड़ा कम होना गलत होना नहीं है। बहुत रोचक कहानी लगी। इस कहानी को पढ़ने के बाद मैंने खिड़की के बाहर नजर दौड़ाई। काश ऐसी एक नली वाकई होती। दिल में खलिश सी पैदा हुई। मन ही मन मैं गुस्कुराई।

धूप-छाँव का सुहाना दौर जारी था। सितंबर का आखिरी हफ्ता है पर मौसम कुछ दिनों से अजीब हुआ है। इस समय देश के तमाम हिस्सों में मूसलाधार बारिश हो रही है। बारिश का महीना कब का गुजर चुका है। देश के तमाम हिस्सों में सरकार ने सूखे का ऐलान कर दिया है। चावल की फसल बर्बाद हो चुकी है। सरकार ने टूटे हुए चावलों के निर्यात पर रोक लगा दी है और देशवासियों को आश्वासन भी दे रही है कि उसके भंडारगृह चावल से भरे हुए हैं। सरकार का दावा है कि जनता सूखे के बावजूद पर्याप्त चावल होने से किसी प्रकार की दिक्कत में नहीं आएगी। पर सरकार के आश्वासनों के बावजूद जनता की धुकधुकी और ज्यादा बढ़ गई है। किसान हताश और परेशान हैं। अभी यह दौर चल ही रहा था कि आसमानी बारिश होने लग गई। परेशानियों का दौर और बढ़ गया। अगर यह बारिश जुलाई-अगस्त के महीने में होती तो सारी बदहाली का ठीकरा बारिश के मौसम पर फोड़ा जाता पर इस सितंबर के महीने में जबकि पितृपक्ष लगा हुआ है, मूसलाधार बारिश का सिलासिला शुरू हो गया। तमाम शहर बड़े नालों में तब्दील हो गये। इधर कई हादसे भी हुए। लखनऊ में एक निर्माणाधीन इमारत गिर गई, जिससे कुछ मजदूरों की मृत्यु हो गई। वे मजदूर लखनऊ काम के सिलसिले में सीतापुर से आए हुए थे। सरकार ने इस हादसे पर मृत मजदूरों के परिवारों के लिए अच्छे मुआवजे का ऐलान भी किया। इधर एक जरुरी फंक्शन के लिए मुझे लखनऊ से नोएडा जाना था हसबैंड के पास। मैं बारिश के मौसम से डर रही थी। पर फिर मैंने सोचा कि चलो इसका भी मजा लिया जाएगा। बारिश का अपना एक अलग आनंद है। यही बारिश की धूप-छाँव सफ़र में मेरे साथ चल रही थी। तेज धूप से आँखे चौंधियाने पर मैंने खिड़की के पर्दे को थोड़ा ढँक दिया। बगल में बैठी लड़की को सुनाते हुये मैंने कहा कि कितनी तेज धूप है। लड़की धीरे से बोली— हाँ धूप बहुत तेज है। तभी मेरा नाश्ता आ गया। मैंने बड़ी मोहब्बत से नाश्ता किया— कटलेट, ऐप्पल जूस, ब्राउन ब्रेड विद बटर फिर गर्मागर्म चाय। सचमुच मजा आ गया। घर से मैं सिर्फ ग्रीन टी पीकर चली थी। सुबह की ट्रेन थी। फिर मैं निश्चिंत थी कि ट्रेन में नाश्ता मिलेगा। 5 घंटे बाद मैं लखनऊ पहुंचूंगी। ठीक ही है। आरामदायक और खुशनुमा सफ़र । बगल में बैठी लड़की इतनी देर में इतना तो जान ही चुकी थी मेरे बारे में— नौकरीपेशा, बच्चों वाली, पढ़ाकू, पति से मिलकर घर वापस लौटने वाली, मिडिल क्लास, तेजतर्रार औरत है। मैं भी उस लड़की के लिये सेम पैटर्न सोच रही थी। इससे बातचीत की जा सकती है। मैंने पूछा— कहाँ तक जा रही हो। इटावा— वह बोली। अच्छा लखनऊ से आगे पड़ेगा क्या। वह अनिश्चित-सी बोली। हाँ— मुझे भी पता नहीं था। आप—उसने पूछा। मैं— लखनऊ। फिर वो बताने लगी कि आजकल लोगों के बारे में जान लेना ज्यादा मुश्किल नहीं रह गया है। मेरे ख्याल से यह कभी भी मुश्किल नहीं रहा होगा। इन्सानी फितरत हमेशा एक सी ही होती है। सभी बस औरत और मर्द के खाँचे में बटे हुये हैं। वही एक सा सोना, खाना, उदास होना और गैर-जरूरी ख्वाब पालना। कम-ओ-बेश हर लोग यही करते हैं। अनुपात में कुछ थोड़ा कम या कुछ थोड़ा ज्यादा। फिर मिडिल क्लास वालों की एक जात होती है। सभी एक से ही दिखते, होते हैं। लब्बोलुआब बस यही है।

फिर वो बताने लगी कि वो अपनी मां के पास जा रही है जिनका बाथरूम में फिसल कर गिर जाने से पैर टूट गया है, उनकी देखभाल करने के लिए। मैंने उसे गौर से देखा। उसने साधारण-सा सूट पहन रखा था। उसके हाथ में लाल कांच की कुछ चूड़ियाँ थी जिससे वो शादीशुदा लग रही थी। पर उसने बिंदी-सिंदूर कुछ भी नहीं लगा रखा था। वैसे भी यह लगभग आजकल का फैशन बन गया है। कामकाजी औरतें भी सिंदूर-बिंदी के पहनावे से अमूमन बेहिस सी रहती हैं। उसका हैंडबैग बहुत खूबसूरत था। वह बताने लगी कि वह लखनऊ से आगे अयोध्या अपने परिवार के साथ कई बार जा चुकी है। अयोध्या में उसके बाबा का कोई मंदिर है। वह बता रही थी कि वहां आम के खूब सारे बाग होते हैं। बारिश को लेकर उसकी चिंता थी। हाँ, मैंने कहा इस बार सूखा पड़ गया। चावल की खेती खराब हो गई है। फिर मैंने खिड़की से बाहर उसे गन्ने की फसल दिखाई। फिर मुझे लगा नहीं मैं गलत हूँ। उसने भी कहा नहीं यह गन्ना नहीं शायद बाजरा है। आगे मैंने उसे बताया यह धान की फसल है। कैसे लहलहा रही है— देखो। शायद इन लोगों ने इसे बाद में बोया होगा या फिर पानी अच्छा दिया होगा। फसलों के बाद हम लोग अयोध्या के बारे में फिर बात करने लगे। उसने कहा इटावा के बाद कानपुर फिर लखनऊ फिर फैजाबाद आता है। मैं श्योर नहीं थी इसलिए मैं कुछ गोलमोल सा बोलकर रह गई। पहला स्टेशन अलीगढ़ पड़ा, फिर ट्रेन टुंडला पहुंची। उसके बाद 9:40 के आसपास इटावा आ गया। अभी तक हम दोनों के बीच जो अजनबीपन था, बातचीत से वह खत्म हो गया। 

मैंने उससे पूछा— जॉब करती हो। उसने कहा— नहीं, अभी तैयारी कर रही हूँ। मैं हाउसवाइफ हूँ। मैंने खिडकी से बाहर नजर दौड़ाई। इण्डिया में लोग कब शादी को नौकरी के बाद रखेंगे। और यह लड़कियों के लिये भी होगा। उसकी नई-नई शादी हुई लग रही थी। उसके पहनावे से नहीं बल्कि उसकी बात-चीत से। इटावा से बहुत पहले उसके हसबैंड का फोन भी आया था। उसने पूछा— सो तो नहीं रही हो, इटावा आने वाला है। उसके पति का नाम गौरव था, स्क्रीन पर उसका नाम चमका जीएओरआरएवी। उसने हंस कर कहा— अरे मैं सोवक्कड़ नहीं हूँ, जग रही हूँ, मुझे मालूम है इटावा आने वाला है। फिर तो मुझे बताते हुए हंसी— कह रहे हैं सो रही हो क्या, इतना मैं सोती नहीं हूँ— वह बोली। मैंने बोहेसपने से जवाब दिया— हाँ पतियों को यही लगता है कि बीबियाँ सोती रहती हैं। 

मैं लगातार खिड़की के बाहर देखती रही। फिर वह लड़की बताती रही कि कैसे उसे अयोध्या अच्छा लगता है, वहाँ जा कर घूमना, दादी-बाबा का प्यार जो उसे वहाँ मिलता है। उसे अभी इटावा के बाद पांच घंटे और सफ़र करना था। फिर वो इटावा से आगे एम.पी. में कहीं रहती थी। फिर उसे अकेले सफ़र करना अच्छा लगता है, कम लगेज हो वस। 

फिर मेरी इच्छा होने लगी कि वो बोलना बंद कर दें। फिर मुझे यह डर लगा कि अभी वो इटावा में जब उतर जाएगी तो कोई मर्द न बगल की सीट पर आ जाए। मैंने उसे कहा भी कि देखो कौन आता है। फिर मेरा मन हुआ कि मैं उसका नाम पूंछ लूं। फिर कि मैं उसका नंबर ले लूँ। फिर उसने बताया कि उसे ट्रेन वाली चाय बिल्कुल पसंद नहीं है। फिर वह इटावा स्टेशन पर उतर गई। फिर उसके जाने के बाद मैं सतर्क रही कि बगल वाली खाली सीट पर कौन आता है, लेकिन कोई आया नहीं। फिर हब्बी का फोन 10 बजे आया और उन्हें मैंने बताया कि इटावा क्रॉस हो गया है। अब इटावा के बाद कानपुर फिर लखनऊ, अब मैं श्योर थी। फिर मैं लखनऊ तक अकेले ही रही। कानपुर में दो पैसेंजर आए मेरे ही डिब्बे में पर उनकी सीट दूसरी रो में थी। फिर मुझे खूब मजा आया मैंने अपने दोनों हैंडबैग बंगल की सीट पर रख दिए। फिर मैंने कंधे से अपने बाल सही किए। फिर मुझे लगा कि अगर मेरे पास उसका नंबर होता तो मैं उसे जरूर बताती कि बगल की सीट पर कोई नहीं आया, कोई पुरुष तो बिल्कुल भी नहीं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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