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समीक्षा और 'क्वायर’ का शोक गीत | उमा शंकर चौधरी के उपन्यास ‘अंधेरा कोना’ पर वंदना राग




समीक्षा और 'क्वायर’ का शोक गीत | उमा शंकर चौधरी के उपन्यास  ‘अंधेरा कोना’ पर वंदना राग

लेकिन आज का सच क्या है? इस प्रचलित लोकतंत्र प्रणाली का सच क्या है? लोकतंत्र का दावा करने वाले अपने देश-भारत का सच क्या है?

हर चर्च में एक क्वायर होता है। लड़के-लड़कियों का, स्त्रियों और पुरुषों का, जो आस्थावान और बे-आस्था सबको अपने धीमे गायन से आध्यात्मिक दुनिया की ऐसी गलियों में लिए चलता है कि मन भीग जाता है। 

उपन्यास ‘अँधेरा कोना’ पढ़ते हुए एक ऐसा ही धीमा दुःख मन को जकड़ने लगता है और फिर उसकी गिरफ्त से छूटना खासा मुश्किल हो जाता है। उपन्यास के शुरू में दर्ज की गयी पंक्तियों से हमारे आम जीवन का गहरा ताल्लुक है। यह उपन्यास के एक पन्ने को भरने की कोई बेजा हरकत नहीं, ये उससे आगे जाकर एक फलसफे का बयान है, एक नृशंस समय का रेखांकन है, एक हताशा और निराशा के बीच झूलते समाज का यथार्थवादी चिंतन है। पंक्तियाँ कहती हैं - ‘जब्त हवा, पानी, आग, खुशबू, पत्थर, औजार, कला, शब्द और आवाज।
...उपन्यास इन पंक्तियों के सार को एक चित्रात्मक प्रस्तुति के मार्फत दर्ज करता है। एक नए और खूबसूरत अंदाज से।

कुछ हमसे खो गया है और कुछ लोगों ने जब्त कर लिया है हमसे छीन कर। उन लोगों ने ही छीन लिया जिन्हें हमने अपनी सभ्यता और संस्कृति का वाहक बनाया, पैरोकार का रुतबा दिया। उन्हें एक शासन तंत्र को विकसित करने का मौका दिया जो हमें सुरक्षित रखें , हमारी विरासत को सुरक्षित रखें। उन्होंने हमसे वायदा किया कि हम ऐसा तंत्र विकसित करेंगे जो ‘लोक के लिए, लोक से बना, लोक के द्वारा’ चलने वाला शासन तंत्र होगा। फलतः ऐसे तंत्र के केंद्र में लोक होना चाहिए । यह लोकतंत्र की एक सुन्दर थिअरी है जिसकी कद्र हर विकास अपेक्षी राष्ट्र और व्यक्ति करते है। लेकिन आज का सच क्या है? इस प्रचलित लोकतंत्र प्रणाली का सच क्या है? लोकतंत्र का दावा करने वाले अपने देश-भारत का सच क्या है?

हम देश की आजादी के बाद से ही इसके बिखरते व्यावहारिक मूल्यों को असहाय नेत्रों से ताक रहे हैं। लेकिन फिर भी हम आशा का दामन नहीं छोड़ते, क्योंकि लोकतंत्र में शासन तंत्र के वायदे सकारात्मकता का स्वप्न दिखाते हैं। और दुरूह जीवन जीने के लिए स्वप्न देखना निहायत जरूरी है। स्वप्न दुःख के क्षणों में दर्द निवारक दवा का काम करते हैं। कठिन परिस्थियों में जीने के हौसला देते हैं। स्वप्न न हों तो मानव जाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए। उमा-शंकर चौधरी भी अपने उपन्यास में स्वप्न देखते हैं और स्वप्नों के माध्यम से एक हौसले भरे उपन्यास को साकार करते हैं।

उपन्यास के कथा नायक नागो का एक स्वप्न है। उसके लोहार पिता का भी एक स्वप्न है। लेकिन नागो का स्वप्न अपने पिता के स्वप्न से भिन्न है। नागो को पिता की भट्ठी की आग से अधिक सूरज की ऊर्जा लुभाती है। अतः वह एक सूरज अपने घर ले आता है। सूरज उसका घोड़ा उसकी ऊर्जा, उसका रोजगार , उसकी मोहब्बत का गवाह और उसका सबसे प्यारा दोस्त।

इसी तरह नायिका चिड़िया का भी एक स्वप्न है, आजादी से अपने पैरों पर खड़े होकर अपने चुनाव खुद कर सकने का स्वप्न। विधायक छुई देवी के स्वप्न के सामान शायद लेकिन व्यहवार में पूर्णतः अलग। यदि इन दो कथा नायिकाओं को आमने-सामने कर दिया जाए तो निश्चित ही दोनों गले लगकर अपने साझे संघर्ष की कहानी साथ लिख दें। अर्थात बर्फी के रस और पिंजड़े वाली मुनिया एक ही हैं।

एक जगह यह बात बौरा के कह भी दी जाती है ‘जब एक स्त्री, पुरुष के द्वारा डमी रूप में उपयोग कर ली जाती है तो... चुनाव आयोग को घोषित कर देना चाहिए कि इस स्वतंत्र देश में महिलाएं सिर्फ आटा गूंधने के लिए बनीं हैं। ’

छुई देवी नाम है विधायक का, लेकिन असली लोकतंत्र का वाहक उसका पति घुटर यादव है। अपने देश के चिरपरिचित शासन तंत्र का प्रतीक -बेईमान और झूठा, लफ्फाज ! गाँव के साधारण और सामान्य लोगों की नकली आवाज है वह। और जो असली है, गाँव के लोगों की आवाज हो सकता है, उसकी समाज में और इस शासन तंत्र के सामने कोई औकात नहीं। जाहिर है, ऐसे में उसे ही , एक दिन खो जाना होगा। उस स्वस्थचित्त विवेकपूर्ण आवाज को खो जाना होगा। कथा के महानायक विदो बाबू की आवाज को खो जाना होगा। उसे जब्त कर चुप कर दिया जाएगा। ठीक उसी तरह जैसे लोहार की धौंकनी, नागो का रोजगार, थोड़ी सी जमीन और थोड़ा सा पानी।

रहें उसी गाँव के फूलो बाबू राष्ट्र कवि दिनकर के मुरीद। गाते रहें गीत गाँव की चौपालों पर,
सिंहासन खाली करो जनता आती है !

लेकिन साहब सच तो यह है कि न जनता कहीं आएगी न जायेगी ? जनता की क्या औकात?जनता तो मिटटी का माधव बन जाती है आवाज उठाते वक्त, वह इस कदर दब जाती है कि उसकी क्या मजाल कि, वह सरकारों से कुछ मांग ले, या कह दे खुलकर, सीना ठोक कर- यह मेरा अधिकार है

अक्सर आज के लोकतंत्र के हालातों के मद्देनजर शासन तंत्र का भय और फिर उसके प्रति एक निस्संगता उपजने लगती है जनता में है जब हर जुगत भिड़ाकर भी सुनवाई नहीं होती है। विदो बाबू खत पर खत लिखतें हैं सरकार को, ठीक वैसे ही जैसे हर सरकारी दफ्तर में जनता जा- जा कर शिकायत दर्ज करवाती है, ठाणे में रपट लिखती है यह स्वप्न देखते हुए कि शायद कोई सुनवाई हो जाए, शायद कोई निदान। गाँव तो वैसे भी आज की तारीख में बहुत छिटके हुए धाड़ें हैं लोकतंत्र के। गरीब और बेहद पिछड़े हुए। गाँव वाले तो बेसी कुछ मांगते भी नहीं। उनके लिए सड़क, पानी बिजली ही तो मुख्य मुद्दे हैं। यदि आपके गाँव में नहीं हैं तो तेतरी में तो हैं ही। वही तेतरी जो बिहार के किसी कोने में पड़ा है। वहीँ जहाँ विदो बाबू हैं, जहाँ ठीक वोट पड़ने के पहले एक चमचमाती हुई सड़क बनती है और घुटर यादव उस ऊपरी विकास के प्रतीक का यशोगान करते चुनाव जीत जाते हैं। घुटर यादव बाहुबली है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सब उस बाहुबली की असलियत नहीं जानते। फिर भी सब चुप रहते हैं। यह लोकतंत्र में चुप्पी की प्रचलित मिसाल है। जैसा की हम जानते हैं-हमेशा ही यह घटित होती है। इस चुप्पी के दलदल से लेकिन कभी कुछ लोग आकर चुनौती कहदी कर देते हैं। यहाँ तेतरी में भी वही होता है। यहाँ भी चुप नहीं रह पाता तो एक कमजोर बूढ़ा।

उमा शंकर हमसे एक सवाल करने लगते हैं- गौर करने वाली बात है, क्या हर युग में प्रतिरोध की लड़ाई लड़ने के लिए हम एक कमजोर बूढ़े का ही चुनाव करेंगे? इस देश के भहराते लोकतंत्र में बूढ़ों की कीमत खूब लगाते हैं हम। यूँही नहीं गाते गाँव वाले, एक बिता दिए गए बूढ़े के विषय में,

‘जब तक आपके कड़कड़िया नोट पर रहेगा गांधी हियाँ ई गाँव में तब तक चलेगा विकास का आंधी’

उस बूढ़े को बीतने नहीं देते हम क्योंकि वह हमारे लिए हमेशा से एक सौदेबाजी करता आया है। पहले अंग्रेजों से फिर गाहे बगाहे इस लोकतंत्र से। और मजे की बात है हमेशा ही वह हमें फायदा पहुंचा देता है इसीलिए हम उसको इतरा कर भी तभी इस्तेमाल करते हैं जब हम निगोशिएट करना चाहते हैं अपने, समय समाज और स्पेसेस को।

तो उपन्यास में विदो बाबू भी बीतने के बात बीतते नहीं। विकास की मांग, बेईमानी को बेनकाब करते रहते हैं।
जाहिर है विकास की शक्ल कछुआ और अफवाहगर्द हवा है। फांकीबाज हवा। चारों ओर झूठ और फरेब का साम्राज्य है। उसी में एक कृशकाय साहसी कहता है,

 ‘तो भैया आप लोग उनका पूजा करो बैठ के। हमरा तो जब तक जान है, तब तक हम भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ेंगे। ’ यही बूढ़ा विदो बाबू हैं । एक अवकाश प्राप्त पशु चिकित्सक। सच, जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है यह है कि ऐसे बूढ़ों को हमने स्वेच्छा से अवकाश दान कर दिया है, फिर भी देखिये तो वे कितने जबर हैं कि मुँह उठाये चले आते हैं चेताने, हमें जगाने जैसे विदो बाबू चेताते हैं,

‘सब सह लो , लेकिन ई ठीक नहीं है, जो सहता है, एक दिन नंबर उसका भी आता है। ’

लेकिन लोग कहाँ चेतते हैं। लोग भ्रमों और जालों में अपने तमाम भोलेपन का हवाला दे, खुशी-खुशी फंसते हैं और धीरे- धीरे अपना सब भौतिक, नैतिक गँवाते चलते हैं। इतनी तीव्रता से कि अंत में हासिल कुछ नहीं होता।
लिहाजा इतिहास गवाह है और यह उपन्यास उसकी तस्दीक करता है कि पहले गए पारंपरिक रोजगार। नागो और उसका तांगा। आ गए हैं मोटर चलित रिक्शे। इ-रिक्शा है उसका नया नाम द्य अब तांगा गया तो बचता है एक घोड़ा जो वास्तव में सूरज नहीं है। ऊर्जा कहाँ दे पाता है वह अब। तांगा जो गया तो ऊर्जा भी गयीद्य एक क्षीण सी प्रतिछाया है अब बची उस पुराने सूरज की। प्रेम ही की तरह, जो दिलों में नागो और चिड़िया के तो है लेकिन परवान नहीं चढ़ता। न इतना प्रबंधन हो पाता है न इतने संसाधन जुट पाते हैं। इधर विदो बाबू हैं जो निरंतर प्रतिरोध के खत लिखते रहते हैं सरकार को, लेकिन हमेशा की तरह कोई सुनवाई नहीं होती।

इस तरह सिर्फ व्यहवारिक स्तर पर वास्तविक लोग और भाव नहीं बचते सिर्फ उनकी प्रतिछायाएं बचती हैं। धीरे-धीरे ये सारे लोग, वस्तुएं और भाव अकारथ और बेकार लगने लगते हैं। सबको चुप रहने का आदेश है। अब बाहुबली अपने विरोधियों (इसे आम जनता भी पढ़ा जा सकता है) को मारते नहीं उन्हें गायब कर देते हैं।

उमाशंकर चौधरी अपने पहले ही उपन्यास में एक जागरूक पर्यवेक्षक की तरह हमें उन गायब जगहों पर ले जाते हैं जहाँ पात्रों का एक क्वायर कुछ गा रहा है। आप यदि नजदीक जाकर सुनने की कोशिश करेंगे तो सुन लेंगे बखूबी उनका हलाक हो जाने वाला गीत। इस गीत में एक पूरा समय और समाज है, एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की उखड़ती परतें हैं, प्रेम है , निस्तार है, आभाव है और सब कुछ खत्म हो जाने के पहले कुछ विचार करने और बचा लेने की गुहार है।

अत्यंत चुस्त भाषा, कथ्य की रवानगी, राजनीति और समाज पर मजबूत पकड़ के दिलचस्प वाकयों से भरा यह उपन्यास कोई जादुई यथार्थवाद का आख्यान नहीं है। यह तो तेतरी गाँव और पटौना स्टेशन का आज का सच है। बिहार के किसी जिले का सच। वहाँ की छीजती भाषा और संस्कृति का सच। स्त्री मुक्ति के शहरी आडम्बर का गँवई, पिछड़ा और, दुखद सच। मोहब्बत के नाश का सच। प्रकृति से अलगाव का सच। लोकतंत्र के प्राण-पखेरू उड़ने की सम्भावना का सच। जो प्रीतिकर नहीं उसे ओझल कर देने का सच। उन अँधेरे कोनों का सच जो पारंपरिक रूप से पुरानी और बेकाम हो गयी चीजों को फेंकने से पहले कुछ देर छिपा देने के लिए हुआ करते थे। लेकिन आज लोकतंत्र ने अपने तईं ऐसी व्यवस्था कर दी है कि हम सबने अपनी सुविधानुसार, अपने घरों, मोहल्लों के अलावा सार्वजनिक इस्तेमाल के स्पेसेस में भी उन अँधेरे कोनों ‘डंपिंग ग्राउंड ’ तैयार कर लिए हैं। जहाँ हम बहुत आसानी से बेमोल चीजों को फेंक कर आ सकते हैं।

ऐसे में गायब हो गए विदो बाबू को कैसे ढूंढे नागो, गो कि उसे फरियाद करनी है और फरियाद करने का माद्दा तो सिर्फ उस साहसी बूढ़े के पास था। -यही सच है आज का - देखिये न यह जादुई विकास का कैसा अद्भुत खेल है कि हमने अपने एक्टिविस्टों, समाज सुधारकों, को ही अँधेरे कोने में डाल दिया है।

उमा शंकर चौधरी अपनी कथा के पात्रों से जो शोकगीत गवाते हैं वह समय, समाज और तंत्र की दुखद मृत्यु की सम्भावना के पहले ही गाया जाना शुरू हो चुका है।

अब हमारे रोने की बारी है।

 अपने इस बेहद महत्पूर्ण उपन्यास के साथ उमा शंकर चौधरी ने उपन्यास की दुनिया में शानदार आगाज किया है। यह महज गल्प नहीं -बिहार की आंचलिक पृष्ठभूमि पर रचा गया 21 वीं सदी का कडुआ सच है जिसकी अनुगूंज न सिर्फ बिहार में बल्कि भारत के सभी अंचलों में मिल जायेगी। इसे पढ़े जाने की बहुत जरूरत है।

vandanaraag@gmail.com

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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कहानी की समीक्षा कैसे करें | तंत्र और आलोचना — रोहिणी अग्रवाल



कहानी की समीक्षा कैसे करें | तंत्र और आलोचना — रोहिणी अग्रवाल

‘तेरह नंबर वाली फायर ब्रिगेड‘


रोहिणी अग्रवाल
रोहिणी अग्रवाल
महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय,
रोहतक, हरियाणा
मेल: rohini1959@gmail.com
मो० : 9416053847
कौतूहल और पठनीयता - ये दो ऐसी विशिष्टताएं है जो कथा साहित्य की रीढ़ हैं, लेकिन कहानी के अधिकाधिक प्रामाणिक और शोध केंद्रित होने के आग्रह के कारण दुर्भाग्यवश आज ये दोनों कथा-अर्हतायें कथा-परिदृश्य से बाहर होती जा रही हैं. तरुण भटनागर की कहानी ‘तेरह नंबर वाली फायर ब्रिगेड‘ (तद्भव, अंक 38) पढ़ते हुए इन्हें इनके वैभव और रचनात्मकता के साथ पुन: देखा तो जी जुड़ा गया।

तो क्या मैं कहानी की सराहना सिर्फ इसलिए करूं कि इन दोनों अचूक गुणों के साथ यह जीवन और मौत के बीच झूलती असहाय वृद्धा क्रिस्टीना की सफल रेस्क्यू कथा है? न, थ्रिल फिल्म की सफलता का रहस्य हो सकती है साहित्य का नहीं। साहित्य जिसे बचाना चाहता है, वह सिर्फ प्राण नहीं, मनुष्य की अस्मिता और गरिमा है। जाहिर है, कहानी में अचेत, घायल और विस्मृति की शिकार क्रिस्टीना कहानी का केंद्रीय पात्र होते हुए भी कहानी की मूल धुरी नहीं है। कहानी के केंद्र में है स्टीव जो चार घंटे से अनअटेंडेड फोन का एक सिरा पकड़े हुए है और थोड़े-थोड़े अंतराल बाद ‘हेलो हेलो‘ बोल रहा है मानो ऐसा करके फोन के दूसरी ओर मद्धम पड़ती सांसों को मौत के अंधेरे गलियारों में कूदने से बचा लेगा। बेशक, कहानी में कौतूहल की प्रचुरता है। कहानी को बुनते हुए कहानीकार घटना के भीतर त्वरित वेग से घटती अंतर्घटनाओं की अंतः डोरियों को जिस कुशलता से नचा रहा है, और उन्हें एक दूसरे की पारस्परिकता में गूंथ कर एक खास डिजाइन बना रहा है, उसी कुशलता से पाठक की सांस को भी अपनी पटु उंगलियों में थाम रहा है। ‘क्या क्रिस्टीना बच जाएगी?‘- उत्सुकता ….. व्यग्रता….दुआ में उठे हाथ!

‘ आहा! क्रिस्टीना बच गई!‘ राहत से निकला दीर्घ उच्छवास!

थ्रिल साहित्य का आंतरिक गुण होता तो कहानी फायर ब्रिगेड द्वारा क्रिस्टीना को हस्तगत करने के साथ ही खत्म हो जाती। कहानी रचनाकार का टास्क फोर्स नहीं है। इसलिए क्रिस्टीना के रेस्क्यू के बाद ही वह कायदे से शुरू होती है - एक बार फिर पाठक की स्मृति में फ्रेम फ्रेम बिंबात्मकता के जरिए। तब वह जान पाता है कि सूत्रधार तो स्टीव है - बेरोजगारी और मुफलिसी का मारा एक नौजवान जिसने जिंदगी के इतने आघात खा लिए हैं कि अब हाथ-पैर मार कर जिंदगी के प्रवाह में लौटने की कोशिश ही छोड़ दी है उसने। मैं चाहकर भी अपनी उम्र के अनुभव को उपदेश की पुड़िया में बांधकर उसे थमा नहीं सकती कि जिंदगी जिजीविषा का नाम है; कि जिंदगी में लय होकर ही जिंदगी के साथ-साथ अपने होने के मर्म को भी पाया जा सकता है। स्टीव ने पाठक के रूप में मेरी तमाम चेतना, अवचेतन, संस्कार और आकांक्षाओं को अपनी मुट्ठी में कसकर बांध लिया है। वह आकर्षक बायोडाटा न होने के कारण भौतिकता की रेट रेस में बाहर कर दी गई आधुनिक भौतिक इकाई भले हो, मनुष्यता के उत्कर्ष का स्वप्न देखती ऐसी नियामत है जो विचार और संवेदना के सम्मिश्रित रूप से बुनी कर्तव्यशीलता (उहूं, मुझे खुद ‘कर्तव्य‘ शब्द नागवार गुजर रहा है क्योंकि इसमें रूखे-ठंडे भाव से की गई ड्यूटी - जिसके एवज में पैसे मिलते हैं- का बोध होता है जहां प्रेम, तत्परता और समर्पण का स्वत:स्फूर्त भाव बिल्कुल नहीं होता) की अद्भुत मिसाल बन जाता है जहां तमाम फाकामस्ती के बीच निजी नफे-नुकसान का गणित नहीं, डूब पड़ती जिंदगी की सांसों को खींचकर किनारे तक ले आने का भाव है ।आश्चर्य नहीं कि तब स्टीव में मुझे ‘ओल्ड मैन एंड द सी‘ का बूढ़ा मछेरा दिखाई देने लगे।

पाठक यदि कहानी की जमीन पर सख्ती से पांव टिका कर कहानी के आसमान से बाहर किसी फ्लाइट पर निकल जाए तो यह कहानी की विफलता नहीं, कहानी के मॉन्यूमेंट बन जाने का संकेत है।मॉन्यूमेंट जो सभ्यताओं के उछाड़-पछाड़ के खेल में भले ही खंडहर बन जाए, जिंदगी की लय-ताल, गति और संगीत से कभी महरूम नहीं होता।

जिंदगी के प्रति आस्था स्टीव को लार्जर दैन लाइफ चरित्र बनाती है।

पूर्व और पश्चिम के पारिवारिक ढांचे और सांस्कृतिक संरचना के भेद को गाढ़ा करते हुए हम अपने गाल बजाकर चाहे कितने ही मुदित होते रहें, यह तय है कि परिवार, संबंध और समाज की जितनी जरूरत हमें है, उतनी ही विश्व के किसी भी गोलार्द्ध- महाद्वीप-संस्कृति में रहने वाले मनुष्य की भी है। फर्क यह है कि हम भारतीयता के महिमामंडन का अखंड संकीर्तन करते हुए कभी इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दे पाते कि हमारे परिवार न केवल मनुष्य के रूप में हमारी निजी संवेदना पर महत्वाकांक्षा/वर्चस्व का आवरण डाल हमें ‘डिमीन‘ करते चलते हैं, बल्कि उसी अनुपात में परिवार के सदस्य के रूप में वृद्ध मां-बाप, पत्नी, बच्चे दमन और आतंक का शिकार होकर बौने/उपेक्षित होते चलते हैं। साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे पास वेलफेयर नेशन स्टेट जैसी कोई संस्था नहीं जो वृद्धों को सीनियर सिटीजन होने का खिताब नहीं, सम्मान दे सके, और मुस्तैद सहयोगी की तरह उसकी एक कॉल पर कमर कस ले। हो सकता है, विशुद्ध भारतीय मिजाज को यह तुलना बेमानी गुजरे, लेकिन मनुष्यता के उत्कर्ष की कहानी जब लेखक विदेशी जमीन पर कहता है और विदेशी जमीन के हर शहर, हर परिवार, हर संस्कृति को यकसां कहने के उपहासात्मक भारतीय संस्कार के साथ अपने को वहां की सरजमीं की परिघटनाओं के ‘दर्शक‘ के रूप में अवस्थित करता है, तभी वह देख पाता है कि बर्फ की चादर तले संवेदना की ऊष्मा अपने में खोए तथाकथित आत्मकेंद्रित भौतिक इंसानों की रगों में भी दौड़ती है।

चार-चार संतानों के होते हुए भी क्रिस्टीना के बुढ़ापे का नितांत एकांत में कटना न उसका अपना निर्णय है, न किसी द्वारा थोपा हुआ। यह पाश्चात्य संस्कृति द्वारा दी गई ‘समझ‘ है - एक सांस्कृतिक अर्हता या सामाजिक आचार-व्यवहार की पद्धति, ठीक वैसे जैसे विवाह के बाद भारतीय स्त्री की अपने परिवार से विस्थापित होकर नए परिवार में घुल-मिल जाने की अर्हता।

एकांत और अकेलापन एक दूसरे के पर्याय नहीं। फिर भी, भारतीय परिवारों के मॉडल का पालन करते हुये यदि वहां बूढ़ों को परिवार की परिधि में अनिवार्य सदस्य के रूप में ले आना मानवाधिकार के तहत जरूरी है तो भारतीय परिवारों में हाशिए पर धकेल कर मान और अस्मिता से शून्य कर दिए जाने वाले बूढ़ों को रेबेका (क्रिस्टीना की पुत्री) सरीखी देखभाल के साथ आत्मीयता का संस्पर्श देना भी जरूरी है।

कहानी पाठक की चेतना पर छाप छोड़ती है क्योंकि इसकी अंडरकरंट्स में अपने को थहाने के कई कई कोण भी हैं।

घटनाएं यदि लेखक की युक्तियों के अधीन कार्य करते हुए पात्रों, वातावरण, एक्शन का परिचय देने में ही रीत जाएं तो कहानी कभी बड़ी नहीं बन पाती। वह तभी बड़ी बन पाती है जब घटनाएं आरोपित अर्थध्वनियों को संप्रेषित करने के बाद स्वयं पात्र, विचार, संवेदना के रूप में ढल कर पाठक के साथ बौद्धिक संवाद करें।
स्टीव जैसे बेरोजगार अनाम युवक के एक फोन कॉल पर फायर ब्रिगेड के हैड द्वारा महानगर के समंदर में खोई नाम-पताविहीन बुढ़िया की खोज के लिए सारी की सारी चौदह फायर ब्रिगेड गाड़ियों को डाउनटाउन की सड़कों पर दौड़ा देना; स्टीव के आग्रह पर स्पॉट किए गए एरिया में क्रिस्टीना की आयताकार खिड़की की खोज हेतु पूरी बिल्डिंग के 1006 घरों को रोशनी गुल कर देने का आग्रह करना; और इस आग्रह की परिपालना में सभी घरों की बत्ती का बुझ जाना - भौतिक रूप से उन्नत और आत्मिक- संवेदनात्मक रूप से विपन्न(?) समाज का परिचय नहीं हो सकता। यह मनुष्य की जान बचाने के लिए किया गया एक संयुक्त टास्क फोर्स है, क्योंकि मनुष्य की जान के साथ जुड़ी उसकी अस्मिता और संबंधों के महीन जटिल संसार की कीमत वे जानते हैं। गौरतलब है कि इस पूरी प्रक्रिया में फायर ब्रिगेड अधिकारी के सामने न सीनियर अफसरों से परमिशन लेने की ब्यूरोक्रेटिक अड़चनों की बहानेबाजी है, न अपने लिए तयशुदा दायित्वों से बाहर जाकर अन्य क्षेत्र में घुसपैठ करने का नैतिक हीला हवाला।

व्यवस्था जब अपने ‘तंत्र‘ की मजबूती को अपना ‘धर्म‘ बना ले, तभी मनुष्य गौण हो जाता है। भारतीय संदर्भ में अपनी जिम्मेदारी पर औसत व्यक्ति द्वारा क्या ऐसे किसी रेस्क्यू ऑपरेशन की कल्पना की जा सकती है?
जान की कीमत हम लोग नहीं जानते। जान पाते तो मॉब लिंचिंग, हिंसा की बढ़ती वारदातों और वर्चस्ववादियों के आए दिन के फतवों की वजह से सड़क-परिवार पर दम तोड़ते लोगों को देख भावशून्य से अपनी भूख-हवस की परिधि की परिक्रमा न करते रहते।

एक बेहतर इंसान होने का अर्थ है किसी अन्य की जरूरत के वक्त अपना हाथ आगे बढ़ा देना।

कहानी ‘तेरह नंबर वाली फायर ब्रिगेड‘ एक बेहतर मनुष्य रचने के सपने की कहानी नहीं है, बेहतर मनुष्य के संग कुछ पल गुजार कर अपने को उसके कर्मों की दूधिया रोशनी से आलोकित करने की चाहत है। जेम्स हेनरी ले हंट की कविता पुरानी भले ही हो गई हो, आज भी ताजा है जहां देवदूत अबू बिन आदम का नाम उसके तमाम अनुरोध के बावजूद उन लोगों की सूची में नहीं लिख पाता जो खुदा को प्यार करते हैं। उसका नाम उस सूची में है जिन्हें स्वयं खुदा दोनों बाहें फैलाकर प्यार करता है क्योंकि खुदा का अर्थ पत्थर खोदकर बनाई गई कोई बेजान मूरत नहीं, सांस लेते हम जैसे हमशक्ल इंसान हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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तीतर फांद: अन्याय ख़िलाफ़ में खड़े मनुष्य के लोकतान्त्रिक मुक्ति का उत्तर-आधुनिक पाठ है


समीक्षा

सत्यनारायण पटेल प्रकृति को साथ लेकर चलते हैं

— विनोद विश्वकर्मा




'तीतर फांद' चर्चित उपन्यासकार सत्यनारायण पटेल का नवीनतम कथा संग्रह है, मेरा ख्याल है कि आप अभी 'गाँव भीतर गाँव' उपन्यास को भूले न होंगे लेकिन यह कहानी संग्रह आपको इसलिए नहीं पढ़ना चाहिए की यह आपके प्रिय कथाकार का है, बल्कि इसलिए पढ़ना चाहिए कि यह आज के समय का जीवंत दस्तावेज़ है, हमारे समाज का कच्चा चिट्ठा है, आम आदमी की पीड़ा का अंतर्नाद है। न जाने क्यों मुझे इस संग्रह की कहानियां पढ़कर अमरीकी कथाकार ओ हेनरी की याद बरबस आती रही, शायद इसलिए कि इस संग्रह की कहानियां हमें ठीक उसी तरह मनुष्य बनाने की कोशिश करती हैं जैसे 'आखिरी पत्ता', समाज से इंसानियत का आखिरी पत्ता झड़ चुका है, पर हेनरी अपनी कला से बचाये हुए है। ठीक उसी तरह तीतरी का संघर्ष हमारे बीच एक इंसान को जिन्दा कर देता है।



पिछले कुछ वर्षों में देश का जो हाल रहा है, जनतंत्र और लोकतंत्र कहीं क्यों खोता गया है, इसकी पूरी समझ और अपनी कलात्मकता में मानव को मानव बनाने की कोशिश करती इस संग्रह की कहानियों की सबसे बड़ी चिंता यही है कि आज हमारा ईमान 'जर्जर' क्यों हो गया है ? ऐसा क्या हो गया है कि कोई ख़ास विचारधारा और कोई ख़ास व्यक्ति ही क्यों हमारे मन का, विचार का, नियंत्रण करना चाहता है, और वह लोकतांत्रिक ताकतों को झटका दे रहा है।

विनोद विश्वकर्मा

ये कहानियां हमारे आपके हम सबके जीवन की हैं, यह ऐसी बतकही में कही हुई बातें हैं जो हमें अपनी लगती हैं, कहीं न कहीं इनके विषयों में हम सब शामिल हैं। बहुत पहले हमने इस बात के लिए संघर्ष किया था कि समाज में लोकतंत्र की स्थापना हो और जनता का हित उसमें प्रमुख हो लेकिन आज जनता की कीमत कैसे घटी है, मंत्रियों, अफसरों और असंवैधानिक जुलूसों की कीमत बढ़ गई है, जैसे यह लोग जो कह रहे हैं, और कर रहें हैं वही सही है और हमारी विवशता है कि सब ठप्प है, क्योंकि मंत्री आ रहा है, कहीं जुलूस निकल रहा है, कान में, दिमाग में 'ढम्म...ढम्म..ढम्म' बज रहा है। पहले कभी जब यह ध्वनि हमें सुनाई पड़ती थी तो जन जागृति के लिए होती थी लेकिन आज फासीवादी विचारधारा की वृद्धि और व्यक्ति पूजा के लिए होती है ऐसा क्यों है ?लोकतंत्र के मूल्य हमारी चिंता का विषय आज क्यों नहीं हैं,  यही चिंता है हमारे कथाकार की।

समाज में कैसे और किस तरह से स्त्री कीमत में कमी आई है, कुछ चीजें क्यों आज आतंक का पर्याय बन गई हैं, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है, वह भी मनुष्य हैं, इस दृष्टि से 'न्याव', 'मैं यहीं खड़ा हूँ', 'गोल टोपी' कहानियों को लिया जा सकता है, गोल टोपी हमारे इस छद्म को उजागर करती है कि मुस्लिम भी मनुष्य है ? जबकि न्याव और मैं यहीं खड़ा हूँ स्त्री की वर्तमान दशा को दिखाती हैं। मिन्नी मछली और सांड कहानी समाज में और व्यवस्था में फैले अन्याय की कहानी है। न्याव कहानी हैं यह सोचने पर विवश करती है कि क्यों हम ऐसा समाज बनाते ही क्यों हैं कि उसे हमें ही नष्ट करना पड़ता है।

सत्यनारायण पटेल की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि वह प्रकृति को साथ लेकर चलते हैं, और इस क्रम में वह पक्षियों और पेड़ों का मानवीकरण कर लेते हैं, पक्षी और पेड़, हवा और पानी अपनी संवदेनाएँ कह सकते हैं, हमारे समय का मूल्यांकन कर सकते हैं। इसका दर्शन हमें औपन्यासिक और महाकाव्यात्मक औदात्य लिए हुए कहानी 'तीतर फांद' में होते हैं, मुझे लगता है कि यह कहानी हमारे समय की और हमारे वर्तमान रामराज्य की सच्ची गाथा है, जो यह बताती है कि रामराज्य पहले की तरह ही आसमान में ही है, अर्थात वह कहीं नहीं है, वह कुछ लोगों का जुमला है, और जुमला इसलिए कि वह अपना विकास कर सकें, वह केवल अपने विकास की बात करते हैं, क्योंकि सबका साथ और सबका विकास कितना सच है? हम इस कहानी में देखते हैं।

'तीतर फांद' सत्य में एक तीतर के परिवार की कहानी है, जो समय की फांद में अख्लाख की तरह मारा जाता है। लेखक यानी मोहन का इस परिवार से गहरा रिश्ता है, और वह इनसे मन से जुड़ा है। हो सकता है कि इसे पढ़ते हुए आपको लगने लगे कि आप क्या पढ़ रहे हैं लेकिन आपको धैर्य से और अंत तक पढ़ना है, यह कहानी अपने आप में हमारे समाज के सभी पक्षों को प्रकट कर देती है और यह बार - बार प्रश्न खड़ा करती है कि हमारा इंसान होना और इंसान की तरह व्यवहार न करना कितना सही है ?

आम आदमी किस तरह से शासन प्रशासन की फांद में फंस गया है, काम के नाम पर वादे हैं, और सुशासन के नाम पर जंगलराज। काम के स्थान पर भाषण और वादे हैं। रोटी के स्थान पर सपने हैं : यथा - "सुन लो भाई, सुन लो बहना/स्मार्ट सिटी बनाऊंगा!/बुलेट ट्रेन में घुमाउंगा!/स्वर्ग की सैर कराऊँगा !/रोजगार की रट छोड़ दो ........!"(तीतर फांद,  पृष्ठ - 160)आदमी सत्य से दूर है, किसान आत्महत्या कर रहा है, भूख से मर रहा है। पर हमारा महाराजा हमें सपने दिखा रहा है। ऐसा क्यों है? जमीनी हकीकत यह है कि जो गाय का मांस खाने से मना कर रहे हैं वही गाय को मार रहे हैं। और इसका दोष किसी निर्दोष पर डाल दे रहे हैं।



तीतर फांद,  छुटकी तीतरी की कहानी है जिसे मोहन अपने घर में रखता है, अपनी बेटी की तरह मानता है, और अपने मित्रों से ही उसे नहीं बचा पाता है, इस कहानी में जंगल एक प्रतीक है जो तीतरी के लिए है, पर मनुष्यों के बीच उग आए अमानवीय जंगल जिसमें संविधान दो कौड़ी का भी नहीं है, और अचानक ऐसा क्यों हो गया है, इसकी पीड़ा सहती है तीतरी, जो तिवारी और बड़ा बाबू के मांस खाने की लालसा के कारण उन्ही का शिकार होती है। यहाँ किसान और तीतरी की कोई कीमत नहीं है, शम्भू सिंह भी मारा गया है, तीतरी की तरह, बस लोग उसे आत्महत्या कहते हैं। बाजार, विज्ञापन और राजनीति के कुचक्र में फंसे आम आदमीं की छटपटाहट की यात्रा है तीतर फांद,  जिसे हम अपना लेते हैं, और तीतरी के पक्ष में खड़ें हो जाते हैं, मेरे विचार में किसी लेखक की यह सबसे बड़ी देन है कि वह हमें अन्याय के विपक्ष में खड़ा कर दें।

कला के स्तर पर सत्यनारायण पटेल कहानियां लिखते नहीं गढ़ते हैं, जिस तरह से प्रकृति ने अपने आप बना दिए हैं जंगल, नदी, पहाड़ और झरने, जो हमें यह एहसास दिलाते हैं कि हम कहाँ हैं, इनके पात्र, भाषा और संवेदना के स्तर पर हमारे साथ चलने लगते हैं, हमारे जीने, रोने, हँसने के साथी बन जाते हैं और हमें अंत तक वहां ले जाते हैं जहाँ जाने को हमने कभी सोचा भी नहीं था। हमें हमारे ही भूले हुए को याद दिलाने के लिए कथाकार सत्यनारायण पटेल को इस कहानी संग्रह के लिए बधाई।



'तीतर फांद'(कहानी संग्रह),
लेखक-सत्यनारायण,
प्रकाशक-आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड
पेपरबैक
पृष्ठ-167,
मूल्य-150.


विनोद विश्वकर्मा,
युवा उपन्यासकार और समीक्षक
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी,  शासकीय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सतना, मध्यप्रदेश-485001, मो. 09424733246,
ईमेल:dr.vinod.vishwakarma@gmail.com


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई…

साहित्यकार और क्या करे, मृदुला गर्गजी ने कहानी के माध्यम से चेताया...नहीं चेते, अब सुमन केशरी दीदी कहानी के अपने पाठ से उपजी विवेचना से चेता रही हैं...जागिये! दिक्कत यह है कि जब सत्ता के खिलाड़ी हमें यह महसूस करा देते हैं, कि खिलाड़ी वो नहीं हम हैं, और हम सब दाँव पर लगा देते हैं, तब जब तक नाश न हो जाए हम मानते ही नहीं...

गजब कन्ट्रास्ट रचती है यह कहानी और ऐसे लोगों को सामने लाती है जो दोनों संस्कृतियों के मजे बिना किसी मॉरल क्राइसिस के लेने के हिमायती हैं। एक ओर वे अमरीकी ऐश्वर्य का उपभोग निर्बाध  भाव से करने के हिमायती हैं, किंतु पत्नी की देखरेख के लिए फूटी कौड़ी नहीं लगाना चाहते।  

मृदुला गर्ग की कहानी “सितम के फ़नकार”  को पढ़ते हुए 

...सुमन केशरी

कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई…

ग़ालिब के इस मार्मिक और अर्थगर्भित शेर की शुरुआती पंक्तियों को कतई भूलकर केवल यही पंक्ति पढ़ने की दरख़्वास्त के साथ…

किसी भी कहानी की सफलता का मूलमंत्र है: ततः किम् यानी कि आगे क्या (हुआ)…यानी वह जो पढ़ा ले जाए खुद को अंतिम शब्द तक और फिर आप उसे लिए लिए देर तक उमड़ते-घुमड़ते रहें..

आज यह बात अब हमारी यहाँ की सोच का भी हिस्सा होती जा रही है। अगर आप रिलैक्स्ड ढंग से काम करते-करवाते हों तो आप सीरियस नहीं हैं, और काम नहीं करते।  

मृदुला गर्ग की कहानी “सितम के फ़नकार” को पढ़ते हुए लगातार यह उत्सुकता बनी रही कि आखिर वह चित्र “क्या” है, जिसके इर्दगिर्द कहानी बुनी गई है। ध्यान रहे कि चित्र कोई नयनाभिरामी कृति नहीं है, किंतु कहानी का विस्तार और उसके किरदारों की तमाम पर्तें वही चित्र खोलता है, जो सोनिया, जिसे कहानी की नायिका कहें या नैरेटर, को अपनी मौजूदगी भर से लगातार परेशान किए हुए है —

खाने की मेज़ की जिस कुर्सी पर मैं बैठी थी या कहना चाहिए कि जिस कुर्सी पर इसरार करके, बतौर हिंदुस्तान से आए मेहमान, जीवन वर्मा ने मुझे बिठलाया था, उसके ठीक सामने, दीवार पर एक लंबा चौड़ा चित्र टंगा हुआ था। 40X30 इंच का; इतना बड़ा कि भरसक कोशिश करके भी, उससे नज़र हटाई नहीं जा सकती थी।…उस वक्त ये फ़िजूल ख़ुराफ़ात सोचने का मकसद था, चित्र से ध्यान हटाना। बार बार एक ही विचार मन में कौंध रहा था। इसे खाने की मेज़ के सामने लगाने की क्या तुक थी? …मेरे हाथ में होता तो कहीं न लगाती। उस चित्र की फितरत ही ऐसी थी। उसे नज़र की ओट न कर पाने की ख़लिश, मुझे निवाला नहीं निगलने दे रही थी।…

मुरलीधर के अनुसार केरल के आश्रम में “स्प्रिचुअल अप्रोच” है, “सेवा भाव और परमात्मा में आस्था” है, और ‘वहाँ रोगी के पास पॉजिटिव वाइब्स भेजने की यूनीक पद्धति है, जिसे अमरीका में मिलीयन डालर खर्च करके भी नहीं खरीदा जा सकता।’



बहुत संक्षेप में कहानी: न्यूयोर्क के आलीशान सबर्ब में स्थित जीवन वर्मा के घर पर भोजन पर आमंत्रित सोनिया, जीवन के मित्र मुरलीधर गुप्ता और उनकी बेटी सपना तथा जीवन की पत्नी सुरुचि के बीच हो रही बातचीत है। शेफ़ जीवन वर्मा ने मेहमानों के लिए अर्जेनटाइना की एक खास डिश ‘चिकन चिमीचुर्री’ बनाई है, जिसका स्वाद मुरलीधर और सपना को तो मालूम है, किंतु जिसे किसी तरह खाने का उपक्रम सोनिया और सुरुचि करती हैं। सोनिया और सुरुचि भारतीय खाने की शौकीन हैं, जो जीवन वर्मा के अनुसार तेल सना, मसाले वाला और ज्यादा पके होने के कारण “बेहूदा” होता है। जीवन वर्मा और उनके दोस्त के लिए अमरीका जमीन पर स्वर्ग का ही पर्याय है, जहाँ जान की कीमत है, पाखंड नहीं है। जीवन वर्मा खाना पकाने में आम भारतीय मर्द की तरह अपनी हेठी नहीं समझते और अमरीकी वर्क कल्चर में निहित कर्मठता के प्रशंसक हैं। बकौल नैरेटर, जीवन वर्मा का “ घर विशुद्ध भारतीय का घर था। विशुद्ध माने जन्म से…पर क्या अमेरिकन नागरिक बन चुके NRI..को हम विशुद्ध कह सकते हैं, भले ही जन्म से। ...खालिस अमरीकी कहलवाने की कशिश या कोशिश, क्या कुछ नहीं करवा जाती।

और अमरीकी कहलाने की यही कोशिश मुरलीधर से कैन्सर की मरीज़ पत्नी को केरल के एक आश्रम में छुड़वा देती है, ताकि अमरीकी वर्क कल्चर का पालन हो सके…वह वर्क कल्चर जहाँ वर्क ही धर्म है, वहाँ भारत जैसी सुविधा हासिल नहीं कि कोई काम भी कर ले और घर परिवार की जरूरतों को भी देख ले।  मुरलीधर के अनुसार केरल के आश्रम में “स्प्रिचुअल अप्रोच” है, “सेवा भाव और परमात्मा में आस्था” है, और ‘वहाँ रोगी के पास पॉजिटिव वाइब्स भेजने की यूनीक पद्धति है, जिसे अमरीका में मिलीयन डालर खर्च करके भी नहीं खरीदा जा सकता।

गजब कन्ट्रास्ट रचती है यह कहानी और ऐसे लोगों को सामने लाती है जो दोनों संस्कृतियों के मजे बिना किसी मॉरल क्राइसिस के लेने के हिमायती हैं। एक ओर वे अमरीकी ऐश्वर्य का उपभोग निर्बाध  भाव से करने के हिमायती हैं, किंतु पत्नी की देखरेख के लिए फूटी कौड़ी नहीं लगाना चाहते। मुरलीधर की बेटी सपना पिता के रवैये से आहत है, किंतु अमरीकी वर्क-कल्चर से निकलने का साहस नहीं है उसमें। उसे इस बात का भी अहसास है कि सारी छुट्टियाँ उसने भारत में माँ के पास गुजार दीं और “ एक दिन के लिए भी रिलैक्स करने कहीं नहीं गई, इससे ज्यादा क्या कर सकती थी..

यहाँ गौर करने की बात यह है कि परंपरागत भारतीय जीवन शैली में काम और रिलेक्सेशन साथ गुंथे होते थे। काम किया और त्यौहार मनाया। काम करते करते गीत गाए। शाम को किस्से कहानी सुने, लगाई-बुझाई की, रामायण भागवत का पाठ किया। एक जीवन संस्कृति, ठीक भारतीय खाने की तरह जिसमें स्नेह भी है, तो मसालों का चटपटापन भी और संबंधों के देर तक सींझने-पकने का धैर्य भी। ईसाई धर्म को लें तो सप्ताह में छह दिन काम करने के बाद सातवें दिन आराम का। उस दिन काम करना कुफ़्र माना जाता है। मैरी मेग्दलीन का अपराध भी तो यही था कि वह सातवें दिन ‘व्यापार’ कर रही थी। सो रिलैक्स करने के दिन काम करने के दिनों से अलग हैं। आज यह बात अब हमारी यहाँ की सोच का भी हिस्सा होती जा रही है। अगर आप रिलैक्स्ड ढंग से काम करते-करवाते हों तो आप सीरियस नहीं हैं, और काम नहीं करते। कार्मिकों की प्रोडक्टिविटी इस आधार पर मापी जाने लगी है कि आप समय पर आए और समय पर गए। सारा दिन सीट पर बैठे रहे, चाय पीने बाहर नहीं गए। दिए गए काम को निबटाया, भले ही उसमें रचनात्मकता और नई सोच का बिल्कुल अभाव हो। दरअसल काम के इस तरीके को अपनाना वापस फ़्रेडरिक विन्सलॉ टेलर के जमाने में जाना है, जहाँ पीस के हिसाब से काम को मापा जाता था, भले ही मनुष्य स्वयं मशीन में तब्दील हो जाए। सच तो यही है कि आज सत्ता की कोशिश ही है कि मनुष्य मशीन बन जाए, फ़ुली प्रोग्राम्ड बाई द स्टेट!
Modern Times - Charlie Chaplin

विकास

मृदुला गर्ग की कहानी की खासियत ही यह है कि ये सारी बातें सीधे सीधे नहीं कही गईं। एक अदद चित्र है और नैरेटर की सोच है, एक अदद अर्जेटाइना की फ़ैंसी डिश है, जिसका वास्तविक स्वाद जाने कैसा होता है!  चलिए इस नायाब डिश को “विकास” के रूपक की तरह पढ़ते हैं। औद्योगिक क्रांति के बाद विकसित हुए अर्थ शास्त्र व राजनीति विज्ञान में विकास एक ऐसे पैराडाइम की तरह उभरा कि सबकुछ उसी की दृष्टि से देखा गया और यह विकास भौतिक उपलब्धि को ही महत्त्व देता है। आज भी जीडीपी आदि की बात होती है। कितना शहरीकरण हो गया, कितना कार्बन उत्सर्जन हुआ आदि। किंतु इस विकास का दूरगामी प्रभाव क्या है, उसके बारे में बोलना विकास-विरोधी होना है। यानि कि विकास गोया ब्रह्म है जिसे उसके पूर्ण रूप में किसी ने देखा ही नहीं, और न देखने की शक्ति है किसी में। वह तो गोया विष्णु का विराट रूप है, जिसे देखने के लिए बर्बरीक की तरह सिर कटवाना पड़ेगा। यह बात बड़े नामालूम ढंग से सजग पाठक के मन में धँसती चली जाती है।



याद करें कि जो पात्र यानी कि मुरलीधर इस डिश की प्रशंसा करता है वह भी कहता है कि, “कितनी लाजवाब बनी है, नहीं, अर्जन्टीना के ‘परिल्ला’ में भी नहीं मिलेगी।” यानी कि आई एस ओ 9001 आदि की बात करने वाले भी इस “विकास” नामक ब्रह्म को पूरी तरह ‘स्टैण्डर्डाइज़’ नहीं कर पाए। तभी तो पेन्टिंग का मैटेरियल मिला आर्टिस्ट को! यदि विकास की कोई एक मुकम्मल अवधारणा होती तो ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में उसका एक स्टैण्डरडाइज़्ड रूप न होता? क्योंकर एक मॉडल दूसरी जगह इस तरह से फेल हो जाता। दरअसल दुःख इसी बात का है कि आज हर वस्तु, हर अवधारणा ग्लोबलाइज़्ड हो गई है। अगर अमरीका में ऊँची इमारते हैं, तो यहाँ भी हूबहू वैसी ही बननी चाहिएँ। जैसे मॉल वहाँ हैं, वैसे ही हर जगह होने चाहिएँ उन्हीं माल-असबाबों के साथ, उन्हीं खुशबुओं के साथ ताकि हर जगह का एलीट हर जगह “ऐटहोम”  फ़ील कर सके। तो यह पेन्टिंग नुमा चित्र उसी सोच को मानो बता रहा हो। यह विडंबना ही है कि ऐन खाने की मेज के सामने इस चित्र को लगाने वाला जीवन एक ओर भारत में जान की कीमत न होने का रोना रोता है, तो दूसरी ओर अमरीका या तथाकथित पहली  दुनिया के लोगों की खुशहाली के पीछे गरीब देशों की बदहाली को नहीं देख पाता। वह यह नहीं देख पाता कि एक अमरीकी जान अगर कीमती है, तो उसके लिए कितना शोषण किसी गरीब देश के गरीब आदमी का किया गया होगा।

कहानी इन बातों को सीधे सीधे नहीं रखती, यही तो उसकी खूबी है, पर एक सजग-सचेत पाठक को एक विस्तृत व गहरे पाठ का आधार जरूर प्रदान करती है। किंतु यह वह समय है जब हम जान लें कि आखिर चित्र में ऐसा है क्या?

खाने की मेज के सामने टंगा, पेन्टिंग सरीखा यह चित्र, मशहूर चित्रकार श्रीनिवासन द्वारा खींचा गया 2012 में सूरत में आई बाढ़ का है। डैम बचाने की ख़ातिर पानी शहर की निचली गरीब बस्तियों और गाँवो की ओर छोड़ दिया गया था। जिसके कारण दो हजार एक सौ पिचासी लोग डूब कर मर गए थे।  उसी की फोटो जीवन ने लगा रखी थी। बच्चे, बूढ़े, मर्द औरत गर्भवती औरतें (“वो देखो पूरे नौ महीने की लगती है। देखा।” ) सब मरते दिख रहे हैं उस चित्र में। नैरेटर का यह कहना मानीखेज है कि,
जिसे नहीं देखने का नाटक करती रही थी, उसे अब रेशा-रेशा साफ़ देख रही थी। 40X30 इंच का हर मिलीमीटर लाश बनते इन्सान की शक्ल ले चुका था। बेहरकत था पर उसमें बसी छटपटाहट साफ़ दिख रही थी, इतनी कि हर मौत को मैं अलग महसूस कर रही थी। सामूहिक नरसंहार,रेशा-रेशा मेरे सामने घटित हो रहा था।…

https://www.altnews.in/rss-workers-aid-gujarat-flood-shared-as-kerala/


लेखिका के शब्दों पर ध्यान दें तो हम पढ़ेंगे कि दुनिया की तरह ही, जिसमें अमीर देश अपने ऑब्सलीट टेक्नोलॉज़ी को गरीब देशों को बेच देते हैं, अपना कूड़ा कचरा दान में दे देते हैं और शस्त्रों के रूप में झगड़े और मौतें भी, उसी तरह एक देश में भी कई देश निवास करतें हैं। पानी-बिजली का बड़ा हिस्सा शहर के अमीर लोग, बचा खुचा शहर के गरीब इलाकों में रहने वाले और जलप्लावन और रेडियो एक्टिव तरंगे, महामारियाँ गाँवों, आदिवासियों के हिस्से में। चित्र यही तो बता रहा है। गरीबों के गर्भ में रहने वाली उम्मीदें भी असुरक्षित हैं, इस ग्लोबलाइज़्ड विकास की अवधारणा में जहाँ मरती स्त्री की सेवा करने से पति को व्यापार में करोड़ों के नुकसान का डर है और बेटी को नौकरी खोने का, क्यों कि वर्क कल्चर सबकी मानवीय संवेदनाओं को कुचल-मसल कर खत्म कर दे रहा है। आध्यात्मिकता की तलाश उन्हीं जगहों में की जा रही है, जिन्हें बर्बाद भी विकसित राष्ट्र ही कर रहे हैं। आध्यात्मिकता की ऐसी खोज कितनी बेमानी होती है, इसकी ओर भी जीवन संकेत करता है, “ आयुर्वेदिक डिस्पेंसरी खोल कर, उन्हीं के मुफ़्त इलाज करने का दिखावा करते हैं, जिन्हें बेघर करके करोड़ों कमाए थे।” आखिर अमीर देश भी तो यही करते हैं। अपने माल बेचने के लिए कर्ज या दान देने का उपक्रम और इसी क्रम में बड़े से बड़े डील हथिया लेने का काम!



ये सभी दरअसल सितम के फ़नकार हैं, कुछ चित्रकार श्रीनिवासन की तरह सितम का चित्र खींच कर संवेदनाएँ जगाने का काम करते हैं, तो कुछ उन सितमों को रचने वाले फ़नकार हैं, जो विकास के नाम पर कहाँ कहाँ विनाश के बीज बो देते हैं, कोई नहीं बूझ पाता, वह भी नहीं, जिसने चित्र ऐसी जगह लगा दिया है, जहाँ से वह आँख की ओट नहीं होता। जीवन अर्जन्टीना की डिश बनाकर भले ही सोचे कि उसने विकास का एक वैकल्पिक मॉडल तलाश लिया है, पर सूफ़्ले की नज़ाकत पर उसकी इतराहट दरअसल उसे अमरीकी मॉडल पर ही टिकाए हुए है। उसके लिए हिंदुस्तान एक पिछड़ा हुआ देश है, जहाँ न जान की कीमत है, न वहाँ के लोगों में कोई तहजीब है। वह एक सिरे से पाखंडी देश और समाज है।

मृदुला गर्ग की यह कहानी एनआरआई लोगों की सोच को, भारत के प्रति उनके दुहरे दृष्टिकोण कि जब चाहें उसे अपनी कह कर इस्तेमाल कर लें और जब चाहें उसे गाली दे दें,  बखूबी प्रस्तुत करती है। यह बात हमें मुरलीधर के चरित्र में साफ़ दिखाई पड़ती है। जीवन का चरित्र मुरलीधर की अपेक्षा अधिक संश्लिष्ट है। उसके मन में वास्तव में भारत के प्रति अनेक शिकायतें हैं। वह सच कहें तो अंदर ही अंदर खफ़ा है और उसे छिपाता भी नहीं। यही नहीं अब तो उसे यहाँ के खानपान सबसे चिढ़ है। पर यह चिढ़ किसी विदेशी की नहीं, बल्कि उस आम भारतीय की चिढ़ है, जो विदेश की भूमि पर अपने देश को कमतर पाता है। जो इस समाज के पाखंड को रेशा रेशा देखता है। उसकी पत्नी सुरुचि अभी तक अपने भारतीयपन को जी रही है। और सपना उस नई पीढ़ी की प्रतीक है, जो तथाकथित आधुनिकता और परंपरावादी सोच के बीच अपने लिए रास्ता टो रहे हैं। नैरेटर का चरित्र सबको गोया उनकी पूर्णता में देखता हुआ भी अपनी खासियत को उभारने में और खुद एक चरित्र की तरह उभरने में  सफल है। दरअसल यह नैरेटर ही है, जिसके दिखाए हम अपने समाज की तुलना एक अन्य समाज से  कर पाने में सक्षम होते हैं। मृदुला जी ने इस कहानी में पात्रों और स्थिति के अनुसार  अंग्रेजी और उर्दू अल्फ़ाजों का जमकर प्रयोग किया है। आठ पेज़ से भी कम की यह कहानी अपने फलक में बहुत विस्तृत है। इसे सपाटे से नहीं पढ़ा जा सकता। इसकी पर्तों को खोलते हुए पढ़ पाने के बाद ही पता चलता है कि आप भी किसी बाढ़ में डूबते-उतराते बह रहे हैं…हाँ चिमीचुर्री का अनजाना स्वाद मुँह में घुलता है, आपके अनजाने ही…


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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क्यों किसी भी टीवी पत्रकार के लिए हर दिन चुनौतीपूर्ण होता है


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ऑफ़ द स्क्रीन: टीवी रिपोर्टिंग की कहानियाँ

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पुस्तक समीक्षा


खबर के पीछे का रोमांचक सफर

आप न्यूज चैनल शौक से देखते हों, बिल्कुल नहीं देखते हों या सिर धुनते हुए देखते हों - तीनों ही स्थिति में अगर आप इसे पढ़ेंगे, तो आपको टीवी रिपोर्टिंग के स्वरूप, उसके विषयों , खूबियों और दुश्वारियों के बारे में कुछ नई जानकारियाँ मिलेंगी और मुमकिन है कि आपकी राय ...

ब्रजेश राजपूत की पुस्तक ‘ऑफ द स्क्रीन; टीवी रिपोर्टिंग की कहानियाँ’ न्यूज चैनलों पर आने वाली खबरों के पीछे की कहानियाँ सुनाती है - किस्सागोई के दिलचस्प अंदाज में। अपने लंबे कॅरिअर में ब्रजेश ने लगभग हर तरह की स्टोरी की है, जो आप न्यूज चैनल पर देखते हैं। इसलिए उनके अनुभवों में विविधता है, जो किताब की कहानियों में भी झलकती है। इनमें पगलाई भीड़ के हमले में मौत से साक्षात्कार के वर्णन हैं, तो तूफान और बाढ़ में खबर तलाशने की रोमांचक दास्तानें भी हैं। उन्होंने पुस्तक में सच ही लिखा है- ‘अजीब-सा काम है पत्रकारिता भी। लोग हादसे की जगह से दूर भागते हैं, मगर हम पत्रकार उस जगह पर जल्दी पहुँचने में जी-जान लगा देते हैं।




नदी में तैरते शिवराज सिंह चौहान और फटी टी-शर्ट वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया...

प्रोड्यूसर क्या पका रहा है


यह टीवी चैनलों की उत्सुकता और रोमांच जगाने वाली शैली में लिखी गई है, लेकिन इसमें प्रिंट मीडिया के भाषायी संस्कार भी हैं। लेखक ने अनावश्यक दोहराव और बलाघात से बचते हुए सरल वर्णनात्मक शैली में अपने अनुभव बयाँ किए हैं। बीच-बीच में उनके विचार और टिप्पणियाँ सहज रूप से आती रहती हैं और पाठक के लिए विषय को आत्मसात करने में सहायक होती हैं। मसलन, एक जगह वे कहते हैं कि ‘टेलीविजन पत्रकारिता में कल क्या किया, कोई नहीं पूछता… हमेशा यह पूछा जाता है कि आज क्या कर रहे हो’, तो आपको एहसास हो जाता है कि स्थापित नाम होने के बावजूद क्यों किसी भी टीवी पत्रकार के लिए हर दिन चुनौतीपूर्ण होता है।

दुष्यंत कुमार का टूटता घर
बहरहाल, इसे महज रोमांच के लिए मत पढ़िए। इसमें करुणा और सामाजिक सरोकारों की कहानियाँ भी हैं। ‘पचमढ़ी की गुड़िया की लंबी कहानी’ बताती है कि टीआरपी देने वाली खबर से शुरू हुए जुड़ाव में कैसे स्नेह, आत्मीयता और परवाह के भाव भी जुड़ते चले गए। किताब में कर्ज के बोझ से आत्महत्या करते किसान, तनाव में गलत कदम उठाते स्कूली बच्चे, फांसी और सजा-माफी के बीच झूलता एक शख्स, सवाल करने पर एक आम नागरिक को सजा देने वाला कलेक्टर, हिंदी के मशहूर गजलगो दुष्यंत कुमार का टूटता घर और अफसरशाही के नीचे पिसते ग्रामीणों की कहानियाँ भी हैं। जनसरोकारों से जुड़े ये किस्से किताब में रोचकता और स्तरीयता के बीच झूलता काँटा संतुलित बनाए रखते हैं।






कुंभ स्नान पर जाने वाली साध्वी प्रज्ञा ...
राजनेताओं और समस्याओं के बारे में लिखते वक्त किसी एक पक्ष में झुक जाने का जोखिम होता है, लेकिन लेखक ने इस बात का ध्यान बखूबी रखा है। वे नदी में तैरते शिवराज सिंह चौहान और फटी टी-शर्ट वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के बारे में आंखों देखा हाल बताते हैं और बाकी सबकुछ इशारों-इशारों में कह जाते हैं। यह निरपेक्ष अंदाज मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा और कुंभ स्नान पर जाने वाली साध्वी प्रज्ञा के किस्सों में भी कायम रहता है। यहाँ तक कि वे चुनाव के किस्सों में भी संतुलन साधे रहते हैं और जो भी कहना है, घटना-प्रसंगों और वास्तविक किरदारों की बातों के जरिए ही कहते हैं।

राय थोड़ी-सी
कुछ किताबें आपको बदल देती हैं। उन्हें पढ़ लेने के बाद आप वह नहीं रह जाते, जो पहले थे। आपकी जानकारियाँ बढ़ जाती हैं, जागरूकता का स्तर ऊँचा हो जाता है, आपकी समझ थोड़ी बेहतर हो जाती है और सबसे अच्छी बात, आप एक बेहतर इनसान बन जाते हैं। यह भी इसी श्रेणी की पुस्तक है। आप न्यूज चैनल शौक से देखते हों, बिल्कुल नहीं देखते हों या सिर धुनते हुए देखते हों - तीनों ही स्थिति में अगर आप इसे पढ़ेंगे, तो आपको टीवी रिपोर्टिंग के स्वरूप, उसके विषयों , खूबियों और दुश्वारियों के बारे में कुछ नई जानकारियाँ मिलेंगी और मुमकिन है कि आपकी राय थोड़ी-सी बदल भी जाए।






प्रैक्टिकल गाइड
और पत्रकारिता (mass communication) के छात्रों के लिए तो यह प्रैक्टिकल गाइड की तरह है। खबरों की खोज में किन हालात से गुजरना पड़ता है, कितने खतरों का सामना करना पड़ता है, कितनी तरह की चुनौतियों से जूझना पड़ता है और खबर कैसे निकलती है, यह इस किताब की 75 कहानियों को पढ़ते हुए बड़ी आसानी से समझ आ जाता है। जैसा कि ब्रजेश एक जगह टिप्पणी करते हैं- ‘समाचार चैनल की नौकरी में भागादौड़ी, कवायद और कसरत बहुत ज्यादा है। काम घंटों का है, तो स्टोरी मिनटों और सेकंड्स की’, यह किताब बताती है कि किसी हल्की-फुल्की स्टोरी को बनाने के लिए भी कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं।

यह गलतफहमियाँ भी दूर करती है। मसलन, पाठक जान पाता है कि खबरिया चैनलों का कामकाज उतना सुविधायुक्त और ग्लैमरस नहीं है, जैसा लगता है। यही नहीं, पत्रकार को सर्वेसर्वा मानने वालों को भी यह जानकर झटका लग सकता है कि यह तो वास्तव में पर्दे के पीछे रहने वाले प्रोड्यूसर का माध्यम है। अपने शो को लेकर वह क्या पका रहा है, उसमें रिपोर्टर की बहुत छोटी भूमिका होती है।

तो यह किताब दरअसल क्या है? यह रोमांचक सफर का वर्णन है। यह जमीनी हकीकत का दस्तावेज है। इसमें टीवी रिपोर्टिंग के संस्मरण हैं। यह एक ग्लैमरस समझे जाने वाले कार्यक्षेत्र की दुश्वारियों की दास्तान है। टीवी पत्रकारिता (mass communication) के छात्रों के लिए यह पाठ्यपुस्तक की तरह है। हर कोण से इसका एक अलग ही रंग नजर आता है। कुल मिलाकर ‘ऑफ द स्क्रीन; टीवी रिपोर्टिंग की कहानियाँ’ एक रोचक किताब है।

समीक्षक – विवेक गुप्ता

पुस्तक – ऑफ द स्क्रीन; टीवी रिपोर्टिंग की कहानियाँ

लेखक – ब्रजेश राजपूत

प्रकाशक – मंजुल पब्लिशिंग हाउस

पृष्ठ – 245

कीमत – 250 रुपए

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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‘सडांध’, माने बास | मनदीप पूनिया की नाटक पड़ताल



क से भय

'क से भय' नाटक 26 मई को जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी के कन्वेंशन सेंटर में मैत्रैयी कॉलेज की थियेटर सोसायटी ‘अभिव्यक्ति’ की छात्राओं द्वारा खेला गया... उस पर मनदीप पूनिया की रपट



हिंदी में अभी अच्छे नाटक नहीं लिखे जा रहे, कोई ढंग का नाटककार अब हिंदी में नहीं बचा है या हिंदी नाटक में अच्छा काम करने वाले लोग बॉलीवुड चले गए हैं…आदि आदि। अब ये सब वाक्य अक्सर सुनने को मिलते हैं। मगर ये सच नहीं है। मौजूदा हालातों पर लोग नाटक लिख भी रहे हैं और उन्हें खेल भी रहे हैं। मौजूदा हालातों पर तीखे कटाक्ष करता हुआ 'क से भय' नाटक 26 मई को जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी के कन्वेंशन सेंटर में मैत्रैयी कॉलेज की थियेटर सोसायटी ‘अभिव्यक्ति’ की छात्राओं द्वारा खेला गया। नाटक महिलाओं और दलित-अल्पसंख्यकों, उनके मुद्दों पर लिखने और काम करने वाले लोगों और साधन संपन्न बहुसंख्यक आबादी के बीच चल रहे संघर्षों पर एक नज़र पेश करता है।

मनदीप पूनिया
नाटक की नायिका दुर्गा तिवारी की किताब का नाम है ‘सडांध’, माने बास। अरे नहीं समझे, तो शब्दकोश का इस्तेमाल करो ना। जब दुर्गा कुछ भी लिखती है तो उसकी सीनियर एडिटर भी उसको बार-बार शब्दकोश इस्तेमाल करने की ही बात कहती है। वो शब्दकोश दुर्गा को सच्चाई लिखने से रोकता है।  उसकी किताब का नाम घटिया मालूम होता है। अपनी किताब के नामांकरण के लिए तथाकथित इतने नीचे दर्जे के शब्द का चुनाव दुर्गा ने इसलिए किया है क्योंकि उसने इस किताब में बहुसंख्यक समाज और हमारी महान संस्कृति द्वारा हाशिये पर धकेल दिए लोगों के बारे में और अपने जिस्म को बेचकर सड़ांध भरी कोठरियों में रह रही औरतों के बारे में लिखा है। और इन सब तबकों को हमारा मुख्यधारा का समाज “निचले दर्जे” का इंसान ही तो समझता है। इस वास्तविकता की पहचान करके सच्चाई लिखने की कोशिश की है दुर्गा ने।


पर हुआ यूं कि किताब तो छप ही नहीं पाई। छपने से पहले ही उस किताब का काम तमाम कर दिया। उसकी किताब को छपने से पहले ही तथाकथित संस्कृति रक्षकों ने उसके सामने फाड़ दिया।

जिस पत्रिका में वह काम करती थी उसका मालिक उसे हमेशा सत्तापक्ष की तारीफ करते लेख छापने को कहता था जो उसे बिल्कुल पसंद नहीं था। एक दिन मालिक के मना करने पर भी वह अल्पसंख्यकों, महिलाओं और दूसरे सामाजिक मुद्दों पर एक लेख छाप देती है। नाटक की कहानी दो संपादकों दुर्गा तिवारी और मीनाक्षी रावत के आसपास चक्कर लगाती है, जो एक पत्रिका में काम कर रही हैं। मुख्यधारा के साथ तरक्की करने के लिए वरिष्ठ सम्पादक बिन्दु उन दोनों को एक ख़ास लीक पर चलने, सोचने ,सत्तापक्ष की हां में हां मिलाने और तथाकथित महान संस्कृति के साथ कदम-ताल करने के लिए बार-बार समझाती है। पर दुर्गा बनी बनाई लीक से हटकर सच्चाई छापने की हिम्मत दिखाती है तो उसे ही जिंदगी की लीक से हटा दिया जाता है।

तथाकथित सभ्य समाज और उसकी महान सोच के तले दबी नाटक ‘क से भय’ की नायिका दुर्गा इस समाज की सोच और चाल-चलन पर सवालिए निशान उकेरती है। स्वीटी रूहल के मार्गदर्शन में खेला गया यह नाटक डर के भ्रम बनने की प्रक्रिया को बखूबी दिखाता है।


वैश्वीकरण और बाजारवाद के दौर में विकसित होते समाज में बोलने, सुनने और देखने पर प्रतिबंध लगाने और सच्चाई पर पर्दा डालने के बाद बनने वाले दोहरे चरित्र की खिल्ली उड़ाने वाले मुखौटे स्टेज पर बार-बार उतर जाते हैं। ये मुखौटे महिलाओं के लिए तय बोलचाल, पहनावे, कामकाज और जिंदगी जीने के मानकों का भंडाफोड़ कर दर्शकों को हंसाते हैं और महिलाओं की सामाजिक स्थिति और उनको पुरुषों से कमतर स्थापित करने वाले विचारों पर सवाल खड़ा करते हैं।

नाटक में हाल-फिलहाल के सत्ता पक्ष पर खूब तंज कसे जाते हैं। छोटे-छोटे लोकगीतों को नाटक के बीच-बीच में जगह मिली है जो इस नाटक को दर्शकों तक पहुंच पाने का रास्ता मुकम्मल करते हैं।

नाटक ख़त्म होने के बाद जैसे ही छात्राएं दर्शकों के सामने आती हैं, दर्शक खड़े हो कर तालियां बजाने लगते हैं। पास बैठे एक सज्जन कि आँखों से आँसू फूट पड़ते हैं और ताली बजाते हुए वह बोल उठता है, ‘गौरी लंकेश को भी तो सिर्फ लिखने के लिए ही मार दिया था इन हिन्दुत्व वाले आतंकवादियों ने।’

मनदीप पूनिया : स्वतन्त्र पत्रकार, आईआईएमसी से पत्रकारिता की पढ़ाई
ईमेल: mpunia84@gmail.com

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हनुमान की एक बहुमुखी छवि दिलो-दिमाग में बनती जाती है | #MyHanumanChalisa


ऐसे समय में जहां धर्म, धार्मिकता और धार्मिक चेतना का इस्तेमाल हिंसा, घृणा और भेदभाव के लिए किया जा रहा हो तथा ऐसा कर राजनीति की जमीन सींची जा रही हो, धर्म को उसके लोकप्रिय स्वरूप में ज्ञान और संवेदना के साथ प्रस्तुत करना बहुत अहम कार्य है, जिसे पटनायक बखूबी करते आ रहे हैं — प्रकाश के रे


इसे पढ़ते हुए हनुमान की एक बहुमुखी छवि दिलो-दिमाग में बनती जाती है

— प्रकाश के रे

डॉ देवदत्त पटनायक ने हद सरस, सरल और रुचिकर अंदाज में पटनायक ने धार्मिक आख्यानों को लोगों तक पहुंचाया है — प्रकाश के रे 

तीन अनिवार्य तत्वों — आस्था, आध्यात्मिकता और आख्यान — से धर्म साकार होता है. इन्हीं तत्वों से कर्मकांडों और दार्शनिकता को भी आधार मिलता है. इसी कारण से धर्म और उससे संबद्ध विषयों की व्याख्या और उन पर बहसों का सिलसिला अनवरत जारी रहता है. सभी सभ्यताओं में धार्मिक आख्यानों और कथाओं की प्रधानता है. यह भी दिलचस्प है कि उन कथाओं में विविधता और विरोधाभास बहुत हैं. हमारे यहां धार्मिक साहित्य पर टीकाओं की समृद्ध परंपरा रही है. इसी कड़ी में पौराणिक कथाओं के जाने-माने व्याख्याता और टिप्पणीकार डॉ देवदत्त पटनायक ने तुलसीदास की रचना 'हनुमान चालीसा' की टीका लिखी है. वे हिंदू धर्म के साहित्य, कथा-परंपरा और अन्य सभ्यताओं से उसके साम्य या विभेद पर लिखते-बोलते रहे हैं. बेहद सरस, सरल और रुचिकर अंदाज में पटनायक ने धार्मिक आख्यानों को लोगों तक पहुंचाया है.

Prakash K Ray
तुलसीदास की हनुमान चालीसा पर डॉ पटनायक की टीका 'मेरी हनुमान चालीसा' सामुदायिकता और आत्मिक के बीच संचार करती है. — प्रकाश के रे 

ऐसे समय में जहां धर्म, धार्मिकता और धार्मिक चेतना का इस्तेमाल हिंसा, घृणा और भेदभाव के लिए किया जा रहा हो तथा ऐसा कर राजनीति की जमीन सींची जा रही हो, धर्म को उसके लोकप्रिय स्वरूप में ज्ञान और संवेदना के साथ प्रस्तुत करना बहुत अहम कार्य है, जिसे पटनायक बखूबी करते आ रहे हैं. धर्म जहां सामुदायिकता और सामूहिकता का एक आधार बनता है, वहीं वह एक स्तर पर नितांत व्यक्तिगत और आत्मिक भी होता है. तुलसीदास की हनुमान चालीसा पर पटनायक की टीका 'मेरी हनुमान चालीसा' सामुदायिकता और आत्मिक के बीच संचार करती है. सामुदायिकता इसलिए कि यह उत्तर भारत के सबसे लोकप्रिय और पवित्र धार्मिक साहित्य की व्याख्या करते हुए पौराणिक कथाओं और विविध मान्यताओं के समुद्र में छलांग लगाती है तथा व्यक्तिगत इसलिए कि इसे पढ़ते हुए हनुमान की एक बहुमुखी छवि दिलो-दिमाग में बनती जाती है.

अवधी में लिखे 43 पदों की यह रचना देवदत पटनायक की टीका में विस्तार पाती है और कथा-दर-कथा हनुमान का विराट स्वरूप साकार होता जाता है. पटनायक की इस टीका को अंग्रेजी से हिंदी में भरत तिवारी ने अनुदित किया है, जो स्वयं ही साहित्य और कला के रसिक हैं. पटनायक ने किताब में हनुमान के अनेक रेखा-चित्र बनाये हैं, जो पाठ के रस को दोबाला कर देते हैं. रूपा प्रकाशन से छपी यह किताब सुधी पाठकों के लिए अनुपम उपहार है और राजनीति से संक्रमित होती जाती धार्मिकता को उसके आध्यात्मिक आनंदलोक में प्रतिष्ठित करती है. 'मेरी हनुमान चालीसा' भक्ति साहित्य के अध्येताओं के लिए भी उपयोगी है.

मेरी हनुमान चालीसा पढ़ी आपने!!! ये क्लिक कीजिये 


(प्रभात खबर से साभार)
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अतीत में खुलती खिड़कियों से भविष्य की तलाश - दिल ढूँढ़ता है...! @tak_era



समीक्षा: इरा टाक

दिल ढूंढता है – उपन्यास | लेखक - राकेश मढोतरा


सपनों और हकीकत की कश्ती में सवार हर इंसान जीवन के समंदर में इधर से उधर डोलता रहता है, कभी मंजिल के करीब होता है और कभी कोसों दूर.

इसी पाने खोने की जद्दोजहद से जूझता उपन्यास का नायक राहुल , प्रेम की तलाश में अपने आप से दूर जा कर अतीत में गुज़र चुके लम्हों को दोहराता है. उसकी यह तलाश उसके भीतर की कुछ ऐसी उलझी गिरह खोलती है जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी. राहुल की ये यात्रा एक नए पड़ाव का अद्भुत अनुभव बन कर उभरती है.

दिल ढूंढता है – उपन्यास | लेखक - राकेश मढोतरा


उपन्यास में तेईस अध्याय हैं. गद्य के साथ बीच बीच में कविताओं का सुन्दर प्रयोग है...

“सुन्दर है सब इतना कि मन चाँद से पूछता है
तुम जमीं पर आये हो या मैं आस्मां में उड़ रहा हूँ”




पारिवारिक जीवन में परेशनियों और द्वंद के चलते राहुल की पत्नी उसे छोड़ जाती है. वो बेहद अकेला है और अपने दिल के कहने पर दिल्ली से वापस अपने नगर शिमला पहुँचता है. वहां एक होटल में रुकता है और अपने जीवन के सभी असफल प्रेमों को याद करते हुए उन प्रेमिकाओं के साथ दोबारा जीता है. जो बाद में उसका भ्रम निकलता है जिसे वो सच समझ बैठता है ये मतिभ्रम की स्थिति पैदा करता है, और पाठक को चौंकता है. नायक की अधूरी तलाश उसका चैन छीन लेती है और वो खुद को पूरा करने की कोशिश में भटक रहा है. ये कहानी में रोमांच पैदा करते हैं. पाठक, नायक राहुल के साथ लगातार यात्रा करता है, ये नायक एक आम आदमी है जिसमें मानव सुलभ कमजोरियां भी हैं यही बात उसे ख़ास बनाती है. 

राकेश मढोतरा का ये पहला उपन्यास प्रेम को एक नए सिरे से खोजने और समझने की सुन्दर कोशिश है. राकेश कई धारावाहिकों और टेलीफिल्म्स का लेखन निर्देशन कर चुकें हैं , जिनमें “दिशाएं“ व “मुलाकात” बेहद चर्चा में रहीं. आजकल भारतीय सिनेमा के मशहूर प्रोडक्शन हाउस में सीईओ के पद पर कार्यरत हैं . इस उपन्यास को पढ़ते हुए हमें विख्यात सूफी दार्शनिक रूमी के  उस्ताद शम्स तब्रीजी की बात याद आती रहती है –

“ चाहे तुम कहीं भी जाओ, पूरब, पश्चिम , उत्तर या दक्षिण...इसे अपने भीतर की यात्रा की तरह सोचो. जो अपने अन्दर की यात्रा कर लेता है वो दुनिया घूम लेता है”.


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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प्रभात त्रिपाठी: निरन्तर अन्तर्यात्रा की कविता


प्रभात त्रिपाठी: निरन्तर अन्तर्यात्रा की कविता

निरन्तर अन्तर्यात्रा की कविता

— प्रभात त्रिपाठी

समीक्षा
‘जहाँ होना लिखा है तुम्हारा’ अभी मैं इसी पर सोच रहा हूँ। मैं अपने सोचने को ही लिखना चाहता हूँ। रोचक बात यह है कि मैंने इस किताब का ब्लर्ब भी लिखा है, और शायद तब भी मैंने जरूर सोच समझ कर ही अपनी बातें लिखी होंगी। अभी फिर सोच रहा हूँ, तो यह महज पुरानी सोच का औचित्य सिद्ध करने, या उसी में कुछ जोड़ तोड़ करने जैसा मामला नहीं है। मेरे भीतर सोच की प्रक्रिया का स्वत:स्फूर्त स्फुरण सा हो गया है, वह है क्या चीज? इतना तो तय है, कि उसकी कविता के विचार सार की वजह से ही यह नहीं है। दरअसल जब आप पाठ के साथ कोई सर्जनात्मक सम्बन्ध बनाने की सोचते हैं तो यह किसी ‘सार’ के चलते नहीं बल्कि एक तरह की मार्मिक ‘मार’ के चलते संभव होता है कि आप उस पर इस तरह से सोचें, जैसे खुद उस सँरचना में आप भागीदार हैं। आप भाषा में जज्ब समय के सच को, जैसे दुबारा अपनी आंतरिकता का सच बनाने के लिए शब्दों में रची दुनिया से जुड़ने की एक विकलता से भर गए हैं। मुझे लगता है कि पारुल पुखराज की कविता में एक आत्मीय दुख है, जो अनायास ही मेरे अपने होने से, मेरी स्मृतियों से जुड़ गया है। कभी पढ़ा था, कि ‘दुख सबको माँजता है’, पर मैं नहीं जानता, कि वह मुझे माँज रहा है या नहीं पर जोड़ जरूर रहा है, कविता के मन से ही नहीं, अपने मन से भी, जिसके बारे में मुझे ठीक ठीक नहीं पता, वह कितना मेरा है और कितना इस समय का, इस समाज का, इस सभ्यता का और इस संसार का। कहाँ लिखा है होना हमारा? पारुल शिद्दत से, बहुत पवित्र और खुले मन से खोजती हैं, होने के ठिकाने, होने के रूप रंग, न होने की कल्पना तक को जगह देती हैं, अज्ञात की सुध में बेसुध भटकती हैं, पर सारा कारोबार है शब्द के संसार का। बेशक, संसार के शब्द उनसे अलग थलग, उनसे अलहदा नहीं है। बल्कि ये संसारी शब्द ही उन्हें किसी अन्य के लिए मानीखेज बनाते हैं। होने को देखना, सुनना, खोजना, खोना, पाना, होने में आना जाना, होने में इन्तजार, प्यार, घर परिवार, पशु पक्षी, पेड़ पौध, नदी, झील, पहाड़, समुद्र सभी जैसे संगवार की तरह उनके साथ है और वह खुद भी होने का दुःख ही दिखाई देती, उम्मीद के कण दो कण कभी कभार बिखेरती लगती है। पर इस होने के शब्दों में नहीं, ‘दूसरे थोड़े’ दूर के लगते शब्दों में लिखना, जैसे उस विन्यास की गति प्रकृति से थोड़ा अलग हो जाना है और इसलिए लिखने की शुरूआत में ही एक तरह की विमूढ़ता घेर रही है। निश्चय ही एक स्तर पर कविता का पाठ मुझे विस्मय विमूढ़ और विमुग्ध करता रहा है। शब्द अपने मुद्रित विन्यास में, जिस तरह के मितकथन को साधते और व्यंजित करते नजर आते हैं, उसमें गति की आत्मीय मंथरता है, लेकिन गति किसी एक रस्ते पर बढ़ती और निश्चित ठिकाने पर जाकर, रुकने का आदेश देती, या इशारा करती गति नहीं है। सचमुच होने के रूप रंग, स्वाद, स्वर की अननुमेय विविधता से भरी एक ऐसी दुनिया है, जिसे आर्थी अन्तर्वस्तु की तरह सोचो तो किसी सामान्यीकृत अवधारणा की तरह कुछ निष्कर्ष निकाल सकते हो, पर इसके पाठ ने मुझे सबसे पहली बात यही बताई और बिलकुल मेरी अपनी बात की तरह की बात थी वह, कि प्रचलित सामान्यीकरण के मुहावरे के रस्ते इसे मत पढ़ो। यह महज कविता नहीं है, आत्मीय कविता है। घर परिवार संसार के बीच, अपने होने की साधारणता को प्रकृति की प्राणमयता में रचती यह कविता, कुछ और होने के पहले वही है, जो अपने शब्द में है, और बाद में वह सब कुछ, जो व्यंजक गूंज की तरह पाठक के अंतस में रच रच जाती, उसे अर्थ से परे भी मौजूद ‘अनुभव के भव की तलाश के लिए भटकाती है।



‘अनुभव का भव’, नन्दकिशोर आचार्य की एक समीक्षा पुस्तक का नाम है। कविता को वे एक साथ आत्मानुभूति और भाषानुभूति भी मानते हैं। शायद कविता सोचते ही, लगभग हर पाठक, अनुभूति भी सोचता है, पर यह ‘अनुभूति’ थोड़ा विवादास्पद शब्द भी है। शायद इसलिए कि शब्द भी अन्ततः उस व्यक्ति की अनुभूति है, जिसके मन में वह आया। इसका कोई अंतिम निर्णय सा दे सकना, शब्द के अनुभूति होने या न होने का निर्णय कर सकना सम्भव नहीं है। ऐसा कोई भी निर्णय हर हाल में अंतरिम ही होगा। सो जो कुछ मैं कह रहा हूँ, काव्यपाठ की अपनी अनुभूति के बारे में, वह अन्तरिम ही है।

पारुल पुखराज को पढ़ते हुए उसकी हर कविता को पढ़ते हुए मुझे बराबर यह अनुभव होता रहा है, कि उसके यहाँ स्थायी भाव की तरह क्रियाशील है, इस संसार में होने का दुख। शायद अपने अधूरे होने का, और उसी के साथ पूरे होने की कोशिश का परिणाम है, उनका सारा सर्जनात्मक प्रयत्न। और इसी कोशिश में वह खोजती हैं, शब्द विन्यास के विविध रूपों में अपने अन्तर्मन की गति प्रकृति। यह अन्तर्मन निश्चय ही, किसी पूर्व निर्धारित, हर तरह से निश्चित गति प्रकृति का परिचायक नहीं है। मन के बारे में अकाट्य सत्य के सिद्धांत की तरह की कोई बात सोचना शायद असंभव है। और वह शायद मन के बारे में ही सोचती रहती हैं कि कितना घना, कितना विविध, कितना बहुवर्णी संसार है मन के भीतर, पर जिसे स्वर या शब्द में साधने की कोशिश करो, तो सुरों और रंगों के बावजूद बार बार लहकने सा, झलकने सा, दिखता है वह दुख, जो शब्दों से कहीं दूर या परे, किसी जीवन्त उपस्थिति सा मौजूद है। क्या यह दुख स्त्री होने का दुख है? दो टूक उत्तर नहीं है। स्त्री होने के दुख की एक सुदीर्घ परंपरा रही है हिन्दी कविता में। मीरा से महादेवी तक, अपने दुख को, अपने होने के विविध रूपों में पहचानती स्त्रियों ने, अपने को तरह तरह से अभिव्यक्त किया है। लेकिन अपने समय, अपने समाज और अपने घर और अपने मन की हालत को लिखने के लिए, उन्होंने जो रास्ता चुना, वह कविता का रास्ता है। कभी भावाकुलता में भाषा के कगार तोड़ती, फोड़ती, पुकार की एक विलक्षण गति, तो कभी उसी भाषा की अन्तरात्मा में अन्तर्निहित मौन के आकार तक पहुँचने की दिशा खोजती, इस काव्य परंपरा में अपना स्वर, अपने दुख की भाषा मिलाती हुई, इससे बहुत कुछ पाती हुई भाषा के सत को आत्मसात करती हुई, ‘अनुभव’ का भव रचती हैं पारुल। इससे जानने समझने के लिए इनकी कविताओं के साथ, थोड़ा अन्तरंग और आत्मीय सार्थक ढंग से बनाया जा सकता है।

कभी कभी उसे पढ़ते हुए ऐसा भी लगता है, कि उसकी भाव व्यंजना में एक तरह की अनाकारता या कि अमूर्तता है और वहाँ मौजूद सारे शब्द जैसे किसी गूंज, किसी लय में बिला गये हैं। उस गूंज के विस्तार में, हम एक के बाद एक कविता से गुजरते, आखिर तक चले आते हैं, और तब भी सोचते हैं, कि कुछ है अन्दर जिसे सरल दो टूक अर्थ की तरह ही नहीं, बल्कि किसी और तरह या तरहों से देखना, जानना, पाना होगा। इसलिए यह भी लगता है कि रैखिक या मूल या एकमात्र भाव की तरह ’दुख को, काव्यनायिका के बयान और बखान से थोड़ा साफ नजर आते भावसिक्त अभाव को, रचनाकाँक्षा की विकलता में संसार के अनुभवों से नम हुई आँखों से हमें शांत भाव से निहारते बिम्बों को, कुछ इस तरह से भी देखने की कोशिश करने की इच्छा होती है कि खुद अपने आप से पूछे कि इतने सख्त और सहज रूप से व्याकरणसम्मत विन्यास में बँधे ये शब्द, आखिर सचमुच हमसे क्या उतना ही कह रहे हैं जितने अपने सहज सरलार्थ में कहते प्रतीत होते हैं। मेरा अनुभव तो यही रहा है, कि अपने ’होने को शब्दों के ऐसे मुक्त और बड़ी हद तक चुस्त दुरुस्त विन्यास में समो लेने वाली इस कविता में, शब्द उतना ही नहीं कहते, जो उनका अर्थ है, या जो कवि का अपना अनुभव है। वे जैसे तरह तरह की ऐसी जिज्ञासाओं से भी हमें भर देते हैं जो शायद हमारी अपनी सोच और अपनी प्रकृति के कारण हमारे मन में पैदा हो गयी हैं। एक और अर्थ में यह भी लगता है कि उनकी कई कविताएँ पढ़कर भी, यह लगता है कि जैसे ये सारी कविताएँ किसी लम्बे सिलसिले के एकतान, विविधवर्णी भावरूप ही हैं। इनकी आकारगत और शब्दगत समानता तो लगभग उसी तरह प्रगट है, जैसी इनकी प्रकृतिप्राणता। याने एक तरह से प्रकृति और वह भी उसका थोड़ा आत्मीय और नजदीकी रूप शायद काव्य विन्यास का ही नहीं आत्मानुभव का ही एक अपरिहार्य हिस्सा मालूम पड़ता है। सतह पर आँख फिराते हुए ही, यह सहज ही महसूस किया जा सकता है, कि प्राय: सभी कविताओं में ’वाचक ही कर्ताकारक है, हालाँकि थोड़ा गहरे जाओ, तो यह भी लगता है कि मानवेतर प्रकृति की प्राणवन्त उपस्थितियाँ ही जैसे असल वाचक हैं, क्योंकि वही हैं, जो दुख को ही नहीं, उस समूचे होने को धारे हैं, जहाँ कण दो कण सुख और उम्मीद बटोरती हुई कोई स्त्री जीने की कोशिश में लगी हुई है। बेशक यह बात थोड़ी अजीब सी लगती है कि पूरे काव्य संग्रह में काव्यनायिका के अतिरिक्त कोई और मानवीय आवाज तो उपस्थित नहीं ही है, बल्कि उसकी बेआवाज उपस्थिति भी काफी क्षीण है। पर काव्य पाठ के समय यह बात किसी अ-भाव की तरह याद नहीं आती। नदियों, पहाड़ों, तालाबों, झीलों, पेड़ पौधे, जीव जन्तुओं को रचना प्रक्रिया की जीवन्त उपस्थितियों की तरह विन्यास में पिरोती कविताएँ ही संग्रह में ज्यादा हैं। बेशक इन सबको अपने अन्दर महसूस करती एक स्त्री तो वहाँ है ही। शायद दो एक कविताओं में परिवार के माध्यम से मानवीय उपस्थिति को दर्ज करती हुई भी दिखाई पड़ती हैं, वरना यह लगता है, कि दुख कहने की आत्माभिव्यक्ति की विवहलता के बावजूद, वह ऐसी मनःस्थिति में नहीं आ पायी है, कि परिवेश और प्रकृति की इस आत्मीय दुनिया में वह आत्मेतर, मानवीय उपस्थितियों को, ब्यौरों की शैल्पिक युक्ति की तरह ही इस्तेमाल करें, बल्कि, जिस गहरी अन्तर्निष्ठा के साथ वह कविता के स्वपरिभाषित स्वभाव से जुड़ी है, और जिस आदर्श से वह संवाद का सेतु रचना चाह रही है, वहाँ शायद यथार्थ मानव जीवन के गझिन ब्यौरों से, भावना की स्वत:स्फूर्त सक्रियता बाधित भी हो सकती है।

कौन सुनेगा दुःख
तुम्हारा

चिड़िया सुन ले शायद
दुबकी मुंडेर पर

धूल आँगन की
या फूल
अंतिम बसंती

चींटियाँ सुन ले
रेंगती अवसाद पर

चील कोई
एकाकीया चाँद आधी रात का

सुन लेगा

होगा जो भी आकुल
गाने को दुःख अपना
तुम्हारी तरह


पहले ही मैंने दुख और वेदना को संकलन के मूल भाव की तरह पढ़ने की कोशिश की है, हालाँकि यहाँ मूल भाव को देखने के दौरान आने वाले सारे भाव विभाव शामिल हैं, क्योंकि किसी भी अच्छी कविता में हम वही भर नहीं देखते, जो कविता दिखाती है, बल्कि वह भी देखते हैं जो हमारा मन हमें दिखाता है, कविता से संवेदित हो चुका मन।

इसलिए ही मैंने यह उद्धरण चुना है। इसमें दुख कहने की आकुलता मुखर है, याने जाहिर के अर्थ में मुखर है। वैसे वाचाल तो उनकी कविता कहीं भी नहीं है। यहाँ जो उम्मीद जैसी बात है कि चिड़िया या चींटियाँ या एक ’कोई जो कविता की तरह आकुल है, उसकी संभाव्य उपस्थिति में यह एक संकोच भरा बयान है। रोचक यह है कि मुंडेर पर चिड़िया कह कर, चींटियों का संदर्भ सामने लाकर, जैसे वे दुख सुनाने या कहने वाली के होने के जाहिर भौतिक सन्दर्भ को भी, संकेतित करती हुई लगती है। सिर्फ इसी कविता से नहीं, बल्कि इसके ठीक पहले (छुएगा नहीं उदासी) और उसके ठीक बाद की कविता (आँख भरने तक) जैसी कविताएँ पढ़ते हुए भी, इस दुख के पीछे की आवाज को, उसकी मौन मूक व्यथा वेदना में ही नहीं, बल्कि उसकी लैंगिकता और उसकी वर्गीयता में भी हम पहचान सकते हैं। और मेरा खयाल है कि स्त्री जीवन के दुखों को, अगर हम उसकी प्रखर इहलौकिक संदर्भों में पहचानना चाहते हैं, तो हमें इस संग्रह को इस पूर्वग्रह के साथ ही पढ़ना चाहिए कि इस दुख का संदर्भ यह समाज और स्त्री का परिवार, और आज की सभ्यता का ही है। उसी के भीतर से कहीं धीमी सी आवाज के होने के बावजूद, अपने भीतर की रिक्तता भी है।
पढ़ते हुए यह सहज ही अनुभव होता है कि अपने अन्यथा सुविधा संपन्न वर्ग और एक भरे पूरे घर में रहने वाली स्त्री की (कवयित्री की नहीं) इस संवाद विकलता के पीछे का असल कारण, उसके रोजमर्रा के होने के दुख का भी असल कारण, उसका अकेलापन है। वह ‘प्रतीक्षा’ को जैसे रोज के किसी ’दुख की तरह जानती है और न कह पाने, किसी के द्वारा न समझे जाने को दैनिक मन:स्थिति में अन्तर्निहित नियति की तरह। इसका एक कारण तो यह भी है, कि उसका एक रोजमर्रे का अनुभव यह भी रहा है, कि ‘अंधकूप में खाली डोल सी उतरी है उसकी हर पुकार’, लेकिन इसके बावजूद यह भी कि :

बना रहता है
सदा
गरजने पर बादल के
होना उम्मीद का

वर्षा
हो न हो

एक तरफ खाली डोल सी अंधे कुएँ में उतरी पुकार की व्यर्थता और दूसरी तरफ बादल के गरजने से, बारिश के होने न होने के बावजूद, जगी रहने वाली उम्मीद, भाव के इन दो छोरों के बीच विभाव के संसार को जो उसका मन है :

मौन होना
रूसना नहीं होता
जैसे नहीं होता
खूब बतियाने का अर्थ
संवाद

निमिष भर
स्वयें से बाहर निकल देखना
दूर से छाया

खिलाता है परिचय
अपने ही अपरिचित मन से

जाहिर है कि रोजमर्रा के जीवन में सारा कुछ करते रहने के बावजूद, हर आदमी अपने एकान्त में अपने खिलते हुए मन को देखने की कोशिश करता है। भाषिक सर्जनात्मकता में सार्थकता की तलाश करते किसी भी व्यक्ति के लिए शैल्पिक कुशलता से कहीं ज्यादा जरूरी चीज है यह, कि वह अपने अँगरचे मनबसे अनुभवों को ऐसे शब्दों में पाने की कोशिश करे, जो न तो अति वाचाल हों या इतने जड़ कि महज जड़ाऊ लगें। शायद सर्जक की सतर्कता के चलते ही, पारुल ने अपनी कविता का ऐसा रूपाकार रचा है, जहाँ पाठक की कल्पना के लिए पूरा अवकाश है। शब्दों को ही नहीं, वाक्य विन्यास को भी एकार्थी स्तर पर सीमित करने से अलग, वह उन्हें अपनी मुक्ति की इच्छा से ही इन कविताओं में मुक्त रखने की कोशिश करती रही है।

अपने संकोच के बावजूद, बार बार अपने भीतर जाकर अपने को देखती इस कविता के पीछे की स्त्री, अन्य सभी स्त्रियों जैसी लगती हुई भी, अपनी कविता में उनसे अलग दिखती है। शायद अपनी कविता के कारण, शायद महज काव्य बोध नहीं बल्कि अपने जीवन बोध के कारण भी। लेकिन यह जीवनबोध, जिन जीवनानुभवों से जुड़ा है, बल्कि कहें कि जन्मा और विकसा है, उन्हीं अनुभवों के बीचों बीच जीती हुई वह लिखती है :

निषिद्ध
हैं कुछ शब्द
जीवन में
जैसे कुछ
जगहें

अंधी कोई
बावड़ी
जैसे
सिसकी अधूरी
सूना आकाश

व्यक्त हो जिनमें तुम

जहाँ होना लिखा है तुम्हारा

मैंने यह पूरी कविता जस की तस उतार दी है। जैसे संग्रह की कविताओं में भावपोषित और शैल्पिक दोनों ही स्तरों पर एक तरह की एकतानता या तारतम्यता है, वैसे ही किसी एक विशिष्ट कविता के बारे में भी यह बात सही है, कि भाव व्यंजना की सार्थकता को पूरी तरह से आत्मसात करने के लिए एक गहरे स्तर पर स्त्री के दुख को अपने मन में थोड़ा निकट से जानने के लिए भी, उनकी कविता के कोटेबल कोट से काम नहीं चलता। उसे पूरे में पढ़ना जरूरी लगता है। यह बात मैं उनके काव्य के सुघड़ स्थापत्य को रेखांकित करने के लिए नहीं कह रहा हूँ, बल्कि उस मन को समझने का रास्ता ढूँढ़ते हुए कह रहा हूँ, जहाँ सब कुछ साधारण सामान्य होने के बावजूद, बहुत कुछ अलग है। इस कविता के’निषिद्ध शब्द पर मैं अटका था। आगे पढ़ते हुए सोचने लगा था, कि ‘जहाँ व्यक्त है, होना तुम्हारा’ यानि ‘अंधी बावड़ी, सिसकी अधूरी या सूना आकाश, वे जगहें हैं जहाँ एक स्त्री अपने होने रीतेपन को अपने मन के भीतर देख रही है? क्या इन्हीं जगहों के लिए कहा गया था, कि निषिद्ध हैं कुछ जगहें? मध्यवर्गीय स्त्री जीवन के अति सामान्य अनुभवों की अपनी जानकारी के आधार पर मुझे लगता है कि कविता के भीतर की इस स्त्री का दुख समय और समाज और जीवन में अनुभूत बंधनों का, (शायद वर्जनाओं का भी) दुख है। बेशक अपनी पीड़ा की एकाग्रता में, या उसे धारण किए रहने के अपने संयम में, स्त्री उसे निरा सांसारिक दुख नहीं रहने देती, लेकिन जिस शिद्दत से, और जिस मद्धम गूंज की सी आवाज में वह उसे रचती है, उससे लगता है कि वह इसी संसार में होने के दुख को ही लिख रही है और लिखते हुए महसूस कर रही है :

कोई स्वप्न नहीं
नहीं
कोई एक भी

दाँव सा
जिस पर खेलूं
जीवन

चुभे
जो

बंजर नींद
को

‘बंजर नींद और स्वप्नरहित जीवन को, रोजमर्रा के अनुभवों में जानने की वजह से ही, वह सर्जनात्मकता की ऐसी भाषा की तलाश में लगी हुई है, जो उसे, आत्मवेदना अवसाद के अभाव के बिलकुल एकरस या एक जैसे हो गए संसार में रिहाइश की मजबूरियों से भिन्न होने की सार्थकता का अनुभव दे सके। शायद इसीलिए ही भाषा के भीतर आत्म के असल को पहचानने की अपनी कोशिश में अपनी संस्कारी आस्तिकता के बावजूद, वह इसी कविता की ठीक पहले की कविता में यह कहती है कि बाहर एक कमजोर कबूतर की गूटरगूं में ईश्वर पुकारता है, चुगता है उसके पाप, दाना दाना। यही नहीं, इस स्वप्नहीन जीवन में उसे आवाज भी एक बियाबान की तरह लगती है, जहाँ वह गूंजती है, अंतिम सिसकारी सी। आशय यह है कि इस वेदना विजड़ित सुघड़ अभिव्यक्ति के भीतरी संसार की यात्रा में इतनी चौकसी रखनी ही होगी, कि हम इस आवाज के ऐसे हो जाने संदर्भों को अनुभूत व्यथा से जोड़ती हुई यह कविता हमें इस दिशा में अर्थ की खोज की ओर भी उन्मुख करती है। अपनी बात को थोड़ा पुख्ता और थोड़ी स्पष्ट करने के लिए मैं कुछ उदाहरण और लेना चाहूँगा, लेकिन इस बार कविता का उद्धरण नहीं, बल्कि सीधे अपने पाठानुभव के शब्दों से अपनी बात कहने की कोशिश करूंगा।

उनकी एक कविता है. ‘उमसाए चेहरों का वास’, कविता में एक स्त्री, बाहर के दृश्यों को देख रही है, तो सर्वत्र उसे गीले दृश्य दिखाई दे रहे हैं. ‘स्याह बादलों में डूबी साँझ’, ‘काई लगे पहाड़’, ‘फफूंद सने वृक्ष’ और यह सब ऐसा, कि यहाँ ‘चिड़ियों की भीगी चहक’ तक में ‘सभ्यताओं के उमसाए चेहरों का वास’ है, और उन्हें देखना ’सदियों से जब्त रूदन का बेआवाज फूटना है। दरअसल मैं इन्हीं आखिर से गूंजती व्यंजना के आनुभविक दृश्य को देखता सोच रहा था, कि नायिका के मन के दुख को प्रकृति में प्रसारित देखना या दिखाना भर कवयित्री की रचना का मन नहीं है। अगर हम रचना के मन में प्राण रस की तरह मौजूद शब्द विन्यास के प्रयोजन तक जाना चाहें, तो हमें ‘सभ्यता के उमसाए चेहरों’ और ‘सदियों से जब्त रूदन’ के बारे में थोड़ा रुक कर सोचना हेागा। इन शब्दों का प्रयोग अहेतुक नहीं है। या किसी निजी प्रसंग की मनःस्थिति भर में होने जैसा भावुक भी नहीं है, जैसा कि हम ‘चौदह फरवरी’ नामक कविता के बारे में कुछ हद तक कह भी सकते हैं। सामने के प्राकृतिक दृश्यों तक में सभ्यताओं के असर को इस तरह देखना, कि वह सदियों के जब्त रूदन से जुड़कर कथन की आलंकारिकता को वस्तुस्थिति की ऐतिहासिकता से जोड़ने सा लगता है।

यह निरा अतिरंजित कथन नहीं है। आत्मानुभव की लगभग आत्मकथात्मक सी मन:स्थिति से जुड़ी होने के बावजूद, इन कविताओं में स्त्री का दुख और अकेलापन किसी अकेली या एकमात्र स्त्री का नहीं है। बेशक उसे स्त्री मात्र का बताने बनाने के लिए यहाँ कोई जोड़ तोड़ नहीं है, लेकिन वाक संयम और शब्द के मर्म की पहचान से वह अपनी आत्मव्यथा का सहज आत्मविस्तार संभव करती है। और इस तरह यह कविता दुख की आत्मकथात्मक निजता से मुक्त होकर किसी किस्म की हवाई आध्यात्मिकता से परे पाठक के पास ‘स्त्रियों के दुख की एक विशिष्ट रचना की तरह ही आती है।

दरअसल कवयित्री के यहाँ ’कोई’ या ‘अज्ञात जैसे शब्दों का इस्तेमाल एकाधिक बार देखने को मिलता है। इसके अलावा सुगठित मितकथन की सुन्दर साधना के बावजूद, काव्य के विन्यास से ही झलकते संकोच की वजह से, यह बात भी सोची जा सकती है कि कविता को एक तरह से पारलौकिक आध्यामिकता देने की कोशिश की जा रही है। इसीलिए मैं इसी प्रसंग पर बात करते हुए उनकी एक दूसरी कविता याद कर रहा हूँ। ‘उमराती पथरीले कण्ठ से’ आवाज पर ही लिखी, इसी संग्रह की एकाधिक कविताओं की याद दिलाती है। जैसे ‘खोजती हूँ तुम्हें विह्वल बेआवाज’ या ‘याद करने पर / याद करने की आव़ाज नहीं होती’. जैसी कई कविताएँ हैं, जहाँ बतौर शब्द ‘आवाज’ का इस्तेमाल हुआ है, और जैसे वह शब्द ही एक तरह की दैहिक इहलौकिकता की ऊष्मा और पुकार का रूपाकार हो गया है। उस/ती पथरील कण्ठ से’ में तो, जिस वातावरण में आवाज उमग रही है, उसका चित्रण ही एक तरह के प्रति भाव का परिचायक लगता है। संकोच के धागों के खुलने और आवाज की गिरह की ढीली पड़ने जैसी बात से कथन को आगे बढ़ाती, आखिर में वह कहती है, ’मारती, जिलाती भस्म करती, लुटाती पल पल, सर्वस्व, विचरती देह के दालानों में अविराम’. इस तरह के शब्दों से गुजरते हुए कथन के वाचक को हम जिस रूप में देखते हैं, वह रूप निश्चय ही अपनी व्यथा वेदना तथा कामना के साथ, इस विशिष्ट भारतीय परिवेश में रहने, जीने वाली मध्यवर्गीय स्त्री का ही आत्मरूप लगता है। बेशक प्रकृति के साथ गहन तादात्म्य और शब्द के साथ अंतरंग रिश्ते की वजह से, ‘कविता के रूप में वह एक कला निर्माण भी है। पर उसकी कलात्मकता को, किसी अर्थ में उसकी वेदना से अलग कर देखना मुश्किल है। शायद स्वयं उसकी रचना में उसकी अन्तरंग पुकार सी शामिल, मुक्ति की उसकी इच्छा भी थोड़े मुखर रूप में स्वयें को रचती हुई कहती है :

उस अज्ञात की सुध में
वह बावड़ी का अँधेरा भी थी कहीं
दूब की नोक से ढरकती ओस की बूंद भी

आषाढ़ की सूनी रात

वह
कोई
थिरक थी
धुन थी
कबीलाई गीत थी

इस स्थिति के कथन की मुखरता तक पहुँचने के पहले काव्य नायिका ‘नाजुक रगों में बिहाग की सरगम’ और ‘मधुर लयकारी’ सुनती, ‘सुलझाती संकोच के धागे, खुद निढाल हो’ देख चुकी है. अपने तन को ‘नदी की धार पर विशाल बजरे सा’ और यहाँ तक आने के बाद जो महसूस कर रही है, उसकी मुखरता, मुक्ति की उसकी इच्छा को ही शब्द देती प्रतीत होती है। आशय यह, कि अज्ञात की सुध में, जैसे कहीं ज्ञात और अनुभव की स्मृति भी छिपी है, जिसे उसने इच्छा के देवालय में, निर्मय विचरने की प्रार्थना की तरह जाना है। अनुभव में, संसार में होने के अपने अनुभव में पीड़ा को, अचल जड़ होने की स्थिति तक जानने के बावजूद काव्य नायिका के भीतर इच्छाओं का एक सघन और ऐन्द्रिक संसार है, लेकिन उसके पास उसी मात्रा में भाव और भाषा का संयम भी है। शायद यही कारण है, कि उसकी कविता भाव का मार्मिक संसार तो रचती है, पर विभाव के रुक्ष और यथार्थ बोझिल विवरणों से परहेज करती सी दिखाई देती है।

समीक्षित पुस्तक : जहाँ होना लिखा है तुम्हारा (कविता संग्रह) पारुल पुखराज 
सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर
मूल्य: 150 रुपये



-प्रभात त्रिपाठी
रामगुड़ी पारा,
रायगढ़
[छतीसगढ़]

[उक्त आलेख ‘पहल’ के 107 वें अंक से साभार]


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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