समीक्षा लिखते समय यदि लेखक यह याद रखे कि गद्य पढ़ने का आनंद उसके प्रवाह में होता है, तो वह विजय पंडित द्वारा लिखित, हाल में आयी किताब — अवसाद का आनंद: जयशंकर प्रसाद की जीवनी, लेखक: सत्यदेव त्रिपाठी — की प्रस्तुत समीक्षा जैसा लिखेगा। अवश्य पढ़ें क्योंकि, इसे पढ़ने के बाद ही किताब में मेरी रुचि बनी है। ~ सं०
समीक्षा: जयशंकर प्रसाद की जीवनी | Review of Jaishankar Prasad's Jivani
इस किताब में साहित्य प्रेमियों को प्रसाद के व्यक्तित्व के वे अनगिनत पक्ष मिलते हैं जो अभी तक लोगों की जानकारी से परे थे और जिन्हें उचित ग्राफ में बनाये रखते हुए रासायनिक सम्मिश्रण की प्रक्रिया करना आसान नहीं था। ~ विजय पण्डित
'अवसाद का आनन्द'
अवसाद के उल्लास को बांचता एक जीवन
विजय पण्डित
अवसाद का भी आनंद होता है क्या?और क्या आनंद की पृष्ठभूमि में अवसाद ही होता है।मनोविज्ञान की मानें तो यह प्राणी मात्र में विद्यमान विकारों में एक मनोभाव है जो जीवन-पटल की अनिवार्य छवि है।तो क्या इस दुःख को सबको वहन करना होता है?हाँ ! सभी को वहन करना पड़ता है।कौन मुक्त रहा? साहित्य में ही भारतेंदु रहे? प्रेमचंद या निराला रहे क्या?प्रसाद को भी इस दुःख को वहन करना पड़ा, पूरा जीवन ही अवसादमय रहा।लेकिन इसी अवसाद ने दिया है हिंदी जगत को आनंद, अशेष आनंद।मैं तो यही कहूँगा कि अवसाद की ही संतति आनन्द है, जिसे प्रसाद के जीवनीकार ने लिखते समय ज़रूर अनुभव किया होगा।
सत्यदेव त्रिपाठी द्वारा रचित ‘अवसाद का आनंद’ को प्रसाद की जीवनी मात्र कहना इसके साथ न्याय नहीं होगा, प्रामाणिक जीवनी कहना अधिक समीचीन होगा।
कारण? इस किताब को लिखते समय लेखक ने प्रसाद को अपना पूर्ववर्ती न मानते हुए एक समकालीन साथी बनकर लिखा है, जैसे उन्हीं के साथ रह कर उनके जीवन और रचना-प्रक्रिया को साक्षी भाव से देख रहे हों। इसे लिखने में उन्हें कितना श्रम करना पड़ा, इस पर एक अलग किताब बन सकती है। ठीक उसी तरह, जिस तरह किसी फिल्म की रचना।
इस किताब की विशेषता इसकी रोचक और बांध लेने वाली पठनीयता है। एक उपन्यास की तरह इस जीवनी को आप पढ़ते चले जाते है। ‘प्रसाद अनन्त, प्रसाद कथा अनंता’ की तरह।
त्रिपाठीजी मानस, लोक और साहित्य तीनों के मर्मज्ञ व अध्येता हैं। शास्त्र के साथ तो वे भ्रमण ही करते हैं, उनको सुनने-पढने में. उनके अनुभव और ज्ञान की समन्वित अनुभूति होती है।
जीवनी ही क्या, उनके गद्य और निबन्धों में भी लालित्य इस तरह गुंथा होता है कि पाठक रम जाता हैं, छूट नही पाता कुछ भी।
और उस पर भी प्रसाद की जीवनी, जिनके जीवन में अनन्त शेड्स हैं, में जिस समर्पण के साथ श्रम, शक्ति और उर्जा दी गयी है वो उनकी लेखनी का श्रेष्ठ उदाहरण है।
फिर जब कोई भी जीवनी उपन्यास का आनंद और निबंध का लालित्य अकाट्य प्रामाणिकता के साथ दे तो उसको हम आनंद नहीं, परमानन्द कहेंगे।
तो यह आनंद उल्लास का ही है भले ही शीर्षक ‘अवसाद का आनंद’ हो।
पांच खंडो में विभाजित इस जीवनी को लिखने में कितना कुछ सहेजा गया होगा, इसकी कल्पना हम इस तरह कर सकते हैं कि प्रसाद का अवसान 1937 में हुआ और उसके बाद उनकी कई पीढियां आईं। अब से 15 साल बाद उनके अवसान के भी पूरे 100 साल हो जायेंगे।
सब जानते हैं कि प्रत्येक महान साहित्यकार की संतति उसकी महत्वपूर्ण लेखन-यात्रा के विराट आयाम को संरक्षित रखते हुए लिपिबद्ध करने की योग्यता नही रख पाती। प्रेमचंद को उनकी तरह अमृत राय या उसके बाद अमृत राय को विजय राय नहीं मिलते।
हर महान लेखक को आलोचक भी नहीं मिलते जैसे भारतेंदु को रायकृष्ण दास और निराला व केदारनाथ अग्रवाल को रामविलास शर्मा मिले। उनके लिए इसलिए भी सहज था सब कुछ कि उन सबका इन महान साहित्यकारों से सीधे जुड़ाव था, वे उनके जीवन व रचना-संसार को प्रत्यक्ष रूप से देख रहे थे।
लेकिन प्रसादजी को ऐसा कोई वारिस नहीं मिला। उनकी मृत्यु के करीब आठ दशक बाद ये जीवनी लिखी जा सकी है, वो भी जीवनीकार के दृढ़ संकल्प के कारण सम्भव हुआ।
वे जुझारू है, तथ्य को जानने-परखने के लिए अथक भटक सकते है। बहुपठ भी है और गाँव की माटी से उनका जुड़ाव किसी भी ग्रामवासी से अधिक है। हिन्दी के आचार्य तो वे रहे ही हैं, लेकिन इस जीवनी में उनके आचार्यत्व की भाषा आडम्बर-आरोपित नहीं होती। मुंबई और गोवा जैसे बड़े शहरों में रहने के पश्चात भी उनमें सागर से अधिक गंगा की लहरें उछाल मारती हैं और बनारस तो उनकी आत्मा में बसता ही है।
यही सब आधार रहे होंगे प्रसाद को खोजने में और उनको पूरी तरह पाने में।
इस किताब का सबसे सुन्दर पक्ष है खंड विभाजन के लिए प्रयुक्त शीर्षक।
जैसे प्रसाद के पूर्वजों के लिए — ‘तुम्हारा युक्तामय उपहार', जीवन और सृजन के लिए— 'बीती बातें कुछ मर्म कथा', प्रसाद के व्यक्तित्व के लिए— 'तरुण तपस्वी सा वह बैठा साधन करता सुर-श्मशान’, उनके अंतरंग-जीवन के आकलन के लिए— ‘उसकी स्मृति पाथेय बनी’ और उनके प्रयाण के लिए— ‘मृत्यु, अरी चिरनिद्रे, तेरा अंक हिमानी सा शीतल’। सभी खण्डों के लिए प्रयुक्त शीर्षक प्रथम द्रष्टया ही किताब पढने के लिए आकर्षित-उत्सुक करते हैं।
‘तुम्हारा मुक्तामय उपहार’ प्रसाद के पूर्वजों पर केन्द्रित है। यह जानना महत्वपूर्ण है कि प्रेमचन्द से विलग बनारस में दो महान साहित्यकारों के पूर्वजों की महान परम्परा रही है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र और प्रसाद दोनों ही समृद्ध घराने से थे। इस तथ्य का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि उनके पूर्वजों के बारे में अब भी वंशावली और अन्य सूचनाएं उपलब्ध हैं। प्रसाद के परिवार को सुंघनी साहु के नाम से जाना जाता है, लेकिन उसके पीछे की कथा को कम ही लोग जानते हैं। सबसे पहले साहु विशेषण प्रसाद जी के दादा शिव रतन के साथ जुडा था। शिव रतन की दादी अपने पोते के माथा को जब बार-बार सूंघती तो उनका नाम ही सुंघनी माई पड़ गया और.कालान्तर में प्रसाद जी का घराना ही सुंघनी साहु के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
किताब में प्रसाद को लेकर कई और भी मिथ टूटे हैं। लेखक ने प्रसाद के पूर्वजों पर गम्भीर जुड़ाव और गहन शोध से लिखते हुए विस्तारपूर्वक कई महत्वपूर्ण जानकारी दी है जो अब तक साहित्य-प्रेमियों और प्रसाद के अध्येताओं को भी उपलब्ध नहीं थी। हाँ, टुकडे–टुकड़े में भले ही कुछ मिला हो। यह खंड काफी विस्तृत है। एक पाठक के रूप में सोचता रहा कि जल्द ही ’तरुण तपस्वी सा वह बैठा साधन करता सुर श्मशान’ पर पहुँचूँ लेकिन इतिहास से परिचित होना ज़रूरी भी था। यदि ये छूटता तो छूट ही जाता और मेरा पाठक मन उस से वंचित रह जाता।
सबसे रोचक खंड है प्रसाद के जीवन और व्यक्तित्व का– ‘तरुण तपस्वी सा वह बैठा साधन करता सुर श्मशान’। लिखा भी है— 48 साल का छोटा सा जीवन, एक ही शहर बनारस में केन्द्रित जीवन-यापन और उसमें भी मकान से दूकान से दूकान के बीच धाप भर की दूरी में सिमटी मुख्य दिनचर्या। उन्हीं 10-20 लोगों से प्रायः रोज़ का संवाद, नितांत ही अंतरमुखी, समाज से अलग रहने की वृत्ति, सुंघनी बनाने–बेचने जैसा नामालूम सा व्यवसाय, विशुद्ध शाकाहारी भोजन, कुल मिला कर बस इतना ही। पूरी तरह सामान्य, सीधा–सादा, सीमित व एकरस था जयशंकर नामक व्यक्ति का जीवन और व्यक्तित्व। प्रसाद ठेठ बनारसी थे और बनारसी का मतलब ही होता है अपने में उत्कृष्ट। उनका आहार, उनका अभ्यागतों को भोजन कराने का शौक, पाक कला की अद्भुत जानकारी, मिठाई का शौक, हुक्का गुडगुडाने का प्रसंग, उनके परिधान, संगीत प्रियता, बागवानी, खेल, मनोरंजन, नौका-विहार और सिनेमा हाल में फिल्म देखने का शौक, कुछ भी तो छूटा नहीं है इस किताब में।
हाँ, एक बहुत रोचक जानकारी भी है कि उनकी फोटो ठीक नहीं उतरती थी। चित्र खिंचवाते समय कॉनशस हो जाते थे, गड़बड़ा जाते थे और इस कारण अपने स्वभाव से इतर गंभीर नज़र आते थे। तभी तो महादेवी वर्मा ने मिलने पर उनसे तपाक से कहा कि 'आप जैसे चित्र में दीखते वैसे तो नहीं लगते।‘ बातचीत में भोजपुरी का प्रयोग, रात में सोने से पहले अध्ययन का अभ्यास, शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय व धर्मशास्त्र आदि अनेकानेक पुस्तकों को मंगाकर पढने का स्वभाव आदि भी विस्तार पूर्वक है इसमें।
चतुर्थ खण्ड ‘उसकी स्मृति पाथेय बनी’ में उस स्मृति की तलाश की गयी है कि वह कौन सी स्मृति थी और उस स्मृति-जन्य पीड़ा क्या थी—
'जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति सी बसी छायी,
दुर्दिन में आकर वह आज बरसने आयी।'
कृतिकार का कहना है कि स्मृति दुखदायी है, स्मृति की पीड़ा नही। पीड़ा-की स्मृति है या पीड़ा ही स्मृति है। यह खण्ड प्रसाद की प्रेम-कथा का अनावरण करता है।
विवाह और कालान्तर में पत्नी व पुत्र के अनवरत विछोह के बीच घटे श्यामा से संम्बंध का विश्लेषण, नाचने-गाने वालियों के मुहल्ले के पास प्रसादजी की दुकान का परिवेश। माने सब कुछ ।
प्रेम प्रसंग के परिप्रेक्ष्य में शिवपूजन सहाय की टिप्पणी महत्वपूर्ण है— 'प्रसाद जी अपने निष्कलंक चरित्र के प्रभाव से ही समाज में आजीवन प्रतिष्ठा के अधिकारी बने रहे।' उसी सुर मे सुर मिलाते हुए विश्वम्भरनाथ जिज्जा का उनके निर्विवाद-निष्कलंक जीवन को लेकर कथन भी उल्लेखनीय है।और प्रसाद का यही व्यक्तित्व उन्हें असामान्य बनाता है.
पांचवा खण्ड — 'मृत्यु, अरी चिरनिद्रे तेरा अंक हिमानी सा शीतल।' प्रसाद जी का क्षय ग्रस्त होकर बीमार होना, इलाज होने, कराने न कराने की विसंगति और उनका महाप्रयाण।
त्रिपाठीजी ने ठीक ही लिखा है — 'प्रसाद के जीवन और हिन्दी साहित्य का सबसे अच्छा समय रहा होगा जब कामायनी का सृजन हुआ।' कामायनी ने उनकी अमरता पर अमिट मुहर लगायी, लेकिन जैसा कहा गया—'यही उनकी मृत्यु का हरकारा भी बनी। वे मृत्यु में कामायनी जी रहे थे जीते जी कामायनी में मर रहे थे।'
किताब के अंत में परिशिष्ट भी है जिसमें प्रसाद जी के अवसान के बाद उन पर (हंस-1937) सूर्य देव, कमला कुमारी चौहान, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ व डा. नगेन्द्र की कविताएं हैं। ये कविताएं मात्र शब्द और छंद की निर्मिति नहीं हैं, एक युग के अवसान का शोक गायन है. जो प्रसाद को विराट और, और विराट बनाता है।
और अंत में कुछ पत्राचार, जो कि तत्कालीन महत्वपूर्ण साहित्यकारों के बीच हुआ और कुछ चित्र भी, जो इस गाथा को शब्दों से परे पूर्णता प्रदान करते हैं।
लेकिन क्या इतना भर ही था उनका व्यक्तित्व?
नहीं, वे जो दिखते थे उस से परे थे। उन पर सब ने जैसा देखा, लिखा। महाराज कुमार रघुवीर सिंह ,रामवृक्ष बेनीपुरी, ज्ञानचन्द जैन, महादेवी वर्मा,रायकृष्ण दास, उस्ताद राम प्रसाद, विनोद व्यास, सीताराम चतुर्वेदी, अमृतलाल नागर,वृंदावनलाल वर्मा, नन्द दुलारे वाजपेयी व जानकी वल्लभ शास्त्री आदि के प्रसाद के लिए कहे/लिखे गए वक्तव्यों को त्रिपाठीजी ने बहुत जतन से सहेज कर इस तपस्वी की तप यात्रा को आबद्ध किया है।
इस किताब में साहित्य प्रेमियों को प्रसाद के व्यक्तित्व के वे अनगिनत पक्ष मिलते हैं जो अभी तक लोगों की जानकारी से परे थे और जिन्हें उचित ग्राफ में बनाये रखते हुए रासायनिक सम्मिश्रण की प्रक्रिया करना आसान नहीं था।
दसवें साल से ही प्रसाद का पूरा जीवन अवसादमय ही रहा — पहले आधिभौतिक दुखों से घिरा और अंतिम दिनों में आधिदैविक कष्टों से भरा।दुनिया को भी उन्होने दुःखदायी ही पाया।लेकिन इन्ही दुखों की उर्जा को उन्होंने कर्मठता जन्य जीवन जीते हुए साहित्य की उस अजस्र धारा में परिवर्तित किया जिसके कारण हिंदी साहित्य जगत आज भी उनकी रचनाओं को पढ़-गुन कर अभिभूत-चमत्कृत होता है। पीड़ा केवल मांजती ही नहीं मंज कर आभा भी प्रकट करती है और यह प्रसाद के साहित्य में पूर्ण वैभव के साथ प्रकट हुआ है ।
इस किताब की विशेषता इसकी रोचक और बांध लेने वाली पठनीयता है। एक उपन्यास की तरह इस जीवनी को आप पढ़ते चले जाते है। ‘प्रसाद अनन्त, प्रसाद कथा अनंता’ की तरह।
पाठक चमत्कृत रह जाता है कि इतना कुछ कैसे लिखा गया, किस तरह और किस प्रेरणा से लिखा गया कि एक युग फिर से पाठकों के समक्ष पूर्णता और भव्यता के साथ खडा हो गया है। कुल 526 पृष्ठ की इस गाथा में प्रसाद का सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की पड़ताल है, आदि से अनन्त तक।
सेतु प्रकाशन, रजा व फाउंडेशन द्वारा सुन्दर कलेवर युक्त आकर्षक प्रस्तुति आपको बहुत देर तक किताब को हाथ में लेकर महसूसने के लिए विवश करेगी। त्रिपाठीजी की भाषा व प्रस्तुतिकरण सदा की तरह अलंकृत और अद्भुत है ही। उनकी स्मृति में बहुत कुछ है — लोक-देशज, कविता, श्लोक-मंत्र, मुहावरे, ग़ालिब...... सब। जिनका सटीक प्रयोग पाठक को मुग्ध करता रहता है।
जब-जब जीवनी-लेखन को लेकर अमृत राय, विष्णु प्रभाकर अदि की बात होगी, इस किताब के लिए सत्यदेव त्रिपाठी की चर्चा अवश्य होगी जिसके वे अधिकारी हैं।
अंत में अशोक वाजपेयी के इस आमंत्रण के साथ कि
‘आएँ, उस समूचे अवसाद से गुजरते हुए प्रेम-शांति-विभुता-ज्योति वाले आनन्द-गायक के जीवन की अमर-यात्रा 'अवसाद का आनन्द’ के सहयात्री बनें’। उनके इस शाब्दिक आमंत्रण में मेरा भी आमंत्रण निहित है।
इस अंतस के आनंद के कारक प्रसाद के लिए निराला ने कहा था —
'जीना सिखलाने को कर्म निरत जीवन से
मरना निर्भय मंदहासमय महामरण से
विजय तुम्हारी लिए ह्रदय में लांछन सुन्दर
अस्त हो गया कीर्ति तुम्हारी गा अविनश्वर'
‘अवसाद का आनंद’ उस कीर्ति को पुनः उदित करने को रची गयी है.
अवसाद का आनंद: जयशंकर प्रसाद की जीवनी
लेखक-सत्यदेव त्रिपाठी
संस्करण 2022
मूल्य 475 .
(सेतु प्रकाशन प्रा. लि. और रजा फाउण्डेशन का सह आयोजन)
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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