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न जी !!! जिन्ना पर मुकेश भारद्वाज के #बेबाक_बोल



तारीखी तस्वीर

 — मुकेश भारद्वाज


आमार शोनार बांग्ला,
आमि तोमाए भालोबाशी.

(मेरा सोने जैसा बंगाल / मैं तुमसे प्यार करता हूं)

...रवींद्रनाथ टैगोर ने 1905 में यह गीत लिखा था जब अंग्रेजों ने मजहब के आधार पर बंगाल के दो टुकड़े कर दिए थे। गुरुदेव का लिखा यह गीत उस बांग्लादेश का राष्ट्रीय गीत है जो भाषाई आधार पर पाकिस्तान से अलग हुआ। आज जब द्विराष्ट्र के समर्थक जिन्ना का महिमामंडन कर रहे हैं तो बांग्लादेश से बेदखल और भारत की पनाह लिए लेखिका तस्लीमा नसरीन कहती हैं कि 1971 में बांग्लादेश, पाकिस्तान से अलग हो गया था, इसका मतलब कि मुस्लिम एकता की बात भ्रम थी। अंग्रेजों से आजादी का एलान होते ही द्विराष्ट्र का जो सिद्धांत सामने आया वह एक अलग और नए देश की सत्ता पाने का औजार मात्र था, जिसके प्रतीक थे जिन्ना। भारत विभाजन को दुनिया की बड़ी विभीषिकाओं में गिना जाता है जो मनुष्यता व सामूहिकता के सिद्धांत की हत्या थी। ऐसी विभीषिका के परिप्रेक्ष्य में जब गांधी, टैगोर और आंबेडकर के बरक्स जिन्ना की तस्वीर पर बहस शुरू हो जाती है तो सावधान होने की जरूरत है। गांधी के इस देश में जिन्ना का नायकत्व गढ़ने की कोशिश पर प्रमुख हिंदी दैनिक जनसत्ता के संपादक मुकेश भारद्वाज के बेबाक बोल...


भारत में जब स्वतंत्रता सेनानियों को आजादी के जश्न में डूब जाना चाहिए था तब आजादी के हरकारों का अगुआ नोआखली में घूम रहा था। एक दुबला-पतला, कम हाड़ और कम मांस का आदमी जिसके बारे में वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि आगे आने वाली पीढ़ियां शायद ही विश्वास कर सकेंगी कि कभी धरती पर ऐसा व्यक्ति चला भी होगा। वह बूढ़ा इंसान जिसे संत और महात्मा का दर्जा दिया जा चुका था, बिना सुरक्षा के वहां था जहां आजादी के एलान के बाद कत्लेआम मचा था। नोआखली जनसंहार भारत के इतिहास का वह पन्ना है जो उसकी आजादी के साथ ही नत्थी हो जाता है।

अगर मुसलिम एकता ही सब कुछ थी तो फिर बांग्लादेश का निर्माण कैसे हुआ

दो सौ सालों की औपनिवेशिक गुलामी के बाद आजादी मिलने का वक्त आते ही भारत के सामने मांग उठी भारत को दो टुकड़ों में बांटने की, वह भी सिर्फ मजहब के आधार पर। आजादी और विभाजन का साथ आना इस ऐतिहासिक संघर्ष की ऐतिहासिक विडंबना ही थी। जिन्ना का डायरेक्ट एक्शन प्लान पूर्वी बंगाल के नोआखली में शुरू कर दिया गया। गांधी की अहिंसा की प्रयोगशाला था भारत। प्रयोग सफल था, आजादी मिल चुकी थी। लेकिन इस प्रयोगशाला के कुछ परखनलियों में मजहबी सांप्रदायीकरण के रसायनों का विस्फोट किया जा चुका था। भारत की आजादी और अखंडता के बूढ़े सिपाही गांधी वहां अकेले पहुंचे। कत्लेआम और आग के बीच यह महानायक निहत्थे खड़ा रहा पीड़ितों के साथ। महात्मा गांधी के उस फौलादी जज्बे को देख कर ही सोचा गया होगा कि इस निर्भीक के सीने में गोलियां उसके पांव छूकर ही उतारी जा सकती हैं। पांच महीने नोआखली में रहने और वहां के प्रशासन से शांति का भरोसा लेकर ही गांधी वहां से हटे।

मोहम्मद अली जिन्ना ने हिंदुस्तान के साढ़े चार हजार सालों की तारीख में से मुसलमानों के 1200 सालों को अलग कर पाकिस्तान बनाया था। कुर्रुतुल ऐन हैदर ने आग का दरिया लिख उन 1200 सालों को हिंदुस्तान में जोड़ कर उसे फिर से एक कर दिया। — निदा फाजली

गांधी की यह तस्वीर है अहिंसा और मजहबी एका की। क्या भारत के किसी भी सार्वजनिक संस्थान में यह पहली तस्वीर नहीं होनी चाहिए। जब भारत के पास ऐसे विश्वास और भरोसे की तस्वीर है तो फिर जिन्ना की तस्वीर की जरूरत क्यों पड़ जाती है। आखिर उस वक्त जिन्ना को बहस में क्यों ले आया जाता है जब कौमी एकता की ज्यादा जरूरत है। अगर जिन्ना की तस्वीर पर सवाल नाजायज है तो जिन्ना की विचारधारा को जायज ठहराने की कोशिशों को क्या कहा जाए।


भारत में शरण लिए बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन ने जिन्ना विवाद के बाद ट्वीट किया, ‘अगर आप द्विराष्ट्र सिद्धांत पर भरोसा करते हैं तो जरूर आप जिन्ना को पसंद करेंगे। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम ने 1971 में सिद्ध कर दिया कि यह द्विराष्ट्र का सिद्धांत गलत था, और मुसलिम एकता एक भ्रम’। बीच बहस में तस्लीमा का यह अकेला ट्वीट ही बहुत कुछ कह जाता है। अगर मुसलिम एकता ही सब कुछ थी तो फिर बांग्लादेश का निर्माण कैसे हुआ। अंग्रेजों के खिलाफ एशिया का विशाल भूभाग जंग लड़ता है। लेकिन जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत की वजह से यह भूभाग भारत और पाकिस्तान में बंट जाता है। इसके लिए हिंदू महासभा की भी जिम्मेदारी तय हो चुकी है लेकिन इस प्रस्तावित पाकिस्तान का शासक बनने के लिए जो आदमी खड़ा था उसकी महत्त्वाकांक्षा के बिना यह हो ही नहीं सकता था। और, मुख्य बहस में तो हम सिर्फ भारत और पाकिस्तान को ही लाते हैं, वहीं तस्लीमा नसरीन कहती हैं कि हमें मत भुलाओ, दो द्विराष्ट्र के सिद्धांत में हम बांग्लादेशी कहां से आ गए यह तो बताओ। आजादी के बाद जब भारत को एशिया की सबसे बड़ी ताकत बनना था तो तीन टुकड़ों में बांटकर उसे छिन्न-भिन्न कर दिया गया।

जिन्ना ने हिंदुस्तान के सिर्फ 1200 सालों को चुना एक नया मुल्क बनाने के लिए। लेकिन क्या बिना राम, कृष्ण और बुद्ध की सांस्कृतिक विरासत लिए निजामुद्दीन औलिया का सूफियाना कलाम कोई रूहानी सुकून दे पाता?

इतिहास से लेकर वर्तमान में प्रतीकों और तस्वीरों का अपना महत्त्व है। विवाद उठने के बाद भी अगर आप नोआखली वाले गांधी के बरक्स जिन्ना की तस्वीर टांगने की जिद मचाए रखते हैं तो अपना ही नुकसान करते हैं। देश के कमजोर तबके के मुसलमानों से बात कर लीजिए। आज के दौर में वे जिन्ना के बारे में नहीं गांधी के बारे में ही जानते हैं। लेकिन विश्वविद्यालयों में जिन्ना के महिमामांडन के जो व्याख्यान शुरू हो चुके हैं वह हमें किस तरफ ले जाएंगे। जिन्ना ने भगत सिंह का केस लड़ा था, बहुत सेकुलर थे, उनकी तस्वीर यहां भी, वहां भी तो यहां क्यों नहीं इन तर्कों के सहारे उन्हें नायकत्व देने की ही कोशिश की जा रही है।

विभाजन के बाद भारत ने क्या खोया और पाकिस्तान ने क्या पाया इस पर उर्दू की मकबूल अफसानानिगार कुर्रुतुल ऐन हैदर की ‘आग का दरिया’ से बेहतर कुछ नहीं हो सकता। निदा फाजली ने इस किताब के बारे में कहा है, ‘मोहम्मद अली जिन्ना ने हिंदुस्तान के साढ़े चार हजार सालों की तारीख में से मुसलमानों के 1200 सालों को अलग कर पाकिस्तान बनाया था। कुर्रुतुल ऐन हैदर ने आग का दरिया लिख उन 1200 सालों को हिंदुस्तान में जोड़ कर उसे फिर से एक कर दिया।’ जिन्ना ने हिंदुस्तान के सिर्फ 1200 सालों को चुना एक नया मुल्क बनाने के लिए। लेकिन क्या बिना राम, कृष्ण और बुद्ध की सांस्कृतिक विरासत लिए निजामुद्दीन औलिया का सूफियाना कलाम कोई रूहानी सुकून दे पाता?



आजादी को करीब देख कर द्विराष्ट्र का जो सिद्धांत लाया गया वह सत्ता हथियाने का औजार ही था। आप इसमें सावरकर और हिंदूवादी संगठनों को ला सकते हैं लेकिन इसके प्रतीक जिन्ना ही बने एक नए देश पाकिस्तान के प्रमुख के रूप में। सत्ता की उनकी इस महत्त्वाकांक्षा और संकीर्ण मजहबी दृष्टिकोण के कारण ही बांग्लादेश का भी जन्म हुआ। भारत में जो 1200 सालों का इतिहास था, पाकिस्तान में वह और संकीर्ण हो जाता है भाषा और जाति को लेकर। और, इसी संकीर्णता के प्रतीक के रूप में जिन्ना न भारत के नायक बन सकते हैं और न बांग्लादेश के। रवींद्रनाथ टैगोर का लिखा गीत बांग्लादेश का राष्ट्रगान है लेकिन उस राष्ट्रगान को गाते समय पीछे जिन्ना की तस्वीर नहीं हो सकती है। तस्लीमा नसरीन अपनी लेखनी के लिए बांग्लादेश से बेदखल हैं और भारत की पनाह में। मजहबी संकीर्णता और सत्ता लोलुपता ने जो पाकिस्तान से लेकर बांग्लादेश तक का सफर तय किया है उसे देखते हुए क्या जिन्ना की तस्वीर और प्रतीक किसी प्रगतिशील दिशा में जा सकती है खास कर जब हमारे पास गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर की तस्वीर हो।

गांधी और टैगोर अनेकता में एकता वाली राष्ट्रीयता का स्वरूप हैं। गांधी की राजनैतिक लड़ाई सत्ता हथियाने की नहीं बल्कि इंसानों के बीच भेदभाव के खिलाफ थी। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने ईसा मसीह के प्रेम के संदेशों के सफल प्रयोगकर्ता के रूप में गांधी को देखा था। प्रेम की नीति व्यक्तिगत ही नहीं सामाजिक और राजनीतिक रिश्तों में भी प्रभावी होती है। किंग जूनियर को यह समझ गांधी से ही मिली थी।

गांधी की तस्वीर घृणा के प्रतिरोध की तस्वीर है। इसके साथ ही हिंदुस्तान के पास आंबेडकर भी हैं जो आजाद भारत में सामाजिक बराबरी लाने का संविधान रच जाते हैं। गांधी, टैगोर और आंबेडकर की तस्वीरों वाले भारत में जिन्ना की तस्वीर इतिहास का ही हिस्सा रहनी चाहिए। जिन्ना की तस्वीर पर तकरार कर हम महज 1200 सालों तक ही खुद को सीमित रख लेंगे। भारत के पास उससे पहले, मध्य और बाद का साझा इतिहास है। तारीख में तारीखी वही होता है जो मानवता की राह पर चलता है, खलनायकों का कोना जड़ ही रहने देना चाहिए, उनके लिए जीवंत समाज में जगह नहीं होनी चाहिए।


(साभार जनसत्ता)
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आत्महत्या करने के कारण और रोकथाम | Aatmhatya ke karan | Veena Sharma


आत्महत्या

कब तक

— वीणा शर्मा

अरस्तु का कहना है कि समस्या से भागना कायरता है, आत्महत्या भले ही मृत्यु के समक्ष बहादुरी है लेकिन इसका उद्देश्य गलत है। टायन्बी कहते हैं कि कोई भी संस्कृति आत्महत्या से मरती है, हत्या से नही। हर रोज समाचारों में कही न कही किसी की आत्महत्या की सूचना भी अवश्य होती है। कभी कोई विद्यार्थी, कभी कोई पत्नी, व्यापारी अथवा किसान ऐसा प्रतीत होता है कि मृत्यु ने जीवन पर बड़ी सहजता से विजय प्राप्त कर ली है। समस्याएँ विराट हो गई है अथवा हमारी सहनशक्ति क्षीण हुई है। कोमल एक बहुत ही प्यारी बच्ची थी अभी कल तक वह है में शामिल थी। आज नही है। उसने आत्महत्या कर ली पत्र में लिखा कि वह अपने माता-पिता की उम्मीदों पर खरी नही उतर पायी इसलिये उसने जीने से बेहतर मृत्यु को स्वीकार कर लिया है। अँग्रेज़ी विषय में फेल होने के कारण उसका भविष्य ही समाप्त हो गया है क्योंकि अब अँग्रेज़ी ऑनर्स में उसके भविष्य की सारी सम्भावनाएँ समाप्त हो गईं है। माता-पिता अलग सदमें की सी हालत में थे। इस आत्महत्या के पीछे बहुत बड़ा कारण उनका अपना अति महत्वाकांक्षी होना ही साबित कर रहा था। इस नाते कई बार स्वयं माता-पिता ही अपने बच्चों के हत्यारे बन जाते हैं। एक हिन्दी भाषी सामान्य मध्यमवर्गीय छोटा सा परिवार, जिसमें माता-पिता और दो बच्चे बड़ी कोमल और एक छोटा बेटा है। कोमल पढ़ने में कोई बहुत अच्छी नही थी बल्कि उसकी रुचियाँ भिन्न थी लेकिन माता पिता इतने महत्वाकांक्षी कि उनकी बेटी या तो मेडिकल करेगी अन्यथा कम अज कम अँग्रेज़ी ऑनर्स में तो अवश्य जायेगी। मैं कोमल को जानती थी विज्ञान विषयों में न तो उसे रुचि थी और न ही वह अच्छी पकड़ ही बना पायी। दूसरे वह दसवीं के बाद यहाँ पढ़ने आयी थी । इससे पहले उसका परिवार उत्तरप्रदेश के एक छोटे से कस्बे में था। सभी विषयों का माध्यम अँग्रेज़ी रखवाने के कारण न तो वह विषयों के साथ न्याय कर पायी और न ही स्वयं के साथ। माता पिता के दबाव के कारण वह जी तोड़ मेहनत करती थी लेकिन अँग्रेज़ी में वह दक्षता हासिल नही कर पायी जो उसे अंकों के साथ आगे लेकर जा पाती, इसलिये अक्सर वह अपने परिणामों की बाबत झूठ बोल दिया करती थी। और आज अखबार मेरे सामने है अपने दोनों परिणामों को घोषित करता हुआ। एक में पचास प्रतिशत अंक और दूसरे में उसकी आत्महत्या।
जनसत्ता में प्रकाशित वीणा शर्मा का आलेख जिसमे उन्होंने jeevan mein tanav ke karan aatmhatya और अन्य कारणों पर लिखा है

डाॅ. वीणा शर्मा

असि.प्रोफेसर (हिन्दी)
गार्गी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
मो०: 9650536258

कोमल को मैंने जितना जाना था वह बहुत अच्छी डिजाइनर बन सकती थी। मैंने उसके कमरे की सुरुचि सम्पन्नता देखी थी। सीधी-सरल वस्तुओं को कैसे कलात्मक दृष्टि प्रदान कर देती थी। स्कूल में भी उसने चित्रकारी में और पत्रिकाओं की डिजायनिंग में ढेरों पुरस्कार जीते थे लेकिन उसके ये सारे पुरस्कार उस सपने के समक्ष बेकार थे, जो सपना उसके माता-पिता ने अपनी आँखों में कोमल के माध्यम से सजा रखा था। अक्सर माँ-बाप अपनी अधूरी इच्छाओं को अपने बच्चों के माध्यम से पूरी करते हैं। कुछ सफल भी हो जाते हैं लेकिन फिर उस बच्चे की अपनी इच्छा जीवन भर उसका पीछा नही छोड़ती और वह अपनी वर्तमान स्थिति से भी सन्तुष्ट नही हो पाता। ऐसे बच्चे आधा-अधूरा जीवन बिताते हुए असन्तुष्ट से रहते हैं। यह अवस्था कई बार उन्हें अवसाद की स्थिति तक ले जाती है। कोमल भी संभवतः इस अवसाद से जूझ रही होगी। पेपरों के बाद वह बस दो बार मुझसे मिली थी। दोनों बार मेरे यह पूछने पर कि उसके पेपर कैसे हुए हैं, उसका जवाब बहुत सन्तोषजनक नही था। संभवतः वह अंग्रेज़ी भाषा से जूझ रही थी अथवा उसके अवसाद का कोई और ही कारण था कि वह उतने अंक ले पायेगी या नही जितने उसके माता-पिता को अपेक्षा थी। दरअसल समस्या यही से शुरु होती है। जब माता-पिता अपनी महत्वाकांक्षाओं की गठरी अपनी सन्तान पर उनकी स्वीकृति जाने बिना लाद देते हैं तो बच्चा उस अनचाहे बोझ को केवल ढोता ही है और ढोने में जो मजबूरी का भाव है वही उन्हें निराशा की ओर ढकेलता है। असमर्थता के साथ असफल होने का भय उनकी रही सही हिम्मत भी खींच लेता है जिसका नतीजा कोमल सरीखा होता है। माता-पिता बगैर यह जाने कि उनके बच्चे की रुचि किसमें है, साथ ही वह कहाँ पिछड़ रहा है और उसमें वह कितना आगे बढ़ पाएगा, नही सोच पाते। बच्चे पढ़ाई के साथ माता-पिता की अधूरी इच्छाओं के बोझ को बस्तों के साथ-साथ टाँगें रहते हैं। एक प्राइमरी स्कूल की चतुर्थ कक्षा की अध्यापिका ने बताया कि कई बार छात्र आधे अंक के लिये भी गिड़गिड़ाने लगते है कि उन्हें अपनी माँ को जवाब देना पड़ेगा आधा अंक कम क्यों आया।

अंकों के आधार पर विद्यार्थियों का आकलन करने वाली हमारी शिक्षा प्रणाली कहाँ तक सही है, इसके बारे में समय-समय पर सवाल उठते रहते हैं। दूसरे हर माता-पिता अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, आइएएस अफसर बने ही देखना चाहते हैं। आज समाज पर नये उपनिवेशवाद, बाजारवाद और नये पूंजीवाद का वर्चस्व है। एक आम, सामान्य मजदूर इसमें से गायब है। इसके साथ ही आज जिसके पास पैसा है बाजार उसका मुक्त हृदय से स्वागत करता है वह कोई भी हो सकता है। अर्थात केन्द्र में पैसा है। हर माता पिता यही चाहते हैं कि उनके बच्चे खूब धन कमायें। पैसा केवल जीवन यापन का साधन मात्र अब नही रह गया है बल्कि सुविधाओं को भोगने का साधन बन गया है। इस सुविधा की कोई सीमा नही है। यह एक घातक सोच है। अधिक से अधिक पैसा कमाने की होड़ में ही माता-पिता अपने बच्चों को ऐसे कोर्स लेने के लिये बाध्य करते हैं जिसमें बच्चे दब कर रह जाते हैं। कुछ पिछड़ जाते हैं और कुछ आगे बढ़ भी जाते हैं। उनका लक्ष्य में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खुले द्वार होते हैं।

स्कूल कालेजों के परिणाम घोषित होते ही देश भर से ये समाचार आने लगते हैं अमुक जगह के फलां लड़के ने परीक्षा में कम अंक आने के कारण सल्फास की गोलियाँ खा ली अथवा फलां नगर की लड़की ने अंकों का प्रतिशत कम आने के कारण खुद की जान ले ली। इतने मासूम बच्चों की ऐसी दशा देख-सुन कर मन दहल जाता है। यह हालात केवल भारत में नही बल्कि यह समस्या दुनिया भर में है। आत्महत्या के मूल में अवसाद मुख्य कारण माना जाता है। ऐसा नही कि आत्महत्या की समस्या केवल विद्यार्थियों के साथ ही जुड़ी है। आज हम संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। कई विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। न पूरे प्राचीन रहे और न पूरे आधुनिक ही बन पाये, एक ओर हम अपनी संस्कृति का बखान करते हैं दूसरी ओर पश्चिमी सभ्यता के जबरदस्त आकर्षण में उलझे हैं। भाषा और वेशभूषा के मामले में अजीब दोचितेपन और दोहरे मापदण्डों में आज का समाज उलझा है। अँग्रेज़ी अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा है जिसे हमें सीखना चाहिये लेकिन भारत में जब यह मैकालियन ज्वर की तरह प्रत्येक के मस्तिष्क पर सवार हो जाती है तो समस्याएँ भी पैदा करती है। अनेक कस्बाई इलाकों से शहरों में पढ़ने आने वाले बच्चे इस ज्वर से संक्रमित होते हैं कुछ को तो यह ले डूबता है। बाकियों के लिये यह सफलता का पैमाना भी है। समाज के साथ स्वयं को न चला पाने वाले लोग ही मुख्य धारा से कट जाते हैं उनके अन्दर अवसाद की एक अलग ही दुनिया तैयार हो जाती है जिसमें वे जीने लगते हैं। ऐसे में सामाजिकता को काट कर चलने वाला हमारा आज का समाज उसमें अपना और योगदान दे देता है। इसका परिणाम यह होता है कि जब पानी सिर से ऊपर जा चुकता है, तब जाकर समस्या का पता चलता है और तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। आज रोजगार के अवसर लगभग समाप्त हैं। ग्रेजुएशन कर चुकने वाला व्यक्ति केवल किसी दफ्तर में ही अपने लिये सम्भावनायें तलाशता है। लेकिन नौकरी नही मिलती। बेरोजगारी अवसाद की ओर ले जाती है। और अवसाद आत्महत्या में त्राण पाता है।

आत्महत्या का अनुपात गाँवों और छोटे शहरों की अपेक्षा महानगरों में अधिक है। हालांकि विदर्भ के किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला जो 1990 से आज तक बदस्तूर जारी है उसका कारण प्राकृतिक और सरकारी दोनों हैं संभवतः महानगरों में जिजीविषा के संकट भयंकर हैं। हर रोज आत्महत्याओं के कई उदाहरण अखबारों की सुर्खियों में होते हैं। कारण भले उनके अलग-अलग हों लेकिन चिंता की बात यह है कि आज के सुविधा भोगी जीवन ने तनाव, अवसाद को बढ़ावा दिया है, इसके लिये येन-केन-प्रकारेण पैसा जुटाना अपराध नही है। अब सन्तोष धन का स्थान अँग्रेज़ी के मोर धन ने ले लिया है। जब सुविधाएँ सिर पर सवार होती हैं और उन्हें पूरा करने के लिये पैसा मुहैय्या नही होता है तब भी अन्तिम समाधान आत्महत्या में ही दिखता है। यह केवल भारत की समस्या नही है विदेशों में तो इसके आँकड़े चौंकाने वाले हैं। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में 2014 में कुल 42773 आत्महत्याएँ हुई। दूसरे अमेरिका में हर रोज 105 लोग आत्महत्या करते हैं इस तरह वहाँ वर्ष में अठतीस हजार मौतों का कारण आत्महत्या है। लगभग अस्सी नब्बे प्रतिशत किशोर किशोरियोँ तनाव ग्रस्त हैं जिनका डॉक्टरी इलाज चल रहा है। यह सब आज के अति भौतिकवादी युग की देन है। तकनालाजी ने मनुष्य को सुविधाएँ तो दीं लेकिन उससे उसकी मानवीयता छीन ली। उसे अधिक से अधिक मशीन और कम से कम मानव में तब्दील कर दिया है। एडवर्ड डेह्लबर्ग कहते हैं- जब कोई महसूस करता है कि उसकी जिन्दगी बेकार है वह या तो आत्महत्या करता है या यात्रा। सोचती हूँ लोग दूसरा रास्ता क्यों नही अपनाते?
डाॅ. वीणा शर्मा
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रूमानी कहानी 'ट्राम नंबर 5 और बोहेमियन धुन' — गीताश्री


रूमानी कहानी 'ट्राम नंबर 5 और बोहेमियन धुन' — गीताश्री

“तुम जिसे खिलाने की कोशिश कर रहे हो, मेरा नाम वही है। इसकी उत्तेजना मत बढ़ाओ। इतना मत छुओ इसे, डालियां गर्भवती हो जाएंगी।” 

Romantic Hindi Kahani

Tram No. 5 aur Bohemian Dhun - GeetaShree 


कहानी को पढ़ता पाठक कहानी के शिल्प में डूब जाए और शब्द चित्र बन जाएँ, छोटा सा वाक्य दृश्य बन जाए और कहानी में लिखी प्रकृति उसके फूल-बादल-और-हवाएं उसे छूने लगें... ऐसी है गीताश्री की ‘ट्राम नंबर 5 और बोहेमियन धुन’। हिंदी कहानी में नयी-बासंती-बयार उतर रही है। इनदिनों गीताश्री की कहानियों में आया नयापन विस्मृत किये जा रहा है, यह वही नयापन है जिसे मैंने शब्दांकन पर उनकी पिछली कहानी  'डाउनलोड होते हैं सपने' के समय भी बताया था. गीताश्री की कहानी पर कथाकार उषाकिरण खान ने अपनी फेसबुक वाल पर कहा है —

जनसत्ता मे गीताश्री की चमत्कृत करनेवाली कहानी पढ गयी । पात्रों के साथ लेखक का ग़जब तादात्म्य है।
अलग से -- मै वंदना राग के आकलन की तसदीक करती हूँ। तुम्हारा बढा हुआ क्षेत्र बहुत सारी अच्छी कहानियाँ लिखवायगा।
बधाई गीताश्री !

कथाकार वंदना राग के जिस आकलन की उषाजी तसदीक कर रही हैं वह उन्होंने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा था, जो कुछ यों है —

हाल ही में गीताश्री की कहानी जनसत्ता में पढ़ी और वासंती बयार से मानो छू गयी. गीता का नायक, चेक संगीत का जादूगर दोज़र्क, नायिकाओं के दोहरे चरित्र वाली दो नायिकाओं का प्रतिबिम्ब मन में धंस गया . जैसे धंस गया है मैगनोलिया. मैग्नोलिया जो आशा का परम द्योतक है और , अवसाद में भी इच्छा और कामना का बेहतर भविष्य सृजित करता है. सुन्दर कहानी की बधाई गीताश्री .सोचा था अपनी बात तुम्हारी कहानी डाउनलोड होते सपने से शुरू करुँगी लेकिन, देर होती चली गयी और एक युवा लड़की के संघर्ष और शोषणकारी मान्यताओं से मेरी मुठभेड़ कराती तुम ले आई मुझे एक ऐसे संसार में जहाँ सबकुछ सुन्दर तो है, अहलदा भी है इस देश से लेकिन फिर भी स्त्री के सवालों की connectivity और निरंतरता वैसे ही बनी हुई है जैसे सृष्टि के अन्य व्यापक कोनों में. इसी स्त्री की बात तुम तरह तरह से कहती हो. अच्छा लगता है. Marx की बात याद आ रही है" हमारे पास कुछ भी नहीं है खोने के लिए अपनी जंज़ीरों के अलावा" , यह युक्ति हर उस व्यक्ति के लिए है जिसे संघर्ष कर एक नयी दुनिया बनानी है. इसीलिए तोड़ना तो होगा ही बहुत कुछ ... गर्व से तोड़ डालो सारे ब्राह्मणवादी और शुचितावादि फरमान. पुनः बधाई.


आपका बहुत वक़्त तो नहीं लिया न ? कहानी पढ़िए... और अपनी टिप्पणी भी दीजियेगा.

दिल से

भरत तिवारी


ट्राम नंबर 5 और बोहेमियन धुन — गीताश्री


वह मुस्कुराती हुई सामान समेटने लगी। उसे जल्दी थी। उसका ट्राम छूट रहा था। उसने हौले से बाय कहा... उसने जोर से थैंक्यू कहा। गेस्ट हाउस की हवा में कुछ आत्मीय संवादों की गुंजाइश बनी। वह भी पीछे-पीछे ट्राम के लिए निकला पर गली में कहीं वह नजर नहीं आई। 
रोज की तरह वह सुबह-सुबह उस वीरान से ‘लतुस्का’ गेस्ट हाउस में घुसी और खाली पड़े रसोई में रौनक भरने लगी। अपने साथ लाई गई चीजें उसने टेबल पर सजाना शुरु कर दिया। गेस्ट हाउस में दस गेस्ट ठहरे हैं, सुबह उनके नाश्ते का इंतजाम उसी के जिम्मे हैं। सारे अतिथि सुबह उठते तो टेबल पर सबकुछ सजा होता। अकेली एक स्त्री उन्हें इशारा करती। जब सब खा चुके होते तो वह चुपचाप सारा सामान समेटती और गेस्ट हाउस से निकल जाती। किसी से बात नहीं करती और न किसी को मौका देती कि कोई सवाल पूछे। उसका यहां के लोगों से बस इतना-सा ही रिश्ता था कि वह सुबह-सुबह सबकी भूख मिटा देती थी। वह खामोश-सी औरत मुसकुराना भी नहीं जानती थी। एक कोने में बैठ कर वह अतिथियों के खाने का नजारा लेती और बीच में कभी न पड़ती। सब कुछ जैसे अपनी जगह पर धरा होता था। सीमित व्यंजन थे। रोज वहीं मेन्यू। लोग भले नए। पहली बार कोई वहां लंबे समय के लिए ठहर गया। वह आम लोगों जैसा नहीं था कि चुपचाप कुछ भी खा लेता। वह खाने को ऐसे घूरता जैसे सामने कोई चुनौती रखी हो और जिसका सामना उसे मजबूरन करना है। ठंडे बन्स, उबले अंडे और उबली हरी सब्जियों को देख कर वह ठंडी सांसे छोड़ देता। वह देखती कि बेमन से अपनी प्लेट में सारी चीजें लेता और उसी अंदाज में खाता। बाकी लोग बातें करते और खाते जाते। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि खाने में फाइव स्टार होटल जैसा प्रचुर भंडार नहीं है। इस वीराने गेस्ट हाउस में जो मिल जाता, उसे खा कर संतुष्ट थे। सिर्फ एक आदमी को छोड़ कर जो हर सुबह आतंकित रहता। वह समझ रही थी और ऊब और परेशानी की लकीरें उस आदमी के चेहरे पर साफ दिखने लगी थीं।

वह रोज सुबह कमरे से निकलता तो थोड़े रंग और एक माउथ-आर्गन जेब में रख लेता। यूरो रखना भले भूल जाए पर पेंट और ब्रश रखना नहीं भूलता। पिछले एक महीने में जान गया था कि पेंट और माउथ -आर्गन ज्यादा कीमती है किसी भी रुपये, पौंड और यूरो से। हुसैन-सी दीवानगी का शिकार तो था उसकी दीवानगी कुछ अलग तरह से निकलती थी। ठंड से सिहरती आंखों से वह उस सुंदर शहर में रोज खाली वस्तुएं ढूंढता है। उस शहर में अपनी छवि रंग टपकाते पेंटर की तरह नहीं छोड़ना चाहता था। हाथ में मोटा ब्रश लेकर, रंग टपकाती कनस्तर लेकर चलने के खुमार से वह खुद को ऊपर उठा चुका था। इस शहर में न कोई लावारिस कार दिख रही थी न किसी की टूटी-फूटी बदरंग दीवार जिसे पोत -पोत कर अपने मन का गुबार निकाल सके। पिछले एक हफ्ते से आवारा आंखें आवारा चीजों की तलाश में हैं।  सुबह का उबाऊ, ठंडा नाश्ता किसी तरह गटक कर गेस्ट हाउस से बाहर निकल आया। अप्रैल के महीने में भी बाहर हल्की ठंडी हवाएं चल रही थीं। मफलर की जगह अपने देसी गमछे को गले में लपेटता हुआ वह लंबी गली पर चल पड़ा जो कुछ दूर जा कर पक्की सड़क से मिल जाती थी। वहीं से उसे प्राग के नेशनल आर्ट गैलरी में जाने की ट्राम मिल जाती थी। पिछले कुछ दिनों से यही उसका रुटीन था। नेशनल गैलरी में उसकी पेंटिग्स की प्रदर्शनी एक महीने तक चलेगी। रोज वहां जाना अनिवार्य था। ट्राम नंबर 5 आ चुकी थी। झट से ऊपर चढ़ गया। सड़क पर चलती ट्राम उसे बहुत मजेदार लगती। रोज इसी से सफर करता था। ट्राम ने देवप्रकाश को और देव ने ट्राम को अच्छे से पहचान लिया था। खिड़की से लगातार बाहर देखता रहता। वह हरियाली ढूंढ रहा था। चारों तरफ पेड़-पौधे निर्वस्त्र दिखाई दे रहे थे।

“ओह... कैसे समय में मैं आया कि प्रकृति इतनी वीरान...” वह मन ही मन झुंझला उठा। एक महीने में अगर प्राग में प्रकृति का यही हाल रहा तो वह यहां का लैंडस्केप कैसे बना पाएगा... क्या भरेगा इन पेड़ों के चित्रों में... पत्ते कैसे होंगे... फूल कैसे आते होंगे... खिलते होंगे तो शहर का चेहरा कितना बदल जाता होगा। अपने लैंडस्केप के लिए वह प्राग के लैंडस्केप को जी भर जीना चाहता था। उसे कैमरे में कैद करके भारत लौटना चाहता था ताकि वहां बड़े कैनवस पर उन्हें उतार सके। ट्राम से उतरने के बाद गैलरी तक पैदल पांच मिनट की दूरी थी। गैलरी से पहले एक छोटा सा मकान पेड़ो से घिरा हुआ दिखता था। खूब पेड़ लगे हुए पर सब पत्रहीन गाछ। निर्वस्त्र पेड़ों को देखकर उसे अजीब-सी वितृष्णा होती। बेवजह उदासी चुपचाप उसके चेहरे पर पसरने लगती। फिर भी उधर से गुजरते हुए रोज वहां ठिठकता, उन्हें छूता और कुछ देर वहां बैठना चाहता। पेड़ों के पास एक टूटी हुई बेंच रखी नजर आई। वह धम्म से वहां बैठ गया। उसे बैठना अच्छा लगा। बेंच को एक पेड़ की टहनियां छू रही थीं। उसने हौले से उसे खींचा... उसे सहलाया... बहुत कोमल थी जैसे प्राची की हथेलियां। प्राची उसके करीब आई ही क्यों, क्या सिर्फ एक बच्चे के लिए उसका इस्तेमाल किया और छोड़ गई ? या उसे पेंटर से फैशिनेशन था? उसने बहुत कुछ छिपाया मुझसे। अपना शादीशुदा होना भी और बच्चे की चाहत भी। जाते समय वह व्यथित नहीं, बहुत शांत और भरीपूरी दिख रही थी। सबकुछ खत्म हो रहा था उसकी तरफ से, मैं टूट रहा था दूसरी तरफ। अपने किरचों से ही लहूलुहान, उसका बहाना भी अजीब, पति की नई नौकरी मैड्रिड में लगी है। जाओ प्राची, किसी दिन आऊंगा पीछा करता हुआ, तुमसे जवाब मांगने और शायद उसे देखने जिसकी आशंका प्रबल है मुझे। हो न हो... वो मेरा ही अंश है... उसका चेहरा देखूंगा एक बार... आऊंगा। ओह... प्राची यहां भी साथ चली आई। उसने पेड़ को भरपूर निगाहों से देखा। उसके तने को, शाखों को छू-छू कर देखता रहा, पेंट निकाला और उसके मोटे तने पर रंग-बिरंगे फूलों का गुच्छा बना दिया। थोड़ी देर बाद वह माउथ-आर्गन पर कोई दर्द भरा नगमा बजा रहा था।

सुबह नाश्ते से पहले भी यही धुन बजाने लगा। वह स्त्री प्लेट उठाती हुई ठिठक गई। पलट कर उसे देखा, चेहरे पर पहली बार उसे हरियाली नजर आई। भावहीन चेहरे पर स्मित-सी आई और लोप हो गई। फिर काम में लग गई। काम में जरा तेजी जरूर आ गई। वह और उत्साह में भर कर बजाने लगा। उसे लगा कि कोई कद्रदान मिल गई। वह उसे टोकना चाहता था। कहे तो क्या? क्या पता अंग्रेजी आती भी है या नहीं ? यहां तो भाषा बड़ी समस्या है। या तो चेक बोलते हैं या थोड़े बहुत जर्मन। अंग्रेजी बोलने-समझने वाले कम हैं। फिर भी वह उस स्त्री को कुछ कहेगा। माउथ-आर्गन जेब में रखता हुआ उसके पास गया —

“हैलो मादाम ! यू नो इंगलिश ?”

वह सिर हिलाई-

“यू नो... दिस सॉंग... हिंदी फिल्मी... ये अपना दिल...”

वह मुस्कुराती हुई सामान समेटने लगी। उसे जल्दी थी। उसका ट्राम छूट रहा था। उसने हौले से बाय कहा... उसने जोर से थैंक्यू कहा। गेस्ट हाउस की हवा में कुछ आत्मीय संवादों की गुंजाइश बनी। वह भी पीछे-पीछे ट्राम के लिए निकला पर गली में कहीं वह नजर नहीं आई। वह गली में मस्त धुन बजाता हुआ चलता रहा। उसे उन फूलों की याद आ रही थी जो अभी तक खिले नहीं थे, जिसका नाम तक नहीं जानता था और जिसके खिलने का इंतजार था ताकि उसकी पेंटिंग बना सके।
Tram No. 5 aur Bohemian Dhun - GeetaShree

गैलरी जाते समय शाखों को हिला गया। बड़बड़ाते हुए- “तुम अब खिल भी जाओ... मेरे जाने का वक्त आ रहा है।“ डालियां हिलीं तो कोंपले कंपकंपाई होंगी। शाम को उसके साथ बैठना था। दिन भर कला-प्रेमियों का तांता लगा रहता है। गैलरी के ठीक सामने सिटी सेंटर है और उसके एक छोर पर ओपेरा-हाउस। शाम तक आर्ट गैलरी भरी रहती है। कला-प्रेमियों और संगीत प्रेमियों से। कुछ पर्यटक भी होते हैं जो टाइमपास के लिए गैलरी का चक्कर लगा लेते हैं। इंडियन तो बिल्कुल अंदर नहीं आते। कुछ इंगलिश स्पीकिंग लोगों को चित्रों के बारे में समझाना पड़ता है। कुछ लोग कैटलौग लेकर पढ़ते हुए घूमते हैं तो कुछ लोग चित्रकार को खोजते हैं। फोटो खिंचवाते हैं... यह सब दिन भर चलता है। बीच बीच में वाई-फाई का फायदा उठाते हुए दिल्ली के कला समीक्षक विनय सरदाना से बात कर लेता है।

उसने चैट से नजर ऊपर उठाई । उसकी पेंटिग के सामने एक औरत की पीठ दिखी। सफेद और बादामी रंगों की लंबी पतली जैकेट पहन रखी थी। लंबी बूट और छोटा-सा पर्स। वह पीठ कुछ जानी पहचानी-सी लगी। गैलरी के कोने से उठा और उस औरत तक पहुंच गया। वह उत्सुक था कि देर से वह एक ही पेंटिग को देख रही थी। वह सोल्ड थी। उस पर लाल बिंदी चिपकी हुई थी। औरत की पीठ स्थिर थी। अपलक उसे देख रही थी। देव ने चकित होकर अपनी पेंटिग को उस औरत की निगाह से देखा।

“आप... यहां ?” उसने हाथ बढ़ाया मुस्कुराते हुए। हक्का-बक्का देव ने हाथ मिलाया। उसे सहसा यकीन ही नहीं हुआ कि वह सुबह वाली स्त्री यहां मिल जाएगी।

“मेरा घर यही पास में है। मैं अक्सर शाम को यहां आती हूं।”

वह टूटी फूटी अंग्रेजी में यही बता रही थी।

उसने गैलरी के सामने चौराहे की तरफ इशारा किया-“वहां चलें, बीयर हो जाए।“

सामने हार्ड रॉक कैफे दिख रहा था।

“आपने अपना नाम नहीं बताया?”

देव ने सकुचाते हुए पूछा। बियर की ठंडक गले के अंदर लकीर-सी खींचती चली गई थी। भीतर मौसम बदल रहा था।

“आपने भी तो अपना नाम नहीं बताया मि. देव”

वह शरारती हंसी थी।

”आप मेरा नाम जानती हैं? ओ एम जी !!  देव ने माथा ठोका।

उसने अपना हाथ बढ़ाया, बियर का ग्लास थामी हुई हथेलियां खाली न थीं कि हाथ मिलातीं। देव ने अपना हाथ वापस ले लिया। कुछ देर चुप्पी छाई रही। जैसे उसके होंठ नाम बताना नहीं चाह रहे हो। देव को लगा, उसे यहां से उठ कर सीधे वहां चला जाना चाहिए, जहां कुछ डालियां, कुछ तने और एक बेंच उसका इंतजार करते हैं हर शाम। अचानक इस तरह उठ कर जाना अभद्रता होगी। उसके चेहरे पर असमंजस और ऊब के भाव वह पढ़ सकती थी।

“आप जा सकते हैं... मैं यहां कतई बोर नहीं होऊंगी। मैं यहां कुछ पढ़ लूंगी या दोजार्क की सिंफनी सुनूंगी।”

“दोझार्क की सिंफनी न. 7 मेरी फेवरेट है, मैं उसे माउथ-आर्गन पर बजाने की कोशिश करता हूं, सुनाऊंगा कभी।”

उसने हाथ पकड़ लिए। बियर के मग से ठंड़ी हथेलियां उसे कंपकंपा गई। नस-नस में ठंड घुसी चली जा रही थी। बमुश्किल हाथ छुड़ा कर वह निकल पाया। वहां सरपट भागता हुआ उन पेड़ों के पास आकर रोज की तरह उन्हें छूने, सहलाने लगा। देर तक वहां बैठा रहा।

“तुम जिसे खिलाने की कोशिश कर रहे हो, मेरा नाम वही है। इसकी उत्तेजना मत बढ़ाओ। इतना मत छुओ इसे, डालियां गर्भवती हो जाएंगी।”

देव चौंक गया। कोई स्त्री स्वर था, जिसे हजारों की भीड़ में भी पहचान सकता था। वह आवाज यहां कैसे... पलट कर गेट की तरफ देखा। कोई स्त्री साया धीरे-धीरे इमारत की तरफ जाते ही लोप हो गया। गेट हौले-हौले हिल रहा था। देव उठकर गेट के अंदर भागा। वह साये का पीछा करना चाहता था। घर का दरवाजा बंद था। क्या वो यहां रहती है? क्या वह रोज उसे यहां देख रही है ? उसके पागलपन को, उसके दीवानेपन को, एक पेड़ के प्रति, फूल के प्रति। रोज वह माउथ-आर्गन सुनती है पर उसने कभी भनक न लगने दी। कल सुबह उससे बात करूंगा। मन में आया कि दरवाजा खटखटा दे। कुछ सोच कर सहम गया। पता नहीं अंदर कौन-कौन हो और फिर अनजाने देश में कोई समस्या खड़ी हो जाए। मन मार कर देव लौटने लगा। ट्राम नं.5 का वक्त हो गया था।

सुबह नाश्ते के लिए झटपट वह उठ कर डाइनिंग हौल की तरफ भागा। आज बात करेगा उससे। नाम पूछ कर रहेगा। नहीं तो उसके सहयोगी से पूछेगा।

कल शाम की रहस्यमयी आवाज उसका पीछा कर रही थी। नाश्ता वैसे ही सजा हुआ था पर वह नदारद थी। सब लोग चुपचाप नाश्ता कर रहे थे। उसका सहयोगी चीजों को करीने से सजाने में लगा था।

“वो मैडम क्यों नहीं आईं ?”

 “फिलहाल कुछ दिन नहीं आएंगी हाना मैम। उनके बेटे की तबियत खराब है। घर पर कोई देखने वाला नहीं। क्रेच में बीमार बच्चे को रखते नहीं।“

उबले अंडे, सूखे ब्रेड के साथ मुंह में ठूंसता हुआ गैलरी के लिए चल पड़ा। उसे कुछ खाली-खाली-सा लग रहा था। वह ट्राम नं. 5 पकड़ कर देविश्का चौराहे पर उतरा और सीधा पेड़ के पास बेंच पर बैठ गया। गैलरी जाने और किसी से मिलने, बात करने का मूड नहीं हो रहा था। शाखों पर कोंपले आ चुकी थीं। उसके अंदर से गुलाबी-सफेद कलियां झांक रही थीं। माउथ-आर्गन पर कोई इंगलिश धुन बजाने लगा।


“तुम बसंत जल्दी ले आए... तुमने उसे खिला दिया। मैंने कहा था न ज्यादा उत्तेजित मत करो “

पीछे से पहचानी-सी आवाज आ रही थी। देव सुखद आश्चर्य में गोते लगा रहा था।

“हाय... मेरा नाम मैगनौलिया उर्फ् हाना है। तुमने जिसे खिला दिया, उस फ्लावर का नाम भी यही है। मैं बसंत के दिनों में ही पैदा हुई थी, इसलिए मेरे माता-पिता ने यह नाम रखा। गुलाबी-सफेद रंगों वाली मैगनौलिया। वह बेंच पर उससे सट कर बैठी थी। कोई मादक-सी खूशबू उसके बदन से निकल रही थी।

“मेरा ब्वायफ्रेंड मुझे छोड़ गया, जब मैं प्रिगनेंट थी। वह काफ्का के लिटरेचर पर रिसर्च कर रहा था।“

देव ने माउथ-आर्गन पर सिंफनी बजाने की कोशिश करने लगा। हाना ने रोका-

“तुम पक्के बोहेमियन हो, कहां 19वीं शताब्दी में पहुंच गए हो? इस धुन को आज छोड़ दो, आज तो हमें दोर्जाक की “न्यू वर्ल्ड सिंफनी” सुननी चाहिए। बजाओ ना... सुना है या नहीं... सिंफनी नं.9। मैं सुनाऊं... बसंत का स्वागत इस धुन से करो”

हाना ने मोबाइल पर वह सिंफनी बजा दी। देव को लगा अचानक वह बियावां से निकल कर घने जंगल में पहुंच गया है, पेड़ों से पानी की बूंदें झर रही हैं, झाड़ियों से रोशनी फूट रही है, हिरनें कुलांचे भर रहे हैं... गुलाबी-सफेद फूलों से प्राग के सारे पेड़ लद गए हैं। यह सब एक बड़े कैनवस पर कोई पेंट कर रहा है।

वह सुनने के बजाय देख रहा था ।
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सनी लिओन के ब्रांड अम्बेसडर सुधीश पचौरी ? - अशोक गुप्ता @SunnyLeone


Sunny Leone's brand ambassador Sudhish Pachauri ? - Ashok Gupta

खामोश, विज्ञापन जारी है....

अशोक गुप्ता     


मानवीय संवेदना और अस्मिता के सामने यह एक बर्बर और विरोधी समय है, और इसकी लगाम पूरी तरह बाज़ार के हाथ में है. बाज़ार ने हर छोटी बड़ी शह को विक्रयशील पदार्थ में बदल दिया है. बाज़ार के हाथों सब बिकने को तैयार है और बाज़ार जिसे खरीदने के लिए चुन लेता है उसकी संवेदना और विवेक की नस को कुचल कर ही उसे अपने बेड़े में शामिल करता है और फिर उसकी प्रतिभा का अपने ढंग से इस्तेमाल करता है. बाज़ार के इस करिश्मे में ज़बरदस्त चकाचौंध है कि इसके आगे समाज और जन जीवन में कुछ भी घटता हुआ नजर आना बंद हो जाता है. यह सचमुच एक नृशंस बर्बरता है, लेकिन है, और बाकायदा है.

     एक ओर आंधी में टूटते पेड़ के पत्तों की तरह ऐसी खबरों से धरती ढकती जा रही है, जिनमें नवजात जन्मी बच्चियों से लेकर साथ सत्तर बरस की वृद्धाओं के साथ बलात्कार हो रहा है, बलात्कार के बाद हत्याएं हो रही है और इस प्रक्रिया को एक खेल की तरह खेलते हुए उसका उन्माद जिया जा रहा है. अन्यथा, स्त्री देह में तमाम तरह की वस्तुओं को ठूसने का क्या अर्थ हो सकता है... इस कृत्य का प्रलाप बाज़ार के सेंसेक्स की तरह संवेदनशील है. देखिये ज़रा से अनुकूल संकेत के बाद ऐसे आरोपियों की भीड़ लग गयी है जो नाबालिग बताये जा रहे हैं. वह हैं तो नाबालिग लेकिन अपनी कारगुजारी में किसी बिसहे से कम नहीं हैं. बारह चौदह बरस का किशोर नन्हीं बच्ची या लड़की से न केवल बलात्कार कर गुजरने में माहिर है बल्कि उसका मनोबल पीड़िता की हत्या कर देने भर भी सबल है. निर्भया काण्ड के बाद ऐसी घटनाओं ने देश भर के रोजनामचे में अपनी अव्वल नंबर की जगह बना ली है. और अभी तक कोई ऐसा शोध, ऐसा सामाजिक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण सामने नहीं आया है जो यह बता सके कि ऐसी कौन सी मनःस्थिति है जो पुरुष को अकस्मात् मानव से मात्र शिश्न में बदल दे रही है, और ईश्वर ने किसी के भी शिश्न में आँखें नहीं दी हैं. इसलिए पुरुष चाहे वह पिता की भूमिका में हो, भाई की भूमिका में हो या गुरु हो, वह संबंध निरपेक्ष किसी भी इंसानी मादा के ऊपर शिश्न बन कर उतर जा रहा है. सामाजिक परिदृश्य इस दुराचरण से भरा हुआ है और समाज को यह जानना बाकी है कि इस पुरुष की इस भीषण मानसिक स्थिति का कारण क्या है...


Jansatta, May 1, 2016

     ऐसे में, कम से कम यह तो हो ही सकता है कि समाज को ऐसी आबोहवा, ऐसी परिस्थितियों और ऐसी सामग्री से तब तक दूर रखा जाय जब तक ऐसा कोई शोध सामने न आ जाय कि इन घटनाओं का संबंध पुरुष में उद्दीपनकारी उन्माद संचालन से नहीं है. फिलहाल अभी तो यही मुक्कमल तौर पर माना जा रहा है कि इस दौर का पुरुष किसी भी नशीले विचलन को संयमपूर्वक सह पाने में समर्थ नहीं है और उस विचलन की दशा में वह किसी के भी साथ कोई भी अनर्गल और मर्यादाहीन आपराधिक कृत्य कर सकता है.

     क्या इस तर्क के आधार पर हमारी सामजिक व्यवस्था कोई ‘रोकथाम’ जैसी नीति या गतिविधि अपना रही है ?

     उत्तर है, ‘नहीं’ बल्कि बाज़ार उस उन्माद्कारी आचरण को हवा दे रहा है, कि नशे की संस्कृति व्यापक हो और घातक नशीले पदार्थों का प्रयोग प्रगतिशीलता का लक्षण माना जाय. उपभोक्ता गर्व के कहें कि उन्हें तो ‘इसके’ बिना रात को नींद नहीं आती.

     क्या ‘इसके’ का खुलासा करना ज़रूरी है ? यदि हाँ, तो लीजिये, पहला नाम तो शराब का ही है. कोई भी व्यवस्था चाहे वह राजनैतिक हो या न्यायिक, शराब के प्रचलन पर रोक नहीं लगा सकती. कारण स्पष्ट है, शराब का प्रचलन बाज़ार की मांग है. बात ख़त्म.

     दोस्तों, यह तो केवल बात की भूमिका हुई.

     ताज़ा नज़ारा यह है कि पोर्न सामग्री को बाज़ार बाकायदा समाज में योजनाबद्ध ढंग से उतारने की तैयारी में है. इस प्रोजेक्ट की कैरियर हैं सनी लिओनी और ब्रांड अम्बेसडर मैं हिंदी के प्रबुद्ध विचारक सुधीश पचौरी. हिंदी के प्रबुद्ध वर्ग के पाठकों के एकमात्र समाचारपत्र में सुधीश पचौरी का लम्बा आलेख प्रकाशित है जो वस्तुतः सनी लिओनी की पोर्नोग्राफिक वेब साईट का विज्ञापन है. इसमें सुधीश पचौरी अपने भावी उपभोक्ताओं को सूचित करते हैं कि यह साईट मोबाईल फोन पर एक ऐप की तरह उपलब्ध होगी और इसे घर में, दफ्तर में संसद सदन में, चिकित्सालय में कार्यरत लोगों द्वारा ऑपरेशन थियेटर में या अन्यत्र कहीं भी देखी जा सकती. सुधीश पचौरी अपने दायित्वधर्म में यह बखानते है कि पोर्नोग्राफिक सामग्री का रसास्वादन भारत में आदिकाल से हो रहा है और रीतिकालीन साहित्य इस बात की गवाही देता है, यानी कि इसलिए इस साईट पर प्रस्तुत सामग्री के उपयोग में कोई गलत बात नहीं है. सुधीश पचौरी हवाला देते है कि सनी लिओनी की इस महत्वाकांक्षी योजना की खबर अंग्रेजी अखबारों में पहले ही आ चुकी है. ऐसे में यह स्पष्ट है कि यह युवाओं के हाथ में वैसे ही सहज उपलब्ध होगी जैसे एक सिगरेट...

अशोक गुप्ता

305 हिमालय टॉवर, अहिंसा खंड 2, इंदिरापुरम,
गाज़ियाबाद 201014
09871187875 | ashok267@gmail.com

     3 G तथा 4 G वाले फोन तो आजकल सब्जी भाजी और किराने वालों के पास भी आसानी से मिल जाते हैं. यह उनके रोज़मर्रा के काम का एक सहायक उपकरण है, ऐसे में, सनी लिओनी की इस कारगुजारी का लाभ बाज़ार भले ही अपने अनंत हाथों से उठाये, पोर्नोग्राफी का यह ‘अतिसुलभ’ व्यसन देशव्यापी स्तर पर पुरुष के शिश्न में बदल जाने का व्यापक महारोग बन जाने वाला है.

     निसंदेह इससे सनी लिओनी भी खूब कमाएंगी, लेकिन वह इस भूल में न रहें कि उनका यह कारनामा उन्हें बड़ी साहित्यिक प्रतिष्ठा दिलाने वाला औज़ार है. वह इस भूल में भी न रहें कि सुधीश पचौरी उनके ब्रांड अम्बैसडर होंगे. दरअसल वह उस साईट के ब्रांड अम्बेसडर होंगे जिसे बाज़ार लॉन्च करके कमाई का रास्ता खोलेगा, और इस प्रक्रिया में अनेकों असली या आभासी सनी लिओनी तैयार हो जाएंगी और बाज़ार फैलता रहेगा.

     सुधीश पचौरी ने अपने वक्तव्य में एक बहुत पते की बात, बहुत धीमी आवाज़ में कही है, ठीक उसी तरह जैसे बाजारी उत्पादों पर बहुत महीन अक्षरों में संवैधानिक चेतावनी लिखी जाती है. उन्होंने माना कि रीतिकालीन पोर्नोग्राफिक कही जा सकने वाली सामग्री में उन्माद्कारी देह विधान के साथ मन भी समान्तर रूप से सहयोगी होता है, जब कि इस सनी लिओनी टाइप पोर्न में केवल यौनिक प्रक्रियाओं के देह संचालन का उन्माद है और मन जैसी आत्मा का घोर निर्वात है. चलो, सुधीश पचौरी ने कुछ तो मानवीयता के मद्देनज़र कहा.

     यहाँ से मैं हाल में हो रही बलात्कारी गतिविधियों के एक कारक तत्व तक पहुँचने का प्रयास करता हूँ.

     देह संबंध चाहे वह पति-पत्नी के बीच में हों या इतर, यदि उनमें दोनों की सकारात्मक सहभागिता का साक्ष्य देती मन की उपस्थिति नहीं होती तो उसका परिणाम अतृप्ति भरे असंतोष से होता है. चूंकि सामान्य सामजिक भाषा बोध इस प्रक्रिया में पुरुष को ‘लेने वाला’ और स्त्री को ‘देने वाली’ की भूमिका सौंपता है तो इस अतृप्ति का असंतोष पुरुष को पागल कर देता है. वह तृप्ति के तमाम अप्राकृतिक, कृतिम और बर्बर क्रिया कलाप आजमाने लगता है और वह कभी नहीं जान पाता कि उसकी अतृप्ति का मूल कारण उसकी इस ‘लेने’ की क्रिया में मन की अनुपस्थिति है.

     ऐसे में दोस्तों, मन की अनुपस्थिति में इतर ‘आसनों’ से सज्जित सनी लिओनी की पोर्न साईट समाज में क्या आग लगाएगी यह सहज समझा जा सकता है.. पर किया क्या जाय, बाज़ार तो खोज खोज कर नये नीरो ला रहा है, जिनके पास उनकी प्रतिभा की बांसुरी है और जिनका विवेक और संवेदना बाज़ार ने दबोच रखी है.

     क्या बाज़ार की यह विष बयार किसी ढब रोकी जा सकती है ?
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स्मृति ईरानी का फरजीवाड़ा - ओम थानवी | #SmritiFakeDegree Om Thanvi @omthanvi


शिक्षामंत्री ही जहाँ अनैतिक फरजीवाड़े में मुब्तिला हो, वहाँ शिक्षा का हश्र क्या होगा? 

- ओम थानवी

स्मृति ईरानी का फरजीवाड़ा - ओम थानवी | #SmritiFakeDegree Om Thanvi @omthanvi

स्मृति ईरानी के फरजीवाड़े की बात निकलने पर एक टीवी बहस ('मुक़ाबला', एनडीटीवी पर आज रात 26/06/15 आठ बजे) में संबित पात्रा ने जब फिर कहा कि टाइप की त्रुटि है तो मुझे कहना पड़ा - टाइप की गलती 'ए' को 'एस' लिखने पर कहला सकती है, स्मृति के (तीन) हलफनामों में टाइप की ऐसी त्रुटि कौनसी है? उनका कहना था कि शिक्षण संस्थान का नाम कुछ और टाइप हो गया। मैंने कहा, इससे भी क्या साबित होगा? जहां "B.A.1996" लिखा गया है वहां तो टाइप की गलती कहीं नहीं है? अगर नहीं है तो उनकी बीए की डिग्री, भरती के कागजात, अंक तालिकाएं कहाँ हैं?

बाद के हलफनामों में जो "B. Com. Part-1" की डिग्री बताई गई है, वह भला कौनसी होती है? क्या किसी डिग्री की महज एक वर्ष की पढ़ाई (मान लें वह की होगी) को डिग्री की तरह शैक्षिक योग्यता बताकर पेश किया जा सकता है? मजे की बात देखिए कि शिक्षा मंत्री की डिग्री से संबंधित आरटीआइ में जानकारी देने से इनकार कर दिया गया है! वैसे खबरों में यह आया कि 2013 में स्मृति ने अपने आपको बी-कॉम के लिए दिल्ली विश्व. के पत्राचार पाठ्यक्रम में एनरोल जरूर करवाया था, पर परीक्षा में कभी बैठीं नहीं।

सबसे बड़ी बात - तीन हलफनामों में अगर कोई सही भी है तो केवल एक सही हो सकता है, दो तो झूठ अर्थात कानूनन अपराध ही होंगे। … संबित से मुझे सहानुभूति होती है कि उन्हें कैसे-कैसे कर्म बचाव के लिए दे दिए जाते हैं।

बचाव के लिहाज से उन्होंने सोनिया गांधी की डिग्री में घपले की बात उठा दी। कांग्रेस के प्रवक्ता अजॉय अपने ढंग से उलझते रहे। मेरा कहना यह था कि यह तो प्रकारांतर से स्मृति के गुनाह का स्वीकार हो ही गया; सोनिया गांधी के अपराध से स्मृति ईरानी के अपराध को सही कैसे ठहराया जा सकता है? फिर स्मृति तो मंत्री पद पर आसीन हैं, और विभिन्न दावों वाली उनकी 'डिग्रियां' पूरी तरह संदिग्ध हैं।

इसमें सवाल कानूनी उतना नहीं, जितना कि नैतिक है - कोई शिक्षा मंत्री डिग्रीधारी न हो तब भी चलेगा, आखिर हमारे देश में कितने बड़े विद्वान और साहित्यकार-कलाकार डिग्रीविहीन हुए हैं; लेकिन स्मृति तो स्वयं डिग्री की जरूरत में भरोसा रखती हैं (येल सहित उनके विभिन्न दावों से साफ जाहिर है) तो उनकी डिग्रियां फरजी कैसे? शिक्षा नैतिकता का पर्याय होती है, शिक्षामंत्री ही जहाँ अनैतिक फरजीवाड़े में मुब्तिला हो, वहाँ शिक्षा का हश्र क्या होगा? अकारण नहीं है कि विभिन्न विश्वविद्यालयों से लेकर UGC, IIM, ICHR, NCERT, NBT जैसे संस्थान अपनी स्वायत्तता को लेकर ईरानी राज में बिलबिला रहे हैं।

स्मृति को बचाने की हवाई कवायद पता नहीं कब तक चलेगी! फिर भाजपा में विवादास्पद 'डिग्री'-धारी वे अकेली तो नहीं हैं। विडंबना यही है कि धोखेबाज तोमर के लिए देश में शायद अलग कानून है, सयानी स्मृति के लिए अलग।


om.thanvi@expressindia.com
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प्रधानमंत्री के नाम चिट्ठी - पी. चिदंबरम | Letter to the Prime Minister - P. Chidambaram


प्रधानमंत्री के नाम चिट्ठी - पी. चिदंबरम | Letter to the Prime Minister - P. Chidambaram


प्रधानमंत्री के नाम चिट्ठी

- पी. चिदंबरम

प्रिय प्रधानमंत्री महोदय,

मैं एक मामूली नागरिक हूं। एक मामूली परिवार से आता हूं, मामूली पढ़ाई-लिखाई है, एक मामूली से शहर में रहता हूं और मेरी बड़ी मामूली हसरतें हैं। मुझे एहसास है कि मैं एक शिक्षक का बेटा हूं और मेरे पास बीए की डिग्री (द्वितीय श्रेणी) है, इसलिए शायद मैं औसत से ऊपर हूं। इससे बस ये पता चलता है कि औसत कितना नीचे है।


बीते हफ्ते, मुझ पर और मेरे जैसे बाकी नागरिकों पर संपादकीयों, वक्तव्यों, साक्षात्कारों, स्तंभों, ब्लॉग, ट्वीट और पता नहीं क्या-क्या बरसते रहे, और मैं बिल्कुल उलझन में हूं। मुझे लगा कि 26 मई को आपका जो पत्र अखबारों में छपा, उससे स्थिति स्पष्ट हो जाएगी, लेकिन क्या कहूं, मैं और उलझन में पड़ गया हूं। इसलिए कृपया कुछ सवाल पूछने की मेरी गुस्ताखी झेल लें।

कहां हैं नौकरियां?


मेरा पहला सवाल है, अर्थव्यवस्था कैसा कर रही है? मेरे लिए और मेरे बच्चों के लिए, और मेरी गली में रहने वाले हर परिवार के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण चिंता नौकरी है। क्या आप मुझे बता सकते हैं कि आपकी सरकार के पहले साल के दौरान कितने रोजगार सृजित किए गए? जो संख्या मुझे दिखी, वह हर तिमाही एक लाख से कुछ ज्यादा है, यानी साल भर में कुल जमा 4 से 5 लाख रोजगार। मैंने यह भी पढ़ा कि तमिलनाडु के रोजगार कार्यालय में 85 लाख लोग रजिस्टर्ड हैं। अगर इस हिसाब से पूरे देश का हिसाब लगाएं तो क्या आप नहीं मानेंगे कि हालात बेहद चिंताजनक हैं? तो कृपया हमें नौकरियों की सच्चाई बताएं।

इसी से मेरा अगला सवाल पैदा होता है - कौन दे रहा है ये नौकरियां? यहां के एक सरकारी कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाली मेरी एक पड़ोसी ने मुझे बताया कि खेती में कोई ‘वास्तविक’ नया रोजगार पैदा नहीं हो सकता। उसे लगता है कि अगर ज्यादा से ज्यादा लोग नए कारोबार शुरू करें और बिजली या इस्पात या कार या मोबाइल फोन या किसी और चीज के ज्यादा से ज्यादा बड़े कारखाने लगें, तभी ज्यादा प्रत्यक्ष या परोक्ष रोजगार आएगा। उसने कहा कि मूल चीज ‘निवेश’ है और आपसे पूछने को कहा कि बीते साल सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र के उद्यमों ने कितना पैसा निवेश किया, जब उनकी परियोजनाओं में उत्पादन शुरू हो जाएगा तो वे कितनी नई नौकरियां देने की उम्मीद कर रहे हैं और कब तक। वैसे, हमें हजारों करोड़ रुपए वाली किसी बड़ी परियोजना के उद्घाटन या भूमि पूजा के विज्ञापन अब क्यों नहीं दिख रहे जैसे कुछ साल पहले दिखते थे?

क्यों हर कोई चिंतित है?


एक छोटा कारोबार करने वाले मेरे एक रिश्तेदार ने मुझे बताया कि अब बैंक कर्ज देना पसंद नहीं करते। हाल के एक लेख में डॉ रंगराजन ने कहा कि सैकड़ों निजी और सार्वजनिक परियोजनाएं रुकी पड़ी हैं। एक पत्रकार ने मुझे बताया कि पिछले पांच महीनों में देश में बिजली की खपत ठहरी हुई है। उपभोक्ता सामग्री का उत्पादन करने वाली कंपनियां कहती हैं कि ‘सकल मांग’ हताश करने वाली है, जो मेरी समझ में नहीं आता, लेकिन मैं मानता हूं कि आप समझते होंगे। मैंने टीवी पर एक वकील को कहते सुना कि बिजली, कोयला, गैस और तेल, हवाई अड्डे, सड़क, दूरसंचार और दवाओं के क्षेत्र में काम कर रही हर बड़ी कंपनी मुकदमों में उलझी हुई है। अगर असली हालात यही हैं, तो प्रधानमंत्री जी, आप कैसे उम्मीद करते हैं कि कोई विदेशी निवेशकर्ता, या फिर भारतीय निवेशकर्ता ही, भारत में निवेश करेगा?

वित्त मंत्री की दलील यह होती है कि यह ‘विरासत में मिला है,’ लेकिन मेरे सरल सोच में, यह तो हर सरकार की किस्मत है। हर सरकार को बहुत सारी समस्याएं मिलती हैं जिन्हें सुलझाना होता है। मैं आपको याद दिलाऊं कि आप गुजरात मॉडल को (वह क्या था, मैं नहीं जानता हूं) को लागू करने और अच्छे दिन लाने के वादे पर सत्ता में लाए गए थे। बहानों के लिए कोई जगह नहीं है। 

सेहत, शिक्षा, दोपहर के भोजन की योजना, पेयजल, आइसीडीएस, आरकेवीवाइ और आदिवासियों और दलितों के कल्याण के लिए आबंटित फंड में भारी कटौती से भी मैं चिंतित हूं। मैंने पढ़ा कि मुख्यमंत्रियों ने यह शिकायत की और आपके कई मंत्री भी कर रहे हैं। मुझे बताया गया कि इसके नतीजे साल के अंत में समझ में आएंगे।
एक और किस्से की गवाही ने लोगों के दिमाग में डर पैदा किया है और उनमें सरकार का भरोसा छीजा है। एक ग्रेजुएट को नौकरी नहीं मिलती और एक कामकाजी लड़की को उसके किराये के फ्लैट से बाहर कर दिया जाता है क्योंकि वे मुसलिम हैं। गैरसरकारी संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध बढ़ती असहनशीलता को लेकर जूलियो रिबेरो अपनी पीड़ा जताते हैं। राज्यों में भाजपा सरकारें बीफ के उपभोग या बिक्री पर पाबंदी लगा रही हैं। क्या आप किसी खुले समाज में, और तकनीक से जुड़े संसार में, किसी चीज पर वाकई पाबंदी लगा सकते हैं, और अगर आप लगा भी सकते हैं तो कितनी चीजों - मटन, किताबों विदेश यात्राओं, डॉक्युमेंटरी, फिल्मों में अपशब्द, गैरसरकारी संगठनों - पर पाबंदी लगाएंगे? ऐसे मुद्दों पर इतनी ऊर्जा क्यों बरबाद करना जो बांटने वाले और अनुत्पादक हों?

मेरा आखिरी सवाल है, आप उस स्पष्ट बहुमत का क्या कर रहे हैं जो हमने चुनावों में आपकी पार्टी को दिया था? आपके कुछ सांसद बिल्कुल शर्मिंदगी का सबब हैं। (सियोल में भारत में पैदा होने को लेकर आपने जो भाषण दिया था, वह भी।) मैंने सोचा था कि आप अपने बहुमत का इस्तेमाल नीतियों, कार्यक्रमों   और क्रियान्वयन में बदलाव लाने के लिए करेंगे, लेकिन मुझे बस आपके हाथों में सत्ता केंद्रित होती दिख रही है और काम कम बात ज्यादा नजर आ रही है। इकोनॉमिस्ट ने आपको ‘वन मैन बैंड’ बताया है जिसे नई धुन की जरूरत है। मैं आशा करता हूं कि आप अपने आलोचकों की बात सुनेंगे जो दिल से देश का कल्याण और विकास चाहते हैं।


आपका विश्वासी

एक चिंतित नागरिक।

साभार जनसत्ता 
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अनदेखी की आग - भरत तिवारी | Bharat Tiwari on Suicides in India


अनदेखी की आग 

- भरत तिवारी

जनसत्ता 'दुनिया मेरे आगे' 1 मई 2015 में प्रकाशित  लेख  । लिंक  ... 

न सिर्फ आग पहले से जल रही थी बल्कि लोगों को लील भी रही थी । न उन्होंने आग देखी न जलते लोग, न उन्होंने आपको देखने दिया बात यहीं ख़त्म भी की जा सकती है, और है भी, कि आपने आग, धुआँ, चिंगारियां सब देखी लेकिन नहीं देखी। तब भी नहीं जब विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रीवेंटिंग स्यूसाइड रिपोर्ट आयी (सितम्बर २०१४) जिसके मुताबिक़ दुनिया भर में सबसे ज़्यादा आत्महत्या के मामले भारत में हो रहे हैं और जिसके आंकड़े कहते हैं कि भारत में साल 2012 में 2,58,075 लोगों ने आत्महत्या की और महिलाओं (99,977) के बजाए पुरुषों (1,58,098) की संख्या ज़्यादा है जिन्होंने अपनी जान ली है। दुनिया भर के देश आत्महत्या को रोकने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं और हम, हमें नंबर वन बनना है जो कि फिलहाल ज्यादा आत्महत्या में हैं हम। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्‍यूरो (NCRB) की पिछली रिपोर्ट (2003-2013) को देखने पर पिछले दशक में 2003 और 2013 के बीच  21.6% की वृद्धि है... यहाँ ‘भयावह’ शब्द छोटा लग रहा है। आग की आँच अब इतनी बढ़ गयी है कि आपकी त्वचा भी झुलसने लगी है। आखिर कैसे लगी आग जंगल में? 22 अप्रैल की जंतरमंतर पर हुई घटना पर बात करने से पहले अगर पीछे मुड़कर देखा जाये तो आग एक – दो जगह ही नहीं बल्कि चारों दिशाओं में नज़र आएगी।

बेमौसम बारिश और ओलों से खड़ी फसल का नष्ट होने की तुलना हमें किसी फैक्ट्री में लगी आग, किसी परिवार के अर्निंग-मेंबर के ना रहने से करनी चाहिए, दरअसल हमें अहसास ही नहीं है कि किसान पर ऐसे वक़्त में क्या गुजरती होगी।  केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री चौधरी बीरेंद्र सिंह के इस कथन का अर्थ क्या है “किसान कभी भी फ़सल ख़राब होने से आत्महत्या नहीं करते. वे इतने कमज़ोर नहीं होते कि आर्थिक नुक़सान न झेल पाएं और अपनी जान दे दें.” (२० अप्रैल २०१५ बीबीसी )। कमज़ोर, कौन कमज़ोर नहीं हो सकता, बुरे हालात जब बद से बदतर हो रहे हों और उम्मीद जगने को न राज़ी हो तो हर इंसान कमज़ोर पड़ेगा।

ये कैसी प्रगति का रास्ता है कि जो हमारे लिए भोजन उगाते हैं हम उनकी परेशानी को देखते तक नहीं? ऐसा रास्ता किस लिए जो लोगों को पहले भूखा रख रहा है और फिर उन्हें खुद को मिटा देने के रास्ते पर ले जा रहा है... जनवरी से मार्च 2015 तक महाराष्ट्र में 601 किसान आत्महत्या कर चुके हैं, ये पिछले वर्ष से 30 प्रतिशत ज्यादा है। जन्तरमंतर पर हुई आत्महत्या को यदि हम बिना किसी पूर्वाग्रह के देखें तो दिखेगा की गजेन्द्र की आत्महत्या वो आत्महत्या है जिसे करने का उसका इरादा नहीं था। पैर का डाल से फिसल जाना उसकी मौत का कारण बनता नज़र आता है। लेकिन जो भी हो एक इंसान की मौत हुई है और जो वहां ऐसा कुछ-भी रोकने के लिए ही उपस्थित था, उसने नहीं रोका। किसी भी रैली में क्या यह संभव है कि मंच पर बैठा आदमी किसी को पेड़ पर चढ़ने से रोक सके? मिडिया को दोष हम सिर्फ इसलिए दे पा रहे हैं कि वो वहां रैली को कवर करने के लिए मौजूद थी, और उसी समय एक आदमी पेड़ पर चढ़ जाता है, और दुर्घटना का शिकार हो जाता है, फिर तो वहां मौजूद हर इंसान दोषी हुआ, सिर्फ मिडिया या मंच पर मौजूद लोग ही नहीं... क्या कर रही थी पुलिस? क्या उसे भी बाकी सबकी तरह गजेन्द्र का पेड़ पर चढ़ना महज एक प्रदर्शन लग रहा था? और यदि ऐसा है भी तब भी पुलिस ने उसे क्यों नहीं रोका? कौन था वहां का प्रभारी क्यों आपको उसका नाम नहीं पता?

जो भी हो चूंकि घटना देश की राजधानी में घटी है इसलिए हमेशा की तरह सुर्खियों में है, जिसका बड़ा कारण मिडिया की भारी उपस्थिति ही होता है। दुखद यह है कि इस सब के बीच हम फिर आग को भूल गए हैं, किसान वहीं खड़ा है जहाँ था, जहाँ उसकी फसल नष्ट हुई है, जहाँ उसके ज़ेहन में आत्महत्या का विचार कभी भी उग उसे निगल सकता है।

अनदेखी की आग - भरत तिवारी | Bharat Tiwari on Suicides in India


एक आग और है जिसे हम नहीं देख रहे हैं, बीते वर्षों की आर्थिक मंदी का शिकार हर व्यवसाय हुआ है, और इस मंदी से सिर्फ व्यवसायी को ही नुकसान नहीं होता बल्कि एक पूरी श्रृंखला होती है जो प्रभावित होती है; मसलन रियल-इस्टेट की मंदी का प्रभाव बिल्डर को तो होता ही है, उसने भी क़र्ज़ लिया होगा बिल्डिंग बनाने के लिए, ईंट के व्यापारी को भी मंदी झेलनी पड़ रही होगी, और बिल्डिंग बनाने से जुड़े इंजीनियर, मजदूर, मिस्त्री सब परेशानी से गुजर रहे होंगे, उम्मीद की आशा ही आगे का रास्ता बनाती है लेकिन इस दफ़ा इस आशा को ओझल हुए दो-चार वर्ष बीत गए हैं, इन बीते वर्षों में यह आग बढ़ी ही होगी, इसका क्या परिणाम हो सकता है? ये न देखना पड़े तो ही बेहतर होगा। फौरन इलाज तलाशने का वक़्त है ये वरना झुलसी त्वचा का प्रतिशत १०० हो जायेगा।

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सौंदर्य के प्रतिमान - जनसत्ता


सौंदर्य के प्रतिमान

जनसत्ता 

पिछले हफ्ते राज्यसभा में बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा छब्बीस फीसद से बढ़ा कर उनचास फीसद करने के लिए पेश किए गए विधेयक पर चर्चा ने उस वक्त दिलचस्प मोड़ ले लिया, जब जनता दल (एकी) के शरद यादव ने सुंदरता को लेकर हमारे समाज में व्याप्त एक खास पूर्वग्रह की आलोचना शुरू की। उनकी बात को केवल इसलिए हल्के ढंग से नहीं लिया जाना चाहिए कि वह मूल विषय से हट कर थी। यादव ने कहा कि हम गोरे रंग को बहुत तवज्जो देते हैं और उसे खूबसूरती का पर्याय मान बैठे हैं; यह धारणा न केवल गलत है बल्कि अधिकतर लोगों के प्रति अन्यायपूर्ण भी है। उन्होंने जहां कृष्ण का उदाहरण दिया, वहीं दक्षिण की स्त्रियों का जिक्र किया, जिनके नृत्य मोहक होते हैं। राकांपा के देवीप्रसाद त्रिपाठी ने उनके तर्क के समर्थन में कालिदास का एक श्लोक भी उद्धृत किया। कुछ लोगों को यह चर्चा अटपटी लग सकती है। पर यह कोई देह-चर्चा नहीं थी। 


दरअसल, शरद यादव जिस बात की तरफ ध्यान खींचना चाहते थे वह यह कि गोरे रंग को हमने अनावश्यक महत्त्व दिया हुआ है, सांवला होने को हीन बना दिया है। इस मानसिकता से उबरने की जरूरत है। यों सारी दुनिया में ऐसी धारणा किसी न किसी हद तक प्रचलित है, पर अपने देश में यह कहीं ज्यादा गहराई से जड़ें जमाए हुए है। अधिकतर भारतीय पुरुषों और स्त्रियों के सांवले होने के बावजूद ऐसा क्यों हुआ, यह अध्ययन का विषय है। समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया इसे चार सौ वर्षों की गोरी प्रभुता का फल मानते थे; वे यह भी कहते थे कि खूबसूरती के बारे में गलत धारणाओं के कारण बहुत सारी तकलीफ और पीड़ा पैदा होती है, करोड़ों स्त्री-पुरुषों के अवचेतन में अन्याय या पक्षपात भरे व्यवहार के बीज पड़ते हैं। गांधी का भी खयाल इसी तरह का था। अपनी किताब ‘दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास’ में वे काले रंग के जुलू लोगों की कद-काठी ही नहीं, नाक-नक्श की भी तारीफ करते हैं और कहते हैं कि उनकी सुंदरता को हम तभी देख पाएंगे जब काले रंग के प्रति हीनता और तिरस्कार के भाव से मुक्त हों। समस्या यह है कि बाजार और विज्ञापन दिन-रात गोरेपन की ललक बढ़ाने में जुटे रहते हैं। संभावित वर-पक्ष की तरफ से दिए गए हर विज्ञापन में गोरी लड़की की चाहत नजर आती है।

गोरेपन को सुंदरता और पसंदगी के अलावा सफलता से भी जोड़ कर देखा जाता है। इसलिए हैरत की बात नहीं कि भारत में गोरा बनाने का दावा करने वाले प्रसाधनों की जबर्दस्त मांग रही है। पिछले साल इनका कारोबार चालीस करोड़ डॉलर तक पहुंच गया, जो कि कोका कोला या चाय की बिक्री के आंकड़े से ज्यादा है। यह कारोबार सालाना अठारह फीसद की दर से बढ़ रहा है। इससे एक तरफ क्रीम निर्माता कंपनियों की चांदी हो रही है, और दूसरी तरफ करोड़ों स्त्री-पुरुष ऐसी चीज पर पैसा बहा रहे हैं जिससे कुछ हासिल नहीं होना है। इससे उनकी और दूसरों की मिथ्या धारणाओं को ही बल मिलता है। पर गोरेपन के महिमा-बखान के खिलाफ आवाज भी उठ रही है। वर्ष 2009 में कुछ महिलाओं ने ‘डार्क इज ब्यूटीफुल’ नामक समूह की स्थापना की, जिससे चार साल बाद अभिनेत्री नंदिता दास भी जुड़ गर्इं। भारत बहुत विविधाओं का देश है। जहां हमें विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्द के अभियान चलाने की जरूरत है, वहीं चमड़ी के रंग को लेकर रूढ़ हो गए प्रतिमान को बदलने की भी।

शरद यादव की विवादित टिप्पणी पर जनसत्ता में आज छपा संपादकीय

ट्रैवल एजेंसी 'साहित्य अकादमी' - अनंत विजय | Travel Agency 'Sahitya Akademi' - Anant Vijay

अगर हम साहित्य अकादमी के क्रियाकलापों पर नजर डालें तो यह देखकर तकलीफ होती है कि वहां किस तरह से स्वायत्ता के नाम पर प्रतिभाहीनता को बढ़ावा दिया जा रहा है 

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स्वायत्ता की आड़ में खेल

अनंत विजय

भारतीय जनता पार्टी के केंद्र में सरकार बनाने के बाद इस बात की आशंका तेज हो गई थी कि सांस्कृतिक संगठनों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि के लोगों की नियुक्ति होगी। वामपंथी बुद्धिजीवी लगातार यह आशंका जता रहे हैं कि सांस्कृतिक संगठनों की स्वायत्ता खत्म करके सरकार इन संगठनों पर अपना कब्जा जमा लेगी। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष पद पर संघ की पृष्ठभूमि के वाई सुदर्शन राव की नियुक्ति से इन आशंकाओं को बल भी मिला। दरअसल हमारे देश में इन सांस्कृतिक संगठनों पर लंबे समय से वामपंथी बुद्धिजीवियों का कब्जा रहा है। यह एक ऐतिहासिक 

साहित्य अकादमी देश की सभी भाषाओं में शोध और कौशल विकास को अपेक्षित स्तर पर नहीं ले जा पाई। साहित्य और अन्य कला अकादमियां एक तरह से पुरस्कार, विदेश यात्रा, देशभर में गोष्ठियों के नाम पर अपने पसंदीदा लेखक लेखिकाओं को घुमाने वाली ट्रैवल एजेंसी या फिर इवेंट मैनजमेंट कंपनी मात्र बनकर रह गई है।
तथ्य है कि उन्नीस सौ पचहत्तर में जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाया था तब वामपंथी बुद्धिजीवियों ने आपातकाल का समर्थन किया था। दिल्ली में भीष्म साहनी की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ की एक बैठक में आपातकाल के समर्थन में प्रस्ताव पास किया गया था। उसके बाद से इंदिरा गांधी ने पुरस्कार स्वरूप सांस्कृतिक संस्थाओं की कमान प्रगतिशीलों के हाथ में सौप दी। प्रगतिशील जब बंटे तो इन संस्थाओं का भी बंटवारा हुआ और कुछ लेखक जनवाद के फेरे में जा पहुंचे, लेकिन मूल विचारधारा वही रही। ईनाम में मिली मिल्कियत का जो हश्र होता है वही इन साहित्यक सांस्कृतिक संगठनों का हुआ। अंधा बांटे रेवड़ी जमकर अपने अपनों को दे। 1954 में जब साहित्य अकादमी की स्थापना की गई थी तो कौशल विकास और शोध प्रमुख उद्देश्य थे। तकरीबन छह दशक के बाद भी साहित्य अकादमी देश की सभी भाषाओं में शोध और कौशल विकास को अपेक्षित स्तर पर नहीं ले जा पाई। साहित्य और अन्य कला अकादमियां एक तरह से पुरस्कार, विदेश यात्रा, देशभर में गोष्ठियों के नाम पर अपने पसंदीदा लेखक लेखिकाओं को घुमाने वाली ट्रैवल एजेंसी या फिर इवेंट मैनजमेंट कंपनी मात्र बनकर रह गई है। साहित्य अकादमी के पूर्व सचिव पर यात्रा भत्ता में घपले के आरोप समेत कई संगीन इल्जाम लगे थे। उन्हें मुअत्तल किया गया। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी बना दी गई थी। जांच के दौरान ही सचिव रिटायर और तिवारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष चुन लिए गए। जांच कहां तक पहुंची या फिर क्या कार्रवाई की गई ये सार्वजनिक नहीं हुआ। इसके पहले भी गोपीचंद नारंग के साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रहते उनपर अपने कार्यलय की साज सज्जा पर फिजूलखर्ची के आरोप लगे थे। यह हाल सिर्फ साहित्य अकादमी का नहीं है। ललित कला अकादमी ने अपने पूर्व अध्यक्ष के आर सुब्बन्ना समेत इ्क्कीस कलाकारों पर प्रतिबंध लगा दिया है। इन सभी पर अनियमितताओं और पद पर दुरुपयोग का आरोप लगाए गए हैं। संगीत नाटक अकादमी के एक सचिव के कार्यकाल को बढ़ाने को लेकर भी नियुक्ति प्रक्रिया का पालन किए बिना अधिशासी बोर्ड ने फैसला ले लिया था। बाद में विधि और न्याय मंत्रालय ने अपनी राय दी थी कि नियुक्ति गैरकानूनी तरीके से की गई थी। 

इन स्थितियों से इस बात के पर्याप्त संकेत मिलते हैं कि हमारे देश के सांस्कृतिक संगठनों में स्वायत्ता की आड़ में कुछ गड़बड़ चल रहा है। सत्रह दिसंबर दो हजार तेरह को संसद के दोनों सदनों में सीताराम येचुरी की अध्यक्षता वाली एक संसदीय कमेटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी। इस रिपोर्ट में साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और ललित कला अकादमी के अलावा इंदिरा गांधी कला केंद्र और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के कामकाज पर टिप्पणियां की गई थी। येचुरी की अगुवाई वाली इस समिति ने साफ तौर पर कहा कि देश की ये अकादमियां निहित स्वार्थों को साधने का अड्डा बन गई हैं। अपने प्रतिवेदन में  संसदीय समिति ने लिखा- ‘समिति यह अनुभव करती है कि कला और संस्कृति अभिन्न रूप से हमारी परंपराओं से जुड़े हैं और इसे एक विकास और आवयविक प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए साथ ही ये केवल अतीत की वस्तु नहीं हैं इनका वर्तमान और भविष्य के साथ निकट सहसंबंध है। अत: समिति ये सिफारिश करती है कि संस्कृति को इसके समग्र रूप में समझने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए और ऐसा तभी हो सकता है जब हमारे उत्कृष्ट सांस्कृतिक संगठन, जैसे विभिन्न अकादमियों के बीच समुचित समन्वय और सहक्रिया हो।‘ कमेटी ने यह भी माना था कि अनुवाद के काम स्तरीय नहीं हो रहे हैं। कमेटी रिपोर्ट के मुताबिक साहित्य अकादमी के पुरस्कारों में पारर्दर्शिता का अभाव है। अब अगर हम वर्तमान में साहित्य अकादमी में हिंदी की बात करें इसके जो संयोजक हैं उनका साहित्य को योगदान अभी तक ज्ञात नहीं है, पर वो हिंदी की दशा दिशा तय करते हैं। रिमोट चाहे जिनके भी हाथ में हो। यह बात भी सामने आई कि साहित्य अकादमी में वित्तीय सहायता देने की प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव है। इस तरह की अनियमितताएं के आरोप साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी और संगीत नाटक अकादमी पर भी लगते रहे हैं और लग रहे हैं। साहित्य अकादमी के संविधान के मुताबिक उसके अध्यक्ष को असीमित अधिकार हैं। कई बार इन अधिकारों के दुरुपयोग के आरोप भी लगे हैं।  साहित्य अकादमी में तो अनुवाद का इतना बुरा हाल है कि पारिश्रमिक का भुगतान होने के बाद भी अनुवादकों को किताब छपने के लिए दस दस साल का इंतजार करना पड़ता है। संसदीय समिति की रिपोर्ट से यह बात सामने आई है कि साहित्य अकादमी साल भर में तकरीबन चार सौ सेमिनार आयोजित करती है। बेहतर होता कि संसदीय समिति के अध्यक्ष अपनी रिपोर्ट में इस बात पर विस्तार से प्रकाश डालते कि कितने कार्यक्रम दिल्ली में अकादमी के सेमिनार हॉल में हुए और कितने बाहर। इसी तरह से ललित कला अकादमी में भी कलाकारों के साथ भेदभाव किया जाता है। ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब ललित कला अकादमी पर कला दीर्घा की बुकिंग में भी धारा और विचारधारा के आधार पर खारिज करने का आरोप लगा था। सवाल यही कि क्या देश की सांस्कृतिक संस्थाएं किसी खास विचारधाऱा की पोषक और किसी खास विचारधारा की राह में बाधा बन सकती हैं।

अकादमियों की इन बदइंतजामियों के बारे में संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट के पैरा 56 में लिखा- समिति यह दृढता से महसूस करती है कि ऐसी स्थिति को बनाए नहीं रखा जा सकता है और इन अकादमियों को व्यवस्थित करने के लिए कुछ करने का यह सही समय है। समिति यह महसूस करती है कि इन निकायों को भारत की समेकित निधि से धनराशि प्राप्त होती है और इस संसदीय समिति की सिफारिशों पर इनकी अुनदान मांगों को संसद द्वारा प्रत्येक वित्तीय वर्षों में अमुमोदित किया जाता है। अत यह समिति पूरी जिम्मेदारी से कहती है कि इन संस्थाओं को आवंटित निधियों का इनके कार्यनिष्पादन की लेखा परीक्षा करके प्रत्येक वर्ष गहन तथा नियमित अनुवीक्षण किए जाने की आवश्यकता है। सांस्कृतिक संस्थानों के कार्यक्रमों की नियमित समीक्षा की जानी चाहिए। ये समीक्षाएं बाहरी व्यक्तियों और समितियों द्वारा की जानी चाहिए और उन्हें उन वार्षिक प्रतिवेदनों में शामिल किया जाना चाहिए। बाद में उन्हें संसद के समक्ष रखा जाना चाहिए। इस तरह की कठोर टिप्पणियों से यह संदेश जा सकता है कि संसदीय समिति इन अकादमियों की स्वायत्ता को खत्म करना चाहती है। 

संसदीय समिति की इस रिपोर्ट के बाद जनवरी 2014 में यूपीए सरकार के दौरान अभिजीत सेन की अध्यक्षता में एक हाई पॉवर कमेटी का गठन किया गया। अकादमियों के कामकाज की समीक्षा के बारे में 1988 में हक्सर कमेटी बनी थी और तकरीबन पच्चीस साल बाद अब सेन कमेटी का गठन हुआ है। इस कमेटी में  नामवर सिंह, रतन थियम, सुषमा यादव, ओ पी जैन आदि सदस्य थे। इस कमेटी का गठन इन अकादमियों के संविधान और उसके कामकाज में बदलाव को लेकर सुझाव देना था। इस कमेटी ने मई 2014 में अपनी रिपोर्ट पेश की। लगभग सवा सौ पृष्ठों की रिपोर्ट में इस कमेटी ने भी माना कि इन अकादमियों में जमकर गड़बड़झाले को अंजाम दिया जा रहा है। हाई पावर कमेटी ने यह भी माना कि साहित्य अकादमी की आम सभा में विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधि होने के बावजूद स्तरीय शोध नहीं होते हैं। इस समिति ने अकादमी के अध्यक्ष का चुनाव विशेषज्ञों की एक समिति से करवाने की सिफारिश भी की है। इसके अलावा अकादमी के अध्यक्ष और अन्य कमेटियों के अध्यक्षों की उम्र सीमा भी 70 साल तय करने की सिफारिश की गई है। उपाध्यक्ष के पद को बेकार मानते हुए उसे खत्म करने और सचिव का कार्यकाल तीन साल करने की सिफारिश की गई है। इसके अलावा एक टैलेंट पूल की भी वकालत की गई है, साथ ही तीनों अकादमियों की लाइब्रेरी को मिलाकर एक करने का सुझाव भी दिया गया है। यहां यह याद दिलाते चलें कि यह सब कुछ यूपीए सरकार के दौरान हुआ है। 

सेन कमेटी की इन सिफारिशों को लेकर साहित्य अकादमी के अंदर खलबली मची हुई है। इसको अकादमी की स्वायत्ता पर हमले के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। संभव है कि एनडीए सरकार की मंशा भी ऐसी हो। साहित्य अकादमी की गंभीरता को समझने के लिए पिछले दिनों गुवाहाटी में हुई सामान्य सभा की बैठक पर गौर फर्माना होगा। सेन कमेटी समेत अन्य मुद्दों पर बाइस अगस्त को सामान्य सभा की बैठक होनी थी। सुबह साढे् ग्यारह बजे का वक्त तय था। बैठक सवा बारह बजे शुरु हुई और दोपहर एक बजे लंच लग गया। इस बैठक में एक दो वक्ताओं ने सेन कमेटी की सिफारिशों पर ज्ञान दिया और फिर हाथ उठाकर पहले से तैयार किए गए एजेंडे को स्वीकृति। दरअसल अगर हम साहित्य अकादमी के क्रियाकलापों पर नजर डालें तो यह देखकर तकलीफ होती है कि वहां किस तरह से स्वायत्ता के नाम पर प्रतिभाहीनता को बढ़ावा दिया जा रहा है। साहित्य अकादमी अपने स्थापना की मूल अवधारणा से भटक गई प्रतीत होती है। साहित्य अकादमी समेत अन्य केंद्रीय अकादमियों की स्वायत्ता का मोदी सरकार अगर अतिक्रमण करती है तो इसके लिए हाल के वर्षों में वहां काबिज रहे रहनुमाओं की भी थोड़ी बहुत जिम्मेदारी बनती है। क्योंकि यह सवालतो खड़ा होगा ही कि जिन संस्थाओं पर देशभर की साहित्य-संस्कृति को वैश्विक फलक पर ले जाने की जिम्मेदारी थी वो उसमें कहां तक सफल रही है। अशोक वाजपेयी और नमिता गोखले की संयुक्त पहल और संकल्पना इंडियन लिटरेचर अब्रॉड का क्या हुआ इस बारे में भी जानकारी बाहर आनी शेष है। स्वायत्ता के नाम पर इस अराजकता पर कहीं ना कहीं तो पूर्ण विराम लगाना ही होगा। 
अनंत विजय
आरटी-222, रॉयल टॉवर, शिप्रा सनसिटी, इंदिरापुरम, 
गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश-201014, फोन-09871697248
ईमेल Anant.ibn@gmail.com
लेख: साभार जनसत्ता

अपार्थायड : मोदी और दलित - तुलसी राम Apartheid: Modi and the Dalits - Tulsi Ram

मोदी और दलित

तुलसी राम


 मोदी का संघ परिवार तर्क देता है कि दलितों के आरक्षण से सवर्णों के साथ अन्‍याय होता है. इसलिए आरक्षण समाप्‍त करके सबको एक समझा जाए. यही है मोदी के घोषणा पत्र का असली दलित विरोधी चेहरा और समान अवसर की अवधारणा. 
सैमुअल हंटिगटन अपनी पुस्‍तक ‘क्‍लैश ऑफ सिविलाइजेशंस’ के शुरू में ही एक फासिस्‍ट उपन्‍यास से लिए गए उदाहरण के माध्‍यम से कहते हैं, "दुश्‍मन से अवश्‍य लड़ो. अगर तुम्‍हारे पास दुश्‍मन नहीं है तो दुश्‍मन निर्मित करो." मोदी का ‘परिवार’ इसी दर्शन पर सन् 1925 की विजयदशमी से लेकर आज तक अमल करता आ रहा है. इस दर्शन की विशेषता है अपने ही देशवासियों के एक बड़े हिस्‍से को दुश्‍मन घोषित करके उससे लड़ना. ऐसे दुश्‍मनों में सारे अल्‍पसंख्‍यक तथा दलित-आदिवासी शामिल हैं. 
स्‍मरण रहे कि मोदी दलित बच्‍चों को मानसिक रूप से विकलांग घोषित करके उनके लिए नीली पैंट पहनने का फार्मूला घोषित कर चुके हैं. नीली पैंट इसलिए कि उन्‍हें देखते ही सवर्ण बच्‍चे तुरंत पहचान लेंगे और उनके साथ घुल-मिल नहीं पायेंगे. ऐसा 'अपार्थायड सिस्‍टम' पूरे गुजरात के स्‍कूलों में लागू है. 
      मोदी परिवार का दलित विरोध भारतीय संविधान के विरोध से शुरू होता है. सन 1950 से ही वे इसे विदेशी संविधान कहते आ रहे हैं क्‍योंकि इसमें आरक्षण की व्‍यवस्‍था है. इसीलिए राजग के शासनकाल में इसे बदलने की कोशिश की गई थी. इतना ही नहीं, मोदी परिवार के ही अरुण शौरी ने झूठ का पुलिंदा लिखकर डॉ. अंबेडकर को देशद्रोही सिद्ध करने का अभियान चलाया था. उसी दौर में मोदी के विश्‍व हिंदू परिषद ने हरियाणा के जींद जिले के ग्रामीण इलाकों में वर्ण-व्‍यवस्‍था लागू करने का हिंसक अभियान भी चलाया, जिसके चलते सार्वजनिक मार्गों पर दलितों के चलने पर रोक लगा दी गई थी. समाजशास्‍त्री ए आर देसाई ने बहुत पहले कहा था कि गुजरात के अनेक गांवों में 'अपार्थायड सिस्‍टम' (भेदभावमूलक पार्थक्य व्यवस्था) लागू है, जहां दलितों को मुख्‍य रास्‍तों पर चलने नहीं दिया जाता. 

        गुजरात के मुख्‍यमंत्री बनने से पहले मोदी विश्‍व हिंदू परिषद की राजनीति में लगे हुए थे. यह संगठन त्रिशूल दीक्षा के माध्‍यम से अल्‍पसंख्‍यकों और दलितों के बीच सामाजिक आतंक स्‍थापित कर चुका था. अनेक जगहों पर दलितों द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण को जबरन रोका जा रहा था. मोदी ने सत्‍ता में आते ही एक धर्मांतरण विरोधी कानून बनवा दिया. बौद्ध धर्म खांटी भारतीय है लेकिन वे इसे इस्‍लाम और ईसाई धर्म की श्रेणी में रखते हैं. बड़ौदा के पास एक गांव में एक दलित युवती ने एक मुसलमान से प्रेम विवाह कर लिया था. मोदी समर्थकों ने उस बस्‍ती पर हमला करके सारे दलितों को वहां से भगा दिया. सैंकड़ों दलित बड़ौदा की सड़कों पर कई महीने सोते रहे. यह मोदी शासन के शुरूआती दिनों की बात है. 

        इस संदर्भ में एक रोचक तथ्‍य यह है कि विश्‍व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता हमेशा जिला न्‍यायालयों पर निगरानी रखते हैं और कहीं भी हिंदू-मुसलिम के बीच विवाह की सूचना नोटिस बोर्ड पर देखते ही वे तुरंत उसका पता नोट कर अपने दस्‍ते के साथ ऐसे गैर-मुसलिम परिवारों पर हमला बोल देते हैं. गुजरात में ऐसी घटनाएं तेजी से फैल गईं थी. ऐसी घटनाओं में दलितों पर सबसे ज्‍यादा अत्‍याचार किया जाता रहा है. 

        मोदी के सत्‍ता में आने के बाद गुजरात में छुआछूत तथा दलितों पर किए जा रहे अत्‍याचार की शिकायतें कभी भी वहां के थानों में दर्ज नहीं हो पातीं. इस संदर्भ में यह तथ्‍य विचारणीय है. जब आडवाणी भारत के गृहमंत्री थे, उन्‍होंने सामाजिक सद्भाव का रोचक फार्मूला गढा. दलित अत्‍याचार विरोधी कानून के तहत देश के अनेक हिस्‍सों में हजारों मुकदमे दर्ज थे. आडवाणी के फार्मूले के अनुसार ऐसे अत्‍याचार के मुकदमों से ‘सामाजिक सद्भाव’ खतरे में पड़ गया था. इसलिए आडवाणी के निर्देश पर भाजपा शासित राज्‍यों ने सारे मुकदमे वापस ले लिए. ऐसे मुकदमों में सैंकड़ों हत्‍या तथा बलात्‍कार से जुड़े हुए थे. इस फार्मूले पर मोदी हमेशा खरा उतरते हैं.

        सन 2000 में नई शताब्‍दी के आगमन के स्‍वागत में गुजरात के डांग क्षेत्र में मोदी की विश्‍व हिंदू परिषद ईसाई धर्म में कथित धर्मांतरण के बहाने दलित-आदिवासियों पर लगतार हमला करती रही. बाद में यही फार्मूला ओड़िसा के कंधमाल में भी अपनाया गया था. सन 2002 में गोधरा दंगों के दौरान अहमदाबाद जैसे शहरों में दलितों की झुग्‍गी बस्तियों को जला दिया गया, क्‍योंकि ये बस्तियां शहर के प्रधान क्षेत्रों में थी. तत्‍कालीन अखबारों ने खबर छापी कि ऐसे स्‍थलों को मोदी सरकार ने विश्‍व हिंदू परिषद से जुड़े भू-माफिया ठेकेदारों को हाउसिंग विकसित करने के लिए दे दिया. 

        नरसिंह राव ने स्‍कूलों के मध्याह्न भोजन की एक क्रांतिकारी योजना चलाई थी, जिसके तहत यह प्रावधान किया गया था कि ऐसा भोजन दलित महिलाएं पकाएंगी. इसके दो प्रमुख उद्देश्‍य थे. एक तो यह कि भोजन के बहाने गरीब बच्‍चे, विशेष रूप से दलित बच्‍चे स्‍कूल जाने लगेंगे. दूसरा था सामाजिक सुधार का कि जब दलित महिलाओं द्वारा पकाया खाना सभी बच्‍चे खायेंगे तो इससे छुआछूत जैसी समस्‍याओं से मुक्ति मिल सकेगी. लेकिन गोधरा दंगों के बाद विश्‍व हिंदू परिषद से जुड़े लोगों ने गुजरात भर में अभियान चलाया कि सवर्ण बच्‍चे दलित बच्‍चों के साथ दलितों द्वारा पकाए भोजन को नहीं खा सकते, क्‍योंकि इससे हिंदू धर्म भ्रष्‍ट हो जाएगा. 

        इस अभियान का परिणाम यह हुआ कि मोदी सरकार ने मध्याह्न भोजन की योजना को तहस-नहस कर दिया. मगर किसी-किसी स्‍कूल में यह योजना लागू है भी तो वहां सवर्ण बच्‍चों के लिए गैर दलितों द्वारा अलग भोजन पकाया जाता है. दलितों को अलग जगह पर खिलाया जाता है. स्‍मरण रहे कि मोदी दलित बच्‍चों को मानसिक रूप से विकलांग घोषित करके उनके लिए नीली पैंट पहनने का फार्मूला घोषित कर चुके हैं. नीली पैंट इसलिए कि उन्‍हें देखते ही सवर्ण बच्‍चे तुरंत पहचान लेंगे और उनके साथ घुल-मिल नहीं पायेंगे. ऐसा 'अपार्थायड सिस्‍टम' पूरे गुजरात के स्‍कूलों में लागू है. मोदी एक किताब में लिख चुके हैं कि ईश्‍वर ने दलितों को सबकी सेवा के लिए भेजा है. इसलिए दलितों को दूसरों की सेवा में ही संतुष्टि मिलती है.

        इतना ही नहीं, जब 2003 में गुजरात में विनाशकारी भूकंप आया और लाखों लोग बेघर हो गए. बड़ी संख्‍या में दलित जाड़े के दिनों में सड़क पर रात बिताने को मजबूर हो गए क्‍योंकि राहत शिविरों में मोदी के समर्थकों ने दलितों के प्रवेश पर रोक लगा दी थी. उन्‍हें राहत सामग्री भी नहीं दी जाती थी. उस समय 'इंडियन एक्‍सप्रेस' ने अनेक खाली तंबुओं के चित्र छापे थे जिनमें दलितों का प्रवेश वर्जित कर दिया गया था. यह सब कुछ मोदी के नेतृत्‍व में हो रहा था.

        इस समय मोदी के चलते ही गुजरात में छुआछूत का बोलबाला है. मोदी सरकार ने दलित आरक्षण की नी‍ति को तहस-नहस कर दिया. सारी नौकरियां संघ से जुड़े हुए लोगों को दी जा रही हैं. 'इंडियन एक्‍सप्रेस' के ही अनुसार गोधरा कांड के बाद गुजरात के अनेक गांवों में सरकारी खर्चे पर विश्‍व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं को इसलिए नियुक्‍त किया गया है, ताकि वे मोदी सरकार को सूचना दे सकें कि वहां कौन देशद्रोही है ! इस तरह बड़े ही व्यवस्थित ढंग से मोदी ने अपने कार्यकर्ताओं के माध्‍यम से गांव-गांव, शहर-दर-शहर दलित विरोधी आतंक का वातावरण कायम कर दिया है. ऐसा ही अल्‍पसंख्‍यकों के साथ किया गया है. 

        गुजरात में सत्‍त संभालने के बाद मोदी ने सर्वाधिक नुकसान स्‍कूली पाठ्यक्रमों का किया. वहां वर्ण-व्‍यवथा के समर्थन में शिक्षा दी जाती है जिसके कारण मासूम बच्‍चों में जातिवाद के साथ ही सांप्रदायिकता का विष बोया जा रहा है. पाठ्यक्रमों में फासीवादियों का ही गुणगान किया जाता है. गोधरा कांड के बाद जब डरबन में संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के तत्‍वाधान में रंगभेद, जातिभेद आदि के विरुद्ध एक अंतर्राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन संपन्‍न हुआ तो विश्‍व हिंदू परिषद के उपाध्‍यक्ष आचार्य गिरिराज किशोर ने गुजरात की धरती से ही अपने बयान में कहा - 'भारत की वर्ण-व्‍यवस्‍था के बारे में किसी भी तरह की बहस हमारे धार्मिक अधिकारों का उल्‍लंघन है.' यह वही समय था जब राजस्‍थान हाईकोर्ट के अवकाश प्राप्‍त न्‍यायधीश गुम्‍मन मल लोढ़ा ने विश्‍व हिंदू परिषद के मंच का इस्‍तेमाल करते हुए ‘आरक्षण विरोधी मोर्चा’ खोल कर दलित आरक्षण के विरोध में अभियान चलाया था. इसके पहले 1987 में सिर्फ एक दलित छात्र का दाखिला अहमदाबाद मेडिकल कॉलेज में हुआ था. उसके विरुद्ध पूरे एक साल तक दलित बस्तियों पर हिंदुत्‍ववादी हमला बोलते रहे. ऐसे मोदी के गुजरात को हिंदुत्‍व की प्रयोगशाला कहा जा रहा है.
       
        उपर्युक्त विशेषताओं के चलते मोदी को आरएसएस ने प्रधानमंत्री पद के लिए चुना है. यही उनका गुजरात मॉडल है, जिसे वे पूरे भारत में लागू करना चाहते हैं. दुनिया भर के फासिस्‍टवादियों का तंत्र हमेशा मिथ्‍या प्रचार पर केन्द्रित रहता है. मोदी उसके जीते-जागते प्रतीक बन चुके हैं. वे हर जगह नब्बे डिग्री के कोण पर झुककर सबको सलाम ठोंक रहे हैं. बनारस में वे पर्चा भरने गए तो डॉ. अंबेडकर की मूर्ति को ढूंढ कर उस पर माला चढ़ाई, ताकि दलितों को गुमराह किया जा सके. संघ परिवरा मोदी प्रचार के दौरान अंबेडकर को मुसलिम विरोधी के रूप में पेश कर रहा है ताकि दलितों का भी ध्रुवीकरण सांप्रदायिक आधार पर हो सके. इस संदर्भ में महात्‍मा गांधी काशी विद्यापीठ में, जहां मोदी का हैलीकॉप्‍टर उतरा, उसके पास ही गांधी की मूर्ति थी, लेकिन माला चढ़ाना तो दूर, उसकी तरफ उन्‍होंने देखा तक नहीं. मोदी के इस व्‍यवहार से भी पता चलता है कि आखिर गांधी की हत्‍या किसने की होगी.

        इन चुनावों के शुरू होने के बाद मोदी का चुनाव घोषणा-पत्र आया, जिसमें सारे विश्‍वासघाती एजेंडे आवरण की भाषा में लिखे हुए हैं. सारा मीडिया कह रहा था कि इस घोषणा-पत्र पर पूरी छाप मोदी की है. इसमें दो बड़ी घातक शब्‍दावली का इस्तेमाल किया गया है. एक है ‘टोकनिज्‍म’, दूसरा है, ‘इक्‍वल अपॉर्चुनिटी’, यानी सबको समान अवसर. सुनने में यह बहुत अच्‍छा लगता है. 'समान अवसर' का इस्‍तेमाल सारी दुनिया में शोषित-पीडि़त जनता के पक्ष में किया जाता है लेकिन मोदी का संघ परिवार तर्क देता है कि दलितों के आरक्षण से सवर्णों के साथ अन्‍याय होता है. इसलिए आरक्षण समाप्‍त करके सबको एक समझा जाए. यही है मोदी के घोषणा-पत्र का असली दलित विरोधी चेहरा और समान अवसर की अवधारणा. 

        इसका व्‍यावहारिक रूप यह है कि दलितों को वापस मध्‍ययुग की बर्बरता में फिर से झोंक दिया जाय. अनेक मोदी समर्थक इस चुनाव में सार्वजनिक रूप से आरक्षण समाप्‍त करने की मांग उठा चुके हैं, लेकिन मोदी उस पर बिल्‍कुल चुप हैं. इसलिए मोदी और संघ परिवार का दलित विरोध किसी से छिपा नहीं है.

        लेकिन सबसे आश्‍चर्यजनक तथ्‍य यह है कि दलित पार्टियां मोदी के खतरे से एकदम अनभिज्ञ हैं. उल्‍टे वे लगातार मोदी का हाथ मजबूत करने में व्‍यस्‍त हैं. आज मायावती जगह-जगह बोल रही हैं कि मोदी की सत्‍ता का आना खतरनाक है क्‍योंकि वे आरक्षण खत्‍म कर देंगे और समाज सांप्रदायिकता के आधार पर बंट जाएगा. ऐसा सुनकर बहुत अच्‍छा लगता है. लेकिन यह सर्वविदित है कि 1995 तक कोई भी पार्टी भाजपा को छूने के लिए तैयार नहीं थी. यहां तक कि उस समय तक लोहियावादी समाजवादियों के अनेक धड़े भी भाजपा को नहीं छूना चाहते थे. लेकिन ज्‍यों ही 1996 में मायावती भाजपा के सहयोग से मुख्‍यमंत्री बनी तो भाजपा के समर्थन में दर्जनों पार्टियों की लाइन लग गई. एक तरह से मायावती ने भाजपा के समर्थन का बंद दरवाजा एक धक्‍के में खोल दिया और तीन-तीन बार उसके साथ सरकार चलाई. मायावती की भूमिका संघ परिवार की सामाजिक एवं राजनीतिक शक्ति में बेतहाशा वृद्धि का कारण बनी.

        मायावती संघ और ब्राह्मणों के नजदीक तो अवश्‍य गई लेकिन 1995 में मुलायम-बसपा की सरकार को गिरा कर दलित-पिछड़ों की एकता को उन्‍होंने एकदम भंग कर दिया. इतना ही नहीं, 2004 के चुनावों में मायावती मोदी के समर्थन में प्रचार करने गुजरात चली गईं. दलित राजनीति की मूर्खता की यह चरम सीमा थी. अगर मायावती संघ के साथ कभी नहीं जातीं और सेकुलर दायरे में रही होतीं तो देवगौड़ा के बदले 1996 में कांशीराम या मायावती में से कोई भी एक भारत का प्रधानमंत्री बन सकता था. लेकिन सत्‍ता के तात्‍कालिक लालच ने पूरी दलित राजनीति को जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति में बदल दिया. इससे जातिवादी सत्‍ता की भी होड़ मच गई. दलित नेताओं को यह बात एकदम समझ में नहीं आती है कि दलित हमेशा जातिवाद के कारण ही हाशिए पर रहे. इसलिए जातिवाद से छेड़छाड़ करना कभी भी दलितों के हित में नहीं है.

        अब जरा अन्‍य दलित मसीहाओं पर गौर किया जाए. दलित राजनीति के तीन ‘राम’ हैं. एक हैं रामराज (उदित राज), दूसरे रामदास अठावले और तीसरे रामविलास पासवान. ये तीनों गले में भगवा साफा लपेटकर मोदी को प्रधानमंत्री बनाने पर उतारू हैं. हकीकत तो यही है कि ये तीनों ‘राम’, ‘रामराज’ लाने के लिए दिन-रात एक किये हुए हैं. रामराज ने भारत को बौद्ध बनाने के अभियान से अपनी राजनीति शुरू की थी. मगर कुशीनगर और श्रावस्‍ती होते हुए उन्होंने अयोध्‍या आकर अपना बसेरा बना लिए. जिस प्रकार मुसलमानों के खिलाफ जब बोलना होता है तो भाजपा नकवी-हुसैन की जोड़ी को आगे कर देती है. अब जब दलितों के खिलाफ बोलना होता है तो रामराज हाजिर हो जाते हैं. इसका उदाहरण उस समय मिला, जब रामदेव ने दलितों के घर राहुल द्वारा हनीमून मनाने वाला बयान दिया, जिसके बाद देशभर के दलितों ने विरोध करना शुरू कर दिया. इसलिए बड़ी बेशर्मी से रामराज रामदेव के समर्थन में आ गए

        उधर रामदास अठावले, जो अपने को डॉ. अंबेडकर का उत्‍तराधिकारी से जरा कम नहीं समझते, वे शिवसेना के झंडे तले मोदी के प्रचार में जुटे हुए हैं. उनकी असली समस्‍या यह थी कि वे मनमोहन सरकार में मंत्री बनना चाहते थे लेकिन विफल रहे. इसलिए उन्‍होंने भगवा परिधान ओढ़ने में ही अपनी भलाई समझी. तीसरे नेता रामविलास पासवान पहले भी वाजपेयी के मंत्रीमंडल में रह चुके हैं. हकीकत यह है कि 1989 से अब तक वीपी सिंह, देवगौड़ा, गुजराल, वाजपेयी और मनमोहन सिंह, सबके मंत्रीमंडल में रामविलास पासवान केन्‍द्रीय मंत्री रह चुके हैं. गोधरा दंगे के बाद उन्होंने राजग छोड़ा था. लेकिन मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में मंत्री न बन पाने के कारण वे फिर मोदी की हवा में उड़ने लगे. अब हर मंच से मोदी का प्रचार कर रहे हैं.

        इस समय सारे दलित नेता दलित वोटों की भगवा मार्केटिंग कर रहे हैं. ये नेता जान-बूझकर दलितों को सांप्रदायिकता की आग में झोंक रहे हैं. इतना ही नहीं, वे वर्ण-व्‍यवस्‍थावादियों के हाथ भी मजबूत कर रहे हैं. ऐसी परिस्थिति में यह जिम्‍मेदारी दलित समाज की है कि वे सारी दलित पार्टियों को भंग करने का अभियान चलायें और उसके बदले जाति व्‍यवस्‍था विरोधी आंदोलनों की शुरुआत करें. अन्‍यथा इन नेताओं के चलते दलित हमेशा के लिए जातिवाद के शिकार बन जाएंगे.
जनसत्ता 4/5/14 से साभार