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48वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार तेलुगु कथाकार डॉ. रावूरि भरद्वाज को ravuri bharadwaja selected for jnanpith award 2012

 तीनमूर्ति भवन सभागार, नयी दिल्ली, 11 अक्टूबर, 2013

Jnanpith award 2012 to Ravuri Bharadwaja साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए भारतीय ज्ञानपीठ का वर्ष 2012 का ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ तेलुगु के सुप्रसिद्ध कथाकार डॉ. रावूरि भरद्वाज को नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय सभागार, नयी दिल्ली में सुप्रसिद्ध सरोदवाद उस्ताद अमजद अली खाँ के कर कमलों द्वारा प्रदान किया गया।

       भारतीय ज्ञानपीठ के प्रबन्ध न्यासी साहू अखिलेश जैन ने डॉ. रावूरि भरद्वाज का पुष्प गुच्छ से स्वागत किया. दीप प्रज्वलन के बाद भारतीय ज्ञानपीठ के आजीवन न्यासी श्री आलोक प्रकाश जैन ने स्वागत भाषण में कहा कि तेलुगु के शीर्षस्थ कथाकार डॉ. रावूरि भरद्वाज मनुष्य जीवन की संवेदनशील अभिव्यक्ति के लिए विख्यात हैं। प्रेमचंद की तरह इनकी रचनाओं में आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद की झलक मिलती है। 

       ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रवर परिषद् के अध्यक्ष, सीताकान्त महापात्र ने कहा कि डॉ. रावूरि भरद्वाज तेलुगु साहित्य में श्री चालम के उत्तराधिकारी ही नहीं है, अपनी अनोखी शैली, कहन, चरित्र-चित्रण और कथा-बनावट की दृष्टि से अपनी अलग पहचान भी रखते हैं।


       अपने पुरस्कार स्वीकारोक्ति भाषण में डॉ. भरद्वाज ने आभार प्रकट करते हुए कहा कि मात्र आदर्श का पालन करना ही नहीं, उसपर चलते हुए ही अपने उद्देश्य की प्राप्ति करना ही आदर्श की स्थापना करना है।मेरी रचनाओं को ज्ञानपीठ ने जो सम्मान दिया है यह उनके चयन की निष्पक्षता को दर्शाता है। इस सम्मान ने मुझे बहुत बल दिया है और मेरे सामने चुनौती रख दी है कि मैं अपने साहित्य में सामाजिक प्रतिबद्धता को उसी तरह निभाता चलूँ जैसी मेरी पहचान बनी है और जो मेरी लेखन-शक्ति है। 

उस्ताद अमजद अली खाँ ने अपने उद्बोधन में कहा कि ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह में आना मेरे लिए गर्व की बात है। साहित्य, •ला और संगीत का मूल स्वर और उद्देश्य एक होता है। यहाँ साहित्य और संगीत का मधुर मिलन देखने को मिला। उस्ताद अमजद अली खान ने कहा की उनके गुरु कहा करते थे की इस ब्रह्माण्ड में दो दुनिया है, एक शब्दों की दुनिया और दूसरी स्वर की दुनिया. इन दो दुनिया में से किसी एक को चुनना होगा. इन दोनों दुनिया को एक साथ चुनना बहुत कठिन होता है, मैंने संगीत की दुनिया चुना. 

कार्यक्रम के अन्त में भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक श्री रवीन्द्र कालिया ने धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कहा कि डॉ. रावूरि भरद्वाज आज तेलुगु के ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतीय साहित्य की श्रेष्ठता के प्रतीक बन चुके हैं। वे अपने भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि हैं और उनकी कीर्ति देश-विदेश तका फैली हुई है। भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान स्वीकार करके उन्होंने हमारा मान बढ़ाया है। 

प्रबन्ध न्यासी साहू अखिलेश जैन की पहल पर इस बार साहित्य का यह सर्वोच्य पुरस्कार एक संगीतकार द्वारा प्रदान किया गया है जो कलाओं के सामंजस्य का मार्ग प्रशस्त करता है।

सम्मान समारोह में अनेक गणमान्य व्यक्ति, साहित्यकार, पत्रकार उपथित थे।
Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012
Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012
Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012
Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012
Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012
Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012
Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012
Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012
Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012
Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012
Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012 Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012

Ravuri Bharadwaja Jnanpith Award 2012

रवीश की रपट: नरेंद्र सत्यवादी मोदी, राहुल सत्यवादी गांधी

रवीश की रपट: नरेंद्र सत्यवादी मोदी, राहुल सत्यवादी गांधी "सत्य बोलने का कोई समय नहीं होता । सत्य बोलने का जो समय चुनता है वो सत्य नहीं झूठ बोलता है ।" अध्यादेश फाड़ने के बाद से राहुल गांधी राजनीति की व्यावहारिकता को छोड़ कहीं आदर्शवादी तो होने नहीं जा रहे । कहीं वे बीच चुनाव में सत्य के साथ प्रयोग न करने लग जाएँ । राहुल गांधी को अब जोश आ गया लगता है । अच्छा है । पर सत्य बोलने का जो समय ही न चुनें वो भी क्या सत्य ही होता है । राहुल गांधी पर तो कई मौक़ों पर कुछ न बोलने का ही इल्ज़ाम है । राबर्ट वाड्रा प्रकरण पर चुप्पी किस सत्य के लिए थी । दुर्गा के लिए चिट्ठी और खेमका के लिए चुप्पी । समय के हिसाब से थी या सत्य के हिसाब से । इतने दिनों की चुप्पी अगर सत्य की खोज के लिए थी तो और सत्यों की उम्मीद करें ? दरअसल राहुल और नरेंद्र मोदी दोनों अपना वक्त चुन कर बोलने और चुप रह जाने में माहिर हैं । मुझे नहीं मालूम कि इन दोनों का मौन क्या है । सत्य या झूठ ।

       इसीलिए राहुल का यह आदर्शवाद आत्मघाती लगता है । राजनीति में वक्त का चयन करना भी राजनीति है । राजनीति सत्य से नहीं होती । अब देखिये लालू यादव को सज़ा हुई तो नरेंद्र मोदी चुप्पी मार गए । जेडीयू के के सी त्यागी आरोप लगाते फिर रहे हैं कि जब मोदी भ्रष्टाचार से लड़ रहे हैं तो लालू पर चुप क्यों हो गए । कोई ट्वीट क्यों नहीं किया । बीजेपी ने ज़रूर प्रतिक्रिया दी मगर त्यागी का कहना था कि प्रधानमंत्री के उम्मीदवार चुप क्यों हैं । ये और बात है कि त्यागी जी के पार्टी के दो नेताओं को भी सज़ा हुई है । सब कह रहे हैं कि पटना की सभा में मोदी इस तरह से लालू के जेल जाने पर बोलेंगे ताकि यादव उनकी तरफ़ आ जायें राहुल से बदला लेने के लिए । देखना होगा कि अपने सज़ायाफ्ता मंत्री पर चुप रह जाने वाले मोदी मुलायम मायावती के बरी हो जाने के बहाने सीबीआई के मुद्दे को कैसे रखते हैं । मोदी का मुद्दा है कि यूपीए सीबीआई के डर से चल रही है । यूपीए ने मायावती मुलायम को सीबीआई के डर से आज़ाद कर दिया है ।  कहीं वे अपने और अमित शाह के डर के कारण इसे मुद्दा तो नहीं बना रहें । अगर नहीं तो क्या ये उम्मीद कर सकते हैं कि वे प्रधानमंत्री बनने पर सीबीआई की स्वायत्तता के लिए अपना प्लान भी बतायेंगे ।
उनके नमो फ़ार पीएम टाइप समर्थकों ने भी ट्वीट नहीं किया कि हे नमो बता तो दो आप सीबीआई का क्या करोगे । 
लोकपाल लाओगे ? लोकपाल के तहत सीबीआई को पूरी तरह दे दोगे ? बेहतर होगा कि दोनों ही अपनी अपनी योजनाएँ जनता के सामने रखें और इस पर लोग विचार कर फ़ैसला दें । हम नहीं वो वाला गेम बहुत हो चुका ।

दरअसल राहुल और मोदी के समर्थकों को सिर्फ दूसरे नेता पर होने वाले सवालों से मतलब है । अपने नेता पर होने वाले सवालों से नहीं । मोदी ने आनलाइन की दुनिया को संगठित तरीके से अपने रंग दिया है  जहां मोदी पर किये जाने हर सवाल को कांग्रेस की दलाली बताने के लिए ' पेड नेटी घुड़सवार' सवाल करने वाले पर हमला कर देते हैं । इनके लिए तो सिर्फ मोदी सत्य हैं और बाक़ी झूठ । इनके लिए पत्रकारिता की तटस्थता का यही मतलब है कि कोई मोदी पर सवाल न करे ।  ऐसे लोगों के प्रति आनलाइन चुप्पी भी कम ख़तरनाक नहीं है । शर्मनाक भी है ।

इस पूरी प्रक्रिया पर अंग्रेज़ी की ओपन पत्रिका में हरतोष सिंह बल का एक अच्छा लेख है । हो सके तो पढ़ियेगा ।
कैसे दोनों ही नेता प्रेस कांफ्रेंस और पत्रकारों को नज़रअंदाज़ करते हैं । दोनों ने सार्वजनिक तौर से प्रेस से बात करना बंद कर दिया है । मगर व्यक्तिगत रूप से दोनों प्रेस से बात करते हैं । जिसकी पुष्टि कई बड़े पत्रकारों ने की है । मेरे ही शो में एन के सिंह ने कहा था कि मोदी रविवार को बात करते हैं । उनसे भी बात करते है । अंग्रेज़ी चैनल के एक बड़े सम्पादक ने भी ऐसा कुछ कहा था । राहुल गांधी भी बड़े पत्रकारों से अकेले में मिलते हैं । अहमदाबाद में ही पत्रकारों से आफ़ रिकार्ड मुलाक़ात की । कैमरे और फ़ोन बाहर रख लिये गए । 
अब अगर ये किसी नागरिक के लिए गंभीर सवाल नहीं है तो इसका मतलब है कि आप अंध भक्तों से बात कर रहे हैं । ओपन पत्रिका के लेख का लिंक दे रहा हूँ । वैसे मेरी अभी तक दोनों से कोई बात नहीं हुई है । व्यक्तिगत रूप से बात करने में कोई बुराई नहीं है मगर ये दोनों प्रेस कांफ्रेंस में आते क्यों नहीं हैं । व्यक्तिगत बातचीत रिपोर्ट भी नहीं होती है ।

       इस चुनाव में झूठ सत्य है या सत्य झूठ तय करना मुश्किल है । पेड मीडिया और दलाल के नाम पर सवाल पूछने वालों को धमकाया जा रहा है । पेड मीडिया एक दुर्भाग्यपूर्ण हक़ीक़त है मगर इसकी आड़ में एक नेता की तरफ़ उठने वाले सवालों का गला घोंटा जा रहा है । सवाल छोड़ कर, करने वाले की साख दाग़दार की जा रही है । इसके बाद भी लोगों को सिर्फ अपने पसंदीदा नेता की जीत से मतलब है तो फिर कुछ कहा नहीं जा सकता । किसी की जीत के कारण सवाल कैसे स्थगित हो सकते हैं । क्या अब सवालों के यही जवाब होंगे कि जनता किसी को कितनी बार से चुन रही है ? तो फिर यह सबके साथ लागू होगा या किसी एक के साथ । 

       छह अक्तूबर को जनसत्ता में एक रिपोर्ट छपी है । पहले पन्ने पर सबसे नीचे । रिपोर्ट सह सम्पादकीय टिप्पणी है । विवेक सक्सेना लिखते हैं कि हरियाणा में परमवीर चक्र विजेता को सरकार इकत्तीस लाख रुपये देती है जबकि नरेंद्र मोदी की सरकार साढ़े बाइस हज़ार ही । इसी तरह खेल और सैनिक सम्मानों को लेकर हरियाणा और गुजरात की तुलना की गई है । मगर मोदी तो उसी रेवाड़ी में कह आए कि आज सैनिकों का सम्मान नहीं हो रहा । इसका भी लिंक दे रहा हूँ । मैंने अपनी तरफ़ से सूचनाओं का सत्यापन नहीं किया है मगर विवेक सक्सेना बहुत पुराने पत्रकार हैं इतनी कच्ची रिपोर्ट भी नहीं लिखेंगे ।


       अब कोई सवाल करें तब तो । यहाँ तो खेमे बाँट दिये गए हैं । सिर्फ हो हो और हुले ले ले हो रहा है । सत्य का विज्ञापन नेता ही कर रहे हैं । जनता के हाथ तो कुछ लग नहीं रहा है । आज ही गूगल का आनलाइन जनता के साथ हुए एक सर्वे की रिपोर्ट आई है कि बयालिस प्रतिशत लोगों ने अपनी राय नहीं बनाई है कि किस पार्टी को वोट देना है । यह सर्वे दिलचस्प है । दो तिहाई पंजीकृत मतदाता अपना मत आनलाइन जगत में प्रकट नहीं करते हैं । इसका मतलब है कि नरेंद्र मोदी के पक्ष में जो आनलाइनीय हवा बाँधी गई है वो सही नहीं है । प्रायोजित तरीके से मोदी के हक़ में आनलाइनीय मुखरता व्यक्त की जा रही है । गूगल का सर्वे कहता है कि शहरी मतदाता का सैंतीस प्रतिशत आनलाइन है । पैंतालीस फ़ीसदी मतदाता फ़ैसला करने से पहले और जानकारी जमा करना चाहते हैं । मतदाताओं ने जिन दलों को सबसे ज़्यादा सर्च किया है उनमें पहले नंबर पर बीजेपी दूसरे पर कांग्रेस तीसरे पर आप चौथे पर बीएसपी और पाँचवे पर शिवसेना है ।

लोग सत्य खोज रहे हैं । वे खोज ही लेंगे । बस नेता यह न समझें कि उनके बोले हुए को ही जनता सत्य समझती है । इस झूठ को वो जीना बंद कर दे । जनता बोलने और चुप रहने के समय को पहचान लेती है । यही सत्य है । 
रवीश कुमार
8 अक्टुबर 2013 रवीश के ब्लॉग 'क़स्बा' से 
http://naisadak.blogspot.in/2013/10/blog-post_6440.html 

दुष्कर्मों के साक्ष्य आखिर कब तक गूंगे रहेंगे? - अशोक गुप्ता

अभी कुछ ही दिन पहले हमारे सामने एक परिदृश्य था जिसमें आसाराम बापू के चारों ओर उनके भक्तों का कवच इतना अभेद्य था, मानो वह कवच ही अपने में एक समग्र संरचना हो, हालांकि आसाराम की बदचलनी की गंध बरसों से हवा में थी, लेकिन एहसास के बावज़ूद वह नगण्य थी. इस एक कांड के बाद, जिसने आसाराम को सलाखों के पीछे भेज दिया, एक के बाद एक कारनामों का उजागर होना शुरू हो गया. वह अभेद्य प्रतीत होने वाला कवच भुरभुरा गया और पता चलने लगा कि इस घृणित अनैतिक कारोबार में उनके परिवार के सभी सदस्य शामिल हैं. यानी कि, ये विविध आश्रम एक एक दुर्ग थे जिनके परकोटों में अनगिनत कुकृत्य दफ़न थे और आसाराम की आतंककारी सत्ता किसी को चूँ करने का भी साहस नहीं देती थी. अब वह कारावासी हुए तो बहुतों की जुबान खुली, हो सकता है कि उनके स्वर्गवासी(?) होने के बाद सभी बंद दरवाज़े खुद-ब-खुद खुल जाएँ.

Asaram Bapu's son Narayan Sai, accused of rape, is missing, say cops        यहां एक बात सोचने को विवश करती है. आसाराम पुरुष हैं और उनके कुकृत्य, उनकी निरंकुश पौरुषेय ग्रंथि के आवेग के कारण हैं. उनका बेटा भी पुरुष है. इसलिये किसी रणनीति के तहत अगर आसाराम ने अपने बेटे को भी अपने इस ‘यौनिक’ खेल में शामिल कर लिया, तो बहुत आश्चर्य की बात नहीं है. यह निर्णय उनके पौरुषेय विवेक की एक बानगी है, जिसके आगे उनका आपस में बाप-बेटा होना अर्थहीन हो गया. ठीक. लेकिन जो बात हजम नहीं होती वह यह है कि आसाराम की पत्नी ने कैसे इस गिरोह का एक पुर्जा होना स्वीकार कर लिया..? कोई पत्नी कैसे अपने पति के हाथों अपना एकाधिकार लुटते देख-सह सकती है ? यह केवल, और केवल आसाराम के अपने परिवार पर हावी आतंक के कारण संभव है. इसे एक व्यभिचारी पति की अपने परिवार पर जारी तानाशाही की तरह समझा जा सकता है, जिसे तोड़ कर बाहर आना अब तक आसाराम की पत्नी और बेटी के लिये संभव नहीं था.

       अब, जब आसाराम बे-नकाब हो कर जेल में हैं और उनके कारनामे अनेक रास्तों से बाहर आते जा रहे हैं, तो बहुत संभव है, कि एक दिन वह निरीह गूंगी स्त्री, जो श्रीमती आसाराम कहलाती है, वह भी सामने आये और अपने यातनादायक अनुभवों का खुलासा करे. शायद, उसे इस महाभारत की पूर्णाहुति कहा जाय. आखिर हर निरंकुश और अनीतिकारी तानाशाह का किसी न किसी दिन अंत होता है.

       इसी क्रम में मैं एक और संभावना सामने रखना चाहता हूँ. यह समय का वह दौर है जब नरेंद्र मोदी के समर्थकों का तुमुल कोलाहल हवा में गूंज रहा है. वह भी मंच पर फूलों से सज कर नर्तन गर्जन कर रहे हैं, हालांकि उनका भी तानाशाही चरित्र खुले आम सामने आया है और गुजरात में उनका, सरकारी तंत्र के माध्यम से अल्पसंख्यकों पर किया गया खूनी दमन बहुतों ने देखा है. इसे वह ‘हिंदुत्व’ के नाम पर उसी तरह ढक सके हैं, जैसे आसाराम ने अपने ‘करम’ भक्ति के नाम पर ढके हैं. लेकिन अगर हम यहां ‘अल्पसंखयकों’ की जगह ‘विरोधी’ पढ़ते हुए उस रील को पुनः अपनी आँखों के आगे से गुज़ारें तो लगेगा कि यह उसी टक्कर की विरोधी दमन की राजनीति है, जैसी 1984 में कॉंग्रेस ने सिक्खों पर उतारी थी. इस तरह मोदी भी किसी माने में आसाराम से कम तानाशाह, निरंकुश और इन्द्रियलोलुप नहीं हैं, बस फर्क यह है कि मोदी की प्यास राजनैतिक सत्ता की है, और वह इसके लिये रक्तपात की हद तक जा सकते हैं.

       जैसे आसाराम को लेकर उनके भक्तों का न सिर्फ मोहभंग हुआ दीखता है बल्कि उनके ‘पाप गर्भित कलश ’ एक एक कर के फूट रहे हैं उसी तरह मोदी के भी वह कवच भुरभुरा जायेंगे जिनके तले उनके कुकृत्यों के साक्ष्य ढके पड़े हैं. जितनी जल्दी उनके भयभीत और लोलुप समर्थक, सच उजागर करने पर आ जायं उतना अच्छा, वर्ना देर सबेर तो यह होना ही है.

       किसने सोचा था कि आसाराम बापू का एक दिन यह हश्र होगा और उनके दुर्ग की दीवारें एक दिन स्वयं उनके कारनामों की गवाह बन जाएंगी.
अशोक गुप्ता
305 हिमालय टॉवर.
अहिंसा खंड 2.
इंदिरापुरम.
गाज़ियाबाद 201014
मो० 09871187875
ई० ashok267@gmail.com


पुरस्कार, विवाद और छीछालेदर - अनंत विजय

हिंदी साहित्य इन दिनों पुरस्कार विवाद से गरमाया हुआ है । इस गरमाहट की आंच हिंदी से जुड़े लोग अच्छी तरह से महसूस कर रहे हैं । हिंदी के महान साहित्यकार प्रेमचंद के गांव के नाम पर उनके दूर के रिश्तेदार हर साल लमही सम्मान देते हैं । लमही नाम से से एक पत्रिका भी निकालते हैं । लमही पुरस्कार पिछले चार सालों से दिया जा रहा है । पिछले चार सालों से यह पुरस्कार अपनी विश्वसनीयता स्थापित करने में जुटा था । अब तक ये पुरस्कार मशहूर अफसानानिगार ममता कालिया, पत्रकार साजिश रशीद और कथाकार शिवमूर्ति को दिया जा चुका है । इन तीन वर्षों के चयन पर विवाद नहीं उठा नहीं कोई सवाल खड़े हुए । इसकी एक वजह इस पुरस्कार से हिंदी जगत का अनभिज्ञ होना भी हो सकता है । लमही पुरस्कार देने वाले लोग उसी नाम से एक साहित्यक पत्रिका भी निकालते हैं । इस साल भी सबकुछ सामान्य चल रहा था । तीस जनवरी दो हजार तेरह को हिंदी की उभरती हुई लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ को चौथा लमही सम्मान देने का ऐलान हुआ। निर्णायक मंडल में संयोजक विजय राय के अलावा वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता, फिल्मकार चंद्रप्रकाश द्विवेदी, लेखक सुशील सिद्धार्थ और प्रकाशक महेश भारद्वाज थे । इस साल विश्व पुस्तक मेले के मौके पर इस पुरस्कार की खूब चर्चा रही थी । लमही के मनीषा कुलश्रेष्ठ पर केंद्रित अंक की जोरदार बिक्री का दावा भी किया गया । इस तरह से प्रचारित किया गया कि ये हिंदी साहित्य जगत की कोई बेहद अहम घटना हो । थोड़ा बहुत विवाद उस वक्त निर्णायक मंडल में प्रकाशक के रहने पर उठा था लेकिन चूंकि पुरस्कार की उतनी अहमियत नहीं थी लिहाजा वो विवाद जोर नहीं पकड़ सका । तकरीबन छह महीने बाद उनतीस जुलाई को दक्षिण दिल्ली के मशहूर और प्रतिष्ठित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में समारोहपूर्वक लमही सम्मान अर्पण संपन्न हुआ । पत्र-पत्रकिओं से लेकर अखबारों तक में इस समारोह की खूब तस्वीरें छपी । ऐसा पहली बार हुआ था कि लमही सम्मान समारोह उत्तर प्रदेश की सरहदों को लांघ कर दिल्ली पहुंचा था। हिंदी जगत में यह माना गया कि लमही सम्मान अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाने के लिए दिल्ली पहुंचा । इस भव्य समारोह को इसी आलोक में देखा समझा गया था । इस पृष्ठभूमि को बताने का मकसद इतना है कि पाठकों को पूरा माजरा समझ में आ सके ।

पुरस्कार-विवाद-छीछालेदार-प्रेमचंद-लमही_सम्मान_विजय_राय_आलोक_मेहता_चंद्रप्रकाश_द्विवेदी_सुशील_सिद्धार्थ_महेश_भारद्वाज_मनीषा_कुलश्रेष्ठ        पुरस्कार अर्पण समारोह तक सबकुछ ठीक रहा । असल खेल शुरू हुआ पुरस्कार अर्पण समारोह के डेढ महीने बाद । सोशल नेटवर्किंग साइट पर किसी ने लिखा कि लमही पुरस्कार के संयोजक ने लखनऊ की एक पत्रिका को साक्षात्कार में कहा है कि इस साल मनीषा कुलश्रेष्ठ को लमही पुरस्कार देकर उनसे चूक हो गई। किसी ने पत्रिका को देखने की जहमत नहीं उठाई। किसी ने विजय राय समेत जूरी के सदस्यों से बात करने की कोशिश नहीं की । किसी सोशल नेटवर्किंग साइट पर उनमें से किसी का पक्ष भी नहीं छपा । सिर्फ एक पोस्ट के बाद यह खबर फेसबुक पर वायरल की तरह फैल गई । शोर ऐसा मचा कि कौआ कान लेकर भाग गया और बजाए अपने कान को देखने के उत्साही साहित्यप्रेमी कौआ के पीछे भागने लग गए । फेसबुक की अराजक आजादी ने कौआ के पीछे भागनेवालों की संख्या बढ़ाने में उत्प्रेरक का काम किया । नतीजा यह हुआ कि -
मनीषा कुलश्रेष्ठ ने फौरन अपनी फेसबुक पर लिखा- मैं यहां जयपुर में हूं । लमही सम्मान की बाबत तमाम विवाद से अनभिज्ञ हूं .....विजय राय जी का बयान अगर सत्य है कि उन्होंने दबाव में पुरस्कार दिया है तो इस अपमानजनक सम्मान को मैं लौटाने का निर्णय ले चुकी हूं । 
...कौआ के पीछे भागने की एक और मिसाल । अगर मगर की बजाए जूरी के सदस्यों से बात करने के बाद टोस तरीके से अपनी बात रखी जाती । लेकिन अपमानजनक विवाद में पड़ने के बाद संतुलन रखना थोड़ा मुश्किल काम होता है । पुरस्कृत लेखिका ने दावा किया उसने पुरस्कार के लिए ना तो प्रविष्टि भेजी थी और ना ही अपनी किताब । उन्होंने मांग की कि जूरी और संयोजक उनसे माफी मांगे । उन्होंने आहत होकर लेखन छोड़ देने का संकेत भी दिया था । एक माहिर राजनेता की तरह चले इस दांव से फिर फेसबुकिया ज्वार उठा और लेखिका ने अपना निर्णय बदल लिया । खैर यह तो होना ही था । लेखिका का आग्रह था कि पुरस्कार लौटाने के निर्णय को हिंदी में एक परंपरा की शुरुआत के तौर पर देखा जाना चाहिए । लेकिन वो यह भूल गईं कि हिंदी में पुरस्कार लौटाने की एक लंबी परंपरा रही है । लेकिन ज्यादातर साहित्यक वजहों से । ज्यादा पीछे नहीं जाकर अगर हम याद करें तो दो हजार दस में आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने हिंदी अकादमी का पुरस्कार ठुकरा दिया था । उनका विरोध कृष्ण बलदेव वैद के लेखन के समर्थन और हिंदी अकादमी के उस लेखन के एतराज पर था । अग्रवाल के पुरस्कार लौटाने के बाद हिंदी अकादमी की साख पर सवाल खड़ा हो गया था ।

       लमही सम्मान पर यह विवाद इतने पर ही नहीं रुका । अब पुरस्कार, लेखक, जूरी सदस्यों के बारे में निहायत घटिया और बेहूदा बातें भी सामने आने लगी । फेसबुक पर जिसे जो मन आया लिखता चला गया । हिंदी साहित्य से जुड़े लोग चटखारे ले लेकर इन व्यक्तिगत बातों से आनंद उठाने लगे । लेकिन वो बातें इतनी घटिया थी कि उसको पढ़ने के बाद हमको अपने को हिंदी साहित्य से जुड़े होने पर भी शर्म आ रही थी । हिंदी साहित्य में व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप की कोई जगह होनी नहीं चाहिए और हमें उसका घोर प्रतिवाद भी करना चाहिए । साहित्यक मसलों में व्यक्तिगत लांछन लगानेवालों का साहित्यक बहिष्कार किया जाना चाहिए । लेकिन यहां फर्क हिंदी और अंग्रेजी की मानसिकता का और कुंठा का है । हिंदी का लेखक इतना कुंठित हो गया है कि उसको मर्यादा की परवाह ही नहीं रही । मैं लंबे समय से इस कुंठा पर लिखता आ रहा हूं लेकिन राजेन्द्र यादव को यह छाती कूटने और मात्र विलाप करने जैसा लगता है । हकीकत यह है कि हिंदी के ज्यादातर लेखक अदने से लाभ-लोभ के चक्कर में इतने उलझ गए हैं कि वो बड़ा सोच ही नहीं सकते हैं । अब देखिए कि पंद्रह हजार रुपए के इस पुरस्कार के लिए इतना बड़ा विवाद । इस विवाद के पीछे भी हाय हुसैन हम ना हुए की मानसिकता ही है ।

       दरअसल आज हिंदी साहित्य के परिदृश्य में इतने पुरस्कार हो गए हैं कि हर दूसरा लेखक कम से कम एक पुरस्कार से नवाजा जा चुका है । पुरस्कारों की संख्या बढ़ने के पीछे लेखकों की पुरस्कार पिपासा है । इसी पुरस्कार पिपासा का फायदा उठाकर हिंदी साहित्य को कारोबार समझनेवाले लोग फायदा उठाने में जुटे हैं । शॉल श्रीफल के पीछे का खेल बेहद घिनौना है । पुरस्कारों के खेल पर लेखक संगठनों की चुप्पी भी खतरनाक है । हिंदी के तीनों लेखक संगठनों ने अब तक हिंदी में पुरस्कारों की गिरती साख को बचाने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया है । लेखक संगठन भी पुरस्कृत लेखक या फिर विवादित लेखक की विचारधारा को देखकर ही फैसला लेते हैं । उनके लिए साहित्य प्रथम का सिद्धांत कोई मायने नहीं रखता है । उनके लिए तो विचारधाऱा सर्वप्रथम और सर्वोपरि है । लेखकों के सम्मान और अपमान को भीवो विचारधारा की कसौटी पर ही कसते हैं । लमही सम्मान विवाद पर भी लेखक संगठनों ने चुप्पी साधे रखी । उसके बाद के अप्रिय प्रसंगों पर भी लेखक संगठनों ने उसको रोकने के लिए कोई कदम उठाया हो ये ज्ञात नहीं है । अब वक्त आ गया है कि हिंदी साहित्य के वरिष्ठ लोग मिलजुल कर बैठें और पुरस्कार को लेकर तल रही राजनीति और खेल को रोकने के लिए पहल करें । हिंदी में पुरस्कारों की लंबी और प्रतिष्ठित परंपरा रही है । उस सम्मानित परंपरा को वापस लाने का काम वरिष्ठ लेखकों को अपने कंधों पर उठाना होगा । अगर ऐसा होता है तो इससे हिंदी का भी भला होगा और साहित्यकारों की साख पर भी सवाल नहीं उठेंगे । इसके अलावा हमसब को मिलकर कुंठित और व्यक्तिगत लांछन लगानेवालों का बहिष्कार भी करना होगा । लेकिल सवाल यही है कि क्या हम हिंदी वालों के बीच इतना नैतिक साहस है । क्या हम हजारी पुरस्कारों का मोह त्याग सकेंगे । क्या हम छोटे लाभ लोभ से मुक्त हो सकेंगे या व्यक्तिगत हितों की अनदेखी करने का साहस उटा पाएंगे । हिंदी साहित्य के सामने आज ये बड़ा सवाल मुंह बाए खड़ा है । इससे बचकर निकलने से हमारा ही नुकसान है । फायदा इन सवालों से मुठभेड़ में ही है । रास्ता भी वहीं से निकलेगा ।

अनंत विजय

प्रवासी साहित्यकार समाज में पुल का काम करें - तेजेन्द्र शर्मा


ब्रिटेन के प्रमुख साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा ने कहा कि “ब्रिटेन के हिन्दी साहित्यकारों का उद्देश्य होना चाहिये कि उनका साहित्य ब्रिटिश हिन्दी साहित्य कहलाए ना कि भारत का प्रवासी हिन्दी साहित्य। हमें अपने साहित्य में से नॉस्टेलजिया को धीरे धीरे बाहर निकालना होगा। हमारे लेखन के सरोकार ब्रिटिश समाज के सरोकार होने चाहियें। मेरा मानना है कि प्रवासी साहित्यकारों को प्रवासी समाज एवं स्थानीय गोरे समाज के बीच एक पुल का काम करना चाहिये।”

तेजेन्द्र शर्मा कल यानि कि 28 सितम्बर 2013 को ब्रिटेन के लेस्टर शहर की लेस्टर मल्टीकल्चर एसोसिएशन के एक ख़ास कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में अपनी बात श्रोताओं के सामने रख रहे थे।
संस्था ने युगाण्डा से चालीस साल पहले इदी अमीन द्वारा निकाले गये भारतीय मूल के लोगों के सम्मान में एक पूरा प्रोजेक्ट बनाया था। उनमें से अधिकांश भारत के गुजरात प्रान्त से सम्बन्ध रखते थे। इन भारतवंशियों ने ब्रिटेन में आकर यहां की संस्कृति को एक नया रंग दिया और भारतीय संस्कृति को ब्रिटेन में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

संस्था के सचिव श्री विनोद कोटेचा ने संस्था का परिचय देते हुए बताया कि उन्होंने तेजेन्द्र शर्मा को  अपनी 50 कविताओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने की दावत दी और कहा कि अपने साहित्य के माध्यम से ये कविताएं प्रवासी जीवन स्थानीय लोगों के साथ साझा करें। उन्होंने श्रोताओं को बताया कि तेजेन्द्र शर्मा की कविताओं को दोनों भाषाओं में संकलन के रूप में प्रकाशित किया जाएगा।

कार्यक्रम के अन्त में एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें डॉ. निखिल कौशिक (वेल्स), डॉ. अजय त्रिपाठी, परवेज़ मुज़फ़्फ़र, नरेन्द्र ग्रोवर (तीनों बर्मिंघम), नीना पॉल (लेस्टर) एवं स्वयं मैं यानि कि तेजेन्द्र शर्मा ने कविता पाठ किया।

प्रोजेक्ट की संयोजक सुखी ठक्कर ने प्रोजेक्ट के बारे में विस्तार से बताया। संचालन डॉ. राजीव वाधवा ने किया। लेस्टर की लेबर पार्टी काउंसलर एवं डिप्टी मेयर मंजुला सूद एवं रश्मिकान्त जोशी के अतिरिक्त भारतीय समाज के सम्मानित वयक्तित्व कार्यक्रम में मौजूद थे। धन्यवाद ज्ञापन संस्था के अध्यक्ष सरदार गुरमेल सिंह दिया।

स्त्री विमर्श और आत्मालोचन - मैत्रेयी पुष्पा

स्त्री विमर्श और आत्मालोचन

मैत्रेयी पुष्पा


स्त्री विमर्श और आत्मालोचन मैत्रेयी पुष्पा इस शब्दयुग्म से बहुत से लोगों का साहित्यिक जायका कड़ुवा हो जाता है। अगर ऐसा अनुभव है तो यह कोई विचित्र बात भी नहीं है। सबको अपनी तरह से सोचने का अधिकार है। बात यह भी है कि स्त्री विमर्श के चलते साहित्य में अनेक भ्रांतियां फैली हुई हैं, जैसे- यह विमर्श आखिर किसके हित में है? यह एक पुरुष-विरोधी अभियान है। तीसरी बात कि यह विचार विदेशों से आयातित है, जो भारतीय जीवन-मूल्यों को ध्वस्त कर रहा है।

       ऊपर की मान्यता प्राप्त बातों का उत्तर न सहज है, न आसान। नहीं बताया जा सकता कि स्त्री विमर्श स्त्री के हित में है और पुरुष वर्ग का अहित करने के लिए लागू हुआ है। मामला यहीं से उलझने लगता है, जब लिखित या व्यावहारिक तौर पर स्त्री पितृसत्ता के सौतेले और कठोर व्यवहारों पर सीधी नहीं, मरखनी गाय की तरह सींग हिलाने लगती है, यानी मुझे तुम्हारा निजाम मंजूर नहीं। हमारा पुरुष समाज देखता है, अरे यह क्या हुआ, त्यागमयी सहिष्णु नारी, सेवाभावी स्त्री, अपने स्वामी के इशारों पर उठने-बैठने और चलने-फिरने वाली औरत और अपनी दसों इंद्रियों को निग्रह के हवाले रखने वाली सती, आज कैसी उल्टी-सीधी बातें करने लगी है!

       मरखनी गाय को पीटने का विधान है, मुंहजोर और जिद्दी औरत की अक्ल ठिकाने लगाने वालों को भी दोषी नहीं माना जाता, क्योंकि औरत की जिद खुद एक अपराध है। जिद भी किन बातों की? उन बातों की, जिन पर पुरुष सत्ता का हुक्मनामा लागू रहा है। पिता, पति और पुत्र इन आज्ञा-पत्रों के मालिक माने गए हैं।
     
       मगर स्त्री विमर्श! यह पुरुष-विरोधी मुहिम नहीं, तो क्या है? वह अपने मनुष्यगत अधिकारों की मांग करती है- वह शिक्षा का अधिकार मांगती है, घर की चौखट लांघने का उच्छृंखल आचरण करती है। वह विवाह में अपना फैसला देना चाहती है, मतलब कि कन्यादान को चुनौती देती है। वह विवाह से भी पहले ‘करिअर’ बनाने की बात करती है, यानी परंपरा से चले आ रहे उम्र-विधान को टंगड़ी मारती है। वह वंश चलाने के लिए अपनी इच्छा की बात करती है। संतान कब और कितनी, यह सवाल उसका अपना है, क्योेंकि यह उसके तन-मन से जुड़ा मुद्दा है। वह कहां जाएगी, कहां नहीं, इसका फैसला भी खुद ही करेगी। किसी के साथ जाएगी या अकेली, वह खुद तय करेगी। क्या पहनेगी, यह भी उसी का अपना चुनाव होगा।

       यह औरत आजाद है या आवारा? यह भारतीय स्त्री कैसे हो सकती है? यह भारतीय औरत के रूप में विदेशिनी है। यह जो कुछ करना चाहती है, सब आयातित स्त्री विमर्श की देन है। इसे रोका जाना चाहिए। अगर ऐसा हमारे सामाजिक और साहित्यिक लोग मानते हैं तो हम उनको दोषी नहीं ठहरा सकते, क्योंकि व्यवस्था छिन्न भिन्न हो जाने का डर अपनी जगह मामूली नहीं होता। जमींदार की तरह रहे स्त्री के मालिक लोग उसको वे हक कैसे दे सकते हैं, जिन्हें बड़े कौशल से हथिया कर उन्होंने औरत को गुलाम बनाया है। धरती पर धन-दौलत, सोना-चांदी, महल-हवेली जैसी चीजें मिल जाती हैं। मगर गुलाम और दासी तो खुद ही पालने-पोसने पड़ते हैं, पालन भी ऐसा रहे कि वे भागने या छूटने के लिए खुद को अपाहिज समझें। ऐसा होता आया है।
     
       इस व्यवस्था का कमाल देखिए कि इसने कितना लंबा जीवन पाया है और आज जब व्यवस्थाओं के लिए खतरा खड़ा होता है कि उनके गुलाम विरोध ही नहीं, विद्रोह पर उतारू हैं, तो उन्होंने अपना निजाम और भी कठोर तथा क्रूर बना दिया है। विदेशों में शिक्षा पाने और कमाने वाले सपूतों के पिताओं का वश चले तो वे स्त्री को भारतीय नियमावली के बमों से उड़ा दें। ‘आदर्श बहू’ के खंजर तो औरत पर रोज ही चलते हैं। समाज में स्त्री के लिए दरिंदगी का जो सिलसिला चला है, वह इसी डर का परिणाम है कि औरत उनके हाथ से निकल रही है। यहां हम यह कह कर मर्दों को माफी नहीं दे सकते कि वे अनपढ़, अशिक्षित या बेहाल, कंगाल हैं जो औरत पर जुल्म करते हैं। नहीं, उनमें कोई भूखा-नंगा नहीं होता।
     
       तुम अपने हक मांगोगी, जिसमें तुम्हारी आजादी होगी कि तुम खुले आसमान के नीचे निकलोगी तो हम तुम्हें रोकेंगे नहीं, तुम्हारा शिकार करेंगे, अपनी ताकत दिखाएंगे। फिर भी अगर तुम हमें पराजित करने की ठानोगी तो हम झुंड बांध कर आएंगे और तुम्हें धराशायी कर देंगे। औरत मर्द के लिए दहशत का विषय बने? धिक्कार है ऐसी मर्दानगी पर!

       हमारे समाज का ऐसा चेहरा और स्त्रियों की जांबाज मुहिम!
     
       मुहिम में रणनीतियों का उपयोग न किया गया हो तो दरिंदगी भरे समाज से, सड़ी-गली परंपराओं की बजबजाती दल-दल से और आजकल शानदार चमकदार तस्वीर दिखाते बाजार से खतरों के उफान उमड़ते ही रहेंगे। क्या स्त्रियों, नवयुवतियों को अपने लिए ऐसे संकल्प नहीं लेने होंगे, जो उनकी मुहिम को मजबूत कर सकें? रूढ़ियों का सड़ांध भरा कीचड़ औरत का रास्ता रोक देता है, इसका उल्लेख हमें आज ही नहीं, पिछली शताब्दी के शुरुआती दौर से ही मिलने लगता है। बात बस गौर करने की है।
     
       साहित्य में महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर उनके समय की लेखिकाओं ने अपनी गद्य रचनाओं में उसी आग के दर्शन कराए हैं, जिसे आज हम स्त्री विमर्श के नाम से जानते हैं। उनके भीतर वही विरोध-प्रतिरोध थे, मर्दानी व्यवस्था के प्रति जो आज हमारे हैं। हां, उनके प्रतिकार के ढंग थोड़े भिन्न थे। फिर भी स्त्री नाइंसाफियों के खिलाफ बोल रही थी और पुरुष परंपरा को बाकायदा चुनौती देती है, पुलिस से जूझती है, जेल जाती है, यानी घर की चौखट हर हालत में लांघती है।

       यही धारा तो बहती चली आई कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी से लेकर मृदुला गर्ग, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, गीतांजलीश्री, अनामिका से और आगे तक। स्त्री की वह छवि साहित्य में अपना होना दर्ज करती गई, जो अपने मनुष्यगत अधिकारों के लिए सजग है और उनको हासिल करने के लिए अग्रसर। स्त्री द्वारा लागू किए गए इस विधान को आप किसी नाम से पुकारिए, जब वरक खोलेंगे तो एक चेतना संपन्न लोकतांत्रिक स्त्री का दर्शन होगा।

       साहित्य के ऐसे सफे ही सामाजिक स्तर पर अपना असर छोड़ते हैं। पढ़ने वाले के अंतरमन में जीवित रहते हैं, क्योंकि इनका वास्ता पाठक से उसके एकांत में होता है। अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि स्त्रियों का ऐसा लेखन, जिसमें वे अपनी नागरिकता का दावा करती हैं। किसी या किन्हीं पुरुषों के विरोध में नहीं है, बस ऐसा लगता है कि क्योंकि हक छीनने वालों से अधिकार वापस लेना उनसे दुश्मनी ठानने जैसा हो जाता है। सही मायने में तो बात यह है कि स्त्रियों को पुरुषों के रूप में शासक नहीं, सहयोगी और साथी चाहिए, यही स्त्री लेखन का मकसद है और होना भी चाहिए।
     
       अपने इस मकसद के लिए उन रचनाकारों को भी सचेत होना पड़ेगा, जिनको हम लेखिका कहते हैं। उनको भी आत्मालोचन की जरूरत है। जरूरत है कि जिस मुहिम को हमारी पूर्वज लेखिकाओं ने पूरे साहस के साथ छेड़ा, बिना समझौते और सौदेबाजी के निभाया, उसी मुहिम को हम यहां तक किस रूप में लाए हैं? क्या हमने उस बहादुर लेखन का फलक विस्तृत किया है या उतना ही रहने दिया? या नया भी कुछ जोड़ा है? समाज में स्त्री के लिए फैली हुई नियमों की कुरूपता, सजाओं की सजावट या सजावटों की वीभत्सता को खुली आंखों देखते हुए हमने क्या फैसले किए?

       इक्कीसवीं सदी में जबसे ‘युवा लेखन’ का फतवा चला है, लेखन की दुनिया में खासी तेजी आई है। लेखिकाओं की भरी-पूरी जमात हमें आश्वस्त करती है। किताबें और किताबें। लोकार्पण और लोकार्पण। इनाम, खिताब, पुरस्कार जैसा बहुत कुछ। प्रकाशक, संपादक भी अपने-अपने स्टाल लेकर हाजिर। अपने-अपने जलसों की आवृत्तियां। कैसा उत्सवमय समां है। कौन कहता है कि यह दरिंदगी और दहशत भरा समय और समाज है? साहित्य जगत तो यहां आनंदलोक के साथ है। नाच-गाने और डीजे। शानदार पार्टियां और आपसी रिश्तों के जश्न। ऐसा लगता है जैसे कितनी ही कालजयी रचनाएं आई हैं।
     
       मगर इस समय की कलमकार के अपने रूप क्या हैं? युवा के सिवा कुछ भी नहीं, यह युवा लेखिका का फतवा किस दोस्त या दुश्मन ने चलाया कि इस समय की रचनाकार अपनी उम्र का असली सन तक अपने बायोडाटा में दर्ज नहीं करतीं, क्योंकि उम्र जगजाहिर करना युवा लेखन के दायरे से खारिज होना है। वे लेखन के हल्केपन की परवाह नहीं करतीं, जवानी को संजोए रखने की चिंता में हैं। इसी तर्ज पर कि रचना में कमी-बेसी से डर नहीं लगता साब, वयस्क कहे जाने से डर लगता है। परवाह नहीं उम्र पैंतालीस से पचास पर पहुंच जाए, युवा कहलाने का अनिर्वचनीय सुख मिलता रहे।

       हम बड़े गौर से देखते हैं, कोई रचना मिले जो अपनी गंभीरता के साथ मेच्योर हो, जो देश के सामाजिक हालात से संबंधित राजनीतिक दायरों के अनुभवों पर आधारित हो, जो स्त्री का हस्तक्षेप पंचायतों से लेकर विधानसभा और संसद तक रेखांकित करे। जो धार्मिक और राजनीतिक गठजोड़ का परदाफाश करे। यानी जो ‘जिंदगीनामा’, ‘महाभोज’, ‘अनित्य’, ‘हमारा शहर उस बरस’, ‘आंवा’ से आगे का आख्यान बने। नहीं तो इक्कीसवीं सदी का रचनात्मक इतिहास दर्ज कौन करेगा? क्या इसका जिम्मा भी युवा लेखिकाओं ने उन पर ही छोड़ा है, जिन्हें वे बीतती हुई पिछली पीढ़ी मानती हैं। संभव है यह, क्योंकि आज की रचनाओं में लिव इन रिलेशनशिप, अफेयर, मैरिज, डाइवोर्स और कितने-कितने लोगों से यौन सुख का रिफ्रेशमेंट यहां तक कि एग्जाम के लिए भी बायफ्रेंड से यौन सुख की खुराक... उफ यह स्त्री विमर्श! स्त्री का मनुष्य रूप केवल यही है? उसने अपने हक-हकूक केवल इसी स्थिति के लिए लेने चाहे थे?

       माना कि श्लील-अश्लील, मर्यादा, नैतिकता और चारित्रिक दृढ़ता के पैमाने औरत को लेकर बदलने की जरूरत थी और वे बदले भी हैं। यौन सुख को स्त्री के दमन का आधार बनाया जाता रहा है, इससे भी औरत ने इनकार किया है। उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए जो बाड़ें, बंदिशें थीं, उनको तोड़ा है। नतीजे हमारे सामने हैं कि वह हर कहीं उन क्षेत्रों में है, जिनको अब तक पुरुषों के लिए आरक्षित माना जाता था। यह स्वागतयोग्य कदम है, यह स्त्री विमर्श का चमकदार इलाका है। इस इलाके पर रचनाएं आनी चाहिए।
     
       लेकिन सोचना यह भी पड़ता है कि इस उपलब्धियों के इलाके को धूमिल कौन कर रहा है? हमारी रचनाएं क्यों नहीं कहतीं कि दहेज का विरोध करने वाली दुल्हनों, यह भी कहो कि बाजार की गुलामी नहीं करोगी। शादी का पैकेज बेचते दुकानदार तुमको गुलामी के मंच पर ऐसे वीभत्स शृंगार में पेश कर देते हैं, जहां तुम्हारा वजूद बचता ही नहीं। बचती है एक चमकीले सुनहरे जेवरों में मढ़ी और रेशमी कपड़ों के गोटे-पट्टे, सलमा-सितारे जैसे चमकते पत्थरों से जड़े लहंगे ओढ़नी के तंबू में ढंकी युवती, जिसके वास्तविक चेहरे को पहचानना मुश्किल होता है। कमाल है कि साहित्य और समाज में आप अपनी पहचान की बात करती हैं। देखती नहीं, हर चौराहे पर होर्डिंग में स्त्री का अधनंगा और लगभग नंगा शरीर लटका रहता है? कभी इसके खिलाफ भी लेखकीय मुहिम छेड़ो और इसे बाजार की नीतियों से लेकर सरकार के नियमों से जोड़ो। जोड़ो कि आखिर औरत किस कानून के तहत विज्ञापनों में अपनी देह के साथ बिक्री पर चढ़ी हुई है? इन बिकने वाली युवतियों में इनकार का साहस भरो। मत भूलो कि साहित्य में भी तुम्हारे सामने पुरुष वर्ग का वह बड़ा हिस्सा होगा, जो तुम्हारा ध्यान कलम से हटा कर वहीं ले जाएगा, जहां उसकी मस्ती का इलाका है। वह तुम्हें तारीफों का नशा पिलाएगा और मदहोश कर देगा। स्त्री विमर्श जब न तब ऐसे ही तो ढेर होता रहा है। इक्कीसवीं सदी में हिंदी साहित्य के स्त्री लेखन की पस्तमिजाजी का यही कारण तो नहीं कि औसत रचनाओं का धूम धड़ाका!

       कितना चंचल वक्त है, ऊपर से आपकी उम्र भी युवा युवा! हाथ में कलम है और माहौल जवां जवां! फिर क्या-क्या न लिख दे कोई? बस स्त्री अगर अपनी प्रखरता में शोषितों, वंचितों और छद्म के शिकारों की कथाएं लिखने में लिहाज करती रही तो उन आशिकों और साहित्य के मालिकों की मेहरबानी कि उसकी कलम ने वे तेवर नहीं पकड़े जो ‘दिलोदानिश’ लिखते। क्या जो लेखिकाएं अपने आप को मुक्ति की मशाल लिए हुए दिखा रही हैं, उस मशाल की लौ धुंआ-धुंआ नहीं है? मशाल तो उनकी ही लौ दे रही है, जिनको आज पिछली पीढ़ी माना जा रहा है, क्योंकि रचनाओं को उम्र की दरकार नहीं होती। भले आप सोलह साल की बनी रहें, रचना तो अपने परिपक्व रूप को ही धारण करने का आग्रह रखती है और उसका नाम भी तभी साहित्य में मुकम्मल रूप से दर्ज होता है। नहीं तो, यों तो फिल्में भी सिनेमाघरों में हर हफ्ते लगती हैं और उतर जाती हैं।
जनसत्ता से साभार

बेमिसाल गज़लकार श्री प्राण शर्मा की दो ताज़ा गज़लें

बेमिसाल गज़लकार श्री प्राण शर्मा की गज़लों को चाहने वालों के लिए उनकी दो ताज़ा गज़लें



घर - घर  में  खूब   धूम   मचाती  है  ज़िन्दगी
क्या  प्यारा - प्यारा   रूप दिखाती  है ज़िन्दगी

रोती   है  कभी   हँसती  - हँसाती   है  ज़िन्दगी
क्या-क्या तमाशे  जग को दिखाती है ज़िन्दगी

कोई   भले  ही   कोसे  उसे  दुःख  में बार - बार
हर  शख्स  को   ऐ   दोस्तो  भाती  है  ज़िन्दगी

दुःख  का  पहाड़  उस  पे   न   टूटे  ऐ  राम  जी
दिल   को   हज़ार   बार   रुलाती   है  ज़िन्दगी

खुशियो, न जाओ छोड़ के उसको कभी भी तुम
घर  -   घर  में  हाहाकार  मचाती  है  ज़िन्दगी

ऐ `प्राण` कितना खाली सा लगता है आसपास
जब  आदमी  को  छोड़  के  जाती  है  ज़िन्दगी



ऐ  दोस्त,  रास  आती    हैं   किसको  बनावटें
चाहे  रची - बसी    हों   कुछ   उनमें  सजावटें

हर आदमी  का   काम    है  उनको   पछाड़ना
आती   हैं     जिंदगानी    में     ढेरों    रुकावटें

कोशिश करो  भले  ही  उन्हें  तुम  मिटाने की
मिटती नहीं  हैं  यादों   की   सुन्दर  लिखावटें

रखना उन्हें संभाल के  जब तक है दम में दम
मुख पर  झलकती  हैं  जो  ह्रदय  की  तरावटें

उनका  असर  ऐ  दोस्तो   किस  पर नहीं पड़ा
अब  तो  विचारों  में   भी   घुली  हैं  मिलावटें

जिस ओर  देखिये   तो  यही  आता  है  नज़र
बढ़ती   ही   जा   रही   हैं   जहां  में  दिखावटें

ऐ  `प्राण`  इस   की  शान  रहे  ऊँची  हर घड़ी
जीने   नहीं   देती   कभी   मन   की  गिरावटें
१३ जून १९३७ को वजीराबाद में जन्में, श्री प्राण शर्मा ब्रिटेन मे बसे भारतीय मूल के हिंदी लेखक है। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए बी एड प्राण शर्मा कॉवेन्टरी, ब्रिटेन में हिन्दी ग़ज़ल के उस्ताद शायर हैं। प्राण जी बहुत शिद्दत के साथ ब्रिटेन के ग़ज़ल लिखने वालों की ग़ज़लों को पढ़कर उन्हें दुरुस्त करने में सहायता करते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि ब्रिटेन में पहली हिन्दी कहानी शायद प्राण जी ने ही लिखी थी।
देश-विदेश के कवि सम्मेलनों, मुशायरों तथा आकाशवाणी कार्यक्रमों में भाग ले चुके प्राण शर्मा जी  को उनके लेखन के लिये अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए हैं और उनकी लेखनी आज भी बेहतरीन गज़लें कह रही है।

मदारी का मायाजाल - प्रेम भारद्वाज

यह कैसी विडंबना
कैसा झूठ है
दरअसल अपने यहां जनतंत्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है
[ धूमिल ]

मदारी का मायाजाल 

प्रेम भारद्वाज 

छोटे शहर से गुजरते हुए सहसा ही धूमिल की ये पंक्तियां याद आतीहैं। सड़क की बाईं ओर किसी संगोष्ठी का बैनर है। विषय है- ‘क्या भाषा अनुभव का स्थानापन्न बन सकती है?’ बाहर एक लाउड स्पीकर लगा है जो खराब है। रह-रहकर टूट-टूटकर आती आवाजें। संगोष्ठी प्रारंभ होने वाली है। बैनर के ठीक नीचे एक मदारी मजमा लगाने की तैयारी में है। डुगडुगी बजाता हुआ। बचपन में सुनी डुगडुगी की आवाज और मदारी की भाषा ने मोह लिया। रुक गया। मदारी अपनी रौ में है। भाषा का मोहफांस। वहां से गुजरने वालों को फंसाती उसकी चमत्कृत कर देने वाली जादुई भाषा... खास किस्म का उसका चुंबकीय अंदाज-ए-बयां...।

       ‘मेहरबान। साहेबान। हिंदुओं को राम-राम। मुसलमान भाइयों को सलाम। मेरे हुनर, भाषा और कला के कद्रदान। एहसान कि आप रुक गए, कि आप सुन रहे हैं, यकीन है। अंतिम शब्द को भी सुनकर ही जाएंगे। तो सुनिए। बहुत गौर से सुनिए... मैं कोई प्रवचन करने नहीं जा रहा हूं। अलबत्ता एक वचन देता हूं... कि आप यहां से कुछ लेकर जाएंगे। एक ऐसी चीज जो अनमोल है, जिसकी आपको आरजू रही है, लेकिन जो अब तक तामील नहीं हो सकी। जो आपका ख्वाब है... मगर उसके हकीकत में ढलने का इंतजार है। आज इंतजार की वे घड़ियां खत्म। लेकिन साहेबान, इसका यह मतलब नहीं कि तमाशा नहीं होगा... वह होगा... और जबरदस्त होगा। दिल थामकर खड़े रहिए, ऐसा तमाशा दिखाऊंगा कि यहां से जाने के बाद आपमें से किसी को यह मलाल नहीं रह जाएगा कि ‘देखने हम भी गए, मगर तमाशा न हुआ।’ इसे देखने के बाद भूल जाएंगे राजकपूर की ‘बरसात’, ‘शोले’ का गब्बर, ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ का शाहरुख। सर्कस का रोमांच, संसद का हंगामा, पहली रात का मजा, कैटरीना के ठुमके, सब भूल जाएंगे आप, याद रहेगा... सिर्फ और सिर्फ इस मदारी का तमाशा।

       लाउड स्पीकर से भीतर चल रही संगोष्ठी की आवाज सुनाई दी। कोई वक्ता ज्ञान बघार रहे थे- मार्केज कहते हैं कि ‘भाषा दो तरह की होती है, पेट की भाषा और दिल की भाषा।’ पेट की भाषा समझ में आती है, दिल की भाषा भी। लेकिन इन दिनों एक तीसरी किस्म की भाषा भी हिंदी या कहें इस देश-दुनिया में चल पड़ी है जिसका संबंध न पेट से है, न दिल से। वह भाषा बाजार की है जो बाकी दो भाषाओं की नसों में लोभ का जहर भर रही है।

       मदारी अपनी रौ में है। उसकी भाषा का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है, ‘हां तो मेहरबान, कद्रदान, साहेबान, अगर इस खेल और तमाशे का पूरा मजा लेना चाहते हैं तो बदले में न पैसा मांगता हूं, न टिकट, न निमंत्रण पत्र। स्टेडियम में जाएंगे तो आईपीएल का टिकट दस हजार का है... और मल्टीप्लेक्स में सिनेमा का टिकट दो सौ से पांच सौ तक का। लेकिन यहां उससे भी ज्यादा मजा मिलेगा और वह भी मुफ्त। बस जैसा मैं कहता हूं, वैसा करते जाइए। और खेला फ्री में देखिए। घबराइए मत, ये मदारी न आपसे आपकी कुर्सी मांगेगा। न धन, न रोटी, न राजपाट... दिल तो बिलकुल ही नहीं जो वैसे ही आपके पास नहीं है... अगर किन्हीं भाई के पास होगा तो पहले ही किसी को गिफ्ट कर दिया होगा। आप सोच में पड़ गए। जानता हूं क्या सोच रहे हैं? अब कसम उस ऊपर वाले की जिसने हमें रचा है... हिंदू है तो भगवान की सौगंध, मुसलमान है तो खुदा की कसम, सिख है तो नानक की और ईसाई है तो कसम जीसस की। अगर बदले में आपसे कुछ भी मांगूं तो थूक देना मेरे मुंह पर। यह मदारी उस जमात का नहीं है जो खेल के आखिर में कुछ बेचते हैं... चादर फैलाकर पैसा मांगते हैं। साहेबान मैं तो आपको तनाव भरे इस जीवन में कुछ राहत-मनोरंजन के पल देना चाहता हूं। और अंत में एक ऐसी अद्भुत चीज जो अनमोल है और जो आपके खुद के लिए बड़े काम की चीज है। जिससे आपका जीवन संवर जाएगा।’

       संगोष्ठी से आवाजें आ रही हैं। वक्ता बदल गया है। जाहिर है आवाज और अंदाज भी। नए वक्ता का नया ज्ञान- जॉन इडली ने कहा है कि ‘जिसने ईमानदारी खो दी, उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं बचता।’ लेकिन बात भाषा की हो रही है। उदय प्रकाश ने साहित्य अकादमी मिलने पर अपने वक्तव्य में कहा था, ‘लेखक की अपनी भाषा ही उसका जल, जंगल, जमीन और जीवन हुआ करती है। किसी लालच या अन्य उन्माद में सभ्यता हमेशा आदिवासियों को उनके स्थान से विस्थापित करती आई है। भाषा भी पूंजी और तकनीक के साथ जुड़ी सत्ता-संरचनाओं की चपेट में है। मैं जिस भाषा में लिखता हूं उस भाषा का मालिक कौन? लेखक और कुछ नहीं, भाषा में ही अपना अस्तित्व हासिल करता कोई प्राणी होता है।

       मदारी की अपनी भाषा है। जुदा-जद्दोजहद। अलग तरह का संकट और उसका संघर्ष। अंदाज-ए-बयां गालिब की तरह मुश्किल नहीं, मजेवादी है, इसके मूल में मजा है। कुछ इस तरह, ‘हां तो साहेबान अगर खेल का फुल मजा लेना चाहते हैं तो आप सभी बैठ जाइए, बैठ जाइए... अब अपने दोनों हाथ खोल लीजिए। अगर मुट्ठी बंद है तो उसे खोल लीजिए। आपसे मैं कोई परेड नहीं करा रहा हूं। न हेड मास्टर, सीएम या पीएम की तरह हुक्म दे रहा हूं। दरअसल, यह इस तमाशे का उसूल है... नियम है। हां एक बात और आप में से कोई भी बीच में खेल छोड़कर नहीं जाएगा। ऐसे में किसी के साथ अनजाने में कोई अनहोनी हो जाए तो उससे इस मदारी का कोई लेना-देना नहीं होगा।

       भाषा पर चल रही संगोष्ठी अब अपनी जड़ों की ओर लौटी। जड़ें बोले तो लोक, जीवन और संघर्ष। नए वक्ता जो अपनी टोन से ही देशज मालूम होते हैं, श्रोताओं को समझा रहे हैं- साहित्य की भाषा में जो सृजनशीलता आती है, वह लोक भाषा से आती है। उसी से शक्ति पाकर साहित्य अपने रूढ़ रूप और घिसे हुए प्रतीकों से मुक्त होकर सृजनशीलता की ओर अग्रसर होता है। ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ में राहुल सांकृत्यायन ने जीवटता की याद दिलाई थी, ‘किताबें पढ़कर सीखने वालों की भाषा में जीवटता नहीं होती। हिंदी पढ़ने वालों ने सैकड़ों बरस पहले उन गंवारों की भाखा तो ले ली मगर उनकी जीवटता नहीं ली। अगर जीवटता हो तो मामूली भाषा में भी बारीक औजार की धार होगी।निराला ने इसी जीवटता को ‘जीवन संग्राम की भाषा’ कहा। हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर की भाषा को लेकर इसी जीवटता और संघर्ष की अदा को दिखा सके। मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक डायरी’ के संघर्ष में इसी तनावपूर्ण भाषा का जीवन संघर्ष है। केशवदास के मुकाबले कबीर की भाषा इसलिए ताकतवर है क्योंकि वह दिल से निकली भाषा है और उसमें संघर्ष का ताप है। यही बात निराला भुवनेश्वर, नागार्जुन, मुक्तिबोध, धूमिल, राजकमल चैधरी, मलयज और गोरख पांडेय पर भी लागू होती है। जहां भाषा अपने तेवर और तनाव में है। जो सौंदर्य के अंतःपुर से नहीं संघर्ष की भट्टी से निकली है। जाहिर है वह भट्टी सामाजिक तो है ही, व्यक्तिगत जीवन की विसंगतियों की व्यथा में शब्द पकाती चिमनियां भी उसमें हैं।

       ‘लीजिए खेल शुरू होता है। अब सबसे पहले जोर से ताली बजाइए... अरे। ये क्या, बीवी ने खाना नहीं दिया... प्रेमिका ने दिल तोड़ दिया या दफ्तर में बॉस ने डांटा है। भूल जाइए सब कुछ, सारा रंज-ओ-गम। चुटकी नहीं ताली बजाइए। ...ये हुई न बात।

मदारी का खेल उत्कर्ष पर है। उसने लड़की को गायब कर दिया। लोगों ने तालियां बजाईं। लड़के का छाती फाड़कर रक्त सने उसके कलेजे को हाथ में लेकर हौलनाक दृश्य पैदा किया। तालियां बहुत तेज बजीं। लड़का खून से लथपथ दर्द से छटपटाता रहा। तालियां बजती रहीं। तमाशे का क्लाइमेक्स। गजब का मजा। लेकिन मदारी के चेहरे पर तनाव। वह गुस्से में है, ‘बड़े बेमुरौव्वत, बेरहम और संगदिल हैं आप सब! आपके भीतर का जज्बा मर चुका है। इंसानियत सूख गई है। मैं आप लोगों को खेल दिखाकर शर्मसार हूं। मैंने तो एक बार तालियां बजाने को कहा, मगर आप लोगों ने तो हद ही कर दी। एक जवान लड़की दिन-दहाड़े शहर की भीड़ से गायब हो गई। तालियां बजा रहे हैं आप। सरेआम एक मासूम बच्चे का कत्ल हो गया। तब भी तालियां पीट रहे हैं। हैरान हूं मैं।

       संगोष्ठी ने भावनात्मक करवट ली। भाषा के नए रूप- स्वरूप और उसकी ताकत से नए वक्ता श्रोताओं को वाकिफ करा रहे थे। नए वक्ता भावावेग में हैं। बोले- जब कोई शब्द नहीं था कोई भाषा नहीं थी, तब भी भाव तो थे। भूख थी, प्यास थी, प्रेम, नफरत, हिंसा और चीख थी। दुनिया और इस सृष्टि की सबसे ताकतवर भाषा ‘चीख’ है जो शब्दों के सहारे नहीं, दिल से फूटती है जो सिंहासन को बच्चों के खिलौने में तब्दील कर देती है। राजा को रंक में। इस समय चमकदार भाषा की नहीं, एक चीख की दरकार है जो दर्द की घाटी से निकले। जुल्म जिसका देश है, शोषण जहां की संसद है। मलयज ने इस बाबत बहुत पहले ही यह चिंता प्रकट की थी, ‘फिलहाल स्थिति यह है कि हममें समय की अनुभूति है, पर इससे निकली हुई वह अग्नि दृष्टि नहीं, जो इस रस को पकाकर रसायन बना दे। अनुभव से साक्षात्कार के क्षण को उसकी चरम परिणति तक पहुंचाने के पहले ही हमारा कवि फट जाता है। शब्द और अर्थ एक दूसरे से अलग हो जाते हैं और काव्य-संवेदना कच्चे बीजों की तरह बिखर जाती है। ‘वहां जीभ से अलग कटी पड़ी है भाषा/जहां हकला-हकलाकर चीजों को चीजों से जोड़ रही थी/पाया खिलखिलाकर हंसते हुए मेरा अकेलापन।’

       मदारी का मायाजाल। उसका मूल मकसद अब प्रकट होना ही चाहता है, ‘क्या आप नहीं चाहते कि लड़की वापस लौटे, बच्चा जिंदा हो जाए।’ भीड़ से आवाज आई, ‘हम चाहते हैं।’ ‘तो इसके लिए आपको प्रायश्चित करना पड़ेगा। वह इस तरह कि जिससे जो भी बने एक रुपए, दो रुपए, पांच, दस, बीस, पचास, इस कटोरे में डाल दे वर्ना न तो लड़की वापस आएगी, न यह मासूम बच्चा जिंदा रहेगा। अगर नहीं, तो मैं चला। बाकी आप जाने। आपकी इंसानियत जाने... मेरा खेल खत्म।

       संगोष्ठी में अध्यक्षीय भाषण चल रहा था। अध्यक्ष महोदय कोई नई बात कहने की जुगत में हैं- नागार्जुन अक्सर कहा करते थे, ‘बोले तो बहुत, अब कुछ कहिए भी।’ मौजूदा दौर में बोला तो बहुत जा रहा है, कहा कम जा रहा है। इसे साहित्य के संदर्भ में भी हमें समझना होगा। रचनाकारों की एक जमात है जिसके पास जीवनानुभव का घोर अभाव है। उस खालीपन को वह जादुई भाषा से भरना चाहता है। रुपयों से कटोरा भर गया। मदारी के चेहरे का तनाव तिरोहित हो गया है। वह खुश है। खेल का पैसा वसूल हो चुका है। लड़की लौट आई। बच्चा भी सामने खड़ा है, मुस्कुराते हुए। ‘हां, तो मेहरबान-साहेबान अब वक्त आ गया वादा है निभाने का। वह अनमोल चीज देने का जिसको देने का वादा मैंने शुरू में ही किया था, तो लीजिए यह शीशी है...। अलादीन के चिराग की तरह जादुई है यह। इसे मैं आपको देता हूं मगर एक शर्त है कि इसे अभी मत खोलिएगा वर्ना इसका असर खत्म हो जाएगा। इसे जेब में रखकर घर ले जाइए। जहां सोते हैं, उस बिस्तर में तकिए के नीचे रख दीजिए। कल सुबह इसे खोलिएगा। उसके बाद देखिए इसका कमाल। आपकी किस्मत का पिटारा खुल जाएगा, यह इस मदारी का वचन है। और इसके लिए मैं आपसे एक पैसा भी नहीं लेने जा रहा। यह एकदम फ्री है।’ मदारी ने वहां मौजूद सभी लोगों को एक छोटी शीशी बांटी। लोग-बाग यानी तमाम तमाशबीन उस शीशी को जेब में रखकर लौट गए। जाहिर सी बात है कि मैं भी।

       घर लौटते हुए मदारी से जुड़ी कई बातें। मुद्दे। विचार। कल्पनाएं। कहां-कहां नहीं है मदारी। मजमा। उसका तमाशा। तालियां पीटते तमाशबीन। मदारी का चेहरा बदलता है। भाषा बदलती है। अंदाज-ए-बयां जुदा, लेकिन तमाशा वही, खेल का खाका वही। - - -
सरेआम लड़कियां गायब हो जाती हैं। राजधानी दिल्ली में संसद के साये में, सियासत की बिसात पर उनके साथ बलात्कार होता है। एक दलित की 15 अगस्त के दिन देश का राष्ट्रीय झंडा फहराने के ‘अपराध’ में हत्या कर दी जाती है। विश्व बैंक का मैनेजर मदारी बन जाता है और देश का बैंक (अर्थव्यवस्था) बदहाल हो जाता है। खबरों को गायब कर हर प्राइम टाइम में मजमा लगाने वाले ‘मदारी’ अपनी ही जमात के एक झटके में तीन सौ से ज्यादा ‘रोजगारीय नरसंहार’ को खबर नहीं बना पाते। न्यूज चैनल्स पर भी खबर के नाम पर मजमेवादी हैं। मदारी की सी भाषा है। सनसनी का संजाल। फुल मजा देने की अप्रत्यक्ष-अघोषित गारंटी। इन मदारियों के ऊपर टीआरपी की लटकती तलवार है जो इनकी हत्या कभी भी कर सकती है। इसलिए वे खबरों की हत्या कर उसे मनोरंजन या तमाशा, मतलब खेल में तब्दील कर देने को अभिशप्त हैं। हर मदारी की मजबूरी है। हम समझते हैं इन पढ़े लिखे मदारियों की मजबूरी। मदारियों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है, जिनमें न संवेदना है, न सोच, न सरोकार, बाबाओं का मजमेवाद सबसे निराला है। उनकी भी मदारियों की सी भाषा है। लोगों को फांसने की कला है। मगर मक्कारी मदारियों से बड़ी है। कहीं गंदगी से सने निर्मल बाबा होते हैं, कहीं निराशा के पर्याय आसाराम जिनमें रामत्व की जगह रावणत्व है।

       वेदना के रक्त से सने लाल-सुर्ख पोस्टर शहर से गायब होने लगे हैं। उन पोस्टरों की खास पहचान होती थी। पोस्टर माने प्रतिरोध, पुकार, संघर्ष, चीख। आलोक धन्वा के शब्दों में कहें तो ‘गोली दागो पोस्टर’। अब दीवारों पर लिखा है- ‘यहां पोस्टर लगाना मना है।’
पूंजी की खूबसूरत दीवारों को वंचितों की चीत्कार, उनके हक-हकूक की पुकार से भरे पोस्टर गंदा करते हैं। 
       अब इस दुनिया को खूबसूरती और पूंजीपति ही बचाएंगे। यह ग्राम्शी के सौंदर्यशास्त्र का नया पाठ है, जो सिर के बल उलटा खड़ा है। पोस्टरों की जगह खूबसूरत और बड़े-बड़े होर्डिंग्स ने ले ली है। होर्डिंग्स के लिए लेन-देन होता है। सौदा किया जाता है। पोस्टर संस्कृति इस सौदे के खिलाफ रही है, संघर्ष करती रही है। होर्डिंग्स चमकते हैं और पोस्टर चीखते हैं। एक मुख्यधारा का मलमली अंदाज दूसरा गमनाक अंधेरे में गर्क हाशिया जिसके हाथ में केवल जलती मशाल। आप किसी भी शहर में रहते हों, घरों से बाहर निकलकर देखिए। अगर शहर से पोस्टर गायब हो रहे हैं तो समझ जाइए आप विकास पथ पर हैं, जहां नकाब का चलन बढ़ा है। भाव पर भाषा की चमक हावी है। न जाने क्यों यह मानने को जी चाह रहा है कि सभ्य होना प्रकृति विरोधी होना है। जैसे सत्ता की मीनार संवेदना की कब्र पर खड़ी होती है। हमारी सभ्यता दिखावा है, ढोंग है, एक खूबसूरत चोला है, अपने भीतर के मनुष्य विरोधी भावों को छिपाने की खातिर। चीख और स्पर्श के भाव हम भूल गए हैं। चीख प्रतिरोध है, स्पर्श प्यार है। निःशब्द। दोनों ही भाषाविहीन।
आप मान क्यों नहीं लेते कि हम तमाम सभ्य चेहरों के भीतर कोई एक कबिलाई बसर करता है, जो अपनी ‘मांद’ से अक्सर बाहर आ जाता है जो कभी गुजरात दंगा, कभी बाबरी विध्वंस, कभी इराक युद्ध तो कभी निर्भया, तो कभी दाभोलकर की हत्या के रूप में सामने आता है।

       खैर, मैं घर लौटता हूं। बेसब्री के आलम में मदारी की हिदायतों को धता बताते हुए उसकी दी हुई शीशी खोलता हूं। ऐसे करते हुए न जाने क्या सोचकर मेरी सांसें थमती प्रतीत हुईं। शीशी में एक पुड़िया थी। पुड़िया पर कुछ लिखा था, माफ करें, पापी पेट का सवाल है। पेट की भाषा है, पेट की खातिर झूठ है। छोटा फरेब है, चालाकी। मैं छोटा मदारी हूं। मामूली। भूख भर रोटी की चाहत।

       मैं हैरान रह जाता हूं। प्लीज, अब मुझसे उस शहर का नाम पूछकर शर्मिंदा मत कीजिए, जहां वह मदारी मिला था। आपके किसी सवाल का जवाब देने की बजाए मैं इस चिंता में घुला जा रहा हूं कि क्या दूसरे शहरों, दूसरे देशों, पूरी दुनिया में मदारी का मायाजाल नहीं बिछा हुआ है। लेकिन एक सवाल हम मनुष्य कितने हैं, कितने मदारी और कितने तमाशबीन हैं। इनमें से कोई एक या थोड़ा-थोड़ा तीनों का ही कॉकटेल।

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'पाखी' सितम्बर २०१३ से साभार

कहानी : सफ़ेद चादर - अनिल प्रभा कुमार

बस, अब यह पाइन-ब्रुक वाला रास्ता ले लीजिए। ट्रैफ़िक - लाइट पर बांये, अगली ट्रैफ़िक – लाइट पर दांये, और इसी सड़क पर सीधे चलते जाओ जब तक कि……।”

        उनकी व्यस्तता देख कर वह रास्ता बताते-बताते रुक गई। वह बड़ी एकाग्रता से स्टियरिंग सम्भाले थे। यूं तो वह अब स्थानीय सड़क पर ही थे और वक्त था दोपहर दो बजे का। ट्रैफ़िक ज़्यादा ही लगता था और वह भी तेज़ गति से चलता हुआ। लेन एक ही थी और वह भी तंग सी। विपरीत दिशा से भी उतनी ही तेज़ी से कारें, ट्रक सभी सिर पर चढ़े आते लग रहे थे। गाड़ी चलाने में ध्यान केन्द्रित करने की ज़रुरत थी।

        अचानक, एक हिरण विपरीत दिशा से आते एक छोटे ट्रक से टकराया। एक भारी भूरी गेंद की तरह उछला। ठीक उनकी कार के दांये बम्पर से दोबारा टकराया और फिर घास की पट्टी पर गिर पड़ा। हवा में उठी उसकी टांगों में कम्पन हुआ और वह सड़क किनारे लगी घास और झाड़ियों के बीच लुढ़क गया।

        वह कार में आगे दायीं ओर पैसेन्जर सीट पर ही बैठी थी। हिरण ठीक उसके आगे ही गिरा था। सब कुछ इतना अचानक हुआ कि उसकी चीख थरथरा कर, कांपती सी आवाज़ में फिसल गई। ब्रेक लगाने का अवसर ही नहीं मिला । उसने डरते हुए साइड मिरर से देखा। हिरण में कोई गति नहीं हो रही थी । ख़ून भी उसे कहीं नहीं दिखा। उसने गहरी सांस ली। मन ही मन प्रार्थना की, प्लीज़ प्रभु, यह अब तड़पे नहीं।

        ज़रा सा आगे चलकर, खुली जगह देख उन्होंने कार अंदर मोड़ कर रोक ली। वह वहीं अन्दर बैठी रही। वह कार का निरीक्षण करने लगे। नम्बर –प्लेट का दायीं ओर का हिस्सा धक्के से अन्दर धंस गया और हैड- लाइट में दरार पड़ गई थी। सफ़ेद-सलेटी कार पर हिरण के भूरे-पीले बालों की परत चिपक गई। वह उंगली से छू कर कुछ देखने लगे तो वह चिल्लायी,

        “छूना मत”।

        उन्होंने माथे पर त्यौरियां डाल कर उसकी तरफ़ सिर्फ़ देखा, कहा कुछ नहीं।

        वह झेंप गई शायद आवाज़ ज़्यादा ही ऊंची निकल गई थी।

        “वोह, वोह, मेरा मतलब था कि जंगली हिरण के शरीर में ’टिक्स’ होते हैं न। भयानक लाइम की बीमारी हो सकती है उससे”।

        वह कार के सामने झुक कर मुआयना करने लगे, नुक्सान का अन्दाज़ा लगाने के लिए। वह शायद किसी के घर का ड्राइव-वे था। तीन लोग बाहर निकल आये । उनके तेवरों से वे समझ गए कि उन्हें इस तरह उनके कार रोके जाने पर आपत्ति थी।

        “हमारी कार से अभी- अभी एक हिरण टकरा गया है, इसलिए ज़रा रुक कर देख रहे हैं। बस, चलते हैं।” उन्होंने माफ़ी सी मांगते हुए अंग्रेज़ी में कहा।

        दोबारा कार में बैठते ही उन्होंने एक सवाल यूं ही उछाला- “क्या तुम सोचती हो कि हमें पुलिस को सूचना दे देनी चाहिए?”

        “मालूम नहीं।”

        “ वैसे अगर किसी आदमी को चोट लग जाए तो सूचना न देना अपराध माना जाता है।”

        “यहां सड़कों पर इतने जानवर मरे हुए पाए जाते हैं, तुम समझते हो कि इन सबकी

        रिपोर्ट होती होगी?”

        “मेरा नहीं ख्याल।”

        पहली बार इस नई जगह पर आए थे और देरी होने के विचार से थोड़ा तनाव बढ़ रहा था। वह सड़क पर डॉक्टर ली के नाम का बोर्ड ढूंढने लगे। उसके कंधे में बहुत दिनों से दर्द चल रहा था। दवा तेज़ थी और कोई ख़ास फ़ायदा भी नहीं हुआ। थैरेपी भी करवा कर देख ली। बस आराम आ ही नहीं रहा था। कुछ मित्रों ने सुझाव दिया – डॉक्टर ली का। चीनी आदमी है, नया- नया अमरीका में आया है। अंग्रेज़ी नहीं बोल पाता पर पुरानी चीनी विद्या “टुइना थैरेपी” से मालिश करता है। ऊर्जा के प्रवाह को नियमित कर, ज़्यादातर बीमारियां ठीक कर देता है। आज वही तीन बजे डॉक्टर ली से मिलना था।

        मेज़ पर पेट के बल लेट कर चेहरा उसने एक बड़े से गोल छेद के ऊपर रख लिया – सांस लेने के लिए।

        पाप हो गया, हत्या हो गई। हिरण को भी एक बार ट्रक से टकरा कर फिर दूसरी बार उन्हीं की कार से टकराना था क्या ? ठीक उसी के चेहरे के सामने।

        “रिलैक्स” डॉक्टर ली को इतनी अंग्रेज़ी आती लगती थी।

        वह उसके कंधे पर मालिश कर के गांठे ढूंढने लगा। एक जगह उसने गांठ पकड़ ली। अंगूठे और हथेली के पूरे दबाव से मसल दिया।

        वह दर्द से बिलबिलाई।

        “ओल्ड” डॉक्टर ली ने सफ़ाई दी।

        पास में उसके पति बैठे थे, चुपचाप देखते हुए, कुछ और ही सोचते हुए।

        “तुम्हारी पुरानी सोचने की आदत ने जो गांठे डाल दी हैं, उनको सुलझाने की कोशिश कर रहा है।”

        “यह कोई मज़ाक नहीं”, वह फिर दर्द से हिली।

        डॉक्टर ली ने शायद अपना पूरा वज़न ही अपने हाथों पर डाल कर उसके कंधों को दबा दिया।

        अगर हिरण बंपर से न टकरा कर उनके हुड पर ही गिरता तो? अगर उसी के उपर आकर हिरण गिर जाता तो? कितना वज़न होगा?

        उसकी बोझ से सांस घुटने लगी।

        डॉक्टर ली ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा “ओ.के”।

        उसके पति से बोला – “शी नो रिलैक्स “

        “आई नो”, जवाब सुनकर भी वह पहली बार नहीं चिढ़ी ।

        वापिसी में उन्होंने पूछा –”कैसी रही मालिश?”

        “बदन तो कुछ हल्का हो गया है, पर...।” उसने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

        “शुक्र करो कि कुछ नहीं हुआ।”

        “कुछ नहीं हुआ?”

        “मतलब बच गये।”

        “कहां बच पाया?”

        “जानती हो अगर हिरण विंड- शील्ड पर पड़ता और वह टूट कर हमारे ऊपर पड़ती तो इस वक्त हम अस्पताल में होते !”

        “हमें शायद हिरण को भी अस्पताल ले जाना चाहिए था।”

        “तुम्हारा दिमाग़ खराब हो गया है ।”

        “दिन- दहाड़े, इतनी दौड़ती सड़क पर वह तीर की तरह छूट कर क्यों आया होगा?”

        “क्योंकि हिरण बेवकूफ़ होते हैं।” वह खीझ रहे थे।

        शायद भूखा होगा, उसने सोचा।

        “नई गाड़ी है, अभी पिछले साल ही तो ली है। एक्सीडेंट हो गया। नुक्सान तो हुआ ही है न? पता नहीं इन्श्योरेन्स कम्पनी कितना भरपाया करती है और कितना अपनी जेब से देना पड़ेगा? ब्रेक तक लगाने का मौका नहीं था। बेवकूफ़ कहीं का।”

        उसे लगा कि सोच के साथ - साथ अब उनकी खीज भी बढ़ रही थी। भूख भी तो लगी होगी, उसे ध्यान आया। मालिश करवानी थी न, एक गिलास ’समूदी” पी कर ही चली थी वह।

        “मुझे नहीं पीनी यह फलों वाली लस्सी”, कह कर उन्होंने तो वह भी नहीं ली थी।

        “चिन्ता मत करो। घर पहुंचकर पहले खाना खाते हैं, फिर सोचेंगे कि आगे क्या करना है?” उसने सुझाव दिया।

        “नहीं, पहले ऑटो बॉडी- शॉप चलकर कार दिखानी होगी। क्या पता कार इस हालत में चलानी भी चाहिए या नहीं?”

        “आप मुझे फिर से टेंशन दे रहे हैं, सारी की कराई मालिश का असर हवा हो गया।” वह वाकई तनाव- ग्रस्त होती जा रही थी।

        “कुछ सुनाई देता है, ज़रा ध्यान से सुनो।” वह भी तनाव में थे।

        कार जहां भी लालबत्ती पर रुक कर फिर चलती तो खटाक की आवाज़ होती, ठीक उसके नीचे वाले पहिए की तरफ़।

        “अच्छा चलो, पहले बॉडी-शॉप ही चलो।” वह चुप करके बैठ गई।

       

        बॉडी-शॉप वाले ने घूम-फिर कर हुड खोला। ऊपर-नीचे झाँककर, अच्छी तरह से मुआयना किया।

        “यह लोग करेंगे क्या?” उसने पति से अपनी भाषा में पूछा।

        “नुक्सान हुए हिस्से को फेंक देंगे। नया हिस्सा मंगवा कर लगा देंगे। पता ही नहीं लगेगा कि कभी कुछ हुआ भी था।”

        पति उस आदमी के साथ अन्दर दफ़्तर में लिखत -पढ़त करने चले गए।

        वह खिड़की नीचे करके वहीं बैठी रही। उस बुझे से दफ़्तर के बांयी ओर टायरों का ढेर लगा था और दांयी ओर कारों के टूटे, जले या जंग खाये, मुड़े-तुड़े हिस्से थे - कोई दरवाज़ा कोई हुड या कोई बम्पर बड़ी बेतरतीबी से फेंके गए थे। पता नहीं कहां से दिमाग़ में एक ख़्याल आया, भगवान राम जब दण्डक-वन से गुज़र रहे होंगे तो यूं ही राक्षसों द्वारा मारे गए ऋषि - मुनियों के अस्थि-समूह के ढेर देखे होंगे। उसने मुँह फेर लिया।

        अब उस आदमी ने उसकी खिड़की के नीचे झुक कर लोहे का कोई पुर्ज़ा बाहर घसीटा और उसके पति के हाथ में पकड़ा दिया।

        “धक्के से अलग हो गया था, यही आवाज़ कर रहा था। वैसे गाड़ी घर ले जा सकते हो।”

        पति के माथे पर गहरे बल थे। फिर से बैठे और कार चला दी।

        “क्या कहता है?” उसने कोमलता से पूछा।

        “अभी तो यूं ही अन्दाज़ से खर्चा बताया है, दो हज़ार डॉलरस का।”

        “दो हज़ार डॉलरस इस्स के?” उसने अविश्वास से कहा।”

        “घर चलकर इन्श्योरेन्स कम्पनी को फ़ोन करता हूं। देखो? ’कोलिज़न’ तो सिर्फ़ हज़ार डॉलरस का ही है बाक़ी ह्ज़ार ज़ेब से देना पड़ेगा। ऊपर से बीमे की दर पता नहीं कितनी और बढ़ जाएगी? बैठे-बिठाए चूना लग गया।” वह अभी भी उधेड़-बुन में लगे थे।

       

        गाड़ी गैराज के अन्दर ले जा रहे थे तो उसने टोका, “गाड़ी बाहर ही रहने दो, आज अन्दर मत ले जाना।”

        “क्यों?” वह असमंजस में थे।

        “बस कहा न।” गाड़ी रुकते ही वह घर के अन्दर भागी। जल्दी से नहाकर, कपड़े बदल नीचे आई।

        वह भोजन की प्रतीक्षा में मेज़ पर बैठे थे, कागज़ के आंकड़ों में उलझे हुए।

        “आप भी जल्दी से नहा लीजिए।”

        “इस वक्त?”

        “वह हिरण मर गया है न।” उसने धीमी आवाज़ में आंखे नीची करते हुए कहा।

        ’मैने मुँह-हाथ धो लिया है। खाना देना हो तो दो।” लगा उन्हें गुस्सा आना शुरु हो गया था। उसने चुपचाप कल का बचा खाना माइक्रोवेव में गरम करना रख दिया। पीटा- ब्रैड टोस्टर-अवन में डाल कर वह जल्दी से ऊपर आ गई। मंदिर में जोत जला दी -”प्रभु, उस हिरण की आत्मा को शांति देना।”

        वह फ़ोन पर व्यस्त थे। बात करते हुए सब सूचनाएं नोट करते जाते थे। फिर दूसरा और फिर तीसरा फ़ोन।

        आख़िर वह क्लान्त से आकर उसके पास बैठ गए। उसे उन पर करुणा-सी आई। सारे झंझटों से निपटना तो मर्दों को ही होता है न।

        “चाय बनाऊँ ?” उसने उनका चेहरा पढ़ते हुए पूछा।

        उन्होंने हामी में सिर हिलाया ।

        वह हिरण भी शायद कुछ न मिलने पर, जंगल के इस पार जान की ज़ोखिम उठाकर, आबादी में घुसने निकल पड़ा होगा। नहीं तो हिरणो का झुंड रात को ही कुछ खाने को निकलता है। खबरों में था कि न्यू-जर्सी में हिरणों की आबादी बहुत बढ़ गई है। तो? आबादी बढ़ जाए तो क्या जान की क़ीमत कम हो जाती है?

        वह बैठ गई । किसे झुठला रही है? यहां एक भी आदमी मर जाए तो कितना हल्ला होता है और वहां बाक़ी दुनिया में रोज़ कितने लोग मरते हैं? आंकड़े, नम्बरस बस! जिसका वह एक नम्बर होता है, कभी उसकी देह में जीकर तो देखो।

        पता नहीं क्यों वह उखड़ती जा रही थी।

        “क्या तुम जानना चाहती हो कि मेरी इन्श्योरेन्स वालों से क्या बात हुई?”

        वह सुनने के लिए बैठ गई।

        “क़िस्मत से यह दुर्घटना ’कोलिज़न’ की श्रेणी में नहीं आती क्योंकि इसमें किसी की ग़लती नही थी। ’कॉम्परिहैन्सिव’ के वर्ग में आती है। जिसमें तुम्हारी ग़लती न हो, फिर भी नुक्सान हो जाए।”

        “तो?”

        “तो इन्श्योरेन्स की दर नहीं बढ़ेगी। एक हज़ार डॉलरस हमें अपनी जेब से देने पड़ेंगे बाक़ी की रक़म हमारी इन्श्योरेन्स भर देगी।”

        “हिरण के शव का क्या होगा?” वह पूछ नहीं पाई।

        “ऑटो बॉडी -शॉप वाले से भी बात कर ली है। कल तुम्हें जल्दी उठकर मेरे साथ चलना होगा। मेरी गाड़ी ठीक होने के लिए छोड़ आएंगे और वापिसी में तुम्हारी गाड़ी में दोनो लौट आएंगे।”

        “अच्छा।” कह कर वह उठ गई।

        -----------------------------------------

        सिर में दर्द तेज़ होता गया, जी मतलाने लगा। पहले भी एक बार उसने हाइवे पर किसी जीप के आगे बंधे मृत हिरण को देखा था। कोई निर्दोष जानवर का शिकार कर, तग़मे की तरह उसे अपनी जीप के आगे बांध, सारी दुनिया कि दिखाते हुए भागा जा रहा था। एक झलक ही मिली थी उसे, हिरण की लटकी हुई गर्दन की। हिरण उसकी चेतना पर टंगा रह गया। और आज यह सब कुछ अनजाने में ही हो गया।

        वह अभी तक कुछ-कुछ सकते में थी। एकदम अचानक, इतने अचानक? क्या ऐसे ही होता है सब कुछ? ऐसे ही एक क्षण कोई दौड़ता हुआ प्राणी और दूसरे ही पल किनारे पड़ी लाश!

        ऐसे ही क्या मुकेश भी दौड़ कर सड़क पार करने लगा होगा, तेज़ आती बस ने उसे ऊपर उठा कर, नीचे पटका होगा और फिर ....।

        वह घबरा कर खड़ी हो गई। ढेर सारे पानी के साथ टॉयनाल की दो गोलियां निगल लीं। उसे कुछ नहीं सोचना है इस बारे में। यह बात तो उसने चेतना के बहुत गहरे गर्त्त में धकेल दी थी। आज उभर कैसे आई।

        हिरण की आंखे नही दिखीं। मुकेश की आंखो जैसी गहरी काली होंगी?

        “सिर कुचल गया था।’ बड़ी भाभी ने बताया।

        “नहीं जानना है उसे।” वह चीख़ कर बाहर भागी थी।

        “कोई उससे मुकेश की मौत के बारे में बात न करे।” पति ने उसके दिल्ली पहुंचने से पहले ही उसके घर-वालों को आगाह कर दिया था।

        उस दिन भी तो वह सो ही रही थी। पति उसके सिरहाने आकर बैठ गए। अभी जागती दुनिया में लौटी नहीं थी।

        “मुकेश की मौत हो गई है।”

        वह उठ कर बिस्तर पर बैठ गई। उसके, उससे भी छोटे भाई की अचानक? जैसे वह उनकी बात का मतलब समझने की कोशिश कर रही हो।

        “एक्सीडैंट” उन्होंने कहा।

        वह सुन्न सी बैठी रही। मां तो नही रहीं, पर बाबूजी?

        “मैं दिल्ली जाउंगी।” उसने उठने की क़ोशिश की।

        “क्या करोगी जाकर? अब तक तो उसकी बॉडी भी.....” उसने पति के मुंह पर कसकर हाथ रख दिया ।

        “मत कहो मेरे भाई को बॉडी।” लगा जैसे ख़ून का हर क़तरा चीखें मारने लगा। फूट-फूट कर रो पड़ी।

        फिर शांत हो गई। पेट में बहुत ज़ोर से ऎंठन होने लगी। फिर सिर में भयानक दर्द। दर्द असहनीय था।

        अस्पताल मे दर्द को कम करने वाला इंजैक्शन दिया गया। ऐसा सदमे से हो जाता है। इस बारे में कोई ज़्यादा बात न करे।

        वह ख़ुद भी बात नही करती। शरीर की भयानक पीड़ा उसे मानसिक पीड़ा से बरगला कर दूसरी ओर ले गई थी।

        वह उखड़ी -उखड़ी सी रात के खाने की तैयारी करने लगी। सब्ज़ी काटते हुए पूछा -”हिरण शाकाहारी होते हैं न?”

        “तुम अभी तक उसके बारे में सोच रही हो?”

        “आप क्या सोच रहे हैं?”

        “शुक्र कर रहा हूं कि इन्श्योरेन्स की दर नहीं बढ़ेगी। यह जो एक हज़ार की चोट लगी है, इसकी छुट्टियां मना सकते थे।”

        उसने उन्हें कातरता से देखा। कुछ भी कह नहीं पाई। बस, जैसे सब संतुलन गड़बड़ा गया हो।

        उन्हें खाना खिला कर वह सोने चल दी। थक गई है।

        करवटें बदलती रही। मन इतना अशांत क्यूं? आंखे बन्द कर मंत्र बुदबुदाती है। ध्यान कहीं नहीं लगता।

        एक धुन्ध में लिपटी सड़क है। दिल्ली वाले उसके घर के सामने वाली। हल्का सा अंधेरा है और सड़क सुनसान। अचानक जैसे किसी के इशारे पर दोनों ओर की सड़कों पर कारों, स्कूटरों और बसों का भारी रेला दौड़ने लगता है। दोनों सड़कों के बीच एक छोटी सी पटरी है और उसी पटरी पर ट्रैफ़िक सिगनल। एक बस तेज़ी से दैड़ती हुई आती है। तरकश से छूटे तीर की तरह मुकेश उससे टकराता है। उसका शरीर थोड़ा सा हवा में ऊपर उछलता है और फिर बस के पहियों के नीचे।

        बाबूजी दूर अपने घर की बाल्कनी पर खड़े होकर देख रहे हैं। लोगों की भीड़, शोर, पुलिस की सीटियां, सड़क पर ख़ून ही ख़ून।

        एक बूढ़ा बाप देख रहा है पुलिस वालों ने उसके जवान बेटे पर सफ़ेद चादर ओढ़ा दी।

        ड्रॉइवर दिन -दहाड़े शराब पीकर गाड़ी चला रहा था। लाल बत्ती भी फ़ुर्ती से पार कर गया।

        “उसने जान-बूझ कर चलती बस के आगे कूद-कर आत्म-हत्या की होगी।” फिर से सफ़ेद चादर ओढ़ा दी गई।

        सफ़ेद चादर ने उसकी जवान पत्नी और दोनो बच्चों को भी ढक दिया। चादर फैलती जा रही थी। कुछ नही दिखता। चारो तरफ़ अंधेरा ही अंधेरा। सारे शहर की बत्तियां गुल हो गईं। सब जगह बस धुंआ ही धुंआ। उसकी सांस घुटने लगी।

        उसने घबरा कर आंखे खोल दीं। सांस धौंकनी की तरह चल रही थी। एयर-कंडीशन्ड कमरे में पंखा भी चल रहा था। इसके बावजूद बदन पसीने से भीग गया।

        वह उठ कर बैठ गई, बैठी रही। यह चेतना के गहरे गड्ढे में दफ़न किया हुआ सच, सपने में कैसे उतर आया?

        पति दरवाज़े पर आकर खड़े हो गए।

        “जल्दी से तैयार होकर नीचे आ जाओ। गाड़ी छोड़ने में देर हो रही है।”

        उसने मुंह-हाथ धोया। नीली जीन्स के ऊपर सफ़ेद टी-शर्ट पहन ली। बाल कस कर पॉनी-टेल में बांधे।

        उसके बेरंगत चेहरे को देखकर वह चौंके। लगा जैसे वह किसी शव –यात्रा पर जाने के लिए तैयार होकर आई हो।

        “तुम ठीक हो न?” उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रख दिए।

        “हिरण के ऊपर सफ़ेद चादर डाल देनी चाहिए थी।”

        वह झुंझला कर कुछ कहने ही वाले थे पर उसका चेहरा देख कर चुप कर गए।

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डॉ अनिल प्रभा कुमार

जन्म: दिल्ली में
शिक्षा: पी.एच डी."हिन्दी के सामाजिक नाटकों में युगबोध" विषय पर शोध।
कार्यक्षेत्र:  विद्यार्थी-जीवन में ही दिल्ली दूरदर्शन पर हिन्दी 'पत्रिका' और “नई आवाज़” कार्यक्रमों में व्यस्त रही।  'झानोदय' के 'नई कलम' विशेषांक में 'खाली दायरे' कहानी पर प्रथम पुरस्कार पाने पर लिखने में प्रोत्साहन मिला। कुछ रचनाएँ 'आवेश', 'संचेतना', 'झानोदय' और 'धर्मयुग' में भी छ्पीं।
अमरीका आकर,  न्यूयॉर्क में 'वॉयस आफ अमरीका' की संवाददाता के रूप में काम किया और फिर अगले सात वर्षों तक 'विज़न्यूज़' में तकनीकी संपादक के रूप में। इस दौर में कविताएँ लिखीं जो विभिन्न पत्रिकाओं में छपीं।
न्यूयॉर्क के स्थानीय दूरदर्शन पर कहानियों का प्रसारण। पिछले कुछ वर्षों से कहानियां और कविताएं लिखने में रत। कुछ कहानियां वर्त्तमान - साहित्य के प्रवासी महाविशेषांक में छपी है।
वागर्थ, हंस, अन्यथा, कथादेश, शोध-दिशा, परिकथा, पुष्पगंधा, हरिगंधा, आधारशिला और वर्त्तमान– साहित्य आदि पत्रिकाओं के अलावा, “अभिव्यक्ति” के कथा महोत्सव में “फिर से” कहानी  पुरस्कृत हुई।                          
बहता पानीकहानी संग्रह (२०१२), भावना प्रकाशन से प्रकाशित।
उजाले की क़समकविता संग्रह (२०१३) भावना प्रकाशन


संप्रति:  विलियम पैट्रसन यूनिवर्सिटी, न्यू जर्सी में हिन्दी भाषा और साहित्य का प्राध्यापन और लेखन।
संपर्क:  Dr. Anil Prabha Kumar
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ईमेल: aksk414@hotmail.com