समीक्षा: इरा टाक
दिल ढूंढता है – उपन्यास | लेखक - राकेश मढोतरा
सपनों और हकीकत की कश्ती में सवार हर इंसान जीवन के समंदर में इधर से उधर डोलता रहता है, कभी मंजिल के करीब होता है और कभी कोसों दूर.
इसी पाने खोने की जद्दोजहद से जूझता उपन्यास का नायक राहुल , प्रेम की तलाश में अपने आप से दूर जा कर अतीत में गुज़र चुके लम्हों को दोहराता है. उसकी यह तलाश उसके भीतर की कुछ ऐसी उलझी गिरह खोलती है जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी. राहुल की ये यात्रा एक नए पड़ाव का अद्भुत अनुभव बन कर उभरती है.
उपन्यास में तेईस अध्याय हैं. गद्य के साथ बीच बीच में कविताओं का सुन्दर प्रयोग है...
“सुन्दर है सब इतना कि मन चाँद से पूछता है
तुम जमीं पर आये हो या मैं आस्मां में उड़ रहा हूँ”
पारिवारिक जीवन में परेशनियों और द्वंद के चलते राहुल की पत्नी उसे छोड़ जाती है. वो बेहद अकेला है और अपने दिल के कहने पर दिल्ली से वापस अपने नगर शिमला पहुँचता है. वहां एक होटल में रुकता है और अपने जीवन के सभी असफल प्रेमों को याद करते हुए उन प्रेमिकाओं के साथ दोबारा जीता है. जो बाद में उसका भ्रम निकलता है जिसे वो सच समझ बैठता है ये मतिभ्रम की स्थिति पैदा करता है, और पाठक को चौंकता है. नायक की अधूरी तलाश उसका चैन छीन लेती है और वो खुद को पूरा करने की कोशिश में भटक रहा है. ये कहानी में रोमांच पैदा करते हैं. पाठक, नायक राहुल के साथ लगातार यात्रा करता है, ये नायक एक आम आदमी है जिसमें मानव सुलभ कमजोरियां भी हैं यही बात उसे ख़ास बनाती है.
राकेश मढोतरा का ये पहला उपन्यास प्रेम को एक नए सिरे से खोजने और समझने की सुन्दर कोशिश है. राकेश कई धारावाहिकों और टेलीफिल्म्स का लेखन निर्देशन कर चुकें हैं , जिनमें “दिशाएं“ व “मुलाकात” बेहद चर्चा में रहीं. आजकल भारतीय सिनेमा के मशहूर प्रोडक्शन हाउस में सीईओ के पद पर कार्यरत हैं . इस उपन्यास को पढ़ते हुए हमें विख्यात सूफी दार्शनिक रूमी के उस्ताद शम्स तब्रीजी की बात याद आती रहती है –
“ चाहे तुम कहीं भी जाओ, पूरब, पश्चिम , उत्तर या दक्षिण...इसे अपने भीतर की यात्रा की तरह सोचो. जो अपने अन्दर की यात्रा कर लेता है वो दुनिया घूम लेता है”.
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