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अट्ठाईस बरस बाद: कहानी - सुशीला शिवराण ‘शील’

    उसके चेहरे से ही नहीं अंग-अंग से, पोर-पोर से जीत की खुशी छलक रही थी। उसका बरसों का संजोया सपना जो पूरा हुआ था। उसकी दो बरसों की साधना का परिणाम, वह चमचमाती ट्रॉफ़ी उसके हाथों में थी जो उसके चेहरे की चमक को और भी बढ़ा रही थी। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच ट्रॉफ़ी लेते हुए हर्षातिरेक से उसकी आँखें छलक आईं थीं, गला रूँध गया था। टीम की कप्‍तान होने के नाते ट्रॉफ़ी लेने के लिए उसी के नाम की उद्‍घोषणा हुई थी ; किंतु यह जीत उसकी अकेली की नहीं पूरी टीम की जीत थी अत: आँखों-आँखों में कुछ बातें हुईं और अगले ही क्षण पूरी टीम मंच पर मुख्य अतिथि के समक्ष खड़ी थी। ट्रॉफ़ी को ऊँचा उठाए, गर्व और हर्ष से पुलकित टीम दर्शकों के अभिवादन में सर झुका रही थी । पिछले दो बरस किसी चलचित्र की भाँति उसकी आँखों में तैरने लगे। इन दो बरसों में उसने झोंक ही तो दिया था खुद को ! सोते-जागते एक ही खयाल उसे घेरे रहता, बेचैन किए रहता- जीत हमारी है !अर्थशास्‍त्र और लेखा-शास्‍त्र की कक्षा में भी उसे बैलेंसशीट की जगह टूर्नामेण्ट के फ़िक्‍सचर नज़र आते, खाताबही की जगह स्कोर-बोर्ड नज़र आता। उसका सारा प्रबंधन अपनी टीम के प्रबंधन पर आकर केन्द्रित हो जाता। वाणिज्य-स्‍नातक की उपाधि गौण हो चली थी, टूर्नामेण्ट और ट्रॉफ़ी प्रमुख ध्येय। कभी-कभी तो वाणिज्य-स्‍नातक की उपाधि भी लक्ष्‍य-प्राप्‍ति का माध्यम प्रतीत होती।
     वह अकेली नहीं थी जो पिछले दो बरसों से जीत का सपना अपने दिल में पाल रही थी। सौभाग्य से परमिंदर, सतींद्र और जसविंदर ने भी उसका सपना साझा कर लिया था और वे चारों अपने सपने को साकार करने के लिए जी-जान से जुट गई थीं। चारों ने नेशनल स्टेडियम, दिल्ली में वॉलीबॉल का विधिवत् प्रशिक्षण लेना आरंभ कर दिया था। यूँ तो ज्योति चौधरी स्कूल वॉलीबॉल टीम की भी कप्‍तान रही थी किंतु कॉलेज स्तर पर मुकाबला कड़ा होता है यह जानती थी वह। कॉलेज के वॉलीबॉल कोर्ट पर हुई जान-पहचान दोस्ती में बदली। दिल्ली यूनिवर्सिटी के खेल-मैदान पर एक के बाद एक मिली हार ने उनके दिलों में जीते के सपने का बीज बो दिया था।
पेज़ १

     नेशनल स्टेडियम में मिल रहे प्रशिक्षण से उनका खेल दिन-ब-दिन निखर रहा था। खेल की तकनीक और रणनीति की बारीकियाँ वे बड़े मनोयोग से सीखतीं । परमिंदर और सतीन्द्र का कद लंबा होने के कारण उन्हें आक्रमण, स्मैशिंग का प्रशिक्षण दिया जाने लगा तो ज्योति और जसविन्दर को रक्षा और बूस्टिंग, बॉल बनाने का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। ज्योति और जसविन्दर के हाथों में ५ किलो की चमड़े की गेंद जिसे मैडिसिन बॉल कहा जाता है, थमा दी गई कि उंगलियों से ही उसे उछाला जाए ताकि उंगलियाँ मज़बूत बनें। चारों सहेलियाँ पूरे जतन से हर पीड़ा को भूल कठोर अभ्यास करतीं।समय के साथ आक्रमण में नई धार आ रही थी और रक्षा और भी सुदृढ हो रही थी।
     प्रशिक्षण के दौरान लगी हर चोट उन्हें मंज़िल के करीब ले जाती प्रतीत होती। पाँच किलो के वज़न की गेंद ने ज्योति की उंगलियों के जोड़ों को मज़बूत ही नहीं कर दिया था उनकी बनावट भी उसे पुरुष की उंगलियों जैसी लगने लगी। जब वह अपने हाथों को देखती तो वे उसे किसी बॉक्‍सर के हाथ नज़र आते किंतु क्षणिक निराशा जीत का खयाल आते ही मन में नई ऊर्जा भर देती और उसके इरादे और मज़बूत हो जाते।
     सुबह ‍६:३० बजे चारों सहेलियाँ दक्षिण दिल्ली स्थित अपने कॉलेज के वॉलीबॉल कोर्ट पर मिलतीं और जी-तोड़ अभ्यास करतीं किंतु वॉलीबॉल में चार नहीं छह खिलाड़ी खेलते हैं। वे चारों तो संकल्पबद्ध थीं; किंतु अन्य दो लड़कियाँ खेल को खेल की मस्ती से ही खेलतीं, गंभीरता से नहीं लेतीं जो कि इन चारों के लिए बड़ी चिंता का कारण था। कहते हैं जहाँ चाह होती है वहाँ राह होती है। सौभाग्यवश इस वर्ष ज्योति विद्‍यार्थी परिषद में चुन ली गई थी अत: कॉलेज की प्राचार्या तक अपनी बात पहुँचाने में उसे किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। टीम की दो खिलाड़ी जो प्रशिक्षण के लिए स्टेडियम नहीं जा पा रही थीं ,उनके लिए प्रशिक्षक की व्यवस्था कॉलेज में ही कर दी गई। अब पूरी टीम सुबह ७ से ९ बजे तक कड़ा अभ्यास करती, अपने लक्ष्य के लिए पसीना बहाती। जैसे-जैसे टूर्नामेण्ट के दिन नज़दीक आते गए उनका संकल्प, उनका अभ्यास और कड़ा होता गया।
    आज जब ज्योति चौधरी अपनी टीम को लेकर मैदान पर उतरी तो एक खिलाड़ी की तरह नहीं एक योद्धा की तरह – करो या मरो वाला ज़ज़्बा लिए। लक्ष्‍य सामने था – मंच पर रखी चमचमाती ट्रॉफ़ी जिस पर उन्हें कब्ज़ा करना था। क्‍वार्टर-फ़ाइनल , सेमिफ़ाइनल के बाद आज फ़ाइनल मैच था और उनकी प्रतिद्वंद्वी टीम में दो राष्‍ट्रीय स्तर की खिलाड़ी थीं। ज्योति, परमिंदर, सतींद्र और जसविंदर तो उनके साथ पहले भी कई मैच खेल चुकी थीं इसलिए इनके ऊपर कोई दबाव न था किंतु मीता और आशा मैच से पहले ही भारी मानसिक दबाव में आ गई थीं और पहले सैट में एक के बाद एक कई चूक करती गईं। टीम को इन गलतियों की भारी कीमत चुकानी पड़ी । पहला सेट २५-१८ से प्रतिद्वंद्वी टीम की झोली में चला गया। सैट की हार के बाद इन चारों ने आशा और मीता का हौंसला बढ़ाया, उनसे स्वाभाविक खेल खेलने को कहा। प्रशिक्षक का अनुभव भी उन दोनों को मानसिक दबाव से उबारने में कारगर रहा। दूसरे सैट में जब टीम मैदान पर उतरी तो पूरे जोश और रणनीति के साथ। प्रतिद्वंद्वी टीम में अनुराधा सबसे कुशल खिलाड़ी थी बाकी खिलाड़ियों का स्तर सामान्य था। प्रशिक्षक ने उन्हें जीत का मंत्र पकड़ा दिया था – गेंद को अनुराधा की पँहुच से दूर रखो। उनकी रणनीति सफ़ल रही और दूसरा सैट २५-२१ से उनके कब्ज़े में था।
पेज़ २

     निर्णायक सैट में दोनों टीमें अपना पूरा दम-खम लगा रही थीं। अनुराधा हर स्मैश में अपनी पूरी ताकत झोंकती किंतु चारों सहेलियाँ फुर्ती से पूरे कोर्ट में बचाव करतीं। अनुराधा की हर रणनीति की काट थी उनके पास। दोनों टीमें अपना सब-कुछ दाँव पर लगाकर खेल रही थी। प्रतिद्वंद्वी टीम तीन बार पिछड़ कर बराबरी पर आ चुकी थी। २३-२३, स्कोर-बोर्ड पर निगाह पड़ते ही दिलों की धड़कनें तेज़ होने लगीं। ज्योति ने टाईम आऊट माँगा और पूरी टीम ने एक वृत्त में खड़े होकर साथी खिलाड़ियों के जोश, ज़ज़्बे और संकल्प को हवा दी और उतर गई मैदान में। गज़ब का संघर्ष था ! परमिंदर की ज़बर्दस्त सर्विस का जवाब अनुराधा ने जानदार स्मैश से दिया ;किंतु ज्योति और परमिंदर ब्लॉक पर तैयार थी और इससे पहले की अनुराधा रिबाउन्ड के लिए सँभलती गेंद उसके पाले में गिर चुकी थी। अब जीत के लिए केवल एक अंक और चाहिए । परमिंदर ने फिर बेहतरीन सर्विस की। इस बार अनुराधा ने नेट के पीछे होकर स्मैश किए। लंबी वॉली चली। ज्योति ने वस्तुस्थिति का जायजा लिया और चतुराई से डोज देते हुए परमिंदर के लिए बॉल ना बना कर विरोधी टीम के पाले में खाली जगह पा गेंद को वहाँ ड्रॉप कर दिया। इसके साथ ही सीटियाँ और तालियाँ बजने लगी और टीम की सभी खिलाड़ी हर्षातिरेक में एक-दूजे से लिपट गईं।
     पारितोषिक समारोह के बाद टीम वैन में सवार हो कॉलेज लौटने लगी। अपने घर सर्वोदय एन्कलेव आने के लिए वह आई.एन.ए. मार्केट पर उतर गई थी। डी.टी.सी की खचाखच भरी बस में उसे बमुश्किल पैर रखने की जगह मिली। किंतु हर बात से बेपरवाह वह मैच के हर क्षण को दुबारा जी रही थी। उसका चेहरा जीत की खुशी से अब भी दमक रहा था। उसकी तंद्रा टूटी, जब एक आशिकमिज़ाज़ युवक ने उसे अश्‍लीलता से स्पर्श करना चाहा। ज्योति ने उस युवक को घूर कर देखा और थोड़ा हट कर खड़े होने के लिए कहा। वह जानती थी कि उस आवारा टाइप युवक पर शायद ही उसकी बात का कोई असर हो, इसलिए वह स्वयं को कठोर शब्दों के लिए तैयार करने लगी । उस दिलफ़ेंक युवक ने जब दुबारा उसे अश्‍लीलता से स्पर्श करना चाहा तो ज्योति ने उसे धमकी भरे अंदाज़ में कहा, “मुझसे बदतमीज़ी की तो ठीक नहीं होगा।” किंतु उस असभ्य युवक पर उन कठोर शव्दों का भी कोई असर न हुआ बल्कि उसने भीड़ की आड़ लेकर ज्योति के वक्ष को छू लिया। ज्योति ने उसे आग्‍नेय नेत्रों से देखा।वह मनचला युवक बड़ी ही ढिठाई और बेशर्मी से मुस्कुरा रहा था। ज्योति ने गुस्से से मुट्‍ठियाँ भींच लीं। तभी एक झटके के साथ ब्रेक लगे और बस युसुफ़ सराय के बस स्टॉप पर रुक गई साथ ही ज्योति के मुँह से चीख निकलते-निकलते रह गई। उस आवारा युवक ने उसके दाएँ उरोज को पूरी ताकत से भींच दिया था। दर्द से ज्यादा वह अपमान से आहत हुई ! यह उसकी आबरू पर हमला था। उसने आव देखा न ताव उस निर्लज्ज युवक की कॉलर पकड़ी और अपनी पूरी ताकत बटोरकर ताबड़तोड़ ४-५ तमाचे उसके मुँह पर जड़ दिए। युवक भौंचक्‍का रह गया। इस तरह की प्रतिक्रिया की तो उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी ! तब तक बस चल दी। उसने कॉलर छुड़ाकर बस से उतरने की चेष्‍टा की। किंतु आज ज्योति ने भी ठान लिया था - और अपमान नहीं। बहुत हो चुका। उसने अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने का निर्णय लिया। उसने भागने की चेष्‍टा करते लड़के की कॉलर पकड़ी और लगभग लटक गई। युवक ने खुद को छुड़ाने की भरपूर कोशिश की। उस उपक्रम में उसकी कमीज़ के २-३ बटन ज़रूर टूटे मगर ज्योति की पकड़ ढीली नहीं पड़ी। युवक का गला घुटने लगा। बस गति पकड़ने ही वाली थी कि वह ज़ोर से चिल्लाया, “बस रोको! मुझे उतरना है।”
पेज़ ३

     ज्योति ने नफ़रत से युवक को धिक्‍कारते हुए कहा, “तुम्हें कहाँ उतरना है ,आज मैं बताऊँगी।” वह ड्राइवर से मुखातिब होकर बोली, “ बस को हौज़खास पुलिस स्टेशन ले चलिए।” तब तक दो-तीन सह्रदय लोग ज्योति की मदद को आ चुके थे। उन्होंने युवक को घेर लिया था। कुछ बस-यात्रियों ने बस को पुलिस-स्टेशन ले जाने का विरोध किया और ड्राइवर से कहा कि जिस को हौज़खास पुलिस स्टेशन जाना है ,उतार दो और बस को अपने रूट पर चलने दो। ज्योति ने गुस्से और हिकारत से उन बस-यात्रियों की ओर देखा और बोली, “ यदि यह युवक आपकी माँ, बीवी और बहन के साथ अश्‍लील हरकत करता तो क्या आप अपनी माँ, बीवी और बहन को सड़क पर उतार कर आगे बढ़ जाते?” ज्योति का यह प्रश्‍न उनके मुँह पर भी सीधा तमाचा था । वे निरुत्तर रह गए ।
     बस चालक ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए यात्रियों से कहा, “ भाई लोगो ! जिसनै उतरणा है ,उतर ल्यो बस पुलिस स्टेशन जावगी।” कुछ ने बस से नीचे उतर कर अपनी राह ली और शेष यात्री बस में ही बैठे रहे। बस पुलिस स्टेशन की ओर चल पड़ी। अब युवक का हौंसला पस्त होने लगा। उसने हाथ जोड़ते हुए ज्योति से कहा,” आप मेरी बहन जैसी हैं । मुझसे गलती हो गई। माफ़ कर दो बहन।” किंतु आज ज्योति ने फ़ैसला कर लिया था। वह अपने सम्मान के लिए लड़ेगी। उसे अपमान और हार स्वीकार नहीं, न खेल के मैदान पर और न ज़िंदगी के किसी अन्य क्षेत्र में । अपनी लड़ाई वह स्वयं लड़ेगी ।
     युवक गिड़गिड़ाने लगा, “ दीदी ! मैं आपके पैर पड़ता हूँ। आज छोड़ दो फ़िर कभी किसी लड़की के साथ ऐसा नहीं करूँगा” ज्योति उसका चरित्र देख ही चुकी थी । उसके घड़ियाली आँसुओं का उस पर कोई असर नहीं हुआ। आज उसने सोच लिया था ऐसे मनचले, आवारा लड़कों को यह बताना ज़रूरी है कि हर लड़की कमज़ोर नहीं होती। कोई उन्हें भी उनके किए की सज़ा दे सकती है यह डर ऐसे आवारा टाइप लड़कों के मन में होना ही चाहिए। वह अश्‍लीलता को दंडित अवश्‍य करेगी।
     बस पुलिस स्टेशन पहुँच गई। उसने निर्भीक हो एफ़.आई. आर दर्ज़ करवाई। पूरी घटना का ब्यौरा लिख कर दिया, जिसे पढ़ते ही थानेदार ने हवलदार से कुछ कहा। सिपाही ने युवक को बंदीगृह में डाला और तीन-चार लातें रसीद कर दीं। बूटों की मार से उसके होंठ के पास से खून बहने लगा और वह ज्योति की ओर याचना की दृष्‍टि से देखने लगा। एक बार तो उसका दिल भी पिघलने को हुआ ;किंतु अब बात दूर जा चुकी थी। वह पुलिस स्टेशन से बाहर आई और तिपहिया पकड़ घर की ओर चल दी।
पेज़ ४

     इस घटना का समाचार उसके घर पहुँचने से पहले ही पहुँच चुका था। पड़ोस का आठवीं में पढ़ने वाला लड़का भी उसी बस में था ,उसी ने भाभी को पूरा वृत्तांत कह सुनाया था। घर में कदम रखते ही भाभी की फ़टकार शुरू हो गई, “ लड़कियों को मार-पीट करना, थाने जाना शोभा देता है क्या? क्या ज़रूरत थी यह सब करने की? लड़कियों को बहुत-कुछ सहना होता है। किस-किस को जवाब देते फ़िरेंगे कि हमारी लड़की थाने क्यों गई? बात आगे वालों तक पहुँच गई तो वे सगाई तोड़ देंगे। एक तो थाने वाली बदनामी और ऊपर से सगाई टूटने की बदनामी ! कौन शादी करेगा तुमसे? तुम्हें खेलने की आज़ादी इसलिए दी थी कि तुम बसों में मार-पीट करने लगो?”
     फ़टकारते-फ़टकारते कर्कशा भाभी की नज़र ज्योति की स्कर्ट पर पड़ी। अब तो वे और भी बरस पड़ीं, “ इस तरह टाँगे दिखाओगी तो कौन नहीं छेड़ेगा? कितनी बार कहा है खेलने के बाद सलवार सूट पहन कर घर आया करो पर तुम्हें कुछ समझ आए तब ना!” ज्योति ने पूछना चाहा कि घुटनों तक लंबी स्कर्ट और स्टॉकिंग में टाँगे कहाँ से नज़र आ रही हैं भला? और जब वह सलवार कमीज़ पहने होती है तो क्या लोलुप आदमियों की कामुक निगाहें उसके वक्ष पर नहीं रेंगतीं? अश्‍लील नज़रें कमीज़ के अंदर शरीर के भराव को छूने की कोशिश नहीं करतीं?
     उसके विचारों की तंद्रा तब टूटी जब बेटे ने पुकारा, “ मॉम ! खाना तैयार हो गया क्या?” सामने दूरदर्शन पर महिलाएँ प्रदर्शन कर रही थीं। हाथों में पोस्टर थे – कपड़े नहीं सोच वदलो। आज अट्ठाईस बरस बाद दुनिया बहुत बदल चुकी है, किंतु नहीं बदली तो सोच ! नहीं बदली तो पुरुषों की मानसिकता, उसकी सामंती सोच जो नारी को केवल जींस, भोग्या मानती है और नारी की आवाज़, उसकी अस्मत को कुचलने के लिए नर पशुता को भी शर्मिंदा कर देता है, बर्बरता की कोई भी सीमा लाँघ सकता है !
     आह दामिनी ! आह निर्भया ! तुम नारी ह्रदय में सदियों से धधकती आग की ज्वाला ही तो थी जो पूरे तेज से जली और बुझ गई ! बिजली की तरह कौंधी और काले बादलों में लुप्‍त हो गई !
पेज़ ५

सुशीला शिवराण ‘शील’
  •  सुशीला शिवराण शील Sushila-Shivran-Sheel २८ नवंबर १९६५ (झुंझुनू , राजस्थान)
  • बी.कॉम.,दिल्ली विश्‍वविद्‍यालय, एम. ए. (अंग्रेज़ी), राजस्थान विश्‍वविद्‍यालय, बी.एड. मुंबई विश्‍वविद्‍यालय ।
  • पेशा : अध्यापन। पिछले बीस वर्षों से मुंबई, कोचीन, पिलानी,राजस्थान और दिल्ली में शिक्षण।वर्तमान समय में सनसिटी वर्ल्ड स्कूल, गुड़गाँव में शिक्षणरत।
  • हिन्दी साहित्य, कविता पठन और लेखन में विशेष रूचि। स्वरचित कविताएँ और हाइकु कई पत्र-पत्रिकाओं – हरियाणा साहित्य अकादमी की “हरिगंधा”, अभिव्यक्‍ति–अनुभूति, नव्या, अपनी माटी, सिंपली जयपुर, कनाडा से निकलने वाली “हिन्दी चेतना”, सृजनगाथा.कॉम, आखर कलश, राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर की जागती जोत, हाइकु दर्पण और अमेरिका में प्रकाशित समाचार पत्र “यादें” में प्रकाशित। हाइकु, ताँका और सेदोका संग्रह (रामेश्‍वर कांबोज ’हिमांशु’ जी द्‍वारा संपादित) में भी रचनाएँ प्रकाशित। रश्‍मिप्रभा जी द्‍वारा संपादित काव्य-संग्रह “अरण्‍य” में कविता संकलित।
  • २३ मई २०११ से ब्लॉगिंग में सक्रिय। चिट्‍ठे (वीथी) का लिंक – www.sushilashivran.blogspot.in
  • इसके अतिरिक्‍त खेल और भ्रमण प्रिय। वॉलीबाल में दिल्ली राज्य और दिल्ली विश्‍वविद्‍यालय का प्रतिनिधित्व।
सुशीला शिवराण, हिन्दी विभाग,
सनसिटी वर्ल्ड स्कूल
सनसिटी टाऊनशिप
सेक्‍टर – 54, गुड़गाँव – 122011, दूरभाष – 0124-4845301, 4140765
email – sushilashivran@gmail.com

लघुकथाएं - सुदेश भारद्वाज

खोल

   धारा 144 थी, नई दिल्ली के संवेदन-शील इलाकों के मेट्रो स्टेशन अगली सुचना तक कई दिन से बंद थे । एक बहुत ही संवेदन-शील बाराखम्बा बस-स्टॉप पे सवारियां खड़ी थी। सवारियों का कोई जेंडर-जाति-धर्म नहीं था। खोल से बाहर निकल के वे केवल सवारियां थी। एक छोटा बच्चा काफी देर से अपने उस प्लास्टिक के बोरे को छुटाने की कौशिश कर रहा था जिसमें खाली बोतलें भरी थी। छोटा लड़का किसी अदृश्य तस्वीर को अपनी सुरक्षा के लिए पुकारता रहा - " भाई ! ओ भाई !"
   जितना जोर से वो पुकारता उतना ही जोर से उसे मार और भद्दी गालिया पड़ती। अंततः छोटे बच्चे ने अपनी हिफाजत के लिए बोरे को छोड़ दिया। बोरा छोड़ने के पश्चात भी उस पर मार पड़ती रही। छोटा छुटा कर "भाई ! ओ भाई !" पुकारता वहां से चला गया।
   बड़े लड़के ने बोरे के मुहं को अपनी मुट्ठी से बंद किया और बोरे को जोर से सड़क पर पटका। बोतलें चूर-चूर हो गयी।
   अब वह भुनभुनाता और गलियाँ बकता कनाट-प्लेस सर्कल की और निकल गया। तब भी उसने बोरे के मुहँ को जोर से पकड़ा था। और सड़क पर पटकने का सिलसिला भी बदस्तूर जारी था। नई दिल्ली की संवेदनशीलता में कोई कमी नहीं थी।

   चोर

   हम जब सो के अपनी नींद उठे तो पता चला घर के सब लोग तीन बजे ही उठ गये थे । मैं भी बाबूजी के कमरे में चला गया । आस-पड़ोस के लोगों का आना-जाना शुरू हो गया था । एक-आध आस-पडोसी तो बाहर गली में जाकर खुसर-पुसर कर रहा था कि चोर को कम्बल दिया गया है, गरमा-गरम चाय पिलाई जा रही है, 100 नंबर पे फोन करते - पर नहीं। चोर आराम से बैठा हुआ है ।
   बाबूजी आने वाले लोगों को बता रहे हैं कि गेट वैसे तो हल्का-सा ढला रहता ही है आज वो रोड़ी-बदरपुर आया था तो चचेरा भाई बता के गया कि ट्रक रित गया है, बस उसकी गलती इतनी-भर रह गयी कि गेट को पूरा सौ-पट खोल के चला गया । बस इसने गेट खुला देखा और ये भीतर आ गया, काफी देर तक ये मेरे पायताने बैठा रहा… मैंने सोचा सुदेश होगा… मैंने इससे पूछा तो इसने कोई जवाब नहीं दिया । फिर मैंने सोचा कि बड़ा होगा पर इसने फिर भी कोई जवाब नहीं दिया । फिर सोचा कि छोटा होगा तो भी कोई जवाब नहीं मिला । हारकर मैंने लाईट जलाई - ,बस ।
   
   हरेक को बाबूजी इतना ही बता रहे थे । चोर के घर वालों को सूचित किया जा चुका था । दुसरे गाँव से आने में टाइम तो लगता ही है । फिर भी अपने व्हीकल से दस मिनट मुश्किल से लगते हैं पर अब तो आठ बज चुके हैं । सूचित किये हुए भी दो घंटे बीत गये । फिर भी सवा-आठ बजे के आसपास चोर के पिताजी एक-दो आदमी के साथ आन पहुंचे थे । उनकी नजरें नीचे झुकी हुई थी । वे कहे जा रहे थे कि बे-शक इसको जान से मार दो ।
   आखिरकार चोर की स-सम्मान विदाई हुई । उनके जाने के बाद उसका ड्राईविंग लाईसेंस गली में पड़ा मिला । बड़ा भाई जब दिन में देने गया तो चोर पानी-पानी था ।
सुदेश भारद्वाज,
178, रानी खेड़ा, दिल्ली-110081
मोबाइल:- 9999314954

   

कहानी "फिज़ा में फैज़" - प्रेम भारद्वाज

prem bhardwaj editor of pakhi प्रेम भारद्वाज संपादक-पाखी
फिज़ा में फैज़
कथाकार प्रेम भारद्वाज (संपादक पाखी)


    आपमें से किसी ने सुनी है पचहत्तर साल के बूढ़े और तीस साल की जवान लड़की की कहानी। नहीं न! तो सुनिए- .. अर्ज है... कहानी सुनाने से पहले यह साफ कर देना जरूरी है कि यह एक नहीं, दो ऐसे लोगों का किस्सा है जो आपस में कभी नहीं मिले... दो प्रेमी युगल... दो जीवन... दो पीढ़ियां... दो सोच... उनका अपना रंज-ओ-गम... एक ही वक्त में दो जमानों का अंदाज-ए-मोहब्बत... रेल की दो पटरियां जो आपस में कभी नहीं मिलती... उन्हें जोड़ती है उन पर से गुजरने वाली रेलगाड़ियां... आप उसे वक्त भी मान सकते हैं... हर बार ट्रेन के गुजरने पर पटरियां थरथराती हैं... कुछ देर के लिए दबाव... तनाव... टक्-टक् धड़-धड़... पीछे छूटते समय की नदी... यथार्थ के जंगल... भावुकता के सूखते पोखर-नाले... उपकथाओं और यादों के छोटे-बड़े पुल...
   ऐतिहासिक शहर का एक पुराना मुहल्ला। मुहल्ले की वह तंग और बदबूदार गली... बंद गली का आखिरी मकान... मेरे दाएं बाजू वाले उस जर्जर मकान में अकेले रहता है वह बूढ़ा।
   सत्तर-पचहत्तर साल की उम्र। न वह मुसलमान है, न मार्क्सवादी, न कोई बाबा... मगर लंबी दाढ़ी न जाने क्या सोचकर रखता है। इस लंबी दाढ़ी की वजह शायद उसका आलस्य रहा होगा। वह आलसी बहुत है। शायद इसी को देखकर ‘स्लोनेस’ उपन्यास लिखा गया होगा।
   मुश्किल यह है कि वह अपने आलस्य को तरह-तरह की दलीलों से जरूरी और उपयोगी साबित करता है। वह अपने आलस्य को पूंजीवाद का विरोधी भी प्रमाणित करता है।
   उसकी तीन रुचियां हैं-ज्यादा पढ़ना, रोडियो सुनना और तीसरी के बारे में उसने किसी को कुछ नहीं बताया। अजीब शख्स है। रुचियां तीन गिनाता है, बताता दो है। कुछ लोग उसे खब्ती और सनकी भी कहते हैं जिसका उस पर कोई असर नहीं पड़ता। वह हमेशा अपनी ही धुन में रहता है।
   एक नौकर है जो उस भुतहे मकान में बूढ़े की देखभाल करता है। खाना बनाने से लेकर उसके लिए बैंक से पैसा लाने का काम उसी के जिम्मे है। उसकी कोई संतान नहीं। उसका बाल विवाह हुआ था। गौने की शुभतिथि पंडित जी ने निकाली थी कि बीच में ही पत्नी चल बसी। उसने अपनी पत्नी को पहली बार चित्ता पर लेटे ही देखा, उसे मुखाग्नि देते वक्त। वह बेहद सुंदर थी। काश! वह औरों की तरह गौने से पहले ही उससे मिल पाता... जी भर कर देख पाता। वह बहुत देर तक हाथ में आग लिए मृत पत्नी को देखता रहा। किसी ने टोका तो वह आग देने के लिए आगे बढ़ा। पत्नी की चिता को आग देते हुए ही उसने मन ही मन संकल्प ले लिया कि वह जीवन में दूसरी शादी नहीं करेगा, चाहे अकेलापन कितना ही कांटेदार क्यों न हो जाए? परिवार और रिश्तेदार के नाम पर उसके यहां किसी को भी आते-जाते किसी ने नहीं देखा। एक रेडियो है जो अक्सर बजता रहता है। यह रेडियो ही उसके अकेलेपन का साथी है। रेडियो ही उसका परिवार, प्यार और समाज है। उसके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता। राज्य सूचना जनसंपर्क के नृत्य विभाग का निदेशक था वह। कथक नृत्य के साथ-साथ ढोलक बजाने में उसका कोई सानी नहीं। कभी-कभी कोई शिष्य उससे मिलने आ जाता हैं। विशेषकर गुरु पूर्णिमा के अवसर पर। इस दिन उसके यहां भीड़ लगी रहती है।
   कमरे में एक तस्वीर टंगी है जो उसके जवानी के दिनों की है। वह युवा है, गले में लटका ढोलक है। सहयोगी कलाकार भी साथ खड़े हैं। इस तस्वीर की खास बात यह है कि उसके साथ देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी खड़े हैं, उसके कंधे पर हाथ रखे। तब वह आज की तरह बूढ़ा नहीं था। आकर्षक व्यक्तित्व था उसका। 1960 की खिंची तस्वीर है यह। ढोलक नेहरू ने सप्रेम भेंट की था, खुश होकर। वह ढोलक आज भी ससम्मान उसके कमरे में मौजूद है। जब कभी वह बहुत उदास या खुश हो जाता है तो वह उसे घुटनों से दबाकर बजाने लगता है। तब सुबह के चार बज रहे हों या रात के दो, उसको कोई फर्क नहीं पड़ता।
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    मोहल्ले के लोग उसकी खुशी और उदासी में फर्क नहीं कर पाते हैं। वह उदास होने पर गंभीर रहता है, यह बात समझ में आती है। लेकिन जब वह भीतर से बहुत खुश हुआ करता है तब भी उसकी मुद्रा गंभीर ही बनी रहती है। इसलिए केवल वही जान पाता है कि वह कब खुश है और कब उदास। शायद दिलीप कुमार की देखी ट्रेजिक फिल्मों का गहरा असर है उस पर।
   उसके घर आने वालों में एक चांदी से बालों वाली पतली लंबी सी औरत है। उस बूढ़ी औरत के चेहरे पर गजब का तेज है। वह कब आती है, इसका अंदाजा किसी को नहीं। लेकिन दो मौकों पर वह जरूर यहां देखी जाती है। एक तो तब जब यह बूढ़ा बीमार पड़ जाता है, दूसरे 15 सितंबर को। बूढ़े का जन्मदिन। उस दिन नौकर घर पर नहीं रहता। बूढ़ा-बूढ़ी कहीं घूमने नहीं जाते। साथ-साथ खाना बनाते हैं, खाते हैं। केक काटते हैं। मिठाइयां बांटते हैं। बूढ़ा तबले पर थाप देता है और बूढ़ी नृत्य करती है। कथक नृत्य। जन्मदिन का जश्न सिर्फ वे दो जन ही मनाते हैं। ठीक नौ बजे वह औरत अपने घर लौट जाती है। पिछले चालीस सालों से किसी ने उस बूढ़ी औरत को बूढ़े के घर रात को रुकते नहीं देखा, चालीस साल पहले दोनों अधेड़ मगर खूबसूरत थे।
   सचमुच ही चालीस साल पहले वह बेहद खूबसूरत थी। बूढ़े के विभाग में ही नृत्यांगना थी। उसकी सहयोगी कलाकार- -- पहले उसने बूढ़े को गुरु माना... लेकिन गुरु-शिष्य का यह रिश्ता बहुत जल्द दूसरे रिश्ते में बदल गया... दोनों में से किसी ने एक दूसरे को आई लव यू नहीं बोला... कोई खत नहीं लिखा... चांद तारे तोड़ लाने के वादे नहीं किए- -- एक नहर थी जो एक दिल में दूसरे दिल तक बहने लगी... बहती रही... वह दक्षिण भारतीय थी जिसके पिता पटना में बस गए थे... एक बार उसने शादी की बात अपनी मां से की तो उन्होंने कहा-‘अगर तुम सचमुच ही उससे प्रेम करती हो... और चाहती हो प्रेम बना रहे तो उससे कभी शादी मत करना... यह मैं अपने अनुभव से कह रही हूं जब प्रेमी पति बन जाता है तो प्रेम भी अपनी शक्ल बदल लेता है, वह कुछ और हो जाता है... प्रेम नहीं...।’ मां ने उससे शादी नहीं करने के लिए कहा, वह किसी से भी शादी करने की इच्छा को भस्म कर बैठी। बूढ़े ने भी कभी उससे नहीं कहा-‘तुम सबको छोड़कर मेरे पास चली आओ...।’ दोनों एक दूसरे का दर्द समझते थे। घाव सहलाते थे। भाषा कहीं नहीं थी... शब्द तिरोहित थे, सिर्फ भाव... भाव ही।
   बाएं तरफ नया मकान बना है, पुराने मकान को तोड़कर। मकान मालिक ने इसे फ्रलैटनुमा बनाया है, आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित। उसके पहली मंजिल पर एक लड़की रहती है। दुबली-पतली। लम्बी। छरहरी। उसके ठीक बगल वाले फ्रलैट में एक लड़का भी रहता है। दोनों एक ही कॉल सेंटर में काम करते हैं। कभी-कभी लगता है वे समय की सीमाओं से परे की चीज हैं। उनके न सोने का समय है, न जागने का। न घर से दफ्रतर जाने और न दफ्रतर से घर लौटने का। उनकी जीवनशैली समय सारणी का अतिक्रमण करती है।
   पड़ोस के लड़के से उसकी दोस्ती हुई। वह फ्रेंड बना। फिर ब्वॉयफ्रेंड। मामला और आगे बढ़ा और दोनों रिलेशनशिप में एक साथ रहने लगे। बिना शादी के पति-पत्नी की तरह। सहजीवन। जीवन के साथ जंजाल से दूर। कितने पास, कितने दूर। दोनों ने एक फ्रलैट खाली कर दिया। वे अब एक ही फ्रलैट में साथ रहने लगे। एक फ्रलैट का किराया बचाया। उन्हें सुख चाहिए था, संतान नहीं। शादी का ताम-झाम भी नहीं। वे सवालों, सरहदों में घिरना और बिंधना नहीं चाहते थे। इसलिए साथ-साथ थे।
   लड़की की तीन रुचियां बड़ी ही झिंगालाला है। एक है मोबाइल से नए गाने सुनना। फेसबुक पर रातों को चैटिंग करना और मॉल में तफरीह करना। उसी दौरान किसी मुर्गे (लड़के) को पटाकर महंगे रेस्टोरेंट में अच्छा खाना या फिल्में देखना। लड़की की एक और खूबी है जो अब उसकी आदत बन गई है और वह है खूबसूरत झूठ बोलना। वह जहां कोई जरूरत नहीं होती वहां भी अपने झूठ बोलने के कला-कौशल का मुजाहिरा किए बिना नहीं रहती।
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    उस लड़की ने मान लिया था कि साथ रह रहे लड़के के साथ उसको प्यार हो गया है। वह उसके प्रति समर्पित है, बहुत केयरिंग है। लेकिन साल भर के भीतर लड़के को इस बात का बोध हो गया कि जिस लड़की के साथ वह रह रहा है उसके प्रति आकर्षण के तमाम तत्व समाप्त हो गए हैं। अब उसका साथ ऊब पैदा करता है। जब आकर्षण ही नहीं तो प्यार कैसा? अब लड़की की नजाकत उसका ‘इगो-प्रॉब्लम’ लगने लगा। अब वे दोनों बात-बात पर झगड़ पड़ते। लड़के ने तय कर लिया कि अब लंबे वक्त तक साथ नहीं रहा जा सकता। उसने किनारा कर लिया। वह किसी दूसरी लड़की के साथ रिलेशनशिप में रहने लगा। लड़की को बुरा लगा। सपने को झटका। हालांकि लगना नहीं चाहिए था। जिस रिश्ते की बुनियाद ही इस गणित पर टिकी हो- सुख के लिए साथ। जिस दिन किसी दूसरे से सुख ज्यादा मिला, पुराना रिश्ता खत्म। लेकिन लड़की को बुरा लगा। लड़की थी न। कुछ दिनों तक उदास रही। रोई-धोई। खाना छोड़ा। उसके सभी दोस्त जान गए कि उसका ब्रेकअप हो गया है।
   और उधर दाएं वाले मकान में? जैसा कि मैंने अर्ज किया था बूढ़े को रेडियो सुनने की सनक है। वह किसी गाने को सुनते हुए एक खास दौर में पहुंचकर उसे जीने लगता है।
   रेडियो सुनने का उसका खास स्टाइल था। वह चारपाई पर लेट जाता रेडियो उसके पेट पर पड़ा बजता रहता। कभी वह सिर्फ रेडियो ही सुनता। कभी वह रेडियो सुनते हुए कोई किताब पढ़ रहा होता। कई बार ऐसा होता कि रेडियो उसके लिए लोरी और थपकी का काम करता और वह सो जाता। घंटों सोता रहता। रेडियो का संगीत बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह माहौल रचता। संगीत उसे सपनों की दुनिया में ले जाता।
   विविध भारती के ‘भूले बिसरे गीत’ कार्यक्रम में गीत बज रहा था-‘जब तुम ही चले परदेस, लगाकर ठेस... ओ प्रीतम प्यारे’ बूढ़े को अपना जमाना याद आया। चालीस का दशक... ‘रतन’ फिल्म को देखने के लिए वह अपने गांव से पटना चला गया था। गांव के कुछ दोस्तों के साथ। वहां उसने एलिफिस्टन में यह फिल्म देखी थी। जोहराबाई अंबाले वाली की आवाज ने तब के युवाओं पर जैसे जादू कर दिया था... उस आवाज का दीवाना वह भी था। इसके गाने उसने रेडियो में भी सुने। पचास के दशक में ही विविध भारती शुरू हुआ था... गांव-ज्वार में सबसे पहले उसके यहां ही रेडियो आया था... सामंती परिवार... उसको न जाने क्यों नृत्य सीखने की सनक सवार हो गई... सिखाने वाला कोई उस्ताद नहीं मिला- -- उस्ताद ढूंढ़ने के लिए वह भागकर मद्रास पहुंच गया... चिन्ना स्वामी के यहां। छह महीने तक उन्हीं के यहां रहकर नृत्य सीखा... सेवक बनकर वहां रहा... स्वामी ने ही बताया कि उनके एक शिष्य हैं पटना में मदन मिश्रा। आगे की चीज उनसे सीखो। स्वामी ने बताया कि रियाज जरूरी है... वह घर लौट आया... रियाज के लिए जगह थी नहीं। तब वह गांव से बाहर आम के घने बगीचे में रात को जब सारा गांव सो जाता था, तब वह वहां रियाज करता था... बारह बजे से चार बजे तक, क्योंकि चार बजे के बाद गांव वाले उठ जाते। यह सिलसिला साल भर चला। एक दिन बगीचे से गुजरते हुए किसी ने रात को साढ़े बारह बजे ‘ता थई ता-ता-थई...’ की थाप सुन ली... उसने पूरे गांव वाले को बोल दिया... ‘उस आम के बगीचे में भूत आता है, साला नए डिजाइन का भूत है... कथक करता है...।’ कुछेक वैज्ञानिक किस्म के गंवई लोगों को यकीन नहीं हुआ तो वे सच्चाई को जानने के लिए खुद बगीचे पहुंचे, मगर ता-थई-ता-ता-थई की आवाज सुनकर उनके होश फाख्ता हो गए, लौट गए उल्टे पांव... जान बचाकर...।
   संगीत और नृत्य की बहुत कठिन साधना की उसने। जिस दिन उसने पटना में नृत्य का पहला प्रदर्शन किया था उसी दिन से उसका सामंती परिवार उससे सदा के लिए अलग हो गया। घरनिकाला हो गया। पिता ने कहा-‘दाग लगा दिया खानदान के दामन पर... साला नचनिया हो गया...। अगर मालूम होता कि जवान होकर ता-थैया करेगा तो पैदा होते ही टेटूवा दबा देते...।’
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    पिता का यह आशीर्वाद था उसके ऐतिहासिक प्रदर्शन पर जिसे देखने के लिए राज्य के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण बाबू और देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद दोनों उपस्थित थे।
   सुना था, संगीत जोड़ता है। यहां तो संगीत ने संबंधों का तार ही तोड़ दिया। दो में से चुनाव करना था उसे, संगीत और संबंध के बीच। संबंध माने परिवार और समाज। उसने संगीत को चुना। और क्रांतिकारी होने के दंभ से भी अछूता रहा। संगीत के चुनाव ने उसके जीवन को सूनेपन और अकेलेपन की सलीब पर टांग दिया। घर-समाज की नजरों में वह बागी था। उसने कहीं पढ़ा था, उम्र के 35 साल तक हर युवा को बागी ही होना चाहिए। परिवार वालों के लिए वह मर चुका था। केवल मां ही थी जो पटना में डॉक्टर को दिखाने के बहाने मामा के साथ मिलने आतीं। मां उसके लिए खाने को वे तमाम चीजें बनाकर लातीं जो उसे पसंद थीं। अपनी आंखों के सामने खिलातीं और अपलक देखते हुए रोती-सुबकती रहतीं। बोलतीं कुछ भी नहीं... आशीर्वाद देने के अलावा।
   जीवन में आए उस खालीपन को तब रेडियो ने ही भरा था वरना वह पागल हो जाता। पागल वह भी थी... साथ नृत्य करते हुए। तब गजब की सुंदर थी वह। बदन में कमाल का लोच था। वह जहां थी, उससे भी आगे जा सकती थी। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर की नृत्यांगना बनने की प्रतिभा थी उसके भीतर... लेकिन वह उससे दूर नहीं जाना चाहती थी- -- प्रसिद्धि अक्सर अपनों से दूर कर देती है... कई बार खुद से भी... प्रसिद्धि नहीं, प्यार अभीष्ट था उसका। रेडियो और प्यार की जुगलबंदी ने ही उसे उन मुश्किल दिनों में बचाया। मगर वह दो साल का समय बूढ़े पर बहुत भारी पड़ा था, जब वह सरकारी टूर पर अमेरिका चली गई थी। वह एक पतझड़ था जिसकी अवधि दो साल तेरह दिन की थी। रेडियो और प्यार की जुगलबंदी जैसे कुछ वक्त के लिए ठहर गई हो।... सांसे लेता था, मगर जैसे जिंदा होने का भरम नहीं बचा... आंखों में नींद की जगह इंतजार ने ले ली... वह बिस्तर पर सोने की कोशिश करता तो बेचैनी से भर जल बिन मछली की तरह तड़पने लगता...। तब वह नौकरी में ही था... मंच पर कार्यक्रम देते वक्त एक बार तो गिर पड़ा था... खाना नहीं खाने के कारण बहुत कमजोर हो गया था वह... उस दिन के बाद तो उसने तीन महीने की छुट्टी ही ले ली...। आस-पड़ोस के बच्चे उसे चिढ़ाने भी लगे थे। जब भी वह छत पर उदास बैठा होता, कोई बच्चा दौड़ता हुआ आता और आवाज देता-‘चाचा नीचे चलिए अमेरिका से किसी विजयलक्ष्मी का फोन आया है... होल्ड पर है...।’ तब मोबाइल का जमाना नहीं था। उसकी उदासी क्षण भर में काफूर हो जाती वह दौड़ा-दौड़ा पड़ोसी के घर जाता, तब पता चलता... बच्चे तो मजाक कर रहे थे, किसी का फोन नहीं आया... विजयलक्ष्मी का तो पिछले दो महीने से नहीं...। बच्चों का मजाक बढ़ता गया... बच्चों की देखा-देखी बड़े भी इस तरह उसके प्यार और प्यार के इंतजार का मजाक उड़ाने लगे... तंग आकर उसने खुद अपने ही घर में फोन लगवा लिया... फोन आए या न आए... वह इस तरह अपमानित होने और मजाक बनने से तो बचेगा...। लेकिन लोग तो लोग हैं... कुछ तो कहेंगे ही... विभाग के लोग आते... वे भी चुस्की लेते... लगता है अब तो विजयलक्ष्मी अमेरिका से शादी कर के ही लौटेगी... अपने साथ किसी अमेरिकी गोरे को पति के रूप में साथ लाएगी... बहुत संभव है... वह लौटे ही नहीं... शादी कर वही सैटल हो जाए... ईमानदारी की बात है कि इन बातों को सुनकर वह विचलित हो जाता... मगर उसे अपने प्यार पर भरोसा था।
   वह लौटी। और अकेले लौटी। बिना शादी किए। और सीधे एयरपोर्ट से उसी के पास पहुंची... लगा कोमा में पड़े किसी आदमी के भीतर जीवन की हलचल लौट आई हो...। पहली बार जाना कि लौटने का सुख असल में होता क्या है? उस दिन वह सुबह की चाय पी रहा था। विविध भारती पर कार्यक्रम ‘संगीत-सरिता’ चल रहा था। गाना... अंखियां संग अंखियन लागे न...।’
   अचानक रेडियो में गाना आना बंद हो गया। उसे लगा प्रसारण में अवरोध है। मगर नहीं... दस मिनट तक रेडियो खामोश रहा। कुछ देर बाद वह उठा, रेडियो के स्विच को घुमाया... ट्यूनिंग भी की... सिर्फ खर-खर की आवाज...। रेडियो में कुछ खराबी आ गई थी। उसका मूड खराब हो गया। रेडियो के बगैर उसका जीवन जैसे ठहर गया। उस दिन उसने नाश्ता भी नहीं किया। नहाया नहीं। दस बजते ही वह एक झोले में रेडियो को लेकर उसे बनवाने बाजार निकल गया। उसके जेहन में जो रेडियो मरम्मत की दुकान थी उसमें मोबाइल बिक रहा था। नए-नए मॉडल के मोबाइल। उसने बहुत ढूंढ़ा। मगर रेडियो ठीक करने वाली दुकान उसे नहीं मिली। पता करने पर एक ने बताया बगल के मुहल्ले में एक बुजुर्ग मियां जी हैं, वे अब भी रेडियो बनाते हैं। उसके पहले लोगों ने समझाया, अब चीजें ठीक नहीं होती, बदल दी जाती हैं। नया रेडियो ले लीजिए। मगर बूढ़े की जिद। उसे रेडियो को बदलना नहीं, ठीक कराना है। जो हमारे पास पहले से है और जो खराब है, उसे ठीक करना है ताकि वह पहले की तरह काम करने लगे। उसे दुःख हुआ कि खराब चीज को ठीक करने वाले कारीगर हमारे समाज से गायब होते जा रहे हैं, गायब हो गए हैं।
   वह मुस्लिम बस्ती थी, शहर के बीचोंबीच। भीड़-भड़ाका। देह से छिलती देह। मानो कोई मेला हो। एक तेज उठती गंध। बुर्कापरस्त मुस्लिम महिलाएं। छतों पर पतंग उड़ाते बच्चे। कबूतरों का झुंड। दुकानों पर फैन, बिस्किट और बेकरी खरीदने वालों की भीड़।
   एक जमाने बाद वह इस मुहल्ले में आया था। बड़ी मुश्किल से फूकन मियां वाली गली मिली, मस्जिद के ठीक सामने। दुकान बंद थी। टूटा-फूटा साईन बोर्ड अब भी लटक रहा था, किसी पुरानी याद की तरह... यहां रेडियो-ट्रांजिस्टर की तसल्लीबख्श मरम्मत की जाती है। फूकन मियां रेडियोसाज...।
   बूढ़े ने सोचा... नमाज का वक्त है? शायद दुकान बंद कर फूकन मियां नमाज पढ़ने गए होंगे? आज है भी तो जुम्मा। इंतजार करते डेढ़ घंटा हो गया। तीन बज गए। दुकान नहीं खुली। नमाज पढ़ने वाले तमाम लोग मस्जिद से बाहर निकल आए थे।
   उसने बगल के बेकरी की दुकान वाले से तफ्रतीश की तो जवाब मिला... ‘अरे फूकन मियां की बात कर रहे हैं... उनकी यह दुकान तो पिछले छह महीने से बंद है।’
   ‘वो मिलेंगे कहां?’
   ‘कब्रिस्तान में बैठे बीड़ी सुड़क रहे होंगे?’
   ‘मतलब?’
   ‘गलत मत समझिए... वो दिन भर वहीं कब्रिस्तान में ही अपनी बेगम की कब्र पर बैठे रहते हैं... अगर उनसे कोई काम है तो एक बंडल गणेश छाप बीड़ी लेते जाइए... खुश हो जाएंगे...’
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    ‘कब्रिस्तान है कहां?’
   ‘इसी गली के अगले मोड़ से दाएं मुड़ जाइए... सौ कदम चलने के बाद बिजली ट्रांसफारमर से बाएं मुड़ते ही सीधे चलते जाना... वह रास्ता कब्रिस्तान को ही जाता है... वहीं मिल जाएंगे बीड़ी फूंकते फूकन मियां...।’
   बूढ़े ने सबसे पहले सामने की गुमटी से एक बंडल बीड़ी का खरीदा... फिर झोला लिए बताए रास्ते पर चल पड़ा। शाम ढलने लगी थी। सूरज ने अपनी दिशा बदल ली थी। कमजोर होती धूप बूढ़े को खुद के जैसी ही लगी पग-पग अवसान की ओर बढ़ती।
   जैसा कि बेकरी वाले ने बताया था, एक सज्जन कब्रिस्तान में दिखाई दिए। सबसे कोने वाली एक कब्र में बीड़ी पी रहे थे।
   वह पास पहुंचा-‘अगर मैं गलत नहीं हूं। तो आप फूकन मियां ही हैं न।’
   ‘जी हूं तो... फरमाइए...।’ कब्र पर बैठे व्यक्ति फूकन मियां ही थे।
   ‘आपकी दुकान गया था... पता चला वह तो महीनों से बंद पड़ी है।’
   ‘पुरानी चीजें बंद हो जाती हैं... उन्हें बंद करना पड़ता है...।’ आवाज में तल्खी थी, क्यों थी मालूम नहीं।
   ‘आप यहां कब्रिस्तान में...’ पुराने जमाने का लुप्त होता प्रचलन है कि काम से पहले सामने वाले का हाल-चाल जरूर पूछते हैं।
   ‘सुकून मिलता है यहां...’ फूफन मियां ने जोर देकर कहा-‘मृत चीजें सुख देती हैं... कोई सवाल नहीं करतीं... शक नहीं- -- न प्रेम, न नफरत... सियासत तो बिल्कुल ही नहीं... इसीलिए सुकून की खोज में हर सुबह यहां चला आता हूं... घर में चार बेटे हैं-बहू है पोते-पोतियां 15 लोगों का कुनबा है मेरा... मगर मैं किसी का नहीं। हमारी बेगम छह महीने पहले हमें छोड़कर चली गई खुदा के पास... तब से हम ज्यादा तन्हा हो गए हैं... जिस कब्र पर बैठकर अभी हम बातें कर रहे हैं... वह हमारी रुखसाना बेगम का है... यहां जब तनहाई ज्यादा ही सताने लगती है तो बेगम से बातें भी कर लेता हूं... उनकी आवाज सिर्फ मुझे ही सुनाई पड़ती है... 56 साल का साथ अचानक खत्म हो जाता है... हम अकेले पड़ जाते हैं... बेबस, उदास... खैर मैं तो अपनी ही कहानी में गुम हो गया... आप बताओ मुझसे मिलने का मकसद। मुझे ढूंढ़ते-ढूंढ़ते कब्रिस्तान पहुंच गए...।’
   ‘मेरा एक बहुत पुराना रेडियो है... वह मुझे बहुत प्रिय है... उसने मेरे जीवन में संगीत भरा था... अचानक उसमें खराबी आ गई है, वह बजता ही नहीं... किसी ने बीस साल पहले गिफ्रट दिया था मुझे। इस शहर में रेडियो ठीक करने वाला कोई बचा नहीं। लोग नया रेडियो लेने की सलाह देते हैं, मगर मैं ऐसा नहीं कर सकता... किसी ने आपका नाम बताया तो आपके पास हाजिर हूं...।’
   ‘मैंने तो काम छोड़ दिया है... दुकान भी बंद हो गई, बेगम के इंतकाल के दूसरे दिन ही...।’
   ‘दुकान बंद हुई है आप तो हैं...।’
   ‘दिखाई कम पड़ता है... मुश्किल है... मैं माफी चाहता हूं... आपकी मदद नहीं कर सकता...’
   ‘आप नाउम्मीद मत कीजिए... मेरी मजबूरियों और इस रेडियो के प्रति मेरी दीवानगी को समझिए...’ यह कहते हुए सज्जन मियां ने बीड़ी का बंडल फूकन मियां की ओर बढ़ा दिया-‘अगर आपने रेडियो ठीक नहीं किया तो मैं जी नहीं पाऊंगा...।’
   बीड़ी के बंडल पर झपट्टा मारते हुए फूकन मियां के चेहरे पर मुस्कान खिल गई। उन्होंने कुर्ते की दाहिनी जेब से माचिस निकाल कर तुरंत एक बीड़ी सुलगाई। एक सुट्टा मारते हुए बोले-‘रेडियो कहां हैं?
   बूढ़े ने झोले से रेडियो निकालकर फूकन मियां को सौंप दिया।’
   ‘आइए, मेरे साथ...’ फूकन मियां उठ खड़े हुए।
   वे उसे दुकान ले गए। घर से चाबी मंगवाकर दुकान का शटर खोला। धूल की मोटी पर्तें जमी थी हर चीज पर। साफ करने में ही आधा घंटा लग गया। अगले आधे घंटे में उन्होंने रेडियो ठीक कर दिया। रेडियो पर गीत बज रहा था-‘रहा गर्दिशों में हरदम मेरे इश्क का सितारा।’
   ‘इसका बैंड खराब हो गया है रेडियो मिर्ची विविध भारती को बजने नहीं देता... पुराना पार्ट है, नया मिलेगा नहीं... इस कंपनी का बनना ही बंद हो गया... ठीक तो कर दिया है... मगर इसे गिरने से बचाइएगा... नहीं तो नई गड़बड़ी शुरू हो सकती है...।’
   बूढ़ा खुशी-खुशी रेडियो घर ले आया...। रेडियो फिर से बजने लगा था बूढ़े के चेहरे पर रौनक लौट आई। जैसे पतझड़ के बाद वसंत आ गया हो। तपते रेगिस्तान में झमझम बारिश हो गई हो।
   मगर तीसरे दिन ही आंधी आई और रेडियो टेबल से गिर पड़ा। फूकन मियां ने सही भविष्यवाणी की थी, उसमें एक नई बीमारी शुरू हो गई...। रेडियो बज तो रहा था, मगर अपने आप उसका बैंड बदल जाता... विविध भारती बजते-बजते रेडियो मिर्ची लग जाता। बूढ़ा परेशान। गाने स्वतः बदल जाते। विविध भारती पर बज रहा होता-‘जो वादा किया, वो निभाना पडे़गा।’ अचानक बैंड बदल जाता-‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए...। कभी बजता होता-‘वक्त ने किया क्या हंसी सितम’ बैंड बदलता और गाना बजता-‘आई चिकनी चमेली छुपके अकेली पव्वा चढ़ा के आई...।’ बूढ़े को सिरदर्द होने लगा। वह अगले दिन ही झोले में रेडियो को डालकर फूकन मियां के पास कब्रिस्तान पहुंचा। वह उनके लिए बीड़ी का बंडल लेने गुमटी गया, गणेश छाप था नहीं... न जाने क्या सोचकर उसने सिगरेट ले ली-- -। उसे लगा फूकन मियां खुश हो जाएंगे, बीड़ी पीने वाले को सिगरेट मिल जाए... देसी पीने वाले को व्हिस्की तो वह ज्यादा खुश हो जाता है, ऐसी सोच थी उसकी।
   इस बार कब्रिस्तान में फूकन मियां थे तो अपनी बेगम रुखसाना की कब्र पर ही। लेकिन मुद्रा बदली हुई थी। वह बीड़ी नहीं पी रहे थे... कुछ बुदबुदा रहे थे... पास जाने पर शब्द साफ हुए... ‘आप तो आराम से नीचे सो रही हैं... हमारी फिक्र ही नहीं है... ये मरने के बाद क्या हो गया है आपको... पहले तो आप ऐसी नहीं थीं... संगदिल बेपरवाह... मालूम है बहुएं मुझे खाना देना भूल जाती हैं... दो ही टाइम और दो ही रोटी खाता हूं, वह भी उनसे नहीं दी जाती...। आपकी औलादें हमारे मरने का इंतजार कर रही हैं... हम गैरजरूरी चीज जो हो गए हैं... अपना ही खून गलियां दे रहा हैं, अब आप ही बताइए कैसे जिए हम... एक गुजारिश है... आप अपने पास ही हमें जगह दे दीजिए... बिस्तर पर तो हम सालों साथ सोते रहे... यहां कब्र में भी सो लेंगे...’ कहते हुए फूकन मियां की आंख भर आई... कंधे पर रखे चरखाना अंगोछे से आंसू पोंछे... बाएं कुर्ते से बीड़ी का बंडल और दाएं जेब से माचिस निकाली... एक बीड़ी सुलगाई... इस बात से बेखबर कि पास पहुंचे बूढ़े ने उनकी सारी बातें सुन ली है... और वह उनके सामान्य होने का इंतजार भी कर रहा है- --।
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    बूढ़े ने जानबूझकर खांसा ताकि फूकन मियां उसकी ओर मुखातिब हो सके... फूकन मियां की तंद्र टूटी... हड़बड़ाकर बोले... ‘आइए साहब, सब खैरियत तो हैं...?’
   ‘जिंदगी से सांसों का तालमेल गड़बड़ाने को अगर खैरियत कहा जा सकता है तो मान लीजिए कि है...’
   ‘बड़ी गहरी बातें करते हैं...।’
   ‘आपसे ज्यादा नहीं... माफी चाहता हूं मगर अभी मैंने आपकी बातें सुनीं... आपको रोते हुए भी देखा... आप अपनी बेगम से कब्र में पनाह मांग रहे थे... यह जानते हुए भी कि कब्र जिंदों को पनाह नहीं देती...।’
   ‘सारे रास्ते अंत में यही आते हैं... और जब कोई रास्ता नहीं बच जाता तब भी जो पगडंडी बची रह जाती है वह भी यही आती है, कब्रिस्तान में... कब्र की ओर...।’
   ‘एक रास्ता है जो आपकी उस दुकान की ओर जाता है जो महीनों से बंद है...’ बूढ़े ने सिगरेट का डिब्बा फूकन मियां की ओर बढ़ा दिया।
   ‘आप तो सिगरेट ले आए...’
   ‘बीड़ी मिली नहीं...’
   ‘सिगरेट बीड़ी का विकल्प नहीं... बीड़ी को पिछले पचास साल से फूंकते रहने की एक आदत सी पड़ गई... सिगरेट मेरे वजूद से मेल नहीं खाती... हमने दो ही चीजों से प्यार किया बीवी और बीड़ी... बीवी तो छोड़ गई... बीड़ी को कैसे छोड़ दूं... सिगरेट पीना बीड़ी के साथ बेवफाई है हमारी नजरों में, जैसा बीवी के रहते किसी दूसरे औरत को चाहना-छूना और चूमना था... सोना तो बहुत दूर की बात... प्यार तो प्यार है मियां चाहे वह बीवी से हो... बीड़ी से हो या कुछ, ‘तू न सही तो और सही का फलसफा प्यार नहीं’ अÕयाशी है...’
   ‘आपने मेरी बात को नजरअंदाज कर दिया...।’
   ‘कौन सी बात?’
   ‘एक रास्ता दुकान की ओर भी जाता है... कब्र के अंधेरे में गर्क होने की बजाए टेबल लैंप की रोशनी में रेडियो को ठीक करना बेहतर है...।’
   ‘आपका रेडियो तो ठीक बज रहा है न...?’
   ‘बज तो रहा है... मगर मेरे मुताबिक नहीं, वह अपने ढंग से बजने लगा है... उसके भीतर कुछ ऐसा है जो आवाज को बदल देता है... दो जमाने के फर्क क्षण भर में मिट जाते हैं सुरैया से सुनिधि चौहान... सहगल से कमाल खान... मेरे हाथ में कुछ भी नहीं रहा, रेडियो है... स्विच है... मगर उसके भीतर से निकलने वाली आवाज पर मेरा नियंत्रण समाप्त हो गया है...।’
   ‘बैंड खराब हो गया है... कुछ नहीं किया जा सकता। पुराना है...।’
   ‘पुराने तो हम भी हैं... लेकिन अड़े हैं... खड़े हैं... अपनी पसंदों... चाहतों के साथ...।’
   ‘इंसान और मशीन में फर्क होता है...।’
   ‘यही बात तो मैं भी कह रहा हूं... आप इंसान है। मशीन की यह बीमारी आपकी कूवत से बाहर थोड़े ही न है...’
   ‘है...हो गई है, मशीन के आगे हम लाचार हैं... आपको रेडियो में आए बदलाव के साथ समझौता करना पड़ेगा’
   ‘आप हमें मायूस कर रहे हैं...’
   ‘जब सारे रास्ते बंद मालूम होते हैं तो मायूसी का कोहरा छा ही जाता है मैं माफी चाहता हूं, आप कोई नया रेडियो ले लीजिए...’ आपने मायूस कर दिया ‘खैर... मैं जा रहा हूं... लेकिन मेरी एक बात याद रखना... एक रास्ता दुकान की ओर भी जाता है...कब्र के अंधेरों से दूर टेबल लैंप की रोशनी की ओर...’ घर लौटते हुए उदास बूढ़ा सोच में पड़ गया। नया रेडियो, रुचियों को बदलना... उम्र के इस मोड़ पर जमाने के साथ तालमेल बैठाने के लिए खुद को बदलना पड़ेगा। यह कैसी आंधी चली है, जहां चिराग को रोशनी से दूर रहने का पाठ पढ़ाया जा रहा है... ताकि अंधेरा बना रहे।
   अचानक बीच में आ रहे इस अवरोध के लिए क्ष्ामा। दो कहानियों के बीच मैं खुद अपनी साली को लेकर आ रहा हूं। हुआ यूं कि एक दिन मेरी पत्नी ने अपनी बहन की बात मुझसे करवाने यानी उसके जन्मदिन पर विश करने के लिए मुझे मोबाइल पकड़ा दिया।
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    अरे याद आया मेरी साली ने भी प्रेम किया था... अपनी रिश्तेदारी में ही... साली चंडीगढ़ जैसे आधुनिक शहर की रहने वाली... पंजाबी तड़का लिए। लड़का बिहार के जंगल नरकटियागंज का बेहद शरीफ... परंपराओं और मूल्यों से फेविकोल के जोड़ की तरह चिपका... लड़के ने प्रेम तो किया मगर जब साली ने शादी का प्रस्ताव रखा तो वह हिम्मत नहीं जुटा पाया... साली ने उसे बहुत ललकारा। ...मगर लड़का संयुक्त परिवार और पूरे शहर में अपनी इज्जत को दांव पर लगाने की हिम्मत नहीं कर सका... प्रेम जब अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पाता है तो कई दफा प्रतिशोध में तब्दील हो जाता है... साली ने प्रेम में प्रतिशोध लिया... जिस लड़के से प्रेम करती थी उसी के छोटे भाई को प्रेम में फांस कर उसे बागी बना दिया... साली पर तब टी-वी- पर चल रहे उन धारावाहिकों का असर था... शायद ‘कहानी किस्मत की’ धारावाहिक। वह प्रेमी के छोटे भाई से शादी रचाकर उसी घर में पहुंच गई। दुल्हा के रूप में अब उसका प्रेमी उसका जेठ था... प्रेमी को दुख हुआ। टीस उठी... मगर उसने उफ्रफ तक नहीं की...।
   अब उस घटना को सात-आठ साल हो गए। साली के दो बच्चे हैं। एक बेटा और एक बेटी। पति सुंदर है पर बेरोजगार है। उसे चंडीगढ़ छोड़कर नरकटियागंज जैसे छोटे और ऊंघते शहर में रहना पड़ रहा है जहां सुविधाओं का टोटा है। वहां
   ऐसा जीवन है जिसकी वह आदी नहीं थी।
   ‘जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामना साली जी...।’
   ‘काहे का शुभ जीजा जी... बस आपने याद कर लिया वही काफी है...।’
   ‘ऐसे क्यों बोल रही हो...’
   ‘अफसोस तो यही कि मैं बोल भी नहीं सकती...।’
   ‘मैं समझा नहीं...।’
   ‘जानते तो आप सब हैं... उसमें समझने जैसी क्या बात है... जो मैंने चाहा वो मिला नहीं... जो मिला, वह मेरी मंजिल नहीं थी...
   ‘मगर इसे तो आपने खुद ही चुना था...’
   ‘वह चुनाव कहां था जीजाजी...’
   ‘क्या था फिर...’
   ‘प्रतिशोध... प्यार में लिया गया प्रतिशोध... न जाने वह कौन सा आवेग था जो मैंने अपने लिए ही कब्रिस्तान खोद लिया ताकि मैं खुद को वहां दफन कर सकूं... उस आग ने सबकुछ जला दिया। अब तो राख ही राख बची है जो फैल गई है मेरी हस्ती पर...’
   ‘कुछ तो बचा जरूर होगा उस राख के भीतर...’
   ‘शायद लहूलुहान, अपाहिज और गूंगी चाहत... जिसका अब कोई मतलब नहीं रह गया...’
   ‘कभी अकेले में सोचना उस बेमतलब में ही कोई मतलब छिपा होगा...।’
    ‘जब जिंदगी बेमानी हो जाए तो किसी भी चीज का मतलब कहां बचा रहता है जीजा जी, अब तो सबकुछ खत्म है- --।’
   ‘खत्म होकर भी... सबकुछ खत्म नहीं हो जाता... महफूज रहता है वह। खैर वह वहां आता है या नहीं...’
   ‘नहीं... मेरी शादी के बाद इस घर तो क्या शहर में भी कदम नहीं रखा... पिछले साल तो उसने पटना में शादी कर ली...’
   ‘गई थी तुम...’
   ‘गई थी...’
   ‘कैसा लगा...’
   ‘उस अहसास से गुजरी जो उसके दिल में तब उठा होगा जब मैंने उसके छोटे भाई से शादी कर रही थी। बेशक वह शादी में नहीं आया मगर अहसासों से गुजरने के लिए सामने की मौजूदगी जरूरी नहीं होती।... मुझसे उसकी शादी देखी नहीं गई... मैं रो पड़ती इसके पहले पेट दर्द का बहाना बनाकर कमरे में बंद हो गई... सब लोग समझ तो गए ही। वह भी, मेरा पति भी। लेकिन मैं सब कुछ समझकर भी सच्चाई का सामना नहीं कर पाने में असमर्थ थी’ वह रोने लगी-
   --
   ‘सॉरी... मैंने तुम्हारे जन्मदिन पर बेवजह ही रुला दिया...’
   ‘एक गुजारिश है जीजाजी...’
   ‘बोलो...’
   ‘आप जब छठ में यहां आएंगे तो उसे साथ जरूर लाइएगा... उसे देखने की बड़ी तमन्ना है... देखूंगी शादी के बाद कैसा लगता है...? लाएंगे न...’
   ‘हां जरूर...’ मैंने फोन रख दिया। मैं सोच सकता था कि वह उसके बाद क्या सोच रही होगी... और यह भी कि निश्चित तौर पर रो रही होगी... प्रेम में आंसुओं की बारिश या आंसुओं की बारिश में भीगता प्रेम।
   बाएं मकान वाली लड़की सोच रही थी... जो चला गया उसके साथ सब कुछ तो नहीं चला जाता... जिंदगी खत्म तो नहीं हो जाती। उसने खुद को रिडिजाइन किया। पर्सनालिटी इम्प्रूवमेंट का कोर्स किया। नौकरी बदली।
   लड़की बदलना चाहती थी। वह बदल रही थी। जितनी बदली थी अब तक, उसके आगे भी बदलने की इच्छा थी। उसका वजूद बन और बिगड़ रहा था। परेशान लड़की मंदिर गई। मन्नतें मांगी। ज्योतिष की दी हुई चमत्कारी अंगूठी पहनी। एक चमत्कारी गुरु की शरण में भी पहुंची। गुरुदेव ने आशीर्वाद दिया-सब मंगलमय होगा। लेकिन दिन शनि के शुरू हो गए।
   लड़की साहसी थी। दुखों से लड़ने का हौसला था उसमें। उसने इस थ्योरी को समझ लिया था कि किसी मोड़ पर जिंदगी का सफर समाप्त नहीं होता सिर्फ सफर का रुख बदल जाता है। उसने अपने मोबाइल में सेब गाने नए सिरे से लोड करवाए... जवां है मोहब्बत हंसी है जमाना, लुटाया है किसी ने खुशी का खजाना...। तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले... अपने भर भरोसा है तो एक दाव लगा लें...
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    क्या जिंदगी जुआ है, जहां खुशियों को दांव पर लगाया जा सकता है। ...जीत हार तकदीर नहीं महज इत्तेफाक है।
   लड़की के पड़ोस में एक नया लड़का आ गया। पढ़ाकू किस्म का। पत्रकार। कहानियां-कविताएं भी लिखता था। उसके हाथ में हमेशा कोई पुस्तक या डायरी होती। वह या तो कुछ पढ़ता या कुछ न कुछ डायरी में लिखता रहता। लड़के ने सबसे पहले लड़की की रुचियों को बदला। उसे अच्छी किताबें दी... क्लासिक फिल्में दिखाई... समझाया कि बारिश में साथ-साथ भीगने और तपते रेगिस्तान पर कदम मिलाते हुए चलने का नाम ही प्रेम है। और हम प्रेम होना चाहते हैं? लड़की-लड़के का कहा मानने लगी। लड़के को लगा लड़की बदल रही है। वह खुश था। लड़की को भी वहम हो गया कि वह बदल रही है। बदलाव के दौर में बिना बदले गुजारा भी कहां था? दोनों खुश। इस बात से बेफिक्र कि हर चीज की एक उम्र होती है-खुशी की भी।
   लड़की ने लड़के को लाइक किया। फिर दोस्ती, फिर प्रपोज किया-आई लव यू बोला। इसमें एसएमएस मोबाइल ने अहम भूमिका निभाई। बहुत जल्द सेक्स तक पहुंच गए। दोनों लिव-इन-रिलेशन में रहने लगे...। लाइफ में इंज्वॉय। इंज्वॉय ही लाइफ। सब कुछ मस्त-मस्त... वक्त की सांसों में जैसा नशा घुल गया... नशा चढ़ता है तो एक अवधि बाद उतरता भी है... छह महीने में ही लाइक की सासें कमजोर पड़ने लगी। लव की सांसें फूलने लगी... सेक्स भी यंत्रवत होने लगा, पति-पत्नी की तरह। उसमें पहले जैसा आवेग... मजा नहीं रहा... मजावाद के वृत्त में देह बर्फ की मानिंद पिघलती रही, कतरा-कतरा...।
   फिर एक समय ऐसा भी आया कि बाकी बर्फ पूरी तरह पिघल गई। अब सिर्फ पानी की नमी बची रह गई थी। और नमी को सूखने और गर्द बनने में देर ही कितनी लगती है। बूढ़ा बाजार में था। वह दुकान दर दुकान भटक रहा था। वह एक ऐसा नया रेडियो चाहता था जिसने विविध भारती बजे-
   -- बाजार में एफएम वाले रेडियो ही उपलब्ध थे। कुछेक रेडियो मिले जिसके एफएम साफ बजता था, मगर विविध भारती की आवाज घर्र-घर्र के साथ सुनाई देती... दुकानदारों ने उसे समझाया चचा जान, आप एफएम रेडियो ले लो... वह नहीं लेने की जिद दर अड़ा रहा... एक बड़े दुकानदार ने बड़ी विनम्रता के साथ समझाया कि अब विविध भारती सुनता ही कौन है... आपको पुराने गीत सुनने से मतलब है न, आप आईपैड ले लो, हजारों गाने इसमें लोड रहेंगे... इन्हें सुनते रहो... आवाज साफ-सुथरी टनाटन, जब कोई दूसरा विकल्प न हो... रास्ता बचा न हो... आदमी को समझौता करना ही पड़ता है... बिना जरूरत और खरीदार की संवेदना को समझे समान को बेच देना ही बाजार का नया फंडा है... दुकानदार बूढ़े को समझाने में कामयाब हो गया... उसे एक आईपैड खरीदना पड़ा। उसके साथ लीड भी... दोनों कानों में लगाकर सुनने के लिए... उसने दोनों हेडफोन कान में लगा लिया।
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    वह गीत सुन रहा था। पता नहीं कौन सा... मगर दूर से दिखाई दे रहा था... उसके चेहरे पर खुशी के भाव थे... उसके जिस्म की जुम्बिश धीरे-धीरे तेज होने लगी... थोड़ी देर बाद वह थिरकने लगा।... यह सिर्फ वह बूढ़ा ही जानता था कि वह कौन सा गीत सुन रहा है... ऐसा पहले नहीं होता था। गीत सुनकर वह खुश और उदास पहले भी होता था... मगर पड़ोस में गीत के बोल सुनाई देते थे... अब नहीं दे रहे थे। मालूम पड़ता था कि वह कोई विक्षिप्त है जो यूं ही विभिन्न मुद्राएं बना रहा है... आईपैड लेकर बूढ़ा फूकन मियां के पास पहुंचा कब्रिस्तान में। वहां वे नहीं मिले। वह दुकान पहुंचा। टेबल लैंप की रोशनी में वह किसी बीमार रेडियो का ऑपरेशन कर रहे थे...। बूढ़े ने गणेश छाप बीड़ी का बंडल उन्हें सौंपते हुए आई पैड दिखाया तो बड़े गंभीर होकर फूकन मियां बोले थे-यह नए जमाने का संगीत है। नया चलन-नई सोच... मेरा है तो मैं ही सुनूं। तुमको भी सुनना है वो जाओ बाजार से दूसरा खरीद लाओ...। एक परिवार में पहले एक रेडियो होता था... अब एक परिवार में जितने सदस्य उतने आईपैड या गानों वाला मोबाइल।
   गाना सुनते-सुनते बूढ़ा अचानक उदास हो गया, शीघ्र ही उसके चेहरे पर उभरी खीझ, गुस्से को दूर से भी देखा जा सकता था। ...न जाने क्या सोचकर उसने हेडफोन को कानों से निकाल दिया... आईपैड को भी जमीन पर पटकर चकना चूर कर दिया। कोई पागलपन का दौर पड़ा था उस पर। वह हंस रहा था, मगर उसकी आंखें नम थी... दिल में क्या भाव थे, यह तो वही जानता था।
   एक सुबह लड़की ने मकान खाली कर दिया। वह कहीं और चली गई... पत्रकार दोस्त से उसका ब्रेकअप हो गया था- -- क्यों हुआ, इसकी सही सही वजह दोनों में से किसी को नहीं मालूम हो सका... जिंदगी में बहुत सी घटनाओं की असली वजह हम नहीं जान पाते... बस, अपनी सुविधा अनुसार किसी कारण का घटना के बरक्स खड़ा कर देते हैं।- --
   लड़की ने वह मकान खाली करते वक्त किसी को कुछ नहीं बताया... मगर जाते वक्त वह रो रही थी... जैसे पुराने जमाने में मायके से ससुराल जाते वक्त बेटियां बिलखती थीं... उसकी शादी तय हो गयी थी...
   जिस दिन बूढ़े ने आईपैड तोड़ा था... उस रात वह सो नहीं पाया... कमरे की बत्तियां नहीं बुझाई... वह पूरी रात बच्चों की तरह फफक-फफक कर रोता रहा था। अगली सुबह वह बूढ़ी औरत आई। सर्दी की धूप में वह उस बूढ़ी की गोद में सिर रख कर रोता रहा, रोते रोते सो गया। रात को सोया भी तो नहीं था, इसलिए गहरी नींद आ गई... बूढ़ी औरत ने उसको जगाया नहीं। उसके बालों को सहलाती रही, पर चार घंटे तक बूढ़ा सोता रहा। उसके भारी सिर के बोझ को वह सहन करती रही... बूढ़ी की जांघ में सूजन आ गई... दर्द भी बेहिसाब हो रहा था। उस रात दोनों ने कोई कसम नहीं खाई, कहीं किसी अनुबंध पत्र पर दस्तखत नहीं किए... रस्म-ओ-रिवाज का कहीं धुंआ नहीं उठा। लेकिन खास बात यह हुई कि उस रात वह बूढ़ी वहां से वापस नहीं गई... और कभी नहीं गई... बूढ़ी ने घर बदल लिया... घर बसा लिया, घर रच लिया...।
   लड़की के घर छोड़ने और बूढ़ी के घर रचने की घटना को काफी अरसा गुजर गया। तकरीबन दो साल। मैं भी उन घटनाओं को भूलने लगा था। एक रात सपने में वह लड़की लौटी अपने पति के साथ। ये उन लड़कों में से नहीं था जिससे वह प्रेम करती थी... लड़की प्रसन्न थी... क्या पता खुश होने का नाटक कर रही हो... लड़का खुश था क्योंकि मालिक था। एक बड़ा बिजनेसमैन उसकी संपति में एक नई प्रॉपर्टी उसकी पत्नी भी दर्ज हो गई थी... वह लड़की पत्रकार दोस्त को उसकी पुस्तक लौटाने आई थी... कहानी संग्रह ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’। लड़के ने उनके स्वागत में समोसे मंगवाए, कोल्ड ड्रिंक, जलेबी तीनों ने मिलकर खाए...
   तीनों उस बूढ़े के पास पहुंचे। बूढ़ा उस वक्त गमलों में पानी डाल रहा था, पानी देने के बाद वह उन पौधों को कुछ इस अंदाज में सहला रहा था, मानो कोई प्रेमी पूरे प्रेम में डूबकर प्रेमिका के अधर पर उंगली फेर रहा हो...।
   पत्रकार ने पहले लड़की को देखा, पास ही खड़ी बूढ़ी की आंखों में झांका, पर फिर पेशेगत अंदाज में पूछा-‘बाबा मैं, आपको पिछले सालों से देख रहा हूं... मुझे लगता है आप प्रेम को जीते हैं-मेरा सवाल उसी से जुड़ा है कि प्यार है क्या...’
   ‘पता नहीं बेटे, उसे ही तो ढूंढ़ रहा हूं...’ बूढ़ा बड़ी मासूमियत से बोला और बूढ़ी की आंखों में डूब गया...।
   ठीक उसी वक्त छत की मुंडेर पर नर-मादा कबूतरों ने चोचें लड़ाई... अपने गुजरे जमाने में चांद की चाहत रखने वाली प्रेमिका और अब वेश्या बन गई, औरत ने अपने बूढ़े ग्राहक के सामने नंगी टांगें फैलाई... भूख से तड़पकर किसान ने आत्महत्या की... अमेरिकी सैनिक लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक सौ सत्ताइसवें देश में उतरे... आदिवासियों को नक्सली बताकर पुलिस ने ढेर किया... इस देश का प्रधानमंत्री रोबोट में तब्दील हो गया और 15 अगस्त को झंडा फहराने के लिए लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते वक्त उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे... संसद सबसे बड़ी मंडी में तब्दील हो गई... वह सब कुछ हुआ जो नहीं होना चाहिए... और इन सबके बीच प्रेम कहीं दुबका था किसी खरगोश की मानिंद। पास ही कहीं फैज की आवाज फिजा में गूंजी-‘और भी दुख है जमाने में मोहब्बत के सिवा, मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग...’
   सपना टूटता है-- अपनी आंख भींचता हुआ मैं कमरे से बाहर निकल छत पर आ जाता हूं-दाएं वाले मकान में बूढ़ा अब भी पौधों को पानी दे रहा है। बाएं वाले फ्रलैट में पत्रकार लड़का सिगरेट पी रहा है... और मैं सोचने लगता हूं प्रेम के बारे में। एक गौरेया है सदियों से दाना चुन रही है... एक जोड़ा कबूतर खंडहर के मुंडेर पर चोंच लड़ा रहा है-एक मांझी उस पार जाने के लिए पतवार चला रहा है, एक परछाई जो कभी छोटी होती है कभी बड़ी, एक प्रेम जो हकीकत भी उतना ही है जितना फसाना। बेगम अख्तर की आवाज है-‘ए मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया।’ घनानंद की पीर-‘अति सुधो स्नेह को मारग है जहां नेक सयानप पर बांक नहीं...’ इन सबके बीच फैज की गुजारिश-मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग...! ’’’

हिन्दी सिनेमा की भाषा - सुनील मिश्र

Sunil Mishr - Language of hindi movies  
आलोचनात्मक ढंग से चर्चा में आयी अनुराग कश्यप की दो भागों में पूरी हुई फिल्म गैंग ऑफ वासेपुर से एक बार फिर हिन्दी सिनेमा में सिने-भाषा को लेकर बातचीत शुरू हुई है। एक लम्बी परम्परा है सिनेमा की जिसके सौ बरस पूरे हुए हैं। सिनेमा हमारे देश में आजादी के पहले आ गया था। दादा साहब फाल्के ने हमारे देश में सिनेमा का सपना देखा और उसको असाधारण जतन और जीवट से पूरा किया। भारत में सिनेमा का सच बिना आवाज का था। दादा फाल्के की पहली फिल्म राजा हरिश्चन्द्र मूक फिल्म थी। आलमआरा से ध्वनि आयी लेकिन इसके पहले का सिनेमा मूक युग का सिनेमा कहा जाता है।
Sunil Mishr - Language of hindi movies
ध्वनि आने तक परदे पर सिनेमा के साथ पात्रों के संवादों को व्यक्त किए जाने की व्यवस्था होती थी। परदे पर संवादों को लिखकर प्रस्तुत करने की पहल भी दर्शकों को तब बड़ी अनुकूल लगती थी। जब सिनेमा में आवाज हुई तभी संवाद सार्थक हुए। यहीं से पटकथा और संवाद लेखक की भूमिका शुरू होती है।

हमारा सिनेमा संवादों की परम्परा के साथ सीधे ही रंगमंच और तत्समय व्याप्त शैलियों से बड़ा प्रभावित रहा है। सिनेमा से पहले रंगमंच था, पात्र थे, अभिव्यक्ति की शैली थी। बीसवीं सदी के आरम्भ में नाटकों में पारसी शैली के संवाद बोले जाते थे। पृथ्वीराज कपूर जैसे महान कलाकार नाटकों के जरिए देश भर में एक तरह का आन्दोलन चला रहे थे जिससे अपने समय के बड़े-बड़े सृजनधर्मी जुड़े थे। नाटकों, रामलीला, रासलीला में पात्रों द्वारा बोले जाने वाले संवादों का असर सिनेमा में लम्बे समय तक रहा है। सोहराब मोदी, अपने समय के नायाब सितारे, निर्माता-निर्देशक की अनेक फिल्में इस बात का प्रमाण रही हैं। बुलन्द आवाज और हिन्दी-उर्दू भाषा का सामन्जस्य उस समय के सिनेमा की परिपाटी रहा। आजादी के बाद का सिनेमा सकारात्मकता, सम्भावनाओं और आशाओं का सिनेमा था। धरती के लाल, कल्पना और चन्द्रलेखा जैसी फिल्में उस परिवेश की फिल्में थीं। नवस्वतंत्र देश का सिनेमा अपनी तैयारियों के साथ आया था। कवि प्रदीप जैसे साहित्यकार पौराणिक और सामाजिक फिल्मों के लिए गीत रचना कर हिन्दी साहित्य का प्रबल समर्थन कर रहे थे। हिन्दी में सिनेमा बनाने वाली धारा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, दक्षिण और पूर्वोत्तर राज्यों से आयी। निर्माता, निर्देशक, गीतकार, संगीतकार, नायक-नायिका, विभिन्न चरित्र कलाकारों में जैसे श्रेष्ठता की एक श्रृंखला थी। इन सबमें हिन्दी के जानकार और अभिव्यक्ति की भाषा में हिन्दी के सार्थक उपयोग की चिन्ता करने वाले लोगों के कारण सिनेमा को एक अलग पहचान मिली।

राजकपूर, बिमलराय जैसे फिल्मकार छठवें दशक से अपनी एक पहचान कायम करने मे सफल रहे थे। राजकपूर के पास अपने पिता का तर्जुबा था। उनके पिता ने उनको एक सितारे का बेटा बनाकर नहीं रखा था बल्कि उनको उन सब संघर्षों से जूझने दिया था, जो एक नये और अपनी मेहनत से जगह बनाने वाले कलाकार को करना होते हैं। राजकपूर संगीत से लेकर भाषा तक के प्रति गहरा समर्पण रखते थे। आह, आग, आवारा, श्री चार सौ बीस आदि फिल्मों में हिन्दी के संवादों में कहीं कोई समस्या नहीं है। इधर बिमलराय जैसे फिल्मकार ने बंगला संस्कृति और भाषा से श्रेष्ठ चुनकर हिन्दी के लिए काम किया और अपने समय का श्रेष्ठ सिनेमा बनाया। Sunil Mishr - Language of hindi movies
 वे नबेन्दु घोष जैसे लेखक, पटकथाकार, हृषिकेश मुखर्जी जैसे सम्पादक जो कि आगे चलकर बड़े फिल्मकार भी बने और अनेक महत्वपूर्ण फिल्में बनायीं, इन सबके साथ मुम्बई में काम करने आये थे। उनकी बनायी फिल्में हमराही, बिराज बहू, दो बीघा जमीन, परिणीता, देवदास, सुजाता, बन्दिनी आदि मील का पत्थर हैं। हम यदि इन फिल्मों को याद करते हैं तो हमें दिलीप कुमार, बलराज साहनी, नूतन, सुचित्रा सेन, अशोक कुमार ही याद नहीं आते बल्कि मन में ठहरकर रह जाने वाले दृश्य, संवाद और गीत भी यकायक मन-मस्तिष्क में ताजा हो उठते हैं। हिन्दी सिनेमा की भाषा को बचाये रखने की कोशिश पहले नहीं की जाती थी क्योंकि सब कुछ स्वतः ही चला करता था। हिन्दी फिल्मों में हिन्दी को कोई खतरा नहीं था। बाद में चीजें बदलना शुरू हुई। जो लोग इस बदलाव से जुड़े थे और इसका समर्थन कर रहे थे उनका मानना यही था कि नये जमाने के साथ सिनेमा को भी अपनी एक भाषा की जरूरत है।
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दर्शक एकरूपता से उकता गया है जबकि ऐसा नहीं था। दर्शक समाज इतना बड़ा समूह है कि वह स्तरीयता की परख करना जानता है और यकायक भाषा में भोथरा किया जाने वाला नवाचार उसकी पसन्द नहीं हो सकती। ठीक है, पीढि़याँ आती हैं, जाती हैं, अपनी तरह से वक्त-वक्त पर अपनी दुनिया भी गढ़ी जाती है लेकिन अपनी सहूलियत और बदलाव के लिए मौलिकता और सिद्धान्तसम्मत चीजों को विकृत किया जाये, यह बात गले नहीं उतरती।
    यह एक अच्छी बात रही है कि हिन्दी के साथ उर्दू का समावेश करके सिनेमा को एक नया प्रभाव देने की कोशिश की गयी, वह स्वागतेय भी रही क्योंकि उर्दू तहजीब की भाषा है, उसका अपना परिमार्जन है। फिल्मों मे संवाद लेखन करने वाले, गीत लेखन करने वाले उर्दू के साहित्यकार, शायरों का भी लम्बे समय बने रहना और सफल होना इस बात को प्रमाणित करता है कि दर्शकों ने इस नवोन्मेष का स्वागत किया। इसी के साथ-साथ हिन्दी के साथ निरन्तर बने रहने वाले लेखकों, पटकथाकारों और निर्देशकों ने अपनी एक धारा का साथ नहीं छोड़ा। अब चूँकि सत्तर के आसपास एक टपोरी भाषा भी हमारे सिनेमा में परिचित हुई जिसका एक विचित्र सा उपसंहार हम मुन्नाभाई एमबीबीएस में देखते हैं, उसने सिने-भाषा का सबसे बड़ा नुकसान करने का काम किया। उच्चारण, मात्रा और प्रभाव सभी स्तर पर इस तरह की बिगड़ी हिन्दी लगभग चलने सी लगी। हालाँकि साहित्यकारों में मुंशी प्रेमचन्द से लेकर अमृतलाल नागर, नीरज, शरद जोशी, फणिश्वरनाथ रेणु आदि का सरोकार भी हिन्दी सिनेमा से जुड़ा मगर इन साहित्यकारों का हम ऐसा प्रभाव नहीं मान सकते थे कि उससे सिनेमा का समूचा शोधन ही हो जाता। वक्त-वक्त पर ये विभूतियाँ हिन्दी सिनेमा का हिस्सा बनीं, नीरज ने देव आनंद के लिए अनेकों गीत लिखे, शरद जोशी ने फिल्में और संवाद लिखे, रेणु की कहानी पर Sunil Mishr - Language of hindi movies
तीसरी कसम बनी, नागर जी की बेटी डॉ. अचला नागर ने निकाह से लेकर बागबान जैसी यादगार फिल्में लिखीं। मन्नू भण्डारी और राजेन्द्र यादव की कृतियों पर फिल्में बनी, पण्डित भवानीप्रसाद मिश्र दक्षिण में लम्बे समय एवीएम के लिए लिखते रहे लेकिन सकारात्मक विचारों की विरुद्ध प्रतिरोधी विचार ज्यादा प्रबल था लिहाजा वही काबिज हुआ। बच्चन जैसे महान कवि के बेटे अमिताभ बच्चन तक मेजर साब फिल्म में सेना के अधिकारी बने अपने सीने पर जसवीर सिंह राणा की जगह जसविर सिंह राणा की नेम-प्लेट लगाये रहे, लेकिन एक बार भी उन्होंने निर्देशक को शायद नहीं कहा होगा कि जसविर को जसवीर करके लाओ।
    सत्तर के दशक में जब नये सिनेमा के रूप में सशक्त और समानान्तर सिनेमा का प्रादुर्भाव हुआ तब हमने देखा कि एक तरफ से श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलानी जैसे फिल्मकारों ने अपने सिनेमा में भाषा और हिन्दी के साथ-साथ उच्चारणों की स्पष्टता पर भी ध्यान दिया। अगर कहूँ कि निश्चय ही उसके पीछे स्वर्गीय पण्डित सत्यदेव दुबे जैसे जिद्दी और गुणी रंगकर्मी थे तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। दुबे जी हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने मुम्बई में हिन्दी रंगकर्म की ऐसी अलख जगायी कि अपने काम से अमर हो गये। वे हिन्दी की शुद्धता और उसके उच्चारण तक अपनी बात मनवाकर रहते थे। यही कारण है कि Sunil Mishr - Language of hindi movies
मण्डी, जुनून, निशान्त, अंकुर, भूमिका जैसी फिल्में हमें इस बात का भरोसा दिलाती हैं कि कम से कम एक लड़ाई भाषा के सम्मान के लिए प्रबुद्ध साहित्यकारों, लेखकों और कलाकारों द्वारा जारी रखी गयी। यह काम फिर उनके समकालीनों में Sunil Mishr - Language of hindi movies सुधीर मिश्रा, प्रकाश झा, केतन मेहता, सईद अख्तर मिर्जा ने भी किया। बी.आर. चोपड़ा की महाभारत के संवाद लेखन में डॉ. राही मासूम रजा के योगदान को सभी याद करते हैं। इसी तरह रामानंद सागर ने भी रामायण धारावाहिक बनाते हुए उसके संवादों पर विशेष जोर दिया। भारत एक खोज धारावाहिक भी भाषा के स्तर पर एक सशक्त हस्तक्षेप माना जाता है। तीसरी कसम, सद्गति, सारा आकाश जैसी फिल्में साहित्यिक कृतियों पर कालजयी निर्माण के रूप में जाने जाते हैं। उपन्यासकार गुलशन नंदा का उल्लेख भी यहाँ इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे सामाजिक उपन्यासों के एक लोकप्रिय लेखक थे और उनकी कृतियों पर अपने समय में सफल फिल्में बनीं जिनमें फूलों की सेज से लेकर काजल, सावन की घटा, पत्थर के सनम, नीलकमल, कटी पतंग, खिलौना, शर्मीली, नया जमाना, दाग, झील के उस पार, जुगनू, जोशीला, अजनबी, महबूबा आदि शामिल हैं।
Sunil Mishr - Language of hindi movies    बिमल राय के सहायक तथा उनकी फिल्मों में सम्पादक रहे प्रख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा भी भाषा एवं हिन्दी के स्तरीय प्रभाव के अनुकूलन का सिनेमा रहा है। उन्होंने सत्यकाम, अनाड़ी, अनुपमा, आशीर्वाद, आनंद, मिली, चुपके-चुपके, खट्टा-मीठा, गोलमाल जैसी अनेक उत्कृष्ट फिल्में बनायीं। स्मरण करें तो इन सभी फिल्मों में भाषा के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों को बड़े महत्व के साथ पेश करने काम किया गया है। हाँ, चुपके-चुपके में हिन्दी भाषा-बोली को हास्य के माध्यम से एक कथा रचने में हृषिदा को बड़ी सफलता मिली। फिल्म का नायक प्यारे मोहन जो कि परिमल त्रिपाठी से इस नकली चरित्र में रूपान्तरित हुआ है, एक-एक शब्द हिन्दी में बोलता है, वाक्य भी उच्च और कई बार संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में बोलता है। ऐसा करके वह अपनी पत्नी के जीजा जी को परेशान किया करता है, आखिर क्लायमेक्स में रहस्य खुलता है और मजे-मजे में फिल्म खत्म हो जाती है। चलते-चलते हम शुद्ध हिन्दी में लिखा फिल्म हम, तुम और वह का एक गाना भी याद करते हैं, प्रिय प्राणेश्वरी, हृदयेश्वरी, यदि आप हमें आदेश करें तो प्रेम का हम श्रीगणेश करें........................
    10/21 साउथ टी.टी. नगर, भोपाल-3, मध्यप्रदेश

फाल्गुनी मुक्तक - अरविन्द कुमार 'साहू'


अरविन्द कुमार 'साहू'
खत्री मोहल्ला, ऊंचाहार
राय बरेली - 229404

फाल्गुनी मुक्तक

(1)
कहीं अपना सा लगे ,कहीं पराया फागुन ।
आम के बौर सा फिर झूम के आया फागुन ।
काग की अनसुनी है ,कन्त नहीं लौटा है,
विरह के अश्रु में विरहिन का नहाया फागुन ।।
(2)
फूल टेसू के हुए आग ,जब आया फागुन ।
holi greetings shabdankan 2013 २०१३ होली की शुभकामनायें शब्दांकन किसी विरहिन के जगे भाग जब आया फागुन ।
फिर किसी राधा को कान्हा की आस जागी है,
मधुर मिलन के छिडे राग जब आया फागुन ।।
(3)
मिठास घोल कर रिश्तों में ,ले आता फागुन ।
भेद अपने - पराये का भी मिटाता फागुन ।
भूल कर लाज - शरम हर कोई बौराया है,
गोरी की उँगली पर ,बाबा को नचाता फागुन ।।

कहानी : रेप मार्किट (अगला भाग)- गुलज़ार #Gulzar Story final part

gulzar story kahani rape market shabdankan कहानी : रेप मार्किट - गुलज़ार #Gulzar शब्दांकन #Shabdank

पहला भाग

दूसरा भाग

        वो स्टेशन पर उतरते ही ऐसे उठा ली गई जैसे कोई फुटपाथ पर पड़ा सिक्का उठा ले!       ट्रेन रुकी ही थी कि एक आदमी ने बिना जान-पहचान के आगे बढ़कर ट्रंकी हाथ से ले ली. प्लेटफार्म पर रखी और बोला:
      “रजि़या की बहन हो?”
“हूं!” उसे कुछ ठीक नहीं लगा फिर भी गर्दन हिला दी. “हां”
      “छोटू बीमार है, अबुल. इस लिए नहीं आ सकी.”
      “और भाईजान...?”
      आदमी ने एक लंबी आह ली और बोला: “घर चल कर देख लेना.”
      ये कह के उसने ट्रंकी उठा ली. एक पोटली ज़किया के हाथ में दी और खुद आगे-आगे चल दिया. उसने फिर पूछा–
      “क्या हुआ है भाईजान को?”
      “उन्हें तो चार महीने हुए रजि़या को छोड़े. एक दूसरी के साथ रह रहे हैं. वो भी उसी चाली में! चल...”और पता नहीं किस बरते पर उसने हाथ से पकड़ के टैक्सी में बिठाया और उड़ गया. गुम हो गया बंबई शहर में
      उसकी रिपोर्ट इंस्पेक्टर चितले (रघुवंश चितले) के पास आई थी तो उसने तस्वीर देखते ही कह दिया था:
      “इसे तो मैं ढूंढ़ लूंगा. ये माल बड़ी जल्दी मार्किट में बिक जाने वाला है– कहां बिकेगा ये भी जानता हूं.”
      “कैसे मालूम?”...उसके जूनियर ने पूछा था.
      “अरे भाई पूरे महाराष्ट्र में दिन के दो सौ साठ रेप होते हैं. एवरेज है हर पांच मिनट में दो और कभी-कभी ढाई.” वो हंसा, “कम से कम डेढ़ सौ की रिपोर्ट मेरी नज़रों से रोज़ गुज़रती है. ‘रेप मार्किट’ हम से अच्छा कौन समझेगा?”
      फिर जोर से हंसा–”ज़रा पता लगवाओ, ये तस्वीर छपवाई किसने है?”
      ये बात सिर्फ़ ड्राइवर और कंडेक्टर को मालूम थी कि पीछे से चैथी सीट पर बैठी अकेली सवारी एक महिला थी, जो सबसे आखि़र में उतरेगी. उसे शिवड़ी पहुंचना था. और वो ‘धानू रोड’ से चलने के बाद दिन में कई बार पूछ चुकी थी कि बस शाम को कितने बजे ‘दहेसर’ पहुंचेगी. क्योंकि वहां से बस बदल कर शहर बंबई में जाना था. उसका बेटा और शौहर वहीं बंबई की किसी फैक्ट्री में काम करते थे. रात
को देर हो गई तो कहां भटकेगी टैक्सी लेकर. उधर तो आटो भी नहीं चलता. “और भाई मेरे पास इतने पैसे नहीं है...टैक्सी के!”




      चौथी बार जब महिला ने ये बात दोहराई तो शाम हो चुकी थी. अंधेरा उगने लग गया
      गाड़ी अभी अपनी मंजि़ल से बहुत दूर थी. सिर्फ़ एक पसेंजर और था, और वो भी अपनी खिड़की में सर दिए ऊंघ रहा था.
      कंडेक्टर महिला के पास ही बैठ गया और बोला:
      “तू क्यों फि़क्र करती है बाई, बंबई तो सारी रात जगमगाती रहती है. तू खोएगी नहीं!...और बंबई तो अजीब बस्ती है, कोई खो जाए तो बंबई ख़ुद उसे ढूंढ़ के मंजि़ल पर पहुंचा देती है.”
बाई की कुछ समझ में नहीं आया. ज़रा-सी मुस्करा दी...बस!
      ड्राइवर ने आंख मारी. कंडेक्टर पास आया तो बोला:
      “बाई में नमक है...!”
      “हाथ-पांव टाइट हैं अभी तक.”
      “वो दूसरा कुंभकरण कहां उतरेगा?”
      अचानक खिड़की में सोया मुसाफि़र जाग गया.
      “विरार निकल गया क्या?”
      “हां...कब का...!”




      “अरे-अरे...रोको!”
      ड्राइवर ने फिर आंख मारी और गाड़ी रोक दी. जल्दी-जल्दी मुसाफि़र ने अपने थैले-बैग संभाले और उतर गया. इस बार कंडेक्टर ने आंख मारी.
      “साले को विरार से पहले ही उतार दिया.”
      एक ख़ामोश से हाथ पे हाथ मारा दोनों ने. आंखें कुछ और ही कह रही थीं. बाई अब अकेली थी बस में और वो भी कुछ-कुछ ऊंघ रही थी. अंधेरा बढ़ गया था. ड्राइवर ने ऊपर का आईना घुमा कर बाई के हाथ-पांव देखे, और ‘दहेसर’ से पहले ही एक वीरान-सी सड़क पर बस उतार दी.
      “मैडम-मैडम...मेम साहब!” इफ़ती ने उचक-उचक के उस जर्मन लड़की को अपनी तरफ़ रागि़ब कर लिया. वो होटल से निकली ही थी, इफ़ती फ़ौरन अपनी टैक्सी घुमा के पहुंच गया.
“इफ़टी!” मुस्करा के वो लड़की टैक्सी में घुस गई, और गर्दन उसके कान के पास लाकर बोली,
      “आई वांट टु वेयर बेंगल्ज़.”
      “व्हाट? व्हाट?” इफ़ती को थोड़े ही से अंगे्रज़ी के लफ़्ज़ आते थे. वो भी उसने इसी होटल से टूरिस्ट पकड़-पकड़ के सीख लिए थे. उस जर्मन लड़की ने अपनी बांहें दिखा कर समझाया, चूडि़यां! वो चूडि़यां पहनना चाहती थी. इफ़ती ख़ुश हो गया. कोलाबा से भिंडी बाज़ार! अच्छा भाड़ा बनेगा और तक़रीबन आधे दिन की सवारी तो पक्की हुई.
      “यस-यस...यस-यस.”
      उसके बाद पता नहीं वो गोरी कलाइयां घुमा के क्या-क्या कहती रही. साइज़ की बात कर रही थी या रंग की–लेकिन वो “यस-यस!” ही कहता रहा.
      “फ़ार!...वैरी फ़ार... !” उसने बांह झुला कर उंगलियों से तर्जुमा कर दिया. लड़की की मुस्कराहट और गर्दन ने रज़ामंदी दे दी. कई जगह पर वो इशारों से कुछ-कुछ पूछ लेती थी, और अगर यस-नो से काम नहीं चलता तो वो किसी भी बि¯ल्डग की तरफ़ इशारा करके नाम ले देता.
      “हाईकोर्ट...हाईकोर्ट...ब्लैक होरस, काला घोड़ा...काला घोड़ा वैरी फ़ेमस! मशहूर है! बहुत!” कहते हुए हाथ सर से ऊपर तक उठा देता.
      एक बात बड़ी ख़राब थी उस लड़की में, एक तो सिगरेट बहुत पीती थी, दूसरे हंसती बहुत थी और बात-बात पर ताली बजाने लगती थी. “गुड-गुड!”–बस इतना ही समझ आता था उसे. कभी-कभी आगे आकर उसके कंधों पर हाथ रखके जब कुछ पूछती तो होंठ उसके कानों को छू जाते थे. हटाना मुश्किल हो जाता.
      “अरे लोग देख रहे हैं यार. पीछे हट कर बात कर ना.”
      “व्हाट?” वो पूछती.
      “सिटडाउन...माई व्हील...बैलेंस नहीं रहता यार.”




      वो स्टैरिंग व्हील दाएं-बाएं झुला कर बताता.
      “यस...यस...!” वो कहती. चूडि़यां पहन कर वो लड़की बहुत खुश हुई. बार-बार उसकी आंखों के सामने बजाती और खिलखिला के हंस पड़ती. मुश्किल हो गई जब टैक्सी तक जाते-जाते उसने इफ़ती की बांह में हाथ डाल लिया था. सब देख रहे थे. फुटपाथ पर भीड़ थी, दूकानें थीं, और टैक्सी काफ़ी दूर खड़ा करके आना पड़ा था. उस पर एक और आफ़त आन पड़ी. एक बुकऱ्ापोश औरत नक़ाब उलटे, कुछ ख़रीद रही थी, उसके हाथ पकड़ लिए उसने.
      “इफ़टी...व्हाट इज़ दिस?...आई वांट दिस.”
      घबरा के औरत ने हाथ अंदर कर लिए. और वो उसके हाथ पकड़ के बाहर निकालने की जि़द करने लगी.
“शो मी...शो मी...प्लीज़.”
      “मैडम...दैट इज़ मेहंदी...मेहंदी...अब यहां से चलो, मैं लगवा दूंगा. कम...कम नाव!”
      अब इफ़ती की बारी थी. उसे हाथ से, कमर से, बांह से खींच के लाना पड़ा. सारा रास्ता वो रूठी रही.
      उसके बाद इफ़ती का भी मन ही नहीं किया कि टैक्सी निकाले. होटल के सामने ही गाड़ी लगा के सो गया...वो भी शाम को बाहर नहीं निकली. इफ़ती भी कहीं नहीं गया.
      अगली सुबह चार या पांच बजे का वक़्त होगा. आसमान अभी खुला नहीं था. इफ़ती की आंख खुल गई. वो जर्मन लड़की होटल से निकल रही थी. वो भी शायद रात भर जागी थी, या नाचती रही थी. हमेशा की तरह रात देर तक होटल में बैंड बजता रहा था. ज़्यादातर फि़रंगी रात को पी के नाचते रहते हैं. फिर देर तक सोते हैं. लेकिन हैलेन पता नहीं क्यों जल्दी उठ गई थी. उसने ख़ुद ही एक नाम दे दिया था उस जर्मन लड़की को.
      गेट पर खड़े हो के हैलेन ने इधर-उधर देखा तो इफ़ती ने हाथ हिला दिया. वो चिल्लाई, “हाये ए...”
      जब तक इफ़ती टैक्सी स्टार्ट करता वो आकर सामने की सीट पर उसके साथ ही बैठ गई.
      “लेट अस गो.”
      “किधर?...व्हैर...? मेहंदी के लिए बहुत जल्दी है.”
      “उसने घड़ी दिखाई और हथेली का इशारा किया.
      “ओह नो...सिली! चलो...मार्निग वाक इन टैक्सी.” फिर वही हंसी और ताली बजा कर बोली. “गेट वे इंडिया... चलो.”
      बहुत दूर नहीं था. वो कोलाबा में ही थे. इफ़ती चल तो दिया लेकिन वो ऐसी सट के बैठी थी उसके साथ–और स्कर्ट भी इतनी पतली कि बार-बार नज़र हटानी पड़ती थी.
      ‘गेटवे’ पर इतनी सुबह कोई था नहीं, लेकिन दो-तीन मोटरबोट वाले जाग रहे थे. ऐलीफें़टा की सवारी अक्सर पौ फटे मिल जाती थी. और अब रात भी हल्की होने लगी थी. उन लोगों ने इफ़ती को पहुंचते देखा था. एक ने दूर से आवाज़ भी दी थी–
      “ऐलीफेंटा–मैडम?”
      “नहीं-नहीं–यूंही घूमने आए हैं.”

अगला भाग

इफ़ती ने जवाब दिया था. हैलेन उतर के टहलती हुई समंदर के किनारे तक चली गई थी...और दीवार पे बैठ के सिगरेट जला दिया. इफ़ती ने झाड़न निकाला और गाड़ी साफ़ करने लगा. ज़रा देर में मोटरबोट वालों में से एक लड़का टहलता हुआ लड़की के पास से गुज़रा और सिगरेट मांगी. ‘‘सिगरेट...मैडम–गिव मी वन सिगरेट.’’
     ‘‘आफ़कोर्स!’’ मुस्करा के उसने एक सिगरेट निकाला. इफ़ती को हैलेन गै़र महफूज़ लगी तो वो अपनी गाड़ी से बाहर निकला. पर उसे दूसरे ने धकेल के वापस बिठा दिया.
     ‘‘बैठ नां श्याने! तेरा क्या ले रहा है? एक सिगरेट ही तो मांगा है. ये सब फि़रंगी साले गंजेड़ी होते हैं.’’
     ‘‘लेकिन वो गांजा-वांजा कुछ नहीं लेती.’’
     ‘‘तुझे क्या मालूम?’’ वो ऐसे खड़ा हो गया था उसके सामने कि इफ़ती उधर न देख सके.
     ‘‘सफ़ेदा पीते हैं सब. हशिश कहते हैं ये लोग...और गोविंदा तो चाल देखकर सूंघ लेता है.’’
     ‘‘गोविंदा कौन?’’ ‘‘वही, जो सिगरेट ले रहा है. चुटकी में भर देगा. पीती होगी तो मान जाएगी. नहीं पीती तो ना सही. घूमने निकली है, ना, मोटरबोट पे घुमा के ले आएगा.’’
     ‘‘वो जाएगी तब ना...कोई ज़बरदस्ती है?’’
     उसने बड़ी सख़्ती से इफ़ती का चेहरा अपनी उंगलियों में दबाया, ‘‘ज़बरदस्ती तो तू कर रहा है साले. शादी बनाने चला है क्या?’’
     इफ़ती ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की. आंखों से पानी निकल आया. लेकिन वो ज़्यादा तगड़ा था. उसी वक़्त गोविंदा की आवाज़ आई:
     ‘‘अबे पट गई बे हरी. चलेगा मोटरबोट में?’’
     ‘‘हरी ने धक्का दिया उसे और भाग गया. इफ़ती खड़ा हुआ तो देखा वो मोटरबोट में जाने के लिए सीढि़यां उतर रही थी. वहीं से आवाज़ दी–




     ‘‘इफ़टी... वेट फार मी...कमिंग.’’
     गोविंदा ने हाथ पकड़ के उसे मोटरबोट में ले लिया. हरी कूद के दाखिल हो गया, और फटफटाती हुई मोटरबोट बीच समंदर की तरफ चल दी. इफ़ती अपनी आंखें पोंछता हुआ देर तक उसकी तरफ देखता रहा. अंधेरे में मोटरबोट की आवाज़ दूर जा रही थी.
 
     सात सालों में छह औलादों ने निचोड़ के रख दिया जमीला को. और ज़हूर मियां की शहवत किसी तरह कम न हुई थी... .इत्ती भी शर्म न करते थे.
     ‘‘अल्लाह मियां की बरकत है. वो दे तो हम ना कहने वाले कौन?’’
     दोस्त-यार आस-पड़ोस वाले ताने देते थे, ‘‘बस करो मियां तुमने तो मशीन लगा रखी है. अरे इस बेचारी का भी ख्याल करो...!’’
     बड़ी शैतानी नज़र आती उनकी हंसी में जब कहते, ‘‘कोई बात नहीं, थक जाएगी तो दूसरी ले आएंगे.’’
     बस इसी बात से डरती थी जमीला! कहीं किसी दिन ये मसखरी सच न साबित हो जाए. पुरानी सी बस्ती में पुराने दिनों के किरायेदार थे. तीन मंजिला बिल्डिंग की तीसरी मंजिल पर तीन कमरों का घर था. ...और नौ जने रहते थे. छह औलादें, एक जमीला की बूढ़ी मां और दो वो खुद मियां बीवी!
     ज़हूर मियां जिस्म के तगड़े थे, और मेहनत कश भी. सारा दिन हाथगाड़ी में सामान ढोते थे. दूकान से गोदाम तक और गोदाम से दूकान तक. सेठ खुश था. अच्छा खासा कमा लेते थे. बच्चों के कपड़े लत्ते के लिए तो थान के थान ही ले आया करते थे. गली में खेलते अपने बच्चों को उनके कपड़ों ही से पहचान लेते थे. नाम याद थे. उंगलियों पर गिन सकते थे. उन्हें देख के नाम नहीं बता सकते थे. सब एक ही फैक्ट्री से निकले लगते थे. और जमीला से कह भी रखा था, ‘‘एक वक्त में एक ही थान के कपड़े पहनाया करो. वरना कोई भी लौंडा साला अब्बा-अब्बा कह के जेब में हाथ डालता है और पैसे ले जाता है.’’
     अम्मी के मना करने पर भी उनके लिए महीने दो महीने में कोई न कोई जोड़ा ले आया करते थे. और जमीला के लिए तो हमेशा इफरात ही रही. किसी तरह की कमी न होने दी. बहुत मुहब्बत करते थे बीवी से. इस मुहब्बत ही का नतीजा था कि सात सालों में छह औलादें पैदा कर दीं.
     मर्दों की निस्बत औरतें आपस में ज्यादा बेबाकी से बात कर लेती हैं. जमीला को भी आसपड़ोस वालियां समझाती थीं, ‘‘बीवी, उसकी नसबंदी कराओ या अपनी कोख निकलवा दो. वो तो बाज़ नहीं आने वाले.’’
     ‘‘पिंड छुड़ाना भी तो सीखो. दूसरी लाना है तो ले आए. कुछ दिन उसे भी ये पेट गाड़ी खींचने दो.’’
     औरतें हंस देतीं. लेकिन जमीला का मुंह सूख जाता. एक ने भली राय दी, ‘‘बच्चों में सोया करो. पास आए तो चुटकी काट के जगा दिया करो. अपने आप झाग बैठ जाएगी...’’ और फुसफुसा के हंस दी. जमीला से कुछ भी न हुआ.
     उस रोज जब वो देर तक नहीं आया तो अम्मा को शक हो गया. वो लक्षण समझती थी. इशारे से बेटी को तंबिह कर दी.
      ‘‘दोस्तों यारों में कहीं पीने पिलाने बैठ गया होगा. तू बच्चों में जाकर सो जाना.’’
      ‘‘और भूखे लौटे तो?’’
      ‘‘भूखा तो आएगा, पर तुझे खाएगा आके. उल्टा तेरा पेट भर देगा.’’
     जमीला समझ तो गई पर मां के सामने ये कह के अंदर चली गई:
     ‘‘खाना भर के रख देती हूं चूल्हे के पास. गर्म रहेगा.’’
     और वही हुआ. ज़हूर मियां कि़माम भरा पान चबाते हुए घर में दाखिल हुए. हलकी-सी लग़जि़श थी कदमों में. जूते उतार के दबे पांव कमरे में दाखिल हुए तो जमीला को दो बच्चों के बीच सोता पाया. गला दबा के आवाज़ दी–‘‘जमीला...’’
     वो हिली नहीं. ज़हूर मियां ने एक बगल के बच्चे को उठा कर पलंग वाले बच्चों में डाल दिया और जमीला के पास आकर लेट गए. मुंह अपनी तरफ किया तो वो उठ के बैठ गई.
     ‘‘क्या करते हो?...खाना रखा है जाके खालो ना.’’ वो इतने ज़ोर से बोली थी कि ज़हूर मियां ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया.
     ‘‘आहिस्ता बोलो–बच्चे जाग जाएंगे.’’
     अम्मा पहले ही से जाग रही थी. एक बार जी चाहा कि उठकर चली जाए कमरे में और कह दे कि बे-मौत मत मार जमीला को. लेकिन उसे याद था कि एक बार नसीहतन कुछ कहा था तो ज़हूर मियां ने मुंहतोड़ सुना दी थी, ‘‘बीच में मत बोला करो अम्मां. भूलो मत तुमने ग्यारह औलादें जनी थीं और ये नवीं थी–जमीला!’’
     अम्मां बिस्तर पे उठके बैठ गई. कुछ देर तक सरगोशियों की आवाज़ें आती रहीं और फिर एक थप्पड़ की आवाज आई. डरते-डरते अम्मां उठके दरवाज़े तक गई तो देखा ज़हूर मियां जमीला के मुंह में कपड़ा ठूंसे उसे सीढि़यों से छत की तरफ घसीटता हुआ ले जा रहा था.
 
     इंस्पेक्टर वागले सोच रहा था लड़की बड़ी चिकनी है. आंसू बहते चले जा रहे हैं और गालों पे रुकते भी नहीं. बीच-बीच में वो पोंछती तो उसे डर लगता कहीं गाल का तिल भी न धुल जाए. जो कह रही थी उसकी तरफ वागले का कोई ध्यान नहीं था. रोज़मर्रा का किस्सा है. स्कूल से भाग के एक दोस्त के साथ नेशनल पार्क में घूमने गई थी. वहां तीन-चार गुंडों ने चाकू दिखा के धर लिया. लड़के को पीट घसीट के दूर ले गए और एक ने उसकी...क्या कहते हैं....इज्ज़त उतारने की कोशिश की. लड़की थी कम उम्र की, लेकिन लगती नहीं थी. पक चुकी थी. वरना स्कूल से भाग के नेशनल पार्क में घूमने क्यूं गई थी. वो भी दोपहर में!
     ‘‘क्या उम्र है तुम्हारी....?’’ उसने अचानक पूछ लिया.
     ‘‘फ़ोरटीन...!’’ ‘‘फ़ोरटीन क्या...?’’ उसकी आवाज़ में धमक थी.
      ‘‘चैदह साल.’’ ‘‘नेशनल पार्क में क्या करने गई थी?’’ ‘‘यूंही...घूमने...ज्येन्ती के साथ...मेरा दोस्त...’’
     ‘‘स्कूल से भाग के?’’




     वो चुप रही. ‘‘मां-बाप को मालूम है?’’
     ‘‘नहीं!’’
     ‘‘ख़बर करूं...? नंबर क्या है घर का?...’’
     आंसू अभी-अभी पोंछे थे–फिर बहने लगे. लड़की ने सहम के हाथ जोड़ लिए.
     ‘‘उन्हें मत बताइए–प्लीज़!...ज्येन्ती को बचाइए.
     वो लोग मार डालने की धमकी दे रहे थे.’’
     इस बार वागले उठके उसके साथ वाली कुर्सी पर आकर बैठ गया और अपने हाथ से गाल का तिल पोंछ के देखा–वो मिटा नहीं.
     लड़की को हाथ से पकड़ के थाने के पीछे एक खोली में ले गया. ‘‘तू बैठ यहीं. मैं राउंड मार के आता हूं. मिला तो उसे भी लेकर आता हूं. और किसी हवलदार से बात नहीं करने का–क्या?’’
     जाते हुए बाहर से कुंडी मार दी. हवलदार से कह दिया, ‘‘देखना शोर नहीं करे!’’
     मोटरसाइकिल पर पार्क का राउंड मारते हुए वागले ने कोई चेहरा नहीं देखा. सिर्फ़ उसी चिकनी का चेहरा नज़र में घूमता रहा. ज़्यादा देर करना भी ठीक नहीं था और बहुत जल्दी लौटने में भी बात बिगड़ जाती. रानों में मोटरसाइकिल दबाए वो दो राउंड मार गया. घंटे भर के बाद लौटा तो सीधा दफ़्तर में गया. रजिस्टर उठाया और हवलदार से कहा:
     ‘‘ख़्याल रखना मैं लड़की का स्टेटमेंट लेने जा रहा हूं.’’
     हवलदार ने खड़े-खड़े करवट ली. ‘‘उधर मत जाइए साहब, बड़े साहब आए हैं.’’
     ‘‘कौन?...चितले?...’’
     ‘‘जी! वहीं खोली में हैं.’’ वागले ने मां की गाली दी.
     ‘‘वहां क्या कर रहा है?’’
     हवलदार के होंठों तले एक डरी-सी मुस्कराहट कसमसा रही थी:
     ‘‘स्टेटमेंट ले रहे हैं. आधा घंटा हो गया. दरवाज़ा अंदर से बंद है.’’
     
साभार हंस फरवरी २०१३

हैदराबाद , खुफिया तंत्र की नाकामी - जनसत्ता

jansatta editorial, जनसत्ता, सम्पादकीय    हैदराबाद में बीते गुरुवार को हुए धमाकों पर स्वाभाविक ही विपक्ष ने सरकार को आड़े हाथों लिया और संसद के दोनों सदनों में खुफिया तंत्र की नाकामी पर सवाल उठाए। लेकिन चाहे गृहमंत्री का बयान हो या विपक्ष की टिप्पणियां, उनमें समस्या की तह में जाने की दिलचस्पी नजर नहीं आई। जबकि इस चर्चा की सार्थकता इसी बात में हो सकती थी कि आतंकवाद से लड़ने का मजबूत राष्ट्रीय संकल्प प्रतिबिंबित हो और उसके लिए एक समन्वित नजरिया दिखे। गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने दोनों सदनों में वही दोहराया जो वे पहले मीडिया के सामने कह चुके थे, वह यह कि सरकार को पहले से अंदेशा था कि आतंकवादी घटना हो सकती है और इस बारे में चेतावनी जारी कर दी गई थी। पर जब यह सवाल उठा कि खुफिया सूचना होने के बावजूद हमले को नाकाम क्यों नहीं किया जा सका, तो शिंदे ने स्वीकार किया कि यह एक सामान्य चेतावनी थी। यानी खतरे की निशानदेही करने लायक सूचना सरकार के पास नहीं थी। यह सच है कि इतने बड़े देश में चप्पे-चप्पे पर नजर रखना बहुत मुश्किल है। मगर हैदराबाद के दिलसुखनगर में इससे पहले, 2002 और फिर 2007 में, आतंकवाद की बड़ी घटनाएं हो चुकी थीं। लिहाजा, वहां निगरानी रखने में कसर क्यों रह गई? दूसरा सवाल यह उठता है कि चेतावनी के मद्देनजर राज्य सरकार ने क्या कदम उठाए; हैदराबाद पुलिस पर्याप्त सतर्क क्यों नहीं थी?
   दहशतगर्दी का यह वाकया खुफिया तंत्र की नाकामी है या खतरे की सूचना होने के बावजूद एहतियाती कदम न उठाने का नतीजा है? इस हमले ने एक बार फिर यह साफ कर दिया है कि केंद्र और राज्यों के समन्वित प्रयासों से ही आतंकवाद पर काबू पाया जा सकता है। पुलिस तंत्र राज्यों के अधीन है, और पुलिस की तत्परता के बगैर कोई भी खुफिया जानकारी मददगार साबित नहीं हो सकती। हैदराबाद में हुए आतंकी हमले पर विरोध जताने के लिए भाजपा ने आंध्र प्रदेश में बंद आयोजित किया और लोकसभा में बहस के दौरान विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने कहा कि यह जांच होनी चाहिए कि एमआइएम नेता अकबरुद्दीन ओवैसी के कुछ दिन पहले दिए भड़काऊ भाषणों से तो इस त्रासदी का संबंध नहीं था। इस तरह की टिप्पणियों से जो भी सियासी हित सधता हो, पर उनसे आतंकवाद की जटिल चुनौती को समझने में कोई मदद नहीं मिलती। अंदेशे की खुफिया सूचना के बावजूद हमले को रोका नहीं जा सका, इससे केंद्र और राज्यों के बीच रणनीतिक समन्वय का अभाव ही जाहिर होता है।
   चूंकि केंद्र के साथ-साथ आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस की सरकार है, इसलिए विपक्ष के लिए निशाना साधना आसान है। पर एनसीटीसी यानी राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र का गठन क्यों अधर में लटका हुआ है? जबकि नवंबर 2008 के मुंबई हमले के बाद से ही ऐसे तंत्र की जरूरत शिद््दत से महसूस की जाती रही है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी अपना काम कर रही है। अलबत्ता नेटग्रिड यानी खुफिया सूचनाओं के नेटवर्क का काम सुस्त गति से चल रहा है। पर एनसीटीसी का गठन तो राज्यों के एतराज के कारण ही अब तक नहीं हो पाया है। एनसीटीसी पर विरोध जताने वालों में विपक्ष के अलावा कांग्रेस की भी कई राज्य सरकारें शामिल थीं। उनकी दलील थी कि एनसीटीसी को छापा डालने, गिरफ्तार करने जैसे पुलिस के अधिकार देने से राज्यों के अधिकार-क्षेत्र का अतिक्रमण होगा और इस तरह संघीय ढांचे को ठेस पहुंचेगी। उनकी आपत्तियों के मद्देनजर एनसीटीसी के स्वरूप में केंद्र सरकार ने फेरबदल किया। फिर भी, कोई नहीं जानता कि उसका गठन कब होगा। यह बेहद अफसोस की बात है कि संसद में आंतरिक सुरक्षा की खामियों को चिह्नित करने के बजाय परस्पर दोषारोपण की प्रवृत्ति और एक दूसरे को घेरने की फिक्र अधिक नजर आई।