स्वतंत्रता-आंदोलन बरक्स गांधी-सरला की बारहमासी प्रेम-कथा | Book Review: Gandhi Aur Saraladevi Chaudhrani : Barah Adhyay

समीक्षा / गांधी और सरला देवी चौधरानी : बारह अध्याय / अलका सरावगी
Book Review / Gandhi Aur Saraladevi Chaudhrani : Barah Adhyay/  Alka Saraogi


स्वतंत्रता आंदोलन, उसमें महात्मा गांधी की केन्द्रीयता तथा उसके स्त्रीवादी पक्ष में सरला देवी की भूमिका के साथ दोनो के तीव्र व जटिल प्रेम-सम्बंधों का अविकल आकलन

- सत्यदेव त्रिपाठी

सेवानिवृत्त प्रोफेसर, विचारक और साहित्य एवं कला के वरिष्ठ समीक्षक
38 वर्ष अध्यापन, जून, 2016 में एसएनडीटी महिला विवि, मुम्बई के प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त | कविता, कथा, थियेटर एवं फिल्म...आदि के विमर्श एवं समीक्षा पर दर्जनाधिक पुस्तकें प्रकाशित | मराठी एवं गुजराती से हिन्दी एवं भोजपुरी में अनुवाद-कार्य प्रकाशित | देश के तमाम प्रमुख-पत्रिकाओं में आलेख एवं फिल्म व नाट्य समीक्षा पर स्तम्भ लेखन | सैकड़ों संगोष्ठियों, कला-उत्सवों आदि में बतौर विशेषज्ञ भागीदारी | ‘रंगशीर्ष’ (वाराणसी) के माध्यम से नाट्यमंचन-नाट्याभ्यास के जरिये हिन्दी रंगमंच के विकास में सक्रिय | रेडियो-टीवी पर वार्त्ताएं एवं साक्षात्कार समय-समय पर प्रसारित  (डी.डी.1 के लिए बच्चनजी पर बने कार्यक्रम की पटकथा एवं कलर्स टी.वी. के लिए ‘श्रीकृष्ण’ धारावाहिक में शोध विशेषज्ञ) | सम्मान - बाबू विष्णुराव पराडकर - 1997- (महाराष्ट्र.रा.सा.अकादमी), नन्ददुलारे वाजपेयी सम्मान– 2007, कमलेश्वर कथा सम्मान – 2007 (वर्तमान साहित्य, अलीगढ), नागरी रत्न – 2010 (नागरी प्रचारिणी सभा, देवरिया का राष्ट्रीय सम्मान), अनंत गोपाल शेवडे सम्मान – 2013  (महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी), आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सम्मान – 2018 ( शिव सम्भव और बीएचयू, वाराणसी), साहित्य सारथी सम्मान - 14 सितम्बर, 1918 वाराणसी. सम्पर्क – तल मंज़िल, नीलकंठ, एन॰एस॰ रोड नं- ५, विलेपार्ले-पश्चिम, मुम्बई-४०००५६ / ‘मातरम’, 26- गोकुल नगर, कंचनपुर, डी.एल.डब्ल्यू., वाराणसी-221004 / मोबाइल - 09819722077 & 9422077006/  निवास – 05422300233 / ईमेल - satyadevtripathi@gmail.com

Book Review: Gandhi Aur Saraladevi Chaudhrani : Barah Adhyay


संत व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और बंगाल के अभिजात-वंश की कन्या, टैगोरजी की भांजी तथा पंजाब के बड़े सम्पादक-विद्वान-क्रांतिकारी पंडित रामभज चौधरी की पत्नी सरला देवी की प्रेम-कथा प्राय: विश्रुत है। इस पर इतिहास-विदों एवं साहित्यिकों ने बहुत कुछ लिखा है, जिससे सरला देवी की ख्याति गांधी की प्रेमिका के रूप में स्थापित-सी हो गयी है। 

लेकिन प्रसिद्ध कथाकार अलका सरावगी को सच ही लगा कि सरला देवी के व्यक्तित्व में बहुत कुछ ऐसा है, जो इस गांधी-प्रेमिका रूप के पीछे ओझल हुआ जा रहा है। निश्चितत: यह विचार नारी-विषयक उनके सोच की प्रेरणा से बावस्ता रहा है। अस्तु, 

अलका सरावगी ने सरला देवी के जीवन के गहन अध्ययन एवं तबील तैयारी के बाद एक औपन्यासिक कृति रची है — ‘गांधी और सरला देवी चौधरानी : बारह अध्याय’। इसमें उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन, उसमें महात्मा गांधी की केन्द्रीयता तथा उसके स्त्रीवादी पक्ष में सरला देवी की भूमिका के साथ दोनो के तीव्र व जटिल प्रेम-सम्बंधों का अविकल आकलन किया है…। लेखिका ने कृति विषयक एक साक्षात्कार में इस लेखन की अपनी प्रतिज्ञा व प्रेरणा का खुलासा भी किया है — 
“ऐसी प्रबुद्ध महिला के लिए सिर्फ़ यह कहकर बात ख़त्म कर देना कि गांधी उनके प्रेम में पड़ गये, उन्हें इतिहास के हाशिए पर फेंक देना है’ (‘नवभारत टाइम्स’ — ११फ़रवरी, २०२३)। 
इस प्रकार अलकाजी ने इतिहास को छू भर दिया और वहाँ हाशिए पर फेंकी महनीय स्त्री को साहित्य के ज़रिए मुख्य धारा में लाने का जैसे बीड़ा ही उठा लिया हो...। 

वैसे तो उपन्यास इतिहास नहीं, ऐतिहासिक कल्पना हुआ करते हैं, लेकिन यहाँ नाम-घटनाएँ सब वास्तविक हैं -— इतिहास की तरह। वह भी बहुत पुरानी नहीं, अतः अनजानी बिलकुल नहीं। लेकिन उनके साथ सलूक तो औपन्यासिक ही करना था। इतिहास की तरह करतीं (यदि कर भी पातीं), तो यह उपन्यास नहीं, इतिहास हो जाता। परंतु इतिहास का इतना खुला रूप देखकर इतिहासज्ञ चुप कैसे रहें...!! सो, वे लोग सवाल उसी तरह कर रहे हैं — गोया यह इतिहास क्यों नहीं है? इस तरह कृति के विवेचनों में साहित्य व इतिहास दोनो तरफ़ से अनुशासनों की लगभग अदला-बदली हुई जा रही है...। 

लेकिन गांधी जितने इतिहास के हैं, उतने ही सभ्यता-संस्कृति व अध्यात्म के भी। और सरला तो कलाकर पहले हुईं, राजनीतिक सक्रियतावादी बाद में। इधर अपुन तो इतिहास वाले हैं ही नहीं, साहित्यवादी भी नहीं हैं। हाँ, साहित्य के लुत्फ़वादी ज़रूर हैं, तो अपने लिए ये दोनो कृति के पात्र हैं — गांधी अपने समूचे गांधीत्व के साथ, सरला अपनी सक्रियता व बंग-आभिजात्य के साथ। लेकिन कह दूँ कि इस कृति को इतिहास व राजनीति की जानिब से देखना फिर भी आसान है। क्योंकि इतिहास में क्या है, कृति में क्या है और दोनो में भेद-अभेद कैसा है, कह के फिर भी निकल जाने लायक़ है। लेकिन एक साहित्यिक कृति के रूप में इसका विवेचन ख़ासा मुश्किल है, क्योंकि गांधी-सरला के बीच हुए प्रेम और उसके माध्यम से उस समय में हुए बहुत कुछ में से चयन की दृष्टि और उसे प्रस्तुत करने के विधान की संगति के साथ अद्भुत भाषिकता से समृद्ध यह रचना अपने कौशल में क्लासिक बन पड़ी है। आकुल-अफाट-अस्फुट संवेदनाओं, बहुरूपी जीवन मूल्यों से उठते विमर्शों, भिन्न-भिन्न अनुशासनों से आयत्त तर्कों तथा सबके गझिन विश्लेषणों से भरी यह कृति इतनी संश्लिष्ट है कि किसी भी विवेचन में सबकुछ को न समेटा जा सकता, न सबसे निपटा जा सकता। किताब की प्रतिज्ञा के अनुरूप यह आलेख भी इसी अनुशासन से लिखा जा रहा कि लेखिका की बात को एक परिप्रेक्ष्य दिया जा सके...साहित्य-इतिहास के द्वंद्वों को छोड़ कर उपन्यास रूप का लुत्फ़ लिया जा सके...।  



बात शुरू करें — अलका सरावगी की उसी प्रेरणा व प्रतिज्ञा से कि सरला जैसी प्रबुद्ध महिला को गांधी की प्रेमिका के रूप में क़ीलित करके बौना बना दिया गया...। लेकिन सच यह है कि इस कृति की चर्चा में भी प्रेम ही छाये जा रहा है। कहना मुश्किल हो रहा है कि कृति में प्रेम के लिए राष्ट्रीय आंदोलन का इस्तेमाल है या राष्ट्रीय आंदोलन का माध्यम भर है प्रेम — ‘को बड़ छोट क़हत अपराधू’। लेकिन सारे सूत्र जोड़ने-जुहाने पर लगता है कि गांधीजी की पहल तो आंदोलन की गरज से हुई, पर सरलाजी को देखते ही प्रेम में बदलने लगी...और जल्दी ही प्रेम अपने उरूज पर पहुँच गया। फिर प्रेम व आंदोलन गड्डमड्ड होने लगे — ‘गमे जानां व गमे दौरां’ साथ चल न सके। फिर कस्तूरबा की तरह सरला गँवई स्त्री व पत्नी तो हैं नहीं कि पति के ‘गमे दौरां’ के लिए ‘गमे जाना’ को क़ुर्बान कर दें...।   

यह सब पढ़ने के दौरान लेखिका के प्रेम व प्रबुद्धता की उधेड़बुन के लिए बचपन में पढ़ी संस्कृत की एक कहानी ज़ेहन में उभरी... 
“किसी राजा का एक बड़ा प्रिय हाथी जब मरणासन्न हो गया और राजा उसे मरते देख न सकता था, तो उसने हाथी को अपने राज्य के एक गाँव में इस आदेश के साथ भेज दिया कि रोज सुबह एक आदमी आकर इसका हाल मुझे बताये...लेकिन ‘हाथी मर गया’, बताने वाले को फाँसी दे दी जायेगी। सुनकर पूरा गाँव सन्न...। लेकिन राजा का हुक्म था और हाथी को एक दिन मरना ही था...। उस दिन एक ग्रामीण सहर्ष गया और हाल यूँ सुनाया — ‘राजन, हाथी आज न खाता है, न पीता है। न उठता है, बैठता है। न हिलता है, न डुलता है...यहाँ तक कि साँस भी नहीं ले रहा...’ इतने में आकुल राजा ने चिल्ल्लाकर पूछा — तो क्या हाथी मर गया? ग्रामीण ने कहा — हुज़ूर, यह तो आप ही कह सकते हैं, हम कहेंगे, तो फाँसी हो जायेगी’। और राजा ने उसकी वाक्चातुरी से प्रभावित होके उसे छोड़ दिया’ या कह लें कि इनाम भी दिया...।"

यही हाल इस उपन्यास का है। जैसे हाथी के हाल में मौत बोल उठती है, उसी प्रकार प्रबुद्धता बताने की सोद्देश्यता से लिखे उपन्यास की रग-रग (हर पत्र, हर प्रसंग) में प्रेम यूँ बोलता है कि फ़िराक़ साहब साकार होते हैं — ‘हज़ार रंग़ से मुझको तेरी खबर आयी’। और क्यों न हो, प्रेम है ही ऐसी शै कि जब रहता है, तो वही रहता है — दूसरे को आने देता नहीं — ‘प्रेम गली अति सांकरी, तो उपन्यास में एक अध्याय ही है, तो फिर ‘दूजो कोइ न समाय’। और लोकवृत्ति आज के प्रगत समय में भी ऐसी ही है कि प्रेम को ले उड़ती है — फिर वह यदि विवाहेतर हो, तब तो क्या कहने...? और यहाँ तो दोनो बड़ी उम्र के हैं और युग का सबसे लोकप्रिय व संत व्यक्तित्त्व भी शामिल है...!! इसलिए यह उपन्यास न आंदोलन का होता है, न गांधी का, न सरला का, बल्कि दोनो के प्रेम का ही हो जाता है। और तब हाथी वाले संदेश-वाहक की तरह अलकाजी भले न कहें, पूरा उपन्यास यही कह रहा है। यही रचना-प्रकृति भी है — ‘मैं अपने ही बेसुधपन में; लिखती हूँ कुछ, कुछ लिख जाती’। अस्तु, इस लेखन-कला के चातुर्य के लिए इन्हें भी बरी कर दिया जाना चाहिए — लोकप्रियता का इनाम तो मिल ही रहा है...। 

इस प्रेम के विषय में एक बात और कि पुस्तक की रोचकता कहें या पठनीयता या फिर कृति की रौनक...सब इसी प्रेम से ही है। अत: जो प्रबुद्धता व कर्मठता सरला में रही है, उसे अलग से ही लिखना होगा...। यहाँ भी इस रूप के कुछ प्रखर संकेत हुए हैं, जिसकी चर्चा भी यथास्थान होगी...। इस पक्ष पर अलग से लिखा हुआ काफ़ी कुछ मौजूद है भी — स्वयं सरलाजी की आत्मकथा भी है — ‘जीवनेर झरा पत्ता’। फिर भी सिर्फ़ एक साल चले गांधी-सरला के इस बारहमासी प्रेम की ख्याति के सामने सवाल है कि सरला के पूरे जीवन व कार्य पर लिखा हुआ सब सच व सार्थक होने के बावजूद पाठक के खाते में कितना गया? पर्याप्त गया होता, तो अलकाजी को सप्रयोजन व इरादतन यह उपन्यास क्यों लिखना पड़ता...!! बहरहाल,  

प्रेम पर उपराम न पाये, के इरादे से लिखे गये इस उपन्यास में उसी प्रेम के ‘बार अनेक भाँति बहु बरनी’ होकर छा जाने का मर्म उनके पत्राधारित विधान में निहित है। प्रेम व पत्र की संगति ‘जैसय रोगिया भावे, तैसय बैद बतावे’ वाली बनी है। इस तरह इसमें वह सब आता है, जो प्यार और सिर्फ़ प्यार में होता है — प्यार के सिवा ऐसा कहीं नहीं होता...मसलन एक दिन में गांधीजी तीन-तीन पत्र लिखते हैं...। फिर ऐसी उतावली प्रेम के कारण है, को ग़ालिब के मशहूर शेर से लेखिका सदर्थती भी हैं — ‘कासिद के आते-आते खत इक और लिख रखूँ, मैं जानता हूँ क्या वो लिखेंगे जवाब में’। याने गांधीजी ने इसे छिपाया नहीं। सरला ने बताया नहीं, तो तब रोका भी नहीं...। फिर अलकाजी कैसे छिपा सकती हैं!! और यह जग-ज़ाहिरपना भी इनके या सामान्य रूप से प्रेम मात्र की एक बड़ी ख़ासियत है — ‘ये बेबाक़ी नज़र की ये मुहब्बत की ढिठाई है’!! यही न होता, तो पता नहीं, फार्ब्स या अलकाजी लिखते या नहीं। याने सबका मूल, नियंता, कर्त्ता-धर्त्ता प्रेम ही है। यह तभी खुलकर लिख दिया जाता, तो बात दूसरी होती...। लेकिन इस गहन प्रेम को गुह्य बनाते हुए इसकी चर्चा न ही गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में की, न ही सरला ने, जिसके अपने कारण भी हैं। और अब जीवन पर लिखने में भी प्रेम ही खिल (खिला) रहा है...। 

अब कृति प्रेममय ही हो गयी है, तो रचना-वृत्ति से इसकी उत्पत्ति-फलित-अवसान के सोपान भी बने हैं। सो, इसमें निहित मर्म-कथाओँ की बात किंचित तफ़सील में... 

शुरुआत प्रथम-दर्शन से...सन् १९०० में गांधी ने सरला देवी को पहली बार ‘कलकत्ता अधिवेशन’ में अपना लिखा ‘नमो हिंदुस्तान’ गीत गाते सुना और ५० औरतों का नेत्तृत्व करते देखा, लेकिन मन में जो प्रथम छवि पैठी, वह इस कृति की गवाही में रूप की रही, जो प्रेम का प्रवेश-द्वार होता है — ‘लाल फाड़ की सफ़ेद साड़ी — खुले घने बाल’...। फिर आया ग़ुन भी — ‘कंठ में सरस्वती का वास’...। इसके १९ साल बाद २४ अक्तूबर, १९१९ को पहली भेंट होती है, जब सरला ४७ साल की हो गयी हैं और रामभज चौधरी की पत्नी बनकर बंगाल से पंजाब आ गयी हैं। जालियाँवाला बाग हत्याकांड के विरोध में हुई सजा के तहत जेल काट रहे पति के आमंत्रण पर ही गांधीजी उनके घर ठहरने आये हैं, तो सरलाजी के लिए ‘किसी वियोगिनी महिला के दुखों’ को साझा करने की धारणा मन में लिये हुए...। लेकिन इस दूसरी बार की प्रथम समक्षता में भी रूप पहले आता है — ‘सिल्क की सारी व गले में मोतियों की माला’...और इसमें गांधीजी को ‘१९ साल पहले वाले व्यक्तित्त्व की गरिमा नज़र में आ जाती है’। 

इधर सरलाजी भी अपने बारह साल के पुत्र दीपक के साथ उनके स्वागत में खड़ी होती हैं ...और तब के अपने गाये गीत का ज़िक्र गांधीजी से सुनकर हँसती हैं, तो उस हँसी में ‘मोतियों के बिखरने की ध्वनि चारो तरफ़ फैल गयी...गांधी ताज्जुब से भरे देखते-सुनते रह गये’...। फिर पहला वाक्य फूटा — ‘आपकी हँसी हिंदुस्तान की सम्पदा है’...क्या इस वाक्य में उनके प्रेम की उत्पत्ति की अनगूँज भी अनजाने-जाने ही शामिल नहीं हो गयी है...? 

इस तरह दोनो तरफ़ से कुछ अजगुत हुआ समान-सा — ‘गांधी ने किसी भारतीय औरत को ऐसी निर्झर-सी स्वच्छंद हँसी हंसते पहले कभी नहीं देखा था’ और इस सरल-सहज बेबाक़ी का असर सरला पर — ‘कभी उन्हें किसी ने ऐसा नहीं कहा...बचपन से आज तक ऐसी हँसी के लिए या तो टोका गया या नज़रों से रोका गया था...’। इस तरह एक अद्वितीयता बनायी गयी, जो दोनो को एक दूसरे में मिली और एकता में बदलती गयी...। प्रेम-डोर का छोर यूँ पकड़ाया कि ‘गांधी इस हँसी का स्रोत जानने को उत्सुक हो उठे...’ याने दर्शन से प्रेम का बीज पड़ा, हँसी से अंकुरित हुआ, अब संभाषण में पल्लवित, आगे व्यवहार में पुष्पित...और चल पड़ी प्रेम-कथा...। 



तुम्हारी हँसी हिंदुस्तान की धरोहर है’ की कमनीयता से ‘तुम शक्ति हो सरला’ जैसे विशेषणों के साथ प्रेम की शै में जब एक दूसरे की संज्ञा खोती है, तो सम्बोधनों में सर्वनाम-विशेषण बोलते हैं, जिनमें सरला के लिए ‘आप से तुम, तुम से तू’, फिर ‘डीयर से डीयरेस्ट’ व ‘सिस्टर’ तक की संकुलता गांधीजी के भावों में यूँ बहती है कि वे सरला को उनके पति व सारी दुनिया के सामने ‘बड़े भाई की तरह गले लगाकर चूम लें, तक की मंशा व्यक्त करते हैं...। सरला के होने में चाँद का दीदार और सुबह की नरम हवा भी महसूस करते हैं...। फिर ‘तुम्हारी आलोचना से मदद मिलती है — तुम्हारा संगीत टानिक है’, से आगे ‘आश्रम के दो दिनों के अनुभव से जान लिया है कि सेक्रेटरी के रूप में भी तुम बुरी नहीं हो, खाने-पीने का इतना ख़्याल रखती हो, मेरे शरीर की तुम्हे इतनी फ़िक्र है। अब तुम्हारे बिना मेरा काम नहीं चल सकता...’। सरला अभिभूत है इस आत्मनिवेदन से। इन सबसे अपने में जगते भावों को शब्द देना सरला के लिए मुश्किल है’। गांधीजी हर सुहानी जगह पर सरला के साथ के आकांक्षी होते हैं और सरला को जीवन में जो कुछ आनंद देता है, वह गांधी के साथ आनंद की चेतना से जुड़ जाता है। गांधीजी के ही मुताबिक़ ‘सरला के साथ मेरे सम्बंध को किसी परिभाषा में बांधा नहीं जा सकता’। ऐसे कथन-प्रसंग व वर्णन कृति में ढेरों-ढेर हैं, जो उपन्यास को कविता भी बना देते हैं...। इन सबसे गुजरते हुए लगता है कि गांधी का व्यक्तित्त्व कथनों-प्रभावों में तो उनकी ऐतिहासिक महानता का अहसास दिलाता है, लेकिन सरला के साथ प्रेम-साहचर्य में एक सामान्य प्रेमी का भी असर छोड़ता है। क्या ‘योगी सम योग़ीवान भी हो, प्रेमी सम प्रेमीवान भी हो’ के सीमांत का यह दायरा भी महात्मा का माहात्म्य ही है? ‘आध्यात्मिक पत्नी’ (जिस पर यहाँ दो अध्याय भी हैं) व ‘ब्रह्मचर्य के प्रयोग’ जैसे उनके रचे साधना-सूक्त हैं, जिनके चलते गांधीजी के ऐसे प्रेमी वाला रूप बहव: विदित है। मीराबेन का तो गांधी के प्रेम में विक्षिप्त हो जाना भी विश्रुत है। जीवन के अंतिम दिनों में वे गांधी का नाम तक नहीं सुनना चाहती थीं — ‘अतुल प्यार का अतुल घृणा में मैंने परिवर्तन देखा है’। इससे थोड़ा हट कर व्यावहारिक होते हुए यह उपन्यास दृष्टि-प्रस्तुति दोनो में एक महात्मा को प्रेम में ग़ुन-दोषमय मनुष्य की तरह भी देखता-दिखाता है। प्रेम की ऐसी बहुआयामिता के लिए ही ‘प्रेम को पंथ अनंत सर्प-सा, बाहर-भीतर पूँछ छिपाये’ कहा गया है, जो यहाँ दोनो के खुलने-जुड़ने की प्रक्रिया है और आगे जाके जूझने में परवान चढ़ती है। 

सरला की तरफ़ से भी इस प्रेम के स्फुटन-पल्लवन-रूपायन के बहुतेरे साक्ष्य कृति में जुहाये गये हैं...सरला रसोईं में इतनी व्यस्त जिंदगी में कभी नहीं रहीं। पहली बार किसी (गांधी) के लिए कुछ बनाने का ख़्याल आया। याने पति के लिए न आया, तो ज़ाहिर माना जा सकता है कि ऐसा प्यार पति से न था, जिसे शादी की स्थितियों में समझा भी जा सकता है। क्या यह सब भी गांधी के प्रति आकर्षण का कारण न बना होगा? ख़ैर..., बेटे के लिए भी खाना नौकरानी ही बनाती थी। इसीलिए तो अब सरला को रसोईं से निकलते देख सास को आश्चर्य हुआ। फिर गांधी के खाने-रहने की एक-एक छोटी-छोटी बात का ख़्याल रखने व सब उसी तरह जुटाने-जुहाने के उल्लेख हैं। और यह घर में अतिथि की ज़रूरत भर ही नहीं, बल्कि ‘लागी लगन’ के साक्ष्य यह भी कि बाहर वे किससे मिलते और मजलिसों में क्या-क्या बोलते हैं...आदि सब सरला सुनना चाहती हैं, याद रखती हैं...। उनके ज़रा सा बुलाने पर ‘तीर की तरह भाग के आने’ और बेटे दीपक के बुलाने पर भी न सुनने के उल्लेख समानांतर होकर व्यंजक हो जाते हैं। और सबसे अधिक गांधीमयता का मानक तो यह कि उनकी एक बार कही बात को सरला बार-बार सुनने को उत्सुक रहती हैं और हर बार उसमें नया अर्थ खोज लेती हैं...। 

लव्वोलुबाब यह कि दोनो तरफ़ से प्रेम के आसंग इतने हैं कि सब बताने में यह आलेख फिर वही उपन्यास बन जाएगा...। 

अतः अब यह कह दूँ कि कृति में प्रेम का पूरा वितान गढ़ने में कहीं अलकाजी भी उस प्रेम से मुतासिर तो नहीं हो गयी थीं!! वरना जिसे कमतर दिखाने के लिए लिखना शुरू किया था, उसी की इतनी तफ़सीलें न लातीं। लेकिन न लाना उनके इख़्तियार में न था, क्योंकि तफ़सीलें थीं — भले ऐसी ही न रही हों, जिस पर इतिहास बवाल इसलिए मचाता है कि प्रमाण ही उसका आधार है। लेकिन साहित्य का सच यह है कि ‘कहानियाँ कभी सच नहीं होतीं, लेकिन कहानियों से बड़ा सच कुछ नहीं होता’...। और अलकाजी के इस लिखे में यही सच सिद्ध हो गया है — सध गया है। साथ ही आज के व्यक्ति-स्वातंत्र्य के युग में स्त्री-अस्मिता की पक्षधर लेखिका को इस प्रेम से एतराज या इनकार भी नहीं। बस, सरलाजी के अन्य पक्षों के छूट जाने का रंज है, जिसके चलते उन्हें ‘जॉन ऑफ आर्क’ और ‘दुर्गा देवी का अवतार’ भी कहा गया है। उन्होंने आज़ादी पाने की तैयारी स्वरूप गली-गली में तलवार-लाठी-कुश्ती सीखने के क्लब खुलवा दिये थे। देश की आधी आबादी को आज़ादी आंदोलन से जोड़ने के काम को अंजाम दिया था..., जो सब इस प्रेम-चर्चा की शोहरत में छूटा जा रहा...। 



लेकिन छूटा तो यह प्रेम भी...और छूटने की चर्चा इस कृति में भी उसके होने से कम स्थान भले घेरती हो, लेकिन है ज्यादा महत्त्वपूर्ण। और छूटने की वजहें जो कृति में आयी हैं, वे इस प्रेम-कथा की पूरक नहीं, बल्कि प्रेम-कथा की इतनी हसीन-ज़हीन शुरुआत के बाद अपनी  शिद्दत में ज्यादा मानीखेज इसलिए बन जाती हैं कि वे शुरू से ही इसमें उसी तरह शामिल  रही हैं — जैसे हर विचार व सिद्धांत का प्रतिपक्ष उसी में समाहित होता है...। 

गांधी की तरफ़ से इस प्रेम-सम्बन्ध का वितान उनके व्यक्तित्त्व की मानिंद ही इतना बड़ा व बहुआयामी रहा है कि एक तरफ़ तो सरला के साथ न होने से बेहद रसीले आम भी फीके लगते हैं...सोके उठने पर बग़ल की खाट पर कोई नहीं, जिसे उठाएँ... और सरला के बिना सूर्योदय उतना अच्छा नहीं लगता, लेकिन उसे ऐसी महाशक्ति भी बनना है कि ‘मनसा-वाचा-कर्मणा भारत की दासी बनकर भारत को अपना दास बना लेना है’। अपेक्षाएँ इतनी ज़्यादा हैं कि हिंदी सीखें, सारी बातें हिंदी में करें। देवनागरी सीख़कर हिंदी में पत्र लिखें — रोज़ कई-कई पत्र लिखें। ख़िलाफ़त आंदोलन में भी जायें, चरखा भी कातें, महिलाओं का नेतृत्व करें, स्त्री-शक्ति से आंदोलन को समृद्ध करें... और पूर्ण स्त्री बनने के लिए अपने और घर के सारे काम भी खुद करें...। इसके साथ आध्यात्मिक पत्नी, पोलिटिकल फ़्रेंड, रूमानी प्रेयसी, भुनभुनाने के अधिकार में बहन भी बनी रहे। इन सबसे सरला को लगता है ‘एक जीवन में कई जिंदगियाँ एक साथ जीये...’ सो, इसी में तन-बिन कर अकुलाती सरला की चेतना ‘जंगल में अकेली भटकने, चौधरीजी को आवाज़ लगाने में गला फटने और ग़ुस्सा करती ठाकुरमणि के नदी में डूबने...जैसी त्रासद फ़ैंटेसियों में छटपटाती हुई त्राण खोजने लगती है...।   



इस बहुआयामी मंशा और विधान की सबसे बड़ी ख़ासियत और दोनो की ज़हनियत से बनी  औपन्यासिकता ऐसी कि जो सब गांधी-सरला के बीच हुआ...वह बाह्य जीवन में कम, मन में बहुत ज्यादा हुआ...और दोनो के पत्रों में सब का सब उतरा...। पत्र इतने कि उसे ‘पत्रों में प्रेम’ व इसे ‘पत्रों की कृति’ कहना भी अत्युक्ति न होगा। संरचना में ये पत्र माध्यम से ज्यादा विषय बन के ही उतरे हैं..., तो क्या खूब उतरे हैं...!! यहाँ भी गांधी की तरफ़ से काफ़ी खुल-खुल के उतरे हैं, लेकिन सरला की जानिब से अपेक्षाकृत कम-कम खुल के उतरे हैं, लेकिन मन में  ज्यादा होने को उजागर भी करते हैं...। हाँ, सरला में लिख-बोल के उतरने से ज्यादा, बल्कि पूरा, उतरा है — प्रेमी (गांधी) की बात मानने में, उसका कहा सब करने की भरसक कोशिश में...। इसके तहत उच्च कोटि के मलमल व सिल्क पहनने वाली सरला का हाथ से बनी खादी की मोटी साड़ी, भयंकर गर्मी में भी पहनने लगना प्रतीक रूप में नियोजित है, जो आंदोलन में स्त्री-नेतृत्व का हामी है और नारी समुदाय पर व्यापक व गहरा असर छोड़ता है। 

इस प्रकार सरला का यह मानना-करना जब तक चला...प्रेम-सम्बंध भी बदस्तूर चले...। उनकी इच्छा का चरम रहा कि सरला घर-बार छोड़कर आंदोलन में आ जाये — वह भी पति को साथ लेकर। यही बताता है कि आंदोलन के लिए प्रेम का उपयोग तो नहीं, पर आंदोलन के काम आ जाये प्रेम, यह तो है ही गांधी में, जो प्रेम को दोयम दर्जे पर रख देता है। उधर पति का गांधी के विचारों से अनकहा, पर स्पष्ट मतवैभिन्य है; लेकिन सरला अकेले ही आने का मन बना रही होती है। और सरला के छिपाने के बावजूद रामभज उसके मन की अवस्था और उसमें अपने पहले होने से तीसरे होने की स्थिति को भाँप रहे हैं, पर इस दुस्साहसी उद्यम (वेंचर) में वे अंत तक मौन हिस्सेदार ही बने रहते हैं, जो इन तीनो की इयत्ता को सुरक्षित रखता है...। यह सब जीवन में जितना हुआ (होगा), लेखन में उतना खुला नहीं (होगा)। सो, अब वह बात क्या करनी कि यह पक्ष खुलता — रामभज कुछ बोलते या करते, तो क्या होता...। उनके मौन के बल ही यह ‘पति-पत्नी और वह’ की सस्ती गलियों में जाने से बच गया। प्रेम को खुलने-बँधने-बंद होने के अवसर मिले — बात प्रेमी-प्रेमिका के विवेचन तक ही महदूद रही। 



यह सब इसी तरह चलता और शायद अंजाम तक पहुँचता भी, लेकिन इन आपसी अंतर्विरोधों में पलीता लगने का कारण दूसरा बना। वस्तुत: गांधीजी ने राजगोपालाचारी से इस प्रेम का सब कुछ साझा किया और यह सरला को बता भी दिया। फिर ज़वाब में आया चारीजी का पत्र  दिखा भी दिया। सरला को लगा कि खुद के बारे में ‘इतना अपमानजनक पत्र दुनिया में शायद ही किसी ने पढ़ा हो’!! मसलन, सरला ने शैतान बनकर गांधी के तप को नष्ट करना चाहा है और गांधी की दमित वासना उनके मन में सरला के प्रति प्रेम का भयानक भ्रम पैदा कर रही है...आदि-आदि। सरला जानती हैं ‘गांधी में प्रेम की अलौकिक अनुभूति जगाने का वह माध्यम हैं’, पर इस उदात्तता का ऐसा विद्रूप...!! फिर देश-हित की उसकी साधना...क्या उसका कोई मूल्य नहीं!! और यह सिर्फ़ उसका नहीं, उसके महनीय ख़ानदान का भी अपमान है...महर्षि देवेंद्र नाथ टैगोर, देश के एकमात्र नोबेल विज़ेता मामा, बंगला की पहली उपन्यास-लेखिका मां, कांग्रेस के संस्थापक सदस्य पिता एवं बड़े देशभक्त पति...। और ऐसी सरला के लिए इकतरफ़ा इतना कुछ गर्हित लिखने वाले से गांधीजी कुछ पूछेंगे नहीं, बस पत्र लिखेंगे — अपना सत्य समझायेंगे ...!! और जले पर नमक यह कि सरला को भी पत्र लिखने के लिए कहते हैं। इन कुत्सित आरोपों और गांधीजी के ऐसे ठंडे बर्ताव से सरला बेहद आहत...पर गांधीजी बिलकुल संयत...। यह वाक़या इतने आत्मिक सम्बंध के टूटने और इस रिश्ते में निहित तमाम अंतर्विरोधों के कुरेद उठने का मूल कारण बना।  

फलत: बहुत से सलूक जटिल व असह्य होते गये...। गांधीजी के सौतेले परनाती मथुरादास ने आश्रम के नियम को लेकर सरला के साथ बेज़ा बहस गांधी के सामने ही की और उन्होंने सीधे कह दिया — ‘हमारे सहयोगी हमसे बेहतर लोग हैं — उन्हें समझने की कोशिश करो’। ऐसी एकांगी निरपेक्षता खलनी ही थी, जबकि सरला ने गांधी की अनुपस्थिति में इन लोगों द्वारा आश्रम की बदहाली अपनी आँखों देखी थी...तो यह सरला के लिए अपने अस्तित्त्व की हेठी और स्वमान को निरस्त करने वाला लगना ही था। फिर ऐसी घटनाएँ आगे और भी होती रहीं, सबमें सरला के प्रति गांधी कठोर बनते रहे...सहज-उदात्त सम्बंध अजानी राहों में भटकता गया।  

उक्त व्यावहारिक अंतर्विरोधों के साथ सैद्धान्तिक विरोध भी मुखर हुए। अहिंसा व असहयोग जैसे गांधी के प्रमुख सिद्धांत बहस के घेरे में आ गये। धमकी के रूप में अहिंसा के प्रयोग को देश के तमाम रहनुमा हिंसा का रूप मानते थे, जो तर्क-सम्मत है। ख़िलाफ़त आंदोलन को लेकर अग्रणी नेताओं-विचारकों को मुस्लिम समुदाय पर भरोसा न था, जो तब भी बँटवारे में सही सिद्ध हुआ और आज तो ज़लज़ला बनकर सामने है। लेकिन गांधीजी सुनने तक को तैयार न थे। यही हाल असहयोग आंदोलन का भी था। इसके लिए देश तैयार नहीं है, तमाम शीर्षस्थ प्रतिनिधि ऐसा मानते थे। (इसमें जनता ने गांधीजी को सही सिद्ध किया)। 

इन बातों को लेकर सरला अपने को गांधीजी की ख़ास समझते हुए उनसे बहुत कुछ कहना अपना धर्म समझती थीं, लेकिन वे सही से बात तक करने को तैयार न होते। उन दिनों गांधीजी का व्यस्त रहना सरला को इरादतन न मिलने का सबब लगता...!! आख़िर आर्त्त होकर उसने अपने उसी शहर में बात करने के लिए मिलने बुलाया, जो वहीं से इस रिश्ते की सहज शुरुआत होने से प्रतीकात्मक भी था। वे आये भी, पर बात के लिए कोई समय नहीं निकाला, जो पुनः टालना ही नहीं, तिरस्कार भी लगना ही था...। 

इस दौरान के पत्रों में इन बातों को लेकर गांधीजी से अपने लिए ‘चिड़चिड़ी-झक्की’ के साथ ‘जटिल’ जैसे विशेषण भी पाके सरला सोचतीं — वह एक कलाकार है और जटिलता कला का वैशिष्ट्य होता है, जो यहाँ ख़ामी हो रहा है!! साफ़ हो गया कि प्रेमिका-कलाकार-व्यक्ति...किसी भी रूप में गांधी के लिए अब उसकी वह पहचान न रही...। तो कितनी उपेक्षा-अपमान बर्दाश्त किया जाये...— ‘आपे को, अपनी अस्मिता को गिराकर इंसान मरे हुए के समान है’। ठाकुर मणि के शब्दों ने भी अवश्य हिम्मत दी होगी — ‘दीदी, तुम बंकिमचंद्र की देवी चौधरानी हो, तुम्हें किसी की इतनी बातें क्यों सुननी — चाहे वह महात्मा ही क्यों न हो...? 

सो, अब फ़ैसले की घड़ी टल न सकती थी...। 

लेकिन इस मोड़ पर अलकाजी की सरला ने गांधीजी को जो लिखा, वह बेहद उल्लेख्य है — ‘मैंने जिंदगे के सारे सुख और ख़ुशियाँ एक पलड़े पर रखी, और दूसरे पर आप व आपके क़ानूनों को...और दूसरे को चुनने की बड़ी गलती कर डाली’...।  इसके बाद अंतिम संवाद के प्रयास में उक्त बातें कहने का माध्यम भी पत्र को ही चुनना पुनः प्रतीकात्मक रहा, जिसके उत्तर में गांधीजी ने लिखा — ‘उनकी जिस नेकदिली पर भरोसा करके सरला ने त्याग किये, अब यदि उन्हीं पर शक है, तो त्याग ही व्यर्थ साबित हो गये’। एक बड़ी बात यह कि ‘आध्यात्मिक पत्नी’ का नाम कभी गांधीजी ने ही दिया था, अब उसे ही सवाल बना दिया — ‘क्या तुम मेरी वैसी आध्यात्मिक पत्नी हो?’ इस आशय वाला उनका ‘अंतिम पत्र आया — अंतिम इस अर्थ में कि अब पत्रों में कुछ कहने की कोई जगह न बचेगी। यह बारहमासी प्रेम अब अपनी मियाद पूरी होने से सिर्फ़ स्मृति में रह जायेगा’...।  



स्मृति में रहना तो ऐसे प्रगाढ़ सम्बंध की प्रकृति है। लेकिन किताब का परिशिष्ट बताता है कि गाहे-ब-गाहे सरला ने स्थितियों व मुद्दों पर सुझाव साझा किये और गांधीजी ने भी सरला की बीमारी में इलाज के उपाय व कराने के प्रस्ताव भेजे। उनके प्रेम में अपने ब्रह्मचर्य के भंग होने की स्थिति एवं पहली बार व्यक्तिगत प्रेम का अनुभव सरला के साथ के ईमानदार ज़िक्र भी यत्र-तत्र किये...। दोनो का प्रेम एक दूसरे की संतानों की देख-रेख की अदला-बदली में भी प्रतिफलित हुआ था। बाद में सरला की इच्छा हुई कि बेटे दीपक की शादी इंदिरा (गांधी) से हो, तो उनके कहने पर गांधीजी ने नेहरूजी से बात की, जो नेहरू जी को न जँची। उधर अपनी चचेरी पोती राधा से दीपक के लगाव की बात गांधीजी को मालूम थी, जिसके लिए सरला राज़ी न थीं। तो इनकी शादी सरलाजी के अवसान के बाद हुई। कालांतर में गांधीजी ने अपनी किसी पालित बच्ची का नाम भी ‘सरला’ रखा — शायद उनकी स्मृति को ‘चिर’ करने के लिए। यह सब कुछ अतीत के भावों के अक्षय होने के प्रमाण हैं...। इसी के लिए पुस्तक में कहा गया है कि कभी-कभार ही सही, यह सम्बंध सैद्धांतिक स्तर पर चलता रहा...।  



और इसके बाद के जीवन में गांधी का अनवरत देश के लिए सेवा-कार्य करते रहना तो जग ज़ाहिर है...गांधी के अंतिम पत्र के बाद सरला का विश्वास भी व्यक्त हुआ है कि उसके पास ‘बहुत काम होंगे, क्योंकि न यह देश स्वतंत्र हुआ है, न देश की औरतें’...। लेकिन तुरत १९२२ में तो वानप्रस्थ लेकर सरलाजी के हिमालय जाने के उल्लेख हैं, जिसका कारण भी रहा — गांधी-सम्बंध से मिली मानसिक पीड़ा और गांधी के ही कारण पति से सम्बंधों में आ गयी दूरी। लेकिन पति की असाध्य बीमारी पर लौट आयीं और १९२३ में उनकी मृत्यु के बाद कलकत्ता जा बसीं। फिर पहले के कहे उन ‘बहुत कामों’ में लगीं भी..., जिनमें ‘भारती’ पत्रिका का पुनः सम्पादन — एक से एक अच्छे-प्रभावी अंक निकले...। स्त्रियों के लिए अलग कांग्रेस की माँग का उनका आंदोलन काफ़ी मशहूर हुआ और उसके पीछे का सोच भी बेहद ज़हीन था — ‘कांग्रेस औरतों को क़ानून भंग करने के लिए आगे रखता है, पर क़ानून बनाने की जगह से दूर — लॉ मेकर नहीं, लॉ ब्रेकर। इन तमाम कामों के चलते वे ‘आहिताग्निका’ के रूप में जानी गयीं...। लेकिन उपन्यास में इनके उल्लेख भर ही है, जो पुन: सरला की प्रबुद्धता...आदि की प्रतिज्ञा से मेल नहीं खाता...!!         



दृश्य रूप में तो गांधी-सरला के सम्बंधों के अथ-अस्तित्त्व-इति का ‘परिचय इतना, इतिहास यही, उमड़ी कल थी, मिट आज चली’ ही है, लेकिन अलकाजी के आकलनों व निहितार्थों से बनते विमर्श ज्यादा मानीखेज हैं। इसी में निहित है इस कृति की इयत्ता। सो, उनकी जानिब से... 

असल में प्रेम व आंदोलनी सरोकार का आलम यह कि गांधीजी ने प्रेम के उस सत्य को महसूस ही नहीं किया कि प्रेमी-प्रेमिका में एक दूसरे को जैसे हैं, उसी रूप में स्वीकारा जाना ही प्रेम का इष्ट होता है। गांधीजी प्रेम तो वैसा ही करते थे, पर सहयात्री को अपने सोच-सरोकार में ढालना चाहते थे, अपनी हर बात मनवाना चाहते थे — जैसे कस्तूर से मनवाया था। कहा ही है — ‘गांधीजी अपनी तरह गढ़ने के क़ायल और अम्बेडकरजी जस के तस शामिल करने के हामी रहे’। अतः उन्हें भान ही न हुआ कि बचपन से ही सरला का परिवेश बिलकुल अलग था। उनकी माँ ने भी कभी रसोईं नहीं बनायी, बच्चों की देख-भाल न की। ऐसे में अपना सारा काम अपने हाथों करके ही औरत पूर्ण हो सकती है, की थियरी ही सरला के लिए ग़ैर मुनासिब थी। फिर भी अपने संस्कारों को तोड़ने की कोशिश करते हुए गांधी का यह सबकुछ सरला न चाह के भी मानना चाहती थीं, न मान के भी करना चाहती थीं। और ऐसी कोशिश की कशिश को भी वे देख-जान न सके। प्रेमाचार व प्रेमाभिव्यक्ति के इस रूप को पहले ‘लिंगीय फ़ितरत’, फिर प्रगत समाज में ‘सामंती वृत्ति’ कहने लगा है, जो गांधीजी में संतत्व से परिचालित थी।  

सरला अपने को गांधी के अनुसार बदलने व रामभज से बिना कहे, उनके अनचाहे भी गांधी की बात मानने के लिए तैयार दिखती हैं, लेकिन गांधी पीछे हट जाते हैं...उन्होंने पहल की, तो सरला अनुवर्ती बनीं — दोनो में प्रेम के भाव बराबर की हैसियत के थे...लेकिन गांधी अपने को बदलने के लिए तैयार न थे। फिर शायद सरला के इतने बड़े बदलाव (पति-घर को छोड़ के आना) से डर भी गये हों — पुरुष कदम उठा लेने के बाद डरता है। स्त्री नहीं डरती, यदि ठान लेती है। लेकिन सरला के उस सीमा तक आने के पहले ही गांधी पीछे मुड़ गये — आंदोलनो के संदर्भ में कहे गये नरेंद्र शर्मा के शब्दों में ‘धार तक नैया चढ़ा के मोड़ देता हूँ’..., वाली नियति उनके प्रेम की भी हुई। शायद वे ‘इश्के जाना, इश्के दौराँ’ को साथ-साथ निभा न सकते थे...,तो फिर सरला को भी ‘न ययौ, न तस्थौ’ होना ही पड़ा...। जो बात किसी मित्र से कह सकते थे, पत्रों में लिख सकते थे, उसे करने में उतारने से हिचक गये — इस तरह आंदोलन के आग़ोश में जो प्रेम पनपा-बढ़ा, जब वह पूर्ण होकर आंदोलन को अपने आग़ोश में लेके आगे बढ़ाने के स्तर तक आने को हुआ, तो विमुख हो गये...!! क्या इसलिए कि असर उन पर भी पड़ता और आंदोलन पर भी...। सो, जोखम की चुनौती से हट गये। प्रेम अकाल काल-कवलित हुआ और आंदोलन सफल। क्या प्रेम के साथ आंदोलन सफ़ल न होता, पर यह साहस एक अदद प्रेमी करता है, ‘गांधी का ‘स्व’ देश के लिए तिरोहित हो चुका था’। और उनके बिना वह राह उस समय की सरलाओं के लिए अकेले सम्भव न थी — फिर जब मुकाबिल में आंदोलन हो...। 

इस प्रेम-प्रकरण व उसके परिणाम का एक रूप वही का वही भी है — एक आम विवाहित स्त्री सरला, जो प्रेमी (गांधी) की पहल व अपने भीतर हुए अंकुरण पर दबे पाँव चलना शुरू कर देती है। पति की जानतदारी में द्वंद्वों को झेलती-क़समसाती हुई आगे बढ़ती रहती है...। न तब पति से मुक्त होने की कोई कोशिश, न बाद में प्रेमी के अटीट्यूड से कोई मुखर विरोध...। और प्रेमी के विमुख हो जाने पर गलदश्रु होती है — ‘स्नानघर ही एकमात्र जगह है, जो मेरे आंसुओं को समेट लेता है’ और ‘अनंत प्रेम के वायदे की जगह सिर्फ़ नफ़रत व अहंकार दिखने’ का विवश उलाहना भर देती है। बाक़ी बस, चुप हो सकती है। इतिहास की इस होनी से लेखिका भी कीलित है। कुल मिलाकर यह सम्बंध भी पुरुष-रचित, उसी से संचालित व उसी द्वारा ख़त्म करने वाला भी — याने वही का वही पुरुष गांधी और वही की वही विवश स्त्री सरला। एक ने प्रेम को धता बताकर बचा लिया, तो दूसरे ने चुप्पी साधकर। यही सनातन स्थिति रही है प्रेम की — सबकी सीमाएँ, सबकी नियति — गांधी-सरला व प्रेम तीनो की...। 



अ मैन इन हिज़ स्टाइल’ के वजन पर इस कृति के लिए ‘अलकाजी : अ राइटर इन हर स्टाइल’ कहना बिलकुल फ़िट है। और इस कला का समृद्ध सोता उनके पहले उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाइपास’ से फूट पड़ा था। फ़िर तब से ‘शेष कादम्बरी’...आदि में कई-कई राहें खोजता-बनाता यहाँ कुछ एक नये आयाम लेकर प्रकट हुआ है। 

पहला अध्याय वह सिंह द्वार है, जो कृति-महल में शानदार प्रवेश तो कराता ही है, महल के उस पार तक का जायज़ा कराने में समर्थ बन पड़ा है। इसमें सरलादेवी के पूर्वज व उनकी विरासत, घर-बार व परिवेश तथा उसमें निहित-विहित बंगला की समृद्ध-मसृण संस्कृति के लहकते हुए संभार हैं। यह संस्कृति जिस क़रीने से, जिस मसर्रत से, जिस सधी योजना से, टैगोर-बंकिम की शीर्ष साहित्यिकता की जिस छौंक से, जिस प्रतीकात्मकता के साथ उकेरी गयी है कि बस, क्या कहने...!! इनसे सरला का पूरा जीवन पोषित-आलोकित है। इस जीवन-विकास को बड़े क़रीने से लेखिका ने ऐसा गुँथ दिया है कि उसी में रच उठा है सरला का व्यक्तित्त्व। दादी-परदादी की इयत्ता में अपने विश्वजनीन पति को घर में घुटने टेकने पर विवश कर देने वाली दृढ़ता है। मां की आम मातृत्व से रहित, पर ख़ास मातृत्व से पूरित आभा है। इन सबसे बाहरी तौर पर कटी-कटी रहती व अनटी दिखती हुई सरला किस तरह उसी में पिजी होकर बनी है...के रोचक-उपयोगी व ज्ञानदा वर्णनों से समृद्ध यह अध्याय अपनी स्वतंत्र निजता व अलग से पढ़े जाने की इयत्ता रखता है...पाठक को अपनी भीनी-भीनी महक से विभोर करता रहता है...। मुझे तो सबसे अधिक रोचक, बल्कि कहें कि लज़ीज़, बारम्बार पठनीय लगा। 

बारहमासी प्रेम पर बारह अध्यायों में लिखी इस कृति के नाम में ‘बारह अध्याय’ शब्द भी जोड़ देना...संख्यावाचक होने व मुखर हो जाने के बावजूद प्रखर आयाम बन पड़ा है। उपन्यास गांधी-सरला के पत्रों से भरा है। उन्हीं से बना है, उसी से बुना गया है। जैसे उपन्यास की प्राण-वायु प्रेम है, वैसे ही प्रेम की प्राण-वायु पत्रों में संचरित होती है। इनका प्रेम जनमता ज़रूर पहली नजर में है, लेकिन जीता-पलता-उपराम पाता पत्रों में ही है। ये पत्र किशोरवय के सतही प्रेम-पत्र नहीं, आकुल उद्गार हैं हृदय के...। पत्रों का रुक जाना ही प्रेम का रुक जाना है। यह जो घटित हुआ, वह बनी-बनायी कला ही तो था, जिसे अलकाजी ने परख कर ज्यों का त्यों उतार दिया है — ‘जस की तस धरि दीनी चदरिया’ का मानक। लेकिन बड़ा कमाल यह है कि पत्रों की इतनी सर्वत्र विराजमानता के बावजूद यह उपन्यास पत्र-शैली का नहीं बनता। यह सब शैली-कला या कला-शैली अपनी विधान-प्रक्रिया में जितनी कठिन, साधने में जितनी श्रम व प्रयत्न-साध्य रही होगी, अपनी बात को पहुँचाने में उतनी ही कामयाब हुई है। इसकी तासीर पाठक को अहसास करा पाती है कि बिना इस शैली के यह बात-कथा (दोनो की बतकही) कही ही नहीं जा सकती थी — शुरू ही उसी से हुई थी, अवसित भी हुई उसी में — ‘यहि’ मां उतपति ‘यहि’ मां बास’ और अवसान भी हुआ उसी में...। 

गांधी-सरला प्रेम सफल न हुआ, पर एक दूसरे के हारे-गाढ़े में कुछ कहने-करने की गुंजाइशें बनी रहीं और उस बारहमासी से आज भी मुतासिर सभी हो रहे हैं...। इस तरह प्रेम यदि सांसारिक कारणों से ही प्रचलित व लोकप्रिय हो रहा है और उसके मुक़ाबले लेखिका की चिंता में सरलाजी के सामाजिक योगदान महनीय रहे, पर उतने चर्चित नहीं हो रहे हैं, तो भी उनके विश्वप्रसिद्ध मामा के साक्ष्य पर ‘उसी नदी की तरह हैं, जो समुद्र से मिलने के लिए उमड़ी-बही, पर कहीं रेत में सूख गयी, किंतु उसका बहना निरर्थक तो नहीं’...!! 



GANDHI AUR SARALADEVI CHAUDHRANI : BARAH ADHYAY
Author: Alka Saravagi
Pages: 216
Year: 2023
Binding: Paperback
ISBN: 9789355188793
Language: Hindi
Publisher: Vani Prakashan

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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