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जीवन जीने की कथा कहता उपन्यास - अभिषेक मुखर्जी / समीक्षा: क़ैद बाहर (गीताश्री) | Review of Qaid Bahar (Geeta Shri)

विज्ञान में पीएचडी अभिषेक मुखर्जी ने गीताश्री के उपन्यास क़ैद बाहर (राजकमल प्रकाशन) की समीक्षा पूरे हृदय से लिखी और अच्छी हिन्दी से सजाई है। उन्हे और उपन्यासकार को बधाई! ~ सं० 


Review of Qaid Bahar (Geeta Shri)



गीतश्री का उपन्यास 'क़ैद बाहर' जीवन जीने की कथा कहता है

~ अभिषेक मुखर्जी

जन्म: २८ फरवरी, श्यामनगर (उत्तर २४ परगना), पश्चिम बंगाल/ प्रारम्भिक शिक्षा, कानपुर, उत्तर प्रदेश / स्नातक- प्राणिविज्ञान, स्नातकोत्तर- प्राणिविज्ञान, कल्याणी विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल; PhD: जैवप्रयुक्ति / कई पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित। मो 8902226567 

वन का पक्षी — "हे! पिंजरे के पक्षी, ज़रा वन के गीत तो गाओ?"
पिंजरे का पक्षी बोले — "हे वनपक्षी, तुम पिंजरे के गीत सीख लो"
वन का पक्षी — "आकाश गहन नील, कहीं कोई बाधा नहीं"
पिंजरे का पक्षी — "पिंजरा कितना सुविन्यास है, चारों ओर से घिरा हुआ"
वन का पक्षी — "उन्मुक्त करो अपने को एक बार मेघों के बीच"
पिंजरे का पक्षी — "हाय! पर मेघों के बीच, कहाँ है बैठने का स्थान?"
दुइ पाखी (दो पक्षी ) — रवीन्द्रनाथ ठाकुर 

गीताश्री के इस उपन्यास को पढ़कर मन सलिल में सहसा ही कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की यह पंक्तियाँ तैरने लगी। यह पंक्तियाँ इस उपन्यास की कथावस्तु और उद्देश्य के लिए पूर्णतः उपयुक्त है। 

भारतीय स्त्रियाँ आज भी प्राचीन परम्पराओं और रूढ़ियों के पिंजरे में आबद्ध है। हाँ, इन चहारदीवारी की क़ैद में उसका एक अपना अँधेरा निरापद कोना अवश्य है, एक निरापद आश्रय। अब निश्चय स्त्री को ही करना है, कि वह इस निरापद पिंजरे में आबद्ध हो पिंजरे के गीत ही गाना चाहती है या शृंखलामुक्त हो विस्तृत आकाश में स्वच्छन्द विचरण करना चाहती है, अपने सपनों को साकार करना चाहती हैं। अपना मुक्तिपथ उसे स्वयं चुनना है। 

इस तथाकथित पिंजर रूपी निरापद आश्रय को तोड़, शृंखलाओं को काट, अपक्षय होती पुरातन कुप्रथाओं के प्राचीर को ध्वस्त कर उन्मुक्त नीलाभ गगन में अपने पक्षों को प्रसारित कर उड़ने को तत्पर, सज्ज और पूर्णतः प्रस्तुत स्वाधीनचेता स्त्रियों की कथा है — "कैद बहार"। 

माया, मालविका, शशांक की माँ, डिलाइला, सिन्दूरी, संचिता आदि के माध्यम से लेखिका ने स्त्रियों को परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़ते दिखाया है, उनके अंतर्बाह्य संघर्षों को वाणी प्रदान की है। क़ैद से बाहर निकल, स्वच्छंद जीवन यापन करने का मार्ग बिल्कुल भी सुगम सरल नहीं है, अपितु अतिकंटकाकीर्ण है, अवरोधों से भरा हुआ। स्त्री को समाज से, अपने परिवार से यहाँ तक कि अपने आप से भी लड़ना पड़ता है, क्योंकि वर्षों की दकियानूसी, जर्जर कुप्रथाओं ने उसके अन्तर को घेर रखा है, सदियों से वह पुरुष आश्रयी रही हैं अतः उन्मुक्त आकाश में अपने पंख फैलाने के लिए आवश्यक है स्त्री की आर्थिक स्वनिर्भरता। जब तक स्त्री आर्थिक रूप से स्वाधीन न होगी, जब तक वह अपनी ज़रूरतों के लिए पुरुष की मुखापेक्षी बनी रहेगी, तब तक वह पिंजरे की क़ैद से पूर्ण रूप से बाहर नहीं आ पाएगी। स्त्री जबतक सीमन्तिनी बना कर रखी जाती है तब तक वर्जनाओं पर अमल करती है। जब वह अकेले अपने श्रमसींकर का स्वाद चख लेती है फिर बाँधी नहीं जा सकती है। 

माया, मालविका, डिलाइला, सिन्दूरी, संचिता, कस्तूरी — ये सभी आर्थिक रूप से स्वनिर्भर हैं, ...वे अपनी क़ाबिलियत के बलबूते पर नौकरी करती हैं, परिश्रम कर धन उपार्जन करती हैं। ये सभी समाज के विरुद्ध तो लड़ी ही, साथ ही साथ अपने भीतर की दुर्बलताओं के विरुद्ध भी क्रमागत संघर्षरत रहीं। 

पिंजरे को तोड़, सुविस्तृत नीलाकाश में वन पक्षी समान उड़ने के लिए साहस, भीषण जीजिविषा और आत्मविश्वास की आवश्यकता है। 

माया पत्रकार है, जिसे 'फील्ड रिपोर्टिंग की सनक 'है, 'ऑन दी स्पॉट 'जाकर रिपोर्ट करना उसे अत्यंत प्रिय है। वह दिल्ली में नौकरी करती है। रूढ़ियों को तोड़ते हुए उसने अपने प्रेमी, नीरज, के साथ ही रहने का निर्णय किया। कुछ वर्षों तक दोनों साथ रहे भी परन्तु शनैः शनैः उनके इस 'लिव इन' सम्बन्ध ने भी विवाह का अदृश्य चोला पहन ही लिया और दोनों ओर से आशा-प्रत्याशाओं की सूची दीर्घ होती गई। माया ने अनुभव किया कि वह एक अदृश्य क़ैद के घेरे में फँसती जा रही है, उसकी स्वाधीनता खर्व हो रही है। नीरज भी धीरे-धीरे "पति" में परिवर्तित हो रहा था। माया ठहरी पत्रकार, अतः आए दिन उसे बाहर जाना ही पड़ता साथ ही वृद्ध, बीमार माता-पिता का दायित्व भी था। नीरज के निषेधों के कारण वह जकड़ती जा रही थी, उसके स्वाधीनचेता अन्तर्मन के लिए स्थिति असहनीय बनती जा रही थी। अंततः माया ने अपने को इस रिश्ते की क़ैद से आज़ाद कर ही लिया। नीरज से विच्छेद हो गया। माया के लिए यह बहुत कठिन था, वह भीतर से टूटी भी परन्तु बिखरी नहीं। उत्कट जीजिविषा और आत्मविश्वास के कारण वह अपने को नवीन रूप में पुनः गढ़ने में सक्षम हुई। ऐसा नहीं कि माया को नीरज से प्रेम नहीं था, या वह प्रेम और विवाह को महत्वहीन समझती है परन्तु वह अपनी स्वाधीन सत्ता की बलि नहीं देना चाहती थी,  अपने सपनों को नष्ट नहीं करना चाहती थी। 

या तो मैं अपने सपने के साथ जी सकती थी, या मुझे उसके पीछे-पीछे चलना पड़ता. (क़ैद बाहर, पृष्ठ 69)

लेखिका ने बहुत ही विलक्षणता से इस प्रसंग को दर्शाया है। प्रेम मुक्ति का द्योतक है, मुक्तिपथ को आलोकित करता है। प्रेम बन्धन नहीं है परन्तु शायद हमारी सामाजिक व्यवस्था ही ऐसी है कि वास्तविक और व्यावहारिक जीवन में प्रेम का यह स्वरूप अगम अगोचर ही रहता है। प्रेम में प्रायः ही एक दूसरे को अपना बनाने की होड़ लगी रहती है — 'यह मेरा है' या 'यह मेरी है' की भावना प्रबल रहती है। यह होड़ जन्म देती है एक दूसरे को नियंत्रित, और एक दूसरे पर अपना आधिपत्य स्थापित करने की भावना को । 

प्रायः प्रेमी युगल को ऐसी निकटता की कामना होती है कि दो व्यक्तियों के मध्य श्वास लेने की भी जगह न बचे। एक दूसरे को सम्पूर्ण रूप से पाने की चाह में धीरे-धीरे प्रेम ही दम तोड़ने लगता है और तब व्यक्ति मुक्त होने के लिए छटपटाता है। 

दरअसल, हमारी पीढ़ी के अधिकांश प्रतिनिधियों ने ही बचपन से अपने परिवार में स्त्रियों (माँ, चाची, ताई, दादी, नानी, बुआ, मौसी आदि) का एक समान ही रूप देखा है। सहिष्णु, गृहकार्य में निपुण, घर, बच्चे और परिवार की देखभाल करने वाली। उनकी सम्पूर्ण सत्ता गृह तक सीमित थी, कक्ष के वातायन से आँगन तक और आँगन से सिंहद्वार तक। स्त्री की यही छवि सबके मानसपटल पर बस चुकी है। अपनी प्रेमिका या पत्नी में भी हम वही चिर पुरातन रूप देखना चाहते हैं। इसलिए स्त्रियों का बाहर जाकर नौकरी करने पर अब भी इतने निषेध हैं। पर आशा है कि आने वाली पीढ़ियों में स्पष्ट बदलाव नज़र आएगा क्योंकि अब परिस्थितियाँ द्रुत बदल रही है। घोर अर्थवाद के इस युग में अधिक से अधिक उपार्जन की आवश्यकता है। स्त्री पुरुष दोनों को ही उपार्जन हेतु बाहर निकलना ही पड़ेगा। 

लेखिका ने विवाह के सामाजिक महत्व को अवश्य स्वीकार किया है परन्तु विवाह को धर्म के साथ जोड़ना, इसे 'सात जन्मों का सम्बंध', 'राम सीता की जोड़ी', 'उमाशंकर की जोड़ी' आदि का नाम देना कदापि उचित नहीं। इससे इस सामाजिक प्रथा की सहजता और उद्देश्य को क्षति पहुँचती है। धर्म की आड़ में ही अदृश्य पिंजरे का निर्माण होता है। विवाह यदि सफल न हो, सम्बन्धों में कटुता बढ़ने लगे, तब भी इस विवाह रूपी क़ैद से निकलना आसान नहीं होता है — क़ानूनी तौर पर नहीं, पर सामाजिक मान्यताओं और नियम-नीति के चलते। 

हाँ, मन में एक प्रश्न अवश्य सर उठाता है कि क्या फिर समर्पण का कोई अर्थ नहीं? समर्पण ही तो प्रेम का प्रतीक है। पर यह भी सत्य है कि समर्पण की भावना दोनों ओर ही रहनी चाहिए, कोई एक ही आजीवन त्याग आर समर्पण करता रहे, यह अन्याय है। और यह समर्पण भी कैसा जब अपने अस्तित्व को ही भुलाना पड़े, अपनी इच्छाओं को भी अपने साथी या प्रेमी के उद्देश्य की पूर्ति हेतु न्योछावर करना पड़े? आज के अत्याधुनिक युग में शायद कई लोग इसे आत्महनन कहें तो कई इसे प्रेम का चरमोत्कर्ष परन्तु सत्य तो यही है कि सबकी प्रवृत्ति और प्रकृति भिन्न हती है, कुछ समर्पण में ही सुख की अनुभूति करते हैं तो कुछ स्वाधीनचेता बने रहकर ही जीवन की पूर्ण उपलब्धि करते हैं, अतः यदि किसी को निःस्वार्थ समर्पण आत्महनन सा लगे या ऐसा करते हुए अपना जीवन उद्देश्यहीन सा लगे तो उसे अवश्य ही इस पथ पर आगे नहीं बढ़ना चाहिए — और इसे उसकी दुर्बलता या चारित्रिक पतन कहना सर्वथा अनुचित होगा क्योंकि सभी हाड़-मांस के बने हुए हैं, कोई निर्जीव पाषाण थोड़े ही है। 

माया के माध्यम से लेखिका ने प्रेम विवाह में धर्मांतरण जैसे विषय पर भी अपना मत स्पष्ट किया है। गोवा के किसी नामी होटल की बार डान्सर, डिलाइला, एक धनवान युवक, विशाल से प्रेम विवाह करती है। डिलाइला अपना धर्म परिवर्तन करती है और उन दोनों का विवाह हिन्दुमतानुसार सम्पन्न होता है। माया, डिलाइला की सहेली और शुभाकांक्षी इस प्रसंग पर अपनी आपत्ति जताती है। 

मनुष्य को धर्म की ज़रूरत क्यों होती है, हमें उन पर सोचना चाहिए। जिसे धर्म चाहिए, वो रखे। उसे क्यों चाहिए प्रेम के रास्ते में धर्म की उपस्थिति? (क़ैद बाहर, पृष्ठ 205)

सच ही तो है, कि प्रेम ही श्रेष्ठ धर्म है। उससे बड़ा क्या?दोनों ही निज धर्म का पालन करते हुए एक दूसरे के साथ सुखपूर्वक रह सकते हैं। धर्मांतरण अनावश्यक है। 

मालविका की कहानी बहुत मार्मिक पर प्रेरणादायक है। बचपन से ही अपने परिवार में बेटे और बेटियों के मध्य होते भेदाभेद को देखते हुई बड़ी हुई मालविका ने कई बाधाओं को पार कर अपनी बी.ए की पढ़ाई पूरी की। आर्थिक कारणों से आगे पढ़ना असंभव जानकर उसने शहर में नौकरी कर ली। शहर में वह एक सम्पन्न और सफेदपोश नौकरी वाले युवक से मिली। माता पिता के दबाव में मालविका ने उस युवक से विवाह कर लिया। विवाहोपरान्त वह घरेलू हिंसा का शिकार होती है। उसकी नौकरी करने पर भी निषेध लग गया। कुछ वर्षों तक तो उसने सभी अत्याचार सहन कर लिया केवल अपने बच्चों के लिए परंतु अंततः वह भी पिंजरा तोड़ कर कैद से बाहर निकल ही आई। उसके बच्चे उसके साथ आने से अस्वीकार करते हैं, फिर भी वह अपने निर्णय पर स्थिर रहती है। दिल्ली आकर वह माया से मिलती है, अपने लिए नौकरी ढूँढती है और जीवन को एक नई दिशा की ओर ले जाने में सक्षम होती है। प्रेम में छली गई, यातनाएँ झेली, पर उसकी प्राणशक्ति म्लान न हुई, मानवता और प्रेम पर से उसका विश्वास न उठा। पैंतीस वर्ष की आयु में भी उसने अपने जीवन में प्रेम को प्रवेश करने दिया, अपने से छोटे आयु के कश्मीरी मुस्लिम युवक, फ़ैज़ के रूप में। यह पथ मालविका के लिए बहुत कठिन था, अंतर्बाह्य संघर्षों से जूझती, कई बाधाओं को झेलती, अपने परिवार, मातापिता का भी साथ न मिला। 

मालविका को ठहाके लगाते देखकर माया चकित थी। कैसे यह लड़की इतने दुःख में भी हँस लेती है, मेट्रो में मस्ती करती है और पब्लिक को उससे जोड़ लेती है....(क़ैद बाहर, पृष्ठ 66)

दूसरी ओर, लेखिका ने माया की भाभियों की जीवन शैली, उनकी मानसिकता को भी दर्शाया है। वे अपने घर परिवार, पति बच्चों के साथ चहारदीवारी में संतुष्ट है, प्रसन्न है। उन्हें मुक्ति की कामना नहीं, क्योंकि उनकी महत्वाकांक्षाएँ अत्यंत सीमित है। उन्हें यह चहारदीवारी का अदृश्य क़ैद, पिंजरे की अनुभूति नहीं देता है, वे वन के गीत नहीं गाना चाहती हैं। कविगुरु की कविता के पिंजरबद्ध पक्षी के समान वे कहतीं — 

हम लोग इसी में खुश है। जिस हाल में पति रखता है, वही ठीक है। हर काम के लिए पति है न? डॉक्टर के पास जाने से लेकर सब्जी लाने तक......हम लोग रहेंगे हमेशा मिसेज़ सिंह, मिसेज़ शर्मा, मिसेज़ गुप्ता। (क़ैद बाहर, पृष्ठ ६५) 

ऐसा नहीं है कि ये सब मिथ्याभाषिणी हैं। वे दुःखी इसलिए नहीं हैं क्योंकि उन्हें स्वाधीनता चाहिए ही नहीं। 

जीवन अपना है, इसे कैसे जीना है किस प्रकार निर्वाह करना है यह पूर्णतया व्यक्तिगत है। लेखिका ने दोनों पक्षों की मनःस्तिथि को अच्छे से दर्शाया है। 

जैसे पैंसठ वर्षीया, शशांक की माँ, जीवन की साँझ बेला में मुक्ति की कामना करती है। अपने पति, गाँव का हवेलीनुमा घर-आँगन छोड़ कर वह अपने पुत्र के पास शहर आ जाती है। शशांक की माता अपने ज़माने की पढ़ी लिखी स्त्री है, अंग्रेजी भाषा का भी ज्ञान है अतः विवाह के बाद गाँववाले अपनी चिट्ठी-पत्री, विभिन्न समस्याएँ लेकर प्रायः ही उनके शरणापन्न होते परन्तु उनके पति को यह अस्वीकार था। उन्होंने अपनी पत्नी को सदैव ही हवेली के अन्तरमहल तक ही सीमित रखना चाहा। शशांक की माँ भी हवेली रूपी पिंजरे में क़ैद होती चली गई। हाँ, उसे एक निरापद आश्रय अवश्य प्राप्त हुआ और साथ ही साथ प्राप्त हुआ 'मालकिन', 'गृहस्वामिनी' की पदवी। परंतु आयु के इस पड़ाव पर उनसे और सहा न गया, वह इस छल को, इस षड्यंत्र को भली भाँति समझ गई और विद्रोह पर उतर आई। 

"हमने सारी पढ़ाई लिखाई झोंक दी स्टेट बचाने में, मालकिन बनने में... कहाँ पता था कि हम शोषण करवा रहे हैं और हमें पता ही नहीं अपनी ग़ुलामी का ....कितनी महीन साजिश है न?"

वह, शशांक और माया के साथ ऋषिकेश भी गई, तीनों ने मिलकर भविष्य की कई परियोजनाएं भी निर्मित की। शशांक और माया की निकटता से उनको सुखानुभूति होती परन्तु वह शायद पूर्ण रूप से पिंजरे की क़ैद से मुक्त नहीं हो पाई थी। स्वर्णिम, सुविन्यास पिंजरे का मोह भी तो कुछ कम नहीं ... विशाल हवेली की गृहस्वामिनी, गाँव भर की मालकिन......सब कुछ त्यागना क्या इतना आसान है? किसी पारिवारिक अनुष्ठान के कारण वह गाँव वापस चली गई, परन्तु पुनः लौटने की प्रतिश्रुति देकर। 

पैंतालीस वर्षीया चित्रकारा, सुनन्दा सुमन सिंह भी इस पिंजरे की क़ैद से बाहर निकलने को आकुल है। माया ही उसका माध्यम बनती है। सुनन्दा के पति ही उसकी प्रतिभा के विकास में सबसे बड़े बाधक है परन्तु सुनन्दा भी शायद पूर्ण रूप से पिंजरे को तोड़, पंख फैलाकर उड़ने के लिए मानसिक रूप से प्रस्तुत नहीं है। वह अपने पति को छोड़ नहीं पाती है। अतः उसने मध्यम मार्ग का चुनाव किया। पति से सम्बन्ध विच्छेद तो नहीं किया पर एक प्रकार से वह अपने पति के प्रति निर्विकार सी हो गई। अपने भीतर ही उसने अपनी मुक्ति का मार्ग खोजा। 

यद्यपि यह पुस्तक मूलतः स्त्री विमर्श पर ही आधारित है, आज के युग की स्त्रियों की संघर्षगाथा है, फिर भी लेखिका ने कई शहरों के कुछ छोटे मोटे संक्षिप्त प्रसंग और घटनाएं जोड़ कर इसकी गतिशीलता, रोचकता, पठनीयता और ग्रहणयोग्यता को कई गुना बढ़ा दिया है। 

ऐसा ही एक संक्षिप्त पर अतिमहत्त्वपूर्ण प्रसंग है मालविका का श्रीनगर प्रवास। 

अपने एकाकीपन और दुःखों से लड़ती, घायल और त्रस्त मालविका ने अपने प्रेमी फ़ैज़, जो उस समय कुछ दिनों का अवकाश लेकर अपने गाँव गया हुआ था, के घर जाने की ठान ली। श्रीनगर से कुछ दूर पम्पोर गाँव। फ़ैज़ के घर में सबने उसका स्वागत किया। मुसलमान परिवार ने एक हिन्दू ब्राह्मण स्त्री को पूर्ण रूप से अपना लिया परन्तु वहाँ दहशत और आतंक का माहौल देख कर मालविका हतप्रभ रह गई। फ़ैज़ के भाइयों के माध्यम से लेखिका ने काश्मीर की वास्तविक छवि को प्रस्तुत किया है। 

हमने तो आतंक के साए में ही आँखें खोली, हमने अमन चैन कहाँ देखा? हमें लगता है, इसी में मर जाएँगे। ....हमने दहशत इतनी देखी कि आप सोच सोच भी नहीं सकतीं। यहां के युवाओं से करिए न, वे बताएँगे कि दहशत से डरकर हम दहशतगर्द बन जाते हैं। हममें इतना गुस्सा है कि कौन न हथियार उठा ले

सच में, लेखिका का यह अत्यंत ही साहसिक पदक्षेप है। 

क्या ये पाकिस्तानी हैं?" और — "नहीं ये हमारे लोग है" (क़ैद बाहर, पृष्ठ 138)
.... इस संक्षिप्त प्रश्नोत्तरी में बहुत गहरी बात छुपी है। 

ऋषिकेश में, माया और महन्त जी के मध्य हुए कथोपकथन भी उल्लेखनीय है। आज की संघर्षरत स्त्रियाँ अपने निजी जीवन में इतनी भी उलझी नहीं है कि उन्हें देश की वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्तिथि का कोई आभास ही न हो। "जय श्री राम" के नारे के राजनीतिकरण से माया भली भाँति परिचित है, इस नारे से जुड़ी राजनीतिक दुरभिसंधियों से वह अनभिज्ञ नहीं। तभी तो वह महंत जी से कहती है- 

आगे से आप मुझे जय सिया राम बोलकर ही अभिवादन करेंगे और मैं भी। मुझे डर लगता है इस नारे से ...मुझे किसी भी धार्मिक नारे से डर लगता है, जिसमें हिंसा और आतंक की गुंजाइश हो। मैं बहुत राजनीतिक नहीं हूँ, लेकिन अपने समय के आतंक को पहचानती हूँ। (क़ैद बाहर, पृष्ठ 118)

लेखिका ने, इस उपन्यास में, नागरिक संशोधन कानून के विरुद्ध, शाहीन बाग में, मुस्लिम महिलाओं के आन्दोलन का भी उल्लेख किया है। चाहे किसी भी राजनीतिक दल या पन्थ के प्रति झुकाव क्यों न हो, इस बात को स्वीकार करना ही पड़ेगा कि इस आन्दोलन ने सिद्ध किया कि महिलाएं अपने बल बूते पर ही एक विशाल आन्दोलन का संचालन कर सकती है। माया, कस्तूरी और मालविका उस द्वयशीति वर्षीया बिलक़ीस बानो से मिली भी, जिसने यह प्रमाण कर दिया था कि क्रान्ति किसी भी आयु में हो सकती है। 

लेखिका ने महर्षि च्यवन और सुकन्या की पौराणिक कथा का भी उल्लेख किया है जो प्रासंगिक भी लगा और इससे पाठक वर्ग को विविधता भी मिलती है। अहल्या, सीता, कुन्ती, शकुन्तला, माधवी, द्रौपदी — इन सबकी व्यथाकथा क्या आज भी प्रासंगिक नहीं है? धर्म और शास्त्रों के जटिल विधि-विधानों ने सर्वदा स्त्री जाति को ही अधिक जकड़ा है, बाँधा है। यह अदृश्य पाश बहुत शक्तिशाली है। पर कालचक्र द्रुतगति से घूम रहा है, समय बदल रहा है। आज, माया, मालविका जैसी स्त्रियाँ पाषाणी, वातभक्षा अहल्या समान नहीं रही। वे आत्मस्थ हो चुकी हैं। दुःख क्षणिक है, वे समझ चुकी हैं। अहल्या की भाँति वे अपने दुःख को लेकर नहीं जीती हैं। 

दो संतानों की माँ होते हुए भी मालविका ने फ़ैज़ से प्रेम किया, वह उसके साथ रहना भी चाहती है। वह जानती है, लड़ाई लंबी है....कानूनी लड़ाई भी लड़नी है पर वह दृढ़ है, प्रस्तुत है। 

सिन्दूरी और संचिता का संघर्ष शायद सबसे कठिन है क्योंकि वे समलैंगिक है। सिन्दूरी गोरखपुर के एक अनुदार रूढ़िवादी परिवार की बेटी है। हमारे समाज को तो स्त्री पुरुष की मित्रता ही संदेहास्पद लगती है तब समलैंगिक सम्पर्कों को कैसे मान्यता दे? सिन्दूरी घर से भाग जाती है। अपनी लड़ाई स्वयं लड़ती है, नौकरी कर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनती है। उसके परिवार वाले उसे ढूँढ ही लेते हैं और जबरन ले जाते हैं अपने साथ। असाधारण प्राणशक्ति और साहस से भरी सिन्दूरी पुनः घर से भागने में सफल होती है। वह मुम्बई चली जाती है। संचिता भी उसका साथ देती है। 

कितने आश्चर्य की बात है कि जब समाज का अधिकांश ही समलैंगिक सम्बन्धों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, इसे एक रोग समझते हैं, वहाँ पैंसठ वर्षीया शशांक की माँ सिन्दूरी और संचिता का साथ देती है। 

डिलाइला की मृत्यु का समाचार सुन माया गोवा जाती है। अपनी मृत सहेली की कब्र पर वह केवल अश्रुधारा ही नहीं बहाती, अपितु उसके घर जाकर उसके बच्चों से मिली, उनके साथ रही भी। फिर, डिलाइला के पति, विशाल, को खोज सर्वसमक्ष उसे जोर से दो थप्पड़ भी मारती है। शशांक की सहायता से विशाल बांडेकर के अवैध खनन व्यवसाय का दीवाला निकाल देती है। मानो वह अपनी सहेली का बदला ले रही हो। जिस विशाल के लिए डिलाइला ने अपना धर्म त्यागा, डिलाइला से जया बांडेकर बन गई उसी विशाल ने उसको त्याग दिया। डिलाइला भी अपूर्व प्राणशक्ति से परिपूर्ण थी। एक पुरुष द्वारा छली जाने पर भी उसका प्रेम पर से विश्वास न उठा। उसने पुनः प्रेम किया था — श्रीकांत से। गोवा में ही दूसरों को नृत्य सिखाकर उपार्जन करती डिलाइला, एक दिन नाचते-नाचते ही सहसा गिर पड़ी और मृत्यु ने ही उसे उसके सभी दुःख कष्टों से मुक्ति दिलाई । 

लेखिका ने समाज के हर भाग को, हर वर्ग को अपनी इस नवीन रचना में दर्शाया है। माया की गृह परिचारिका पूजा और और उसकी पड़ोसी की बेटी बाला की कहानी भी उल्लिखित है। 

उपन्यास का अन्त कोविड महामारी के बढ़ते प्रकोप और देश भर में होने वाले लॉक डाउन की ओर इंगित अवश्य करता है पर फिर भी आशा की एक क्षीण किरण स्पष्ट दिखाई पड़ती है — माया और शशांक की बढ़ती निकटता। 

शशांक फोन पर माया से कहता है — 
माया, होली, और ऋषिकेश प्रोजेक्ट फ़िलहाल सब ख़त्म .....लेकिन किसी तरह मैं तुम्हें वहां से दिल्ली लाने का जतन करूँगा। मुझ पर भरोसा रखना .....मैं तुम्हे खोना नहीं चाहता। (क़ैद बाहर, पृष्ठ 226)

माया और शशांक — दोनों ने ही विच्छेद का दुःख, संताप भोगा है। एक दूसरे का साहचर्य उन्हें भाता है। दोनों ही प्रौढ़त्व के प्रथम सोपान की ओर अग्रसर हो रहे हैं। दो प्रौढ़ मनुष्य, एक स्त्री और एक पुरुष अपने विगत जीवन से सीख लेकर, अब एक दूसरे का हाथ थामे आगे बढ़ने के लिए तत्पर है। इस सम्बन्ध की परिणति यदि विवाह नामक संस्थान न भी हुई, फिर भी यह सरल निश्छल प्रेम और मैत्री, यह एक दूसरे के साथ की कामना करना — यह जीवन यापन के लिये पर्याप्त है। 

यह मुक्तिसंग्राम शास्वत है, विराट है — विभिन्न धर्म, जाति, भाषा, और भिन्न-भिन्न सामाजिक और आर्थिक स्तर की स्त्रियाँ इसमें अपना स्वतःस्फूर्त योगदान दे रही हैं। लेखिका ने, इन सभी पक्षों को बहुत ही सुंदरता से एक माला के रूप में पिरोकर पाठकवृन्द को अर्पित किया है। सभी निज मुक्तिपथ पर अग्रसर हैं — माया, माल्विका, सिन्दूरी, सुनन्दा, शशांक की माँ — सबका मार्ग अलग है। अपनी तरह से सभी संघर्षरत है पिंजरे की क़ैद से बाहर निकलने के लिए। मार्ग भले ही भिन्न हो पर उद्देश्य सबका एक ही है — मुक्ति। 

"मेरी मुक्ति आलोकधारा में इसी आकाश तले। 
मेरी मुक्ति धूलिकणों में, तृण-तृण में इसी आकाश तले। 
विश्वम्भर की यज्ञशाला — आत्माहुति की वह्निज्वाला
जीवन अपना होम दूं मैं, मुक्ति आस में — इसी आकाश तले।"
~ रवीन्द्रनाथ ठाकुर

उपन्यास की भाषा प्रांजल है, सरस है — स्थान काल पात्रों के पूर्ण अनुरूप। यह उपन्यास जीवन जीने की कथा कहता है, पाठकों के अन्तस में प्राणशक्ति का संचार करता है। जीवन महोत्सव को पालन करना सिखाता है। 

क़ैद बाहर — गीताश्री
राजकमल प्रकाशन
प्रथम संस्करण-2023
पृष्ठ-226
मूल्य-229/-


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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1 टिप्पणियाँ

  1. लगता है धरती पर जितने भी विचारों वाली स्त्रियां होंगी उन सब की कथा का समावेश है इस पुस्तक में,,जब समीक्षा इतनी लुभा रही है तो उपन्यास पढ़ना जरूरी हो गया है,,

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