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बिट्टू की मुलाकात (संस्मरण) - ड़ॉ प्रीत अरोड़ा

preet arora with Tejendra Sharma

    जीवन में जब हम किसी ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में आते हैं जो किसी क्षेत्र विशेष में अपना अमूल्य योगदान देकर अपने देश ,भाषा ,सँस्कृति व सभ्यता की सेवा करने में तन – मन से समर्पित होता है तो उसके प्रति हमारे हृदय में अगाध श्रद्धा और प्रेम –भाव होता है .ऐसे व्यक्ति से रूबरू होने की उत्सुकता स्वाभाविक ही है . देशकी महान् विभूतियों में साहित्य के क्षेत्र के अन्तर्गत श्री तेजेन्द्र शर्मा न केवल साहित्य जगत में एक प्रसिद्ध लेखक के रूप में जाना –पहचाना नाम है अपितु उन्होंने अभिनय के क्षेत्र में भी सफल पहचान बनाई है और उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी ये है कि वे एक अच्छे व नेकदिल इन्सान भी हैं .

    यूँ तो मैं अपने अध्ययन काल से ही तेजेन्द्र शर्मा जी की रचनाएँ अक्सर पढ़ा करती थी परन्तु उनसे इन्टरनेट के माध्यम से दो वर्ष पूर्व ही मेरा सम्पर्क हुआ . सौभाग्यवश मुझे तेजेन्द्र जी का साक्षात्कार लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ . साक्षात्कार में लिए गए प्रश्नों के द्वारा मैं उनके जीवन-दर्शन से और भी अधिक प्रभावित हुई . अब तो दिन –प्रतिदिन उनसे मिलने की लालसा मन के भीतर बढ़ती ही जा रही थी . तेजेन्द्र जी हमेशा मुझे ‘ बेटी ’ के रूप में प्यार , अपनत्व और ढ़ेरों आशीर्वाद देते हुए “ बिट्टू” नाम से सम्बोधित करते थे . ये “ बिट्टू ” शब्द जैसे मेरे मन की अतल गहराइयों को छू जाता और फिर मैं तेजेन्द्र जी को लेखन के क्षेत्र में अपना गुरू और मार्ग-दर्शक भी मानने लगी . मेरी ईमेल ,फेसबुक व फोन के जरिये अक्सर तेजेन्द्र जी से बातचीत होने लगी . साक्षात्कार लेने के उपरांत जल्दी ही मुझे उनकी कहानी ‘ अभिशप्त ’ की समीक्षा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ . मेरे द्वारा लिया गया उनका साक्षात्कार और उनकी कहानी अभिशप्त की गई समीक्षा का ‘ बातेँ ’ व हिन्दी की वैश्विक कहानियाँ ( संदर्भ : तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार ) नामक पुस्तकों में प्रकाशित होना मेरे लिए किसी अमूल्य उपहार से कम न था .

    हाल ही में ड़ी .ए .वी गर्ल्स कालेज , यमुनानगर (हरियाणा ) में आयोजित ‘दूसरे अन्तरराष्ट्रीय प्रवासी साहित्य सम्मेलन ’ में मुझे तेजेन्द्र जी के भारत आने और इसमें शिरक्त करने की खबर पता चली . इस खबर से मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा क्योंकि इस सेमिनार में मुझे भी पत्र – वाचन के लिए अजय नवरिया जी द्वारा आमंत्रण पत्र मिला. मैं अक्सर जिस व्यक्ति से मिलने के सपने बुना करती थी . उन सपनों को साकार होने में अब देरी न थी . इस सेमिनार में मैं अपने पिता जी के साथ गई . वहाँ मेरी मुलाकात विदेशों से आए अनेक साहित्यकारों से हुई परन्तु मेरी आँखें सिर्फ और सिर्फ तेजेन्द्र जी को ढ़ूँढ़ रही थी . अचानक मेरे कानों में वही चिर –परिचित तेजेन्द्र जी की मधुर आवाज़ सुनाई पड़ी . मैंने पलट कर देखा एक हँसता –खिलखिलाता , तेजस्वी चेहरा भीड़ में सबसे अलग ही था . बड़े खुले दिल और गर्मजोशी से तेजेन्द्र जी ने हमारा स्वागत किया . तेजेन्द्र जी ने वहां उपस्थितअपने ही अक्स यानी कि अपनी बेटी दीप्ति और सुप्रसिद्ध लेखिका जाकिया जुबैरी जी से परिचय करवाया. दो दिन के इस कार्यक्रम में मैंने तेजेन्द्र जी को सबसे सहज भाव प्रेमपूर्वक बातचीत करते देखा . मैं चकित थी कि दुनिया में क्या ऐसे भी इन्सान हो सकते हैं जो बुलन्दियों पर पहुँचने पर भी अहं भाव नहीं रखते . देखने में तो लेखक भी दूसरे व्यक्तियों की तरह साधारण व्यक्ति होता है परन्तु उसका आन्तरिक व्यक्तित्व कुछ ऐसी विशेषताएं लिए होता है जो उसे आम जनमानस से अलग करती हैं . तभी तो उनकी मेहनत , अथक प्रयास , लगन व अदम्य साहस दूसरों के लिए एक मिसाल कायम कर देती है . तेजेन्द्र जी के व्यक्तित्व में उनकी स्नेहिल प्रकृति , जिन्दादिली व खुशमिज़ाजी और उनके कृतित्व में कठोर परिश्रम , भाषायी प्रेम व साहित्य-साधना निश्चित रूप से हमारे लिए प्ररेणा स्त्रोत है .

    मूलतः भारतीय होते हुए भी तेजेन्द्र जी विदेश में रहकर अपनी लेखनी के माध्यम से समाज को एक नई दिशा प्रदान कर रहे हैं . मेरा मानना है कि एक लेखक व साहित्यकार किसी भी परिवेश परिधि में बँधा हुआ नहीँ होता क्योंकि उसका मूल उद्देश्य समाज व देश को सही दिशा देना है . आज विदेश में रह रहे भारतीय रचनाकारों को ‘ प्रवासी रचनाकार ’ उन्हें अलग से श्रेणीबद्ध करना कहाँ का न्याय है ? इसलिए आज प्रवासी साहित्य को किसी दायरे में सीमित करने या भारत में लिखे जा रहे साहित्य से अलग करके देखने की जरूरत नहीं है अपितु जरूरत है उस मानवीय सम्वेदनाओं से रूबरू होकर उन्हें महसूस करने की जिनका ज्रिक ये भारतीय रचनाकार विदेशों में रहकर कर रहे हैं .इसका बेमिसाल उदाहरण हैं श्री तेजेन्द्र शर्मा जी . तेजेन्द्र शर्मा जी से हुई ये पहली मुलाकात मेरे हृदय पर अमिट छाप छोड़ गई जिसे मैं कभी नहीं भूल सकती .

ड़ॉ प्रीत अरोड़ा मोहाली Dr-Peet-Arora

डॉ.प्रीत अरोड़ा

मोहाली
पँजाब — 140301
फोन: 08054617915
ब्लॉग:

डॉ सरस्वती माथुर की कवितायेँ

डॉ सरस्वती माथुर

डॉ सरस्वती माथुर

प्राचार्य - पी .जी. कॉलेज
एम. एस. सी. (प्राणिशास्त्र) पीएच.डी , पी. जी .डिप्लोमा इन जर्नालिस्म (गोल्ड मेडलिस्ट)

... विस्तृत परिचय 







नारी भी होती है एक गुलाब सी !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
नारी भी होती है
एक गुलाब सी
अलग अलग रंगों में
आभा बिखेरती है
सुगंध बांटती है
प्रकृति महकाती है
गुलाब-जल सी ठंडक देती है
गुलाब का सौन्दर्य
सभी को लुभाता है
लाल, पीले, सफ़ेद, रंग
एक नयी अनुभूति की
भाषा गढ़ते हैं
प्रकृति की धारा में
बुलबुले सी उठती गिरती
रंगीन गुलाब की
पतियों का भी
एक अलग ही रस होता है
सच गुलाब
मन को कितना मोहता है ?
अलग अलग रूपों में
रंगों में, महक में
तभी तो कहते हैं हम कि
नारी भी होती है
एक गुलाब सी
जो अलग अलग रंगों में
रूपों में,
माँ बेटी पत्नी बहिन सी
प्रकृति में महकती हैं और
पक्षियों की मीठी बोली सी
हमारे घर आँगन में
चह्कती है और
गुलाब की पत्तियों सी
वह भी जब झरती है तो
सुगंध की पुरवा हमारे
इर्द गिर्द बिखेर कर
वातावरण को
सुवासित कर
स्वर्गीय आनंद से
हमें भर देती है
तो आओ इसकी महक को
महसूस करें और
जीवन में भर कर
इस सुवास को
फैलने दें, फैलने दें,
बस फैलने दें !


पिता के ख़त !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
पिता तुम्हारे ख़त
खिले गुलाब से
मेरे मन आँगन में
आज भी महक रहे हैं
जब भी उदासी की बारिश में
भीगती हूँ
छतरी से तन जाते हैं
सपना देखती हूँ तो
उड़न तश्तरी बन
मेरे संगउड़ जाते हैं
जादुई चिराग से
मेरी सारी बातें
समझ जाते हैं
पिता तुम्हारे ख़त
मेरी उर्जा का स्त्रोत हैं
संवादों का पुल हैं
कभी भी मेरी उंगली थाम
लम्बी सैर पर निकल जातें हैं
पिता तुम्हारे ख़त
पीले पड़ कर भी
कितने उजले हैं
रातरानी से
आज भी महकते हैं
पिता तुम्हारे ख़त
अनमोल
रातरानी के
फूलों से
खतों के शब्द
ठंडी काली रातों में
एक ताजा अखबार से हैं
पिता तुम्हारे ख़त
ख़त समाचार भरें हैं
उसमे परिवार ,समाज ,देश
एक कहानी से बन गए हैं
इतिहास से रहते हैं
उनके भाव
हमेशा मेरे पास/ जिन्हें
सर्दी में रजाई सा ओढ़ती हूँ
गर्मी में पंखा झलते हैं
पिता तुम्हारे ख़त
बारिश में टपटप
वीणा तार से बजते हैं
इसके संगीत की ध्वनित तरंगें
मेरा जीवन रथ है
इसके शब्दों को पकडे
तुम सारथी से मुझे
सही राह दिखाते हो
इन्हें सहेज कर रखा है
आज भी मैंने
कह दिया है
अपने बच्चों से कि यह
मेरी धरोहर हैं
जो आज भी मेरा
विश्वास है /कि
मेरे पिता मेरे जीवन का
सारांश हैं
बहुत खास है
पिता तुम्हारे ख़त


एक अजन्मी बेटी का निवेदन !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
माँ
वक्त आ गया है
अब तुम्हारी परीक्षा का
मेरी सुरक्षा का
अजन्मे व्यक्तित्व को अब
गरिमा देनी होगी क्यूंकि
मैं भी तो हूँ/ ब्रह्म का अंश
बेटे जन कर देती हूँ वंश
फिर बेटे बेटी की कसौटी पर
क्यों करता है समाज
मेरा मूल्यांकन/ क्यूँ नहीं करता
मेरी क्षमताओं का आकलन
माँ तेरे आँचल में तो
ममता है
फिर इस परिवेश में
क्यूँ नहीं समता है ?
मेरा निवेदन बस
इतना भर है
तेरी कोख अभी
मेरा घर है
तू मेरी पैदाइश कर दे
मेरे जन्म को अपनी
ख्याइश कर दे
इतनी बस समझाइश कर दे
चुनौतियों की इस डगर पर
नई शुरुआत कर सकूँ
सरस्वती ,लक्ष्मी और दुर्गा का
साक्षात् रूप धर सकूँ इसलिए
अब वक्त आ गया है कि
सीपी बन कर तुम
संपुट की आभा दे दो
फिर मोती बन कर निकलूंगी
सूरज सी चमकूंगी
,माँ, मुझ पर तुम्हारा
कर्ज रहेगा पर
तुम्हारे विश्वास की
किश्तें चुकाना
मेरा फ़र्ज़ रहेगा
फ़र्ज़ रहेगा
फ़र्ज़ रहेगा !


स्वप्न सृष्टि !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
आसमान पर मंडराती
चिड़िया मुझे
कभी कभी बहुत लुभाती है
सपनो में आकर
अपने पंख दे जाती है
मैं तब उड़ने लगती हूँ
गगनचुम्बी इमारतों पर
निरंतर शहर में
विस्तरित होते गाँवों
,खेतों ,खलिहानों पर
हवाओं की लहरों संग
बतियाते फूलों पर
आकाशी समुन्द्र की
बूंदों से अठखेलियाँ करती
आत्मस्थ होकर
उड़ते उड़ते मेरी
मनचाही उड़ान
मुझमें विशवास की
एक रौशनी भर देती है /और
मैं उड़ जाती हूँ
अनंत आकाश में
धरती से दूर वहां
जिन्दगी को
गतिमान रखने को
सपने पलते हैं और
मैं उतर कर उड़ान से
एक नीड ढूँढती हूँ
जहाँ सुरक्षित रहें
जंगलों का नम हरापन
बरसाती चश्मा
ऊँचें पहाड़
गहरी ठंडी वादियाँ
पेड़ ,नदी ,समुन्द्र और
पेड़ों पर चह्चहाते -
गीत गाते रंग बिरंगे परिंदे
नित्य और निरंतर
गतिशील लय की
अनंतता में बस
अनंतता में !


आओ बेटी !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
मन के झुरमुट के
उस पार से
एक अनुगूँज है आती कि
बेटी होती है
गुलाब की पंखुड़ियों सी
घर आँगन है महकाती
तभी तो दुर्गा रूप कहलाती
आओ बेटी सच
झरना ही तो हो तुम
मीठे पानी का
कलकल बहती जाओ
मरुस्थल के जल सी
सबकी प्यास बुझाओ
पाखी सी दूर गगन तक
पंख पसार कर
उन्मुक्त उडो तुम और
आच्छादित कर लो
सतरंगी आभा से
अपने जीवन का
सुंदर आसमान
भर कर वहां
तने इन्द्रधनुष के रंग
अपने जीवन में भर लो
याद रखना बेटी
मैं माँ हूँ पर एक
दोस्त की तरह हमेशा
तुम्हारे साथ रहूंगी
एक परछाई सी
संग चलूंगी
तुम मेरे जीवन नभ का
झिलमिलाता एक चाँद हो
तुम्हारी चांदनी से आओ
मैं अपना घर भी
रोशन कर लूं
जब सुबह हो तब तुम
भोर किरण सी
मेरे आँगन में
धूप सी फ़ैल जाना
और नीम डाली पर बैठ कर
मुझे आशा का
नवगान सुनाना
प्यारी बेटी
राजरानी हो तुम मेरी
एक मौसम हो तुम
बसंत का, देखना तुम
महसूस करोगी कि
हवा के ठंडे झोंके सी
इर्द गिर्द फैली हूँ
मैं तुम्हारे
एक पारदर्शी आवरण सी !
सृज़न के उन्माद में
सकपकाई सी
एक चिड़िया आई
ताकती रह देर तक
पतझड़ के झड़े
भूरे पतों को
हवा बुहार रही थी
तब सन्नाटा
अटक गये थे चिड़िया के
सुर भी कंठ में पर
मौसम के गलियारों में
महक थी सूखे पत्तों क़ी
उम्मीद थी जल्दी ही
फिर फूल आयेंगे
तितलियों उनमे
ताजगी तलाशती मंडराएगी
कोयलें कूकती
हरियाली पी लेंगी
सृज़न के उन्माद में
फिर फूटेंगे अंकुर
फुलवारी में उगेगा
इन्द्रधनुष
रंग - बिरंगी तितलियों का
चिड़िया ने भी
अपने से संवाद किया कि
अब आ गया है वक्त
घरोंदा बनाने का
इस विश्वास के साथ
उल्लासित हो
वो उड़ गयी
बसंत के बारे में
सोचेते हुये !


सच !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
सच की रंग बिरंगी चिड़ियां
मुझे बहुत भाती है
सच मुझे बहुत प्रेय.है
उसकी महक मुझे
फूल सी महकाती है
सच अपने आप में
एक इश्वर है
जो पत्थर की अहल्या को
मानवी बना देता है
सच का ओज अग्नि तत्व
स्वयं एक शक्ति है
श्रेय है
केवल समिधा नहीं
पूर्ण महायज्ञ है !


साथ निभाना !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
दिन ढलते ह़ी
ड्योढ़ी पर सांकल
खटखटाती रही हवा
घर पर सुस्ताते
थके मांदे लोगों से
जाने क्या क्या
बतियाती रही हवा
दूर खड़ा था कोलाहल
मनुहार करता सन्नाटे से कि
अब तुम करो पहरेदारी
मैं समेटे आवाज़ों को सोता हूँ
शहर -गाँव थके पसरे से
नींद की तारों वाली
बंधेज ओढा इन्हें
छवांता हूँ आँगन में
चाँद की कंदील टांग
तब तक जागना दोस्त
जब तक कि भोर की
पंखुडियां बरसा कर
फिरकनी सी चिड़ियाँ
चहक कर फिर से
मुझे न जगा दें
तब तक साथ निभाना दोस्त !


रिश्तों के पन्ने पलटते हुए !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
हस्ताक्षर न बन पाए हम तो
अंगूठे बन कर रह गये
सत्य ने इतनी चुराई आँखे कि
झूठें बन कर रह गये
बेबसी के इस आलम को क्या कहें
बांध नहीं सके जब किसी को
तो खुद खूंटे बन कर रह गये
रिश्तों के पन्ने पलटते हुए
दर्द कि तलवारों के हम
बस मूढे बन कर रह गये
सत्य ने चुराई इतनी आँखें
कि बस झूठें बन कर रह गये
कांच की दीवारें खींच कर
रिश्तों के पन्ने पलटते रहे
अपनों ने मारे जब पत्थर
तो किरचों के साथ
टूटे फूटे बनकर रह गये
लहुलुहान भावनाओं से
ज्वारभाटे उठने लगे
हम शांत समुंदर
बन कर रह गये
सत्य ने चुराई इतनी आँखें
बस झूठे बन कर रह गये !


नन्ही चिड़िया !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
वह नन्ही चिड़िया थी
धूप का स्पर्श ढूँढती
फुदक रही थी
अपने अंग प्रत्यंग समेटे
सर्दी में ठिठुर रही थी
रात भर अँधेरे में
सिकोड़ती रही अपने पंख
पर रही
प्रफुल्लित, निडर और तेजस्वी
जैसे ह़ी सूरज ने फेंकी
स्नेह की आंच
पंख झटक कर
किरणों से कर अठखेलियाँ
उड़ गयी फुर्र से
चह्चहाते हुए
नई दिशा की तलाश में !


तुम मौसम बुला लो


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
तुम मौसम बुला लो
में बादल ले आऊं
थोड़ी सी भीगी शाम में
फूलों से रंग चुराऊं
तुम देर तक गुँजाओ
सन्नाटे में नाम मेरा
मैं पहाड़ पर धुआं बन
साये सी लहराऊं
वक्त रुकता नहीं
किसी के लिये
यह सोच कर
मैं जीवन का काफिला बढ़ाऊं
तुम लहरों की तरह बनो बिगडो
मैं चिराग बन आंधी को आजमाऊं
तुम मौसम बुला लो
मैं बादल ले आऊं
तुम परात में भरो पानी
मैं चाँद ले आऊं!'
तुम मौसम बुला लो
मैं बादल ले आऊं !


नव स्पर्श से !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
मेरे सपनों के जंगल में
मैं लगातार देख रही थी
झुण्ड के झुण्ड झरे पत्ते
यूँ लग रहे थे
मानों हार गये हों युद्ध
अपनी चरमराती आवाज में
उड़ जाने को तैयार
पार्श्व में दिख रहा था`
अभिलाषाओं से भरा जीवन
और तभी नींद टूट गयी
अपने नव स्पर्श से
छू रही थी मुझे भोर
और फिर एकाएक
मेरे सपने पृथ्वी हो गये
चक्कर काटने लगे
अभिलाषाओं के उदित होते
सूर्य के चारों ओर !


गीत गोविन्द लिखे !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
बसंत के कोरे पृष्ठों पर
फागुन पीले गीत लिखे
मौसम में फूल खिला कर
बगिया के अनुकूल
हर पल नया संगीत लिखे
कूके कोयल डाली डाली
शब्दों को बांध कर सुर में
हरी भरी धरती पर
हतप्रभ मौसम को निहारती
चिड़ियां पंख फड़फड़ा कर
शस्य डाल पर
खुशबू की तरह
नववर्ष का नव सृजन का
मंगलदीप जला कर
गये साल की विदाई पर
अभिनन्दन शुभागमन का
फिर फागुनी गीत गोविन्द लिखे !


बसंत - बसंत !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
मैं बसंत हूँ
बसंत- जो तितली की तरह
उडता है
आम अमरूदों के
दरख्तों पर
फागुनी दोपहर में
एक चित्र बनाता है
धूप की कलम से
गुनगुन संगीत का
सृजन करता है
सुबह की पहली किरण सा
जाग कर चहचहाता है
पक्षियों सा
कभी फूलचुही सा
मंडराता है फिजां में
महकता है गुलाब सा
और फिर कभी सूरज सा
चढ़ते हुए आसमान पर
बिखर जाता है
धूप के टुकड़े सा
फैला कर फूलों पर
इन्द्रधनुषी रंग
दस्तक देकर
फागुनी मौसम की
दूर कहीं कोयल भी
गा उठती है
मधुर स्वर में
बसंत... बसंत...!


स्वागत सर्दी का !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
गुनगुनी धूप में
धुआँ धुआँ सी
घूम रही है
मुखरित सी पुरवाई
नववर्ष के द्वारे देखो
मनभावन सी
सर्दी आई
अलाव की लहरों पर
पिघलती कोहरे की परछाई
तितली तितली मौसम पर
गीत सुनाती
शरद ऋतु की शहनाई
नववर्ष के द्वारे देखो
मनभावन सी सर्दी आई
प्रकृति की नीरवता में
आसमान है जमा जमा सा
पुष्पित वृक्षों पर सोया है
सुबह का कोहरा घना घना सा
उनींदे सूर्य से गिरती ओस की
बूंदों से लिपटा
सुरमई सा थमा थमा सा
जाग उठा मुक्त भाव से
मौसम ने कसमसा कर
अमराई में ली अंगडाई
नववर्ष के द्वारे देखो
मनभावन सी सर्दी आई !


मन की किताब में !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
कुछ मौसम मैंने संभाल रखें हैं
मन की बगिया में उतार रखें हैं
जो रंगीन तितलियों से उड़ते हैं
टिटियाती चिड़ियों के सुरों में
मधुर गीत भी बुन के रखें हैं
जो दिन भर मंजीरों से बजते हैं
रंगीन रिश्तो के आइनों के भी
रंग किर्चों से निकाल रखें हैं
बिखरे पंख यादों के पाखी के
मन - किताबों में संभाल रखें हैं !


नदी हूँ मैं मिठास भरी !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
मैं भी हूँ एक नाव सी
तेज हवा में चलती हूँ
शाम का सूरज हूँ मैं
सागर में जा ढलती हूँ
सावन की भीगी रात में
चंचल पुरवा सी बहती मैं
तरुओं से बातें करती हूँ
जीवन की बरसती बरखा में
सीली सीली सी रहती हूँ
दीवार पे टंगा कैलेंडर हूँ मैं
तारीख सी रोज बदलती हूँ
आसमा को मुट्ठी में बाँध सकूँ
तो पैरों को ऊँचा करती हूँ
दूर मंजिल तक जाना हो तो
विश्वास के डग मै भरती हूँ
आँधियों में भी मैं हरदम
एक लौ बन करके जलती हूँ
नदी हूँ मै मिठास से भरी
खारे सागर जा घुलती हूँ!


एक बुजुर्ग !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
अकेलेपन के सूरज को
रुक कर देखता
एक बुजुर्ग
क्षण और घंटे गुजरते जाते हैं
समय की आराम कुर्सी पर
किताबों को पलटते हुए
रुक कर देखता है
एक बुजुर्ग
उस दरवाजे की ओर
जहाँ से शायद आये
उसका बेटा या बहू ,
बेटी या पोता और
हाथ में हो चश्मा
जिसकी डंडी
बदलवाने के लिए
पिछले महीने वो
जब आये थे तो
यह कह कर ले गए थे कि
कल पहुंचा देंगे
हर आहट पर
चौंकता है एक बुजुर्ग
दरवाजा तो दीखता है पर
बिना चश्मे किताब के अक्षर
देख नहीं पाता
हाँ "ओल्ड होम" की निर्धारित
समय सारिणी के बीच
समय निकाल कर
पास बैठे दूसरे बुजुर्ग का
हाथ पकड कर
उस इंतज़ार का
हिस्सा जरुर बनता है!


उनकी मुस्कान !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
और अब वे अपने
अंतिम चरण में थी
,बुजुर्ग जो थीं
उन्हें मालूम था कि
यह नियति है और
वे इंतज़ार में थी
अब देर तक बगीचे में
काम करती हैं
स्कूल से लौटे
पोते पोतियाँ के जूतों से
मिटटी हटा कर खुश होती हैं
उनके धन्यवाद को पूरे दिन
साथ लिए, मुड़े शरीर के साथ
लंगडाते हुए, इधर- उधर घूमती हैं
याद करती हैं ,तालियों की
उन गूंजों को
जो समारोह में उनकी
कविताओं के बाद
देर तक बजती थीं
अपने हमउम्र दोस्तों के साथ
सत्संग में बैठ कर
भजन सुनते हुए सोचती थीं
उन दिनों को
जब घडी की सुइयां
तेज दौडती थीं और
वे उसे रोक लेना चाहती थीं
अब वे अपने कमरे की
खिड़की से दिखते
समुन्द्र को देर तक
निहारते सोचतीं थीं कि
वक्त कहाँ बाढ़ की तरह
बह गया और
यह सूरज भी
कितना कर्मठ है
रोज थक कर
डूबता है और
तरोताजा होकर
उगता है
यह सोचते ही
उनके पूरे शरीर में
सूरज की प्रथम
किरणों की तरह
जीने की उमंग
कसमसाने लगती है और
पूरे दिन एक
मुस्कान की तरह
उनके होंठों पर
तैरती रहतीं है !


जीना इसी का नाम है !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
वो इतने बूढ़े थे कि
उनकी हड्डियाँ
उनकी त्वचा में
तैरती थीं
मैं उनमे अपने आपको
डूबता सा महसूस करती थी
वो इतने कमजोर थे
जितने नवजात शिशु के पैर
पर उनकी मुस्कान
इतनी गहरी थी कि
उसमे मैं नदी की सी
कलकल सुनती थी
जो उनके होठों के चारों तरफ
सांसों से गुजरती थी और
वो इतने तैयार थे कि
मुझे समुन्द्र से भी गहरे
गंभीर और अथाह दिखते थे,
सच- मुझे लगता था कि
जीना इसी का नाम है !


चिड़िया सा मन !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
सुरमई मौसम
भीगी हवाएं
चिड़िया सा मन
उड़ उड़ जाये
नदी की कलकल
गीत बुने तो
सागर सा मन
झर झर जाये
प्रीत रिश्ते
लगाव के क्षण
तेरी याद तो
हर पल आये
रेत आँचल में
सांझ भीगी सी
डूबते सूरज से
घुल मिल जाए


सपने सजाना है !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
जीवन नदी
मन मंदिर
बजते हैं जिसमे
घंटे यादों के
एक चहकती
श्याम गौरैया से
फूल पे महकती
हवा जुगनू से
मन रोशन हैं
मुरादों के
लेकिन कुछ पाना है
सब भूल जाना है
मासूम नींद में
सपने सजाना है
कुछ बन दिखाना है
साथ वादों के
शीशे से जीवन को
पत्थर करना है
समय हाशियों पे
संग इरादों के


श्रम का अभिमन्यु !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
घर उदास
रिश्ते मलंग
देर तक लड़ी
समय की जंग
चक्रव्यूह धन
श्रम का अभिमन्यु
राह ढूंढता
बाहर आने की
मिल गयी सुरंग
अनुभव की किताब
पढने से पहले
पढना होगा
प्राक्कथन
मन हुआ दबंग
जीवन में
जो भी पाया
मन में भरा रंग

अक्ल बड़ी या भैंस - ओम थानवी

om thanvi editor jansatta editorial akl badi ya bhains shabdankan ओम थानवी जनसत्ता संपादक सम्पादकीय अक्ल बड़ी या भैंस शब्दांकन
ओम थानवी, जनसत्ता, १७.०३.२०१३

    प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू का कहना है कि मीडिया में योग्य लोगों की कमी है। मैं उनकी बात से पूरी तरह इत्तफाक रखता हूं। लेकिन उनका यह खयाल हास्यास्पद है कि इस क्षेत्र में योग्यता के लिए न्यूनतम अर्हता तय होनी चाहिए। उनका आशय औपचारिक डिग्री से है। डिग्री शिक्षा का पर्याय नहीं होती। उनका सुझाव इतना सरलीकृत है कि उन्हें खुद देश के उन भोले-नादान लोगों की श्रेणी में ला बिठाता है, जिसकी अतिरंजित कल्पना जब-तब वे हमारे समक्ष पेश करते रहते हैं!
    पहले तो उनसे सहमति की बात। अखबारों में श्रेष्ठ प्रतिभाएं सचमुच बहुत कम दिखाई देती हैं। टीवी-रेडियो मनोरंजन अधिक करते हैं। सोशल मीडिया- ब्लॉग आदि- अपने चरित्र में ही खुला-खेल-फर्रुखाबादी है।
    अखबारों में सबसे बड़ी समस्या है, समझ और संवेदनशीलता की कमी। इसके कारण सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि का उनमें अभाव दीखता है। राजनीतिक उठापटक, खासकर राजनेताओं के बयान और परस्पर आरोप-प्रत्यारोपों की खबरें मीडिया में छाई रहती हैं। फिर अपराध, मनोरंजन, सिनेमा, व्यापार, खेल (क्रिकेट), फैशन, भूत-प्रेत, ज्योतिष आदि आ जाते हैं। छपाई के बेहतर साधन मिल जाने के बाद बड़ी-बड़ी रंगीन तस्वीरें भी। प्रादेशिक अखबारों की रंगीनी देखकर गुमान होता है जैसे अखबार नहीं, कैलेंडर देख रहे हों; पठनीय से ज्यादा चाक्षुष होकर वे मानो टीवी से होड़ लेने की कोशिश करते हैं।
    न पत्र-पत्रिकाओं में, न हमारे टीवी चैनलों से इसका प्रमाण मिलता है कि अखबार का संपादक (वह कहां है?) और टीवी चैनल (जहां संपादक होता है और नहीं भी होता) का नियंता देश की अर्थनीति, कूटनीति, गरीबी, अशिक्षा, अकाल, सूखा, बाढ़, कुपोषण, खेती, असंगठित मजूरी, बाल-शोषण, स्त्री-उत्पीड़न, जातिप्रथा, सांप्रदायिकता, पर्यावरण, मानव-अधिकार, विज्ञान, साहित्य, कला-संस्कृति के बारे में सरोकार रखता है या नहीं।
    टीवी निरक्षर और अर्द्धशिक्षित समाज में सबसे असरदार माध्यम होता है। मगर हमारे यहां दिन में तोते उड़ाने (मनोरंजन करने) और रात को कव्वे लड़ाने (‘बहस’ पेश करने) में ज्यादा मशगूल दिखाई देता है। देश की अन्य भाषाओं के अखबारों के बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं, पर हिंदी के अखबार धीमे-धीमे हिंदी का दामन ही छोड़ रहे हैं। खबरों की आम भाषा में अंगरेजी हिंदी पर बेतरह हावी है। अगर हमारा बुनियादी उपकरण- भाषा; अगर हम उसे हथियार न भी कहना चाहें- भोथरा जाए तो कहे-सुने की धार कहां से अर्जित होगी?
पेज़ १

    अखबार हों चाहे टीवी-रेडियो, बाजारवाद के चकाचौंध वाले दौर में सबसे बड़ा झटका विचार को लगा है। विचार का जैसे लोप हो गया है। कभी संपादकीय पन्ना संपादक की ही नहीं, पूरे अखबार की समझ का प्रमाण होता था। अब मुख्य लेख का आकार सिकुड़ चला है, संपादकीय टिप्पणियों की संख्या घट गई है, पाठकों की सीधी भागीदारी- संपादक के नाम पत्र- की जगह कम हुई है और संपादकीय पन्ने पर मनोरंजन-धर्म आदि प्रवेश पा गए हैं- बौद्धिक विमर्श के रूप में नहीं, गंभीर सामग्री के बीच हल्की-फुल्की हवा छोड़ने के लिए।
    हिंदी अखबारों में समाचार-विश्लेषण छपने कम हो गए हैं। पहले खबरों के पीछे- खासकर सप्ताहांत में, जब संसद आदि उठ चुके होते हैं और खबरों का दबाव कम रहता है- समाचारों के विश्लेषण की परंपरा थी। संपादकीय पन्ने पर भी साहित्य-विज्ञान-अर्थनीति जैसे गंभीर विवेचन के साथ राजनीतिक गतिविधियों पर केंद्रित लेख नियमित छपते थे। अब उनकी जगह बेहद छीज गई है। प्रादेशिक हिंदी अखबारों में हिंदी के लेखकों से ज्यादा अंगरेजी के ‘ब्रांड’ बन चुके लेखकों को तरजीह दी जाती है। संपादकीय पन्ने पर छपने वाले इनके ‘लेखों’ में गपशप-किस्से ही नहीं, आपको अश्लील लतीफे भी पढ़ने को मिल सकते हैं।
    लेकिन इन चीजों का, यानी मीडिया के दाय में गुणवत्ता की गिरावट का, निराकरण क्या एक विश्वविद्यालय की स्नातक डिग्री, किसी मीडिया संस्थान के डिप्लोमा या वहां की स्नातकोत्तर डिग्री से हो सकता है? कहना न होगा, न्यायमूर्ति काटजू का ध्यान ऐसी डिग्रियों की तरफ ही है। ‘न्यूनतम अर्हता’ की कोई और अवधारणा क्या हो सकती है? बुधवार शाम दूरदर्शन पर इसी मुद्दे पर एक बहस में काटजू साहब के साथ मैं भी मौजूद था। बार-बार वे एक बात कहते थे- अरे, चपरासी के लिए भी न्यूनतम अर्हता अनिवार्य है।
    न्यायमूर्ति सर्वोच्च अदालत से आते हैं, प्रेस परिषद के अध्यक्ष हैं। वे साहित्य के भी गुण-ग्राहक हैं- मिर्जा गालिब को भारत रत्न देने की मांग तक उठा चुके हैं! उनकी शान में पूरी गरिमा कायम रखते हुए मैंने उस रोज यही कहा कि हालांकि साहित्य और पत्रकारिता पूरी तरह दो जुदा चीजें हैं; मगर साहित्य और पत्रकारिता दोनों क्षेत्र, भाषा और विवेक के मामले में सृजनात्मक वृत्ति की अपेक्षा रखते हैं- साहित्य तो है ही पूर्णतया सृजन- तो क्या वे साहित्य में गिरावट देखकर वहां भी किसी डिग्री की जरूरत पर बल देंगे? या साहित्य की समस्या- जो हमारे यहां तो पत्रकारिता से ज्यादा विकट निकलेगी- का निराकरण साहित्य जगत के भीतर खोजने की कोशिश करेंगे?
    वे हर बार ‘चपरासी’ वाली दलील के साथ ही सम पर आते थे। मुझे लगता है मीडिया की जिस समस्या को उन्होंने लक्ष्य किया है, उसका निस्तार न चपरासी वाली दलील में है न साहित्य सृजन की मिसाल में। लेकिन साहित्य के उद्धार के लिए डिग्री की वकालत करना, एक स्तर पर, वैसा ही कदम होगा जिसका सुझाव न्यायमूर्ति मीडिया का स्तर ऊंचा करने के लिए दे रहे हैं।
पेज़ २

    यहां अपने अनुभव से यह बताना चाहता हूं कि मीडिया में नौकरी के लिए आवेदन करने वालों में अब कमोबेश सब स्नातक या मीडिया-डिग्री के धारक ही होते हैं। हालांकि इनमें ऊंची श्रेणी पाए लोग कम होते हैं। लेकिन जनसत्ता में मैंने हिंदी में पीएच-डी किए अभ्यर्थी भी देखे हैं, जिनकी अर्जी में दस-बीस अशुद्धियां देखकर उन्हें कभी साक्षात्कार के लिए ही नहीं बुलाया।
    सामान्य या न्यूनतम औपचारिक शिक्षा की अपनी जगह होती है। लेकिन पत्रकारिता या मीडिया के काम में बुनियादी तौर पर जरूरी हैं खबर को भांपने के लिए समाज और समय की समझ, हरदम विवेक और सरल-सटीक भाषा। किस डिग्री से ये चीजें मिल सकतीं हैं? खास डिग्रियों के बूते पर शिक्षक नियुक्त होते ही हैं। क्या हम नहीं जानते कि हिंदी का ‘विद्वान’ शिक्षक हिंदी पढ़ाते हुए सहज हिंदी से दूर, देश में कैसी जमात तैयार कर रहा है।
    मेरे पिताजी- शिक्षाविद् शिवरतन थानवी- साठ-सत्तर के दशक में शिक्षा की दो पत्रिकाओं (शिविरा पत्रिका और टीचर टुडे) का संपादन करते थे। तब उन्होंने शिक्षा पद्धति में पाठ्य-पुस्तकों की निरर्थकता पर हिंदुस्तान टाइम्स में एक लेख लिख कर चौंकाया था- ‘कैन वी एबोलिश टैक्स्ट-बुक्स?’ (शिक्षा में पाठ्य-पुस्तकों की जरूरत क्या है?) फिर उन्होंने अध्यापन के प्रशिक्षण (एसटीसी-बीएड-एमएड) पर भी सवाल उठाए। कल मैंने काटजू साहब की चिंता के संदर्भ में पिताजी से पूछा कि शिक्षण-प्रशिक्षण के बारे में क्या अब भी वे वैसा ही सोचते हैं?
    उन्होंने कहा- अब तो हाल और बुरा है। जिस वक्त मैंने विरोध किया, तब शिक्षकों को प्रशिक्षण मुफ्त दिया जाता था। कुछ समय पहले तक भी राजस्थान में सिर्फ दो सरकारी और आठ निजी शिक्षण प्रशिक्षण कॉलेज थे। अब अकेले इस राज्य में करीब आठ सौ निजी कॉलेज हैं और करीब अस्सी हजार शिक्षार्थी! शिक्षा का स्तर और गिर गया है। बेरोजगार शिक्षकों की फौज भी खड़ी हो
    रही है। शिक्षण-प्रशिक्षण महज पैसा बनाने और झूठी उम्मीदें पैदा करने का ठिकाना बन गया है।
    उन्होंने बताया कि शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों की जरूरत के पीछे तब भी मेडिकल शिक्षा की दलील दी गई थी। संसद की मंजूरी से राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद के गठन के बाद शिक्षण-प्रशिक्षण के संस्थान इतने पनपे कि परिषद उन्हें काबू न कर सकी।
    क्या पत्रकारिता की ‘शिक्षा’ भी उसी रास्ते पर नहीं जा रही? मुझे लगता है, प्रेस परिषद की कोशिशें अगर सफल हुर्इं और डिग्री-डिप्लोमा कानूनन जरूरी हो गए तो ‘पत्रकार’ बनाने वाली दुकानें कुकुरमुत्तों की तरह पसर जाएंगी। उनमें से काम के पत्रकार कम ही निकलेंगे। बाकी लोग क्या करेंगे, इसका हम सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं। तब पत्रकारिता का हाल शिक्षा से भी बुरा होगा, क्योंकि मीडिया में तो उसका परिणाम फौरन- टीवी-रेडियो पर हाथोहाथ और अखबारों में अगले रोज- सामने आ जाता है! जो इन माध्यमों में नौकरी पाने में सफल नहीं होंगे, वे अपने अखबार/ टीवी खुद चलाएंगे (उसके लिए कोई न्यूनतम अर्हता की जरूरत अब तक सामने नहीं आई है गो कि वह ज्यादा अहम है!)। क्या हैरानी कि तब पेड न्यूज, मेड न्यूज, लेड न्यूज के सारे भेद खत्म हो जाएं!
पेज़ ३

    आपने भी उन लोगों को देखा होगा जिन्होंने पत्रकारिता में डिग्री ली, किताबें लिखीं और विश्वविद्यालयों या मीडिया संस्थानों में शिक्षक बन गए। वे पत्रकारिता पढ़ाते हैं, यानी पत्रकार तैयार करते हैं। मैं दावे से कह सकता हूं कि उनमें ज्यादातर खुद पत्रकारिता करने के काबिल न होंगे। वे कैसे पत्रकार तैयार कर रहे होंगे? मेडिकल शिक्षा मेडिकल काउंसिल की देखरेख में डॉक्टर खुद देते हैं। पत्रकारिता की शिक्षा गैर-पत्रकार कैसे देते हैं? किस नियामक संस्था की देखरेख में देते हैं? क्या चिकित्सकों की तरह पत्रकारों के लिए दोनों काम- पत्रकारिता और शिक्षण- नियमित रूप से एक साथ करना संभव है?
    दरअसल, मेडिकल शिक्षा और मीडिया शिक्षा की तुलना ही असंगत है। मेडिकल शिक्षा में शरीर संरचना की बारीकियां बुनियादी अध्ययन हैं। लेकिन पत्रकारिता के लिए जरूरी भाषा और शैली का संस्कार किसी पाठ्यक्रम से अर्जित नहीं किया जा सकता, उसकी सैद्धांतिक जानकारी ही पाई जा सकती है।
    इसमें हैरानी न हो कि डिग्रियों पर जरूरत से ज्यादा जोर देने का काम काटजू साहब के प्रेस परिषद में आने से पहले से शुरू है। उसी का नतीजा है कि गली-मुहल्लों में ‘मीडिया संस्थान’ खुल गए हैं। अच्छी-खासी फीस लेकर वे पत्रकार बनने के ख्वाहिशमंद छात्रों को सुनहरे सपने दिखाते हैं। काटजू साहब की चली तो ऐसे छात्रों की और बड़ी फौज खड़ी हो जाएगी।
    शिक्षा के मैं खिलाफ नहीं। न प्रशिक्षण को निरर्थक मानता हूं। वे जीवन भर चलते हैं। लेकिन औपचारिक शिक्षा पद्धति सारी दुनिया में कुछ क्षेत्रों में लगभग निरर्थक साबित हुई है। भरती में उसे बंदिश बनाना सेवापूर्व की उपयोगी शिक्षा या प्रशिक्षण मान लेना है, जो कि वह सामान्यतया नहीं होता। सबमें न एक-सी प्रतिभा होती है, न योग्यता। औपचारिक शिक्षा प्रणाली सबको एक तरह हांकती है। हर शिक्षण और प्रशिक्षण में। पाउलो फ्रेरे और इवान इलिच औपचारिक शिक्षा के जंजाल पर बहुत कुछ लिख गए हैं।
    औपचारिक डिग्री अच्छी पत्रकारिता की गारंटी नहीं हो सकती, इसका एकाध उदाहरण दूं। मीडिया में राजनेताओं की गोद में जा बैठने की प्रवृत्ति पनप रही है। बेईमानी बढ़ रही है। अच्छे वेतन पाने वाले पत्रकारों को भी सरकारी घरों में रहने की चाह सताती है। राज्य सरकारें रियायती दरों पर उन्हें भूखंड देती हैं। रहने के लिए नहीं, मानो व्यवसाय करने के लिए। पत्रकार एक के बाद दूसरा भूखंड लेते देखे जाते हैं और उन्हें आगे बेचते हुए भी। क्या मीडियाकर्मी को ईमानदारी के पाठ के लिए किसी डिग्री की दरकार होगी? डिग्री किस तरह उसके ईमानदार होने का प्रमाण होगी?
    कोई भी डिग्री पत्रकार को अच्छी भाषा, सम्यक विवेक और आदर्शों के पालन की सीख की गारंटी नहीं दे सकती। ये चीजें पाठ याद कर अच्छे नंबर लाने से हासिल नहीं हो सकतीं। इन गुणों को अर्जित करना होता है। वे कुछ गुणों से हासिल होते हैं, कुछ व्यवहार और अभ्यास से। अच्छा होता, प्रेस परिषद के अध्यक्ष डिग्री के बजाय इन चीजों के अर्जन पर जोर देते।
पेज़ ४

    अनेक पत्रकार हुए हैं, जिन्होंने बड़ा काम किया है, नाम भी कमाया है। लेकिन वे किसी अहम डिग्री के धारक नहीं थे। राजस्थान पत्रिका के संस्थापक-संपादक कर्पूरचंद्र कुलिश शायद मैट्रिक भी नहीं थे। वे पत्रकारिता ही नहीं, उसके व्यवसाय में भी इतिहास रच गए हैं। जनसत्ता के संस्थापक-संपादक प्रभाष जोशी भी स्नातक नहीं हो सके। हिंदी के श्रेष्ठ कवि मंगलेश डबराल कुशल पत्रकार भी हैं- आलेख को संवारने-मांजने (कॉपी-एडिटिंग) का जो सलीका मैंने उनमें देखा, वह दुर्लभ है। वे भी स्नातक नहीं हैं। आउटलुक के संस्थापक-संपादक विनोद मेहता भी खुद को डिग्रियों के सौभाग्य से वंचित बताते हैं। आप कह सकते हैं कि वह दौर ही ऐसा था। पर जनाब उस दौर में ही तो डिग्रियों की कीमत थी, आज तो रिक्शा चालक भी डिग्री मढ़ाकर दौड़ता है!
    लगे हाथ अपना एक दिलचस्प वाकया सुनाऊं, हालांकि अपनी योग्यता को लेकर मुझे खुद सदा संदेह है! मैंने वाणिज्य संकाय में व्यवसाय प्रशासन की स्नातकोत्तर की डिग्री ली। इतवारी पत्रिका (राजस्थान पत्रिका का साप्ताहिक) में ‘रंग-बहुरंग’ स्तंभ लिखता था। उसे पढ़कर कुलिशजी ने नौकरी का प्रस्ताव किया। नौ साल बाद प्रभाषजी ने जनसत्ता, चंडीगढ़ का। चंडीगढ़ में मुझे किसी घड़ी खयाल आया कि विश्वविद्यालय की डिग्री मैंने कॉलेज से अब तक उठाई ही नहीं। बाद में वह कॉलेज के संबंधित बाबू के घर सुरक्षित मिल गई। बताइए, अब वह क्या काम आई, या आएगी?
    वे दिन हवा हुए, जब डिग्री का मोल था। स्टूडियो में काला लबादा ओढ़कर डिग्री हाथ में ले हमारे पूर्वज फोटो खिंचवाते थे। अब कोरे पढ़े हुए नहीं, अर्जित व्यावहारिक ज्ञान का जमाना है। डिग्री मांगने पर तो बाहर अनंत भीड़ आ खड़ी होती है। हम अपनी निर्धारित परीक्षा और अपने मानकों पर ज्यादा भरोसा करते हैं। उस पर थोड़े ही लोग खरे उतर पाते हैं। खोटे लोग भी आते होंगे। लेकिन काटजू साहब यह न समझें कि योग्यता की कोई परीक्षा मीडिया में है ही नहीं।
    जाहिर है, न्यूनतम अर्हता महज शिगूफा है। काटजू उस पर जोर दें, मुझे कोई शिकवा नहीं। लेकिन मीडिया में जो खामियां और विचलन हैं- ऊपर मैं अनेक गिनवा चुका- उनसे निपटने के लिए दूसरे उपाय खोजने होंगे। हम चाहें तो योग्यता के नए मानक खड़े करें, कौशल परिष्कार के प्रयास करें। आदर्श और आचार-संहिता के कायदे देश-प्रदेश के मीडिया पर लागू करें। लेकिन चपरासी की भरती की न्यूनतम योग्यता का तर्क देकर भटके हुए मीडिया को रास्ते पर लाने का प्रपंच सफल नहीं होगा। आखिर आप किसी दफ्तर के चपरासी की नहीं, देश भर में नए पत्रकारों की पेशकदमी की बात कर रहे हैं, न्यायमूर्ति!
    चलते-न-चलते: जनसत्ता के पूर्व संपादक और मेरे मित्र राहुल देव ने एक दिलचस्प व्यंग्यचित्र भेजा है, जो ऊपर प्रकाशित है। व्यंग्य के पीछे अल्बर्ट आइंस्टाइन की यह मशहूर उक्ति है: ‘‘हर व्यक्ति में मेधा होती है। लेकिन अगर आप किसी मछली की योग्यता इससे तय करें कि वह पेड़ पर चढ़ सकती है या नहीं, तो वह जीवन भर यही मानती मर जाएगी कि वह घोर अयोग्य थी।’’
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पेज़ ५

लोकार्पण : व्यंग्यऋषि शरद जोशी - डॉ वागीश सारस्वत

मानवीय सरोकारों के रचनाकार थे शरद जोशी-डॉ हांडे

Vageesh_Saraswat vyangrishi-sharad-joshi book cover    मुंबई, 14 मार्च 2013
     मुंबई विश्वविद्यालय बी.सी.यु.डी. के निदेशक डॉ राजपाल हांडे ने "व्यंग्यऋषि शरद जोशी" पुस्तक के लोकार्पण के उपरांत कहा कि डॉ वागीश सारस्वत ने यह पुस्तक लिखकर साबित कर दिया है कि व्यंग्यकार शरद जोशी मानवीय सरोकारों के रचनाकार थे। डॉ हांडे ने इस पुस्तक को विद्यार्थियों के लिए उपयोगी बताते हुए कहा कि मुंबई विश्वविद्यालय व उसका हिंदी विभाग हमेशा से ऐसे कार्यों को प्रोत्साहित करता रहा है।
     मुंबई विश्वविद्यालय के फिरोजशाह मेहता सभागार में मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग व लोकमंगल के संयुक्त तत्वावधान में डॉ वागीश सारस्वत की समीक्षा कृति व्यंग्यऋषि शरद जोशी का लोकार्पण समारोह आयोजित किया गया। इसके मुख्य अतिथि के रूप में पधारे डॉ राजपाल हांडे ने शरद जोशी को जीवन की कड़वी अनुभूतियों का सच्चा रचनाकार बताया।
     अभिनेता व कवि शैलेश लोढा ने शरद जोशी के विषय चयन, विस्तार और गहराई को अपने रचनाकर्म में उभारने की दक्षता को रेखांकित करते हुए कहा कि वे आम जीवन के सजग रचनाकार थे। सामान्य बात से शुरू होकर बड़ी बात तक अपने व्यंग्य को ले जाना शरद जोशी का कौशल था। लोढा के मुताबिक डॉ वागीश सारस्वत ने शरद जोशी के व्यक्तित्व व् कृतित्व का खूबसूरत चित्रण किया हैं और यह पुस्तक लिखकर उन्होंने सिद्ध किया है कि व्यंग्य लिखना आसान नहीं है। दिल्ली से इस कार्यक्रम के लिए विशेष रूप से पधारे व्यंग्य यात्रा के संपादक प्रेम जनमेजय ने इस समरोह को व्यंग्य यात्रा के शरद जोशी विशेषांक का लौन्चिंग पैड बताते हुए वागीश सारस्वत की कृति की प्रशंसा की।
Dr. Madhaw Pandit Karuna Shankar upadhayaya rajpal hande vageesh saraswat vishwanth sachdev dr. ramji tiwari kanhaiyalal saraf prem janmejay rita gupta bala chouhan shabdankan vyangrishi sharad joshi
     नवनीत के संपादक विश्वनाथ सचदेव ने शरद जोशी के छोटे वाक्यों की सरचना का जिक्र करते हुए वागीश के समीक्षा कर्म की सराहना की। व्यंग्यकार डॉ सूर्यबाला ने इस पुस्तक को व्यंग्य पर एक गंभीर पुस्तक माना और कहा कि इस पुस्तक के बाद संभव है कि लोग व्यंग्य विधा को गंभीरता से लेने लगे। डॉ रामजी तिवारी ने पुस्तक पर विस्तार से चर्चा करते हुए व्यंग्यऋषि शरद जोशी नाम की सार्थकता को परिभाषित किया और कहा कि वागीश ने पुस्तक को यह शीर्षक देकर ही शरद जोशी के लेखन के महत्त्व का संकेत कर दिया है।
Dr vageesh saraswat sailesh lodha suryabala shabdankan vyangrishi sharad joshi
    मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष करुणाशंकर उपाध्याय ने अतिथियों का परिचय देते हुए बीज वक्तव्य दिया। कार्यक्रम का संचालन डॉ माधव पंडित ने किया। गोपाल शर्मा, डॉ दयानंद तिवारीडॉ सीमा भूतड़ा ने पुस्तक पर समीक्षात्मक वक्तव्य प्रस्तुत किया। डॉ अनंत श्रीमालीसंजीव निगम ने शरद जोशी की व्यंग्य रचनाओं का पाठ किया। इसके अलावा महाराष्ट्र नव निर्माण महिला सेना की उपाध्यक्ष रीटा गुप्ता, प्रख्यात कवियत्री माया गोविन्द, कथाकार सुमन सारस्वत, मनमोहन सरल, ओमप्रकाश तिवारी, अनुराग त्रिपाठी, सुरेश शुक्ला आदि उपस्थित थे। अतिथियों का स्वागत सोनम गुप्ता, संगीता जैसवाल, अपूर्वा कदम और प्रियंका काम्बले ने पुष्प गुच्छ देकर किया। लोकमंगल के उपाध्यक्ष कन्हैयालाल शराफ ने व्यंग्यात्मक शैली में अतिथियों का आभार व्यक्त किया।

सन्धिकाल में स्‍त्री व अन्य कवितायेँ : मायामृग

माया मृग बोधि प्रकाशन जयपुर jaipur hindi poet poetry maya mrig bodhi prakashan मायामृग

जन्म - अगस्त २६,१९६५
जन्म स्थान - हनुमानगढ़, राजस्‍थान
शिक्षा -एम ए, बीएड, एम फिल (हिन्‍दी साहित्‍य)
सम्प्रति- बोधि प्रकाशन              ... विस्तृत परिचय



जो टूट गया


jo toot gaya kavita maya mrig कविता माया मृग जो टूट गया सधे हाथों से
थाप थाप कर देता है आकार
गढ़ता है घड़ा
गढ़ता है तो पकाता है
पकाता है तो सजाता है
सज जाता है जो....वह काम आता है....।।

हर थाप के साथ
खतरा उठाते हुए
थपते हुए
गढ़ते हुए
रचते हुए
पकाते हुए
टूट जाता है जो....वह टूट जाता है...।।

जो काम आया....उसकी कहानी आप जानते हैं
जो टूट गया, मैं तो उसके लिए लिखता हूं कविता.....।।


अंतिम संस्‍कार से पहले


मर तो उसी दिन गई थी
जब दाई ने अफसोस से सूचना दी थी मां को
और बधाई नहीं मांगी ....
मां ने भीगी आंखें लिए मुंह दूसरी ओर कर लिया था
मुंह बिसूरा दादी ने और
पिता ने सिर को झटका बाएं से दाएं......।

मर तो गई थी उस दिन
पहली बार कदम रखा जब बाहर
नजरें तुम्‍हारी जाने क्‍या खोजती रहीं देह के आवरण चीरकर
कन्‍धे से कन्‍धा रगड़कर निकलते तुम
मेरी हत्‍या के पहले प्रयास में भागीदार थे....।

मर गई मैं तुम्‍हारे कठोर हाथ लगते ही
पहले मेरा नाम मरा
(किसने रखा मेरा नाम 'पीडि़ता')
उसके बाद मौत ने जाने कितने रुप बदले
सपनों की ठंडी लाश का अंतिम संस्‍कार नहीं हो सका....।

antim sanskaar se pahle kavita maya mrig कविता माया मृग अंतिम संस्‍कार से पहले
नहीं डर नहीं रही मौत से
मरने से डरती तो जीती कैसे
हर मौत के बाद जिन्‍दा हुई मैं
यह मौत उनसे अलग तो नहीं.....
लो, जा रही हूं मैं
तुम तुम्‍हारे संस्‍कार पूरे करो
मेरा कोई संस्‍कार, अंतिम नहीं होगा.....।



सन्धिकाल में स्‍त्री

sandhikaal me stri kavita maya mrig कविता माया मृग सन्धिकाल में स्‍त्री


तुम्‍हारे लौटने की खबर के बाद
झाड़ डाले सारे जाले दीवार और छत्त की संधियों से
चमकने लगी सब सन्धियां
जहां अक्‍सर फंस जाती थीं मकडि़यां
अपने ही बनाए जाले में....

जरा मुश्किल से पहुंचे हाथ...पर
इतना भी मुश्किल नहीं जाले झाड़ डालना
यह आज जाना तुम्‍हारे आने की खबर के बाद....

साफ साफ है कोना कोना....
अभी अभी घर साफ करके गई बाई के बाद
फिर से पौंछ डाला सारा फर्श
शीशे की आलमारी की हर पटटी को
नरम कपड़े से पोंछा....तब एक बार कट गया था तुम्‍हारा हाथ
इन्‍हीं के तीखे कोनों से.....

पुराने परदों की उधड़ी तुरपाई के सीने का
सबसे सही समय यही लगा
यही अच्‍छा था कि आज ही धो डालें जाएं
कांसे के सब पुराने बर्तन...इमली के पानी से
जिनमें जम गया है हरापन....
जमा हुआ तो हरापन भी बुरा....।

सब जमा दिया है करीने से
पुराने अखबार से लेकर फट चुकी किताबों तक
तुम्‍हारा लौटना पुरानी किताबों में अधफटे पन्‍नों पर से
अधमिटे शब्‍दों को
अपने अर्थ देते हुए अनुमान से पढ़ना है......
और अनुमान में अर्थ कभी अनर्थ नहीं करते....।

बदल दी चादर बिस्‍तर की जो आज सुबह ही बिछाई थी
पुरानी सब तहाई चादरों को रख दिया पिछवाड़े के कबाड़खाने में
यह समझना नयों को शायद ही आए...
पुराना अगर नया हो जाता है तो नया भी पुराना होता ही है....

पुराने अचार को नए मर्तबान में डाल दिया
पापड़ के पुराने पीपे खोलकर खंगाल लिए
अमृतसरी बडि़यों की तीखी गंध को हवा में फैला दिया डिब्‍बा खोलकर
हवा नए पुराने का भेद नहीं करती
उसमें बनी ही रहती है गंध....जरा सा खुलने भर से
तुम्‍हारे आना से ही जानना था आज ये भी तो.....जान लिया

तुम्‍हारा लौटना ....जान लेने जैसा है, कह देने जैसा नहीं
कहना वो था तुमसे....कि जिसे शब्‍दों में कहा जा सकता होता
तो वे दुनिया के सबसे खूबसूरत शब्‍द होते......


किचन की कब्र में स्‍त्री


यह सच है कि कब्रगाह है किचन
पर कब्र से ज्‍यादा सुकून मिलता भी कहां है
सोचती है स्‍त्री......

पहचानती है स्‍त्री
विद्रोह और विरोध के सब हथियार
जो उसके अपने हैं,
किचन में बीतने वाला वक्‍त...जो उसका अपना है....
दरअसल द्रोहकाल है....

चूल्‍हे में आग जलाते हुए
वह नहीं भूलती आग की आंच
इसीलिए गरम पतीला उतारते हुए भी
नहीं जलते उसके हाथ.....
किचन की कब्र में स्‍त्री kavita maya mrig कविता माया मृग kitchen ki qabr me stri
उबलती हुई सब्‍जी के साथ
उबलते हैं सवाल, जिन्‍हें वह पका नहीं सकी
सवालों का कच्‍चापन
बात का कच्‍चा होना नहीं था पर
पके हुए जवाबों ने कच्‍चे सवालों को उबलते छोड़ दिया.....

इतनी गोल ही होती है हमेशा रोटी
नहीं सीखी अभी वह परिधियां तोड़ना
चौरस्‍ते पर आकर....
टेढ़े मेढ़े रास्‍तों के बारे में वह सिर्फ सोचती है
उन पर चलने की नहीं सोचती.....

सोचते हुए सब करती है वह
करते हुए सब सोचती है वह
जिस बात का जवाब नहीं देती
उसके हाथ देते हैं, बरतनों पर भनभनाते हुए....

आंखें बोलती हैं, प्रेम में कहा था उससे किसी ने
जानती है वह
आंखें बोलती हैं,
अक्‍सर नीचे कर लेती है आंखें, बात करते हुए
शब्‍दों से ज्‍यादा खतरा नहीं, वे उतना ही कहेंगे, जितना कहा जाएगा.....

यह सच है कि उसमें वही सब है जो
कहा उससे उसके पिता ने, भाई ने, प्रेमी ने और पति ने
बस उनके अर्थ
ना पिता को पता थे
ना भाई को
ना प्रेमी को
ना पति को........।

साहित्य मज़ाक नहीं

    सच बोलना अच्छी बात है – हम सब ये जानते हैं.

    अधिकतर हम ये मान कर चलते हैं कि हमसे जो बात कही जा रही है वो सच ही है, लेकिन इसका नाजायज़ फायदा ना उठाया जाए ये भी हमें ही देखना होता है.

    पिछले दिनों एक पुस्तक के विमोचन और उससे जुड़ी गतिविधियों व लोगों पर जिस तरह से रिपोर्टिंग हुई और जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया, वो शर्मनाक रहा.

    कोई भी कार्यक्रम उस में शिरकत करने वाले हर इंसान को पसंद आये ऐसा हमेशा संभव नहीं है. मगर क्या इसका ये अर्थ निकलना सही है ? कि वो कार्यक्रम किसी को भी पसंद नहीं आया होगा. मेरी समझ में ये गलत है, आप अपनी राय दें !!

    अब क्योंकि मैं खुद इस समारोह में उपस्थित था, इसलिए पढ़ कर आश्चर्य हुआ, ये सोच कर अजीब लगा कि – जो उस रिपोर्ट को पढ़ेगा, उसे आदतन सच ही मानेगा. आखिर क्या वजह है कि उसे बातों को तोड़ मरोड़ कर, अनावश्यक रूप से सनसनीखेज बनाकर बताया जाए.

    साहित्य को इस तरह के ओछे तरीकों से दूर रखना हमारा कर्तव्य है अन्यथा आने वाले कल को जवाब देना मुश्किल होगा .

    साहित्य मजाक नहीं है और ना ही साहित्यकार या अन्य कोई भी इंसान. हमें ये हक नहीं है कि हम किसी फ़िल्मी गाने को, जो द्विअर्थी हो उसके साथ किसी व्यक्ति-विशेष का नाम जोड़कर संवाद करें ... क्या ये संवाद का तरीका है? जवाब दें !!

    आगे बढ़ने के लिए मेहनत करना बहुत अच्छी बात होती है, लेकिन दिशा का ध्यान रखना उस मेहनत से भी ज्यादा ज़रूरी है. आपस में मतभेद होना एक साधारण बात है लेकिन क्या उस मतभेद को अनावश्यक तूल देना उचित है ? जवाब दें !!

    यदि कोई गलत राह पर जा रहा हो और आप उसे प्रोत्साहित करें, क्या ये मित्रता की निशानी है ? जवाब दें !!

    ऐसे प्रकरण ही हैं जो साहित्य से लोगों को दूर कर रहे हैं ... क्योंकि साहित्य का सौन्दर्य और आकर्षण साहित्यिक रूप में ही है, ना कि किसी सस्ते खबरी अख़बार या टीवी चैनल के रूप में .

    ये सारे विचार उस दिन से ज़ेहन को शांत नहीं होने दे रहे हैं, जब से ये विवाद उठा है ... और कारण ये है कि इससे जुड़े सारे ही लोग प्रिय हैं और सबको अभी बहुत लम्बा सफ़र तय करना है...

    सफर साथ मिलकर ख़ुशी से तय किया जाए तो मंजिल पर पहुँच कर मिलने वाली ख़ुशी चौगुनी होगी... वर्ना अकेले में क्या कोई ख़ुशी मनाई जाती है ?

संजीव की रचनाओं में है आम आदमी की पीड़ा : विभूति नारायण राय

हिंदी विवि में ‘राइटर-इन रेजीडेंस’ संजीव को दी गई विदाई 

वर्धा, 13 मार्च, 2013
     - संजीव, - Sanjeev, : खबर, : News, ~ वर्धा, ~ Wardha, ~  Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, ~ महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के फैकल्‍टी एण्‍ड ऑफीसर्स क्‍लब में आयोजित एक भव्‍य समारोह में कुलपति विभूति नारायण राय ने ‘राइटर-इन-रेजीडेंससंजीव को चरखा, प्रतीक चिन्‍ह आदि प्रदान कर विदाई दी। विदाई समारोह में विवि के प्रतिकुलपति प्रो.ए.अरविंदाक्षन, ‘राइटर इन रेजीडेंस’ विजय मोहन सिंह मंचस्‍थ थे।


- संजीव, - Sanjeev, : खबर, : News, ~ वर्धा, ~ Wardha, ~  Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, ~ महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,     अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में कुलपति विभूति नारायण राय ने संजीव के स्‍वस्‍थ व दीर्घायु होने की कामना करते हुए कहा कि वह एक ऐसे रचनाकार हैं, जो अनुसंधानात्‍मक प्रवृति से एक ठोस कार्य करते हैं। उनकी कथनी और करनी में कहीं भी कोई फांक नहीं दिखता है। उनकी रचनाओं में आम आदमी की पीड़ा और दुख-दर्द परिलक्षित होता है। वे निरन्‍तर समय और समाज के यथार्थ को सामने लाते हैं। उन्‍होंने कहा कि विश्‍वविद्यालय के अध्‍यापक और विद्यार्थी इनसे लगातार संवाद कर लाभान्वित होते रहे हैं।
    विश्‍वविद्यालय में एक वर्ष बिताए पलों को साझा करते हुए संजीव ने कहा कि यहां के वातावरण को देखकर मैं अभिभूत हूँ। यहां निरंतर विद्वानों से संवाद करने और किसानों की आत्‍महत्‍या के कारणों को देख सका। उन्‍होंने कहा कि अनुसंधान की प्रवृति ने ही मुझे रचनाकार बनाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभायी है
- संजीव, - Sanjeev, : खबर, : News, ~ वर्धा, ~ Wardha, ~  Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, ~ महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, उन्‍होंने बताया कि मैं सुबह के उजालों को देखने के लिए रात की गहरे अंधकार में उतरता हूँ और सोचता रहता हूँ कि कैसे यह अंधेरा हमारी जिंदगी से भी छंटता है और उस अंधेरे में अपने पात्रों से रू-ब-रू होता हूँ।
    साहित्‍य विद्यापीठ के विभागाध्‍यक्ष प्रो.के.के.सिंह ने स्‍वागत वक्‍तव्‍य में संजीव की रचनाधर्मिता को रेखांकित करते हुए कहा कि वे एक ऐसे कहानीकार हैं, जिन्‍हें भारतीय लोकजीवन से सच्‍ची मोहब्‍बत है। लेखक का सम्‍मान पुरस्‍कार नहीं अपितु उनको पढ़ा जाना है। उन्‍होंने कहा कि ‘अपराध’ ‘सर्कस’, ‘सावधान नीचे आग है’, ‘सूत्रधार’, ‘जंगल जहॉं शुरू होता है’, ‘प्रेरणास्‍त्रोत’, ‘रह गईं दिशाऍं इसी पार’ जैसी रचनाएं हिंदी जगत में पढ़ी जाती हैं। उनकी ‘पॉंव तले की दूब’ उपन्‍यास को पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि इनकी रचनात्‍मकता जमीन से जुड़ी दूब जैसी है।
    क्‍लब के सचिव अमरेन्‍द्र कुमार शर्मा ने कार्यक्रम का संचालन किया। इस मौके पर राजकिशोर, प्रो.आर.पी.सक्‍सेना, प्रो.हनुमान प्रसाद शुक्‍ल, जय प्रकाश ‘धूमकेतु’, अशोक मिश्र, अनिर्बाण घोष, डॉ. हरीश हुनगुन्‍द, अमित विश्‍वास सहित बड़ी संख्‍या में क्‍लब के सदस्‍य उपस्थित थे।

पैरों के विरूद्ध - कुमार अवधेश


पैरों के विरूद्ध - कुमार अवधेश दस्तावेज़ pairon ke viruddh Kumar Avdhesh Nigam      आज से करीब ३५ वर्ष पहले जब साहित्य अकादमी अध्यक्ष श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी 'दस्तावेज़' के संपादक थे उस वक्त अवधेश निगम जी, कुमार अवधेश की नाम से अपनी कवितायेँ लिखते थे.

     गए दिनों जब विश्वनाथ जी के अध्यक्ष बनने की खबर 'शब्दांकन' पर प्रकाशित हुई, उसे पढ़ कर अवधेश जी ने बातों बातों में ज़िक्र किया कि उनकी कविता, उस समय श्री तिवारी जी ने 'दस्तावेज़' में प्रकशित करी थी -

     मेरे आग्रह पर अवधेश निगम जी ने वह कविता हम कविता प्रेमियों के लिए भेजी इसका उन्हें धन्यवाद.

आगे कविता -


पैरों के विरूद्ध


पैरों के विरूद्ध

बच्चा खेलता रहा

पैरों के विरूद्ध - कुमार अवधेश दस्तावेज़ pairon ke viruddh Kumar Avdhesh Nigam खिलौनों से

तुम सपनो से |

तुम्हे मालूम न था

टूट जाते हैं और फिर खरीदे नहीं जाते

सपने खिलौने नहीं होते |

तुम्हें भी खिलौनों से खेलना था

टूटते, खरीद लाते

इस तरह तुम टूटने से बच जाते |

घुटनों के बल

चलते हुए

जब जब तुमने

अपने पैरों पर चलने की बात सोची

हर बार तुम्हारी आँखों में

एक सपना ठूंस दिया गया

सपना एक साजिश है

वयस्क होने की संभावनाओं और

पैरों के विरूद्ध |

पितृसत्ता धोखा है, धक्का मारो मौका है

पितृसत्ता का पिता या पुरुष से सम्बन्ध

राजेश शर्मा

     "पितृसत्ता धोखा है, धक्का मारो मौका है" पिछले दिनों यह जुमला सोशल मिडिया मे बहुत लोकप्रिय रहा। जहाँ कई लोगो ने इसका खूब इस्तेमाल किया वहीँ कुछ लोग पितृसत्ता को धक्का मारने के प्रस्ताव का विरोध करते भी दिखे। दरअसल पिता की सत्ता को ये लोग चुनौती देना नहीं चाहते। यक़ीनन हिन्दुस्तानी संस्कृति मे पिता का महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन जब हम बात पितृसत्ता की करते है तो उसका मतलब सिर्फ पिता से नहीं होता। सतही सोच रखने वाले दोनों पक्षों के लोग पितृसत्ता की बात आते ही पिता को लेकर बहस करने लगते है जबकि यह लड़ाई पिता या पुरुष के साथ कम और उस सोच के साथ ज्यादा है जो सदियों से समाज की एक परम्परा बनी हुई है।

Rajesh Sharma Writer Poet राजेश शर्मा कवि लेखक पितृसत्ता का पिता या पुरुष से सम्बन्ध    पितृसत्ता का अर्थ समझने की जरुरत है। दरअसल पितृसत्ता एक असंतुलन की स्थिति है जिसमे परिवार का कोई पुरुष परिवार व परिवार के सभी सदस्यों के बारे मे निर्णय लेता है और इस प्रक्रिया मे स्त्री या स्त्री भावनाओं की कोई भूमिका नहीं होती। क्योंकि परिवार और समाज मे केवल पुरुष ही नहीं, स्त्री भी एक पक्ष है इसलिए उस पक्ष को नजरंदाज करने से ये असंतुलन पैदा होता है। क्योंकि निर्णय लेने वाला पुरुष अधिकतर एक पिता होता है इसलिए इस व्यवस्था को पितृसत्ता कहा जाता है। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है की ये व्यवस्था समाज मे इतनी रच बस गई है की यदि परिवार की भाग-दौड़ किसी स्त्री के हाथ मे भी आ जाती है तो उसके निर्णय भी इसी व्यवस्था से प्रभावित होते है। स्वयं स्त्री होकर भी वह स्त्री भावनाओं के साथ न्याय नहीं कर पाती। घर के सभी निर्णय लेने वाली स्त्री भी जब शिक्षा, संपत्ति, व्यापार आदि का बराबर बंटवारा न कर अपने पुत्र के पक्ष मे जाती है तो भले ही सत्ता माता के हाथ मे हो लेकिन यह पितृसत्ता का ही एक उदहारण है। लेकिन दूसरी तरफ ऐसे भी परिवार है जहाँ परिवार की भाग-दौड़ भले ही पुरुष के हाथ मे हो परन्तु स्त्री पक्ष को नज़रंदाज़ नहीं किया जाता बल्कि परस्पर सहमती से निर्णय लिए जाते है। इस प्रकार के कुछ एक परिवार पितृसत्ता नामक व्यवस्था से बाहर है।

    परिवर्तन की यह लड़ाई वास्तव मे सत्ता परिवर्तन से नहीं बल्कि संतुलन स्थापित करने से सफल होगी। यह सुनिश्चित करना होगा कि घर की भाग-दौड़ चाहे जिस भी पक्ष के हाथ मे हो, वह दूसरे की भावनाओं को नज़रंदाज़ न करें। परिवारों से ही समाज का निर्माण होता है। परन्तु परिवारों का निर्माण व्यक्तियों से होता है। और व्यक्तियों के पास मिल-जुल कर रहने के सिवा कोई चारा नहीं है, इसलिए पितृसत्ता को धक्का मारना ही होगा।

Rajesh Sharma Writer Poet राजेश शर्मा कवि लेखक

राजेश शर्मा

स्नातक (कला)
21.11.1983
जन्म - अमृतसर (पंजाब)
डी-05, आजाद कालोनी, बुद्ध विहार, दिल्ली
संपर्क : 09711949635
नई दिल्ली नगरपालिका परिषद् मे सहायक लिपिक के पद पर कार्यरत

कविताये नज़में - गीतिका 'वेदिका'


बेहिसाब बारिश
 

तिस पर निर्दयी जाड़ा
जाने हमने हाय
इसका क्या बिगाड़ा

इस कदर बरसा ये बादल
भीग गयी रूह पूरी
निचुड़ गया रोम-रोम
उठ गयी है यूँ फरुरी
डरते कांपते ही बीता
पिछला पूरा ही पखवाड़ा

देखना एक दिन ही
पूरा हमें डूब जाना है
कुछ नहीं जायेगा संग
सब यहीं छूट जाना है
दे रहा देखो बुलावा
काले बादल का नगाड़ा
बेहिसाब बारिश
तिस पर निर्दयी जाड़ा जाने हमने हाय
इसका क्या बिगाड़ा

आजाओ न कभी यूँ ही

आजाओ न कभी यूँ ही
चिट्ठी पत्री से एकदम से

फिर कुछ पूछो न नाम पता
फिर देहरी पर जम ही जाओ
फिर मै थामूं समझ अपना
आखर से आंगन भर जाओ

इक खुशियों भरी सूचना से
घर महका जाओ मद्धम से !

हाँ सबको संबोधन करना
कोई भी अपना छूटे न
स्नेह भी हो आदर भी हो
कोई भी परिजन रूठे न

लेकिन मुझसे ऐसे मिलना
जैसे इक प्रियतम, प्रियतम से !

शत बार प्राण पुकारते


शत बार प्राण पुकारते तेरी राह राह निहारते
जिस देश तेरा द्वार है
उस दिशा दिन भर देखती
मिलता है तम और उजाला
तुम भी मिलोगे सोचकर, ये नयन दवार बुहारते

ये दिन भी ढलता, ढल चुका
सूर्य रथ घर चल चुका
उर कब का जाने गल चुका
तुम इक बार ही देख लो फिर, उम्मीद फिर हम हारते

मेरा द्वार छोड़ के

बिखर गये आखर सारे
सब भाव भावना के मारे
रसहीन हुए सब कवित्त छंद
सुखों के सब द्वार बंद ....!

हंसी बेबसी हुयी
आह से फंसी हुयी
रुदन से कसी हुयी
बड़ी जटिल "आस-फंद"
सुखों के सब द्वार बंद ....!

कौन जी की पीर हरे
क्या लिखे कलम डरे
बिना जिए तुम मरे
मरण तरन का हाये द्वंद
सुखों के सब द्वार बंद ....!

"आओ प्रिये" टेर दी
साँझ दी सबेर दी
चांदनी बिखेर दी
मेरा द्वार छोड़ के
नन्द के हुए आनंद


कि तेरे दिल कि सदा फिर याद आई...


भूल न जाना कि मेरा क्या होगा
कि तेरे दिल कि सदा फिर याद आई

फिर मिलो फिर फिर मिलो मिलते रहो
क्यों ये खांमखां दुआ फिर याद आई

दूर तक संग मेरे फिर वो लौट आना
फिर मुड़े मुझको वफा फिर याद आई

हम गिरे थामा तुम्हारी बांहों ने
वो तेरी कमसिन अदा फिर याद आई

खुद को खूं में तर बतर कर दूँ


कैसे बता तुझे ए दिल मै दिल बदर कर दूँ
ये करूं तो खुद को खूं में तर बतर कर दूँ

फिर नजर फेरूँ तो ये आलम तेरे बिन क्या करूं
अपनी कायनात पर सब कुछ नजर कर दूँ

हाँ बिना तेरे न जीना, साथ भी न जी सकूं
किस तरह ये हाले दिल तुझको खबर कर दूँ

किन गुनाहों के ये बदले दूरियां मुझको मिलीं
क्या करूं कि दूरियों को बेअसर कर दूँ

मै जानूँ या मन ही जान


 
 जनम जनम के तप की मै
कोई बात करूं क्या
सच केवल इतना की
तुमको एक फसल की तरह पाया है

रात रात भर जाग जाग कर
देखा भाला है
हाथों हाथ दिया जल नैनन
और सम्भाला है
मेरा सच की
बोया काटा और उगाया है
तुमको एक फसल की तरह पाया है

आने दिया एक न आंसू
जग न जाने मन की थाहें
मै जानूँ या मन ही जाने
इक छन सौ सौ लाख लाख आँहें
न रोऊँ न मुस्का पाऊं
ऐसे विरहा गया है
तुमको एक फसल की तरह पाया है

पिया अश्रु पूर दिए रस्ते



मैंने पीहर की राह धरी
पिया अश्रु पूर दिए रस्ते
हिलके-सिसके नदियाँ भरभर
फिर फिर से बांहों में कसते...!

हाये कितने सजना भोले
पल पल हंसके पल पल रो ले
चुप चुप रहके पलकें खोले
छन बैरी वियोग डसते
फिर फिर से बांहों में कसते...!

वापस आना कह हाथ जोड़
ये विनती देती है झंझोड़
मै देश पिया के लौट चली
पिया भर उर कंठ लिए हँसते
फिर फिर से बांहों में कसते...!


गीतिका 'वेदिका'

शिक्षा - देवी अहिल्या वि.वि. इंदौर से प्रबन्धन स्नातकोत्तर, हिंदी साहित्य से स्नातकोत्तर
जन्मस्थान - टीकमगढ़ ( म.प्र. )
व्यवसाय - स्वतंत्र लेखन
प्रकाशन - विभिन्न समाचार पत्रों में कविता प्रकाशन
पुरस्कार व सम्मान - स्थानीय कवियों द्वारा अनुशंसा
पता - इंदौर ( म.प्र. )
ई मेल - bgitikavedika@gmail.com