
वह अकेली नहीं थी जो पिछले दो बरसों से जीत का सपना अपने दिल में पाल रही थी। सौभाग्य से परमिंदर, सतींद्र और जसविंदर ने भी उसका सपना साझा कर लिया था और वे चारों अपने सपने को साकार करने के लिए जी-जान से जुट गई थीं। चारों ने नेशनल स्टेडियम, दिल्ली में वॉलीबॉल का विधिवत् प्रशिक्षण लेना आरंभ कर दिया था। यूँ तो ज्योति चौधरी स्कूल वॉलीबॉल टीम की भी कप्तान रही थी किंतु कॉलेज स्तर पर मुकाबला कड़ा होता है यह जानती थी वह। कॉलेज के वॉलीबॉल कोर्ट पर हुई जान-पहचान दोस्ती में बदली। दिल्ली यूनिवर्सिटी के खेल-मैदान पर एक के बाद एक मिली हार ने उनके दिलों में जीते के सपने का बीज बो दिया था।
पेज़ १
नेशनल स्टेडियम में मिल रहे प्रशिक्षण से उनका खेल दिन-ब-दिन निखर रहा था। खेल की तकनीक और रणनीति की बारीकियाँ वे बड़े मनोयोग से सीखतीं । परमिंदर और सतीन्द्र का कद लंबा होने के कारण उन्हें आक्रमण, स्मैशिंग का प्रशिक्षण दिया जाने लगा तो ज्योति और जसविन्दर को रक्षा और बूस्टिंग, बॉल बनाने का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। ज्योति और जसविन्दर के हाथों में ५ किलो की चमड़े की गेंद जिसे मैडिसिन बॉल कहा जाता है, थमा दी गई कि उंगलियों से ही उसे उछाला जाए ताकि उंगलियाँ मज़बूत बनें। चारों सहेलियाँ पूरे जतन से हर पीड़ा को भूल कठोर अभ्यास करतीं।समय के साथ आक्रमण में नई धार आ रही थी और रक्षा और भी सुदृढ हो रही थी।
प्रशिक्षण के दौरान लगी हर चोट उन्हें मंज़िल के करीब ले जाती प्रतीत होती। पाँच किलो के वज़न की गेंद ने ज्योति की उंगलियों के जोड़ों को मज़बूत ही नहीं कर दिया था उनकी बनावट भी उसे पुरुष की उंगलियों जैसी लगने लगी। जब वह अपने हाथों को देखती तो वे उसे किसी बॉक्सर के हाथ नज़र आते किंतु क्षणिक निराशा जीत का खयाल आते ही मन में नई ऊर्जा भर देती और उसके इरादे और मज़बूत हो जाते।
सुबह ६:३० बजे चारों सहेलियाँ दक्षिण दिल्ली स्थित अपने कॉलेज के वॉलीबॉल कोर्ट पर मिलतीं और जी-तोड़ अभ्यास करतीं किंतु वॉलीबॉल में चार नहीं छह खिलाड़ी खेलते हैं। वे चारों तो संकल्पबद्ध थीं; किंतु अन्य दो लड़कियाँ खेल को खेल की मस्ती से ही खेलतीं, गंभीरता से नहीं लेतीं जो कि इन चारों के लिए बड़ी चिंता का कारण था। कहते हैं जहाँ चाह होती है वहाँ राह होती है। सौभाग्यवश इस वर्ष ज्योति विद्यार्थी परिषद में चुन ली गई थी अत: कॉलेज की प्राचार्या तक अपनी बात पहुँचाने में उसे किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। टीम की दो खिलाड़ी जो प्रशिक्षण के लिए स्टेडियम नहीं जा पा रही थीं ,उनके लिए प्रशिक्षक की व्यवस्था कॉलेज में ही कर दी गई। अब पूरी टीम सुबह ७ से ९ बजे तक कड़ा अभ्यास करती, अपने लक्ष्य के लिए पसीना बहाती। जैसे-जैसे टूर्नामेण्ट के दिन नज़दीक आते गए उनका संकल्प, उनका अभ्यास और कड़ा होता गया।
आज जब ज्योति चौधरी अपनी टीम को लेकर मैदान पर उतरी तो एक खिलाड़ी की तरह नहीं एक योद्धा की तरह – करो या मरो वाला ज़ज़्बा लिए। लक्ष्य सामने था – मंच पर रखी चमचमाती ट्रॉफ़ी जिस पर उन्हें कब्ज़ा करना था। क्वार्टर-फ़ाइनल , सेमिफ़ाइनल के बाद आज फ़ाइनल मैच था और उनकी प्रतिद्वंद्वी टीम में दो राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी थीं। ज्योति, परमिंदर, सतींद्र और जसविंदर तो उनके साथ पहले भी कई मैच खेल चुकी थीं इसलिए इनके ऊपर कोई दबाव न था किंतु मीता और आशा मैच से पहले ही भारी मानसिक दबाव में आ गई थीं और पहले सैट में एक के बाद एक कई चूक करती गईं। टीम को इन गलतियों की भारी कीमत चुकानी पड़ी । पहला सेट २५-१८ से प्रतिद्वंद्वी टीम की झोली में चला गया। सैट की हार के बाद इन चारों ने आशा और मीता का हौंसला बढ़ाया, उनसे स्वाभाविक खेल खेलने को कहा। प्रशिक्षक का अनुभव भी उन दोनों को मानसिक दबाव से उबारने में कारगर रहा। दूसरे सैट में जब टीम मैदान पर उतरी तो पूरे जोश और रणनीति के साथ। प्रतिद्वंद्वी टीम में अनुराधा सबसे कुशल खिलाड़ी थी बाकी खिलाड़ियों का स्तर सामान्य था। प्रशिक्षक ने उन्हें जीत का मंत्र पकड़ा दिया था – गेंद को अनुराधा की पँहुच से दूर रखो। उनकी रणनीति सफ़ल रही और दूसरा सैट २५-२१ से उनके कब्ज़े में था।
प्रशिक्षण के दौरान लगी हर चोट उन्हें मंज़िल के करीब ले जाती प्रतीत होती। पाँच किलो के वज़न की गेंद ने ज्योति की उंगलियों के जोड़ों को मज़बूत ही नहीं कर दिया था उनकी बनावट भी उसे पुरुष की उंगलियों जैसी लगने लगी। जब वह अपने हाथों को देखती तो वे उसे किसी बॉक्सर के हाथ नज़र आते किंतु क्षणिक निराशा जीत का खयाल आते ही मन में नई ऊर्जा भर देती और उसके इरादे और मज़बूत हो जाते।
सुबह ६:३० बजे चारों सहेलियाँ दक्षिण दिल्ली स्थित अपने कॉलेज के वॉलीबॉल कोर्ट पर मिलतीं और जी-तोड़ अभ्यास करतीं किंतु वॉलीबॉल में चार नहीं छह खिलाड़ी खेलते हैं। वे चारों तो संकल्पबद्ध थीं; किंतु अन्य दो लड़कियाँ खेल को खेल की मस्ती से ही खेलतीं, गंभीरता से नहीं लेतीं जो कि इन चारों के लिए बड़ी चिंता का कारण था। कहते हैं जहाँ चाह होती है वहाँ राह होती है। सौभाग्यवश इस वर्ष ज्योति विद्यार्थी परिषद में चुन ली गई थी अत: कॉलेज की प्राचार्या तक अपनी बात पहुँचाने में उसे किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। टीम की दो खिलाड़ी जो प्रशिक्षण के लिए स्टेडियम नहीं जा पा रही थीं ,उनके लिए प्रशिक्षक की व्यवस्था कॉलेज में ही कर दी गई। अब पूरी टीम सुबह ७ से ९ बजे तक कड़ा अभ्यास करती, अपने लक्ष्य के लिए पसीना बहाती। जैसे-जैसे टूर्नामेण्ट के दिन नज़दीक आते गए उनका संकल्प, उनका अभ्यास और कड़ा होता गया।
आज जब ज्योति चौधरी अपनी टीम को लेकर मैदान पर उतरी तो एक खिलाड़ी की तरह नहीं एक योद्धा की तरह – करो या मरो वाला ज़ज़्बा लिए। लक्ष्य सामने था – मंच पर रखी चमचमाती ट्रॉफ़ी जिस पर उन्हें कब्ज़ा करना था। क्वार्टर-फ़ाइनल , सेमिफ़ाइनल के बाद आज फ़ाइनल मैच था और उनकी प्रतिद्वंद्वी टीम में दो राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी थीं। ज्योति, परमिंदर, सतींद्र और जसविंदर तो उनके साथ पहले भी कई मैच खेल चुकी थीं इसलिए इनके ऊपर कोई दबाव न था किंतु मीता और आशा मैच से पहले ही भारी मानसिक दबाव में आ गई थीं और पहले सैट में एक के बाद एक कई चूक करती गईं। टीम को इन गलतियों की भारी कीमत चुकानी पड़ी । पहला सेट २५-१८ से प्रतिद्वंद्वी टीम की झोली में चला गया। सैट की हार के बाद इन चारों ने आशा और मीता का हौंसला बढ़ाया, उनसे स्वाभाविक खेल खेलने को कहा। प्रशिक्षक का अनुभव भी उन दोनों को मानसिक दबाव से उबारने में कारगर रहा। दूसरे सैट में जब टीम मैदान पर उतरी तो पूरे जोश और रणनीति के साथ। प्रतिद्वंद्वी टीम में अनुराधा सबसे कुशल खिलाड़ी थी बाकी खिलाड़ियों का स्तर सामान्य था। प्रशिक्षक ने उन्हें जीत का मंत्र पकड़ा दिया था – गेंद को अनुराधा की पँहुच से दूर रखो। उनकी रणनीति सफ़ल रही और दूसरा सैट २५-२१ से उनके कब्ज़े में था।
पेज़ २
निर्णायक सैट में दोनों टीमें अपना पूरा दम-खम लगा रही थीं। अनुराधा हर स्मैश में अपनी पूरी ताकत झोंकती किंतु चारों सहेलियाँ फुर्ती से पूरे कोर्ट में बचाव करतीं। अनुराधा की हर रणनीति की काट थी उनके पास। दोनों टीमें अपना सब-कुछ दाँव पर लगाकर खेल रही थी। प्रतिद्वंद्वी टीम तीन बार पिछड़ कर बराबरी पर आ चुकी थी। २३-२३, स्कोर-बोर्ड पर निगाह पड़ते ही दिलों की धड़कनें तेज़ होने लगीं। ज्योति ने टाईम आऊट माँगा और पूरी टीम ने एक वृत्त में खड़े होकर साथी खिलाड़ियों के जोश, ज़ज़्बे और संकल्प को हवा दी और उतर गई मैदान में। गज़ब का संघर्ष था ! परमिंदर की ज़बर्दस्त सर्विस का जवाब अनुराधा ने जानदार स्मैश से दिया ;किंतु ज्योति और परमिंदर ब्लॉक पर तैयार थी और इससे पहले की अनुराधा रिबाउन्ड के लिए सँभलती गेंद उसके पाले में गिर चुकी थी। अब जीत के लिए केवल एक अंक और चाहिए । परमिंदर ने फिर बेहतरीन सर्विस की। इस बार अनुराधा ने नेट के पीछे होकर स्मैश किए। लंबी वॉली चली। ज्योति ने वस्तुस्थिति का जायजा लिया और चतुराई से डोज देते हुए परमिंदर के लिए बॉल ना बना कर विरोधी टीम के पाले में खाली जगह पा गेंद को वहाँ ड्रॉप कर दिया। इसके साथ ही सीटियाँ और तालियाँ बजने लगी और टीम की सभी खिलाड़ी हर्षातिरेक में एक-दूजे से लिपट गईं।
पारितोषिक समारोह के बाद टीम वैन में सवार हो कॉलेज लौटने लगी। अपने घर सर्वोदय एन्कलेव आने के लिए वह आई.एन.ए. मार्केट पर उतर गई थी। डी.टी.सी की खचाखच भरी बस में उसे बमुश्किल पैर रखने की जगह मिली। किंतु हर बात से बेपरवाह वह मैच के हर क्षण को दुबारा जी रही थी। उसका चेहरा जीत की खुशी से अब भी दमक रहा था। उसकी तंद्रा टूटी, जब एक आशिकमिज़ाज़ युवक ने उसे अश्लीलता से स्पर्श करना चाहा। ज्योति ने उस युवक को घूर कर देखा और थोड़ा हट कर खड़े होने के लिए कहा। वह जानती थी कि उस आवारा टाइप युवक पर शायद ही उसकी बात का कोई असर हो, इसलिए वह स्वयं को कठोर शब्दों के लिए तैयार करने लगी । उस दिलफ़ेंक युवक ने जब दुबारा उसे अश्लीलता से स्पर्श करना चाहा तो ज्योति ने उसे धमकी भरे अंदाज़ में कहा, “मुझसे बदतमीज़ी की तो ठीक नहीं होगा।” किंतु उस असभ्य युवक पर उन कठोर शव्दों का भी कोई असर न हुआ बल्कि उसने भीड़ की आड़ लेकर ज्योति के वक्ष को छू लिया। ज्योति ने उसे आग्नेय नेत्रों से देखा।वह मनचला युवक बड़ी ही ढिठाई और बेशर्मी से मुस्कुरा रहा था। ज्योति ने गुस्से से मुट्ठियाँ भींच लीं। तभी एक झटके के साथ ब्रेक लगे और बस युसुफ़ सराय के बस स्टॉप पर रुक गई साथ ही ज्योति के मुँह से चीख निकलते-निकलते रह गई। उस आवारा युवक ने उसके दाएँ उरोज को पूरी ताकत से भींच दिया था। दर्द से ज्यादा वह अपमान से आहत हुई ! यह उसकी आबरू पर हमला था। उसने आव देखा न ताव उस निर्लज्ज युवक की कॉलर पकड़ी और अपनी पूरी ताकत बटोरकर ताबड़तोड़ ४-५ तमाचे उसके मुँह पर जड़ दिए। युवक भौंचक्का रह गया। इस तरह की प्रतिक्रिया की तो उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी ! तब तक बस चल दी। उसने कॉलर छुड़ाकर बस से उतरने की चेष्टा की। किंतु आज ज्योति ने भी ठान लिया था - और अपमान नहीं। बहुत हो चुका। उसने अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने का निर्णय लिया। उसने भागने की चेष्टा करते लड़के की कॉलर पकड़ी और लगभग लटक गई। युवक ने खुद को छुड़ाने की भरपूर कोशिश की। उस उपक्रम में उसकी कमीज़ के २-३ बटन ज़रूर टूटे मगर ज्योति की पकड़ ढीली नहीं पड़ी। युवक का गला घुटने लगा। बस गति पकड़ने ही वाली थी कि वह ज़ोर से चिल्लाया, “बस रोको! मुझे उतरना है।”
पारितोषिक समारोह के बाद टीम वैन में सवार हो कॉलेज लौटने लगी। अपने घर सर्वोदय एन्कलेव आने के लिए वह आई.एन.ए. मार्केट पर उतर गई थी। डी.टी.सी की खचाखच भरी बस में उसे बमुश्किल पैर रखने की जगह मिली। किंतु हर बात से बेपरवाह वह मैच के हर क्षण को दुबारा जी रही थी। उसका चेहरा जीत की खुशी से अब भी दमक रहा था। उसकी तंद्रा टूटी, जब एक आशिकमिज़ाज़ युवक ने उसे अश्लीलता से स्पर्श करना चाहा। ज्योति ने उस युवक को घूर कर देखा और थोड़ा हट कर खड़े होने के लिए कहा। वह जानती थी कि उस आवारा टाइप युवक पर शायद ही उसकी बात का कोई असर हो, इसलिए वह स्वयं को कठोर शब्दों के लिए तैयार करने लगी । उस दिलफ़ेंक युवक ने जब दुबारा उसे अश्लीलता से स्पर्श करना चाहा तो ज्योति ने उसे धमकी भरे अंदाज़ में कहा, “मुझसे बदतमीज़ी की तो ठीक नहीं होगा।” किंतु उस असभ्य युवक पर उन कठोर शव्दों का भी कोई असर न हुआ बल्कि उसने भीड़ की आड़ लेकर ज्योति के वक्ष को छू लिया। ज्योति ने उसे आग्नेय नेत्रों से देखा।वह मनचला युवक बड़ी ही ढिठाई और बेशर्मी से मुस्कुरा रहा था। ज्योति ने गुस्से से मुट्ठियाँ भींच लीं। तभी एक झटके के साथ ब्रेक लगे और बस युसुफ़ सराय के बस स्टॉप पर रुक गई साथ ही ज्योति के मुँह से चीख निकलते-निकलते रह गई। उस आवारा युवक ने उसके दाएँ उरोज को पूरी ताकत से भींच दिया था। दर्द से ज्यादा वह अपमान से आहत हुई ! यह उसकी आबरू पर हमला था। उसने आव देखा न ताव उस निर्लज्ज युवक की कॉलर पकड़ी और अपनी पूरी ताकत बटोरकर ताबड़तोड़ ४-५ तमाचे उसके मुँह पर जड़ दिए। युवक भौंचक्का रह गया। इस तरह की प्रतिक्रिया की तो उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी ! तब तक बस चल दी। उसने कॉलर छुड़ाकर बस से उतरने की चेष्टा की। किंतु आज ज्योति ने भी ठान लिया था - और अपमान नहीं। बहुत हो चुका। उसने अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने का निर्णय लिया। उसने भागने की चेष्टा करते लड़के की कॉलर पकड़ी और लगभग लटक गई। युवक ने खुद को छुड़ाने की भरपूर कोशिश की। उस उपक्रम में उसकी कमीज़ के २-३ बटन ज़रूर टूटे मगर ज्योति की पकड़ ढीली नहीं पड़ी। युवक का गला घुटने लगा। बस गति पकड़ने ही वाली थी कि वह ज़ोर से चिल्लाया, “बस रोको! मुझे उतरना है।”
पेज़ ३
ज्योति ने नफ़रत से युवक को धिक्कारते हुए कहा, “तुम्हें कहाँ उतरना है ,आज मैं बताऊँगी।”
वह ड्राइवर से मुखातिब होकर बोली, “ बस को हौज़खास पुलिस स्टेशन ले चलिए।”
तब तक दो-तीन सह्रदय लोग ज्योति की मदद को आ चुके थे। उन्होंने युवक को घेर लिया था। कुछ बस-यात्रियों ने बस को पुलिस-स्टेशन ले जाने का विरोध किया और ड्राइवर से कहा कि जिस को हौज़खास पुलिस स्टेशन जाना है ,उतार दो और बस को अपने रूट पर चलने दो। ज्योति ने गुस्से और हिकारत से उन बस-यात्रियों की ओर देखा और बोली, “ यदि यह युवक आपकी माँ, बीवी और बहन के साथ अश्लील हरकत करता तो क्या आप अपनी माँ, बीवी और बहन को सड़क पर उतार कर आगे बढ़ जाते?” ज्योति का यह प्रश्न उनके मुँह पर भी सीधा तमाचा था । वे निरुत्तर रह गए ।
बस चालक ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए यात्रियों से कहा, “ भाई लोगो ! जिसनै उतरणा है ,उतर ल्यो बस पुलिस स्टेशन जावगी।” कुछ ने बस से नीचे उतर कर अपनी राह ली और शेष यात्री बस में ही बैठे रहे। बस पुलिस स्टेशन की ओर चल पड़ी। अब युवक का हौंसला पस्त होने लगा। उसने हाथ जोड़ते हुए ज्योति से कहा,” आप मेरी बहन जैसी हैं । मुझसे गलती हो गई। माफ़ कर दो बहन।” किंतु आज ज्योति ने फ़ैसला कर लिया था। वह अपने सम्मान के लिए लड़ेगी। उसे अपमान और हार स्वीकार नहीं, न खेल के मैदान पर और न ज़िंदगी के किसी अन्य क्षेत्र में । अपनी लड़ाई वह स्वयं लड़ेगी ।
युवक गिड़गिड़ाने लगा, “ दीदी ! मैं आपके पैर पड़ता हूँ। आज छोड़ दो फ़िर कभी किसी लड़की के साथ ऐसा नहीं करूँगा” ज्योति उसका चरित्र देख ही चुकी थी । उसके घड़ियाली आँसुओं का उस पर कोई असर नहीं हुआ। आज उसने सोच लिया था ऐसे मनचले, आवारा लड़कों को यह बताना ज़रूरी है कि हर लड़की कमज़ोर नहीं होती। कोई उन्हें भी उनके किए की सज़ा दे सकती है यह डर ऐसे आवारा टाइप लड़कों के मन में होना ही चाहिए। वह अश्लीलता को दंडित अवश्य करेगी।
बस पुलिस स्टेशन पहुँच गई। उसने निर्भीक हो एफ़.आई. आर दर्ज़ करवाई। पूरी घटना का ब्यौरा लिख कर दिया, जिसे पढ़ते ही थानेदार ने हवलदार से कुछ कहा। सिपाही ने युवक को बंदीगृह में डाला और तीन-चार लातें रसीद कर दीं। बूटों की मार से उसके होंठ के पास से खून बहने लगा और वह ज्योति की ओर याचना की दृष्टि से देखने लगा। एक बार तो उसका दिल भी पिघलने को हुआ ;किंतु अब बात दूर जा चुकी थी। वह पुलिस स्टेशन से बाहर आई और तिपहिया पकड़ घर की ओर चल दी।
बस चालक ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए यात्रियों से कहा, “ भाई लोगो ! जिसनै उतरणा है ,उतर ल्यो बस पुलिस स्टेशन जावगी।” कुछ ने बस से नीचे उतर कर अपनी राह ली और शेष यात्री बस में ही बैठे रहे। बस पुलिस स्टेशन की ओर चल पड़ी। अब युवक का हौंसला पस्त होने लगा। उसने हाथ जोड़ते हुए ज्योति से कहा,” आप मेरी बहन जैसी हैं । मुझसे गलती हो गई। माफ़ कर दो बहन।” किंतु आज ज्योति ने फ़ैसला कर लिया था। वह अपने सम्मान के लिए लड़ेगी। उसे अपमान और हार स्वीकार नहीं, न खेल के मैदान पर और न ज़िंदगी के किसी अन्य क्षेत्र में । अपनी लड़ाई वह स्वयं लड़ेगी ।
युवक गिड़गिड़ाने लगा, “ दीदी ! मैं आपके पैर पड़ता हूँ। आज छोड़ दो फ़िर कभी किसी लड़की के साथ ऐसा नहीं करूँगा” ज्योति उसका चरित्र देख ही चुकी थी । उसके घड़ियाली आँसुओं का उस पर कोई असर नहीं हुआ। आज उसने सोच लिया था ऐसे मनचले, आवारा लड़कों को यह बताना ज़रूरी है कि हर लड़की कमज़ोर नहीं होती। कोई उन्हें भी उनके किए की सज़ा दे सकती है यह डर ऐसे आवारा टाइप लड़कों के मन में होना ही चाहिए। वह अश्लीलता को दंडित अवश्य करेगी।
बस पुलिस स्टेशन पहुँच गई। उसने निर्भीक हो एफ़.आई. आर दर्ज़ करवाई। पूरी घटना का ब्यौरा लिख कर दिया, जिसे पढ़ते ही थानेदार ने हवलदार से कुछ कहा। सिपाही ने युवक को बंदीगृह में डाला और तीन-चार लातें रसीद कर दीं। बूटों की मार से उसके होंठ के पास से खून बहने लगा और वह ज्योति की ओर याचना की दृष्टि से देखने लगा। एक बार तो उसका दिल भी पिघलने को हुआ ;किंतु अब बात दूर जा चुकी थी। वह पुलिस स्टेशन से बाहर आई और तिपहिया पकड़ घर की ओर चल दी।
पेज़ ४
इस घटना का समाचार उसके घर पहुँचने से पहले ही पहुँच चुका था। पड़ोस का आठवीं में पढ़ने वाला लड़का भी उसी बस में था ,उसी ने भाभी को पूरा वृत्तांत कह सुनाया था। घर में कदम रखते ही भाभी की फ़टकार शुरू हो गई, “ लड़कियों को मार-पीट करना, थाने जाना शोभा देता है क्या? क्या ज़रूरत थी यह सब करने की? लड़कियों को बहुत-कुछ सहना होता है। किस-किस को जवाब देते फ़िरेंगे कि हमारी लड़की थाने क्यों गई? बात आगे वालों तक पहुँच गई तो वे सगाई तोड़ देंगे। एक तो थाने वाली बदनामी और ऊपर से सगाई टूटने की बदनामी ! कौन शादी करेगा तुमसे? तुम्हें खेलने की आज़ादी इसलिए दी थी कि तुम बसों में मार-पीट करने लगो?”
फ़टकारते-फ़टकारते कर्कशा भाभी की नज़र ज्योति की स्कर्ट पर पड़ी। अब तो वे और भी बरस पड़ीं, “ इस तरह टाँगे दिखाओगी तो कौन नहीं छेड़ेगा? कितनी बार कहा है खेलने के बाद सलवार सूट पहन कर घर आया करो पर तुम्हें कुछ समझ आए तब ना!” ज्योति ने पूछना चाहा कि घुटनों तक लंबी स्कर्ट और स्टॉकिंग में टाँगे कहाँ से नज़र आ रही हैं भला? और जब वह सलवार कमीज़ पहने होती है तो क्या लोलुप आदमियों की कामुक निगाहें उसके वक्ष पर नहीं रेंगतीं? अश्लील नज़रें कमीज़ के अंदर शरीर के भराव को छूने की कोशिश नहीं करतीं?
उसके विचारों की तंद्रा तब टूटी जब बेटे ने पुकारा, “ मॉम ! खाना तैयार हो गया क्या?” सामने दूरदर्शन पर महिलाएँ प्रदर्शन कर रही थीं। हाथों में पोस्टर थे – कपड़े नहीं सोच वदलो। आज अट्ठाईस बरस बाद दुनिया बहुत बदल चुकी है, किंतु नहीं बदली तो सोच ! नहीं बदली तो पुरुषों की मानसिकता, उसकी सामंती सोच जो नारी को केवल जींस, भोग्या मानती है और नारी की आवाज़, उसकी अस्मत को कुचलने के लिए नर पशुता को भी शर्मिंदा कर देता है, बर्बरता की कोई भी सीमा लाँघ सकता है !
आह दामिनी ! आह निर्भया ! तुम नारी ह्रदय में सदियों से धधकती आग की ज्वाला ही तो थी जो पूरे तेज से जली और बुझ गई ! बिजली की तरह कौंधी और काले बादलों में लुप्त हो गई !
फ़टकारते-फ़टकारते कर्कशा भाभी की नज़र ज्योति की स्कर्ट पर पड़ी। अब तो वे और भी बरस पड़ीं, “ इस तरह टाँगे दिखाओगी तो कौन नहीं छेड़ेगा? कितनी बार कहा है खेलने के बाद सलवार सूट पहन कर घर आया करो पर तुम्हें कुछ समझ आए तब ना!” ज्योति ने पूछना चाहा कि घुटनों तक लंबी स्कर्ट और स्टॉकिंग में टाँगे कहाँ से नज़र आ रही हैं भला? और जब वह सलवार कमीज़ पहने होती है तो क्या लोलुप आदमियों की कामुक निगाहें उसके वक्ष पर नहीं रेंगतीं? अश्लील नज़रें कमीज़ के अंदर शरीर के भराव को छूने की कोशिश नहीं करतीं?
उसके विचारों की तंद्रा तब टूटी जब बेटे ने पुकारा, “ मॉम ! खाना तैयार हो गया क्या?” सामने दूरदर्शन पर महिलाएँ प्रदर्शन कर रही थीं। हाथों में पोस्टर थे – कपड़े नहीं सोच वदलो। आज अट्ठाईस बरस बाद दुनिया बहुत बदल चुकी है, किंतु नहीं बदली तो सोच ! नहीं बदली तो पुरुषों की मानसिकता, उसकी सामंती सोच जो नारी को केवल जींस, भोग्या मानती है और नारी की आवाज़, उसकी अस्मत को कुचलने के लिए नर पशुता को भी शर्मिंदा कर देता है, बर्बरता की कोई भी सीमा लाँघ सकता है !
आह दामिनी ! आह निर्भया ! तुम नारी ह्रदय में सदियों से धधकती आग की ज्वाला ही तो थी जो पूरे तेज से जली और बुझ गई ! बिजली की तरह कौंधी और काले बादलों में लुप्त हो गई !
पेज़ ५
सुशीला शिवराण ‘शील’
२८ नवंबर १९६५ (झुंझुनू , राजस्थान)
- बी.कॉम.,दिल्ली विश्वविद्यालय, एम. ए. (अंग्रेज़ी), राजस्थान विश्वविद्यालय, बी.एड. मुंबई विश्वविद्यालय ।
- पेशा : अध्यापन। पिछले बीस वर्षों से मुंबई, कोचीन, पिलानी,राजस्थान और दिल्ली में शिक्षण।वर्तमान समय में सनसिटी वर्ल्ड स्कूल, गुड़गाँव में शिक्षणरत।
- हिन्दी साहित्य, कविता पठन और लेखन में विशेष रूचि। स्वरचित कविताएँ और हाइकु कई पत्र-पत्रिकाओं – हरियाणा साहित्य अकादमी की “हरिगंधा”, अभिव्यक्ति–अनुभूति, नव्या, अपनी माटी, सिंपली जयपुर, कनाडा से निकलने वाली “हिन्दी चेतना”, सृजनगाथा.कॉम, आखर कलश, राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर की जागती जोत, हाइकु दर्पण और अमेरिका में प्रकाशित समाचार पत्र “यादें” में प्रकाशित। हाइकु, ताँका और सेदोका संग्रह (रामेश्वर कांबोज ’हिमांशु’ जी द्वारा संपादित) में भी रचनाएँ प्रकाशित। रश्मिप्रभा जी द्वारा संपादित काव्य-संग्रह “अरण्य” में कविता संकलित।
- २३ मई २०११ से ब्लॉगिंग में सक्रिय। चिट्ठे (वीथी) का लिंक – www.sushilashivran.blogspot.in
- इसके अतिरिक्त खेल और भ्रमण प्रिय। वॉलीबाल में दिल्ली राज्य और दिल्ली विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व।
सुशीला शिवराण, हिन्दी विभाग,
सनसिटी वर्ल्ड स्कूल
सनसिटी टाऊनशिप
सेक्टर – 54, गुड़गाँव – 122011, दूरभाष – 0124-4845301, 4140765
email – sushilashivran@gmail.com