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उसका बलात्कार हुया था | प्रितपाल कौर के नए उपन्यास 'इश्क़ फ़रामोश' का अंश



उपन्यास अंश: इश्क़ फरामोश 

― प्रितपाल कौर  

प्रितपाल हिंदी में लिखती रहती हैं। इश्क़ फरामोश उनके जल्द बुकस्टाल पर आ रहे उपन्यास का शीर्षक है। बेहिचक कह देने वाली लेखिका के चौथे उपन्यास (एक अंग्रेजी) का यह अंश उपन्यास को पूरा पढ़ने की जिज्ञासा पैदा कर सकता है। 

भरत एस तिवारी


किरण अजीब परिस्थिति का शिकार एक जागरूक पढी लिखी आधुनिक महिला है.  पति को लडके का चाह थी मगर बेटी की पैदाइश पर वह नाखुश है.  इसी के चलते तमाम तरह की दुश्वारियां किरण के जीवन में आती हैं. उधर सोनिया को लेकर रौनक के घर में एक अलग उथल पुथल मची हुई थी. ऐसे हालात से गुजर रहे ये दो कॉलेज के जमाने के प्रेमी जब अचानक वर्षों के बाद मिलते हैं तो क्या हालात बेहतर है पाते हैं?



दिन बीतते गए और बच्ची का नामकरण भी हो गया.  इटावा के आसिफ के पुश्तैनी घर में जा कर ये काम किया गया. हालाँकि वे दो दिन के लिए आसिफ किरण और बच्ची होटल में ही रहे. आसिफ  किरण को एक ही बार अपने घर ले कर गया है. एक तंग गली में मौजूद तीन मंजिला छोटी सी ज़मीन पर बने घर में करीब बारह सदस्य रहते हैं.  जिनके लिए सिर्फ एक बाथरूम है. किरण के परिवार में सिर्फ माँ सुजाता है जो इंग्लैंड में थी और बीमारी की वजह से नहीं आ पाई.
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कनिका ने नाश्ते की प्लेट उसके हाथ में पकड़ा कर अपनी बांग्ला मिश्रित हिंदी में कहा था, " माँ नहीं पीयेगी तो बच्चा दूध कैसे खायेगा?'

उस दिन किरण ने रात तक तीन गिलास भर कर दूध पिया था. रात भर उसका लिबास दूध से लथपथ रहा. नीरू ने हमेशा की तरह रात में दो बार दूध पिया था लेकिन किरण की छाती थी कि जैसे दूध की नदियाँ बहाए जा रही थी. 

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उसके दिन और रात मानो लोहे की एक सड़क बन गए थे. जिन पर वह मज़बूत चमड़े से बने जूते पहने चल रही थी. पैरों में लगातार दर्द होता रहता था जो बढ़-चढ़ कर सीने में रखे एक मासूम से मांस के टुकड़े तक पहुँच जाता. कभी कभी इससे भी ऊपर सर में होने लगता. वह तमाम कोशिश करती कि किसी तरह कोई पुल बन जाए उस घर में मौजूद एक मर्द और औरत के बीच जो इन सारे दर्दों की दवा साबित हो सके. लेकिन कुछ न होता. मर्द अपनी मर्दानगी में जकड़ा था. औरत अपनी बेबसी में. और एक नन्ही सी मासूम जान इन सब के बीच एक खूबसूरत महकते फूल की मानिंद खिलती जा रही थी. किरण को डर लगने लगा था इस फूल के भविष्य को लेकर.

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पिछले कई दिनों से अबोला चल ही रहा था. सोनिया ने अपनी कुछ सहेलियों से सलाह-मशविरा  किया और रौनक पर ये गंभीर आरोप लगा कर पुलिस में अर्जी दाखिल कर दी. ताकि वह दबाव में आ कर सोनिया की घर बदलने की बात मान जाए.

"आप बच्चों से ही पूछ लीजिये. बच्चे तो झूठ नहीं बोलते न."

ये कह कर सोनिया ने अदिति को टहोका मारा. और अहिस्ता से कहा, "बोलो बेटे, जो कहना है न पुलिस अंकल से कह दो. "

"हाँ अंकल. मेरे पापा बहुत गंदे हैं. हमें चॉकलेट नहीं ला कर देते. पिक्चर भी नहीं दिखाई. सन्डे के बाद अभी तक नहीं दिखाई. " अदिति ने कुछ रटा-रटाया और कुछ अपनी तरफ से जोड़ा . कह कर वो अपने पापा की तरफ देख कर जोर से हंस भी पडी.

रौनक भी हंस पडा.  वह भाग कर उसके पास आ गयी और फिर उसकी गोद में गाल से गाल सटा कर बैठ गयी.

सिंह भी हंस पडा, "ठीक कहती हैं मैडम आप. बच्चे कभी झूठ नहीं बोलते."


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किरण की ज़िंदगी एक मुस्तकबिल मशीन बन कर रह गयी है. सुबह उठती है. रात भर की मुश्किलों को घसीट कर ज़ेहन से उतारती है. आसिफ के संसर्ग के आवेशों को दिमाग से, जिस्म से उतार फेंकने में खासी जद्दो जहद अब नहीं करनी पड़ती. इसकी वजह तो कई हैं. मगर ख़ास वजह यही है कि अब उसे इसकी आदत सी हो गयी है.

बिना किसी उत्तेजना के वह पत्नी होने के फ़र्ज़ को अदा करती है. औरत होने की अपनी जिस्मानी हकीकत आसिफ को सिर्फ इस नाते से परोस देती है कि किसी वक़्त वो उसे एक अच्छा इंसान लगा था. ये एहसास हुआ था कि इस इंसान के साथ खुशगवार ज़िंदगी बीतेगी. उस एहसास के साथ जीने की आदत सी हो गयी है किरण को. लेकिन हकीकत ये है कि हर रोज़ यही अच्छा इंसान उसके इस मुगालते को धराशायी कर देता है. कभी अपनी हठधर्मी से तो कभी अपनी वाचाल और आवारा जुबान से.

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वहीं बैठ गयी. कमोड में उल्टी करती हुयी पेट को पूरी तरह खाली करने की कवायद करती रही और सोचने समझने की अपनी शक्ति को बहाल करने में जुटी रही.

किरण को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसकी ज़िन्दगी में क्या हो रहा है और क्यूँ हो रहा है?

उसका बलात्कार हुया था. अपने ही घर में अपने ही पति के द्वारा. और वो जानती थी वो कुछ नहीं  कर सकती. कोई उसकी शिकायत नहीं सुनेगा. सुन भी लेगा तो कोई कुछ नहीं कर सकता.

किरण के इस बलात्कारी के लिए किसी सज़ा का कोई प्रावधान किसी कानून में नहीं है. जबकि वह खुद बिना कोई गुनाह किये बलात्कार की सजा पा चुकी है और शायद ज़िन्दगी भर पायेगी.

 आज की रात उसके मानस पटल से कभी मिटाई नहीं जा सकेगी. आसिफ का वह कुरूप चेहरा हर बार जब भी वह आसिफ को देखेगी उसकी आँखों में उतर आयेगा.

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किरण के हर तरह से एक अच्छी लडकी होने के बावजूद भापाजी ने उससे रौनक की शादी को नकार दिया था, इस शक पर कि वह आधुनिक परिवार की सिंगल माँ की बेटी है, जॉइंट फॅमिली में नहीं निभ पायेगी. मगर खुद जिस लडकी का घर परिवार सब देख-परख कर रौनक की शादी करवाई वो तो पांच साल भी साथ नहीं निभा पायी. अलग होने के लिए जिन हथकंडों का इस्तेमाल किया उसकी तो रौनक ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी. वो तो भापाजी की की साख ऐसी है और पहुँच है तो इज्ज़त बची रह गयी वर्ना आज जेल में बैठा अपनी किस्मत को रो रहा होता.

सोनिया से उसका रिश्ता भी इस दिन के बाद से हिचकोले ही खा रहा है. जब उसके सामने नहीं होती तो उसका ख्याल ही तकलीफ देता है. जी चाहता है कभी मुंह तक न देखे. लेकिन जब सामने आती है तो उसी सोनिया पर प्यार भी आने लगता है. बच्चे सामने होते हैं तो ये प्यार कई गुना बढ़ जाता है. तब दिल कहता है कि एक गलती की माफी दी जा सकती है उसे.
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किसी तरह सोनिया को लेकर ड्राइव कर के घर पहुंचा. उषा ने दरवाज़ा खोला तो सोनिया बेडरूम में दाखिल होते ही बाथरूम की तरफ बढ़ी. रौनक ने उसका हाथ फिर से पकड़ा और बिठा दिया. खुद उसके सामने खडा रहा. आज उसके अंदर  जो उबाल आ रहा था उसे वो झेल नहीं पा रहा था.

"मेरी ये बात आज कान खोल कर सुन लो. मैं पहली बार और आख़िरी बार कह रहा हूँ. तुमसे शादी मैंने भापाजी और माँ के कहने से की थी. तुम मेरी पसंद बाद में बनी. पहले उनकी थी. और अगर इसी तरह बनी रहना चाहती हो तो अपनी ये छोटी-छोटी मक्कारियां तुम्हें छोड़नी होंगीं. और अगर नहीं तो तुम आज़ाद हो. आज ही मैं यहाँ से हमेशा के लिए चला जाता हूँ. बच्चे पहले से ही वहीं हैं. तुम्हें पूरी इज्ज़त के साथ जितना चाहोगी अलिमोनी दे कर तलाक हो जाएगा. उसके बाद तुम आज़ाद हो. लेकिन अगर मेरी पत्नी के तौर पर रहना चाहती हो तो जिस तरह हम सब तुम्हारी इज्ज़त करते हैं और तुम्हारी बातों का मान रखते हैं तुम्हें भी रखना होगा. हम में से किसी की भी बेइज़्ज़ती अब मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा. मैं भापाजी नहीं हूँ. और मेरी सीमा आज टूट गयी है. "

उसका बलात्कार हुया था... 


कितना झुकेगी? कितना दबेगी? नाजायज़ बातों के लिए. मन कडा किया और मुड़ कर स्टडी में आ कर वहां रखे काउच पर लेट गयी. अक्टूबर का आखिरी हफ्ता है. उसके जीवन से बिलकुल अलग मौसम इन दिनों बेहद मेहरबान है.

पंखे के नीचे कुछ ही देर में नींद भी उस पर तारी होने लगी और थोड़ी ठण्ड भी लगने लगी. किरण ने उठ कर शेल्फ पर रखी एक शाल उठाई जो वो इस कमरे में इसलिए भी रखती थी कि कभी काम करते हुए ठण्ड लगे तो ओढ़ी जा सके. ख़ास कर प्रेगनेंसी के दिनों में जब वह अक्सर घर से काम किया करती थी.

शाल ओढ़ कर वह चंद सेकंड में ही नींद में डूब गयी थी. स्टडी का ये काउच खासा लम्बा चौड़ा है. लगभग एक क्वीन साइज़ के बेड जितना.

नींद में ही थी जब उसे अपने स्तनों पर किसी कीड़े के काटने का एहसास हुया. वह चीख कर नींद से उठ गयी. कुछ पल तो उसे समझ ही नहीं आया कि वह कहाँ है और किस हालत में है. उसका पूरा जिस्म किसी भारी सी चीज़ से दबा हुया था.

कुछ सेकंड में उसे याद आया वह स्टडी में काउच पर सो रही थी. फिर उसने देखा उसके काफ्तान के बटन खुले हुए थे और उसके नंगे स्तन काफ्तान से बाहर निकले पड़े थे. फिर उसने देखा कि आसिफ उसके ऊपर लेटा हुआ था.

वो कुछ समझ पाती. कोई प्रतिक्रिया कर पाती, कुछ बोल पाती उससे पहले ही आसिफ उस के एक स्तन को अपने मुंह में ले चुका था. उसे चूसते हुए उसने अपने दूसरे हाथ से उसके दूसरे स्तन को मसलना शुरू कर दिया था. किरण कसमसा कर रह गयी.

एक पल के लिए तो उसे समझ ही नहीं आया कि ये कौन है. वह फिर से चिल्लाने वाली थी कि ख्याल आया कि ये उसका पति है. फिर अगला ख्याल आया कि अगर पति है तो बलात्कार क्यों कर रहा है? क्यूँ नहीं उसके जाग जाने और होश में आने का इंतज़ार कर रहा?

ये बात वो उसे कहने ही वाली थी कि आसिफ ने अपना एक हाथ उसके कफ्तान के निचले सिरे तक पहुंचाया, काफ्तान ऊंचा किया, उसके पेट तक.

तब किरण ने नीचे की तरफ देखा तो मानो उसे सांप सूंघ गया. आसिफ पूरी तरह नग्न हो कर ही वहां आया था. उसके जिस्म पर कोई कपड़ा नहीं था. उसके पीनिस का उभार अपने चरम पर था. नीम अँधेरे में उस इंसान के जिस्म की इस उघडी हुयी सच्चाई को देख कर, जो कि उसका पति था, किरण को बिलकुल भी उत्तेजना महसूस नहीं हुयी.

बल्कि जिस तरह दबे पाँव और ढिठाई से वह उसकी नींद में दाखिल हुया था, किरण को उबकाई आ गयी. उसने खुद को किसी तरह रोका. मगर तब तक किरण का काफ्तान पूरी तरह ऊपर खिसक कर उसके पेट तक कर आ कर वहीं सिमट चुका था.

किरण के मन की हालत से बेखबर आसिफ ने अपना पीनिस किरण की योनी में डाल दिया था. अगले चंद पल किरण के लिए नरक का द्वार साबित हुए थे. आसिफ अपनी बेजा सेक्सुअल ताकत के नशे में डूबा खुद को आनंद में भिगोता जल्दी ही स्खलित हो गया.

शॉक में डूबी उसका चेहरा देखती किरण हैरान रह गयी. ऐसा कुरूप चेहरा उसने अपनी ज़िन्दगी में आज तक नहीं देखा था. वो जानती थी इस चेहरे को वह कभी भूल नहीं पायेगी. इस वक़्त वह भूल गयी थी कि ये इंसान वही इंसान था जो उसे एक वक़्त अच्छा इंसान लगता था.

स्खलित होने के फ़ौरन बाद आसिफ एक झटके के साथ उसे धकियाते हुए उठा था और उसी नग्न अवस्था में अपने बेडरूम की तरफ चला गया था. इस बात से पूरी तरह बेखबर और इस एहसास से रहित कि इस घर में एक नन्ही बच्ची भी थी और एक आया भी.

किरण भी फ़ौरन उठी थी. बाथरूम में जा कर कमोड पर बैठी. खुद को अच्छी तरह धोया. देर तक हैण्ड शावर से पानी की धार से खुद को साफ़-सुथरा करने की कोशिश में लगी रही. उसकी योनी में पानी की धार चुभ रही थी. आँखों से आंसू बह रहे थे. ये मन के दर्द के थे या उस चुभन के, तय नहीं कर पायी.

टॉयलेट रोल से पेपर लिया. जननांगों को सुखाया. मगर गालों पर बहते आंसुओं को नहीं पोंछा. उठी ही थी और काफ्तान नीचे किया ही था कि जो उबकाई अब तक रोक कर रखी थी वह उमड़ कर बाहर निकल आयी.

वहीं बैठ गयी. कमोड में उल्टी करती हुयी पेट को पूरी तरह खाली करने की कवायद करती रही और सोचने समझने की अपनी शक्ति को बहाल करने में जुटी रही.

किरण को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसकी ज़िन्दगी में क्या हो रहा है और क्यूँ हो रहा है?

उसका बलात्कार हुया था. अपने ही घर में अपने ही पति के द्वारा. और वो जानती थी वो कुछ नहीं कर सकती. कोई उसकी शिकायत नहीं सुनेगा. सुन भी लेगा तो कोई कुछ नहीं कर सकता.

किरण के इस बलात्कारी के लिए किसी सज़ा का कोई प्रावधान किसी कानून में नहीं है. जबकि वह खुद बिना कोई गुनाह किये बलात्कार की सजा पा चुकी है और शायद ज़िन्दगी भर पायेगी.

आज की रात उसके मानस पटल से कभी मिटाई नहीं जा सकेगी. आसिफ का वह कुरूप चेहरा हर बार जब भी वह आसिफ को देखेगी उसकी आँखों में उतर आयेगा.

क्या कभी आसिफ के साथ वह अपनी खुशी से सहवास कर पायेगी?

एक बड़ा सा 'ना' उसकी आत्मा से निकला और उसे झिंझोड़ कर उसके जिस्म के आर-पार हो गया.

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कैंपस में टैंक — प्रितपाल कौर | #JNUTankDebate


प्रोफेसर एम. जगदीश कुमार
प्रोफेसर एम. जगदीश कुमार के अनुसार विश्व विद्यालय में एक टैंक रखा जाना चाहिए (फोटो: भरत तिवारी)
सूत्रों के अनुसार यह एक सोची समझी प्रक्रिया का हिस्सा है. उनके अनुसार विश्वविद्यालय में इन दिनों एक अजीब तरह की प्रशासनिक प्रक्रिया चल रही है जिसके तहत सभी तरह के फैसले लिए जा रहे हैं और कई इस तरह के काम किये जा रहे हैं, जिनकी अनुमति विश्व विद्यालय का कानून नहीं देता और जो यहाँ के इतिहास में पहले कभी नहीं हुए हैं.

 जे.एन.यू. बनाम फ़ौजी कैंपस 

— प्रितपाल कौर

दुनिया भर में अपनी शैक्षिक उत्कृष्टता के लिए जाने जाने वाले दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्व विद्यालय यानी जे.एन.यू. के मौजूदा कुलपति प्रोफेसर एम. जगदीश कुमार के अनुसार विश्व विद्यालय में एक टैंक रखा जाना चाहिए ताकि यहाँ के छात्र देश के शहीदों की शहादत को हमेशा याद रख सकें.



इस रविवार विश्व विद्यालय में अठारवें कारगिल दिवस के मौके पर 'वेटरंस इंडिया' ने एक तिरंगा मार्च निकाला. जिसमें लगभग 2000 लोगों ने हिस्सा लिया. मार्च में शहीदों के 23 परिवारों ने भी हिस्सा लिया. मार्च के बाद हुए एक समारोह में कुलपति ने ये मांग केन्द्रीय मंत्रियों के सामने रखी जो उस वक़्त समारोह में मौजूद थे.

कुलपति की इस मांग पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं.

यूनिवर्सिटी के भीतर ही दबे और मुखर सभी तरह के स्वरों में इसके विरोध में आवाज़ उठ रही है. प्रबुद्ध जनों का मानना है कि अपनी इस मांग के ज़रिये कुलपति ने एक नयी तरह की देशभक्ति को हवा देने की शुरुआत की है जिसकी जड़ें फ़ौज के हिंसक रोमांच में बसी हैं.

उनके अनुसार यह एक ऐसी कोशिश है जो यहाँ के छात्रों को राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया से न जोड़ कर, एक ऐसी छद्म राष्ट्र भक्ति की तरफ मोड़ने की क्षमता रखती है, जिसके परिणाम दूरगामी हो सकते हैं. एक ऐसी राष्ट्र भक्ति जिसकी जड़ें सेना, शस्त्र और युद्ध के विनाशकारी रोमांच पर टिकी हैं. उनके अनुसार एक ऐसे शैक्षिक संस्थान में जहाँ बेहद प्रबुद्ध छात्र, काफी कठिन प्रक्रिया से गुज़र कर, दाखिल होते हैं और उनकी अपनी एक विशिष्ट विचार धारा भी होती है, उन पर इस तरह के प्रयोग करना जोखिम भरा भी हो सकता है.

सूत्रों के अनुसार यह एक सोची समझी प्रक्रिया का हिस्सा है. उनके अनुसार विश्वविद्यालय में इन दिनों एक अजीब तरह की प्रशासनिक प्रक्रिया चल रही है जिसके तहत सभी तरह के फैसले लिए जा रहे हैं और कई इस तरह के काम किये जा रहे हैं, जिनकी अनुमति विश्व विद्यालय का कानून नहीं देता और जो यहाँ के इतिहास में पहले कभी नहीं हुए हैं. इस तरह के फैसलों को लागू करने के लिए या तो कानून को धता बता दिया जाता है या फिर कानूनों की व्याख्या इस ढंग से कर ली जाती है कि संदेहास्पद फैसले भी सही मालूम होते हैं.

सूत्रों के अनुसार पिछले वर्ष कुछ वरिष्ठ सेना अधिकारी कुलपति से भेंट के लिए आये थे और उन्हीं के सुझाव पर अमल करते हुए रविवार को केन्द्रीय मंत्रियों से कुलपति ने यूनिवर्सिटी को टैंक मुहैया करवाए जाने की मांग की है.

विश्वविद्यालय की मौजूदा व्यवस्था से निराश कुछ फैकल्टी मेंबर्स का यह भी मानना है की उन्हें आश्चर्य नहीं होगा अगर भविष्य में विश्वविद्यालय परिसर की दीवारों पर राइफल और दूसरे शस्त्र भी सजावट की वस्तु बने हुए नज़र आयें.

उनके अनुसार इकीसवीं सदी में जब पूरा विश्व अब तक हो चुके युद्धों के लिए शर्मसार महसूस करता है. विश्व के विकसित देश उन पर गाहे-बगाहे अपना अफ़सोस जाहिर करते रहते हैं, यहाँ हमारे देश के बेहद महत्वपूर्ण और उत्कृष्ट माने जाने वाले विश्वविद्यालय में एक ऐसी देशभक्ति को परिभाषित किये जाने की मुहिम चल रही है, जिसमें युद्ध और विनाश के प्रतीकों को प्रतिष्ठित किये जाने का प्रावधान है, जो बेहद शर्मनाक है.

कुलपति की ये मांग हो सकता है जल्द ही सरकार और सेना द्वारा पूरी कर दी जाए और जे.एन.यू. के परिसर में किसी विशिष्ट जगह पर छात्रों को एक टैंक रखा हुआ मिले. हो सकता है तब हम और आप जे.एन.यू. के छात्रों की सेल्फी इस टैंक के साथ अपने फेसबुक टाइम लाइन पर देख कर गर्व या शर्म के मिले जुले भावों से भर उठें.

pritpal kaur
Pritpal Kaur is a Sr Journalist and she can be contact at pritpalkaur@gmail.com (Photo (c) Bharat Tiwari)


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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रिटर्न ऑफ़ इंदिरा : संजय गाँधी की बिटिया ? — प्रितपाल कौर #PriyaPalSingh


Priya Pal Singh Indira Gandhi
Left photo of Priya Pal Singh on facebook and right a photo of Indira Gandhi from internet.

Return of India Gandhi 

प्रितपाल कौर ऑन  प्रिया सिंह पॉल

प्रिया सिंह पॉल आजकल चर्चा में हैं। इसकी वजह प्रिया का मधुर भंडारकर की आने वाली फिल्म 'इंदु सरकार' के खिलाफ आवाज उठाना तो है ही, इसके अलावा प्रिया सिंह पॉल का यह भी दावा है कि वे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी की बेटी हैं। 



प्रिया ने यह खुलासा कुछ दिन पूर्व अपनी फेसबुक टाइमलाइन पर भी किया और सोमवार को आयोजित संवाददाता सम्मेलन में भी। जाहिर है देश के राजनीतिक जगत में इस खुलासे की गूंज महसूस की जा सकती है। लेकिन अभी तक आधिकारिक तौर पर प्रिया सिंह के इस दावे पर कोई भी प्रतिक्रिया सार्वजनिक तौर पर सामने नहीं आई है। पक्ष और विपक्ष दोनों ही चुप्पी साधे हैं।

अगर यह चुप्पी सच को नकार ना पाने की मजबूरी के तहत है तो यह सच्चाई, मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य पर, बेहद दिलचस्प मोड ले सकती है। गांधी परिवार का एक और सदस्य जनता के सामने उस वक्त आ खड़ा हो जब कि एक तरह से कांग्रेस की राजनीतिक ताकत अपने निम्नतम स्तर पर है। यह नया मोड एक नई ऊर्जा भी भर सकता है कांग्रेस की डूबती नजर आ रही नैया में और इसके विपरीत यह भी हो सकता है कि यह रहस्य सत्य पाया जाने पर इसी डूबती नैया में पत्थर का काम कर डाले।

pritpal kaur
Pritpal Kaur is Sr Journalist and she can be contact at pritpalkaur@gmail.com (Photo (c) Bharat Tiwari)


और इस चुप्पी का दूसरा बडा कारण यह भी हो सकता है कि प्रिया सिंह का दावा बेसिरपैर की कहानी हो और इस पर प्रतिक्रिया दे कर कोई भी पक्ष इसे तूल ना देना चाहता हो, यानी इस दावे को नजरअंदाज कर के नकार दिया जाए। वैसे इस बात की सम्भावना कम लगती हैं क्योंकि आज के आधुनिक युग में, डीएनए मैचिंग के द्वारा, किसी भी इंसान का किसी भी दूसरे इंसान से रिश्ता मालूम करना बेहद आसान काम है। और खुद प्रिया सिंह ने अपना डीएनए टेस्ट करवाने की पेशकश जगजाहिर की है! संजय गांधी की पुत्री होने के दावे के साथ।

हालांकि खुद प्रिया सिंह को अपनी मां के बारे में जानकारी नहीं है। उनके अनुसार उनकी मां और संजय गांधी के प्रेम संबंध रहे और प्रिया के जन्म के बाद, प्रिया जिसका नाम उस वक्त प्रियदर्शनी रखा गया, की मां को दिल्ली से दूर भेज दिया गया। प्रिया सिंह को पॉल दम्पति को गोद दे कर दिल्ली से दूर परवरिश की गई। 2010 में वह अपने माता पिता की तलाश में दिल्ली आई । तब श्रीमती गुजराल ने संजय गांधी को उनका पिता होना बताया। मां के बारे में प्रिया के अनुसार वह अभी तक अनभिज्ञ हैं।

प्रिया सिंह के जीवन की कहानी किसी ब्लॉक-बस्टर फिल्म की तरह रोमांचक तो है ही इसमें एक बेहद दिलचस्प पन्ना और भी खुल सकता है: अगर वो वाकई संजय गांधी की पुत्री ही पाई जाती हैं तो वे किस राजनीतिक पार्टी में अपना भविष्य चाहेंगी! कारण कि संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी मौजूदा बीजेपी सरकार में मंत्री हैं, पुत्र वरुण गांधी बीजेपी सांसद और उनके बड़े भाई प्रधानमंत्री स्व० राजीव का परिवार — कांग्रेस!

यानी यहां आकर कहानी बेहद दिलचस्प हो जाती है। प्रभावी व्यक्तित्व की धनी और प्रतिभावान प्रिया सिंह पॉल के लिए भविष्य महत्वपूर्ण मगर चुनौती-भरे व्यक्तिगत चुनावों से भरा होने वाला है, बशर्ते कि उनके द्वारा किए गए दावे सच हों।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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प्रितपाल कौर की कहानी 'मर्दानी आँख' | Pritpal Kaur


मर्दानी आँख

 प्रितपाल कौर

 प्रितपाल कौर की कहानी 'मर्दानी आँख' | Pritpal Kaur


हलके गुलाबी रंग के कुरते में गहरे रंग की प्रिन्ट दार पाइपिंग से सजी किनारी वाली कुर्ती उसकी गोरी रंगत पर फब रही थी। उसके चेहरे पर मासूमियत की गुन्जायिश तो कम थी लेकिन चालाकी का दंश अभी उसके दिल को पूरी तरह लपेट नहीं पाया था ये उसकी उथली आँखें और उनमें लगा ऑय लाइनर दोनों बखूबी बयां कर रहे थे।

हाथों और बाजुओं पर हलके हलके छोटे छोटे रोयें साफ़ नज़र आ रहे थे। जिसका अर्थ था अब जल्दी ही वह वैक्सिंग करवाने जायेगी। दरअसल इस वक़्त उसके दिमाग में यही उधेड़बुन चल रही थी। आज मंगलवार था। दफ्तर से निकलते निकलते सात बज जायेंगे। फिर मेट्रो की धक्का मुक्की, उसके बाद आधा घंटा ऑटो में सिकुड़ के बैठना और आस पास बैठे लोगों के पसीने की गंध को झेलना, उनकी नज़रों से बचना और तब जा कर घर का मुंह देखना नसीब होता था।

घर जा कर भी कौन सा चैन था? माँ इंतजार में रहती कि बेटी आये तो खाना परोस कर आराम करे। दिन भर की तकलीफों का चिटठा बयान करे। हमदर्दी की चाह उसमें कूट कूट कर भरी थी, जिसके चलते वह अपनी तकलीफों को कुछ बढ़ा चढ़ा कर बताती भी थी।

पिता अरसे से अपने आप में मस्त ज़िन्दगी बिता रहे थे। न ज्यादा बोलते, न ज्यादा सुनते। जो दिया जाता खा लेते। यहाँ तक कि खाना देर से मिले तो भी शुक्रिया अदा करते कि मिल गया और चुप-चाप खा कर एक कोने में पड़े रहते। अपनी दवा दारू का ख्याल खुद रखते।

माँ को तकलीफ न देने की भरसक कोशिश करते लेकिन माँ को कौन मनाये? माँ कही न कहीं कुछ न कुछ ढूंढ ही लेती और घर में उसके आने और खाना खा लेने के बाद अक्सर एक घमासान छिड़ जाता।



हालाँकि इस घमासान में बाप बेटी बहुत कम हिस्सा लेते लेकिन घमासान भरपूर होता। माँ अकेली ही इसके लगभग सभी किरदार निभा ले जाती। उन्हें ये शिकायत भी रहती कि वह इसमें हिस्सा नहीं लेती थी। बाप ने यो भी ज़िन्दगी भर उनकी इस हसरत को पूरा नहीं किया था अब बेटी भी जा कर बाप के ही पलड़े में बैठ गयी थी। इस पर वह खासा नाराज़ रहती।

घर का माहौल कुल मिला कर बेहद दमघोटू था। कई बार उसका दिल करता कि घर लौटे ही नहीं। पर घर तो लौटना ही था। बुढ़ापे में माँ बाप को कैसे छोड़ देती? कई बार दिल किया शादी ही कर ले। किसी के भी साथ। लेकिन फिर जब लोगों की शादियों के किस्से सुनती थी तो हिम्मत जवाब दे जाती। लगता कि अपने माँ बाप के मिजाज़ का तो पता हैं इन्हीं को क्यूँ न झेल लिया जाए। नया स्यापा क्यूँ पला जाये? देखा जाये तो सिर्फ माँ को ही झेलना होता था। पिता तो खुद को खुद ही झेल लिया करते हैं।

इन सारी उलझनों के बीच जब कभी रास्ते में, मेट्रो में या ऑटो में कोई छेड़खानी कर बैठता या घूरता या फिर और कोई इसलिए उसके साथ बत्तमीजी करता कि वह एक जवान औरत थी, उसका खून उबाल खाने लगते। लगता ज़िन्दगी ऐसी खूंखार क्यूँ है?

अक्सर सोचती कि क्या कोई भगवान् वाकई है कहीं? अगर है तो क्या उसको इस दुनिया का हाल नज़र नहीं आता? फिर सिर को एक झटका दे कर इस ख्याल को बाहर निकाल फेंकती। वजह कि इससे क्या होना है? होना वही है जो हो रहा है।

आज भी यही ख्याल दिमाग में लिए जब मेट्रो स्टेशन पर आ कर खडी हुयी तो उसकी गोरी रंगत पर उसकी गुलाबी कमीज़ कुछ शोख अदा से चमक उठा था। अक्टूबर की डूबती हुयी पीली सोने जैसी धूप उसे दिलकश ढंग से खूबसूरत दिखा रही थी। उसके अलावा आज वह खुश भी थी। दफ्तर में उसकी प्रमोशन को लेकर अटकलें चल रही थी। बात उस तक पहुंच ही गयी थी और दिल जोश से भरा था, आँखों में हमेशा रहने वाली उदासी हलकी हो गयी थी, चेहरे पर मुस्कान की हल्की सी पहचान उभर आयी थी। जिसने उसकी जवान देह को और आकर्षक बना दिया था।

एक ट्रेन उसके स्टेशन के अन्दर आते आते सामने से निकल गयी थी। अब उसे नौ मिनट और इंतजार करना था। अगली ट्रेन के आने का। राजीव चौक के भीड़ भाड़ से भरे अंडरग्राउंड स्टेशन पर वह भी सैंकड़ों दूसरे लोगों की तरह प्लेटफार्म पर खडी हो गयी। अपने आप में गुम। अपने ग़मों। अपनी खुशियों के बियाबान में और दुनिया भर के कोलाहल में डूबी।

थोड़ी देर में उसे एक सुगबुगाता सा एहसास हुआ। लगा उसकी त्वचा को किसी लिजलिजी सी चीज़ ने छू लिया है। एहसास सटीक था लेकिन इतना तीखा नहीं था कि वह हाथ से झटका कर उस लिजलिजी चीज़ को खुद से अलग कर दे। वह लिजलिजी सी चीज़ उसकी त्वचा को बिना छुए भेद रही थी।

उसने उस लिजलिजाहट को अपने बाजुओं पर महसूस किया। फिर वह चीज़ ऊपर खिसकी और धप्प से उसकी क्लीवेज पर आ गिरी। उसने झुक कर अपनी क्लीवेज पर नज़र फेंकी तो वहां सिर्फ उसकी गुलाबी कमीज़ से टकरा कर गिरी ज़रा सी नशीली रोशनी के सिवा कुछ नज़र नहीं आया। लेकिन नज़र हटाते ही फिर उसी लिजलिजी उकताहट ने उसे झटका दिया।

अबकी बार उसने अपनी नज़रों का विस्तार फैलाया तो चोर सामने ही नज़र आ गया। सफ़ेद कमीज़ और नीली जीन्स की मालिक वह एक मर्दानी आँख थी जो उसकी क्लीवेज की बखिया उधेड़ने को आतुर मंद मंद मुस्कुरा रही थी।

उसे ताव आ गया। कठोर आवाज़ में थोडा ज़हर भर कर उसने पूछा, “ हे, हेल्लो। क्या बात है? क्या प्रॉब्लम है?”

“प्रॉब्लम? नो प्रोब्ल्म मैडम। आप को कोई प्रॉब्लम है क्या?” स्वर के साथ साथ मिजाज़ और शख़्सियत सभी कुछ उज्जडता की सीमा पर खड़े थे।

“इधर क्या देख रहे हो?”

“जो आप दिखा रही हो। मैडम। ”

“क्या मतलब है तुम्हारा?” उसकी बेबाकी और ढीठ लहजे से उसके आत्म-सम्मान को कड़ी चोट लगी।

“क्या दिखा रही हूँ?”

" क्लीवेज "

"बत्तमीज़ आदमी। तुम नज़र हटाओ इधर से" उसके तन बदन में आग ही लग गयी मानो।

"क्यूँ हटाऊं?"

"मैं तुम्हारे देखने के लिए नहीं बनी हूँ। "

"तो छिपा के रखो"

"क्या मतलब है तुम्हारा? "

"आप सज धज कर बाहर निकलेंगी, यूँ जगह जगह घूमेंगी तो हम तो देखेंगे ही। "

"यानी? तुम कहना क्या चाहते हो?

"अरे मैडम। मर्दों का काम ही औरतों को निहारना है। अब अगर हम आप को नहीं देखेंगे तो आप को बुरा नहीं लगेगा?"

उसका दिल किया एक कस के चांटा उसको रसीद करे । लेकिन ज़ब्त कर के रह गयी।

"हेल्ल्लो! हम तुम्हारे लिए बाहर नहीं निकलते। हम खुद के लिए बाहर निकलते हैं। अपने काम के लिए । "

"अजी रहने दो। तुम क्यों काम के लिए निकलोगे। सारे काम तो हम मर्द करते हैं। "

अब उसे लगने लगा था कि वार्तालाप उसके और उस बेवकूफ और ढीठ मर्द के बीच नहीं बल्कि उसकी क्लीवेज और उस नामुराद मर्द की अश्लील आँखों के बीच चल रहा था।

"मर्द और काम? कौन सा काम है जो तुम करते हो आज के दौर में? सारे काम तो औरतों के जिम्मे डाल रखे हैं। "

"अरे रहने दो। कौन सा काम है जो मर्द नहीं करते और औरतें करती हैं? चलो तुम गिनाओ। । एक एक कर के। "

"गिनो। नंबर एक... घर कौन संभालता है?"

" निस्संदेह औरतें संभालती हैं। ठीक भी है। घर में रहो और घर संभालो, औरतों। बाहर क्यूँ निकलती हो?"

"निकलना पड़ता है। तुम मर्द लोगों ने इतनी ज़िम्मेदारी हम पर डाल दी है... बिल कौन जमा करवाएगा? बाज़ार कौन करेगा? बच्चों के स्कूल, डॉक्टर, ये कौन करेगा?"

"अजी ये तो बड़े आसान काम हैं। चुटकी में हो जाते हैं। तुम बताओ पैसा कौन कमाता है? मर्द ही न। "

"अच्छा। देखो इनका वहम! पैसा कमाने की ज़िम्मेदारी भी औरतों पर ही डाल दी है तुम नामर्द मर्दों ने। मर्द बनते हो तो औरत को घर बिठा कर ऐश भी करवाओ। "

एक बारगी उसे लगा उसने उस ढीठ शख्स को करारा जवाव दे दिया है। लकिन वह मनहूस कहाँ मानने वाला था। तुनक कर बोला। " अरे छोडो। तुम्हारी ख्वाहिशे ही इतनी ऊंची हैं। हमारी कमाई से तुम्हारा पेट नहीं भरता। "

"तो ज्यादा कमाओ। पहले तो बड़े सब्ज़ बाग़ दिखाते हो। जब कमाने के लिए काम करने की बात आती है। तो पल्ला झाड लेते हो कि हमारे बस का नहीं, खुद कमाओ। जब हमें कमाना खुद है सब खुद करना है तो हम पर धौंस किस बात की जमाते हो?"

अब वह थोडा सहमा सा लगा। समझ गया यह औरत सिर्फ क्लीवेज नहीं। उसके ऊपर और उसके नीचे भी पूरी एक औरत है जो इंसान के भेस में आज आ टकराई है। इस सच से कैसे इनकार करता कि दुनिया में पैसे का ही तो सारा खेल है। कौन सा काम है जो पैसे के बिना होता है। आदमी सो कर उठता है तो पैसे का मीटर घूमने लगता है। जो सोने के दौरान भी घूमता ही रहता है। पैदा होता है तो हॉस्पिटल का बिल और मरता है तो अंतिम संस्कार का बिल।


" अरे यार! हम तुम को चाहते हैं। इसलिए आज़ादी देते हैं। "

"हाँ, हाँ! आजादी देते हो। ताकि हमें जब जी चाहे जहाँ चाहे नोच सको। अपने दिमाग की सोच दुरुस्त करो फिर हम मानेंगे कि तुम कुछ भला करते हो हम औरतों का"

"अजी आप भी क्या बात ले कर बैठ गयीं। हम आप को देख कर आँखें सेंक लेते हैं और आप भले की बात करती हो। भला किसका हुआ है आज तक इस दुनिया में ?"

"तो फिर तुम लोग इस भलमनसाहत की बात क्यूँ करते हो? हिपोक्रेट कहीं के? "उसके स्वर में नफरत स्पष्ट थी।

"लीजिये छोड दी जी बिलकुल। आप ने कहा और हमने छोड़ दी। हम तो पैदायशी निक्कमे, जाहिल, लम्पट और न जाने क्या क्या हैं। " उसकी आँखों में छाई बेशर्म बेहयाई भरी उत्सुकता फिर आ कर उसकी क्लीवेज पर ठहर गयी तो उसका दिल किया एक पटखनी दे डाले उस आदमी के बच्चे को। लेकिन एक नज़र देखा उसका लम्बा क़द और चौड़ा शरीर। फिर एक नज़र डाली अपनी कद काठी पर और मन मसोस कर रह गयी।

साथ ही एक सिहरन सी उसके पूरे तन-बदन में लहरा कर उसे सोच में डाल गयी। क्या सच ही औरतें बदमाश और बुरे मर्दों की तरफ अधिक आकर्षित होती हैं? ऐसा उसने कहीं पढ़ा था। लेकिन यह भी तो पढ़ा था कि औरतें अक्सर मर्द में अपने पिता को ढूढती हैं। क्यूंकि बचपन से ही पिता उनके लिए हीरो होता है। लेकिन खुद उसके पिता में तो कभी उसे कोई हीरो नज़र नहीं आया।

इस वक़्त ये जो बेशर्म सा मर्द सामने बैठा लगातार उसके कपड़ों को अपनी आँखों से चीरता उसकी नग्न देह को निहार रहा था उसके लिए मन में घृणा के साथ एक उत्सुकता क्यूँ पैदा हो रही थी? क्या वो भी एक साधारण सी सिर्फ एक स्त्री देह है जिसे संसर्ग के लिए एक मर्द की ज़रुरत है, जो सिर्फ शारीरिक तौर पर आकर्षक हो? क्या ऐसा इसलिए है कि तेईस साल की परिपक्व उम्र तक उसने खुद को शारीरिक संसर्ग से अलग रखा है? क्या जिस्म की भूख उसे किसी भी हद तक गिरा सकती है?

वह खुद अपने बारे में सोचने लगी। उसने वही बैठे बैठे अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाये और सोचा कि अगर किसी दिन वह इसी बेशर्म और नालायक से दीखते मर्द के साथ हम-बिस्तर होती है तो क्या उसके बाद खुद को आइने में देख पायेगी? और कहीं अगर ऐसे ही किसी मर्द के साथ सिर्फ इस वजह से शादी कर लेती है कि शादी करना उसकी नैतिक और सामाजिक ज़िम्मेदारी है तो फिर उसकी ज़िन्दगी कैसी होगी?

सोचते हुए उसके दिमाग में एक चित्र आया जिसमें एक छोटा सा दम-घोटूं दो कमरे का फ्लैट था। जिसमें बिखरे हुए कपड़ों और बिस्तरों से भरे ऊबड़ खाबड़ बियाबान के बीच उसने खुद को सुबह से ले कर शाम तक रसोई, बाथरूम और बेडरूम में घिसटते देखा और उसके सामने अपनी माँ की सूरत आ गयी।

याद आया घर पहुँच कर माँ का सामना करना है। पिता के बेज़ार चेहरे को देखते हुए नज़रंदाज़ करना है। उसे लगा जैसी ज़िंदगी चल रही है वही ठीक है। उसमें बदलाव लाने की कोशिश में कुछ बेहतरी की उम्मीद नज़र नहीं आती।

उसके स्टेशन के आने की सूचना सुनायी दी तो उसने एक नज़र उस ढीठ बेशर्म की तरफ डाली। वह अब एक और दूसरी क्लीवेज के साथ वार्तालाप में संलग्न था। उसकी उत्सुकता ने उसे उकसाया कि कुछ सुने और अपने विचार सांझा करें । लेकिन समझदारी ने वक्त रहते टोक दिया और वह अपना बैग उठा कर ट्रेन से उतर पडी।

+919811278721

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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इक्कीसवीं सदी और ट्रिपल तलाक़ | Pritpal Kaur on #TripleTalaq issue



इक्कीसवीं सदी और ट्रिपल तलाक़

— प्रितपाल कौर

Pritpal Kaur on triple talaq issue

प्रितपाल कौर

pritpalkaur@gmail.com
+919811278721
देश में एक बार फिर मुसलमानों में प्रचलित ट्रिपल तलाक़ का मुद्दा गरमा उठा है. मसला उच्चतम न्यायालाय में विचाराधीन है. मुद्दे की बारीकी से जांच परख की जा रही है. मामला राष्ट्रीय, स्तरीय और निजी महफिलों में भी गरमागरम बहस का विषय बन गया है.
                                       
राजनेता, समाज विज्ञानी, आम जनता, पत्रकार, महिला संगठन, यहाँ तक कि इस्लामिक धर्मगुरु; सभी इस मुद्दे पर अलग-अलग तरह की राय रखते हैं और पूरे तर्कों के साथ पेश करते हैं. ट्रिपल तलाक़ के बारे में कुछ लोगों की राय जो भी हो, लेकिन मुस्लिम समाज में जिस तरह यह प्रथा प्रचलित है, वह किसी भी तरह से महिलाओं के पक्ष में नज़र नहीं आता.




यह पुरुषवादी, स्त्रीविरोधी तथा दमनकारी प्रथा दुनिया के लगभग उन सभी देशों में प्रचलित हैं जहाँ इस्लाम राष्ट्रीय धर्म है. इसके अलावा भारत में मुस्लिम पसर्नल लॉ के चलते यहाँ का मुस्लिम समाज भी इस बीमारी से ग्रसित है.


मुस्लिम पसर्नल लॉ देश के मुस्लिम समाज को कुछ ऐसी ख़ास रियायतें देता है जो समाज के अन्य वर्गों को उपलब्ध नहीं हैं. जैसे कि कोई भी मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को तीन बार तलाक़ शब्द कह कर उसका पत्नी होने का दर्जा ख़त्म कर सकता है. साथ ही लगभग तीन महीने का उसका खर्चा दे कर उस स्त्री के प्रति अपनी सारी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो सकता है.


इसके अलावा मुस्लिम पसर्नल लॉ मुसलमान मर्दों को एक वक़्त में चार स्त्रियों से शादियाँ करने और चारों पत्निओं को रखने की  इजाज़त देता है. हालाँकि ऐसे किस्से भी सुनने में आते हैं जहाँ ग़ैर  मुस्लिम मर्द भी इस कानून का फायदा उठाने के लिए इस्लाम कबूल करने के बाद पत्नी को तलाक़ दिए बगैर दूसरी शादी कर लेते हैं.


ट्रिपल तलाक़ और बहुविवाह के अलावा एक और कानून जो मुस्लिम पसर्नल लॉ के तहत मुस्लिम समाज को ख़ास रियायत देता है, वह है विरासत कानून. इसके तहत देख के मुसलमान भारतीय संविधान के अनुसार नहीं बल्कि शरियत के अनुसार अपनी सम्पत्ति का बटवारा करते हैं. जो निस्संदेह महिलाओं के पक्ष में नहीं है.



बहुत लम्बे समय से कई संगठन भारत में यूनिफार्म सिविल कोड की मांग करते आये हैं. एक नए सर्वे, जो भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन ने करवाया है, के अनुसार देश की 92% मुस्लिम महिलाएं चाहती हैं कि ट्रिपल तलाक़ की प्रथा को कानूनन ख़त्म कर दिया जाये.  अब अखिल भारतीय मुसलिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड ने उच्चतम न्यायालय से इस मामले में दखल दे कर इसे लागू करवाने की गुज़ारिश की है.


इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार द्वारा देश में महिलाओं की स्थिति की समीक्षा के लिए गठित एक उच्च स्तरीय समिति ने मुस्लिम समाज में प्रचलित मौखिक तौर पर दिए जाने वाले एक पक्ष तलाक़ और पुरुषों द्वारा किये जाने वाले बहुविवाह पर रोक लगाने की सिफारिश की है. लेकिन मुस्लिम संगठन इसे उनके निजी मामलों में दखलंदाज़ी मानते हैं और उनका कहना है कि यह हिन्दुत्व फैलाने की एक साज़िश है.



जब कि मिस्र, सूडान, ईरान, जॉर्डन, सीरिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इराक, लेबोनोन, मोर्रोको जैसे २० से ज्यादा देशों ने शरियत कानूनों में फेर बदल की पहल की है और इन देशों में अब इस तरह  मौखिक रूप से पुरुषों द्वारा दिया जाने वाले तलाक़ के खिलाफ अदालती कार्यवाही की शुरुआत कर दी गयी है.

इक्कीसवीं सदी के इस दौर में जहाँ वैज्ञानिक मंगल गृह पर कॉलोनी बसाने की तैयारी में लगे हैं, हमारे सामने कई सवाल मुंह बाये खड़े हैं.

भारत में आज भी एक समुदाय के पुरुषों को कानूनी तौर पर एक तरफ़ा तलाक़ की इजाज़त क्यूँ है?  क्या हम उन महिलायों के दुःख से अनजान हैं जिन्हें उनके पति ज़रा जरा सी नाराज़गी पर रोज़मर्रा की ज़िंदगी में चलते-फिरते तलाक़ देने की धमकी देते हैं?

मेरा तर्क ये भी है कि अगर भारत के मुस्लिम पुरुषों को एक तरफ़ा तलाक़ देने की और एक से ज्यादा विवाह करने की इजाज़त है, क्यूंकि ऐसा करना शरियत के अनुसार जायज़ है तो फिर उन्हें सामाजिक मसलों के अलावा अपराधिक मामलों में भी शरियत के अनुसार ही दण्डित भी किया जाना चाहिए.  शरियत कानून सिर्फ तलाक़, शादी और विरासत के मामलों में ही क्यूँ लागू हो?

क्यूँ न एक सामानांतर कानून प्रणाली और अदालतें देश की मुस्लिम आबादी के लिए निर्धारित कर दिए जाएँ जो शरियत के अनुसार मुस्लिम अपराधियों की सजा तय करें. शरियत में हर एक अपराध की बेहद सटीक और असरदार सजा निर्धारित की गयी है और यह सजाएं मध्य पूर्व के कई देशों में जहाँ इस्लाम राष्ट्रीय धर्म है,  आज भी दी जाती हैं.

लेकिन हम एक आधुनिक और विश्व के सब से बड़े लोकतंत्र के सभ्य नागरिक किसी भी असभ्य अथवा कठोर न्यायिक प्रणाली के समर्थक नहीं हैं. इसलिए अच्छा होगा कि हम वक़्त रहते संभलें और अलग अलग धर्मों के लिए अलग अलग कानून की व्यवस्था को ख़त्म कर दिया जाये. ताकि यूनिफार्म सिविल कोड देश में लागू हो, जिससे समाज में आज जो तरह तरह के विघटन देखने को मिल रहे हैं. उन पर लगाम लग सके.

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प्रितपाल कौर की कहानी 'पगडंडी' | Kahani by Pritpal Kaur


प्रितपाल कौर, वरिष्ठ पत्रकार और कथाकार, मूलत राजस्थान की रहने वाली। दिल्ली में बीस साल से। नब्बे के दशक में तेजी से कहानी की दुनिया में आईं। स्त्री विमर्श जिस दौर में उभार पर था, आंदोलन तेज था, "हंस" जैसी पत्रिका इस आंदोलन का नेतृत्व कर रही थी, उसी दौरान प्रितपाल उसी धारा की कहानियां खामोशी से लिख रही थीं। हंस में खूब छपीं। उपन्यास लिखा। बीच में कहानियों से विमुख होकर कविता के करीब चली गईं।अब फिर से उनकी वापसी हो रही है।
कहानी की दुनिया में प्रितपाल कौर अपने उसी तेवर के साथ वापस आ रही हैं।
ये वक़्त है उनका स्वागत किये जाने का ... किशोर मन को उकेरती लाजवाब कहानी 'पगडंडी' को पढ़ने का और उन्हें शुभकानाएं देने का।

भरत तिवारी

प्रितपाल कौर की कहानी 'पगडंडी' Kahani by Pritpal Kaur

पगडंडी

प्रितपाल कौर



कस्बे के उच्च-माध्यम वर्गीय इंजीनियर की बेटी उसकी गर्लफ्रेंड मान ली गयी है। अब दोस्तों में उसको लेकर अश्लील फिकरे नहीं कसे जा सकते। न उसकी नित नयी पोशाकों की चर्चा ही की जा सकती है। ग्रुप की अनुपस्थित माननीया सदस्य बन गयी है।




स्कूटर की चाबी पकड़ाते समय उसकी अंगुलिओं के बढ़े हुए सुडोल नाखून उसकी हथेली पर छू गए थे। झटका सा लगा जैसे। सारा बदन झनझना उठा। भीतर तक काँप गया। नीचे झुका उसके चेहरे को देख रहा था... गोरा रंग, घुंघराले चमकते ताज़ा शैम्पू किये महकते बाल, माथे के आस-पास की हल्की पतली लटें चेहरे और आँखों पर झूल झूल जातीं। कानों में नए फैशन की बालियाँ। गले में इमीटेशन गर्नेट्स... गहने तक देखा था कि उसके अंगुलिओं के नाखून उसकी हथेली पर छू गए और वो झनझना उठा था।

"उमंग भैया... देखिये तो क्या हो गया है? कल शाम को स्कूटर स्टार्ट ही नहीं हुआ। अभी कॉलेज जाना है... " नाम के साथ लगा भैया शब्द समझा गया कि आस-पास है। अकेले में नीतू उसे सिर्फ उमंग कहती है और शायद इसी बहाने बहुत कुछ कहना-सुनना हो जाता है। लेकिन फर्स्ट इयर की नीतू और एम्। कॉम। फाइनल के उमंग के बीच ऐसी-वैसी कोई बात नहीं है।

स्कूटर ठीक करवा देना, रात-बेरात सहेली के घर तक ले जाना, वापिस घर ले आना, या फिर कभी कभार कटोरिओं में दोनों घरों में पकने वाली अलग-अलग डिशेस का आदान-प्रदान... हालाँकि मन है कि बहाने ढूंढता रहता है... दोनों घर अगल-बगल में ही हैं... सो बहाने मिल भी जाते हैं।

पिछले महीने मानसून ऐसा बरसा कि पूछिए मत। नीतू के यहाँ छोले भठूरे बने तो उमंग के मम्मी पापा और बहन ने मज़े ले कर खाए। उमंग तो भरी प्लेट ले कर आयी नीतू को देख कर ही अघा गया। कितनी स्मार्ट लग रही थी नीतू! ब्लू जीन्स, लाल सफ़ेद धारीओं वाला टीशर्ट, कानों और गले में सस्ते मोशन के गहने... पर सच... नीतू पहनती है तो कितने कीमती हो जाते हैं। कई फिल्मों के गाने याद आ जाते हैं।




तब वह ऊपर छत के अपने कमरे में चला जाता है। यूँ ही इसे अपना कमरा मानता है।, जब कि घर भर का सारा सामान यहाँ बिखरा पड़ा रहता है। चार चारपाईयां, एक बड़ा सा संदूक, जिसमें सर्दिओं के बिस्तर रजाईयां रखे हैं, गेहूं के दो बड़े ड्रम, लकडियो के टुकड़े, खाली बोरिया, टूटी केन की कुर्सिया, एक पुराना मेज़ और भी जाने क्या -क्या... मम्मी बहुत सफाई पसंद हैं, नीचे घर में हर चीज़ चकाचक मिलेगी, कोई भी चीज़ बेज़रूरत हुयी, मैली-पुरानी हुयी कि घर से बाहर कबाड़ी के पास या फिर यहाँ इस ऊपर वाले कमरे में।

यहीं इस पुरानी मेज़ पर अपने टू इन वन लगा कर फ़िल्मी गाने सुनता वह छत पर टहलने लगता है। दोनों छतों के बीच सिर्फ एक पैसेज है। गाने बजते हैं तो नीतू फ़ौरन समझ जाती है। किसी न किसी बहाने ऊपर आ ही जाती है... कभी हाथ में किताब होती है, कभी नेल पोलिश की शीशी और साथ में छोटी बहन।

उमंग को लगता है नीतू सरीखी लड़किओं का जन्म सिर्फ अपने नाखून, होंठ और बाल सजाने और नित नए कपडे पहनने के लिए ही हुआ है... नीतू के हाथ में किताबें अच्छी लगती हैं... पर नीतू उन्हें पढ़ती भी होगी ऐसा कि दृश्य आँखों के सामने कभी किसी डे-ड्रीम में आज तक नहीं आया...

दोस्तों में कई बार डींगें हांक चुका है। कई बार अपने सपने सुना चुका है। हाथों में हाथ लिए बैठे हैं। आँखों में बातें हुयी हैं। एक बार अकेले में मुलाक़ात भी हुयी। फिर... दोस्तों के झुण्ड की आँखों में भरी अश्लील उत्सुकता को झेल नहीं पाता। ढिठाई से न शर्माने का ढोंग करता, "कुछ नहीं या... र... वो कोई ऐसी वैसी लड़की थोड़े ही है... " अर्थ यही कि मैं कोई ऐसा-वैसा लड़का थोड़े ही हूँ। फिर भी मर्दानगी का इज़हार कैसे हो? घूम-फिर कर बात फिर किसी दोस्त के दुस्साहस की चर्चा सुन कर इधर ही मुड जाती है।

कुल मिला कर अपने छोटे से ग्रुप का हीरो जैसा कुछ बन गया है। कस्बे के उच्च-माध्यम वर्गीय इंजीनियर की बेटी उसकी गर्लफ्रेंड मान ली गयी है। अब दोस्तों में उसको लेकर अश्लील फिकरे नहीं कसे जा सकते। न उसकी नित नयी पोशाकों की चर्चा ही की जा सकती है। ग्रुप की अनुपस्थित माननीया सदस्य बन गयी है।

पिछले दिनों दिवाली पर क्लब में डिनर था। नीतू के पिता की तरह उसके पिता भी इंजीनियर हैं... सो दोनों ही परिवार वहां थे। नीतू तो ग़ज़ब ढा रही थी। खुली बाँहों की बेहद तंग कुर्ती और घुटने से थोड़ी ही नीची घेरदार स्कर्ट... जितनी बार भी लड़किओं के झुण्ड में नाचती-कूदती फिरकी की तरह बार-बार घूमती दिखी... जड़ सा हो गया वह। अब मन करता है कि किसी दिन हाथ पकड़ ले, बांह पकड़ ले... और फिर... तुरंत ही खुद पर झल्ला उठा। वो कोई ऐसी-वैसी लड़की थोड़े ही है।

"उमंग... जा बेटा बाज़ार से जा कर सब्जी फल ले आ... उर्मी को भी साथ ले जाना... " मम्मी की आवाज़ से सोच का सिलसिला टूट गया। नीचे उतरा और उर्मी को ले कर स्कूटर पर रवाना हो गया।

उससे पांच साल छोटी उर्मी इस बार दसवीं का इम्तिहान देगी। पापा की बेहद लाडली... पूरे समय चपर-चपर करती रहती है। "भैया आज नीतू ने नीला सूट पहना था। वो सरिता है न मेरी क्लास में... उसके भैया का मेडिकल कॉलेज में एडमिशन हो गया है... उसके पापा ने दो लाख रुपये डोनेशन दे कर करवाया है... भैया पता है... हमारी कॉलोनी में सब बड़े बड़े लोग रहते हैं... डॉक्टर... इंजीनियर... अफसर... "

दूसरे दिन सो कर उठा तो उर्मी ने समाचार सुनाया कि पड़ोसी परिवार यानी नीतू और उसके मम्मी-पापा आदि रात को एक महीने की छुट्टियाँ मनाने जयपुर चले गए हैं... सुनते ही झटका लगा उसे... सन्न रह गया वह... नीतू उससे बिना मिले ही चली गयी... उर्मी और भी बहुत कुछ बोल रही थी। लेकिन वह तो जैसे कहीं और ही था... सोचे जा रहा था अब वह महीना भर... दिल डूबने लगा...


"चुप कर उर्मी । क्या हर वक़्त चपर-चपर करती रहती है।" भीतर का गुबार हमेशा की तरह आज भी छोटी बहन पर ही निकला। झल्ला गया था वह और उसी धुन में उर्मी को डांट दिया... उसी उर्मी को जिसे वह बहुत स्नेह करता है।

मम्मी सुन कर चौंक गयी... अब उसे डांट पड़नी ही थी। "अरे, क्यूँ डांट रहा है इसे? चल बाज़ार जा और सब्जी ले कर आ... और सुन उर्मी को भी साथ ले कर जा। सुबह सुबह रुला दिया बेचारी को..."मम्मी की बात सुन कर वह चुप रह गया।


दिमाग में चल रही सोच की रफ़्तार से भी तेज़ चल रहा स्कूटर सब्जी मंडी आते ही रुक गया। उर्मी को स्कूटर के पास ही खड़ा छोड़ गया। जब सब्जिओं से भरा थैला उठाये लौट रहा था तो हैरान रह गया... उर्मी अचानक कितनी बड़ी हो गयी है। फ्रॉक पहनने वाली, बात-बात पर ठुनकने वाली, आइस क्रीम और समोसों की लगातार फरमाईश करने वाली उसकी छोटी सी प्यारी सी बहन उर्मी... टाइट टीशर्ट में उसके उभार अब चुलबुली किशोरी को परिभाषित करने लगे थे। उर्मी और नीतू अचानक गड्ड-मड्ड सी हो गयी।

और तभी उसे दिखाई दी आस-पास गुज़रते लोगों की आँखों से भेदती निर्लज्जता और उस ओर से लापरवाह बचपन की खूबसूरत भूल-भुलैया में भटकती उर्मी। जो आकर्षण उसे नीतू की ओर खींचता था वही इस वक़्त नागवार लगने लगा।

कुछ और सामान भी खरीदना था। पर बाज़ार में अब रुके रहना भारी लग रहा था। चारों ओर जैसे लोग इन दोनों को ही घेरे खड़े थे। हर आँख अंगुली उठाये जैसे उर्मी के खूबसूरत चेहरे और जवान होते जिस्म को भेदती दिखाई देने लगी। उर्मी का हर वाक्य हथोडा बना बराबर सर पीटता सा लगा।

घर आया तो सीधा मम्मी पर बरस पड़ा। "ये कैसे पकडे पहन रखे हैं इसने... ज़रा भी शऊर नहीं है... और मम्मी आप भी... कुछ तो ध्यान दिया कीजिये... "

भौंचक्की उर्मी और मुस्कुराती मम्मी को वहीं छोड़... हाथ का थैला डाइनिंग टेबल पर पटक कर छत पर पहुंचा तो मन और भी उचाट हो गया। साथ की छत खाली थी।... रोज़ सूखने वाले कपडे... छत पर पडी रहने वाली एकाध कुर्सी... कुछ भी नहीं था वहां। उधर का बियाबान भूत की तरह उमंग पर हावी होने लगा। मन किया जोर से चिल्ला पड़े... कुछ भी अनाप-शनाप बोलता चला जाये... मन का विद्रोह भीतर ही भीतर समेटे उसी तरह दनदनाता हुआ नीचे उतर आया।

सहमी सी उर्मी तख़्त पर टाँगे सिकोड़े बैठी हुयी थी। एक पल को तो उसके पास रुका फिर वैसे ही तीर की तरह बाहर निकल गया। स्कूटर निकाला... स्टार्ट किया और बाहर निकला भी... पर कहीं जाने का मन नहीं किया। भीतर का खालीपन भरने का कोई उपाय नहीं सूझ पड़ा। नीतू का ख्याल दिमाग को झिंझोड़ रहा था। पार्क का एक चक्कर लगा कर फिर घर लौट आया।

दिमाग ऐंठा जा रहा था। मानो किसी ने तार-तार कर के आपस में उलझा दिया हो। उर्मी की ओर बिना देखे सीधा अपने कमरे में घुस गया। जूते उतारे, कमरे के दोनों कोनों में एक एक उछाला और कुर्सी पर बैठ गया। सारा जिस्म झनझना रहा था। क्या उर्मी बड़ी हो गयी है... इतने भर ने उसे अन्दर तक हिला दिया है? सोचा तो नीतू की कमनीय देह आँखों में कौंध गयी।

उफ्फ... फिर नीतू... क्यूँ चली गयी वह बिना मिले... लेकिन मिल कर जाती भी क्यूँ? क्या रिश्ता है उसका? इस वक़्त सामने होती तो... उमंग घबरा उठा। अपना आप अनजाना लगा उसे... खड़ा हुआ... बाथरूम में जा कर कपडे उतारने लगा तो नज़र सामने लगे आईने पर जा पडी। सिलवटों से भरा माथा, तानी भृकुटी, लाल आँखें, फुंकारते से होंठ... एक ही दिन में मानो दस साल बड़ा हो गया था वह।

नहा कर बहार निकला तो कुछ हल्का सा लगा। खाने की मेज़ पर पापा और उर्मी की चुहल हमेशा की तरह जारी थी। मम्मी ज़रूर उसके मूड को लेकर शंकित सी लगी। पर उनकी सवालिया नज़रों को खूबसूरती से बचा कर निकल भागा। रात को पलकें मूंदी तो नीतू थी और सुबह उठते ही हमेशा की तरह छत पर भागा तो नीतू नहीं थी। नीचे आया तो चाय पकडाती मम्मी ने अनायास ही उलटे हाथ से उसका माथा छू लिया और बिना कुछ बोले रसोई में चली गयी।


"उमंग... तेरे पापा तो सिघत पर जा रहे हैं... नहा धो कर तैयार हो जा... आज तेरे साथ मंदिर चलूंगी।" मम्मी सूती साड़ी पहने किसी देवी प्रतिमा जैसी लग रही थी।

गर्भगृह में सिर झुकाए, आँखें मूंदे, अचानक ईश्वर से कुछ मांगने की इच्छा हुयी। अगरबत्ती के धुंए की खुशबु, पूजा में चढ़ाए गए फूलों की खुशबु के साथ मिल कर उसके वजूद पर उतर आयी। शुद्ध घी के बने पकवानों का भोग भी शायद तभी लगाया गया था। स्निग्ध वातावरण में मन का बिखराव जुड गया। पुजारी की पुष्ट देह, सोलह श्रृगार किये भगवान की प्रतिमा और तुलसी दल को बाएं हाथ पर दाहिना हाथ रख कर स्वीकारता हुआ वह फिर अपने आप में स्थापित हो गया।

क्या मांगना चाहता है वह? सवाल मन की दीवारों से टकरा कर बिखर गया। सुख, समृधि या कुछ और... मन का चोर उथले पानी में बार-बार सर उठा रहा था। नीतू को मांग ले... पर क्यूँ? क्या होगा उसको पा कर? चोर ने फिर ऊपर झांकना चाहा। लेकिन उसे दबा कर प्रसाद ग्रहण कर हाथ जोड़ वहां से हट गया।

"प्रेम शाश्वत है जीवन की तरह। वह प्रेम जो ईश्वर इंसान से करता है... अपनी ही बनाई सृष्टि से करता है... मूल मंत्र तो वही है। शेष सब मिथ्या है। हम सांसारिक जीव मोह को प्रेम समझ लेते हैं और वही प्रेम हमारे लिए घोर पीड़ा का कारण बनता है। हम आत्मा से प्रेम करना सीखें... "

स्वामी जी का प्रवचन जारी था। उमंग बाहर आ कर मंदिर की सीढ़ियों के कोने पर बने चबूतरे पर बैठ गया।

तभी एक छोटा सा दो-अढाई साल का बच्चा दौड़ता हुआ आया और उसे हलके से छू कर खिलखिलाता हुआ भाग गया। चौंक कर उमंग ने देखा। कुछ दूर जा कर वह खड़ा हो गया था। मुड कर उसे देखने लगा तो आँखें चार हुयी। मन की गाँठ पर चढ़ी उदासी की परतें ढह सी पडी। उसकी मुस्कराहट मुखर हुयी तो बच्चा फिर दौड़ कर आया और जितनी दूर से हो सकता था उसे छू कर फिर भाग गया। वहीं जा कर जोर- जोर से खिलखिलाता हुआ उसे देखने लगा। खिलखिलाते समय उसके गले की हर हरकत के साथ उसके पूरा शरीर हिल उठता। एक नन्हा सा जीवन भरपूर आनंद समेटे सामने खड़ा था। अभी-अभी सुना वह शब्द याद आ गया... शाश्वत।

उसे लगा यह बच्चा हमेशा ऐसा ही रहेगा। यूँ ही खिलखिलाता, अजनबियों से रिश्ते बनाता, इसी मंदिर की सीढ़ियों के नीचे की खाली जगह पर आने-जाने वाले लोगों को अपनी पे आकर्षित करता। उसका मन किया इस आनंद को अपने भीतर समेत ले। हाथ के इशारे से उसे बुलाया। प्रत्युतर में वह और भी जोर से खिलखिला उठा और चार क़दम और पीछे जा कर उसकी ओर शरारत से देखता हुआ मुस्कुराने लगा। उड़ने को आतुर पैर, कमर से ऊपर का हिस्सा आगे को झुका हुआ, उसकी आँखों में, उसकी हर भंगिमाँ में चुनौती थी---"आओ, पकड़ लो मुझे।"

तभी अचानक बच्चा पुलक कर बाँहें फैलाता हुआ उसकी तरफ लपका। उमंग जब तक हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ता... "मम्मी, मम्मी" चिल्लाता वह उसकी बगल से फुर्ती से सरक गया। पीछे मुड कर देखा तो वह अपनी मम्मी की गोद में था। उसके गले में दोनों बाहें डाले, होठों से उसके गाल चूमता और शरारत भरी आँखों से उसे देखता हुआ...

उमंग अचानक शर्मा गया। माँ-बेटे के नितांत निजी क्षणों में उसे अपना दखल नागवार लगा। फिर भी हटाते-हटाते नज़र पडी तो आँखों में पहचान उतर आयी।

अरे... यह तो सुनंदा है। कॉलेज में जब गया ही था तो सुनंदा फाइनल में थी और तभी उसी साल उसकी शादी भी हो गयी थी। सलवार-कमीज़ पहनने वाली किशोरी सुनंदा और इस समय गुलाबी साड़ी में लिपटी बेटे को गोद में उठाये खडी माँ सुनंदा...

सुनंदा का तृप्त संतुष्ट अस्तित्व धीरे से भीतर बैठ गया। मातृत्व की गरिमा या पत्नीत्व का अभिमान या फिर दोनों ही... कितनी बड़ी, कितनी भरपूर, कितनी स्थाई उपस्थिति थी उसकी। बुद्धू बना न जाने कितनी देर देखता रहा उसे, सुनंदा ने हे उसे टोका ---"हेलो, उमंग कैसे हो? इस बार तो फाइनल में होगे। कॉलेज का क्या हाल है?"

उसका चुलबुला बेटा अब भी बाई बाजू पर कूल्हे टिकाये उसके गाल से गाल सटाए देखते हुए मुस्कुरा रहा था। वह सुनंदा से बातों में तल्लीन हो गया। चेहरे का तनाव घुलने लगा तो मुस्कराहट खिलखिलाने लगी। जब तक माँ प्रवचन सुन कर बाहर आयी... उमंग अजनबी से मामा बन चुका था।

वापसी में पीछे बैठी मम्मी की साड़ी का आँचल बार-बार उड़ कर आगे आ रहा था। अपने कंधे को छूता कलफ लगा लाल-पीले फूल समेटे वह सूती कपडा उसे पीछे खींच ले गया। जब इसी तरह आँचल खींच खींच कर लगातार माँ से जुड़े रहना चाहता था... जब माँ का किसी और से बात करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था।

शाम फिर नीतू का ख्याल ले आयी थी। लेकिन आज वैसी कसक नहीं थी। न बैचनी ही अधिक थी। उसका चेहरा भी धुंधला सा था और पोलिश किये नाखूनों की हथेली पर टीस भरी चुभन भी धीमी थी। और उसकी अगली शाम वह चुभन बिलकुल नामालूम सी थी।

जाने कितनी ही शामें गुज़र गयी। नीतू अब भी याद आ जाती थी। उसका चेहरा बेहद धुंधला हो गया था। कपड़ों की चुस्त फिटिंग और चटख रंग भी धूमिल पड गए थे। उसके बालों के साथ उडती शैम्पू की मदहोश कर देने वाली खुशबु अब उर्मी की लगातार चपर-चपर में घुल-मिल सी गयी थी। आजकल उर्मी को स्कूटर चलाना सिखा रहा था। और नीतू के पोलिश किये हुए नाखूनों की टीस भरी चुभन तो बिलकुल भूल ही गया था।

आज जब कॉलेज से घर पहुंचा तो भीतर से आती खिलखिलाहट जानी पहचानी लगी। कभी जो दिल उछल पड़ता था आज वैसा ही अपनी रौ में धड़कता शांत वहीं बना रहा। चाल में तेज़ी भी नहीं आयी। कभी पैरों की रफ़्तार चाह कर भी कम नहीं कर पाता था आज उसे चाह कर भी तेज़ नहीं कर पाया।

उर्मी के कमरे के दरवाजे पर चौखट से कोहनी टिकाये खिलखिलाती नीतू की आँखों में आयी चमक का प्रत्युत्तर वैसी ही ललक से नहीं दे सका। जाने क्यूँ आज उमंग नहीं देख सका कि गहरे नीले रंग की स्कर्ट और सफ़ेद कढाई किये कालर की शर्ट पहने नीतू कितनी स्मार्ट लग रही थी। उसकी ताज़ा वैक्स की हुयी गोरी सुडौल टांगें कितनी आकर्षक थी। प्लेटफार्म हील के नए सैण्डिल में उसका फिगर कितना सैक्सी लग रहा था।... उसके नए स्टाइल में कटे बालों की एक लट कैसी खूबसूरती से गिर रही थी।

उसकी ओर स्निग्ध मुस्कराहट भरी हेलो उछाल कर अपने कमरे की तरफ चला गया। लाउन्ज में तख्त पर बैठी नयी साड़ी पर फॉल लगाती माँ ने उसे जाते देखा था। स्थिर कदमों से उनकी ओर पीठ किये चलते बेटे के पैरों में डगमगाहट नहीं थी।

देख रही थी पगडंडी पर चलते, छोटे-मोटे कंकडों की पीड़ा झेलते पांवों से उठती टीस पर उसकी आँखों में उतरते दर्द के भाव। पर आज आश्वस्त हो आयी थी, आज बेटा एक छोटा लड़का नहीं लग रहा था, जिसे माँ के आँचल की ज़रुरत हो। आज एक पुरुष माँ की बगल से गुज़र कर आगे बढ़ गया था। उसकी भंगिमा शांत थी। हर क़दम साधा हुआ था। नज़रें स्थिर और दिमाग पूरे वजूद को स्थिरता के आभास में लपेटता सा।

पगडंडी के आरंभिक छोर पर खडी घने छायादार पेड़ सरीखी माँ ने देखा था डगमगाते पैरों की चाल से स्थाई कदमों का फासला तय करते पगडंडी पर चलते जाते उस इन्सान की ऑंखें दोनों ओर का भरपूर जायजा लेतीं भविष्य को टटोल रही थीं। पगडंडी के किनारों पर खडी थीं, कहीं छोटी-बड़ी फूलों से लदी तो कहीं कांटेदार झाड़ियाँ... नीतू... उर्मी... सुनंदा...

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