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री-लोड कीजिये क्रांति — शुऐब शाहिद


री-लोड कीजिये क्रांति — शुऐब शाहिद



वरना देशद्रोही कहलायेगा

— शुऐब शाहिद

मैं अक्सर सोचता हूँ कि आखिर वो क्या कारण रहे होंगे, जिनको, हमने ग़ुलामी करार दिया। और ग़ुलामी भी ऐसी कि जिसके खिलाफ पूरा देश खड़ा हो गया, और क़ुर्बान होने दिए अपने लाखों नौजवानों को। क़ुरबानी ऐसी, कि जिसमें इज़्ज़त, दौलत और जानें तक शामिल थीं। कितने भयावह होंगे वो हालात, जिसके ख़िलाफ़ हमने 90 साल तक जंग लड़ी। और जंग भी ऐसी कि जिसको ज़माना याद रखे।



इसमें कोई शक़ नहीं है मैंने और आपने बचपन से जो तारीख पढ़ी है वो पूरी तरह तो सच नहीं है। ना हमारी तारीख पूरी तरह सच है, ना सरहद के उस पार पढ़ायी जाने वाली तारीख़ और ना ही उस अँगरेज़ कौम की किताबें पूरा सच बताती हैं, जिसको हम हारी हुई कौम समझते आये हैं। दरअसल अपनी अपनी कौमियत (राष्ट्रीयता) के मुताबिक हीरो बनाये गए। हीरो में संसार की सम्पूर्ण खूबियाँ जमा की गयीं और विलेन संसार के सबसे दुश्प्रजाति से सम्बन्ध रखने वाले लोग थे।

इस अधूरी सच्चाई वाली तारीख की बुनियाद पर भी मैं ग़ुलामी के ऐसे कारण नहीं देखता कि जहाँ किसी अँगरेज़ ने किसी हिंदुस्तानी को बिना किसी भी बहाने के सिर्फ इसलिए मार दिया हो कि उसकी रसोई में कोई 'राष्ट्रद्रोही खाना' रखा था। 

आज़ादी के बाद का भारत, और ख़ास तौर पिछले दो-एक साल से जो कुछ देख रहा हूँ ये सब मुझे उससे कहीं ज़्यादा भयावह महसूस होता है। यूनिवर्सिटियों में छात्र सुरक्षित नहीं। जेल में अंडरट्रायल कैदी महफूज़ नहीं। डंके की चोट पर, सरकारी तंत्र के साथ मिल कर एक धर्म विशेष के प्रसिद्ध धर्मस्थल को तोड़ दिया जाता है। साम्प्रदायिक दंगे के नाम पर सरकारी तौर पर एक खास धर्म के लोगों का क़त्ल-ए-आम जायज़ हो जाता है। देशभक्ति के नाम पर पत्रकारों को, वकीलों को, कलाकारों को और अन्य समाज के प्रतिष्ठित वर्ग को सताना, पीटना तथा उन्हें क़त्ल कर देना एक राष्ट्रवाद का पैमाना बना दिया जाता है। किसानों और सैनिकों का अपमान, शोषण और उनका क़त्ल/आत्महत्या महज़ एक मामूली आंकड़ा बन कर रह जाती है।
shoeb shahid

कोई आम आदमी नहीं बोलेगा। कोई छात्र नहीं बोलेगा, वरना देशद्रोही कहलायेगा। कोई साहित्यकार, पत्रकार यहाँ तक के किसी राज्य का मुख्यमन्त्री भी नहीं बोलेगा। और जो कोई बोलेगा तो जवाब में बस एक शब्द काफी है 'देशद्रोही'। कोई फिल्मकार, फिल्म नहीं बनाएगा जब तक राष्ट्र भक्ति का सर्टिफिकेट ना ले ले। कुछ फिल्मकारों ने तो ये सर्टिफिकेट खरीद लिया। कुछ को शायद पीट कर राष्ट्रवादी बनाने गई थी 'करणी सेना'।

किसी सरकारी विभाग को अपनी भूल और जुर्म स्वीकारने की आवश्यकता नहीं, बस बुलन्द आवाज़ से कहिये कि 'ये काम पाकिस्तान ने किया है, या उस धर्म विशेष के नौजवानों (मुसलमानों) ने', कि जिनके लिए ना कोई मानव अधिकार हैं और ना किसी की हमदर्दी

हज़ारों बातें हैं, जो ये आधी सच्ची तारिख ने भी कभी नहीं बतायी....

यदि उन महापुरुषों की जँग जायज़ थी। तो उससे भी कहीं ज़्यादा ग़ुलाम हम आज हैं। और उससे भी बड़ी जँग आज लड़ने की ज़रूरत है।

जँग, इस फासीवाद से।

और कन्हैया का ये कहना बिलकुल ठीक है - 'भारत से आज़ादी नहीं, भारत में आज़ादी।

देश के नौजवानों, एक बार फिर वक़्त के बिगुल की आवाज़ सुनो, और पूरा करो उस ख्वाब को, कि जिसको देखा था, तुम्हारे ही जैसे उन नौजवानों ने, जिनके नसीब में सिर्फ क़ैदख़ाने और फाँसी के फन्दे ही आ सके। तुम्हारी जँग फासीवाद के खिलाफ थी, जो आज भी सीना ताने तुम्हारे सामने खड़ा है।

क्रान्तिकारी अभिवादन सहित

- शुऐब शाहिद
Shoeb Shahid is a young artist, activist from Bulandshahr

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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क़मर वहीद नक़वी: माल्दा एक सवाल है मुसलमानों के लिए




क़मर वहीद नक़वी: माल्दा एक सवाल है मुसलमानों के लिए #शब्दांकन

माल्दा, मुसलमान और कुछ सवाल!

- क़मर वहीद नक़वी


माल्दा एक सवाल है मुसलमानों के लिए! बेहद गम्भीर और बड़ा सवाल. सवाल के भीतर कई और सवालों के पेंच हैं, उलझे-गुलझे-अनसुलझे. और माल्दा अकेला सवाल नहीं है. हाल-फ़िलहाल में कई ऐसी घटनाएँ हुईं, जो इसी सवाल या इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द हैं. इनमें बहुत-से सवाल बहुत पुराने हैं. कुछ नये भी हैं. कुछ जिहादी आतंकवाद और देश में चल रही सहिष्णुता-असहिष्णुता की बहस से भी उठे हैं.

Malda Riots: Isn't a case of Intolerance by Indian Muslims?
मुसलमानों के विरोध-प्रदर्शन का क्या तुक था?
सवाल पूछा जा रहा है कि माल्दा में जो हुआ, क्या वह मुसलमानों की असहिष्णुता नहीं है? क्या कमलेश तिवारी नाम के किसी एक नेता के बयान पर इतना हंगामा करने का कोई तुक था कि उसके ख़िलाफ़ माल्दा समेत देश के कई हिस्सों में आगबबूला प्रदर्शन किये जायें? ख़ास कर तब, जबकि कमलेश तिवारी के ख़िलाफ़ क़ानून तुरन्त अपना काम कर चुका है, ख़ास कर तब जबकि हिन्दू महासभा जैसा संगठन तक भी उसकी निन्दा कर चुका है. इसके बाद और क्या चाहिए था? घटना इतनी पुरानी हो चुकी. अब क्यों प्रदर्शन? अब क्यों ऐसा बेवजह ग़ुस्सा? अब क्यों ऐसी उन्मादी हिंसा? सवाल बिलकुल जायज़ हैं. और चाहे जो कह लीजिए, इन सवालों का कोई जवाब समझ में नहीं आता!

माल्दा के पहले केरल की घटनाएँ
माल्दा के कुछ दिन पहले केरल से ख़बर आयी थी एक मुसलिम वीडियोग्राफ़र का स्टूडियो जला देने की. उसकी ग़लती बस इतनी थी कि उसने व्हाट्सएप पर यह सुझाव दिया था कि मुसलिम औरतों को बुर्क़े या हिजाब का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. उसके पहले केरल में ही एक महिला पत्रकार वीपी रजीना के इस ख़ुलासे पर उन्हें गन्दी-गन्दी गालियाँ दी गयीं कि केरल के एक मदरसे में बच्चों का यौन शोषण होता था. इन दोनों मामलों पर भी जो हंगामा हुआ, वह क्यों होना चाहिए था, यह सवाल आज मुसलमानों को अपने आप से पूछना चाहिए! क्यों मुसलमान यह सुझाव तक भी नहीं बर्दाश्त कर सकते कि बुर्का या हिजाब न पहना जाये? सुझाव देने वाले ने इसलाम की क्या तौहीन कर दी? क्या ईश निन्दा की? मुसलमानों के ख़िलाफ़ क्या टिप्पणी कर दी? बस एक सुझाव ही तो दिया था!
क़मर वहीद नक़वी: माल्दा एक सवाल है मुसलमानों के लिए #शब्दांकन

रजीना की ग़लती क्या थी?
इसी तरह रजीना की ग़लती क्या थी? उसने एक मदरसे में हुई कुछ घटनाओं का ख़ुलासा इस उम्मीद में किया था कि शायद मामले की जाँच हो, शायद दोषियों की पहचान कर उन्हें सज़ा दी जाये, ऐसे क़दम उठाये जायें ताकि भविष्य में वैसी घटनाओं को रोका जा सके, मदरसों के संचालक इसका ध्यान रखें. इसमें क्या ग़लत था? क्या इसलाम विरोधी था? किस बात के लिए रजीना के ख़िलाफ़ गाली अभियान चलाया गया?

क्या इसलाम का मतलब असहिष्णु होना है?
हाल-फ़िलहाल की इन तीनों घटनाओं पर मुसलमानों की ऐसी प्रतिक्रिया का कोई जायज़ आधार नहीं था. कोई तर्क नहीं था. कोई तुक नहीं था. क्या यह मुसलमानों के लिए सोचनेवाली बात नहीं है कि किसी का एक सुझाव देना भी उन्हें क्यों बर्दाश्त नहीं है, किसी का किसी अपराध को उजागर करना उन्हें क्यों बर्दाश्त नहीं है? इससे बड़ी असहिष्णुता और क्या होगी? क्या इसलाम का मतलब इतना असहिष्णु होना है? क़तई नहीं.

Why Indian Muslims didn't change with time?
उम्मीद थी कि वक़्त के साथ, पढ़ने-लिखने के साथ और एक उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहने के अनुभवों के साथ मुसलमान कुछ सीखेंगे, कुछ बदलेंगे और कठमुल्लेपन की कुछ ज़ंजीरें तो टूटेंगी ही. हालाँकि ऐसा नहीं है कि बदलाव बिलकुल नहीं आया है. आया है और वह सोशल मीडिया पर दिखता भी है. वरना आज से तीस साल पहले 1985 में जब शाहबानो मसले पर मैंने मुसलिम कठमुल्लेपन और पर्सनल लॉ के ख़िलाफ़ लिखा था, तब शायद मेरी राय से सहमत होने वाले इक्का-दुक्का ही मुसलमान रहे हों या हो सकता है बिलकुल ही न रहे हों. यह पता लगा पाना तब मुमकिन नहीं था क्योंकि तब सोशल मीडिया नहीं था. लेकिन आज काफ़ी भारतीय मुसलमान (Indian Muslims) ऐसे हैं, जो सोशल मीडिया पर खुल कर यह लिख रहे हैं कि मुसलिम समाज को किस तरह अपनी सोच बदलनी चाहिए, धर्म की जकड़न और कट्टरपंथ से बाहर निकलना चाहिए, वोट बैंक के रूप में दुहे जाने और थोथे भावनात्मक मुद्दों के बजाय शिक्षा, विकास और तरक़्क़ी के बुनियादी सवालों पर ध्यान देना चाहिए और आधुनिक बोध से चीज़ों को देखने की आदत डालनी चाहिए.

Religious Fundamentalism and Indian Muslims
लेकिन इस हलके से बदलाव के बावजूद भारतीय मुसलिम समाज (Indian Muslim Society) का बहुत बड़ा हिस्सा अब भी कूढ़मग़ज़ है और सुधारवादी कोशिशों में उसका कोई विश्वास नहीं है. वरना ऐसा क्यों होता कि बलात्कार की शिकार इमराना (Imrana Rape Case) और दो पतियों के भँवर के बीच फँसी गुड़िया (The queer case of Gudia, Taufiq and Arif) के मामले में शरीअत के नाम पर इक्कीसवीं सदी में ऐसे शर्मनाक फ़ैसले होते और देश के मुसलमान चुप बैठे देखते रहते! ऐसे मामलों में मुसलमानों का नेतृत्व कौन करता है, उन्हें राह कौन दिखाता है? ले दे कर मुल्ला-मौलवी या उनका शीर्ष संगठन मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड. राजनीतिक नेतृत्व कभी रहा नहीं. और शहाबुद्दीन, बनातवाला, सुलेमान सैत या ओवैसी सरीखों का जो नेतृत्व यहाँ-वहाँ उभरा भी, धार्मिक पहचान के आधार पर ही उभरा. इसलिए वह मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ही भड़का कर उन्हें हाँकते रहे. रही-सही कसर तथाकथित सेकुलर राजनीति ने पूरी कर दी, जो वोटों की गणित में कट्टरपंथी और पुरातनपंथी कठमुल्ला तत्वों को पालते-पोसते, बढ़ाते रहे और जानते-बूझते हुए उनके अनुदार आग्रहों के आगे दंडवत होते रहे. इसने मुसलमानों के बीच शुरू हुई सारी सुधारवादी कोशिशों का गला घोंट दिया क्योंकि सत्ता हमेशा उनके हाथ मज़बूत करती रही, जो 'इसलाम ख़तरे में है' का नारा लगा-लगा कर मुसलमानों को भी और सत्ता को भी डराते रहे.

धार्मिक पहचान से इतर कुछ नहीं!
इसीलिए मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या (biggest problem of Indian Muslims) यही है कि अपनी धार्मिक पहचान से इतर वह और कुछ देख नहीं पाते. और यही वजह कि मुसलमानों के पास अपने कोई नायक भी नहीं हैं. पिछले दिनों किसी ने सवाल उठाया था कि ए. पी. जे. अब्दुल कलाम को मुसलमान अपना हीरो क्यों नहीं मानते? सवाल पूछनेवाले ने यह ध्यान नहीं दिया कि कलाम के पहले भी मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, डॉ. ज़ाकिर हुसैन या फ़ख़रुद्दीन अली अहमद मुसलमानों के हीरो क्यों नहीं बन सके? और छोड़िए, ज़िन्दगी भर मुसलमानों, बाबरी मसजिद और मुसलिम पर्सनल लॉ के लिए लड़ते रहे सैयद शहाबुद्दीन तक को कोई मुसलमान अपना हीरो नहीं मानता, आज कोई उनका नामलेवा क्यों नहीं है? मुसलमानों का यही मुसलमानों का विचित्र मनोविज्ञान है, जिसे समझे बिना यह समझा ही नहीं जा सकता कि मुसलमान आख़िर इस तरह धर्म के फंदे में क्यों फँसा हुआ है?

असली मुद्दों पर क्यों नहीं आन्दोलित होते मुसलमान?
समस्या की सारी जड़ यहीं है. इसी मुद्दे को लेकर सोशल मीडिया पर कई मुसलिम मित्रों ने ज़ोरदार ढंग से यह सवाल उठाया आख़िर क्यों मुसलमान आज तक कभी अपनी बुनियादी ज़रूरतों पर, आर्थिक मुद्दों पर, सम्मान की ज़िन्दगी जीने को लेकर कभी आन्दोलित नहीं हुआ. जब भी आन्दोलित हुआ तो धर्म के नाम पर. और उसमें भी कभी मुसलमानों ने मुम्बई, गुजरात या कहीं के दंगों की जाँच के लिए, दोषियों को सज़ा दिलाने या बेहतर मुआवज़े की माँग को लेकर कभी आन्दोलन नहीं किया, कभी बड़े-बड़े जुलूस नहीं निकाले. तीस्ता सीतलवाड तो गुजरात के मुसलमानों के लिए लड़ीं, लेकिन मुसलमानों के वे नेता, वे उलेमा कहाँ-कहाँ दंगापीड़ितों को इनसाफ़ दिलाने के लिए लड़े? वे जो हर क़दम पर मुसलमानों को भड़काने के लिए तलवारें भाँजते हैं, वे कभी मुसलमानों की वाजिब लड़ाई के लिए आगे क्यों नहीं आते?

Indian Muslims must ponder on these questions!
जब तक मुसलमान इस सच्चाई को नहीं समझेंगे और अपनी धार्मिक पहचान से हट कर चीज़ों को देखना और समझना नहीं शुरू करेंगे, तब तक उनकी कूढ़मग़ज़ी का कोई इलाज नहीं है. तब तक उन्हें एहसास भी नहीं होगा कि वह आख़िर अपने पिछड़ेपन और ऐसी जकड़ी सोच से क्यों नहीं उबरते? मुसलमानों को सोचना चाहिए और शिद्दत से सोचना चाहिए कि सुधारवादी और प्रगतिशील क़दमों का हमेशा उनके यहाँ विरोध क्यों होता है? तीन तलाक़ जैसी बुराई को आज तक क्यों ख़त्म नहीं किया जा सका? वे शिक्षा में इतने पिछड़े क्यों हैं? धर्म के नाम पर ज़रा-ज़रा सी बातों पर उन्हें क्यों भड़का लिया जाता है? कहीं लड़कियों के फ़ुटबाल खेलने के ख़िलाफ़ फ़तवा क्यों जारी हो जाता है? कोई क्रिसमस पर ईसाइयों को बधाई देने को क्यों 'इसलाम-विरोधी घोषित कर देता है? मुसलमानों को इन सवालों पर सोचना चाहिए और यह भी सोचना चाहिए कि उनके आसपास उनके बारे में लगातार नकारात्मक छवि क्यों बनती जा रही है? और क्या ऐसा होना ठीक है? मुसलमानों को अपने भीतर सुधारों और बदलावों के बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए.


और अन्त में...
Indian Muslims, Negative Image, Media & Social Media
मुसलमानों के ख़िलाफ़ बन रही नकारात्मक छवि के पीछे मुसलमानों का बड़ा हाथ तो है ही, लेकिन यह भी सच है कि बहुत-से झूठे-सच्चे प्रचार अभियान मुसलमानों के ख़िलाफ़ लगातार चलाये जाते हैं, कभी संगठित रूप से और कभी अलग-अलग. उप-राष्ट्रपति हामिद अन्सारी के ख़िलाफ़ सत्तारूढ़ दल के सरपरस्त संगठन की तरफ़ से तीन-तीन बार कैसे बेसिर-पैर के अभियान चलाये गये, यह किसी से छिपा नहीं है. सोशल मीडिया पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ कितना बड़ा गिरोह सक्रिय है, यह बात सबको पता है. लेकिन मीडिया में भी एक तबक़ा बाक़ायदा इस अभियान में जुटा है. अभी हाल में 'न्यू इंडियन एक्सप्रेस' ने एक ख़बर छापी कि कोलकाता के एक मदरसे के हेडमास्टर क़ाज़ी मासूम अख़्तर (Kazi Masum Akhtar) की कठमुल्ला तत्वों ने इसलिए पिटाई कर दी कि वह गणतंत्र दिवस के लिए बच्चों को राष्ट्रगान गाने का अभ्यास करा रहा था, लेकिन मदरसा संचालकों ने इसलिए उसको पीटा कि वे राष्ट्रगान को 'हिन्दुत्ववादी' मानते हैं. इसके बाद यह ख़बर जस की तस कुछ समाचार एजेन्सियों ने जारी की और कई छोटे-बड़े अख़बारों, वेबसाइटों पर छपी, कुछ टीवी चैनलों पर चली, पैनल डिस्कशन भी हो गये. सोशल मीडिया पर ख़ूब बतंगड़ बना. बाद में newslaundry.com ने ख़बर दी कि हेडमास्टर अख़्तर की पिटाई की ख़बर तो सच है, और यह पिटाई कठमुल्लेपन के विरुद्ध उनके प्रगतिशील विचारों के कारण हुई थी, यह भी सच है. लेकिन पिटाई की यह घटना नौ महीने पहले हुई थी और तब से अख़्तर मदरसे आये ही नहीं है. इसलिए इस गणतंत्र दिवस के लिए बच्चों को राष्ट्रगान का अभ्यास कराने का सवाल ही नहीं उठता. मदरसे के एक हिन्दू शिक्षक सुदीप्तो कुमार मंडल के मुताबिक़ वह दस साल से मदरसे में पढ़ा रहे हैं और राष्ट्रगान मदरसे की डायरी में छपा है और हर दिन सुबह की प्रार्थना में गाया जाता है और यह सिलसिला तब से है, जब अख़्तर ने मदरसे की नौकरी शुरू भी नहीं की थी. मदरसे में इस समय सात हिन्दू शिक्षक हैं.

क़मर वहीद नक़वी के ब्लॉग 'राग देश' से साभार
http://raagdesh.com/kamlesh-tiwari-malda-and-indian-muslims/
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The Invisible Wave - Qamar Wahid Naqvi | सेकुलर फ़ेस क्रीम ले लो, दिन में बारम्बार रंग बदलते कुरते ले लो - क़मर वहीद नक़वी

राग देश

.... और देश सोने की चिड़िया बन जायेगा!


- क़मर वहीद नक़वी 


लो जी, अब ख़ुश! लहर आ गयी है! सब जगह लहर बोल रही है. देखो रे देखो, मैं आ गयी! टीवी वाले, अख़बार वाले बता रहे हैं. जैसे मानसून आता है, वैसे ही बता रहे हैं लहर आ रही है. लोग लहरा रहे हैं! भीग-भीग कर झूम रहे हैं! वैसे ही जैसे पब और डिस्कोथिक में लहराते हैं, झूमते हैं. नाचो, गाओ, झूमो! झूम बराबर झूम! न कोई फ़िक्र, न कोई रंज, न कोई ग़म, पूरी रात दुनिया कितनी हसीन होती है! वहाँ भी लहर होती है, यहाँ भी लहर है. वहाँ भी लहर के सिवा कुछ नहीं दिखता, यहाँ भी नहीं दिख रहा है! क्या कीजिएगा? लहर चीज़ ही ऐसी होती है! जब मन लहरा रहा हो, तब की मस्ती के क्या कहने? बदन बिंदास हो तो सब कुछ झकास ही दिखता है! न रोको, न टोको. सुबह होने के पहले कौन सुनना चाहता है होश की बातें? जब रात गुज़रेगी, दिन चढ़ेगा, लहर उतरेगी, तब फिर देखेंगे दुनिया कहाँ, किस हाल में है!



यह हम समस्त भारतवासियों के समस्त पूर्व जन्मों के समस्त पुण्यों का प्रताप है कि ईश्वर ने हमें ऐसी चमत्कारी लहर भेजी है, जो युगों-युगों से चली आ रही हमारी समस्त समस्याओं का एक चुटकी में निराकरण कर देगी, देश सर्वसम्पन्नता की चरम स्थिति को प्राप्त कर लेगा और संघ को अपने 'परम वैभव' के स्वप्न को पाने का मार्ग मिल जायेगा!
          अभी मूड मत ख़राब कीजिए. अभी लहर चढ़ रही है. सब कह रहे हैं. मोदी की लहर है! लहर को आने दो, चढ़ने दो, लहराने दो! जिया लहर लहर लहराये कि मन ललचाये/ गीत कोई गाये रे, सपन मेरे जीवन के मुसकाये/ जिया लहर लहर लहराये!/ पचास के दशक की फ़िल्म 'संसार' का गाना है यह. लगता है जैसे पंडित इन्द्र ने आज ही लिखा हो! या फिर वह इतने बड़े भविष्यदृष्टा थे कि उन्हें पता था कि 63 साल बाद उनके देश के लोग ऐसा लहरायेंगे कि किसी को उनके गाने की याद आ जायेगी! तो जिया लहरा रहा है, मन मौजिया रहा है, दिल गा रहा है, नैनों में सपने तैर रहे हैं, जादूगर सैंया आयेगा, चुटकी बजायेगा, छड़ी घुमायेगा, और देश सोने की चिड़िया बन जायेगा!

          ऐसा नहीं है कि लहर पहले नहीं आयी है. छोटी-बड़ी लहरें पहले भी आती रही हैं. लेकिन ऐसी वाली लहर आज से पहले कभी देखी नहीं गयी थी! वैसे पता नहीं, जब लहर होती है, तो अकसर दिखती नहीं. और जब लहर दिखती है तो अकसर होती नहीं. इस चुनाव के पहले तक तो हमेशा ऐसा ही होता रहा है. और फिर लहरें आयी और गयीं, हुआ तो कुछ नहीं. लहर के पहले भी लोग हाथ मलते रहते थे, लहर के बाद भी लोग हाथ मलते रहे. 1971 में जब चुनाव हो गये, नतीजे आ गये तो पता चला कि यह इन्दिरा लहर थी, इससे ग़रीबी हट जायेगी! ग़रीबी तो हटी नहीं, 1975 में इमर्जेन्सी ज़रूर लग गयी! देश ने नसबन्दी देखी और हर कोने-अतरे देखा काँग्रेस का सुनहरा नारा, ' हम सुनहरे कल की ओर बढ़ रहे हैं.' वह कल ऐसा सुनहरा आया कि 1977 में ख़ुद इन्दिरा ही चुनाव हार गयीं!

          और हाँ, 1977 में कोई 'जनता लहर' थी, जो चुनाव के पहले किसी को कहीं नहीं दिखी थी! जब नतीजे आ गये तो पता चला कि यह जनता के बदले की लहर थी! जनता ने 'बदला' लेने के लिए वोट दिया था! अमित शाह मार्का 'बदला' लेने के लिए नहीं, किसी धर्म-समुदाय के लोगों से बदला लेने के लिए नहीं, बल्कि नसबन्दी और इमर्जेन्सी का बदला लेने के लिए! बदला लिया गया, सरकार बदल गयी! और फिर जब लहर उतर गयी तो दो साल बाद जनता फिर हाथ मल रही थी! जनता पार्टी से हाथ जला चुकी जनता मरती, क्या न करती? 1980 में फिर वह 'इन्दिरा लहर' पर सवार थी. यह लहर सबको दिखी, ख़ूब साफ़-साफ़ दिखी और काँग्रेस ने लोकसभा की 351 सीटें जीत लीं! 1971 की इन्दिरा लहर से महज़ एक सीट कम! प्रचण्ड बहुमत! देश ने फिर ख़ालिस्तान आन्दोलन का वह दौर देखा, जब इन्दिरा पर 'हिन्दू प्रतिक्रियावाद' को उकसाने, पालने-पोसने के आरोप लगे, आपरेशन ब्लूस्टार देखा. जनता जैसे जी रही थी, जीती रही!

          फिर एक बहुत बड़ी लहर आयी 1984 में. लहर क्या, समझिए सुनामी थी. इन्दिरा गाँधी की हत्या के ख़िलाफ़ उमड़ी 'सहानुभूति लहर'. यह लहर दिखी तो सबको, लेकिन सुनामी होगी, जिसमें सब बह जायेगा, ऐसा किसी ने नहीं देखा, सिर्फ़ दिल्ली की एक पत्रिका को छोड़ कर! काँग्रेस ने 415 सीटें जीतीं, न भूतो, न भविष्यति! सरकार बनी. लेकिन हुआ क्या?  शाहबानो मामला हुआ, राम जन्मभूमि का ताला खुला और फिर हुआ 'सरकारी सहमति' से उसका शिलान्यास! बोफ़ोर्स का मामला उछला. बड़ी अफ़रातफ़री मची! और 1989 में फिर एक नयी लहर चली, भ्रष्टाचार हटाओ! राजीव गाँधी हट गये, वी. पी. सिंह आ गये. मंडल हुआ, कमंडल हुआ! भ्रष्टाचार वहीं का वहीं रहा या कुछ और फल-फूल गया!

हर तरह के साफ़े, पगड़ियाँ, लुँगी, धोतियाँ पहन सकती है, बस एक 'गोल टोपी' नहीं पहन सकती! 
          अब इस बार नयी लहर है. पहले की सारी लहरों से बिलकुल अलग! बड़ी लम्बी-चौड़ी लहर बतायी जा रही है! बड़ी चमत्कारी है! जादुई, करिश्माई, दिव्य, भव्य! जोश से ठसाठस भरी बड़ी ठोस लहर है! ठोसों में सबसे ठोस! कर्मठों में सबसे कर्मठ! वीरों में परम वीर! ज्ञानियों में सबसे ज्ञानी! एक चुटकी में इतिहास इधर से उधर! दावा तो भूगोल के बारे में भी कुछ कम नहीं! सारे मसालों से भरपूर! विकास ले लो, सुशासन ले लो, विज्ञापन ले लो, प्रचार ले लो, टेक्नालाजी का टीमटाम ले लो, हुँकार ले लो, ललकार ले लो, फटकार ले लो, हिन्दुत्व ले लो, सेकुलर फ़ेस क्रीम ले लो, दिन में बारम्बार रंग बदलते कुरते ले लो, क्या नहीं है इस लहर में? यह सुपरमैनों की सुपरमैन लहर है? पलक झपकते ही यह दुनिया का कोई भी काम कर दिखा सकती है, हर तरह के साफ़े, पगड़ियाँ, लुँगी, धोतियाँ पहन सकती है, बस एक 'गोल टोपी' नहीं पहन सकती! दुनिया में न आज से पहले ऐसी कोई लहर पैदा हुई, न कभी पैदा होगी. यह हम समस्त भारतवासियों के समस्त पूर्व जन्मों के समस्त पुण्यों का प्रताप है कि ईश्वर ने हमें ऐसी चमत्कारी लहर भेजी है, जो युगों-युगों से चली आ रही हमारी समस्त समस्याओं का एक चुटकी में निराकरण कर देगी, देश सर्वसम्पन्नता की चरम स्थिति को प्राप्त कर लेगा और संघ को अपने 'परम वैभव' के स्वप्न को पाने का मार्ग मिल जायेगा!

          बाक़ी लहरों में नहीं था, लेकिन इस लहर में ज़हर भी है. अमित शाह अपनी 'नो बाल' से उसका एक छोटा-सा नमूना दिखा भी चुके हैं! वैसे अचरज क्या? यह लहर मामूली लहर नहीं. समुद्र मंथन वाली लहर है, जिसमें अमृत भी निकलता है और विष भी! अमृत कौन पियेगा, और विष किसके हिस्से आयेगा, यह लहर ही तय करेगी! लेकिन सवाल है कि क्या सचमुच कहीं कोई लहर है भी या सिर्फ़ लहर बनायी और दिखायी जा रही है? और लहरों से कितनी उम्मीद रखनी चाहिए, यह पहले की लहरें बता ही रही हैं. लहर में लहराने से पहले लहर को थोड़ा ठहर कर देखना और गुनना चाहिए! बहरहाल, अब यह 16 मई को ही तय होगा कि लहर लहरी या नहीं!
(लोकमत समाचार, 19 अप्रैल 2014

क़मर वहीद नक़वी - किसी बलात्कारी से किसी मुसलमान को कोई सहानुभूति नहीं है A Muslim has no sympathy for any Rapist - Qamar Waheed Naqvi

राग देश

किसी बलात्कारी से किसी मुसलमान को कोई सहानुभूति नहीं है

लाल टोपी की काली राजनीति !

क़मर वहीद नक़वी

वोट के लिए बलात्कार भी माफ़! राजनीति के नाबदान में ये राग ग़लीज़ की नयी तान है! वाह मुलायम सिंह जी, वाह! मान गये आपको! आपको बचपन से पहलवानी का शौक़ था, ऐसा सुना था. लेकिन आज पता चला कि आप वाक़ई बड़े उस्ताद पहलवान हैं. ऐसा पछाड़ दाँव मारा आपने कि इमरान मसूद, अमित शाह, आज़म खान, सबके सब फिसड्डी रह गये! बेशर्मी की पतन-ध्वजा आपके हाथों में आ कर महागर्वित है!

          बलात्कार पर फाँसी हो या न हो, यह एक अलग बहस है. आपने कहा कि आप बलात्कार के सिए फाँसी के ख़िलाफ़ हैं. कहिए. इसमें कुछ भी ग़लत नहीं. देश में बहुत-से लोग बलात्कार या किसी भी अपराध में फाँसी दिये जाने के विरुद्ध हैं. लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे आपकी तरह बलात्कार को 'लड़कों की मामूली ग़लती' मानते-समझते हों! आप कहते हैं, "....बेचारे तीन को फाँसी हो गयी, क्या रेप में फाँसी दी जायेगी, लड़के हैं, ग़लती हो जाती है, तीन को अभी फाँसी दे दी गयी मुम्बई में....."

          क्या गैंग-रेप 'ग़लती से' हो जाता है? क्या 'गैंग-रेप' करनेवाले 'बेचारे' हैं? और वही लड़के कई लड़कियों से 'गैंग-रेप' करते हैं, क्या ये बार-बार गैंग-रेप भी 'ग़लती से' ही हो जाता है? क्या बार-बार 'गैंग-रेप' करनेवाले 'बेचारे' हैं? मुम्बई में शक्ति मिल के बलात्कारियों को आप 'बेचारा' समझते हैं तो इससे ज़्यादा घिनौना सोच भला और क्या हो सकता है?

          यह तो हुई आपकी बात की बात. अब बात आपकी बात के पीछे छिपी मंशा की! ये बात आपने कहाँ कही? उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद की एक चुनावी रैली में. आपको लगा कि ऐसा कह कर आप मुसलिम वोटरों को पुचकार लेंगे. मुम्बई के तीन बलात्कारियों में से दो मुसलमान हैं और एक हिन्दू. आपको लगा कि शायद मुसलमानों को कहीं न कहीं यह बात चुभ रही हो कि दो मुसलिम लड़कों को फाँसी होनेवाली है! इसलिए अगर आप उनको 'बेचारा' कहेंगे, तो शायद मुसलिम वोटों की अच्छी फ़सल काट लें! आपने जिस मंशा से यह बात कहीं, वह मंशा तो आपकी बात से भी कहीं ज़्यादा घिनौना है! आप एक बार फिर बेनक़ाब हो गये कि आप मुसलमानों को वाक़ई समझते क्या हैं, आप मुसलमानों को अब तक कैसे चूसते-निचोड़ते रहे हैं, कैसे उन्हें भरमाते- बहकाते हुए रखैल की तरह अब तक उनके साथ खेलते रहे हैं!

किसी बलात्कारी से किसी मुसलमान को कोई सहानुभूति नहीं है और न कभी होगी. किसी आतंकवादी से भी किसी मुसलमान की कोई सहानुभूति नहीं है, बशर्ते कि उसे किसी झूठे केस में फ़र्ज़ी तौर पर फँसाया न गया हो!
          मुलायम जी, बस बहुत हो चुका. राजनीति का यह ग़लीज़ राग बन्द कीजिए. किसी बलात्कारी से किसी मुसलमान को कोई सहानुभूति नहीं है और न कभी होगी. किसी आतंकवादी से भी किसी मुसलमान की कोई सहानुभूति नहीं है, बशर्ते कि उसे किसी झूठे केस में फ़र्ज़ी तौर पर फँसाया न गया हो! मुसलमानों को तकलीफ़ तब होती है जब फ़र्ज़ी मुठभेड़ में इशरत जहाँ जैसों को मार दिया जाता है, जब फ़र्ज़ी कहानियाँ गढ़ कर 'आतंकवादी' पकड़े जाते हैं और बरसों बाद अदालतों में साबित होता है कि पुलिस ने केस बनाने के लिए बिलकुल झूठी कहानी रची थी. ऐसे मामले अब एक-दो नहीं, बल्कि सैकड़ों में हैं. आतंकवाद का पूरी तरह सफ़ाया कीजिए, आतंकवादियों को उनके किये की कड़ी से कड़ी सज़ा दीजिए, लेकिन आग्रह एक ही है कि उनके ख़िलाफ़ आरोप सच्चे हों, सबूत पुख़्ता हों.

          मुसलमान बच्चे पढ़-लिख रहे हैं, लड़के-लड़कियाँ सब तमाम रूढ़ियों की बेड़ियाँ तोड़ कर करियर के आसमान छूने के लिए बेताब हैं, मुसलमानों की नयी पीढ़ी अब वोट बैंक नहीं बने रहना चाहती, वह नहीं चाहती कि राजनीति उन्हें रखैल की तरह भोगे और फेंक दे. मुसलमानों को सिर्फ़ एक चीज़ चाहिए और वह है सुरक्षा और आश्वस्ति का भाव ताकि वह अपना भविष्य सँवार सकें, एक आम हिन्दुस्तानी की तरह जियें!
न मुसलमान वोट बैंक हैं और न कुत्ते के पिल्ले! न बलात्कार 'ग़लती से' होता है और न बलात्कारी 'बेचारे.' लोकतंत्र है. वोट ज़रूरी है. चुनाव देश बनाने के लिए होता है, आग लगाने के लिए नहीं. जिसे देखो, वही वोटर को छाँटो, बाँटो, काटो के खेल में लगा है. नमो के सेनानायक हैं अमित शाह. मुँह में विकास, बग़ल में छुरी. अपमान का बदला लेने का बारूद सुलगा कर चले आये. कौन-सा अपमान और किससे बदला? इमरान मसूद हैं. बोटी काटनेवाला पुराना टेप ख़ुद लीक करा देते हैं! आज़म ख़ान साहब को करगिल से 'अल्लाह-ओ-अकबर' सुनायी देने लगता है. करगिल हुए इतने दिन हो गये. बीस साल बाद अचानक ये सुरसुरी छोड़ी जाती है! और फिर उस्तादों के उस्तादों मुलायम सिंह जी अपना 'अग्निबाण' चलाते हैं! इस सारी अग्निवर्षा का मंच एक ही है - पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जहाँ अभी कुछ महीने पहले ही बड़ा दंगा हुआ था. अब तो आप समझ ही गये होंगे कि दंगा हुआ था या कराया गया गया था? क्योंकि यहाँ न तो मुलायम का ख़ास असर था और न बीजेपी का! दंगों के बाद यहाँ कहानी काफ़ी बदल गयी है!

          ऐसी राजनीति से देश कहाँ पहुँचेगा? यह विकास का कौन-सा माडल है? मुट्ठी भर वोटों के लिए लोगों को उनका मज़हब याद दिला-दिला कर बरगलाया जा रहा है. 'इंडिया फ़र्स्ट' का यही नमूना है क्या? देश ऐसे ही जोड़ने का इरादा है आपका? अजब घनचक्कर है. काम तोड़ने वाले करो और कहो कि हम जोड़ रहे हैं! तोड़ते रहो और कहो कि हम जोड़ रहे हैं! और वह लाल टोपी की काली राजनीति के मसीहा! जिनको बलात्कारी, गैंग-रेपिस्ट भी भोले-भाले, मासूम, बेचारे नज़र आते हैं! कभी सोचा कि ऐसे हादसों के बाद लड़कियों पर क्या बीतती है? लेकिन वह क्यों सोचें लड़कियों के बारे में? लड़कियाँ उनकी वोट बैंक नहीं हैं! लड़कियाँ उनकी नज़र में, उनके समूचे सोच में आज़ाद प्राणी भी नहीं, बल्कि खूँटे से बँधी रेवड़ हैं. वरना बलात्कार पर वह खाप पंचायतों जैसी भाषा न बोलते! कोई हैरानी नहीं कि बलात्कार के मामले में उत्तर प्रदेश देश में मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल के बाद तीसरे नम्बर पर है. वैसे याद आया कि मुलायम जब मुख्यमंत्री थे तो परीक्षाओं में नक़ल रोकनेवाला क़ानून उन्होंने ख़त्म करा दिया था ताकि बच्चे आराम से परीक्षाएँ पास कर सकें. बच्चे परीक्षा तो पास कर रहे हैं, बस पढ़ाई कितनी करते हैं, यह मत पूछिए. अब वह वादा कर रहे हैं कि बलात्कार के ख़िलाफ़ क़ानून का 'दुरुपयोग' रोकेंगे. अब आप अन्दाज़ लगा सकते हैं कि उत्तर प्रदेश में जब-जब उनकी पार्टी का शासन आता है तो गुंडाराज क्यों बढ़ जाता है?

(लोकमत समाचार, 12 अप्रैल 2014)