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Book Review: सौमित्र मोहन का सम्पूर्ण कविता संग्रह 'आधा दिखता वह आदमी'


आधा दिखता वह आदमी

सौमित्र मोहन का सम्पूर्ण कविता संग्रह


Adha Dikhta Vaha Admi: Soumitra Mohan Ki Sampurna Kavitaen
वरिष्ठ आलोचक श्री रवीन्द्र त्रिपाठी, #शब्दांकन_फेसबुक_लाइव 3 जून, शाम 6 बजे, कार्यक्रम 'एक पुस्तक पर पाँच मिनट' वरिष्ठ कवि श्री कवि सौमित्र मोहन का सम्पूर्ण कविता संग्रह "आधा दिखता वह आदमी" - प्रस्तुति भरत एस तिवारी
Posted by शब्दांकन Shabdankan on Wednesday, 3 June 2020


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Book Review: मंगलेश डबराल की किताब 'एक सड़क एक जगह'


एक सड़क एक जगह

मंगलेश डबराल की किताब


EK SADAK EK JAGAH by MANGLESH DABRAL
वरिष्ठ आलोचक श्री रवीन्द्र त्रिपाठी, #शब्दांकन_फेसबुक_लाइव 2 जून, शाम 6 बजे, कार्यक्रम 'एक पुस्तक पर पाँच मिनट' में वरिष्ठ कवि श्री मंगलेश डबराल की किताब "एक सड़क एक जगह"- प्रस्तुति भरत एस तिवारी
Posted by शब्दांकन Shabdankan on Tuesday, 2 June 2020
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Book Review: अरुण कुमार असफल की पुस्तक '78 डिग्री' (महा अभियान की महागाथा)


'78 डिग्री' (महा अभियान की महागाथा) 

अरुण कुमार असफल


अरुण कुमार असफल: 78 डिग्री (महा अभियान की महागाथा)
वरिष्ठ आलोचक श्री रवीन्द्र त्रिपाठी 1 जून, शाम 6 बजे, #शब्दांकन_फेसबुक_लाइव कार्यक्रम 'एक पुस्तक पर पाँच मिनट' में अरुण कुमार असफल की किताब 78 डिग्री (महा अभियान की महागाथा). प्रस्तुति भरत एस तिवारी
Posted by शब्दांकन Shabdankan on Monday, 1 June 2020
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Book Review: गली क़ासिम जान | ज़िन्दगीनामा मिर्ज़ा ग़ालिब — विनोद भारद्वाज (जयपुर)


गली क़ासिम जान | ज़िन्दगीनामा मिर्ज़ा ग़ालिब

— विनोद भारद्वाज (जयपुर)


गली क़ासिम जान | ज़िन्दगीनामा मिर्ज़ा ग़ालिब
वरिष्ठ आलोचक श्री रवीन्द्र त्रिपाठी 31 मई की शाम 6 बजे, #शब्दांकन_फेसबुक_लाइव कार्यक्रम 'एक पुस्तक पर पाँच मिनट' में लेखक एवं पत्रकार श्री विनोद भारद्वाज की किताब 'गली क़ासिम जान', ज़िन्दगीनामा मिर्ज़ा ग़ालिब पर. प्रस्तुति भरत एस तिवारी
Posted by शब्दांकन Shabdankan on Sunday, 31 May 2020
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Book Review: योगेन्द्र आहूजा की किताब लफ्फ़ाज़ | शब्दांकन फेसबुक लाइव


रवीन्द्र त्रिपाठी: 'एक पुस्तक पर 5 मिनट'

लफ्फ़ाज़ और अन्य कहानियाँ

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लफ्फ़ाज़ और अन्य कहानियाँ
आलोचक श्री रवीन्द्र त्रिपाठी 30 मई की शाम 6 बजे, #शब्दांकन_फेसबुक_लाइव कार्यक्रम 'एक पुस्तक पर पाँच मिनट' में #योगेन्द्र_आहूजा की किताब #लफ्फ़ाज़ और अन्य #कहानियाँ पर . प्रस्तुति भरत एस तिवारी
Posted by शब्दांकन Shabdankan on Saturday, 30 May 2020

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Book Review: गाँधी, दक्षिण अफ्रीका में भारतीय देशभक्त | शब्दांकन फेसबुक लाइव


रवीन्द्र त्रिपाठी: 'एक पुस्तक पर 5 मिनट'

गाँधी, दक्षिण अफ्रीका में भारतीय देशभक्त


गाँधी, दक्षिण अफ्रीका में भारतीय देशभक्त
आलोचक श्री रवीन्द्र त्रिपाठी 29 मई की शाम 6 बजे, #शब्दांकन_फेसबुक_लाइव कार्यक्रम 'एक पुस्तक पर पाँच मिनट' में जोसफ जे डोक की नंदकिशोर आचार्य द्वारा अनुदित किताब पर. प्रस्तुति भरत एस तिवारी
Posted by शब्दांकन Shabdankan on Friday, 29 May 2020

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Book Review: गाँधी की मृत्यु - गिरधर राठी / डॉ. मारगित कौवेश


गाँधी की मृत्यु

गिरधर राठी / डॉ. मारगित कौवेश


गाँधी की मृत्यु | एक पुस्तक पर 5 मिनट
महात्मा गाँधी की मृत्यु पर लिखे गये हंगेरियन नाटक की सीधी हिन्दी में अनूदित पुस्तक पर आज, 28 मई शाम 6 बजे के #शब्दांकन_फेसबुक_लाइव के कार्यक्रम 'एक पुस्तक पर 5 मिनट' में आलोचक रवीन्द्र त्रिपाठी. प्रस्तुति भरत एस तिवारी.
Posted by शब्दांकन Shabdankan on Thursday, 28 May 2020
‘‘महात्मा गाँधी अपने समय में ही नहीं हमारे समय में भी एक प्रतिरोधक उपस्थिति हैं : उनका बीसवीं शताब्दी के विचार, राजनीति और सामाजिक कर्म पर गहरा प्रभाव पड़ा। इन दिनों उनका बहुत बारीक पर अचूक अवमूल्यन करने का एक अभियान ही चला हुआ है। इस सन्दर्भ में उनकी मृत्यु पर लिखा गया यह हंगेरियन नाटक, जो सीधे हिन्दी में अनूदित किये जाने का एक बिरला उदाहरण भी है, प्रस्तुत करते हुए हमें उम्मीद है कि गाँधी-विचार और कर्म को ताज़ी नज़र से देखने के प्रयत्न में सहायक होगा।’’  — अशोक वाजपेयी


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कुलदीप कुमार की किताब 'बिन जिया जीवन' | शब्दांकन फेसबुक लाइव


रवीन्द्र त्रिपाठी: 'एक पुस्तक पर 5 मिनट'

कुलदीप कुमार की किताब 'बिन जिया जीवन'


रवीन्द्र त्रिपाठी: 'एक पुस्तक पर 5 मिनट' | कुलदीप कुमार की किताब 'बिन जिया जीवन'
आज, 27 मई शाम 6बजे के #शब्दांकन_फेसबुक_लाइव पर 'एक पुस्तक पर 5 मिनट' में आलोचक रवीन्द्र त्रिपाठी कुलदीप कुमार की पुस्तक 'बिन जिया जीवन' पर बोलेंगे. प्रस्तुति भरत एस तिवारी.
Posted by शब्दांकन Shabdankan on Wednesday, 27 May 2020
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अशोक आत्रेय की कहानियाँ | रवीन्द्र त्रिपाठी के साथ एक पुस्तक पर 5 मिनट. भरत एस तिवारी की प्रस्तुति


शब्दांकन फेसबुक लाइव: 

अशोक आत्रेय की कहानियाँ


#शब्दांकन_फेसबुक_लाइव: रवीन्द्र त्रिपाठी के साथ एक पुस्तक पर 5 मिनट अशोक आत्रेय की कहानियाँ
#शब्दांकन_फेसबुक_लाइव: रवीन्द्र त्रिपाठी के साथ एक पुस्तक पर 5 मिनट भरत एस तिवारी की प्रस्तुति रोज़ शाम 6 बजे में आज अशोक आत्रेय की कहानियाँ, आसमान के बिना '
Posted by शब्दांकन Shabdankan on Tuesday, 26 May 2020
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बेगम समरू का सच | रवीन्द्र त्रिपाठी के साथ एक पुस्तक पर 5 मिनट. भरत एस तिवारी की प्रस्तुति


शब्दांकन फेसबुक लाइव: 

बेगम समरू का सच


#शब्दांकन_फेसबुक_लाइव: रवीन्द्र त्रिपाठी के साथ एक पुस्तक पर 5 मिनट | बेगम समरू का सच
रवीन्द्र त्रिपाठी के साथ एक पुस्तक पर 5 मिनट, राजगोपाल सिंह वर्मा  . भरत एस तिवारी की प्रस्तुति रोज़ शाम 6 बजे #शब्दांकन_फेसबुक_लाइव.
Posted by शब्दांकन Shabdankan on Monday, 25 May 2020

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Book Review: योगिता यादव का उपन्यास — 'ख्वाहिशों के खांडववन' | उर्मिला शुक्ल




योगिता यादव के सामयिक प्रकाशन से छपे उपन्यास 'ख्वाहिशों के खांडववन' की समीक्षा करते हुए उर्मिला शुक्ल लिखती हैं:
योगिता यादव की कहानियाँ स्त्री प्रधान होते हुए भी उस तरह की कहानियाँ नहीं हैं, जो स्त्री की वकालत करते–करते उसे देह में तब्दील कर देती है। योगिता यादव की स्त्रियाँ देह विमर्श करने वाली स्त्रियाँ नहीं हैं। वे आम स्त्रियाँ हैं, जो विमर्श से परे अपने जीवन की जद्दोजहद से उबरने में संलग्न हैं। 

आगे पढ़िए पूरी समीक्षा और फिर उपन्यास! ... भरत एस तिवारी/शब्दांकन संपादक

शब्दांकन फेसबुक लाइव | रवीन्द्र त्रिपाठी के साथ 'एक पुस्तक पर 5 मिनट' | तू प्यार का सागर है


शब्दांकन फेसबुक लाइव: 

रवीन्द्र त्रिपाठी के साथ एक पुस्तक पर 5 मिनट

गीतकार शैलेन्द्र पर इंद्रजीत सिंह की एक पुस्तक "तू प्यार का सागर है"
#शब्दांकन_फेसबुक_लाइव: रवीन्द्र त्रिपाठी के साथ एक पुस्तक पर 5 मिनट
रवीन्द्र त्रिपाठी के साथ एक पुस्तक पर 5 मिनट. भरत एस तिवारी की प्रस्तुति रोज़ शाम 6 बजे #शब्दांकन_फेसबुक_लाइव.
Posted by शब्दांकन Shabdankan on Sunday, 24 May 2020
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Book Review: अनामिका का उपन्यास — 'आईनासाज़': संबंधों के नए साज और सुर


अनामिका के नए उपन्यास आईनासाज़ की इस समीक्षा में सुनीता गुप्ता लिखती हैं कि "अनामिका के यहां प्रतिरोध की वह मुखर प्रतिध्वनि नहीं मिलती जो स्त्री विमर्श की पहचान है। स्त्री के साथ वे उस पुरुष मन को भी साधती हैं जिसे पितृसत्ता के बारीक रेशों ने बुना है। इसलिए वे उससे नफरत नहीं कर पातीं - करना भी नहीं चाहतीं। अपने अगाध मातृ भाव से वे उसे प्रश्रय देती हैं। "

प्रस्तुत समीक्षा वह है जिसे पढ़ने के बाद यदि आप अनामिका जी के आईनासाज़ को पढ़ेंगे तो समीक्षक से सहमत हुए बिना नहीं रह पाएंगे ... सादर भरत तिवारी/ शब्दांकन संपादक

बीते ज़माने की 'नदी' यमुना की कहानी Hindi Review: River of Love in an Age of Pollution : Nalin Chauhan


यमुना की कहानी को उसके इतिहास के साथ चलते हुए, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कहने वाली यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस से प्रकाशित डेविड एल हैबरमैन (David L. Haberman) की पुस्तक "रिवर ऑफ़ लव इन एन ऐज ऑफ़ पलूशन" के विषय में नलिन चौहान का रोचक लेख.

मार्क्सवाद का अर्धसत्य के बहाने एकालाप — पंकज शर्मा


मार्क्सवाद का अर्धसत्य के बहाने एकालाप

— पंकज शर्मा

अनंत ने पूरी दुनियाभर के जनसंघर्षों को एक नया आयाम प्रदान करने वाले महानायक के निजी जीवन संदर्भों के हवाले से उन्हें खलनायक घोषित कर दिया और भारतीय सामाजिक परंपरा के परिप्रेक्ष्य में उनका मूल्यांकन करने के फिराक में गच्चा खा बैठे...

'मार्क्सवाद का अर्धसत्य के बहाने एकालाप' में, दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापक पंकज शर्मा जो विभिन्न पत्र्-पत्रिकाओं में लेखन के साथ ही कई वर्षों तक ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका के संपादन से जुड़े रहे हैं, हाल ही  में प्रकाशित लेखक-पत्रकार अनंत विजय की चर्चित पुस्तक 'मार्क्सवाद का अर्धासत्य' का आलोचनात्मक पाठ लिखते हैं। 

साहित्यिक पत्रिका 'पाखी' के दिसम्बर २०१९ अंक में प्रकाशित मित्र अनंत विजय की किताब की इस आलोचना को यहाँ प्रकाशन हेतु भेजने का मित्र पंकज शर्मा को शब्दांकन पत्रिका के सुधि पाठकों की तरफ से आभार.

भरत एस तिवारी

पंकज शर्मा

क्या शांतिपूर्ण तरीके से कोई विरोध नहीं जताया जा सकता है? क्या अहिंसक तरीके से विरोध करना फासीवाद है? (मार्क्सवाद का अर्धसत्य, पृ-121, अनंत विजय)


आधुनिकता की जमीन पर मनुष्य को ज्यादा समर्थवान बनाने के लिए अनगिनत विचारधाराओं और जीवन दर्शनों का अनुसंधान हुआ। उन्हीं विचारधाराओं और दर्शनों के जोर पर मनुष्यों ने मनुष्यता को बचाने का बीड़ा उठाया। समय-समय पर इस प्रयोजन में अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा करने वाले जीवन-दर्शन का क्षरण भी होता रहा। अनेक विचारधारा वक्त के साथ-साथ फीके पड़े, नतमस्तक हुए। पश्चिम में डार्विन, मार्क्स और फ्रायड ऐसे तीन विचारक हुए जिन्होंने अपने सिद्धांतों के बूते समूचे संसार को उद्वेलित किया। डार्विन ने प्रकृति के वैशिष्ट्य को रेखांकित किया तो दूसरी ओर मार्क्स ने ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ के जरिये दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या करने के बजाय उसे बदलने का प्रस्ताव रखा। मार्क्स के विचारों में शोषित-उत्पीड़ित समाज को एक दिव्य रौशनी की झलक दिखी। एक नये सिरे से फिर दुनिया को देखने-समझने की कवायद शुरू हो गई। तीसरी तरफ फ्रायड ने मानव मन को प्रयोगशाला बनाया और अवचेतन मन के अनगिनत परतों को समझने की विधिवत शुरुआत कर दी।

लेकिन ‘विचारधारा के अंत’ जैसी घोषणाओं ने स्थापित विचारधाराओं के रास्ते में रोड़ा अटका दिया। कल तक जो मार्क्सवाद शोषक-शोषित रिश्तों की धारदार व्याख्या कर अपनी अहम भूमिका साबित करने में सफल हो चुका था, अब उसमें भी तमाम तरह की समस्याएं दिखने लगी। मार्क्सवादी विचारक विचलन के शिकार होने लगे। भारतीय मार्क्सवादियों ने पुराने ढर्रे को कायम रखा और धीरे-धीरे अपनी उर्वरा जमीन गंवाते चले गए। भारतीय जनता की नब्ज पकड़ने की बात तो दूर, यहां की परंपरा और संस्कृति के अनुरूप न खुद को ढाल सके, न वक्त की जरूरतों के हिसाब से खुद को अपडेट कर सके। फिर भी मार्क्सवाद का ताप कम न हो सका। आज तक इस विचारधारा की पुनर्व्याख्या के प्रति आकर्षण कमोबेश कायम है। हालांकि इस कड़ी में अनंत विजय की चर्चित किताब ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ को नहीं देखा जाना चाहिए जो हाल में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।

संदर्भित पुस्तक के बारे में सबसे पहले यह बात बता देना बहुत आवश्यक है कि इस पुस्तक का शीर्षक ही भ्रामक है। दरअसल, इस किताब का मार्क्सवाद के सिद्धांतों से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है। इसकी पुष्टि लेखक स्वयं अपनी पुस्तक की भूमिका के 17वें पृष्ठ पर दर्ज करते हैं: ‘‘अपनी इस किताब में मार्क्सवाद को एक सिद्धांत के तौर पर परखने की बिल्कुल कोशिश नहीं है, बल्कि इस वाद के बौद्धिक अनुयायियों और भक्तों के क्रिया-कलापों को सामने रखने का प्रयत्न किया है।’’ निःसंदेह लेखक की ईमानदारी भरी आत्मस्वीकृति का कायल हुआ जाना चाहिए वरना हिंदी में ऐसी पुस्तकों की भरमार है जिसमें पुस्तक के शीर्षक से समूचे पुस्तक का नाता महज ‘एक पंक्ति’ (शीर्षक) का ही रहता है।

अनंत विजय ने मार्क्सवाद से इत्तेफाक रखने वाले जिन गिने-चुने प्रभावशाली अनुयायियों को कठघरे में खड़ा किया है, उनमें सबसे चर्चित नाम फिदेल कास्त्रो और माओ का है। फिदेल के विषय में लेखक की मान्यता हैः भारत में हमारे वामपंथी बौद्धिकों ने माओ से लेकर कास्त्रे तक का मूल्यांकन भक्ति भाव के साथ किया, लिहाजा उन्हें उनके व्यक्तित्व में कोई खामी, उनके कार्यों में कोई कमी, उनके चरित्र में कोई खोट आदि दिखाई ही नहीं दिया। (पृ-10) संदर्भित पुस्तक के लेखक की शिकायत वाजिब है। किसी व्यक्ति का सही मूल्यांकन उनके चरित्र और कार्यों के आधार पर ही किया जाना चाहिये। लेकिन प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि किसी व्यक्ति के गहरे निजी प्रसंगों का हवाला देकर सही मूल्यांकन मुमकिन है? लेखक ने कास्त्रे के रहस्यमयी चरित्र से पर्दा उठाते हुए लिखा है: फिदेल कास्त्रे शादीशुदा होते हुए एक शादीशुदा महिला से न केवल संबंध बनाये बल्कि उनके बच्चे के पिता भी बने। (पृ-14) इसी तथ्य के आधार पर अनंत ने मार्क्सवाद जैसे ठोस वैज्ञानिक सिद्धांत को अविभाजित रूस में प्रचलित ‘एक गिलास पानी’ की धारणा के ‘निकृष्टतम’ रूप से नत्थी करते हुए अपनी पुस्तक में दावा किया है कि ‘‘फिदेल का समग्र मूल्यांकन अब तक नहीं हो सका है। इस तरफ भी बौद्धिकों का ध्यान जाना चाहिए।’’ क्यों नहीं ध्यान जाना चाहिए? यदि कोई नई बात फिदेल के बुनियादी व्यक्तित्व को नये सिरे से गढ़ने वाली हो तो जरूर ध्यान जाना चाहिए।

लेखक मार्क्सवाद के अर्धसत्य के बहाने जबरन कास्त्रे के विवाहेतर संबंध के आधार पर उनके महान अवदान को नकारने की जिद ठान बैठते हैं। ताज्जुब होता है कि फिदेल के संबंध में वे जिस ‘ज्ञान’ को ‘छायावादी’ अंदाज में बयां कर रहे हैं, आज पूरा ‘विकिपीडिया’ और ‘गूगल’ इस तरह के ‘ज्ञान’ के खजाने से अटा पड़ा है। यह बात किसी को भी हतप्रभ करने के लिए पर्याप्त है कि इतने तेजतर्रार पत्रकार-लेखक अनंत विजय के लिए फिदेल के निजी जीवन प्रसंग की घटना बड़ी गहरी बात हो जाती है और अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोध में क्यूबा जैसे एक अदने से देश को मजबूत चट्टान की तरह खड़ा कर देना मामूली बात। यह कहना मुनासिब होगा कि लेखक ने निहायत ही सतही, गैरजरुरी और सुनी-सुनाई धारणाओं के आधार पर कास्त्रे जैसे प्रभावी शख्सियत की व्याख्या में अपना बेहद कीमती समय जाया कर दिया।

कास्त्रे के जीवन से संबंधित किसी तरह की धारणाओं को निर्मित करने के दौरान लेखक ने क्यूबाई संस्कृति, परंपरा और मूल्यों के विषय में  थोड़ी-बहुत जानकारी जुटाने की जहमत उठा लिया होता तो वे फिदेल के नायकत्व को लेकर इतने सरलीकृत निष्कर्ष की ओर रुख न करते।

अनंत ने पूरी दुनियाभर के जनसंघर्षों को एक नया आयाम प्रदान करने वाले महानायक के निजी जीवन संदर्भों के हवाले से उन्हें खलनायक घोषित कर दिया और भारतीय सामाजिक परंपरा के परिप्रेक्ष्य में उनका मूल्यांकन करने के फिराक में गच्चा खा बैठे। अब तो देश के सुप्रीम कोर्ट तक ने भारत में विवाहेतर संबंध के विरोध को दकियानूसी करार देते हुए इस आदिम प्रचलन को गंभीर अपराध की श्रेणी से अलगा दिया है। फिर केवल मार्क्सवाद के अर्धसत्य के नाम पर लेखक इस तरह मनमानी निष्कर्षों की ओर मुखातिब हो जाय तब पाठक इसे उनकी नासमझी मान बैठे, क्या आश्चर्य!

हां, जहां तक फिदेल के तानाशाही मिजाज के संदर्भ में लेखक ने जो विचार व्यक्त किए हैं, उसे थोड़ा अलग से समझ लेने की जरूरत है। दरअसल कास्त्रे दमनकारी राज्य के प्रति हिंसक कार्रवाई के सख्त पैरोकार थे। ठीक उसी तरह से जिस तरह से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह जैसे महान क्रांतिकारी रहे थे। ऐसे में अमेरिकी साम्राज्य के हितैषियों ने उन्हें तानाशाह कह कर प्रचारित करना शुरू कर दिया। एक तबके ने उनकी छवि को धूल-धुसरित करने का स्वांग भी खूब रचा। लेकिन ‘एल काबाजो’ अपने विरोधियों को हमेशा की तरह धत्ता साबित करते रहे और जीते-जी किंवदंती बन कर उभरे।

फिदेल के संदर्भ में ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ के लेखक ने रियनाल्डो सांचेज की पुस्तक ‘द डबल लाइफ ऑफ फिदेल कास्त्रे’ के हवाले से एक और नई जानकारी प्रस्तुत की हैः कास्त्रे की हवाना में बीस आलीशान कोठियां हैं, वो एक कैरेबियन द्वीप के भी मालिक हैं। इस तरह के खुलासों से साफ है कि मार्क्सवाद की आड़ में उनके रहनुमा रहस्यमयी सेक्सुअल लाइफ से लेकर तमाम तरह की भौतिकवादी प्रवृत्तियों को अपनाते रहे हैं और विचारधारा की आड़ में व्यवस्था बदलने का सपना दिखाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। (पृ-14) फिदेल के जीवन से थोड़ा-बहुत इत्तेफाक रखने वाले लोग खूब जानते हैं कि कास्त्रे ताऊम्र निजी और सार्वजनिक जीवन में  बेशुमार विवादों से घिरे रहे। उन पर अकूत संपत्ति के मालिक होने का बेबुनियाद इलजाम लगाया गया। बगैर किसी ठोस सबूत के ‘फोर्ब्स’ पत्रिका ने उन्हें दुनिया के अमीरों की पंक्ति में खड़ा कर दिया। उस समय ‘फोर्ब्स’ पर मुकदमा करते हुए ‘योद्धा फकीर’ ने कहा था कि विदेशी बैकों में एक डॉलर भी जमा वह साबित कर दे तो वे तत्काल अपने पद से इस्तीफा दे देंगे। बहरहाल, फिदेल कास्त्रे जैसे महानायक का मूल्यांकन उनके निजी जीवन-प्रसंगों के आधार पर किया जाना कितना सार्थक है, यह ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ के सुधी पाठक अपने विवेक से समझें।

इस पुस्तक में कुल नौ विशालकाय लेख हैं। प्रायः सभी लेख के शीर्षक बेहद आकर्षक, अनूठे और चौंकाने वाले हैं। मसलन, ‘बुद्धिजीवी, वामपंथ और इस्लाम’, ‘साहित्य जलसा, विवाद और बौद्धिकों की बेचैनी’, ‘जब रचनाएं भी मजहबी हो गईं है’, ‘विचारधारा की लड़ाई या यथार्थ की अनदेखी’, ‘विचारधारा की जकड़न में आलोचना’, ‘साहित्यिक बाजार, मेला और लेखकीय छप्र’, ‘प्रगतिशीलता की ओट में राजनीतिक आखेट’ और ‘बौद्धिक छलात्कार के मुजरिम।’ इन नौ लेखों में सात लेख ऐसे हैं जो भिन्न-भिन्न उप-खंडों में विभाजित हैं। इन लेखों को पढ़ते समय सहज आभास हो जाता है कि लेखक ने किसी मुकम्मल तैयारी के साथ पुस्तक में शामिल लेखों को नहीं लिखा है वरन वक्त की जरूरतों, मसलों और रुचियों के लिहाज से छोटी-छोटी अखबारी टिप्पणियों को किताब में विषयानुकूल जबरन जोड़ने का प्रयास किया है। कई मर्तबा एक लेख जितने उप-खंड में विभक्त है, उसके अंतर्वस्तु का मूल विषय से कोई सीधे-सीधे तालमेल नहीं बैठ पाता। दरअसल, अनंत विजय ने अखबारी कतरनों के पुलिंदे को सतही तौर पर पुस्तक के आकार में पेश कर दिया है। इस वजह से प्रायः सभी लेख आकृति में (पृष्ठों पर) विशालकाय दिखते जरूर हैं लेकिन पढ़ने के उपरांत अधूरेपन का खटका लगा रह जाता है।

पुस्तक का पहला लेख हैः ‘बुद्धिजीवी, वामपंथ और इस्लाम।’ यह लेख एक नए उप-शीर्षक से ही शुरू होता है ‘बरकती, ममता और फतवा।’ इसी तरह आगे ‘जायरा वसीम पर बौद्धिक पाखंड’, फिर ‘मुजीब की प्रतिमा पर मजहब का साया’, ‘रुश्दियों पर खामोशी क्यों’, ‘अपने अभिव्यक्ति की आजादी का अर्धसत्य’, ‘राजनीति के अनुगामी’, ‘अफवाह से बढ़ती कट्टरता’, ‘बुद्धिजीवियों की चुभती चुप्पी’, ‘कट्टरता को सींचती प्रगतिशीलता’, ‘सेलेक्टिव सेक्युलरिज्म के खतरे’, ‘अभिव्यक्ति की आजादी की राजनीति’ और ‘विनायक पर बवाल क्यों?’ जैसे उप-शीर्षकों को एक ही लेख के साथ नत्थी किया गया है। अलग-अलग संदर्भों और मुद्दों को लेकर लिखे गए छोटी-छोटी टिप्पणियों को एक लेख के शीर्षक में पिरोने के लोभ से यदि लेखक बच पाते तो वे अपने विचारों के बिखराव से बचते और घनघोर पुनरावृत्ति के दोष से भी मुक्त होते।

पुस्तक में खास तौर से वही मुद्दे उठाये गए हैं जिनपर बीते वर्षों के दौरान देश के बुद्धिजीवी वर्ग ने मोदी सरकार को घेरने का प्रयास किया या इस सरकार की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े किये। लेखक ने उन्हीं बुद्धिजीवियों को वामपंथी मानकर उनपर कड़ा प्रहार किया है। मार्क्सवाद के अर्धसत्य के बहाने लेखक अशोक वाजपेयी जैसे लेखकों को कोसते हैं जबकि जानने वाले यह बात बखूबी जानते होंगे कि अशोक वाजपेयी का मार्क्सवाद के साथ सौतेला रिश्ता भी नहीं रहा है।

अभिव्यक्ति की आजादी और उस पर मंडराते संकट को लेखक बेबुनियाद करार देते हैं। हालांकि अपने इसी लेख के एक प्रसंग में उन्होंने लिखा हैः भारत में लेखकों और साहित्यकारों द्वारा सत्ता और फैसलों के विरोध की एक लंबी परंपरा रही है। लेकिन हाल के दिनों में उसका क्षरण रेखांकित किया जा सकता है। (पृ-41) संदर्भित पुस्तक के लेखक को यदा-कदा ‘लेखक और बुद्धिजीवी समुदाय की खामोशी’ अखरती भी है लेकिन उनकी वास्तविक मंशा का भान इसी लेख के अंतिम पैरा की कुछ पंक्तियों में हो जाता है, देखिये: बुद्धिजीवियों को अगर देश के संविधान और कानून में आस्था है तो उनको धैर्य रखना चाहिए और न्यायिक प्रक्रिया पर दबाव बनाने के लिए किये जा रहे धरना प्रदर्शन की प्रवृत्ति को तत्काल रोका जाना चाहिए। (पृ-55) फिर इसी मुद्दे पर बात करते हुए लेखक एक प्रसंग में खुद सवाल खड़ा करते हैं: क्या शांतिपूर्ण तरीके से कोई विरोध नहीं जताया जा सकता है? क्या अहिंसक तरीके से विरोध करना फासीवाद है?   एक मुद्दे पर एक साथ इतने अंतर्विरोधी मान्यताओं को समझ पाना किसी भी पाठक के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा।

अनंत विजय जेएनयू में कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा लगाए गए राष्ट्र विरोधी नारेबाजी से बेहद खफा हैं। निश्चित ही उस घटना की जितनी निंदा की जाए कम है। लेकिन हमें यह भी देख लेना जरूरी होगा कि इस नारेबाजी के पीछे असलियत क्या है? कही ऐसा तो नहीं कि हर कीमत पर अस्वीकार इस नारेबाजी की आड़ में कोई बड़ा खेल रचा गया हो। देश के इतने प्रतिष्ठित संस्थान को बदनाम करने की चाल को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये। दुर्भाग्य से इस पुस्तक के लेखक भी भेड़चाल में शरीक हो जाते हैं। जेएनयू के नारेबाजी प्रकरण पर अनंत एक सुलझे पत्रकार या विचारक की भूमिका में नजर नहीं आते हैं बल्कि सरपंच की तरह फैसला देने की मुद्रा में अपना मत इस तरह से व्यक्त करते हैं: देशद्रोहियों को देशद्रोही ही कहना होगा। भारत की बर्बादी के नारों के समर्थन में किसी तरह की बात करने वालों को भी देशद्रोहियों की श्रेणी में रखना ही होगा। वो लाख चीखें लेकिन उनके नापाक मंसूबों को बेनकाब करने का वक्त आ गया है। (पृ-27) क्या सचमुच यही ‘सही वक्त’ है, सभी देशद्रोहियों के नापाक मंसूबों पर शिकंजा कसने के लिए! लेखक ने यह ‘सही वक्त’ ज्योतिषानुसार निकाला है? यदि जेएनयू प्रकरण में कन्हैया कुमार जैसे लोग वास्तव में दोषी हैं तो उसे खुले घूमने का अधिकार देना ज्यादा खतरनाक है। लेखक को चाहिए था कि इस विवादित मसले पर वर्तमान सरकार को घेरते और उनसे सवाल पूछते कि इतनी जबरिया राष्ट्रवादी सरकार होने के बावजूद कोई देशद्रोही देश के खिलाफ़ नारेबाजी कर कैसी आजादी की मांग कर रहा है? तुर्रा यह कि देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नापाक मंसूबा पाले ऐसे देशद्रोही मोदी सरकार को पानी पी-पीकर कैसे ललकार रहा है? संदर्भित पुस्तक के लेखक की समझ सिर्फ जेएनयू के वामपंथियों तक क्यों सिमटकर रह गई है, समझना बहुत कठिन है। इस पुस्तक के पाठक देखेंगे कि जो कोई वर्तमान केंद्र सरकार के विरोध करने की हिमाकत करता है, संयोग से ‘मार्क्सवाद के अर्धसत्य’ के लेखक के सीधे निशाने पर आ जाता है।

पुस्तक का दूसरा अध्याय (लेख) है ‘साहित्यिक जलसा, विवाद और बौद्धिकों की बेचैनी।’ संयोग से यह अध्याय भी एक उप-शीर्षक से शुरू होता है: ‘वैचारिक समानता की ओर बढ़ते कदम।’ अपने इस लेख में लेखक जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के बहाने राष्ट्रीय स्वयं संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य का पक्ष रखते हैं। लेखक का मानना है: बगैर संघ के विचारों को सुने, बगैर उनसे संवाद किए उस विचारधारा को खारिज किया जाता रहा। (पृ-58) लेकिन लेखक अपनी तरफ से संघ की विचारधारा के किसी खास बिंदु को रेखांकित करने का प्रयास नहीं करते हैं। कम-से-कम उन्हें मोटे तौर पर ही सही, संघ की बुनियादी अच्छी बातों को स्पष्ट करना चाहिए था। हां, इस लेख में फिर पुरस्कार वापस करने वाले लेखकों को कोसते हैं और जश्न-ए-रेख्ता (2017) में तारिक फतेह को लेकर हुए विरोध को नाजायज करार देते हैं। इस बात का आकलन करना तनिक भी कठिन नहीं है कि क्यों तस्लीमा और तारिक जैसे सांसारिक प्राणी अनंत की निगाह में ‘कोहिनूर’ हैं।

अपनी पुस्तक में अनंत विजय ने प्रो. एम.एम. कलबुर्गी, गोविंद पानसरे और दाभोलकर की नृशंस हत्या और देश भर में व्याप्त असहिष्णुता के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने वाले रचनाकारों की जमकर खबर ली है। पुरस्कार वापस करने वाले लेखकों का भी उन्होंने ‘पुरस्कार वापसी गैंग’ कहकर माखौल उड़ाया है। इस दौरान वे यह मान कर चलते हैं कि उनके द्वारा मार्क्सवादी बेनकाब हो रहे हैं। असल में, यह उनका मकसद नहीं है। लेखक की पक्षधरता यदि स्पष्ट होती तो वे इन मसलों का सार्थक और ठोस विश्लेषण प्रस्तुत करते। पुरस्कार वापसी की मुहिम को अनंत विजय छद्म प्रगतिशीलता का पर्याय मनाते हैं। अकारण नहीं है कि वे पूरी किताब में जहां-तहां इस प्रसंग का जिक्र करते नहीं थकते। अशोक वाजपेयी, मंगलेश डबराल और उदय प्रकाश जैसे हिंदी के लेखक अनंत के खास निशाने पर हैं। उनका स्पष्ट मानना है: उस वक्त एक सोची-समझी रणनीति के तहत इस मुहिम को हवा दी गई थी ताकि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को बदनाम किया जा सके और बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की अगुवाई करने वाले महागठबंधन को फायदा हो सके। (पृ-64) लेखक साहित्य अकादमी की पुरस्कार वापसी की घटना की मूल वजह और साहित्यिक बिरादारी पर लगातार हो रहे हमले को अनदेखा करते चलते हैं। किसी ने नहीं सोचा था कि एक-दो रचनाकारों की पुरस्कार वापसी की देखा-देखी दर्जनों लेखकों में पुरस्कार वापस करने की होड़ मच जायेगी और मामूली-सी दिखने वाली घटना राष्ट्रीय बहस में तब्दील हो जाएगी। यह किसी पार्टी को नुकसान या फायदा पहुंचाने की गरज से किया गया फैसला नहीं था और न ही ‘प्रचार पिपासा’ का कोई खोज निकाला गया नायाब तरीका था। (जैसा कि इस पुस्तक के लेखक मानते हैं।) जिन रचनाकारों ने पुरस्कार वापसी की घोषणा की थी, वे सभी बड़े और नामी रचनाकार थे। अशोक वाजपेयी, उदय प्रकाश, नयनतारा सहगल और मंगलेश डबराल जैसे लेखक मात्र अपने प्रचार के लिए ऐसा कर रहे होंगे, इस पर गहरा संदेह किया जाना चाहिए।

लेखक यहां अपने निजी अनुभवों का जिक्र करते हैं, मसलनः मुझे ट्विटर पर कई लोगों ने ब्लॉक कर दिया है--- मैंने देखा कि विश्व प्रसिद्ध लेखक सलमान रुश्दी ने भी मुझे ब्लॉक कर रखा है। (पृ-69) इस ब्लॉक-अनब्लॉक के खेल से आजिज आकर लेखक ने सलमान रुश्दी के ऊपर टिप्पणी करते हुए लिखा हैः मर्यादा में रहते हुए अगर आपकी टिप्पणियों की धज्जियां उड़ेगी तो उसको झेलना होगा अन्यथा अभिव्यक्ति की आजादी की ध्वजा लहाराने वाले सलमान रुश्दियों की बातें खोखली लगेंगी। (पृ-71) यहां सवाल उठना लाजिमी है कि मर्यादा में रहकर कैसे किसी की धज्जियां उड़ाई जा सकती है? सचमुच यह हुनर समझ से परे है। लेखक स्वयं लिखते हैंः साहित्य में भाषा की एक मर्यादा होनी चाहिए। (पृ-124) लेकिन वे स्वयं जब कोई विचार व्यक्त करते हैं, तब भाषा की मर्यादा ताक पर रखकर भूल जाते हैं। यहां कुछ वाक्यों को उद्धरित करना जरूरी है ताकि पाठक स्वयं तय करें कि वे भाषा की ऐसी मर्यादा का बोझ उठा पाने में सक्षम हैं अथवा नहींः

‘‘उदय प्रकाश के इस कदम पर तमाम छोटे-बड़े और मंझोले वामपंथी विचारक लहालोट होकर उनको लाल सलाम करने लगे थे।’’


‘‘सोशल मीडिया आदि पर सक्रिय लेखकों ने छाती कूटनी आरंभ कर दी थी।’’ 


‘‘समाज में बढ़ती असहिष्णुता, अगर सचमुच यह बढ़ रही है तो छाती कूटने वाले लेखकों का साहित्य में बढ़ती असहिष्णुता नजर नहीं आती।’’


‘‘जब हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार उदय प्रकाश को कट्टर हिंदूवादी नेता योगी आदित्यनाथ अपने कर कमलों से पुरस्कृत करते हैं तो अशोक वाजपेयी चुप रह जाते हैं।’’


‘‘अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियनों ने शोरगुल मचाना शुरू कर दिया।’’


‘‘कई लोग इस बात पर छाती कूटने लगे कि ये अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है।’’


‘‘नयनतारा सहगल और उनके ऐलान के बाद उनको लाल सलाम कर लहालोट होने वाले उनके समर्थकों को यह समझने की आवश्यकता है कि हर घटना को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़कर देखने का चुनिंदा फैशन बंद होना चाहिए।’’


ये सारे वाक्यांश उद्धरण मात्र नहीं हैं। ऐसे वाक्यांशों से पूरी पुस्तक पटी पड़ी है। पुरस्कार वापस करने वाले लेखकों को ‘गैंग’ करार देने वाले अनंत खासतौर से कहानीकार उदय प्रकाश के प्रति नाराजगी व्यक्त करते हैं जबकि तकरीबन तीन दर्जन से अधिक लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने की घोषणा की थी। तीसियों रचनाकारों का वे जिक्र तक नहीं करते हैं जबकि उदय प्रकाश को प्रसंग-अप्रसंगवश कोसते दिखाई पड़ते हैं। कोसने के इस भेद को लेखक अपने एक लेख में खुद खोल देते हैंः ‘‘उदय प्रकाश मेरे साथ मंच साझा करने से इंकार करते हैं।’’ यह घटना मुंबई फिल्म फेस्टिवल में घटती है। सनद रहे कि यह उन्हीं दिनों की बात है, जब पुरस्कार वापसी का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा था।

अनंत विजय मार्क्सवादियों को कई प्रसंगों में ‘प्रगतिशीलों’ या ‘वामपंथियों’ कहकर संबोधित करते हैं। उन्होंने ‘मार्क्सवाद’, ‘वामपंथ’ और ‘प्रगतिशील’, तीनों को एक ही माना है। मतलब, जो मार्क्सवादी हैं, वही प्रगतिशील भी होंगे। इस कारण प्रगतिशीलों की धुनाई करते हुए लेखक एक जगह लिखते हैंः प्रगतिशील जमात ने ही धर्मनिरपेक्षता को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया। (पृ-44) ऐसा लगता है मानो प्रगतिशील होने का ठेका सिर्फ वामपंथियों ने उठा रखा है। कोई दक्षिणपंथी प्रगतिशील नहीं हो सकता? और कलावादी? गांधीवादी? लोहियावादी? आम्बेडकरवादी? इन्हें प्रतिक्रियावादी की कोटि में डाल दिया जाए? अपनी इस पुस्तक में लेखक ने ‘प्रगतिशीलता’ शब्द को इतने तरीके से और इतनी बार इस्तेमाल किया है कि इसका वास्तविक अर्थ विलुप्त हो गया है। अनंत विजय अपना पक्ष रखने की हड़बड़ी में यह भूल जाते हैं कि ‘प्रगतिशीलता’ एक जीवन मूल्य है, एक जीवन पद्धति है। यह किसी खास विचारधारा वाले लोगों की जागीर नहीं है। किसी भी धर्म, विचारधारा, पंथ या संस्था से संबंध रखने वाला व्यक्ति प्रगतिशील हो सकता है और मार्क्सवाद का कट्टर समर्थक घोर प्रतिक्रियावादी हो जाये, उसमें कोई अनोखी बात नहीं हो सकती।

अनंत विजय मानते हैं किः सत्ता का चरित्र एक जैसा होता है। सरकार चाहे किसी भी दल की हो उनका व्यवहार एक जैसा होता है। (पृ-67) लेकिन कई प्रसंगों में आरएसएस और मोदी सरकार की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। संघ की पैरवी करते हुए उन्होंने एक गंभीर सवाल खड़ा किया हैः क्या संघी होने से कोई भी शख्स अस्पृश्य हो जाता है? (पृ-116) संघ और मोदी सरकार की एकतरफा प्रशंसा कहीं-कहीं भारी बेसुरा और बेहद उबाऊ हो जाता है, कहीं-कहीं भयानक अंतर्विरोधी भी।

2014 के बाद से सरकारी संस्थानों में नियुक्तियों के मामले में लेखक को मोदी नेतृत्व वाली सरकार पर खूब भरोसा है। वे इस बात पर जोर देकर स्वीकार करते हैं कि मोदी सरकार नियुक्तियों में कोई भेदभाव नहीं करती है। इस संदर्भ में उन्होंने बिलासपुर विश्वविद्यालय में बतौर कुलपति प्रो. सदानंद शाही और बदरी नारायण को मानव संसाधन विकास मंत्रलय में निदेशक नियुक्त किये जाने का मिसाल देते हुए लिखा हैंः बदरी नारायण की नियुक्ति इस बात का उदाहरण है कि मोदी सरकार नियुक्तियों में भेदभाव नहीं करती है। केंद्र की मोदी सरकार इस मायने में थोड़ी अलग है। (पृ-137) यदि पाठक सच में अनंत की लेखकीय ‘ईमानदारी’ की पराकाष्ठा देखना चाहते हैं तो किताब की पृष्ठ संख्या 226 में दर्ज एक और विस्मयकारी स्थापना पढ़ लीजियेः ‘‘नरेंद्र मोदी विचारधारा को लेकर सजग ही नहीं है बल्कि उसको स्थापित करने के लिए मजबूती के साथ प्रयत्नशील भी है। इस बार सरकार ने तय किया कि सभी संस्थानों पर अपने लोग बिठाये जायें। अब इन्हीं अपने लोगों को बिठाने की प्रक्रिया में गजेंद्र चौहान जैसे लोगों की नियुक्तियां हुई। विश्वविद्यालय के कुलपतियों से लेकर भाषा, कला और सांस्कृतिक संगठनों तक में यह सच है कि बौद्धिक जगत में वामपंथी विचारधारा की तुलना में दक्षिणपंथी विचारधारा के विद्वानों की संख्या कम है। लेकिन जो हैं उसके आधार पर ही सब कुछ अपने माफिक करने की कोशिश हो रही है। और आगे भी होते रहेगी।’’ उदाहरण वाकई थोड़ा लंबा हो गया है लेकिन ‘मार्क्सवाद के अर्धसत्य’ के लेखक की ठोस मान्यताओं को स्पष्ट करने के लिए जरूरी था।

लेखक यहां दो बिल्कुल भिन्न-भिन्न तरह के दलील देते हैं। एक तरफ लिखते हैं कि मोदी सरकार सरकारी संस्थाओं की नियुक्तियों में ‘भेदभाव’ नहीं करती है, दूसरी तरफ ताल ठोककर किसी पार्टी के प्रवक्ता की तरह वक्तव्य जारी करते हैं कि ‘सब कुछ अपने माफिक करने की कोशिश हो रही है और आगे भी होती रहेगी।’ उपरोक्त बातें वे किन तथ्यों के हवाले से लिखने का जोिखम उठा रहे हैं, वे स्वयं जाने, लेकिन पुस्तक के पाठक इस बात को बखूबी समझ लेंगे कि वास्तव में, तथाकथित वामपंथियों और दक्षिणपंथियों के बीच कोई खास बुनियादी नैतिक अंतर नहीं है। मामला केवल मौका हाथ लगने तक सीमित है।

इसी तरह वे ‘स्वाभिमानी लेखक को दयनीय बनाते कुछ लेखक’ शीर्षक से एक उप-लेख में श्रीलाल शुक्ल के लिए सरकारी सहायता की अपील की तीखी भर्त्सना यह कहकर करते हैं कि श्रीलाल शुक्ल एक लेखक के साथ-साथ प्रशासनिक अधिकारी भी थे। इसलिए सरकारी सहायता की गुहार लगाना उनके आत्मसम्मान को धक्का देने जैसा है। कुछ लेखकों द्वारा किए गए इस अपील के लिए उन्हें माफी मांग कर अपनी गलती सुधारने का नसीहत तक देते हैं, वहीं भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के लिए सरकारी सहायता की गुहार को जायज ठहराते हैं।

अनंत विजय के पास जानकारियों का खजाना है। वे हर विषय पर अधिकार पूर्वक लिख-बोल सकते हैं। इस पुस्तक में उन्होंने तमाम ज्वलंत विषयों पर अपनी बेबाक राय प्रस्तुत कर इसे साबित भी किया है। जहां कहीं जरूरत पड़ी है उन्होंने कड़ा रुख अख्तियार किया है लेकिन वे अपने मजबूत आक्रमणों से कुछ विशेष जन को साफ-साफ बचा ले जाना चाहते हैं। मतलब विरोधियों के खेमे में विचारों का गोला फेंकने से पहले वे अपने कुछ अंतरंग परिचितों को सचेत कर देते हैं, जरूरत पड़ने पर कवच तक पहना देते हैं। ‘साहित्यिक बाजार, मेला और लेखकीय छप्र’ शीर्षक से एक लेख है। अनुक्रम से छठा लेख। वैसे यह लेख भी एक ‘उप-शीर्षक’ से शुरू होता हैः ‘पौराणिक चरित्रें से परहेज क्यों?’ इस लेख में वरिष्ठ रचनाकार नरेंद्र कोहली को अब तक साहित्य अकादमी पुरस्कार क्यों नहीं मिल सका, इस मसले पर सवाल उठाते हुए उन्होंने लिखा हैंः नरेंद्र कोहली को अकादमी पुरस्कार के योग्य क्यों नहीं माना गया। इस पर विमर्श होना चाहिए। साहित्य अकादमी के पास भूल सुधार का मौका है। (पृ-188-189) निःसंदेह नरेंद्र कोहली की योग्यता पर रत्ती भर संदेह नहीं किया जाना चाहिए। फिर सवाल उठता है किन-किन लेखकों को साहित्य अकादमी पुरस्कार न मिलने पर ‘विमर्श’ किया जाए? राजेंद्र यादव इस पुरस्कार के योग्य नहीं थे? राही मासूम रजा के ‘आधा गांव’ से दिक्कत थी लेकिन उनके उत्कृष्ट लेखन पर क्या कोई प्रश्नचिन्ह् लगा सकता है? मन्नू भंडारी की योग्यता किस मायने में कम है? विश्वनाथ त्रिपाठी? ज्ञानरंजन? स्वयं प्रकाश? संजीव? शिवमूर्ति? कितनी भूल सुधार करेगी अकादमी? अनंत विजय साहित्य अकादमी की पारदर्शिता पर सीधे-सीधे सवाल खड़े करते हैं। सचमुच वे उन तमाम जानकारियों से लैस हैं जिससे बहुत कम लोग अवगत हो पाते हैं। अनंत किसी कोने में ढके-छिपे तथ्यों को खोज निकालने में सिद्ध भी हैं, फिर अकेले नरेंद्र कोहली को साहित्य अकादेमी न दिए जाने पर ही सवाल क्यों?

साहित्य अकादमी पुरस्कार में हो रहे खेल को लेकर लेखक का एक मत देखिये: एक बड़े लेखक के साथ हुआ पुरस्कार का सौदा (पृ-236) अनंत क्यों नहीं उस ‘बड़े लेखक’ को एक्सपोज करते हैं। वे इतने खुले तौर पर लेखन करते हैं, फिर उस ‘बड़े लेखक के सौदे’ पर रहस्यमयी आवरण का लेप क्यों चढ़ा देते हैं। इसी तरह जब वे यह बात भी स्वीकार कर लेते हैंः हिंदी में पुरस्कारों की स्थिति कितनी दयनीय है, किस तरह से खेमेबाजी होती है या फिर किस तरह से पुरस्कार बांटे जाते हैं यह सबको ज्ञात है।(पृ-234) जब लेखक स्वयं इस हाल से अवगत हैं तो उन्हें साहित्य अकादमी से ‘भूल सुधार’ की उम्मीद कतई नहीं करनी चाहिए। और क्या फर्क पड़ता है, जब लेखक इस तथ्य का उल्लेख तक कर देते हैं: अब इस संस्थान का उदेद्श्य अपने लोगों में रेवड़ी बांटने तक सीमित हो गया है। पुरस्कार, विदेश यात्रा, देशभर में गोष्ठियों के नाम पर पसंदीदा लेखक-लेखिकाओं के साथ पिकनिक के अलावा साहित्य अकादमी के पास उल्लेखनीय काम नहीं है। (पृ-236) इसके बाद लेखक के लिए इस संस्था से किसी तरह की अपेक्षा रखना ही बेमानी है।

प्रगतिशीलता की ओट में राजनीतिक आखेट’ शीर्षक लेख में अनंत जिक्र करते हैंः भीष्म साहनी की अगुवाई में प्रगतिशील लेखक संघ ने इमरजेंसी में इंदिरा गांधी का समर्थन किया। जिसके एवज में इंदिरा गांधी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को कालांतर में वामपंथियों के हवाले कर दिया। (पृ-202) फिर आगे चलकर लिखते हैं: मार्क्सवादी सांसद सीताराम येचुरी की अगुवाई वाली कला और संस्कृति पर बनी संसदीय कमेटी ने संसद में पिछले साल पेश रिपोर्ट में इस बात के पर्याप्त संकेत दिये थे कि कला और साहित्य अकादमियों में काहिली और भाई-भतीजावाद चरम पर है। इन अकादमियों के कामकाज पर गंभीर सवाल खड़े किये गए थे। (पृ-236) दोनों बातें किसी भी सूरत में मेल नहीं खाती। यदि साहित्यिक सांस्कृतिक-संस्थाएं वामपंथियों के कब्जे में थीं तब सीताराम येचुरी वाली कमेटी ने इन संस्थाओं के खिलाफ़ क्यों रिपोर्ट पेश की। इस कार्य के लिए कम से कम वामपंथियों की ईमानदारी के लिए संदर्भित पुस्तक के लेखक को सराहना नहीं करनी चाहिए?

लेखक अपनी पुस्तक के कई प्रसंगों में अपने ही विचारों से पक्षपात कर बैठते हैं। ‘पाठकों की कमी का जिम्मेदार कौन?’ शीर्षक से एक तीन-साढ़े तीन पृष्ठ का उप-लेख है, जिसमें उन्होंने लिखा हैः पिछले कई दशकों में कुछ प्रकाशकों और लेखकों ने मिलकर पाठकों को जबरदस्त तरीके से ठगा है। (पृ-193) यहां प्रकाशक ‘कुछ’ है और लेखक प्रायः ‘सभी’। न जाने क्यों अनंत विजय पाठकों की कमी की जिम्मेदारी ‘कुछ’ ही प्रकाशकों के सर मढ़ कर ठहर जाना चाहते हैं। यह जानना और दिलचस्प होगा कि ‘कुछ का’ बचाव करने की उनकी क्या खास मजबूरी हो सकती है? इस प्रसंग में वे हिंदी के लेखकों (लेखक ने पटना के पुस्तक मेले में जिन लेखकों को लगभग तानाशाह घोषित कर खलबली मचा दी थी।) की खिंचाई यह कहकर करते हैंः प्रिय, चर्चित, पसंदीदा, दस-ग्यारह आदि के नाम से प्रकाशित होने के बाद संचयन और सब कुछ चूक जाये तो समग्र या संपूर्ण कहानियां प्रकाशित होती हैं और उसके बाद रचनावली। (पृ-194) वे इस मौके पर प्रकाशकों का बचाव  करते हुए लिखते हैं कि ‘प्रकाशक कारोबारी है, लिहाजा उनका दोष कम है’ या ‘प्रकाशक तो कारोबारी है उसको जहां लाभ दिखाई देगा वो उसको छापेगा’ अथवा ‘प्रकाशक तो कारोबारी हैं उन पर हम ज्यादा तोहमत नहीं लगा सकते।’ घोर अचरज की बात है कि अनंत विजय पाठकों की कमी के जिम्मेदार लेखकों को दंडित करने की हद तक चले जाते हैं और उन पर आक्रमण करने का कोई मौका नहीं गंवाते, वहीं ज्यादातर प्रकाशकों को सीधे-सीधे बचाकर क्लीन चिट थमा देते हैं।

पुस्तक का आठवां शीर्षक (अध्याय)  है ‘बौद्धिक छलात्कार के मुजरिम?’ दिलचस्प है कि यह लेख भी एक नये उप-शीर्षक से शुरू होता हैः ‘तुलसी और कबीर के निकष अलग’। यह लेख महज तीन-चार पन्नों में सिमटकर रह गया है। इस छोटे से लेख में लेखक का उद्देश्य कबीर के बनिस्बत तुलसी को महान साबित करना है। अजीब लग सकता है कि इतने पढ़ाकू लेखक किसी विषय में कैसे इस हद तक सरलीकरण के शिकार हो गए? तुलसी और कबीर के साहित्य पर विचार करते वक्त लेखक रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी का हवाला कुछ इस तरह से देते हैंः आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक में तुलसीदास को लेकर अपनी मान्यताओं को स्थापित किया था। जब बीसवीं शताब्दी में हजारी प्रसाद द्विवेदी आये तो उनके सामने यह चुनौती थी कि वो खुद को आचार्य से अलग दृष्टि वाले आलोचक के तौर पर स्थापित करें। (पृ-248) लेखक यहां भूलवश दोनों आचार्यों को अलग-अलग सदी का मान बैठे हैं जबकि दोनों आचार्य बीसवीं सदी के ही हैं। खैर, उनकी शिकायत हैः आचार्य द्विवेदी ने तुलसीदास पर गंभीरता से स्वतंत्र लेखन नहीं करके उनको उपेक्षित रखा। (पृ-248) काश, संदर्भित पुस्तक के लेखक वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी के संस्मरण ‘गंगा स्नान करने चलोगे’ पढ़ लिया होता! उनका यह भ्रम भी जाता रहता। अपने संस्मरण में त्रिपाठी जी बड़ी मार्मिक ढ़ंग से उस प्रसंग का जिक्र करते हैं कि द्विवेदी जी किस तरह तुलसीदास पर काम करने के लिए व्याकुल रहा करते थे। उनकी अंतिम इच्छा थी कि बाबा तुलसी पर एक स्वतंत्र पुस्तक लिखे। हां, यह सच है कि उनकी कामना अधूरी रह गई।

अपने इस लेख में अनंत ने जिस तरह से द्विवेदी जी और उनके शिष्यों पर गहरे आक्षेप लगाए हैं, उस पर हिंदी साहित्य का साधारण से साधारण विद्यार्थी भी असहमत हो सकता है। संदर्भित पुस्तक के लेखक बहुत जोर देकर एक सवाल उठाते हैं कि द्विवेदी जी के शिष्यों ने तुलसी को कमतर साबित करने का खूब प्रयास किया। संभव है द्विवेदी जी के प्रिय शिष्यों में एक विश्वनाथ त्रिपाठी के द्वारा लििखत पुस्तक ‘लोकवादी तुलसी’ से वे न गुजर सके हों।

संदर्भित पुस्तक की पहली और सबसे बड़ी समस्या यह है कि अनंत ‘मार्क्सवाद के अर्धसत्य’ के नाम पर हिंदी पट्टी के कुछ चुनिंदा लेखकों का चुनाव करते हैं। इससे न मार्क्सवाद के अनुयायियों की कमजोरियां स्पष्ट हो पाती हैं, न बुद्धिजीवियों की खामियां। यह सच है कि ज्यादातर मार्क्सवादी अपनी अराजक जीवन-शैली को बेबुनियाद तरीके से जस्टिफाइ करने में अपनी समस्त गाढ़ी ऊर्जा झोंकते रहे। अनंत विजय जिन मार्क्सवादियों के ‘अर्धसत्य’ को उजागर करने का दावा करते हैं, असल में वे अपनी निजी भड़ास निकालने की वजह से भयानक भटकाव के शिकार हो जाते हैं। उन्हें बगैर किसी पूर्वाग्रह के ठोस तथ्यों और तर्कों के सहारे तथाकथित मार्क्सवादियों के बनावटी व्यवहार और खोखले क्रांतिकारी चरित्रें का ‘अर्धसत्य’ ही सही पर सार्थक तरीके से शिनाख्त करनी चाहिए थी। मगर ऐसा कर पाने से अनंत विफल रह गए हैं।

पूरी पुस्तक पढ़ चुकने के बाद एक बात तो साफ है कि संदर्भित पुस्तक के लेखक के लिए असल समस्या न मार्क्सवाद है, न वामपंथी, न प्रगतिवादी, न इस्लाम, न जेएनयू के विद्यार्थी, न बुद्धिजीवी। असल समस्या है उनके निजी प्रसंग के कड़वे अनुभव। वे जिन लेखकों की आलोचना करते हैं, उनमें से कइयों की वामपंथ से दूर की रिश्तेदारी भी नहीं रही है। न जाने किस दैवीय प्रेरणा से लेखक उन गैर मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को घसीट लाने का उपक्रम करते हैं।

पुस्तक की दूसरी बड़ी कमजोरी है भयंकर पुनरावृति की। इस वजह से पुस्तक की पठनीयता क्षीण हो गई है। विभिन्न संदर्भों में पूरा-पूरा पैरा जस-के-तस कई बार व्यक्त हुए हैं। पुस्तक में 40-50 पृष्ठ कम न करने के लोभ से लेखक को बच निकलना चाहिए था। फिर ऐसी दिक्कत न के बराबर रह जाती। 

इस पुस्तक की तीसरी दिक्कत यह है कि लेखक किसी गंभीर मसले की आलोचना करते-करते कई अवसरों पर निजी संस्मरण का हवाला देने में दिलचस्पी लेने लगते हैं। अनंत अपनी इस पुस्तक में यदि मार्क्सवादियों की खामियों-कमियों-कमजोरियों को कलात्मक तरीके से सार तत्व में पेश कर पाते तो सचमुच यह पुस्तक काम के लायक हो सकती थी। यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं है कि वक्त के हिसाब से किसी भी विचारधारा में खामियां आ जाती है। फिर इस तथ्य से हर कोई वाकिफ हैं कि समय के साथ-साथ कई चीजें अप्रासंगिक हो जाती है जिसे वक्त रहते रेखांकित किया जाना चाहिए।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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