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समंदर-सी आवाज - भरत तिवारी Remembering Jagjit Singh

संगीत; ये शब्द ही कितना सुरीला है शायद आपको याद ना हो कि वो कौन सा गाना या ग़ज़ल या गायक था जो आप के दिल में सबसे पहले उतरा था और अगर याद है तो ये बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि वो आज भी दिल के उसी कोने में बैठा होगा – कभी ना जाने के लिये .

मै छोटा बच्चा था तब कोई ६ – ७ साल की उम्र होगी एक छोटे से शहर में रहता था बाकी बच्चों की तरह मेरी भी अपनी बदमाशियाँ थी और मुझे भी संगीत सुनना अच्छा लगता था. घर में एक रिकोर्ड प्लेयर था बड़े सारे रिकार्ड भी थे. पिता जी को अक्सर ही अपनी सरकारी नौकरी के सिलसिले में राजधानी जाना पड़ता था. ये सुनते ही की पापा लखनऊ जा रहे हैं खुशी यो छलाँग मार कर अंदर कूद जाती थी कि जब तक रात में पिता जी वापस ना आ जायें वो कुछ नहीं करने देती थी सिवाय इंतज़ार के यहाँ तक की गली में खेलने का भी मन नहीं होता था .

खैर रात के ९ बजे पिताजी वापस आये लखनऊ से, उनके आने के बाद रुकते नहीं बनता था बस ये जल्दी लगी रहती थी कि आज कौन सा रिकॉर्ड लाये है पापा . उस रात रिक्शे पर ३ बड़े बड़े डब्बे रखे थे , अब तो साहब दिल निकल कर बाहर खुशी ने भी बाहर छलाँग लगायी और जा चढ़ी रिक्शे पर. HMV लिखा था तीनो डिब्बों पर.

रात में पापा ने कहा कि सुबह ही खुलेगा ये सब अभी तो बस आप सो जायें उस आवाज़ में जिसका मतलब होता था कि जवाब नहीं देना है बस सुने और करें

अब जब सुबह बैठक में डिब्बे खुले और उनके अंदर का सब सामान फिट हुआ और तो सामने था नया रिकॉर्ड प्लेयर जिसके साथ २ स्पीकर अलग से थे . नया रिकॉर्ड भी आया था उसे प्ले किया गया. और जो आवाज़ उसमे से निकली उसे सुन कर लगा कि कभी सुनी तो नहीं है ये आवाज़ लेकिन ऐसी आवाज़ कि बस मैं डूब गया उसमे. रिकॉर्ड का नाम था “दि अनफोरगेटेबलस्” और गायक थे “जगजीत सिंह” कब और कैसे वो एक ६ साल के बच्चे के इतने प्रिय हो गये ये तो मुझे भी नहीं पता बस इतना पता है कि उसके बाद उनकी आवाज़ से जो मुहब्बत हुई वो अब मेरे साथ ही जायेगी.

उम्र बढती गयी रिकोर्ड्स आते गये फ़िर कैसेट्स का जमाना आ गया और कैसेट प्लेयर से ज्यादातर उनकी ही आवाज़ आती रहती थी. जगजीत ना आये होते अगर मेरी ज़िंदगी में तो मैं शायद कभी भी गज़ल प्रेमी ना बनता. मेरे लिये ग़ालिब एक नाम है जगजीत जी का ठीक वैसे ही जैसे निदा फाज़ली, सुदर्शन फकिर ... आप बुरा ना माने लेकिन सच है ये ... मै इन सबको और बाकियों को जिनके लिखे को जगजीत जी ने गाया सिर्फ इसलिए ही जानता हूँ.
फ़िर जब दिल्ली में बसेरा हो गया और एक सुबह अखबार में पढ़ा की वो यहाँ सिरीफोर्ट में जगजीत आने वाले हैं तो कि वो यहाँ गायेंगे, अब जाने कहाँ कहाँ से पैसे निकाले टिकट खरीदा और सुना उनको. उनके सामने यों लगा कि कोई मखमल का इंसान मखमल के गले से अपनी मखमली आवाज़ के घागे पूरे हाल में फैला रहा हो और भी बंध गये हम उस रात, फ़िर कोई मौका नहीं गया कि वो यहाँ दिल्ली में आयें और हम उन्हें ना सुनें.

दिल्ली के सिरीफोर्ट ऑडिटोरियम में २६ फरवरी २०११ को उनका ७०वां जन्मदिन और उनके सगींत जीवन के ५० वर्ष पुरे होने की खुशी में कांसर्ट थी. पंडित बिरजू महाराज और गुलज़ार इस मौके पर उनके साथ स्टेज पर थे . एक डाक्यूमेंट्री भी दिखायी गयी थी उनके संगीत के सफ़र की और आँखें खुशी से नम हो गयी थी देख कर क्या पता था कि उस दिन उन्हें आखिरी बार देख रहा हूँ , शायद दिल्ली में वो उनका आखरी कार्यक्रम था.

सात महीने ही बीते थे बस, सर्दियाँ आने को थीं और इस मौसम ने दिल्ली में गुलबहार हो जाती है जगजीत जी का कोई ना कोई प्रोग्राम दिल्ली में ज़रूर होता, लेकिन १० अक्तूबर २०११ उनके हमसे दूर जाने की खबर ले कर आया और मेरी जुबान से बस इतना ही निकला कि
किसी गफ़लत में जी लूँगा कुछ दिन
तेरे गीतों में मिल लूँगा कुछ दिन
अभी आयी है खबर, बहुत ताज़ा है
अभी अफवाह समझ लूँगा कुछ दिन

कोई दिन नहीं जाता जब उनको ना सुना जाये और जायेगा भी नहीं. आज भी जगजीत जी उस सात साल के बच्चे के दिल के उसी कोने में बैठे हैं – कभी ना जाने के लिये . 

वक्त रहते - जनसत्ता, चौपाल - भरत तिवारी

कच्चा लालच, बदगुमानी, ओछी राजनीति और जुड़े को तोड़ना, ये हमारे वे दुश्मन हैं जो पीठ पीछे वार नहीं करते।
आज एक तरफ मनुवादी अपने गलत को सही सिद्ध करने के लिए कुछ भी करने पर उतारू हैं, तो दूसरी तरफ अमनुवादी भी उन्हें गलत सिद्ध करने के लिए वैसा ही कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि देश का प्रगतिशील वर्ग दोनों की बातों से सहमत नहीं होता दिखता। उसे दोनों ही पक्षों में घृणा का स्वर सुनाई देता है। शायद इसलिए कि ये वे स्वर हैं, जिनके खिलाफ होकर ही वह प्रगति कर सका है या जात-पात आदि से ऊपर उठ सका है। उसकी दुविधा तब और बढ़ जाती है, जब उसे यह स्वर अपने बहुत करीब सुनाई देता है। ऐसी स्थिति में अगर वह मनुवाद का स्वर हो और वह न सुने तो उसे अमनुवादी ठहरा दिया जाता है और यदि विपरीत स्वर हो और वह अनसुना कर दे तो उसे मनु समर्थक कहा जाता है।

    इस बात पर ध्यान देना बहुत जरूरी है कि इन दोनों तरह के वादों से सरोकार नहीं रखना ही उसका प्रगति-पथ है, जिसे वह नहीं छोड़ना चाह रहा है। बीते कुछ वर्षों में इन स्वरों की मुखरता ने उसे पथ से विचलित भी किया है। सवाल है कि यह राष्ट्र के लिए कितना घातक हुआ? वह नागरिक जो सर्वधर्म समभाव की नीति पर गर्व से चल रहा था, जिसके लिए राष्ट्र ही धर्म था, जिसे सिर्फ तिरंगे से प्यार था, उसी ने लाल, हरा, नीला, पीला या काला झंडा हाथ में ले लिया, जिसका अब तक वह विरोधी रहा है।

    कई दफा दिमाग को कोरा करके सोचने पर ही स्वस्थ निर्णय सामने आ पाता है। इन मुद्दों पर निष्पक्ष होकर गौर करना जरूरी है, सवालों की तह तक पहुंचना जरूरी है। कच्चा लालच, बदगुमानी, ओछी राजनीति और जुड़े को तोड़ना, ये हमारे वे दुश्मन हैं जो पीठ पीछे वार नहीं करते। गंभीर बात है कि ऐसा वार करने वालों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि हमारे सही और गलत को समझने की प्राकृतिक इंद्रियबोध-शक्ति उनके प्रभाव से कम होती जा रही है। ये सिद्धहस्त लोग अब इस स्तर के हो गए हैं कि वे बड़ी से बड़ी दुर्घटना को भी ठीक सांप्रदायिक लोगों की तरह जात-पात का जामा पहनाने लगे हैं। यहां यह बताने की जरूरत नहीं है कि ‘जुड़े को तोड़ना’ की नीति से फायदा किसे पहुंचता है।

    कितने पत्ते हमने इन्हें दे दिए हैं खुद से खेलने के लिए! क्या आप जानते हैं कि ये वे लोग हैं, जो इंसान तो दूर, उसकी जाति को भी हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई आदि की नजर से नहीं, बल्कि सिख बनाम मुसलिम, हिंदू बनाम मुसलिम, सिख बनाम हिंदू, गरीब बनाम अमीर, मराठा बनाम बिहार, दलित बनाम सवर्ण आदि की नजर से देखते हैं। अगर हम उनकी इस नजर को नहीं पहचानते तो किसी भी समस्या का समाधान नहीं निकलने वाला। अब जो ये नया कार्ड हम इन्हें दे रहे हैं ‘मनुवाद बनाम अमनुवाद’ यह तुरुप का पत्ता है, जो ‘जुड़े को तोड़ना’ को कितनी ताकत दे रहा है, इसका हमें शायद अंदाजा नहीं है। इसे खेल कर वे जघन्य अपराधों को भी हमारे सामने ऐसे रख रहे हैं कि वे हमें जघन्य न लगें। आम बातचीत को भी यों तोड़-मरोड़ कर सामने रख देते हैं कि हमारा आपसी सामंजस्य बिगड़ जाए।

    जिस कृत्य से सारे समाज को क्षति पहुंचे, वह हमें अपनी क्षति नहीं लगे, तो सोचिए कि कैसी स्थिति होगी। कोई बात बगैर पूरा संदर्भ दिए अगर अनर्थ के रूप में सुनाई जाए तो क्या होता है? आज वक्त है कि हम इन राजनीतिक ‘वादों’ को दफन करें और एक होकर चलें। यह करना आसान नहीं होगा, क्योंकि इनकी जड़ें बहुत गहरी और कांटों से लैस हैं और उन्हें उखाड़ने में हमें पीड़ा होगी। लेकिन जान लें कि अगर हमने यह पत्ता उनके पास रहने दिया तो आने वाले वक्त में होने वाली दुर्घटना अगर आपके साथ होती है तो आप अकेले होंगे और तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

    भरत तिवारी, शेख सराय, नई दिल्ली
साभार जनसत्ता 31 जनवरी, 2013 "चौपाल"

बात और बतंगड़ - सम्पादकीय जनसत्ता

    समाज विज्ञानी आशीष नंदी की एक टिप्पणी को लेकर जिस तरह का बावेला मचा, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। यह विवाद दर्शाता है कि हमारे समाज में गंभीर बौद्धिक विमर्श की जगह किस तरह सिकुड़ती जा रही है। जयपुर साहित्य उत्सव में ‘विचारों का गणतंत्र’ विषय पर चल रही बहस में भ्रष्टाचार का भी मुद्दा उठा। इस चर्चा में हिस्सा लेते हुए नंदी ने कहा कि भ्रष्टाचार में शामिल बहुतेरे लोग दलित और पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखते हैं, यहां तक कि इसमें आदिवासी भागीदारी भी लगातार बढ़ रही है। उनकी इस टिप्पणी पर दलितों-पिछड़ों के कई नेताओं ने न सिर्फ उन्हें भला-बुरा कहा, उनकी गिरफ्तारी की भी मांग करने लगे। अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष भी इस रट में शामिल हो गए। किसी ने नंदी के खिलाफ अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत एफआइआर भी दर्ज करा दी। जिन नेताओं ने नंदी की निंदा में बयान दिए वे संगोष्ठी में मौजूद नहीं थे। न उन्होंने न गिरफ्तारी की मांग करने वाले दूसरे लोगों और संगठनों ने यह जानने की कोशिश की कि वास्तव में नंदी ने कहा क्या था। वे बात का बतंगड़ बनाने में जुट गए। क्या इसके पीछे अपनी जाति या समुदाय के लोगों को एक खास राजनीतिक संदेश देने या उनके बीच अपनी छवि चमकाने का मकसद काम कर रहा था? जो हो, किसी बात को उसके संदर्भ से काट कर देखने का नतीजा हमेशा खतरनाक होता है। 

    आशीष नंदी प्रगतिशील रुझान के अध्येता हैं और उनकी गिनती अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विचारकों में होती है। वे हर तरह की संकीर्णता के खिलाफ लिखते रहे हैं, चाहे वह जाति और संप्रदाय की हो या राष्ट्रवाद की। वे समाज के वंचित वर्गों के प्रति कोई नकारात्मक नजरिया रखें, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिन लोगों ने नंदी की गिरफ्तारी की मांग उठाई, क्या वे अपने शुभचिंतकों और विरोधियों में फर्क करने की शक्ति खोते जा रहे हैं? संभव है कि एक प्रश्न के जवाब में आई नंदी की टिप्पणी को आंशिक तौर पर देखने से गलतफहमी पैदा हुई हो। इसलिए बाद में उन्होंने स्पष्टीकरण देकर अपनी बात साफ कर दी। उनका कहना है कि कानून के शिकंजे में आने वालों में दलित-पिछड़े लोगों की तादाद अधिक दिखती है, इसलिए कि वे ज्यादा चालाक नहीं होते और बचने की उतनी तरकीबें नहीं जानते। जबकि ऊंची जातियों और अभिजात वर्ग के लोग कहीं अधिक भ्रष्टाचार करते हैं, पर अक्सर वे इसे छिपाने में कामयाब हो जाते हैं। 

    अगर स्पष्टीकरण के साथ जोड़ कर नंदी के बयान को देखें तो उसमें समाज के प्रभुत्वशाली तबके की ही आलोचना है। कोई चाहे तो इस स्पष्टीकरण से भी असहमत हो सकता है। पर एक विचार से असहमति वैचारिक रूप में ही प्रकट होनी चाहिए। कुछ लोगों के साथ समस्या यह है कि वे वक्रोक्ति और व्यंजना को पकड़ नहीं पाते और गलत निष्कर्ष निकाल बैठते हैं। पर ऐसा हुआ भी, तो यह मामला पुलिस कार्रवाई का विषय कैसे बनता है? अदालतें जानती हैं कि कोई कानून किस तरह और किस पर लागू होता है। 

    इसलिए खतरा यह नहीं है कि नंदी के खिलाफ कोई अदालत अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत मुकदमा चलाएगी। बल्कि खतरा यह है कि अगर किसी कथन को आधे-अधूरे रूप में लिया जाएगा तो समाज में नासमझी और असहिष्णुता को ही फलने-फूलने का मौका मिलेगा।

साभार  जनसत्ता 29 जनवरी, 2013 की सम्पादकीय "बात और बतंगड़" से

"युद्ध नहीं" - ओम थानवी


जनसत्ता के संपादक ओम थानवी जी बीते दिनों पाकिस्तान गए थे
 पाकिस्तान में वो ठीक उसी समय थे, जब भारतीय सैनिकों के सर काटे जाने की घटना हुई अपने इस यात्रा वृत्तांत में उन्होंने भारत-पाकिस्तान रिश्ते और उन से जुड़ी भौगोलिक, सामयिक और इंसानी परिस्थितियों को तटस्थ रूप में लिखा है । "युद्ध नहीं चाहिये - ये कहना डरपोक होने की निशानी नहीं है" । - संपादक

"युद्ध नहीं" -  ओम थानवी 

    इस बार सड़क मार्ग से लाहौर जाना हुआ। गुमान था कि एक संधि-रेखा की ही तो दूरी है। इधर हम, उधर वे। विमान से जाने पर भूगोल दुबक जाता है। हमेशा लगा कि कहीं दूर जा रहे हैं।

   लेकिन सड़क ने भी वह दूरी पाटी नहीं। अमृतसर से एक बस ने हमें अटारी सीमा पर छोड़ा। पासपोर्ट पर ठप्पा लगवा कर कुछ कदम पार वाघा जा पहुंचे। वाघा पाकिस्तान में पड़ने वाला सीमांत है, जिसे हमारे यहां लोग भूल से अपना सीमांत समझते हैं। वाघा पहुंच कर उनका ठप्पा और आगे लाहौर की सड़क पर- जो सीमा से उतना ही दूर है, जितना दिल्ली राजधानी क्षेत्र में मेरा घर!

    मैंने मुड़कर हैरानी से सीमा-रेखा की ओर देखा। भारत और पाकिस्तान के जवान गश्त दे रहे थे। उसके आगे हमारी चौकी थी। पीछे अमृतसर, जहां सुबह हमने नाश्ता किया था। पर लगता था मीलों चल आए हैं। क्या इसलिए कि सरहद पार करने पर सारा मंजर बदल जाता है। मुल्क के उनके दरवाजे पर उसका रंग, जवानों की वर्दी, हमारी तरफ गांधी उधर जिन्ना की तस्वीर, एक तरफ हिंदी में स्वागत, दूसरी तरफ उर्दू लिपि में, उर्दू के नामपट्ट। बोलचाल वही, लेकिन थोड़ी-थोड़ी अजानी- बाहरको हर कोई बाहेरबोल रहा है!

    लेकिन नहीं। ये चीजें नहीं, जो चंद घड़ियों के सफर को बोझिल बना डालें। आप पैदल सीमा पार करें और आपको लगे कि पूरी पीढ़ी का वक्फा आपके साथ चलकर आया है। क्या चीज है जो दूरी को अवधि में नहीं, पीढ़ियों में तब्दील कर देती है? आप न कहीं आते हैं न जाते हैं, फिर भी आपको लगता है बरसों की दूरी नाप आए हैं!


    परस्पर अविश्वास और दुराव इसकी एक बड़ी वजह है, कम से कम इतना हमें दो-तीन रोज में खूब समझ आया। जिस रोज हमने सीमा पार की, उसी रोज जम्मू-कश्मीर में संधि-रेखा पार कर पाकिस्तान के घुसपैठियों ने- वे सैनिक थे या नहीं अभी साफ नहीं- दो भारतीय जवानों को मार डाला था। पर सीमा की खबर अखबारों में छपी दो रोज बाद।

    दरअसल हम लोग साफमा (साउथ एशिया फ्री मीडिया एसोसिएशन) की एक संगोष्ठी में शिरकत के लिए गए थे। सार्क क्षेत्र के आठ देशों के दो सौ से ज्यादा पत्रकार। इनमें अनेक संपादक भी थे। संगोष्ठी का नारा था: दिल और दरवाजे खोलिए! यह भी अच्छा प्रयोग था कि संगोष्ठी का उद्घाटन और शुरू के सत्र अमृतसर में हुए। बाकी सत्र और समापन लाहौर में! मैंने इससे पहले ऐसी कोई संगोष्ठी नहीं देखी थी, जो एक साथ दो देशों में संपन्न हो।

    अमृतसर में विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने गर्मजोशी भरा भाषण दिया। कि ऐसे रिश्ते हों कि नाश्ता एक देश में करें, दोपहर का भोजन दूसरे देश में और रात का तीसरे में। पंजाब के मुख्यमंत्री ने भारत-पाक संबंधों को मियां-बीवी के संबंधों की संज्ञा दी: ‘‘इसमें न पड़ें कि मियां कौन है और बीवी कौन, उस तरह की अंतरंगता हमें कायम करनी है।’’

    लाहौर में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ संगोष्ठी में आए। उनके और अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में हुई कोशिशों की चर्चा हुई। अगले रोज- 8 जनवरी को- गवर्नर हाउस में भोज का आयोजन था, जिसमें प्रधानमंत्री राजा परवेज अशरफ मुख्य अतिथिथे।

    अखबारों में या पाक टीवी पर तब तक पुंछ के जघन्य कांड की खबर न थी। पर जिनके फोन में पाकिस्तानी सिम-कार्ड था (भारत-पाक के सिम एक-दूसरे देश में निषिद्ध हैं!), उन्हें दिल्ली वगैरह से खबर हो गई थी। जिन्हें नहीं थी, उन्हें पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के बर्ताव से कुछ असामान्य घटित होने का अंदेशा हुआ होगा। वे इस्लामाबाद से लाहौर इसी कार्यक्रम में शामिल होने आए थे; वे आए, बोले और भाषण खत्म होते ही फौरन मुड़कर तंबू के पीछे के दरवाजे से रुखसत हो गए।

    अपने भाषण में परवेज अशरफ ने पुंछ के हादसे का जिक्र नहीं किया। आपसी संबंध सुधारने की बात कही- कौन नहीं कहता!- और पत्रकारों की आसान आमदरफ्त की मांग से सहमति जाहिर की; (पाकिस्तान में प्रतिबंधित) यू-ट्यूब को रास्ते पर आने की सलाह भी दी। वे रुके होते तो कुछ पत्रकार उन्हें पुंछ के हादसे पर जरूर घेरते। यह अंदेशा उन्हें रहा भी होगा और शायद इसीलिए वे चल निकले।

    हम होटल के कमरे में उस रोज टीवी के चैनल पलटते रहे। भारत के अनेकानेक टीवी सीरियल वहां देखे जा सकते हैं, पर खबर नहीं। हमारे यहां भी उनके चैनल कानूनन बंद हैं; उनके सीरियल तो बहुत पहले पिछड़ चुके। उलटे उनके टीवी चैनलों पर भारत निशाने पर था। असल में पुंछ सीमा के उसी इलाके में भारत की ओर से हुई गोलाबारी में एक पाकिस्तानी जवान मारा गया था, एक घायल हो गया। मृत सैनिक के कस्बे से बिलखते परिजनों की खबरें थीं।

    अगले रोज हम दिल्ली लौटे, तब भारतीय चैनलों पर हमारे हताहत सैनिकों के बिलखते परिजन थे। उस जवान की बीवी को देख मन रो गया, जो कहती थी कि पति का शीश लाओ, वरना कैसे मानूं कि जिसे आप शहीद कहते हैं वह मेरा पति था! उसके साथ उसकी सास ने भी शीश न मिलने तक अन्न मुंह में न रखने की कसम खाई थी।

    सूचना-तंत्र का कैसा बखेड़ा आपसी सहमतिका हिस्सा है कि भारत और पाकिस्तान जब उदार आमदरफ्त, व्यापार आदि की अच्छी बातें और बंदोबस्त करते रहे, तब भी एक-दूसरे के अखबारों के वितरण और टीवी प्रसारण पर बंदिश बनी रही। दोनों ओर के शासकों में कोई यह समझने को तैयार नहीं कि सूचना का आना-जाना हालात सुधारने में ज्यादा मददगार हो सकता है, बनिस्बत सूचना छुपाने के। जब लोग इधर से उधर आ जा सकते हों, इंटरनेट और दूसरे देशों के मीडिया से दबी-छुपी खबरें मिल जाती हों, सूचना के आपसी आदान-प्रदान को खोल देने में क्या बुराई है?

    ऐसे में भारत के एक गांव में पति और बेटे के शीश की आस में अनशन कर लेटीं दो औरतों की पीड़ा पाकिस्तान में कोई कितनी समझेगा? बिलखते बच्चों की तकलीफ? ऐसे ही भारतीय सैनिक की गोली से मारे गए पाकिस्तानी जवान के घर-परिवार के जो दृश्य मैंने लाहौर में टीवी पर देखे, वे भी मन दुखाते थे। पर वे दृश्य भारत में कौन देख सकता था? दोनों ओर हर साल सैकड़ों सैनिक सीमा की झड़पों में मारे जाते हैं। दोनों ओर वे शहीदही कहाते हैं। पर एक तरफ की मौत- मुख्यत: सूचना के अभाव में- दूसरी तरफ मानवीय संवेदना को झकझोर नहीं पाती। अगर ऐसा होता तो मैं सोचता हूं, दोनों ओर गलतफहमी ऐर तनाव में जरूर कमी आती।

    10 जनवरी को हिंदूमें परवीन स्वामी ने सेना के सूत्रों के हवाले से लिखा था कि सिर काट लेने के वहशी हादसे सरहद पर पहले भी हुए हैं, दोनों तरफ। लेकिन वे मीडिया तक नहीं पहुंचे। इस बार बात पहुंची तो उसकी प्रतिक्रिया किसी विस्फोट की तरह हुई। यहां तक कि लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने कहा कि एक के बदले हमें दस पाकिस्तानी जवानों के सिर काट लाने चाहिए।

    सुषमा स्वराज को मैं भाजपा का सबसे योग्य नेता मानता हूं। वे संघ परिवार की घृणामूलक राजनीति की नहीं, समाजवादी विचारधारा की उपज हैं। बाल ठाकरे जैसे नेता ने, जिन्होंने शायद ही कभी कोई वाजिब बात कही हो, यह ठीक कहा था कि भाजपा में प्रधानमंत्री पद की योग्यता सुषमा स्वराज में है, नरेंद्र मोदी में नहीं। इसके बावजूद मैं शीश काटने की किसी बात को नितांत अ-भारतीय विचार मानता हूं; वह बात किसी नीतिशास्त्र में अनुमोदित नहीं होगी। हमारे स्तंभकार तरुण विजय ने भी प्रतिशोध की बात कही है। विचार प्रकट करना उनका अधिकार है, पर मैं प्रतिशोध के बजाय प्रतिशोध का शमन करने वाले विचार को ज्यादा बड़ा मानता हूं। प्रतिशोध अपने आप में एक हिंसक विचार है। हम हजारों-हजार साल से अहिंसा के विचारों में पलते आए हैं और संसार में इसी साख के बूते प्रतिष्ठा की जगह रखते हैं।

    पाकिस्तान की जघन्य और बेहूदा हरकतों ने- चाहे उन्हें किसी ने अंजाम दिया हो- और कुछ हमारे चुनिंदा टीवी चैनलों में राष्ट्रप्रेम की आड़ में दुकान चमकाने की होड़ ने लोगों में अजीबोगरीब उन्माद का संचार किया है। ऐरा-गैरा भी मार दो-काट दो-सबक सिखा दो की बात ऐसे करता है, जैसे गिल्ली-डंडा खेलने की बात हो रही हो। चार युद्ध पाकिस्तान के साथ हम लड़ चुके। चारों में पहल पाकिस्तान ने की। चारों में हार भी पाकिस्तान की हुई। लेकिन किसी युद्ध से न हमें कुछ हासिल हुआ, न पाकिस्तान को। ऐसे में पांचवें युद्ध की बात भारत क्यों छेड़ने बैठे? वह भी उस दौर में, जब दोनों देश आणविक ढेरी पर बैठे हों?

    सीमा पर तनाव और सिरफिरी हिंसा के नाम पर युद्ध की बात छेड़ने वालों को इंडियन एक्सप्रेसमें शेखर गुप्ता के स्तंभ में आए तथ्य देखने चाहिए। सरकारी आंकड़ों की रोशनी में उन्होंने बताया है कि 2003 में संधि-रेखा पर संघर्ष विराम समझौता होने से पहले हर साल चार सौ से छह सौ तक भारतीय जवान जान गंवाते थे (करगिल के हताहत शामिल नहीं)। पाकिस्तान में यह संख्या हमसे ज्यादा होती थी। समझौते के बाद संधि-रेखा की झड़पों और मौतों में दोनों तरफ कमी आई। 2006 के बाद इसमें भारी कमी आई है। इस तरह, जाहिर है, समझौते के संयम ने करीब आठ से दस हजार जवानों की जानें बचाई हैं। भाजपा शायद भूल जाती है कि 2003 का यह समझौता अटल बिहारी वाजपेयी की देन था!

    भाजपा से ज्यादा गिला मुझे सत्ताधारी कांग्रेस से है। इस मामले में उन पर कोई गठबंधन का दबाव भी नहीं दिखाई देता। फिर शांति की प्रक्रिया पटरी से उतारने में एक हादसे की क्या बिसात? भले ही वह इतना अमानुषिक था कि उसे अंजाम देने वालों तक में सामने आने की हिम्मत नहीं। प्रधानमंत्री ने- और कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने भी- पहले संवाद का सिलसिला जारी रखने की बात की। यह भी आश्वस्त किया गया कि पैंसठ साल से ऊपर के वरिष्ठ नागरिकों को सीमा पर वीजा देने का समझौता अडिग रहेगा।

    लेकिन इसके बाद बेहतर संबंध कायम नहीं रह सकते, यह बात होने लगी। फिर हॉकी टीम वापस, मंटो पर नाटक खेलने आ रहे रंगकर्मी खारिज, उदार वीजा नीति के साथ पैंसठ पार के बुजुर्गों की आमदरफ्त बंद। भारत-पाक संबंध बेहतर करने में मनमोहन सिंह की भूमिका कम नहीं रही है। क्या कांग्रेस भाजपा के उन्मादी अभियान को देख डर गई? यह सोचकर कि राष्ट्रवादी जुनून पैदा कर भाजपा कहीं इसी मुद्दे पर मतदाताओं को गोलबंद न कर ले? कांग्रेस को सोचना चाहिए, चुनाव अभी बहुत दूर हैं।

    कुल मिलाकर यह कि सरकार का इस तरह झुकना अच्छा नहीं। दोनों देशों में आम जनता एक दूसरे के खून की प्यासी नहीं है। आतंकवादी और फौज के गुनहगार संवाद की निरंतरता में ही किनारे किए जा सकते हैं। एक सिरफिरे हमलावर को पूरे देश का हमला समझना समझदारी का तकाजा नहीं हो सकता। किसी कायर दहशतगर्द- चाहे वह फौजी क्यों न हो- की कारगुजारी का दंड हर मासूम के मत्थे मढ़ना एक बेहतर मुकाम तक पहुंचा दी गई कूटनीति को विफल करने की कार्रवाई न बन बैठे, प्रधानमंत्री को इस पर जरूर सोचना चाहिए। दोनों देशों के बीच सरकार का सरकार से, लोगों का लोगों से, खिलाड़ियों, साहित्यकारों-कलाकारों का उनकी बिरादरी से मेल-मिलाप बढ़ेगा तो दहशतपसंद हतोत्साह ही होंगे।

    अंत में कविता: युद्ध-चर्चा के उन्माद के बीच महान तुर्की कवि नाज़िम हिकमत की एक युद्ध-विरोधी कविता का अंगरेजी अनुवाद पढ़ा। मेरे पिताजी ने हिंदी में उसका सुंदर अनुवाद कर दिया है। आप भी पढ़िए: 

दामिनी के विरुद्ध - लेख - डॉ. कविता वाचक्नवी


     इन दिनों नेट पर, पत्र-पत्रिकाओं में लोग भावविह्वलता में दिल्ली में नृशंसता की शिकार हुई दामिनी के नाम पर कविताएँ लिख रहे हैं, गीत, छन्द, मुक्तक लिख रहे हैं ...... और इस भावुकता में उसे 'बलिदानी', कह कर उसका महिमा-मंडन कर रहे हैं, उसके त्याग और बलिदान का गुणानुवाद कर रहे हैं । (जबकि वह नृशंसता की 'शिकार' थी)। 

    यह भक्तिभाव के भक्तिगीतों जैसा महिमामंडन इतना हास्यास्पद व अनैतिक है कि मुझे डर है कि कुछ दिन में दामिनी के नाम पर पूजापाठ न शुरू हो जाएँ; क्योंकि भारतीय समाज ऐसा ही करता रहा है। और ऐसा कर के जहाँ वह एक ओर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेगा; दूसरी और यह ठीक वैसी ही मानसिकता व दबाव बनाएगा जैसा सती आदि प्रसंगो में। 

    "अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाली स्त्री ही महान होती है' की सामाजिक मानसिकता के चलते हमारे घरों में लड़कियों को अपने सारे सुख-चैन को तिलांजलि देकर सब कुछ बलिदान कर महान बनने व तभी सम्मान अर्जित करने योग्य हो पाने की घुट्टी पिलाई जाती है....... । जो स्त्री अपने सुख, स्वास्थ्य, सम्मान, निर्णय, इच्छा, आवश्यकता, शौक या अपनी किसी भी तरह की परवाह न कर परिवार व दूसरों के लिए घुट-घुट कर मर जाए, त्याग पर त्याग करती रहे या अपने बारे में कदापि न सोचे, उसे ही सदाचारी, महान, सुसंस्कृत, सन्नारी माना जाता है। इस चक्कर में लड़कियाँ और महिलाएँ अपने जीवन को गला-गला कर भी दूसरों की नजर में थोड़े से सम्मान व इज्जत के लिए तरसती अपना आप खोती रहती हैं। 

    हम लोग या तो स्त्री को पूजा के आसन पर देवी बना कर प्रतिष्ठित करते हैं या फिर जो देवी के सिंहासन पर न बिठाई जाती हों, उन सब को पायदान या जूती समझ कर जीवन भर प्रताड़ित करते या स्वयं अपने आप में ही उन्हें अपराधबोध से भरते रहते हैं।  इन दो पदों के बीच 'मानवी' होने का विकल्प उसके लिए हमारी सामाजिकता में उपलब्ध ही नहीं है, है तो स्वीकार्य ही नहीं है।

    इस अस्वीकार्यता के पीछे त्याग का महिमामंडन करने की हमारी मानसिकता का ही हाथ है। त्याग के महिमामंडन की इस प्रवृत्ति ने स्त्रियों का बड़ा अनिष्ट किया है और स्त्री की सामाजिक स्थिति के घोर अमानवीय होने का यह एक बड़ा व महत्वपूर्ण कारक है। लड़कियाँ/स्त्रियाँ दूसरों की नजर में सम्मान पाने के लिए जीवन-भर समझौते करती व त्याग करती चली जाती हैं। 

    स्त्री के मानवी होने की स्वीकार्यता के लिए यह नितांत आवश्यक है कि हम सबसे पहले त्याग का महिमामंडन बंद करें और न्यूनतम उनके मनुष्य होने के अधिकारों को पाने का अधिकार उनके लिए सुरक्षित करें। अन्यथा कर्तव्यों और त्याग बलिदान का सारा दायित्व स्त्री के सिर और अधिकार, निर्णय व मालिकाना रौब सारा लड़कों के नाम करते घरों में भेदभाव करते रहेंगे। इसी भेदभाव के चलते ही समाज में ऐसी नृशंस घटनाएँ अनवरत होती रहेंगी क्योंकि स्त्रियाँ किसी न किसी की जागीर बनी रह कर उनके अधिकार क्षेत्र में आएँगी कि वे चाहे जैसे उन्हें जोतें या चाहे जैसे उन्हें इस्तेमाल करें। वे तो केवल धरती की तरह चुपचाप सब कुछ सहती हुईं सर्वस्व देने को सदा प्रस्तुत रहेंगी। और फिर समाज उनके इस बलिदान ( छीन कर लिए गए ) के बदले उन्हें श्रद्धा के सिंहासन पर बिठाकर देवी की तरह पूजने लगेगा । .......और महिमामंडन के बहाने अपने अपराधों, अन्यायों को उसकी दिव्यता की अनिवार्य शर्त व कसौटी बनाए रखेगा। 

    इसलिए दिल्ली में नृशंसता की शिकार हुई बच्ची की मृत्यु तथा अत्याचार की सहनशीलता के महिमामण्डन को बंद कर उसके साथ हुए अनाचार के विरुद्ध कदम उठाने में अपना वैचारिक व क्रियात्मक योगदान करें तो बेहतर होगा। अन्यथा जो ऐसा नहीं कर उसका महिमामण्डन कर रहे हैं वे स्त्री के विरुद्ध होने वाले अपराधों व नृशंसता में बराबर के भागीदार हैं। 

    महिलाओं व लड़कियों को जब तक समाज व परिवार में ऊँचा स्थान, मान-सम्मान व विशेष महत्व नहीं दिया जाता, जब तक वाणी, व्यवहार, मानसिकता और दृष्टि से भी उनके प्रति अवमानना, तिरस्कार आदि की भावना लेशमात्र भी शेष है, तब तक यह हवा स्त्रियों के आँसुओं से यों ही तर होती रहेगी.... आने वाली पीढ़ियों की स्त्री भी कभी अभिशाप से मुक्त नहीं हो पाएगी भले ही कितने भी आधुनिक साधन जुटा लें या नए-नए दंड और बढ़िया से बढ़िया अदालतें खड़ी कर लें। 
    स्त्री को मान देने की अपेक्षा हमारे समाज में उसके गुणों (वे भी उसके शोषण के लिए आरोपित किए हुए) को महत्त्व देने की रूढ़ि चली आती रही है,
  • 'पत्नी पथ-प्रदर्शक' लिखे गए, उसके त्याग को सामाजिक उत्सव व आयोजन बनाया गया 
  • सती की पूजा होती रही और उसके नाम पर देवालय स्थापित हुए
  • परदे में रहने को उसकी सच्चरित्रता से जोड़ा गया
  • बचा-खुचा खा लेने को उसके सन्नारी होने का पर्याय माना गया
  • उसके सर्वस्व लुटा कर बलिदान हो जाने को मातृत्व का पर्याय माना गया
  • उसके केशमोचन करा रूखा-सूखा खा बिना बिछौने सो जाने को सके वैधव्य की तपस्या के साथ जोड़ा गया
  • पतियों के व्यभिचार की अनदेखी को उसके बडप्पन व घर को बचाए रखने के औदार्य का नाम दिया गया 
  • ससुराल से अर्थी पर विदा होते समय ही निकलने को उसके सुखी विवाहिता होने
  • माता-पिता की लाज निभाने के प्रण को जान देकर भी निभा लेने के साहस से जोड़ा गया
  • पिट-पिट कर नीले हो जाने से लेकर गंभीर घायल तक हो जाने पर भी गिर पड़ने का बहाना कर चुपचाप अगली सुबह समाज को 'सब कुछ बढ़िया है' का भ्रम देने को पति की मान-मर्यादा का सम्मान करने का नाम दिया गया
  • घरों के भीतर ही भीतर चलने वाले पापाचारों को छिपा-झेल कर दांत में जीभ दबाए जीवनभर निभा ले जाने को सतवंती नार का लक्षण कहा गया
  • बेमेल विवाह से लेकर सौदा हो जाने तक को परिवार की लाज बचाने के लिए दिया गया बलिदान कहा गया
 ...... हजार चीजें हैं जहाँ लड़कियों को अपमान सहना, बेड़ियों में बंद रहना, अपने सामान्य से सामान्य अधिकार को परिवार और समाज के लिए तिलांजलि देते चले जाना, 

  • गऊ की तरह खूँटे से बंधे रहकर दुहे जाने को तत्पर रहना, 
  • धरती की तरह सब कुछ सह सबको क्षमा करते चले जाना, 
  • अपनी देह को लज्जा की वस्तु समझ उसके लिए शर्मिन्दा होते रह उसे लुकाए-छिपाए रहना और लज्जा का प्रतिमान होना,  
  • कभी भी छोड़ दी जाने को शापित रहना, 
  • घरों, मोहल्लों व बाजारों में किसी के भी द्वारा छेड़छाड़ पर आपत्ति न कर स्वयं पर ही शर्मिन्दा हो रोना-घुटना और सरेआम तमाशा बनना, 
    पुरुषों के 'बिल्ट-इन' गुणों (?) व आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तत्पर रह सब कुछ झेल ले जाना, पंगु से पंगु, क्रूर से क्रूर, महाचरित्रहीन से ले नपुंसक और नालायक से नालायक पति के दुर्दिनों में उसके साथ खड़े होने का 'साहस' दिखा सहनशीलता की देवी बनना घुट्टी में पिला कर सिखा-पढ़ा दिया गया है। जो स्त्री/ लड़की ऐसा नहीं करती उसे कुलटा, डायन, चरित्रहीन और न जाने क्या-क्या कह कर, क्या-क्या कर कर तिरस्कृत व प्रताड़ित किया जाता है। अपने लिए सोचना व करना उसके लिए जीवन-भर निषिद्ध है। इस निषिद्ध का पालन करने की पल पल पर परीक्षाएँ और सबूत उसे देते रहने पड़ते हैं। इतने सब को निभा ले जाने वाली ही वास्तव में थोड़ा-सा सम्मान और अधिकार पा सकती है। 
लडकियाँ/ महिलाएँ इस सम्मान को पाने के लिए जीवनभर जुटी रहती हैं, परस्पर दौड़ मची रहती है उनमें, कि मालिक लोग किसे तमगा देते हैं, कैसे तमगा प्राप्त किया जाए। उसे दबाने कुचलने वाले ही उसे पुरस्कार देने वाली ज्यूरी बनते हैं, क्योंकि उनके पास विधिवत् मारने-पीटने, लज्जित-प्रताड़ित करने, सताने-धमकाने, छल-कपट कर इस्तेमाल करने का आधिकारिक लाईसेंस होता है। स्त्रियाँ इन लाईसेंस धारकों से प्रमाणपत्र लेने के लिए कतार में लगी रहती हैं, जुटी रहती हैं, कभी कभी हाथापाई तक करती हैं, अपनी बेगुनाहियों के सबूत जुटाती देती रहती हैं और इस सारे में मची भागदौड़ के बीच नरपिशाच अपनी कीमत लेते रहते हैं, अपनी शक्ति और अधिकार का प्रदर्शन व प्रयोग कर महिलाओं की महिमा जाँचते (?) रहते हैं। उनके हिंसक से हिंसक और बीभत्स  से बीभत्स शक्ति प्रयोग को झेल ले जाने वाली लड़कियों / स्त्रियों को वे बड़े बड़े तमगों से सुशोभित करते हैं। 

    ऐसा ही तमगा दामिनी को बलिदानी घोषित कर, उसके जीवनदान (?) को उसके त्याग, महानता और महिमामंडन के रूप में दिया जा रहा है। लोग गलदश्रु भावविह्वलता और भक्तिभाव से उस पर तुरता रचनाएँ लिख कर धरती पर लोटपोट हो रहे हैं। ताकि लाईसेंस जारी करने का काम निर्विरोध चलता रहे और लाईसेंस देने वाले संस्थान की मान्यता बनी रहे। स्त्रियों में इस लाईसेंस को लेने की होड़ मची रहे और संसार में मानवता को बचाए रखने का जिम्मा लेकर पैदा हुई महिलाएँ अपनी महानता को याद कर उस महानता के लिए पूर्ववत् कटिबद्ध रहें, प्रतिबद्ध रहें और हाँ .... बद्ध भी रहें। 

(डॉ.) कविता वाचक्नवी    GoogleFacebookTwitterBlogger


नोट: इस लेख का सम्पादित अंश १३ जनवरी २०१३ के जनसत्ता में प्रकाशित हुआ है 


कृष्णा सोबती 'नए साल की देहरी पर'

 कृष्णा सोबती 'नए साल की देहरी पर' जनसत्ता 1 जनवरी 2013:

 




साल के पहले दिन, जनसत्ता के मुखपृष्ठ पर, हम-सब की व्यथा को, भारत के महामहिम राष्ट्रपति के सामने रखने के लिये, "शब्दांकन", श्रीमती कृष्णा सोबती व जनसत्ता का आभारी है