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बलात्कार के ख़िलाफ़ आवाज़ में सहूलियत का एजेंडा — 'देह ही देश' पर अंकिता जैन


बलात्कार के ख़िलाफ़ आवाज़ में सहूलियत का एजेंडा — 'देह ही देश' पर अंकिता जैन

देह व्यापार हो या बलात्कार, हम हायतौबा भी अपनी सहूलियत और अपने एजेंडा के हिसाब से मचाते हैं। मेरे शहर में कोई बलात्कार हुआ तो मैं दुःखी हो जाऊंगी आपके शहर में कोई हुआ तो आप। इस सत्य को जानते हुए अनदेखी कर जाते हैं कि भारत में हर रोज़ बलात्कार हो रहे हैं। — अंकिता जैन
देह ही देश नाम से जेएनयू प्रो. गरिमा श्रीवास्तव ने अपने क्रोएशिया-प्रवास की डायरी के माध्यम से समाज की उस बंद आँख को खोलने की कोशिश की है जो युद्ध में स्त्री को इन्सान नहीं योनि माना जाना देखने ही नहीं देती. अंकिता जैन ने इस चर्चित किताब के बहुत गहरे पाठ के बाद जो बातें कही हैं उन्हें पढ़िए, यदि एक स्त्री के लिए यह किताब ऐसे ज़हरीले सचों को सामने रख सकती है तो पुरुष के लिए इसका पाठ कैसा होगा, अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. शुक्रिया अंकिता जैन.  — भरत एस तिवारी/ संपादक शब्दांकन    
 

बलात्कार के ख़िलाफ़ आवाज़ में सहूलियत का एजेंडा

'देह ही देश' पर अंकिता जैन 

"देह ही देश" पढ़ना शुरू करते ही यशपाल की झूठा सच का एक दृश्य मेरी आँखों के सामने झूलने लगा। कहानी की मुख्य किरदार तारा जब बमुश्किल हिंदुस्तान वापस लौटती है तो बॉर्डर पार करते ही उसे जश्न मनाते कुछ लोग नज़र आते हैं। वे लोग एक स्त्री को लूट लेने का, मार डालने का और किसी का सब कुछ ख़त्म कर देने का जश्न मना रहे थे। यकीनन वे हिन्दू थे और उनके हाथ में बाँस पर जो नग्न मरा हुआ "स्त्री" लोथड़ा टाँगों के बीच से फंसाया गया था वह एक मुस्लिम का था। यही हाल पाकिस्तान में मुसलमानों द्वारा हिन्दू स्त्रियों का वह देख-भोगकर आई थी। उसके साथ-साथ जिन औरतों का वहाँ वर्णन है वह काफ़ी दिनों तक मेरे लिए दुःस्वप्न बना रहा। मुझे डरावने सपने आते। हिंदुस्तान पाकिस्तान के बँटवारे में कितनी स्त्रियों की बलि दी गई इसका हिसाब शायद ही अब तक किसी ने लगाया हो। मज़हब और राजनीतिक बँटवारे में सज़ा किसको मिली?

देह ही देश पढ़ते हुए मुझे बचपन की एक घटना फिर से टीस की तरफ़ चुभने लगी है। यह 1997 की बात है शायद। हम नए-नए गुना में शिफ़्ट हुए थे। मैं 10 साल की थी। एक दूधवाले से दूध बांधा। अक्सर मैं जाया करती। घर से बहुत दूर नहीं था। बस कुछ ही गलियों का फांसला था। रास्ते में एक औरत मिलती। नग्न, सिर्फ एक पतली-सी शर्ट पहने हुए, जिसके आगे के बटन खुले रहते और उसकी छातियाँ दिखतीं। उसके शरीर पर वह शर्ट सिर्फ नाम के लिए होती। उसके पैर में मवेशी बाँधने वाली साँकल बंधी होती जिससे छूटकर वह कई बार सड़क पर भाग आती और किसी के भी चबूतरे पर बैठकर चीखती-चिल्लाती-रोती। अपनी योनि और छातियों को पीटती और फिर रोती। लोग कहते वह पागल थी। पर मुझे बहुत सालों बाद इस आशंका ने घेर लिया कि हो ना हो वह किसी यौनशोषण की शिकार थी। बाईस साल बीत चुके हैं लेकिन वह आज भी मेरी स्मृति में यूँ कौंधती है जैसी कल ही की बात हो।

वह मुझे कभी इस किताब की कल्याणी लगती जिसके गाँव की लड़कियों को देह व्यापार ही पेट की भूख मिटाने का आसरा है। और कभी सेम्का, ऐंजिलिना, एमिना या क्रोएशिया की वे तमाम स्त्रियाँ जिन्होंने इसी दुनिया में नरक का दुःख भोगा और जिनके लिए स्त्री पर्याय में जन्म लेना गुनाह हो गया।

कुछ साल पहले एक ख़बर देखी। जिसमें एक स्त्री का बलात्कार किया जाता है और उसी के सामने उसके नन्हे बच्चे को गोद से छीनकर सिर्फ़ इसलिए मार दिया जाता है क्योंकि वह बलात्कार में बाधा लग रहा था। मैं उस रात बहुत रोई। जाने क्यों मेरा मन इतना विचलित हो गया था कि मैं डरने लगी थी अकेले अपने नन्हे बच्चे के साथ जाने में। किसी बच्चे को उसकी माँ के सामने मार डालने की पीड़ा क्या होती होगी इसकी कल्पना करने भर से रूह कांप जाती है। ऐसी एक घटना ने मुझे हिलाकर रख दिया था। क्रोएशिया में ऐसी अनेकों घटनाएँ हुईं।

बोजैक जिनकी आठ वर्षीय बेटी और पत्नी के साथ सैनिकों ने इस हद तक क्रूरता दिखाई कि बेटी रक्तरंजित हो तड़पती रही और फिर भी सैनिक उसकी देह से खेलते रहे। वह मर गई और पत्नी कुछ समय बाद दिल की बीमारी और सदमे से मर गई। एमिना जिन्हें युद्ध के उपहार के रूप में गहरी शारिरिक और मानसिक पीड़ा के बाद दो जुड़वां बच्चों का गर्भ मिला। एक परिवार से दादी, चार बहुएँ और पाँच पोतियाँ सभी सर्ब सैनिकों के रेप का भाजन बनीं। पुरुषों और बच्चों को ज़िंदा जला दिया गया। परिवार की मंझली बहू ही एकमात्र पोती के साथ अब तक जीवित है। ऐसे ना जाने कितने मामले जिनका वर्णन इस किताब में पढ़ते हुए मेरी रूह रोती और शरीर थरथरा जाता।

ज़ाग्रेब और क्रोएशिया ने अपनी भूमि को पाने के लिए युद्ध किए और युद्ध के हमले का भाजन भी बने। "युद्ध में सर्बों ने क्रोआतियों को मारा, उनके घर जला दिए, बदले में क्रोआतियों ने पूरे क्रोएशिया को सर्बविहीन करने की मुहिम छेड़ दी।"

"बोस्निया-हर्ज़ेगोविना, क्रोएशिया के खिलाफ़ युद्ध में सर्बिया ने नागरिक और सैन्य कैदियों के कुल 480 कैम्प लगाए थे। क्रोएशियन और बोस्निया नागरिकों को डराने के लिए उनकी स्त्रियों से बलात्कार किए गए। बोस्निया और हर्ज़ेगोविना पर जब तक सर्बिया का कब्ज़ा रहा, किसी उम्र की स्त्री ऐसी नहीं बची जिसका यौन शोषण या बलात्कार न किया गया हो।"

इस पूरे युध्द काल में स्त्रियों को मानव का दर्जा नहीं मिल पाया। वे बस योनि को ढोने वाली एक ऐसी वस्तु मानी गईं जिनकी इज़्ज़त लूटने से युद्ध की न सिर्फ मुख्य रणनीति तैयार होती बल्कि सैनिकों को भी ख़ुश रखा जाता। सैनिक भी मानसिकता से पूर्णतः पंगु बना दिए गए थे। वे स्त्रियों को तीन हिस्सों में बाँटते। अतिवृद्ध जिन्हें खाना पकाने जैसे काम सौंपे जाते, कमसिन, सुंदर या छोटे बच्चों की माताएँ जिन्हें भोगा और मारा जाता और जिनकी कोख में अपना वीर्य स्थापित कर देना ही उनका एक मात्र उद्देश्य होता और तीसरी गर्भवती जिनके गर्भ को गिराने के लिए पहले उन्हें शारीरिक प्रताड़नाएँ दी जातीं, भोगा जाता और फिर उनके गर्भ में अपने दंभ की पुनर्स्थापना की जाती है।

ऐसा नहीं था कि सिर्फ स्त्रियाँ बल्कि पुरुष और बच्चों को भी ये दुःख भोगने पड़े लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी।

इस पूरे दुर्घटना-क्रम में जो बच गईं वे अब सामान्य जीवन जीने की कोशिश कर रही हैं लेकिन यह कितना संभव होगा इसका अनुमान मात्र ही हम लगा सकते हैं। हाँ यांद्रका के बारे में पढ़ते हुए मुझे कुछ सुकून मिला था, जो मानती हैं कि उन्होंने जो भोगा उससे उनका आत्मसम्मान नहीं गया। वे बलात्कारी की आँखों में आँखें डाल देखतीं कि उसे अहसास हो वह क्या कर रहा है। उनका मानना है कि जो हुआ वह शरीर के साथ और अब मैं आत्मा को पुनर्जीवित कर नए साहस के साथ जीवन जीने की कोशिश कर रही हूँ। कुछ हरवातिनेक जैसी भाग्यशाली भी रहीं जिनके पति ने ब्लात्कार के बाद उन्हें छोड़ा नहीं बल्कि पीड़ा को कम करने में हर संभव सहयोग दिया। पीड़ा कम हुई यह कह पाना कठिन है।

इस युद्ध के बाद जो जीवित बच गईं उनमें से कइयों को देह व्यापार में घुसना पड़ा। परिवार या तो नष्ट कर दिया गया था या स्वीकार नहीं कर रहा था। इसके अलावा भी देह व्यापार में क्या और किस तरह स्त्रियों को सब्जी-भाजी की तरह खरीदा-बेचा जाता है और उच्च स्तर पर बैठे तमाशबीन कैसे इसका हिस्सा हैं, यह वर्णन किताब में पढ़कर अब दुनिया का कोई कोना स्त्रियों के लिए अलग दिखाई नहीं देता।

भारत में हर रोज़ एक ख़बर बलात्कार की सुनती हूँ। भारत पाकिस्तान विभाजन हो या बंगाल विभाजन हज़ारों स्त्रियों ने वही दुःख भोगा जो क्रोएशियन स्त्रियों ने। दुनिया में कहीं भी चले जाएं क्या स्त्रियों के दुःख एक ही रहेंगे? क्या उन्हें कभी भोगवस्तु से इतर एक मनुष्य का दर्ज़ा मिलेगा?

इस किताब को पढ़ने के बाद स्त्रीवाद की परिभाषा को फिर से समझने की आवश्यकता महसूस होती है। वर्तमान में आत्मकेंद्रित स्त्रीवाद देख-देख अब सब छल और फ़रेब लगने लगा है। सच कहूँ इस किताब ने भीतर कोई ऐसी चोट की है जिसकी गूँज जाने कितने समय तक सुनाई देती रहेगी और जिसकी टीस जाने कितने समय तक चुभती रहेगी।

मैं जब यह सब पढ़ रही थी मेरी चेतना जवाब देने लगी थी और सुख के मायने बदल गए थे।

भारत में कितनी ही स्त्रियाँ आज देह व्यापार के लिए मजबूर हैं। वे कैसे वहाँ पहुँची, उनकी कहानी क्या थी? यह हम शायद ही कभी सोचते हैं। देह व्यापार हो या बलात्कार, हम हायतौबा भी अपनी सहूलियत और अपने एजेंडा के हिसाब से मचाते हैं। मेरे शहर में कोई बलात्कार हुआ तो मैं दुःखी हो जाऊंगी आपके शहर में कोई हुआ तो आप। इस सत्य को जानते हुए अनदेखी कर जाते हैं कि भारत में हर रोज़ बलात्कार हो रहे हैं। हम बोलते हैं सब पर? क्या करेंगे बोलकर भी। अख़बार का पन्ना पलटते या स्क्रीन स्क्रोल करते ही वह दुःख एक 'अपडेट' मात्र बन जाती है। ज़्यादा हुआ तो हम दो शब्द लिख लेते हैं। पर यह सब कब बंद होगा? कैसे बंद होगा? इसकी ना सरकार को पड़ी है ना हमें। यह दुनिया स्त्रियों के लिए किस हद तक क्रूर है इसका दस्तावेज़ है 'देह ही देश'... जिसे पढ़ते हुए मैं अवसाद में जाने से ख़ुद को हज़ार बदलावों के प्रयोग कर बचा रही हूँ। जिसे पढ़कर अपना हर दुःख झूठा लगने लगता है।

इस किताब को पढ़ने के बाद मेरे मन में यह तीव्र इच्छा पैदा हुई कि मैं किताब की लेखक के साथ किसी ऊँची पहाड़ी के मुहाने पर, उजाड़ से दरख़्त के नीचे बैठ उनसे क्रोएशियाई स्त्रियों के वे बचे रुदन भी सुन लूँ जिन्हें वे किसी भी चाही-अनचाही वजह से किताब में सम्मिलित ना कर पाई हों। जब वे ये रुदन-गीत सुना रही हों तब हमारे सामने बिछी गहरी खाई असीमित बादलों से पटी हो। और रुदन-गीत के ख़त्म होते ही वे बादल छंट जाएँ। मैं और लेखक दोनों साथ उन घनघोर-कारे बादलों के छंटने की और उम्मीद के सूरज के चमकने की ख़ुशी साथ मनाएँ। यह सोचते हुए कि दुनिया स्त्रियों के लिए नरक सही लेकिन कभी तो घर्षण कम होगा या मिटेगा। कभी तो हमें या दूसरों को हराने के लिए हमारे शरीर वस्तु-मात्र नहीं समझे जाएँगे। कभी तो पौरुष का दंभ भरने वाली मनुष्य प्रजाति अपने बल और बुद्धि से युद्धों को जीतेगी न कि स्त्रियों के गुप्तांगों के दम पर।

यह किताब पढ़ने के लिए नहीं बल्कि एक अहम दस्तावेज़ बनाकर हर व्यक्ति को समझने की ज़रूरत है। इसे पढ़े बिना स्त्रीवाद की हर परिभाषा अधूरी है।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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अरुंधति रॉय इन हिंदी — स्वतंत्र किन्तु जाति व्यवस्था में आकंठ डूबा भारत राष्ट्र — #एक_था_डॉक्टर_एक_था_संत


अरुंधति रॉय इन हिंदी | फ़ोटो: भरत एस तिवारी

अरुंधति रॉय इन हिंदी — स्वतंत्र किन्तु जाति व्यवस्था में आकंठ डूबा भारत राष्ट्र — एक था डॉक्टर एक था संत

कि क्याक्या गाँधी नही थे और क्याक्या आंबेडकर थे

अरुंधति राय की किताब उनकी भाषा सब उनके निर्भीक तेवर के होते हैं। कुछ समय पहले अंग्रेजी में प्रकाशित उनकी किताब 'द डॉक्टर एंड द सेंट' ― जो कि क्याक्या गाँधी नही थे और क्याक्या आंबेडकर थे, आदि के चलते ― बहुत चर्चा में थी/है, उसका हिंदी संस्करण 'एक था डॉक्टर एक था संत' , आ रहा है। ठीक चुनाव के समय उस किताब का आना: जैसे एक बहुत जरूरी काम का एकदम ठीक समय पर होना। अच्छी बात यह भी है कि लोकार्पण के साथ नई दिल्ली के "कॉन्स्टिट्यूशन" क्लब में राजकमल प्रकाशन ने — इन डॉक्टर और संत की बातों के अनजाने कमजाने सचों पर— बहस भी रखी है (कार्ड नीचे लगा है)... देखते हैं क्या निकल कर आता है ― उर्मिलेश उर्मिल, दिलीप मंडल, राजेन्द्र पाल गौतम, अनिता भारती, मनीषा बांगर, सुनील सरदार, अनिल यादव 'जयहिंद' के बीच रतन लाल संचालित बहस में। फिलहाल अरुंधति राय की किताब क्या है और उस पर की गई कुछ टिप्पणियां पढ़ें –




वर्तमान भारत में असमानता को समझने और उससे निपटने के लिए अरुंधति रॉय ज़ोर दे कर कहती हैं कि हमें राजनैतिक विकास और मोहनदास करमचंद गांधी के प्रभाव— दोनों का ही परीक्षण करना होगा। सोचना होगा कि क्यों भीमराव आंबेडकर द्वारा गांधी की लगभग दैवीय छवि को दी गई प्रबुद्ध चुनौती को भारत के कुलीन वर्ग द्वारा दबा दिया गया। रॉय  के विश्लेषण में हम देखते हैं कि न्याय के लिए आंबेडकर की लड़ाई जाति को सुदृढ़ करनेवाली नीतियों के पक्ष में व्यवस्थित रूप से दरकिनार कर दी गई, जिसका परिणाम है वर्तमान भारतीय राष्ट्र जो आज ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र है, विश्वस्तर पर शक्तिशाली है, लेकिन आज भी जो जाति व्यवस्था में आकंठ डूबा हुआ है। 

अरुंधति रॉय इन हिंदी | फ़ोटो: भरत एस तिवारी
अरुंधति रॉय इन हिंदी | फ़ोटो: भरत एस तिवारी

अरुंधति रॉय हमारे समय के चंद महान क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों में से एक हैं...साहसी, दूरदर्शी, विद्वान और सुविज्ञ...द डॉक्टर एंड द सेंट शीर्षक यह निबंध बी.आर. आंबेडकर पर एक स्पॉटलाइट डालता है जिन्हें अनुचित ढंग से गांधी की अपछाया में ढाँप दिया गया। संक्षेप में, रॉय एक शानदार शख़्सियत हैं जो हम सभी को झकझोरती हैं।
कोर्नेल वेस्ट | द अफ़्रीकन-अमेरिकन सेचुरी के लेखक

पूँजीवादी संसार में जो स्थान कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो का है, ऐनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट का भारत में वही स्थान है।
आनंद तेलतुम्बड़े | द परसिस्टंस ऑफ़ कास्ट के लेखक

1930 के दशक के लिए ऐनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट  चमत्कारिक लेखन का एक ऐसा नमूना था जिसमें वैचारिक स्पष्टता और राजनीतिक समझ थी—कुछ ऐसा जिसे दुनिया को जानना जरूरी है। रॉय के कलम में एक पैना राजनैतिक प्रहार है, जिसकी अपेक्षा उनसे हमेशा रहती है।
उमा चक्रवर्ती | पंडिता रमाबाई : ए लाइफ़ एंड ए टाइम की लेखिका

अरुंधति रॉय की कलम असरदार, आँखें खोल देनेवाली और उत्तेजक है...इसे पढ़ने के बाद महात्मा की संत वाली महिमा का कुछ बाक़ी नहीं बचता, जबकि आंबेडकर सही तौर पर एक ऐसी शख़्सियत के रूप में उभरकर आते हैं जिनका अपनी ज्ञानेन्द्रियों पर सम्पूर्ण नियंत्रण है और जो विलक्षण प्रज्ञा के स्वामी हैं।
थॉमस ब्लोम हेनसेन | द सैफ़्रन वेव के लेखक




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फिल्म....पोस्टर कला के हवाले से हिंदी का हाल — नलिन चौहान


मिनर्वा मोव्हिटोन कृत

भारत में पोस्टर कला को एक दोयम दर्जे की कला माना जाता है जबकि इसके उलट पूरी दुनिया में इसे ललित कलाओं के समान सम्मान दिया जाता है

— नलिन चौहान

हिंदी समाज की दशा-दिशा बताते पोस्टर





नलिन चौहान
नलिन चौहान
भारत में हाथ से बने पोस्टर की अवधारणा का विकास सिनेमा के उद्भव के साथ ही हुआ। पोस्टर कला के  हस्तनिर्मित से ऑफसेट प्रिंटिंग और फिर डिजिटलीकरण तक का सफर, कलात्मक सौंदर्य और कारीगरी धीरे-धीरे ढलने की एक कहानी है। सरल शब्दों में, यह कला भारत में सिनेमा की यात्रा को बयान करती है। भारतीय सिनेमा के इतिहास को समझने के लिए फिल्म पोस्टर सबसे उपयुक्त है। वे इस लंबी यात्रा को दर्शाने वाले मील के पत्थर हैं। आरंभिक समय से ही पोस्टरों ने दर्शकों और फिल्म के बीच में आपसी जुड़ाव का काम किया। यह एक कड़वा सच है कि भारत में पोस्टर कला को एक दोयम दर्जे माना जाता है जबकि इसके उलट पूरी दुनिया में इसे ललित कलाओं के समान सम्मान दिया जाता है।

दुनिया में हिंदी सिनेमा शायद एक अकेला सिनेमा होगा जहां एक संवाद अदायगी से लेकर पोस्टर तक एक दूसरी भाषा, यहां अंग्रेजी, का वर्चस्व है।

हिंदी फिल्म पोस्टरों पर छपी एस एम एम औसजा की पुस्तक "बॉलीवुड इन पोस्टर्स" (ओम बुक इंटरनेशनल से प्रकाशित) Bollywood in Posters एक ऐसी ही अप्रतिम पुस्तक है। जिसमें न केवल पोस्टर के बारे में बल्कि हर फिल्म, उसके कलाकारों तथा लोकप्रिय गानों की सारगर्भित रूप से तथ्यात्मक जानकारी दी गई है। पुस्तक से पता चलता है कि हिंदी फिल्मों के पिछले सात दशकों के पोस्टर और पोस्टर बनाने की प्रवृति को गौर से देखने पर पता चलता है कि समय के साथ न केवल इनमें सौंदर्यशास्त्र बल्कि प्रस्तुतिकरण में भी परिवर्तन आया है। एक तरह से ये पोस्टर बदलते सामाजिक-राजनीतिक या सामाजिक-धार्मिक परिदृश्यों पर एक सटीक टिप्पणी है।




1930-1940 के दशक के शुरुआती फिल्म पोस्टरों में धार्मिक तत्व और शालीन पहनावे में महिलाएं दिखती हैं। तब फिल्म निर्माण का आरंभिक चरण था जब उसे सामाजिक मान्यता नहीं मिली थी। ऐसे पोस्टर दर्शकों के समक्ष एक स्वस्थ-पारिवारिक मनोरंजन की छवि पेश करते थे। फिर 1950-1960 के दशक में जब फिल्मों को सामाजिक स्वीकृति मिलने लगी और कलाकारों को सितारा माने जाने लगा तब अशोक कुमार, नर्गिस और मधुबाला जैसे कलाकार प्रमुख चेहरों के रूप में उभरे। 1970 के दशक में अमिताभ बच्चन जैसे एक्शन नायकों के उदय के साथ सामाजिक विषयों पर अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ। जबकि 1990-2000 का दशक में नई अवधारणाओं, प्रारूपों और प्रस्तुतिकरण से भरापूरा रहा। अगर सौंदर्यबोध को पैमाना माना जाए तो पोस्टरों ने लिथोग्राफ से लेकर आॅफसेट और अब डिजिटल प्रिंटिंग तक का सफर तय किया है। इनमें से हरेक की अपनी-अपनी विशिष्टताएं और खूबसूरती थीं।

मिनर्वा मोव्हिटोन कृत
मिनर्वा मोव्हिटोन कृत "मिर्जा गालिब" फिल्म के अंग्रेजी-हिंदी में नाम सहित निर्माता सोहराब मोदी का नाम छपा हुआ है


"बाॅलीवुड इन पोस्टर्स" में हिंदी सिनेमा के 78 वर्षों (1930-2008) की प्रमुख 208 फिल्मों का लेखा-जोखा है। इन फिल्मों में दिल्ली से संबंधित कथानक वाली फिल्मों में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित सोहराब मोदी की "मिर्जा गालिब" (1954) सबसे पुरानी फिल्म है। फिल्म के पोस्टरों (रंगीन और श्वेत श्याम दोनों) में सुरैय्या और भारत भूषण की फोटो के साथ मिनर्वा मोव्हिटोन कृत "मिर्जा गालिब" फिल्म के अंग्रेजी-हिंदी में नाम सहित निर्माता सोहराब मोदी का नाम छपा हुआ है।




फिल्म का नाम तीन भाषाओं, हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी में छपा हुआ है
फिल्म का नाम तीन भाषाओं, हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी में छपा हुआ है


जबकि दिल्ली के ऐतिहासिक कथानक वाली फिल्म "हुमायूं" (1945) के पोस्टर में एक किलेनुमा इमारत की पृष्ठभूमि में अशोक कुमार, नरगिस और वीणा के चेहरे प्रमुखता से बने हुए हैं जबकि फिल्म का नाम तीन भाषाओं, हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी में छपा हुआ है।

हिंदी... ऊपर छोटे से कोने में
हिंदी...  ऊपर छोटे से कोने में


इसी तरह, बाप-बेटे और महानगर में जमीन के कारोबार की कहानी वाली "त्रिशूल" (1978) के पोस्टर में संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन और शशि कपूर के चेहरों की प्रमुखता हिंदी सिनेमा में सितारा परंपरा के मजबूत होने और अंग्रेजी के बढ़ते दबदबे, जहां निर्देशक-गीतकार-संगीतकार-निर्माता के नाम अंग्रेजी में छपे हैं, का संकेत है। यह बात एक दूसरे पोस्टर से साबित होती है जिसमें अंग्रेजी में त्रिशूल प्रमुखता से छपा है तो हिंदी में छोटे से ऊपर कोने में।

हिंदी की उपेक्षा!?
हिंदी की उपेक्षा!?


गानों के लिए मशहूर हुई "रजिया सुल्तान" (1983) के पोस्टर में अंग्रेजी में छपा फिल्म का नाम भी उर्दू लिपि में लिखा गया है जबकि निर्देशक कमाल अमरोही और संगीतकार ख्ययाम के नाम भी अंग्रेजी में छपे है। यहां भी तुलनात्मक रूप से हिंदी के प्रति उपेक्षा साफ है।


अंग्रेजी का वर्चस्व
अंग्रेजी का वर्चस्व




शाहरूख खान की "चक दे इंडिया" (2007) के पोस्टर में अंग्रेजी का पूरा वर्चस्व नजर आता है, जहां हिंदी सिरे से ही गायब है। अधिकतर दिल्ली में फिल्माई गई इस फिल्म की दर्शकों तक पहुंचने की भाषा भी अंग्रेजी है जो कि हमारे दौर के महानगर की शर्मनाक सच्चाई है। यही सच मणिरत्नम की "गुरू" (2007) में भी झलकता है जहां फिल्म के नाम से लेकर निर्देशक के नाम तक सब अंग्रेजी में है। दुनिया में हिंदी सिनेमा शायद एक अकेला सिनेमा होगा जहां एक संवाद अदायगी से लेकर पोस्टर तक एक दूसरी भाषा, यहां अंग्रेजी, का वर्चस्व है। अब यह अनायास है या सायास यह समझने की बात है, जिसकी जड़े नक़ल और भाषाई आत्महीनता वाले हिंदी समाज के दोगलेपन में निहित है।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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तीतर फांद: अन्याय ख़िलाफ़ में खड़े मनुष्य के लोकतान्त्रिक मुक्ति का उत्तर-आधुनिक पाठ है


समीक्षा

सत्यनारायण पटेल प्रकृति को साथ लेकर चलते हैं

— विनोद विश्वकर्मा




'तीतर फांद' चर्चित उपन्यासकार सत्यनारायण पटेल का नवीनतम कथा संग्रह है, मेरा ख्याल है कि आप अभी 'गाँव भीतर गाँव' उपन्यास को भूले न होंगे लेकिन यह कहानी संग्रह आपको इसलिए नहीं पढ़ना चाहिए की यह आपके प्रिय कथाकार का है, बल्कि इसलिए पढ़ना चाहिए कि यह आज के समय का जीवंत दस्तावेज़ है, हमारे समाज का कच्चा चिट्ठा है, आम आदमी की पीड़ा का अंतर्नाद है। न जाने क्यों मुझे इस संग्रह की कहानियां पढ़कर अमरीकी कथाकार ओ हेनरी की याद बरबस आती रही, शायद इसलिए कि इस संग्रह की कहानियां हमें ठीक उसी तरह मनुष्य बनाने की कोशिश करती हैं जैसे 'आखिरी पत्ता', समाज से इंसानियत का आखिरी पत्ता झड़ चुका है, पर हेनरी अपनी कला से बचाये हुए है। ठीक उसी तरह तीतरी का संघर्ष हमारे बीच एक इंसान को जिन्दा कर देता है।



पिछले कुछ वर्षों में देश का जो हाल रहा है, जनतंत्र और लोकतंत्र कहीं क्यों खोता गया है, इसकी पूरी समझ और अपनी कलात्मकता में मानव को मानव बनाने की कोशिश करती इस संग्रह की कहानियों की सबसे बड़ी चिंता यही है कि आज हमारा ईमान 'जर्जर' क्यों हो गया है ? ऐसा क्या हो गया है कि कोई ख़ास विचारधारा और कोई ख़ास व्यक्ति ही क्यों हमारे मन का, विचार का, नियंत्रण करना चाहता है, और वह लोकतांत्रिक ताकतों को झटका दे रहा है।

विनोद विश्वकर्मा

ये कहानियां हमारे आपके हम सबके जीवन की हैं, यह ऐसी बतकही में कही हुई बातें हैं जो हमें अपनी लगती हैं, कहीं न कहीं इनके विषयों में हम सब शामिल हैं। बहुत पहले हमने इस बात के लिए संघर्ष किया था कि समाज में लोकतंत्र की स्थापना हो और जनता का हित उसमें प्रमुख हो लेकिन आज जनता की कीमत कैसे घटी है, मंत्रियों, अफसरों और असंवैधानिक जुलूसों की कीमत बढ़ गई है, जैसे यह लोग जो कह रहे हैं, और कर रहें हैं वही सही है और हमारी विवशता है कि सब ठप्प है, क्योंकि मंत्री आ रहा है, कहीं जुलूस निकल रहा है, कान में, दिमाग में 'ढम्म...ढम्म..ढम्म' बज रहा है। पहले कभी जब यह ध्वनि हमें सुनाई पड़ती थी तो जन जागृति के लिए होती थी लेकिन आज फासीवादी विचारधारा की वृद्धि और व्यक्ति पूजा के लिए होती है ऐसा क्यों है ?लोकतंत्र के मूल्य हमारी चिंता का विषय आज क्यों नहीं हैं,  यही चिंता है हमारे कथाकार की।

समाज में कैसे और किस तरह से स्त्री कीमत में कमी आई है, कुछ चीजें क्यों आज आतंक का पर्याय बन गई हैं, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है, वह भी मनुष्य हैं, इस दृष्टि से 'न्याव', 'मैं यहीं खड़ा हूँ', 'गोल टोपी' कहानियों को लिया जा सकता है, गोल टोपी हमारे इस छद्म को उजागर करती है कि मुस्लिम भी मनुष्य है ? जबकि न्याव और मैं यहीं खड़ा हूँ स्त्री की वर्तमान दशा को दिखाती हैं। मिन्नी मछली और सांड कहानी समाज में और व्यवस्था में फैले अन्याय की कहानी है। न्याव कहानी हैं यह सोचने पर विवश करती है कि क्यों हम ऐसा समाज बनाते ही क्यों हैं कि उसे हमें ही नष्ट करना पड़ता है।

सत्यनारायण पटेल की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि वह प्रकृति को साथ लेकर चलते हैं, और इस क्रम में वह पक्षियों और पेड़ों का मानवीकरण कर लेते हैं, पक्षी और पेड़, हवा और पानी अपनी संवदेनाएँ कह सकते हैं, हमारे समय का मूल्यांकन कर सकते हैं। इसका दर्शन हमें औपन्यासिक और महाकाव्यात्मक औदात्य लिए हुए कहानी 'तीतर फांद' में होते हैं, मुझे लगता है कि यह कहानी हमारे समय की और हमारे वर्तमान रामराज्य की सच्ची गाथा है, जो यह बताती है कि रामराज्य पहले की तरह ही आसमान में ही है, अर्थात वह कहीं नहीं है, वह कुछ लोगों का जुमला है, और जुमला इसलिए कि वह अपना विकास कर सकें, वह केवल अपने विकास की बात करते हैं, क्योंकि सबका साथ और सबका विकास कितना सच है? हम इस कहानी में देखते हैं।

'तीतर फांद' सत्य में एक तीतर के परिवार की कहानी है, जो समय की फांद में अख्लाख की तरह मारा जाता है। लेखक यानी मोहन का इस परिवार से गहरा रिश्ता है, और वह इनसे मन से जुड़ा है। हो सकता है कि इसे पढ़ते हुए आपको लगने लगे कि आप क्या पढ़ रहे हैं लेकिन आपको धैर्य से और अंत तक पढ़ना है, यह कहानी अपने आप में हमारे समाज के सभी पक्षों को प्रकट कर देती है और यह बार - बार प्रश्न खड़ा करती है कि हमारा इंसान होना और इंसान की तरह व्यवहार न करना कितना सही है ?

आम आदमी किस तरह से शासन प्रशासन की फांद में फंस गया है, काम के नाम पर वादे हैं, और सुशासन के नाम पर जंगलराज। काम के स्थान पर भाषण और वादे हैं। रोटी के स्थान पर सपने हैं : यथा - "सुन लो भाई, सुन लो बहना/स्मार्ट सिटी बनाऊंगा!/बुलेट ट्रेन में घुमाउंगा!/स्वर्ग की सैर कराऊँगा !/रोजगार की रट छोड़ दो ........!"(तीतर फांद,  पृष्ठ - 160)आदमी सत्य से दूर है, किसान आत्महत्या कर रहा है, भूख से मर रहा है। पर हमारा महाराजा हमें सपने दिखा रहा है। ऐसा क्यों है? जमीनी हकीकत यह है कि जो गाय का मांस खाने से मना कर रहे हैं वही गाय को मार रहे हैं। और इसका दोष किसी निर्दोष पर डाल दे रहे हैं।



तीतर फांद,  छुटकी तीतरी की कहानी है जिसे मोहन अपने घर में रखता है, अपनी बेटी की तरह मानता है, और अपने मित्रों से ही उसे नहीं बचा पाता है, इस कहानी में जंगल एक प्रतीक है जो तीतरी के लिए है, पर मनुष्यों के बीच उग आए अमानवीय जंगल जिसमें संविधान दो कौड़ी का भी नहीं है, और अचानक ऐसा क्यों हो गया है, इसकी पीड़ा सहती है तीतरी, जो तिवारी और बड़ा बाबू के मांस खाने की लालसा के कारण उन्ही का शिकार होती है। यहाँ किसान और तीतरी की कोई कीमत नहीं है, शम्भू सिंह भी मारा गया है, तीतरी की तरह, बस लोग उसे आत्महत्या कहते हैं। बाजार, विज्ञापन और राजनीति के कुचक्र में फंसे आम आदमीं की छटपटाहट की यात्रा है तीतर फांद,  जिसे हम अपना लेते हैं, और तीतरी के पक्ष में खड़ें हो जाते हैं, मेरे विचार में किसी लेखक की यह सबसे बड़ी देन है कि वह हमें अन्याय के विपक्ष में खड़ा कर दें।

कला के स्तर पर सत्यनारायण पटेल कहानियां लिखते नहीं गढ़ते हैं, जिस तरह से प्रकृति ने अपने आप बना दिए हैं जंगल, नदी, पहाड़ और झरने, जो हमें यह एहसास दिलाते हैं कि हम कहाँ हैं, इनके पात्र, भाषा और संवेदना के स्तर पर हमारे साथ चलने लगते हैं, हमारे जीने, रोने, हँसने के साथी बन जाते हैं और हमें अंत तक वहां ले जाते हैं जहाँ जाने को हमने कभी सोचा भी नहीं था। हमें हमारे ही भूले हुए को याद दिलाने के लिए कथाकार सत्यनारायण पटेल को इस कहानी संग्रह के लिए बधाई।



'तीतर फांद'(कहानी संग्रह),
लेखक-सत्यनारायण,
प्रकाशक-आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड
पेपरबैक
पृष्ठ-167,
मूल्य-150.


विनोद विश्वकर्मा,
युवा उपन्यासकार और समीक्षक
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी,  शासकीय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सतना, मध्यप्रदेश-485001, मो. 09424733246,
ईमेल:dr.vinod.vishwakarma@gmail.com


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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क्यों किसी भी टीवी पत्रकार के लिए हर दिन चुनौतीपूर्ण होता है


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ऑफ़ द स्क्रीन: टीवी रिपोर्टिंग की कहानियाँ

mass communication books Hindi pdf free download अर्थात पत्रकारिता के छात्रों के लिए  प्रैक्टिकल गाइड

पुस्तक समीक्षा


खबर के पीछे का रोमांचक सफर

आप न्यूज चैनल शौक से देखते हों, बिल्कुल नहीं देखते हों या सिर धुनते हुए देखते हों - तीनों ही स्थिति में अगर आप इसे पढ़ेंगे, तो आपको टीवी रिपोर्टिंग के स्वरूप, उसके विषयों , खूबियों और दुश्वारियों के बारे में कुछ नई जानकारियाँ मिलेंगी और मुमकिन है कि आपकी राय ...

ब्रजेश राजपूत की पुस्तक ‘ऑफ द स्क्रीन; टीवी रिपोर्टिंग की कहानियाँ’ न्यूज चैनलों पर आने वाली खबरों के पीछे की कहानियाँ सुनाती है - किस्सागोई के दिलचस्प अंदाज में। अपने लंबे कॅरिअर में ब्रजेश ने लगभग हर तरह की स्टोरी की है, जो आप न्यूज चैनल पर देखते हैं। इसलिए उनके अनुभवों में विविधता है, जो किताब की कहानियों में भी झलकती है। इनमें पगलाई भीड़ के हमले में मौत से साक्षात्कार के वर्णन हैं, तो तूफान और बाढ़ में खबर तलाशने की रोमांचक दास्तानें भी हैं। उन्होंने पुस्तक में सच ही लिखा है- ‘अजीब-सा काम है पत्रकारिता भी। लोग हादसे की जगह से दूर भागते हैं, मगर हम पत्रकार उस जगह पर जल्दी पहुँचने में जी-जान लगा देते हैं।




नदी में तैरते शिवराज सिंह चौहान और फटी टी-शर्ट वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया...

प्रोड्यूसर क्या पका रहा है


यह टीवी चैनलों की उत्सुकता और रोमांच जगाने वाली शैली में लिखी गई है, लेकिन इसमें प्रिंट मीडिया के भाषायी संस्कार भी हैं। लेखक ने अनावश्यक दोहराव और बलाघात से बचते हुए सरल वर्णनात्मक शैली में अपने अनुभव बयाँ किए हैं। बीच-बीच में उनके विचार और टिप्पणियाँ सहज रूप से आती रहती हैं और पाठक के लिए विषय को आत्मसात करने में सहायक होती हैं। मसलन, एक जगह वे कहते हैं कि ‘टेलीविजन पत्रकारिता में कल क्या किया, कोई नहीं पूछता… हमेशा यह पूछा जाता है कि आज क्या कर रहे हो’, तो आपको एहसास हो जाता है कि स्थापित नाम होने के बावजूद क्यों किसी भी टीवी पत्रकार के लिए हर दिन चुनौतीपूर्ण होता है।

दुष्यंत कुमार का टूटता घर
बहरहाल, इसे महज रोमांच के लिए मत पढ़िए। इसमें करुणा और सामाजिक सरोकारों की कहानियाँ भी हैं। ‘पचमढ़ी की गुड़िया की लंबी कहानी’ बताती है कि टीआरपी देने वाली खबर से शुरू हुए जुड़ाव में कैसे स्नेह, आत्मीयता और परवाह के भाव भी जुड़ते चले गए। किताब में कर्ज के बोझ से आत्महत्या करते किसान, तनाव में गलत कदम उठाते स्कूली बच्चे, फांसी और सजा-माफी के बीच झूलता एक शख्स, सवाल करने पर एक आम नागरिक को सजा देने वाला कलेक्टर, हिंदी के मशहूर गजलगो दुष्यंत कुमार का टूटता घर और अफसरशाही के नीचे पिसते ग्रामीणों की कहानियाँ भी हैं। जनसरोकारों से जुड़े ये किस्से किताब में रोचकता और स्तरीयता के बीच झूलता काँटा संतुलित बनाए रखते हैं।






कुंभ स्नान पर जाने वाली साध्वी प्रज्ञा ...
राजनेताओं और समस्याओं के बारे में लिखते वक्त किसी एक पक्ष में झुक जाने का जोखिम होता है, लेकिन लेखक ने इस बात का ध्यान बखूबी रखा है। वे नदी में तैरते शिवराज सिंह चौहान और फटी टी-शर्ट वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के बारे में आंखों देखा हाल बताते हैं और बाकी सबकुछ इशारों-इशारों में कह जाते हैं। यह निरपेक्ष अंदाज मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा और कुंभ स्नान पर जाने वाली साध्वी प्रज्ञा के किस्सों में भी कायम रहता है। यहाँ तक कि वे चुनाव के किस्सों में भी संतुलन साधे रहते हैं और जो भी कहना है, घटना-प्रसंगों और वास्तविक किरदारों की बातों के जरिए ही कहते हैं।

राय थोड़ी-सी
कुछ किताबें आपको बदल देती हैं। उन्हें पढ़ लेने के बाद आप वह नहीं रह जाते, जो पहले थे। आपकी जानकारियाँ बढ़ जाती हैं, जागरूकता का स्तर ऊँचा हो जाता है, आपकी समझ थोड़ी बेहतर हो जाती है और सबसे अच्छी बात, आप एक बेहतर इनसान बन जाते हैं। यह भी इसी श्रेणी की पुस्तक है। आप न्यूज चैनल शौक से देखते हों, बिल्कुल नहीं देखते हों या सिर धुनते हुए देखते हों - तीनों ही स्थिति में अगर आप इसे पढ़ेंगे, तो आपको टीवी रिपोर्टिंग के स्वरूप, उसके विषयों , खूबियों और दुश्वारियों के बारे में कुछ नई जानकारियाँ मिलेंगी और मुमकिन है कि आपकी राय थोड़ी-सी बदल भी जाए।






प्रैक्टिकल गाइड
और पत्रकारिता (mass communication) के छात्रों के लिए तो यह प्रैक्टिकल गाइड की तरह है। खबरों की खोज में किन हालात से गुजरना पड़ता है, कितने खतरों का सामना करना पड़ता है, कितनी तरह की चुनौतियों से जूझना पड़ता है और खबर कैसे निकलती है, यह इस किताब की 75 कहानियों को पढ़ते हुए बड़ी आसानी से समझ आ जाता है। जैसा कि ब्रजेश एक जगह टिप्पणी करते हैं- ‘समाचार चैनल की नौकरी में भागादौड़ी, कवायद और कसरत बहुत ज्यादा है। काम घंटों का है, तो स्टोरी मिनटों और सेकंड्स की’, यह किताब बताती है कि किसी हल्की-फुल्की स्टोरी को बनाने के लिए भी कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं।

यह गलतफहमियाँ भी दूर करती है। मसलन, पाठक जान पाता है कि खबरिया चैनलों का कामकाज उतना सुविधायुक्त और ग्लैमरस नहीं है, जैसा लगता है। यही नहीं, पत्रकार को सर्वेसर्वा मानने वालों को भी यह जानकर झटका लग सकता है कि यह तो वास्तव में पर्दे के पीछे रहने वाले प्रोड्यूसर का माध्यम है। अपने शो को लेकर वह क्या पका रहा है, उसमें रिपोर्टर की बहुत छोटी भूमिका होती है।

तो यह किताब दरअसल क्या है? यह रोमांचक सफर का वर्णन है। यह जमीनी हकीकत का दस्तावेज है। इसमें टीवी रिपोर्टिंग के संस्मरण हैं। यह एक ग्लैमरस समझे जाने वाले कार्यक्षेत्र की दुश्वारियों की दास्तान है। टीवी पत्रकारिता (mass communication) के छात्रों के लिए यह पाठ्यपुस्तक की तरह है। हर कोण से इसका एक अलग ही रंग नजर आता है। कुल मिलाकर ‘ऑफ द स्क्रीन; टीवी रिपोर्टिंग की कहानियाँ’ एक रोचक किताब है।

समीक्षक – विवेक गुप्ता

पुस्तक – ऑफ द स्क्रीन; टीवी रिपोर्टिंग की कहानियाँ

लेखक – ब्रजेश राजपूत

प्रकाशक – मंजुल पब्लिशिंग हाउस

पृष्ठ – 245

कीमत – 250 रुपए

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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मृणाल पाण्डे — एक सुकवि का मर्म थाहना



देवदत्त पटनायक की वर्तिका का बल पांडित्य बघारने पर केंद्रित नहीं — मृणाल पाण्डे




गैर-राजनीतिक इरादे से देसी परंपरा को हिंदी में समझना-समझाना,अंग्रेजी में व्याख्या करने से कहीं जटिल बन चला है — मृणाल पाण्डे



'हंस' जून 2018
देवदत्त पटनायक ने पुरातन साहित्य, उपाख्यानों, महाकाव्यों के मिथकों और आख्यानों पर सरस-सुघड़ अंग्रेजी में विस्तृत टीकाएं रचकर भारतीय भाषाओं से दूर खड़ी नई पीढ़ी और हमारी साझा सांस्कृतिक विरासत को लगातार सराहनीय तरीके से जोड़ा है. तुलसीदास की अमर लोकप्रिय वंदना, हनुमान चालीसा की मार्मिक वर्तिका (वह व्याख्या जो दीये की जलती बाती की तरह प्रकाश का दायरा बड़ा करते हुए अंधकार में छिपे सत्य पर प्रकाश डाले) लेखक के ज्ञान, भाषायी संवेदनशीलता और बेलाग सहज अभिव्यक्ति का एक सुंदर प्रमाण है.

अवधी में रचित कुल चालीस छंदों की इस कृति के अंत में लेखक ने कृति के नाम, तुलसी का जीवनवृत्त और उनका आराध्य हनुमान से एकीकरण पर भी तीन छोटे और जानकारी से भरे प्रकरण ही नहीं जोडे़, यत्रा-तत्रा अपनी विलक्षण तूलिका से बनाए पारंपरिक रेखांकन भी दिए हैं. उनकी वर्तिका का बल पांडित्य बघारने पर केंद्रित नहीं. उनका लक्ष्य सामान्य पाठकों को इस प्रकरण के बहाने एक बहुत ही समृद्ध ज्ञान की परंपरा और उसकी खुली विचार परंपरा से रूबरू कराने का है, जिसमें वे सफल रहे हैं.

मूल अंग्रेजी में उनकी यह पुस्तक पढ़ते हुए मन में सहज आता था, काश ऐसा सरस-सहज ज्ञान, जो दार्शनिक सोच-विचार से एक लोकप्रिय प्रार्थना के इतने सुंदर और गहरे पहलुओं को आज के युग से सीधे जोड़ रहा है, हिंदी पाठकों को भी सुलभ हो पाता. ईमानदारी की बात यह है कि आज के हिंदी जगत् में किताबी ज्ञान और बड़बोली दार्शनिकता तो बहुत है, लेकिन पुरानी साहित्य-कला परंपरा पर सहज-सुंदर व्याख्याओं की घोर कमी बनी हुई है इसकी वजह यह नहीं कि हिंदी में इन विषयों के पाठक नहीं या खुद हिंदी भाषा ऐसी अभिव्यक्ति के काबिल नहीं. बल्कि यह कि हिंदी के पास आज ऐसे विविध कलाओं के जानकार और बहुभाषा-भाषी लेखकों की बहुत कमी हो गई है, जो एक उदार और रसमय भाषा में परंपरा की तटस्थ व्याख्या कर सकें. और बात करते हुए एक ज्ञान की परिधि को और भी फैलाकर ज्ञान के दूसरे दायरों से जोड़ते चलें.


देवदत्त पटनायक की सरस-गंभीर अंग्रेजी व्याख्या को एक सहज बोलचाल की हिंदी में अनूदित करते हुए भरत तिवारी ने हिंदी के सुधी पाठकों के लिए अपनी परंपरा और जनभाषाओं की ताकत को समझ पाने की कई नई राहें खोली हैं. यह काम जितना आसान दिखता है, उतना है नहीं, क्योंकि इधर हिंदी भाषा और परंपरा का इतना जहरीला राजनीतिकरण हो चुका है कि गैर-राजनीतिक इरादे से देसी परंपरा को हिंदी में समझना-समझाना,अंग्रेजी में व्याख्या करने से कहीं जटिल बन चला है. फिर भी भरत तिवारी ने मूल लेखक का वह आशय गहराई से समझा और समझाया है जिसके अनुसार:

  ‘अनंत पुराणों में छिपा है सनातन सत्य
   इसे पूर्णतः किसने देखा है?
   वरुण के हैं हजार नयन
   इंद्र के सौ
   मेरे आपके केवल दो!

इस मर्म को पकड़कर धर्म और संस्कृति को पोंगापंथी, विभेदकारी राजनीति और जड़ शास्त्राीयता से दूर सहज बुद्धि से समझना आसान बन जाता है. अनुवादक भरत तिवारी का लेखक की आवाज, उनका मुहावरा बोलचाल की हिंदी में सही तरह पकड़कर इस रसमय टीका को अंग्रेजी न जानने वाले हिंदी के पाठकों के लिए पेश करना, वह भी आज के विभेदकारी कोलाहल और नास्तिक माहौल में, बहुत सराहनीय है.

पुस्तक: मेरी हनुमान चालीसा
लेखक एवं रेखांकनकार: देवदत्त पटनायक
प्रकाशक: रूपा पब्लिकेशंस | मंजुल प्रकाशन | मूल्यः 195 रुपए
अनुवाद: भरत तिवारी
अमेज़न से मँगाने के लिए क्लिक कीजिये

मृणाल पाण्डे
संपर्क: ई-148, ईस्ट आॅफ कैलाश, नई दिल्ली-110065

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जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा — मृदुला गर्ग



जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा : समीक्षा: मृदुला गर्ग : अमर उजाला 

देवदत्त पटनायक एक प्रासंगिक और उपयोगी काम कर रहे हैं

एक सटीक अनुवादः भरत तिवारी की मेरी हनुमान चालीसा

— मृदुला गर्ग





आजकल जब हमारा युवा वर्ग इस हालत में है कि उसे भारतीय दर्शन ही नहीं, मामूली से मामूली उक्ति भी अंग्रेज़ी के माधयम से समझ में आती है तो निश्चित ही, देवदत्त पटनायक एक प्रासंगिक और उपयोगी काम कर रहे हैं। — मृदुला गर्ग

साभार: अमर उजाला (20 मई 2018)
देवदत्त पटनायक समय समय पर हिन्दु धार्मिक क़िताबों का सहज पाठ, अंग्रेज़ी में रूपान्तरित करते रहते हैं। "जय" नाम से महाभारत का संक्षिप्त रूप, उन्होंने अंग्रेज़ी में लिखा है, जो किशोरों को महाभारत से परिचित करवाने में एक कामयाब भूमिका निभाता है। साथ ही भगवद गीता सहित कुछ ग्रन्थों पर वे अंग्रेज़ी में टीका भी लिखते रहे हैं। आजकल जब हमारा युवा वर्ग इस हालत में है कि उसे भारतीय दर्शन ही नहीं, मामूली से मामूली उक्ति भी अंग्रेज़ी के माधयम से समझ में आती है तो निश्चित ही, देवदत्त पटनायक एक प्रासंगिक और उपयोगी काम कर रहे हैं। भले वह जटिल और बहुआयामी को सरल और एकांगी बना कर पेश करें। सोशल मीडिया और व्हाट्स एप की दुनिया तक सीमित युवा वर्ग के लिए कुछ हद तक, उनकी क़िताबें एक बृहत दुनिया खोलती हैं। भरत तिवारी ने मूल अवधी में लिखी हनुमान चालीसा की उनकी अंग्रेज़ी में अनुवाद सहित व्याख्या, "माई हनुमान चालिसा" का हिन्दी में अनुवाद (मेरी हनुमान चालीसा) करके इस कार्य को कुछ और उपयोगी और लोकप्रिय बना दिया है।

शान्ति देती है तो देती है, बात खत्म
माई हनुमान चालीसा ऐसी क़िताब की अनुवाद सहित व्याख्या है, जो मूलतः अत्यन्त सरल-सहज हैः करोड़ों लोगों को मुँहज़बानी याद है। जैसा ख़ुद पटनायक कहते हैं, उसका पाठ उनके विचलित या भयभीत मन को सुकून पहुँचाता है। ज़ाहिर है उसका धार्मिक क्रिया होना या न होना बेमानी है। शान्ति देती है तो देती है, बात खत्म। कोई भी लय-ताल, संगीत, कविता यह काम कर सकती है; ज़रूरत इतनी भर है कि मन में पक्का यक़ीन हो कि वह ऐसा कर सकती है।

भरत तिवारी ने पटनायक की इस सहज व्याख्या का, हिन्दी में सटीक अनुवाद किया गया है। उसके लिए उन्हें साधुवाद। पुस्तक के गद्य भाग के अनुवाद में रवानी भी है और रस भी। लालित्य और सहजता उसके गुण है, जो इस पुस्तक के लिए अनिवार्य भी थे। — मृदुला गर्ग

इसके साथ यह भी तय है कि हर कविता (यहाँ दोहा) के कुछ अर्थ होंते हैं, जिनकी पड़ताल या व्याख्या हर व्यक्ति अपने मन मुताबिक कर सकता है। देवदत्त पटनायक ने हनुमान चालीसा के दोहों की एक अत्यन्त सहज स्वीकार्य व्याख्या की है, जिससे किसी का कोई विरोध नहीं हो सकता। यह अपने में एक सुखद स्थिति है। और सुकून पहुँचाने का वह काम ज़ारी रखती है जो हनुमान चालीसा का पाठ करता आया है।

रवानी भी है और रस भी
भरत तिवारी ने पटनायक की इस सहज व्याख्या का, हिन्दी में सटीक अनुवाद किया गया है। उसके लिए उन्हें साधुवाद। पुस्तक के गद्य भाग के अनुवाद में रवानी भी है और रस भी। लालित्य और सहजता उसके गुण है, जो इस पुस्तक के लिए अनिवार्य भी थे। जहाँ तक दोहों का सवाल है, जिन्हें इस पुस्तक में छन्द कहा गया है और वे छन्द में ही हैं; दिक्कत यह है कि उनका अनुवाद भी अंग्रेज़ी से किया गया है, अवधी से नहीं। सो अंग्रेज़ी मूल और आधुनिक कविता की प्रवृत्ति के अनुरूप, वे मुक्तछन्द में हैं या लय मुक्त हैं। विचलित मन पर क़ाबू पाने के लिए शायद ही कोई उनका फ़ौरी पाठ कर सके या करना अभीष्ट माने। उनकी व्याख्या पढ़ कर अलबत्ता वह विश्वास कर सकता है कि वह मात्र वही नहीं दुहरा रहा, जो रट रखा है; बल्कि उसे पढ़ गुन कर मस्तिष्क में संजो भी रहा है। यही पटनायक की व्याख्या का अभीष्ट है।और यही भरत तिवारी का उसे हिन्दी में अनुवाद के लिए चुनने का भी। आज के युग में जब भावावेग, दुहराव और हिस्टीरिया यानी निम्न स्तरीय पिष्टोक्ति, वायरल हो हो कर, हमारी वैचारिकता को बर्बाद कर रही है; समझ-बूझ कर कुछ करना या उसे विचार में संजोना, काफ़ी अर्थ रखता है। इस नज़र से केवल सहज हिन्दी का ज्ञान रखने वाले असंख्य हिन्दी भाषियों के लिए व्याख्या का यह हिन्दी अनुवाद, मूल्यवान साबित होगा। अलबत्ता दोहे वे अवधी छन्द में ही गुनगुनाएंगे, आख़िर अवधी हमारी उतनी ही अपनी है जितनी हिन्दी; बल्कि स्मृति में सुरक्षित होने के कारण, शायद ज़्यादा करीबी तौर पर।

मेरी हनुमान चालीसा, देवदत्त  पटनायक, अंग्रेजी से अनुवाद : भरत तिवारी, रूपा पब्लिकेशंस, मंजुल प्रकाशन,  मूल्य : 195 रुपये।

मृदुला गर्ग
ई 421(भूतल) जी के-2, नई दिल्ली 110048



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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देवदत्त पटनायक ने चमत्कार कर दिखाया — ममता कालिया


ज्ञान गुणसागर की प्रार्थना — ममता कालिया

ज्ञान गुणसागर की प्रार्थना 

रविवासरीय हिंदुस्तान से...





ऐसे समय में जब आधुनिकता और पश्चिमीकरण की दौड़ में हम अपनी प्राचीन भक्ति और धर्म से दूरी बना चुके थे, यकायक शिक्षित समाज के कुछ विद्वानों ने धर्म और इतिहास केंद्रित पुस्तकों को नवीन पद्धति से परखना शुरू किया। पारंपरिक और पौराणिक मिथकों को तर्कसंगत ढंग प्रस्तुत करने के लिए प्रसिद्ध देवदत्त पटनायक ने अपनी पुस्तक ‘मेरी हनुमान चालीसा' में यह चमत्कार कर दिखाया है। जो चालीसा प्रेमी गीता प्रेस की पतली-पतली चालीसा पुस्तिकाओं के अभ्यस्त हैं, हो सकता है उन्हें एक सौ पचानबे रुपये की यह नयनाभिराम पुस्तक महंगी लगे। लेकिन जो लोग चालीसा के निहायत सरल-से लगने वाले रूप में छिपे गूढार्थ का ज्ञान अर्जित करने को उत्सुक होंगे, उन्हें यह पुस्तक अच्छी लगेगी। इसमें प्रत्येक छंद की सारगर्भित व्याख्या की गई है।

मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई इस पुस्तक का सरल सुबोध अनुवाद भरत तिवारी ने किया है। हममें से जो मित्र अब तक भरत तिवारी को एक छायाकार, पत्रकार के रूप में जानते थे, जरा संभल जाएं। इस अनुवाद से  स्पष्ट है कि भरत के पास बड़ी समर्थ भाषा और भाव-संपदा है। यह पुस्तक अवधी से अंग्रेजी और अंग्रेजी से हिंदी में रूपांतरित होकर भी अपनी अर्थगर्भिता में अत्यंत समृद्ध है।

प्रायः मंगलवारों को हमने मंदिर के प्रांगण में हनुमान-भक्तों को बड़बड़ाहट, हड़बड़ाहट में हनुमान चालीसा के छंदों को गड़बड़-पाठ करते देखा है। विवाह के मंत्रों की तरह अबूझ, अगम्य होते हैं ये मंगलवारी पाठ। उन भक्तों से पूछा जाए तो वे शायद इसका अर्थ न समझा पाएं। वास्तव में ऐसे भक्तों के लिए हनुमान चालीसा मुख्य रूप से आस्था की चीज है। इसलिए वे इस पुस्तक से और किसी चीज की शायद  ही अपेक्षा करते हों। लेकिन देवदत्त पटनायक ने अपनी पुस्तक में आस्था को अक्षुण्ण रखते हुए इसमें अंतर्निहित पौराणिकता के सूत्रों का उद्घाटन भी बाखूबी किया है।

मेरी हनुमान चालीसा, देवदत्त  पटनायक, अंग्रेजी से अनुवाद : भरत तिवारी, रूपा पब्लिकेशंस, मंजुल प्रकाशन,  मूल्य : 195 रुपये।
हिंदुस्तान से साभार





(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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हनुमान की एक बहुमुखी छवि दिलो-दिमाग में बनती जाती है | #MyHanumanChalisa


ऐसे समय में जहां धर्म, धार्मिकता और धार्मिक चेतना का इस्तेमाल हिंसा, घृणा और भेदभाव के लिए किया जा रहा हो तथा ऐसा कर राजनीति की जमीन सींची जा रही हो, धर्म को उसके लोकप्रिय स्वरूप में ज्ञान और संवेदना के साथ प्रस्तुत करना बहुत अहम कार्य है, जिसे पटनायक बखूबी करते आ रहे हैं — प्रकाश के रे


इसे पढ़ते हुए हनुमान की एक बहुमुखी छवि दिलो-दिमाग में बनती जाती है

— प्रकाश के रे

डॉ देवदत्त पटनायक ने हद सरस, सरल और रुचिकर अंदाज में पटनायक ने धार्मिक आख्यानों को लोगों तक पहुंचाया है — प्रकाश के रे 

तीन अनिवार्य तत्वों — आस्था, आध्यात्मिकता और आख्यान — से धर्म साकार होता है. इन्हीं तत्वों से कर्मकांडों और दार्शनिकता को भी आधार मिलता है. इसी कारण से धर्म और उससे संबद्ध विषयों की व्याख्या और उन पर बहसों का सिलसिला अनवरत जारी रहता है. सभी सभ्यताओं में धार्मिक आख्यानों और कथाओं की प्रधानता है. यह भी दिलचस्प है कि उन कथाओं में विविधता और विरोधाभास बहुत हैं. हमारे यहां धार्मिक साहित्य पर टीकाओं की समृद्ध परंपरा रही है. इसी कड़ी में पौराणिक कथाओं के जाने-माने व्याख्याता और टिप्पणीकार डॉ देवदत्त पटनायक ने तुलसीदास की रचना 'हनुमान चालीसा' की टीका लिखी है. वे हिंदू धर्म के साहित्य, कथा-परंपरा और अन्य सभ्यताओं से उसके साम्य या विभेद पर लिखते-बोलते रहे हैं. बेहद सरस, सरल और रुचिकर अंदाज में पटनायक ने धार्मिक आख्यानों को लोगों तक पहुंचाया है.

Prakash K Ray
तुलसीदास की हनुमान चालीसा पर डॉ पटनायक की टीका 'मेरी हनुमान चालीसा' सामुदायिकता और आत्मिक के बीच संचार करती है. — प्रकाश के रे 

ऐसे समय में जहां धर्म, धार्मिकता और धार्मिक चेतना का इस्तेमाल हिंसा, घृणा और भेदभाव के लिए किया जा रहा हो तथा ऐसा कर राजनीति की जमीन सींची जा रही हो, धर्म को उसके लोकप्रिय स्वरूप में ज्ञान और संवेदना के साथ प्रस्तुत करना बहुत अहम कार्य है, जिसे पटनायक बखूबी करते आ रहे हैं. धर्म जहां सामुदायिकता और सामूहिकता का एक आधार बनता है, वहीं वह एक स्तर पर नितांत व्यक्तिगत और आत्मिक भी होता है. तुलसीदास की हनुमान चालीसा पर पटनायक की टीका 'मेरी हनुमान चालीसा' सामुदायिकता और आत्मिक के बीच संचार करती है. सामुदायिकता इसलिए कि यह उत्तर भारत के सबसे लोकप्रिय और पवित्र धार्मिक साहित्य की व्याख्या करते हुए पौराणिक कथाओं और विविध मान्यताओं के समुद्र में छलांग लगाती है तथा व्यक्तिगत इसलिए कि इसे पढ़ते हुए हनुमान की एक बहुमुखी छवि दिलो-दिमाग में बनती जाती है.

अवधी में लिखे 43 पदों की यह रचना देवदत पटनायक की टीका में विस्तार पाती है और कथा-दर-कथा हनुमान का विराट स्वरूप साकार होता जाता है. पटनायक की इस टीका को अंग्रेजी से हिंदी में भरत तिवारी ने अनुदित किया है, जो स्वयं ही साहित्य और कला के रसिक हैं. पटनायक ने किताब में हनुमान के अनेक रेखा-चित्र बनाये हैं, जो पाठ के रस को दोबाला कर देते हैं. रूपा प्रकाशन से छपी यह किताब सुधी पाठकों के लिए अनुपम उपहार है और राजनीति से संक्रमित होती जाती धार्मिकता को उसके आध्यात्मिक आनंदलोक में प्रतिष्ठित करती है. 'मेरी हनुमान चालीसा' भक्ति साहित्य के अध्येताओं के लिए भी उपयोगी है.

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(प्रभात खबर से साभार)
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A Soofi in the Brothel — Prakash K Ray


Prakash K Ray

What if I’m killed in a fight? To die in GB Road! My poor parents. 

— Prakash K Ray Reviews Mayank Austen Soofi

Mayank Austen Soofi
Mayank Austen Soofi
Photo (c) Bharat Tiwari
In these three years
     in GB Road,
       have I recorded the truth?…
May be it is better this way.

It is fulfilling enough for a writer
  to get a sense of GB Road
  without stripping bare
  the lives of its people.

   — Mayank Austen Soofi




I have seen Mayank! Won’t say met him, cause couple of times we have come across, I’ve found him, a person who might not easily become comfortable with someone, he doesn’t know personally. But, one thing, that I’m sure about him is: he is loved by all those who are his friends, have seen it in their eyes. Now when Prakash K Ray, writes this review, and I read it, followed by a few hours of conversation between us (not in one go, over a span of 5 weeks). I’m seeing Mayank from a different perspective, as Prakash writes ‘Soofi, the narrator, present everywhere in the narrative, is us who witness those dark stairs, alleys and chambers through the eyes of the author.’, he is telling us, Soofi’s book is not an ordinary book. Highly recommended by Prakash, who is known for his vast knowledge of Indian Cinema, apart from his various pieces on subjects ranging from Indian Literature to International Cinema , ‘Nobody Can Love You More: Life in Delhi’s Red Light District / Mayank Austen Soofi’ will be my next read.

Bharat Tiwari




A Soofi in the Brothel — Prakash K Ray


As per the various estimates, there are three to 15 million prostitutes in our country. Some live in marked red light areas in different cities and towns and operate from there. Some villages and communities also practice this ‘profession’ or ‘dhandha’, as it is colloquially referred.




These areas are the part of the civilization’s underbelly. They trouble us, make us uncomfortable, and also incite our curiosity. So, we have numerous legends, stories, books, songs and films about prostitutes. From being Vish Kanya to Devdasi to Tawaif, and from Randi and Rakhail to Call Girl and Escort — the prostitute has traveled a vast journey through our histories.

Mayank Austen Soofi’s Nobody Can Love You More: Life in Delhi’s Red Light District provides us a glimpse of contemporary scenario of ‘infamous’ GB Road in Delhi and tries to sketch out the shadowy life patterns inside the red light area through words and images. In the process, he also touches some threads of the past. He keeps one of Manto’s stories, The Black Salwar, as a talisman whenever he visits the area.

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He meets RV Smith, who has chronicled Delhi for so long and was a regular at GB Road some decades ago. Soofi talks to MA Khan, a descendant of an old noble family and lives in a nearby locality. He also visits shopkeepers in the area and pimps operating there. Along with the inhabitants of kotha no. 300, whom Soofi calls ‘family’, other conversations open a huge canvas before the reader. And, Soofi, the narrator, present everywhere in the narrative, is us who witness those dark stairs, alleys and chambers through the eyes of the author.

Despite presenting an honest and panoramic view of the inside, he does not claim to tell the ultimate truth. He writes, ‘In these three years in GB Road, have I recorded the truth?… May be it is better this way. It is fulfilling enough for a writer to get a sense of GB Road without stripping bare the lives of its people.’ In his Kothagoi, that records the present and the past of a red light area in a Bihar town, Prabhat Ranjan has categorically declared, ‘whatever is written in this book is all lie.’ Journalist Ravish Kumar says in one of his reports which subject is GB Road, ‘Here everyone has uncounted stories. I don’t know what I saw peeping into their lives and what I could show you.’

A Soofi in the Brothel — Prakash K Ray
He keeps one of Manto’s stories,
The Black Salwar, as a talisman
whenever he visits the area. 
Sabir Bhai, a kotha malik, tells the author, ‘Come on, Soofi Bhai, you can’t trust anybody in GB Road.’ And he also refuses to share his own past. Soofi is perplexed, ‘Could it be they cherish the secrecy because there is no secrecy about their bodies?’ He echoes what Ravish Kumar says in his report, ‘Their life stories, especially when they focus on why they became sex workers, are almost identical. But there is something in each woman that makes her distinct.’ He expresses his frustration over his inability to grasp the whole personalities of those women.

Professor Kumkum Sangari in her book, Politics of the Possible: Essays in Gender, History, Narratives, Colonial English, underlines that the prostitute who, like the higher caste widow, signifies the failures of familial protection. She asserts that ‘prostitution’ operates ‘as a class ascription’ and has been raised ‘in binary opposition to middle-class Hindu domesticity and married respectability.’ In Soofi’s narrative, everyone wants to get out of GB Road, and aspires for a life in ‘society’. ‘I surely do not want to breathe my last here’, says Sabir Bhai.

In fact, even an outsider would not want dying in GB Road. In jest, Soofi points to this irony. One night he is followed by some ‘pimps’. He thinks about all those warning about the bad boys on the street. He thinks, ‘What if I’m killed in a fight? To die in GB Road! My poor parents.’ Sabir’s kids have dreams to get out and live elsewhere. But it is not that easy. Sabir says, ‘Once you get into a red light area, it is very difficult to get out.’




And when those from GB Road get out, their identities are altered. Sabir’s son Osman tells Soofi that when asked about his residence, he tells that he lives in a different area, and he does not invite his friends. In Ravish’s report, a person tells that his daughter’s in-laws asked him not to mention GB Road on the wedding card. Prabhat Ranjan’s Manorama comes inside Chaturbhuj Sthan as Suman. Champa goes out as Rajni in BR Chopra’s Sadhna. Soofi’s Sushma is also Shireen, or, perhaps, both are fictitious.

The names and the religions of those people are not that important. They can identify themselves with any name, and they can pray to any god or all gods. What matters most in a red light area is the body. A prostitute’s entire being is centered in the location of her body. It is the body which is rejected and accepted every time. ‘Sushma must get a customer.’

Sushma, Roopa, Nighat… are worried about their bodies and they do not want to age like Sumaira for a life beyond 35-40 is horrible in a red light area. Nobody wants to be in the trade, others also want these kothas to go, society at large does not care or dislike them. But ‘dhandha’ has to continue. As some local lad tells Soofi, ‘Duniya khatam ho jayegi/Chudai nahin hogi…‘ I am reminded of some woman from a kotha telling me, ‘Dilli mein khudai aur chudai hamesha chalti rahegi.’ I was volunteering at GB Road at that time and had asked her if this profession would end forever in future.

Mayank Austen Soofi is a flaneur. But it is not that easy to get into a brothel to record stories or just hang around with those people. Sabir Bhai’s kotha becomes familiar for the author because he invests time and trust. In return, he also gets them. He is not that welcome elsewhere, but through those brief encounters he brings out a vivid landscape of GB Road.

At times, his humour is brilliant. Smith tells about his adventures in GB Road that out of 45 women in his life, 20 were from GB Road. Soofi writes, ‘I pour more beer into Smith’s mug.’ After another episode, he orders another bottle. Through a vast collage of simple and focused conversations, we get into GB Road from almost every angle. Perhaps, the customer is only one not participating in the conversation.

Read this book. It will open a window to that area which you perhaps never know. It tells us that those women, maliks, pimps, wards are human beings with simple desires and wants. The book also shows a mirror to the ‘civilization’ or the ‘society’. Sabir Bhai is collecting all those news clips that report about the sex trade and raids in various parts of the city.




Soofi notes, ‘Gone are the days when a city needed to have a separate red light district. Massage parlours, beauty salons and friendship clubs offering sex on the pretext of other services have opened across Delhi. The red light has gone out into the city. GB Road has been left behind.’ The internet revolution is full on. We have numerous dating sites along with social media where singles and married men and women are openly seeking and offering sex, at times on the pretext of ‘love’.

How long Sushmas of the GB Road will get customers? Will this place also be a past like Chawri Bazar soon?

Review: Nobody Can Love You More: Life in Delhi’s Red Light District / Mayank Austen Soofi / Penguin / 2012

By: Prakash K Ray, Writer/Journalist
Email: pkray11@gmail.com





(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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