साहित्यकार गीताश्री ने बिहार की पाँच कवयित्रियों - उपासना झा, नताशा, निवेदिता, सौम्या सुमन और पूनम सिंह की कविता पर यह आलेख लिखकर बहुत ज़रूरी काम किया है। कविता की समीक्षा/आलोचना की बातों के बीच उन्होंने कुछ मानी-ख़ेज़ बातें भी कही हैं, मसलन –
सदी के बदलते ही चिंताएं बदलीं। देश और समाज बदला। आज देश के राजनीतिक हालात और धार्मिक उन्माद जिस तरह समाज को संचालित कर रहे हैं, उससे कवियों का देश से मोहभंग हुआ है। सुंदर समाज का स्वप्न दिखा कर जब-जब कोई व्यवस्था विफल होती है तब तब कवियों की आस्था हिलती है। ख़ासकर प्रगतिशील मूल्यों से जुड़ी स्त्री कवियों को भी स्वप्नभंग की त्रासदी से गुज़रना पड़ा है। इक्कीसवीं शताब्दी वैसे भी स्वप्नभंग की शताब्दी साबित होने वाली है। पिछले कुछ समय में स्त्री कविता का स्वर भी बदला है और उनकी लड़ाई दोहरी हो गई। वे पितृसत्ता से पहले लड़ती रहीं और उसके बाद वे देश, समाज के बिगड़ते हालात को लेकर कविता के जरिये प्रतिरोध जताना शुरु किया। कविता हो या कोई साहित्य की कोई विधा, वह जनतांत्रिक मूल्यों से जुड़ी होती है। उसका क्षय जब-जब होगा, कविता का सुर बदलेगा। स्त्री कविता भी जनता के दमन और शोषण के विरुद्ध अपना मुंह खोलेगी।
कथाकार, समीक्षक, पत्रकार, आलोचक, मित्र गीताश्री से उम्मीद और गुज़ारिश है कि वह यह काम निरंतर करती रहें। ~ सं०
Bihar me Kavita ke Paanch Alhada stri-svar - GeetaShree |
बिहार में कविता के पांच अलहदा स्त्री-स्वर
-गीताश्री
इस समय बिहार में कई पीढ़ियां एक साथ काव्य संसार में सक्रिय हैं और उन्होंने बिहार में रहते हुए राष्ट्रीय फलक पर अपनी पहचान बनाई है। एक समय में, एक जैसे समाज में जीते-रचते हुए अलग-अलग पीढ़ी की स्त्री कवियों के अलहदा स्वर हैं। यूं तो बिहार के बाहर बसने वाली स्त्री कवियों ने भी अपनी पहचान बनाई है जिनकी गूंज दूर तक सुनाई देती है। लेकिन यह विरल संयोग है कि छोटे-छोटे शहरों में रहते हुए भी उनकी कविताओं की धमक देश भर में सुनाई दे।
इक्कीसवीं सदी की स्त्री कविता का जब भी मूल्यांकन किया जाएगा, इनकी कविताओं के बिना बात पूरी न होगी। क्योंकि आज की स्त्री, 18वीं और 19वीं शताब्दी की गूंगी गुड़िया नहीं है। उसे देश काल चिंतित करता है। वह सभ्यता का छल छद्म समझती है, धर्म और संस्कृति के आतंक को पहचानती है। उसकी चिंता के केंद्र में देह और देश दोनों की सुरक्षा है। सिर्फ़ देह को देश बनाकर उसे सीमित कर देने की साज़िशों के ख़िलाफ़ इनकी कविताएं एक सचेतन नागरिक का प्रतिरोध-पत्र तैयार करती हैं।
यह सर्वविदित है कि स्त्री लेखन में प्रतिरोध की ये आवाज़ बीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में बहुत तेज हुई। स्त्री कविता ने सबसे पहले हुंकार भरी। हिंदी-पट्टी में अचानक से ऐसी स्त्री कवियों की फौज आई जिनकी कविताओं में प्रतिरोध का स्वर बेहद मुखर था। वे एक तरह से पितृसत्ता को ललकार रही थीं। और उनसे खुद को बख्श (याद करें अनामिका की कविता, हे परमपिताओं, परमपुरुषों, बख्शो, अब हमें बख्शों) देने की बात कर रही थीं। वे अपनी डोर अपने हाथ में लेने की बात कर रही थीं। उनकी कविताओं से विलाप और गिड़गिड़ाहट के भाव विलुप्त हो गए थे। सबने उसे भौचक्का होकर पढ़ा, सुना उस आवाज़ को। उस आवाज़ में सदियों की गुलामी की पीड़ा की जगह मुक्ति का गान था। उस आवाज़ की सही-सही शिनाख्त की गई इक्कीसवीं सदी के इस दौर में। जहां स्त्री-कविता एक आंदोलन की तरह उमड़ती दिखाई देती है। जो सिर्फ पितृसत्ता से टकराव ही नहीं मोल ले रही, बल्कि जमीन पर उतर कर एक्टिविज्म तक करने लगी। प्रतिरोध और संघर्ष इसके मूल स्वर रहे। स्त्री कविता ने इस सदी में बड़ा काम किया कि स्त्री को काम्य बनाने वाली मनोवृत्ति का विरोध किया और वस्तु से व्यक्ति बनने की लड़ाई जीत ली। कम से कम कविता ने यह काम बखूबी किया। यह स्त्री कविता की सामूहिक जीत थी। वर्जनाओं से मुक्ति सबसे बड़ी मुक्ति होती है। उसने सारे टैबू तोड़ डाले। उसके लिए कोई प्रदेश वर्जित नहीं रहा। उसने ऐसा बेबाक परिसर चुना जहां कोई परदेदारी न थी।
यही नहीं, उसने अच्छी औरत, बुरी औरत के विभाजन को नष्ट कर दिया और पाप और पुण्य की परिभाषाएं बदल कर, खुद को नैतिकता के बोझ से मुक्त कर लिया।
स्त्री-कविता मुक्त हुई। इस मुक्ति में बिहार की अनेक स्त्री-कवियों, जैसे अनामिका, सविता सिंह, सुमन केसरी जैसी वरिष्ठ कवियों की विशिष्ट भूमिका रही है।
हम बात करेंगे ऐसी ही चुनिंदा पांच स्त्री कवियों की कविताओं पर जिन्होंने भीड़ में अपनी अलग पहचान बनाई और मौजूदा सदी की मानकों पर खरी उतरीं। वे हैं — उपासना झा, नताशा, निवेदिता, सौम्या सुमन और पूनम सिंह।
उपासना झा की कविताएं मुक्ति पथ की खोज में उदास औरत का शोकपत्र हैं
1.
सुबह की जा सकती हैं कई प्रार्थनाएं
रात की कई धुँधली कामनाओं के बाद
उन प्रार्थनाओं में तुम न आओ
एक अधजली इच्छा रखूँगी दिए की जगह.
2.
उस नगर की सब स्त्रियाँ चरित्रहीन थी
उनकी भौहें तनी रहती थी मान से
उनके होंठो पर तिरता नहीं था मंद हास्य
कोनों में नहीं दबी रहती थी मृदु भंगिमाएं
कंठ से खिल कर फूटता था अट्टहास
ग्रीवा में बाँध रखती थी लिप्सायें
उनके वसनों में घूमता रहता था बसंत
देखा नहीं कभी उन रक्तिम ऋतुओं का अंत.
युवा कवि उपासना झा की कविताओं को पढ़ते हुए आप उदास हो सकते हैं, उदासी के पूरे तत्व मौजूद हैं। उनकी कविताओं में उदास औरतें कैलेंडर में अपने रोने का हिसाब लिखती हैं। उपासना उस उदासी को कविता में बदल देती हैं। सामान्य पाठकों के लिए यह जटिल एवं अबूझ उदासी है। कोहरे की तरह फैलती हुई वह उदासी चौतरफा घेर लेती है। किसी शोकपत्र की तरह लगती हैं कुछ कविताएं। विमर्श की छाया इन कविताओं पर भी पड़ी है। उदासी तंज में बदलती है और स्मृतियों के सहारे मुक्ति का मार्ग ढूंढने लगती हैं। अपनी पुण्य कोशिशों में, अंततः ये कविताएं आत्मा की सबसे सुंदर प्रार्थनाओं में बदल जाती हैं।
ऐसा क्यों...?
उपासना का त्वरित जवाब आता है—
हम कितनी भी बातें कर लें स्त्री-मुक्ति और स्वातंत्र्य की, असल में सब दावे झूठे हैं। आर्थिक स्तर पर जबतक स्त्रियाँ मुक्त नहीं होंगी और अपने गर्भ पर उनका अधिकार नहीं होगा तब तक उदास औरतों के शोकगीत लिखे जाते रहेंगे।
स्त्री का दुख इतना रूमानी है कि लोकगीतों में गेय और कविताओं में काव्यात्मक होता है। कविता में यह दुःख स्वानुभूत-परानुभूत दोनों होता है। कवि संवेदनशील होता है, वह दूसरों के दुःख को भी उसी भावबोध से समझता है। स्त्री होने के नाते उपासना उन स्थितियों को बेहतर समझ सकती हैं जिससे कोई अन्य स्त्री गुज़रती है।
स्त्री के मसले को वे वैश्विक स्तर पर देखती हैं कि कैसे स्त्री-देह को युद्धस्थल में बदल दिया गया है। वह इस बात से चिंतित हैं कि आए दिन असंख्य स्त्रियाँ प्रताड़ना, बलात्कार, लैंगिक-भेदभाव की शिकार बनती हैं। उनकी देह को उनके विरुद्ध हथियार बना लिया गया है। यहां वह मानती हैं कि स्त्री की देह को किसी ऐसे मुल्क की तरह समझा गया जिसे जब चाहे लूटा जा सकता है। उपासना बताती हैं—
विश्व में जितने भी युद्ध होते हैं चाहे उनका जो भी परिणाम हो, युद्धस्थली बनती है स्त्रियों की देह ही। कोई जीते कोई हारे, बहुत बड़ी संख्या में स्त्रियाँ प्रभावित होती हैं। धार्मिक युद्ध और दंगों में भी यही होता है। इस्लामिक स्टेट द्वारा यजीदी औरतों को बंधक बनाना, उन्हें पशुओं की तरह बेचना और शोषण करना तो अभी की ही बात है। बांग्लादेश की मुक्ति और जापान द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध में करीब दो लाख स्त्रियों (चीनी, दक्षिण कोरियाई, इंडोनेशियन) को 'कम्फर्ट वीमेन' बनाया था।
होटल मैनेजमेंट में स्नातक करने के बाद मीडिया में सात साल गुज़ार चुकी उपासना की कविताओं में तीन मुख्य तत्व ध्यान खींचते हैं — उदासी, स्मृतियां और जगहें। स्त्री होने के नाते स्त्रियों की तकलीफों को अतिरिक्त संवेदनशील नज़रिये से देखती हैं, कवि होने के नाते स्मृतियों की तरफ लौटती हैं, जहां सिर्फ अतीत का पुनर्पाठ या इतिहास का बखान नहीं, बल्कि सुख दुख के क्षणों में बचा कर रखा गया मुस्कान का छोटा टुकड़ा विस्मय की तरह कौंध जाता है।
तीसरी चीज़ जो बेहद साफ़ और चमकीली है, वह है जगह। जगह जो शहर है, जगह जो किरदार है, जगह जहां कुछ इच्छाएं धर दी जा सकती हैं। जहां जब चाहे स्मृतियों के सहारे लौट कर जीवन का अनुभव और प्रकाश दोनों पाया जा सकता है जैसा वह अपने प्रिय कवियों प्रसाद, निराला, सिल्विया, अज्ञेय, कालिदास, नेरुदा, क़ब्बानी को पढ़ते हुए पाती हैं।
युवा कवयित्री नताशा के लिए कविताएं पर्सनल एजेंडा नहीं है
मुझे नीचे ही गिरना है
तो चाहूंगी वहां गिरना
जहां की जमीन में खाद पानी हो
खुरपी कुदाल से
जहां की मिट्टी को चोट नहीं लगती
मेरा नीचे गिरना भी
तुम तय नहीं कर सकते।
....
मृत जुगनुओं के गिरने के बाद
रात अपने अंगूठे के सिरे से
नींद को खींच माथे लगाती है
किसी टूट चुके वादे की मानिंद...
.....
मैं भेजूंगी
दिनभर की जद्दोजहद के बाद
निढ़ाल सी बेंच पर पड़ी हुई शाम
और सूखे पीले पत्तों पर राहगीरों की चहलकदमी
वह कानों को बेचैन करने वाला संगीत....
बिहार की राजधानी पटना से कुछ कोस दूर एक शांत, क़स्बे मनेर में बच्चों के साथ पठन पाठन में लगी हुई एक अंतर्मुखी लड़की, नताशा अपनी कविताओं में सहज रहा करती है। जैसे लड्डूओं के बिना उस जगह की पहचान अधूरी, वैसे ही कविता के बिना उस लड़की की। बेहद स्वादिष्ट लड्डूओं के शहर में वह कविता में हर तरह के आस्वाद भरती है। जैसे लड्डू के बिना असंभव है मनेर की कल्पना वैसे ही कविता के बिना उसका जीवन असंभव। वह सोच ही नहीं सकती कि बिना कविता के वह जी भी सकती है। कविता के बिना जीवन, सोच कर ही सिहर जाती है। कोई इस कदर प्यार करे कविता से और कह उठे—
जैसे लोहे के पेड़ होते और पत्थरों की नदी होती। आंखों के समक्ष दृश्य होता पर दृश्य की पहचान नहीं होती। बिना पहचान के जीवन निष्प्राण होता।
कविताएं उसके बचपन से डायरियों का हिस्सा रही हैं। पहले शौक रहा फिर जीने की अनिवार्य ज़रूरत और शर्त। पहली बार 'तब से अब तक' नामक कविता 2007 में भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता द्वारा आयोजित युवा कविता पुरस्कार के लिए वागर्थ पत्रिका को भेजी। वह कविता छपी और पुरस्कृत भी हुई। बीच में लिखना तो जारी रहा लेकिन छपने में निरंतरता का अभाव रहा। फिर भी छिटपुट पत्र पत्रिकाओं में छपती रही। पिछले एक वर्ष में उसने अपने को समेटा और कविता सृजन में पुनः जुट गई।
बकौल नताशा साहित्य के संस्कार उसे विरासत में अपने पिता और साहित्यिक पुरखों से मिले हैं। प्रिय कवियों में निराला ने यथार्थ को परखने का माद्दा दिया और शमशेर ने स्मृतियों से प्रेम करना सिखाया, मुक्तिबोध से क्रूरता के खिलाफ़ प्रतिरोध जताना सीखा, बाबा नागार्जुन से सीधी बात करना सीख रही है।
समकालीन कवियों में केदारनाथ सिंह और नरेश सक्सेना उसे प्रिय हैं।
नताशा कहती हैं—
केदारनाथ सिंह और नरेश सक्सेना की विरासत में मुझे नई कड़ी जोड़नी है।
कविता उसके लिए सिर्फ पर्सनल एजेंडा नहीं, सिर्फ स्त्री मुक्ति का हुंकार नहीं, निजी दुखों का उत्सव नहीं है, दुनिया को अपने हिसाब से बदलने का औज़ार है। उसके जीवन में कविता यही स्वप्न लेकर आई है।
कविता के सवाल पर नताशा बेहद मुखर हो उठती है—
यह कविता के अस्तित्व को बचाए रखने वाला सवाल है। इस सवाल ने मुझे मुखरित किया है कि चाहे प्रेम हो, विद्रोह हो, सुख, दुख, उपेक्षा, धिक्कार हो, कविता ही वह माध्यम है जिससे मुझे अपनी बात कहनी है। कविता स्वांत सुखाय का मामला भर नहीं, अब तो यह हथियार है। मैं जैसी दुनिया रचना चाहती हूं, उसका औज़ार है।
इसीलिए उसकी कविताओं में ख़ास किस्म की वाचलता है जो कई बार वर्चस्ववादी सत्ता को चुनौती देने लगती है। उसके यहां प्रेम है पर अंध-समर्पण नहीं। कातरता है पर गुहार नहीं। विलाप है पर चित्कार नहीं।
दरअसल नताशा की कविताएँ देश के उस नागरिक का बखान है जिसकी चेतना को समाज और परिवार ने कभी जाग्रत या विकसित नहीं होने दिया। वह नागरिक स्त्री है जिसका संसार सीमित था और जिसे बहुत से अवसरों से वंचित रखा गया। जिसके विचार भी कुंद कर दिए कि वह देश दुनिया के बारे में सोच न सके। उसके विवेक का हरण इस तरह हुआ कि वह चहारदीवारी के पार बदलती हुई दुनिया को न ठीक से देख सकती थी न उस पर बात कर सकती थी। इधर तेज़ी से दुनिया बदल रही थी। घटनाएं हो रही थीं। स्त्रियाँ उन पर रिएक्ट करने से वंचित थी। देश संभालने से ज़्यादा उसे देह संभालने का नैतिक पाठ पढ़ाया गया। देह ही देश है जिसकी सुरक्षा अपने ही मुल्क के नागरिकों से करना चाहिए। खाप पंचायतों के तालिबानी फ़रमानों और सामूहिक बलात्कारों के इस भयावह दौर में देह की सुरक्षा मूल मुद्दा बना दिया गया।
नताशा की एक लंबी, पुरस्कृत कविता ‘देश राग’ पढ़ कर स्त्री कविता के विराट वितान की शिनाख्त की जा सकती है। कविता है—
देश के इतिहास की यात्रा मेरे भीतर की यात्रा थी
कितने देश होंगे जो सभ्यताओं के मलबे में दब गये होंगे
कितनी नदियाँ होंगी जिनका पानी बाँध परियोजनाओं ने रोक दिया होगा
बारूद के हवा में घुलने से पहले
न जाने कितने फूलों और फलों की गंध हवा में घुल रही होगी
1947 के बाद का वह टुकड़ा ही अब मेरा देश है
चतुर्दिक बॉर्डर के भीतर
सीमित हवा, पानी, गीत संगीत में ढला
इसके भीतर की दीवारें दरक रहीं
कोलाहल बढ़ रहा
मेरे देश की आत्मा में सुराख़ करने वाली कीलें
हर नागरिक के सीने में चुभ रही
मैं समझती थी
मेरा जन्म लोकतंत्र के ख़ूबसूरत दौर में हुआ है
जंजीरों में कराहती पुरखों की कराहें
यातनाओं की आड़ में दम तोड़ती सांसे
अब इतिहास के स्याह पन्नों में दर्ज है
कि मेरी अगली पीढ़ी
तारीख़ों में लिपटे युद्ध की हार – जीत
रटने को अभिशप्त नहीं रहेंगी ।
नताशा की इस दीर्घ कविता का परिवेश भारतीय होते हुए भी वैश्विक हो जाता है जब वो इसी कविता में सवाल उठाती है कि एक विश्व विख्यात चित्रकार को देश क्यों छोड़ना पड़ा? मेहदी हसन ने देश क्यों छोड़ा?
यह कविता एक चिंतित स्त्री समुदाय की प्रतिनिधि कविता है जिसमें एक नागरिक की चिंताएँ शामिल है। जो देह से परे अपना वह देश ढूँढ रही है जिसमें सांप्रदायिकता ज़हर हवा में न घुला हो। जहां किसी नागरिक को धर्म के आधार पर न परखा जाए। यह कविता लोकतांत्रिक चेतना से लैस है जो अपने समय, समाज की सही-सही शिनाख्त करती है। स्त्री चेतना समाज द्वारा बनाई चौहद्दी से बाहर आकर बहस उठाती है। यह कविता सिर्फ़ सचेतन स्त्री का आख्यान भर नहीं, इसमें अनेकानेक समसामयिक मुद्दे हैं। देश सिर्फ़ भूगोल का हिस्सा नहीं। यह कविता समसामयिक चिंताओं को छूती है। सत्ता के क्रूर चेहरे को उजागर करती है। बिना नारेबाज़ी के कविता देश के विरुद्ध की जा रही कार्यवाहियों का पर्दाफ़ाश भी करती है।
प्रेम और क्रांति की कवि निवेदिता की कविताएं अवाम की पीड़ा का आख्यान हैं
फ़ैज़ के नशेमन में डूबी प्रेम की कवि निवेदिता की कविता का दुख से गहरा रिश्ता है और उनकी कविताएं आह से ही उपजती है। जब-जब दुखों का सैलाब आता है, कविता उमड़ती है। इसका मतलब कविता का काम सिर्फ़ विलाप करना नहीं। अपने निजी दुखों का सार्वजनिक प्रकटीकरण नहीं कविता। अगर पर्सनल भी है तो वह पब्लिक के सच के साथ जुड़ जाए। छिछली भावुकता कविता का दायरा सीमित कर देती है। कविता का परिसर इतना व्यापक हो कि कवि की संवेदना विस्तार लेते हुए दुनिया के दुख से जुड़ जाए।
वो दुख ही था जो नासिरा शर्मा जैसी विलक्षण किस्सागो को कविता के क़रीब ले गया। लॉकडाउन के दौरान जब वे ग़रीबों-मजलूमों का हाल लेने निकली तो उनके भीतर से कविता फूटी। उन्होंने उस दौरान कई लंबी और मार्मिक कविताएँ लिखीं। नासिराजी की उन कविताओं में अवाम का दर्द उभर कर आता है…!
कविता परदुख कातरता से बड़ी होती है। दुख को करुणा में बदल जाना चाहिए, जिसमें स्व का लोप हो।
निवेदिता के काव्य संसार में निजी दुख से उपजती हुई अवाम की आवाज़ें हैं…! अपने दुख में लिथराई हुई संकीर्ण कविताओं के लिए यहाँ जगह नहीं।
निवेदिता की कविताओं में “मैं ये, मेरे साथ ये अन्याय, हाय मैं छली गई… लुट गई, पिट गई” टाइप क्रंदन नहीं, एक उम्मीद है, कुछ सदिच्छाएँ हैं कि मेरे वश में कुछ होता तो दुनिया को इतना सुंदर बना देती कि जीने लायक़ बन सके। मैं मनहूस तवारीख़ को बदल सकती।”
पृथ्वी को, मनुष्यता को बचा लेने की चाहत और तड़प सुमन केशरी की कविताओं में भी बहुत है। पंकज सिंह, मदन कश्यप के यहाँ भी। यही कॉमन बात निवेदिता को मदन कश्यप, सुमन केशरी की परंपरा की कवि बनाती है। जहां प्रेम और क्रांति और सदिच्छाएँ साथ-साथ चलती हैं। ये सभी प्रेम, प्रकृति, जीवन राग और संघर्ष के कवि हैं।
मदन कश्यप जी लिखते हैं —
बची हुई हैं, कुछ उष्ण साँसें
जहां से संभव हो सकता है जीवन
गर्म राख कुरेदो
तो मिल जाएगी यह अंतिम चिंगारी
जिसमें सुलगाई जा सकती है
फिर से आग !
इसी उम्मीद और चाहत का दामन पकड़े सुमन केशरी जी लिखती हैं—
मैं बचा लेना चाहती हूँ
ज़मीन का एक टुकड़ा
ख़ालिस मिट्टी और
नीचे दबी धरोहरों के साथ
उसमें शायद बची रह जाएगी
बारिश की बूँदों की नमी
धूप की गरमाहट
कुछ चाँदनी !
निवेदिता की कविताओं में इसी संवेदना का विस्तार मिलता है। जब वे लिखती हैं —
भविष्य की धरती को
उन तमाम दुखी रातों से बचाना चाहती हूँ
या
मुझे सोख लो
मैं सूरज की लौ बन कर तुम्हारे दिल में जलना चाहती हूँ
तब ये कविताएँ बड़ी ताक़त बन जाती हैं। कविता का एक काम ताक़त देना भी है और संतप्त मनुष्यता पर शीतल हथेली धरना भी है। दुनिया को, समाज को अपना योगदान देने की आकांक्षा से भरी हुई कविताएँ नैराश्य से उबार लेती हैं। निवेदिता प्रेममार्गी कवि है, जिसकी क्रांति की राह भी मोहब्बत के दरवाज़े से गुज़रती है।
वे लिखती हैं —
जिसने कभी
पहाड़, नदियाँ, हरे-भरे पेड़ को निहारा नहीं, सिर्फ़ रौंदा है
जो प्रेम से ख़ाली हों
जो मोहब्बत के मायने नहीं जानते
मेरी आँखें उन्हें दें
ताकि वे भीग सके मुहब्बत में
और दुख को सहला दे
कितना भी दुख हो, कितनी भी मुश्किलें, निवेदिता उम्मीद का दामन नहीं छोड़ती। न दुख में, न ख़ौफ़ में, न यातना में। अंधेरे में चिराग़ की तरह उम्मीदें टिमटिमाती हैं।
एक दिन हम डरना बंद कर देंगे
और दुनिया
एक हथेली पर
पूरी बस जाएगी
वहाँ अनंत आलोक फैला होगा
उस आलोक में हम डर से पार पा लेंगे!
कविता निज के प्रति घातों और अन्यायों की एकतरफा दास्तान नहीं है… जिसमें अपने समय की चिंता न हो, मुठभेड़ न हो, जो अंतिम व्यक्ति के संघर्षों को सहलाए नहीं, राजनीतिक हस्तक्षेप करे, जो धूमिल की कविताओं की तरह सवाल न उठाए, मुक्तिबोध की तरह बेचैन न करे, अनामिका की तरह हिंसक समय में करुणा का उद्घोष न करे, वो क्या कविता।
कुमार विकल का कथन याद आता है—
मेरे अनुसार कविता आदमी का निजी मामला नहीं है, एक दूसरे तक पहुँचने के लिए पुल है।
प्रगतिशील चेतना और अपने सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध कवि निवेदिता की कविताएं इस मायने में इस दौर का “जरूरी” पुल हैं। वे प्रतिरोध में भी प्रेम को जरूरी पुल बनाती हैं।
सौम्या सुमन की कविताओं में तमाम स्त्रियों के हस्ताक्षर हैं
पटना में निवास करने वाली कवि सौम्या सुमन अब एक सुपरिचित कवि हैं जिनकी कविताएं धीर-धीरे अपना असर छोड़ती हैं। उनकी कविताओं में अनसुनेअनकहे के दरमियान प्रेम के सहज सौन्दर्य की कशिश दिखाई देगी, साथ ही दुनिया भर की तमाम स्त्रियों की प्रतिरोधक आवाजें भी हैं।
वरिष्ठ कवि प्रभात मिलिंद से कुछ शब्द उधार लेकर कह सकते हैं कि प्रेम के विभिन्न अदृश्य आयामों की तरह सौम्या सुमन की कविताओं में भी हमें प्रेम की अमूर्तता में जिज्ञासा, विप्रलंभ, अनासक्ति, एकांतिकता, उत्तरदायित्व आदि अन्यान्न पक्षों की जियारत होती है जिन्हें घनानन्द ने ‘अति सूधो सनेह को मारग है तहं नैकु सयानप बांक नहीं’ जैसी अभिव्यक्ति के ज़रिये परिभाषित करने का प्रयास किया है।
सौम्या सुमन की कविताएँ अनिवार्यतः स्त्री-संवेदनाओं की कविताएँ हैं लेकिन उतनी ही अनिवार्यतः यह आयातित विमर्श अथवा अयाचित मुक्ति की कविताएँ नहीं हैं। स्त्री होने और स्त्रीत्व के सेलिब्रेशन की प्रतिध्वनि इन कविताओं की मुखर विशेषता और संपदा है। स्त्री-कविता का अमरत्व नहीं भी तो दीर्घजीविता इन कविताओं में अवश्य तलाशी जा सकती है —
जब तक यह जीवन है
मैं बार-बार
थाह लेती रहूंगी तुम्हारी
और
वही अंतिम प्रमाण होगा
हमारे बचे होने का
सौम्या की कविताओं में अपने अस्तित्व के प्रति गहरा मोह और यकीन दिखाई देता है। इनके यहां प्रतिरोध की आवाज़ भी मोहकता में लिपटी है। वे अपनी अस्मिता के पक्ष में खड़ी होकर भी कभी अनुराग का दामन नहीं छोड़ती। उन्हें यकीन है कि तमाम झंझावातों के बावजूद स्त्री बची रहेगी। उनकी कविताएं एक दूसरे का विस्तार मालूम पड़ती हैं। जैसे युद्ध या संघर्ष के पहले जिस तरह का उदघोष किया जाता है, उनकी कविताएं वैसे ही काम करती हैं। कविताएं अपना सुर धीर-धीरे ऊंचा करती चलती हैं। ये बहुत झकझोरने वाली कविताएं नहीं हैं कि योद्धाओं की बाजुएं फड़कने लगे। ये कविताएं सीधा दिल पर वार करती हैं और वहां परिवर्तन की आकांक्षी हैं। मोहब्बत में ऐसा ही होता है। हम पहले बातों से बदलाव की आकांक्षा रखते हैं। इसीलिए उनकी कविताओं में ख़ास किस्म का आग्रह और मनुहार दिखाई पड़ता है, आतंक या वितृष्णा नहीं। ये उनकी अपनी शैली हो सकती है या स्वभावगत प्रभाव। कवि के स्वभाव का असर उसकी रचनाओं पर पड़ता है।
वे लिखती हैं—
एक बार पढ़ कर देखना
उस स्त्री की अधूरी कविता
जिसके पन्नों पर दर्ज़ हैं
दुनिया की
तमाम स्त्रियों के हस्ताक्षर
वह स्त्री
जो अंधेरे से निकल
धूप की मुंडेर पर बैठ
करना चाहती है
सूरज और आकाश से
पंछियों की बातें
जो मकड़जालों के बीच
साँसों में भरना चाहती है प्रेम
बटोरना चाहती है
शब्दों के लिए उजास
तुम पढ़ना उस स्त्री की कविता
यहां कवि स्त्री को, स्त्री की कविता को बार-बार पढ़े जाने की मांग करती हैं। जबकि उनसे पहले अनामिका इस सच को कुछ इस तरह लिख चुकी हैं -–
पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज़
बच्चों की फटी कॉपियों का
चना-जोर-गरम के लिफाफे के बनने से पहले।
इस सच के बावजूद सौम्या की कविता में पितृसत्ता से स्त्री कविता को पढ़े जाने का आग्रह है, ललकार या चुनौती नहीं। स्त्री अंत तक चाहती रहेगी कि उसे कायदे से पढ़ा जाए। उसका एक-एक अक्षर सदियों की पीड़ा का दस्तावेज है। स्त्री को समझा जाए, जैसे कोई शास्त्रीय संगीत को समझता है।
स्त्री-कविता लंबे समय तक वैसे ही उपेक्षित रही है जिस तरह स्त्रियां मुख्यधारा में उपेक्षित रहीं। स्त्री लेखन आज भी मुख्यधारा की चिंता या चिंतन में नहीं समा सका है क्योंकि उसे कसने वाले, उसे समझने और स्वीकारने वाले न दिल हैं न कोई कसौटी। ये तो चुनौती है जिसने सबको चकित और असमर्थ साबित कर दिया है। स्त्री के पास अभिव्यक्ति की अपनी ही गढ़ी भाषा है जो पारंपरिक भाषा और शिल्प से मेल नहीं खाती है। स्त्री का लेखन में प्रवेश एक चमत्कारिक घटना है जो ये जानने के बावजूद कि वहां ख़तरे हैं, जोखिम हैं, रुसवाई है, उपेक्षा है, अस्वीकार है, उसमें प्रवेश करती है।
सौम्या की कविता में इसका संकेत मिलता है—
बस्ती के छोर पर
जंगल के आगे
आगाह करती तख्तियां लगी थीं -
“आगे मौत है, हरगिज़ न जाएं।“
एक जिद्दी स्त्री
अपनी बेसुधी में
हर शाम जाती है
उस जंगल में दबे पांव
इस कविता में ये यकीन है कि एक दिन तमाम दुश्वारियों, विरोधों, नकारों के बावजूद स्वीकृति का पत्र उसके पते पर आएगा ज़रूर। जिसकी दबी-दबी चाह है इनके मन में।
सौम्या के पास कविता की सौम्य भाषा है और सौम्य प्रतिरोध है। ये ज्यादा मारक और असरकारी है।
तटबंधों को तोड़ कर नया मानचित्र बनाती है पूनम सिंह की कविताएं
कथा-आलोचना-कविता के क्षेत्र में समान रुप से सक्रिय पूनम सिंह आज साहित्य जगत का जाना माना नाम हैं। बिहार के एक छोटे से, सामंती मिज़ाज के एक शहर मुजफ्फरपुर में रहने वाली पूनम सिंह को तीन द्वार ने घेर रखा है। तीन द्वारे घेरे रामा...वे किसी एक द्वार पर रुकती नहीं। वे विकल जीव हैं जिनका दिल कविताओं में धड़कता है, कथा में वे सांसे लेती हैं और आलोचना में जाकर सुस्ता लेती हैं। एक और विधा है गीत लेखन, जिसमें वे पनाह लेती हैं यदा-कदा। उनकी यह आवाजाही और यह विकलता विलक्षण भी है और बाधक भी। किसी एक द्वार को ठीक से खुलने नहीं देता।
यहां हम उनके कवि रुप पर बात करेंगे। अब तक उनके चार कविता संग्रह आ चुके हैं।
1. ॠतुवृक्ष - 1998 | 2. लेकिन असंभव नहीं - 2002 | 3. रेजाणी पानी - 2014 | 4. उजाड़ लोकतंत्र में - 2023
एक कवि का क्रमशः विकास देखना हो तो इन संग्रहों से गुज़रना लाज़िमी होगा। स्त्री कविता के स्वप्न, आकांक्षा और संघर्षों का ख़ाका इन संग्रहों की कविताओं में ब-ख़ूबी मिलता है। नब्बे के दशक से लेकर अभी तक की काव्य-यात्रा में उनकी चिंताओं को पकड़ा जा सकता है। समय के साथ स्त्री कविता के सुर कैसे बदले। स्त्री पहले अभिव्यक्ति के लिए संघर्ष करती है और मुक्त गान का स्वप्न देखती है। इन कविताओं में स्त्री जीवन का यथार्थ और यूटोपिया दोनों बखूबी मिलता है।
सदी के बदलते ही चिंताएं बदलीं। देश और समाज बदला। आज देश के राजनीतिक हालात और धार्मिक उन्माद जिस तरह समाज को संचालित कर रहे हैं, उससे कवियों का देश से मोहभंग हुआ है। सुंदर समाज का स्वप्न दिखा कर जब-जब कोई व्यवस्था विफल होती है तब तब कवियों की आस्था हिलती है। ख़ासकर प्रगतिशील मूल्यों से जुड़ी स्त्री कवियों को भी स्वप्नभंग की त्रासदी से गुज़रना पड़ा है। इक्कीसवीं शताब्दी वैसे भी स्वप्नभंग की शताब्दी साबित होने वाली है। पिछले कुछ समय में स्त्री कविता का स्वर भी बदला है और उनकी लड़ाई दोहरी हो गई। वे पितृसत्ता से पहले लड़ती रहीं और उसके बाद वे देश, समाज के बिगड़ते हालात को लेकर कविता के जरिये प्रतिरोध जताना शुरु किया। कविता हो या कोई साहित्य की कोई विधा, वह जनतांत्रिक मूल्यों से जुड़ी होती है। उसका क्षय जब-जब होगा, कविता का सुर बदलेगा। स्त्री कविता भी जनता के दमन और शोषण के विरुद्ध अपना मुंह खोलेगी। इस दौर की स्त्री कवियों को पढ़िए तो इस बात की पुष्टि होगी। पूनम सिंह उन्हीं कवियों में से एक हैं जिन्होंने कविता के जरिये प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद किया है। उनके संघर्ष के सुर बदल गए। जहां वे पहले लिखती हैं –-
देखो, मेरी लहूलुहान हथेलियों को
बंजर तोड़ने की जिद के साथ
वर्षों से कूट रही हैं
पथरीली भूमि
इसके साथ ही पूनम सिंह की ही कई जनतांत्रिक मूल्यों की कविताएं देखी जा सकती हैं, जैसे शाहीनबाग की औरतें, इरोम शर्मिला, तुम उदास क्यों हो, युद्ध और कविता जैसी अनेक कविताएं जो अपने समय में सार्थक हस्तक्षेप करती हैं। जब देश का मसला आता है तो कवि की चिंता बदल जाती है। वह स्व से ऊपर उठ कर समूचे समुदाय के सुख-दुख से जुड़ जाती हैं।
वे लिखती हैं-
शाहीनबाग की औरतें महज औरतें नहीं
एक समूचा कालखंड हैं
बहुविध शैलियों में
अघोषित दिक्काल का
समय सुन रहा है जिसकी पदचापें
राजपथ महसूस कर रहा है
जिसकी धमक अपने सीने पर।
ठीक इसके पहले उनकी चिंता कुछ और थी। उनके संघर्ष का सुर कुछ और था। मर्दवादी कुंठाओं से टकराती हुई सचेतन स्त्री कवि का अपने अस्तित्व के प्रति हुंकार सुनिए—
शब्द सार्थक भले न हों
ध्वनि कभी निरर्थक नहीं होती
मैं वही ध्वनि हूं
तुम हरगिज़
हरगिज़ नहीं
नकार सकते मुझे।
या स्त्री अधीनता को कटघरे में खड़ा करती हुई कहती हैं—
जेठ की दोपहर में
तुम्हें प्यार करते हुए
जब मैं नदी हो जाती हूं
मुझे नहीं मालूम
रेत में धंसी मछलियों की पथरीली आंखें
क्यों याद आती हैं
दुर्वह हो जाता है
मेरे लिए
तुम्हारी बांहों का तटबंध।
ग़ुलाम बना लेने वाली बांहों को जहां स्त्रीवाद नागपाश कहता है, पूनम सिंह अलग बिंब लेकर उपस्थित होती हैं, तटबंध। नदी के प्रवाह को बांधने, घेरने, रोकने वाला तटबंध। तटबंध का दुख नदियां जानती हैं। मछली और नदी हमेशा स्त्री का रूपक रही है। भारतीय समाज कभी स्वतंत्र स्त्री की अस्मिता को अलग करके नहीं देख पाता। उसे पुरुष की विराट छाया में विलीन कर देता है। जबकि किसी सचेतन स्त्री के लिए सबसे ख़राब बात है—उसकी अपनी पहचान का गुम हो जाना। स्त्री-कविता ने इस पर ख़ूब कलम चलाई है। यहां भी कवि इस तटबंध को, सारी हदबंदियों को तोड़ कर बाहर निकलती हैं तब देश काल की चिंताओं से जुड़ जाती हैं। उनकी चिंताएं अब वैश्विक हैं। वैसे भी लेखक एक वैश्विक नागरिक होता है। वे जानती हैं कि दो देशों के बीच युद्ध में सबसे ज्यादा कौन मारा जाता है। युद्ध की विभीषिका किसे लील जाती है। रुस और यूक्रेन के बीच जो युद्ध चल रहा है, वो भी हर सचेत, संवेदनशील नागरिक की चिंता का विषय है।
उस पर वे लिखती हैं—
देश मिसाइलों बम गोलो के बीच
एक बच्चा खिलखिलाता भागता है
तितलियों के पीछे
तानाशाह की बलिष्ठ भुजाएं
घेरती हैं दिशाओं को
देश दुनिया में गूंज उठता है
युद्ध का सायरन
पूनम सिंह की इस कविता में युद्ध रोकने के लिए मार्मिक अपील सुनाई देगी।
यही अपील किसान आंदोलन के समय भी करती हैं। अब स्त्री कविता अपने निजी लड़ाईयों और दुखों से बाहर आ चुकी है। उनकी कविता का वितान बहुत बड़ा, विराट और क्षेत्रफल व्यापक हो चुका है। स्त्री अधीनता की दास्तान से कुछ कदम आगे बढ़ कर वे वैश्विक चिंताओं से जूझ रही हैं। स्त्री कविता ने हर एक क्षेत्र में प्रवेश करके कलम चलाई। स्त्री कविता पर सीमित दायरे, सीमित अनुभव संसार का जो आरोप लगता था, उस अवधारणा को झटके से तोड़ कर वे बाहर निकलीं और अपनी कविताओं से आलोचकों को करारा जवाब दिया है। सच कहें तो स्त्री-द्वेषी समय और समाज में समानता का बिगुल बजा दिया है। मर्दवादी व्यवस्था को चुनौती देती हुई, अपने समय के सरोकारों को चिह्नित कर रही हैं। अब वे प्रार्थना के शिल्प में नहीं, हुंकार की भाषा में बात करती हैं।
ख़ासकर बिहार में रहने वाली अन्य कवि वीणा अमृत, स्मिता वाजपेयी, ज्योति स्पर्श, साजीना राहत (अब दिवंगत) हो या बिहार से बाहर रह कर कविता कर्म में जुटी अनामिका, सविता सिंह, सुमन केशरी, रंजीता सिंह, मंजरी श्रीवास्तव, स्मिता सिन्हा, रश्मि भारद्वाज हों, इन सबने कविता में अपना अलग मुहावरा गढ़ा है और पुरुषों के गढ़ में सेंध लगा दिया है। स्त्री कविता ने अलग किस्म की स्त्री-भाषा का आविष्कार किया है, नयी कूट भाषा गढ़ी हैं, अलग संवेदना लेकर आई है जो पूर्ववर्ती लेखन से बिल्कुल अलग है।
यहां आलोचक हिमांशु पंडया के एक आलेख की एक पंक्ति याद आती है –
हां, गोबर अब भी वे पाथती हैं, पर ज़रूरत पड़ने पर पितृसत्ता के चेहरे पर गोबर लीप देती हैं।
(आलोचना पत्रिका, अप्रैल-जून अंक-2022)
दरअसल इक्कीसवीं शताब्दी में हिंदी कविता ने जो प्रतिपक्ष तैयार किया है, उसके साथ स्त्री कविता चलती है। वह अपने समय के यथार्थ को बेहद तल्ख़ी के साथ दर्ज कर रही हैं। ये भी सच है कि उनकी चिंताएं, उनकी लड़ाईयां आज भी दोहरे स्तर पर चलती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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