मदारी का मायाजाल - प्रेम भारद्वाज

यह कैसी विडंबना
कैसा झूठ है
दरअसल अपने यहां जनतंत्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है
[ धूमिल ]

मदारी का मायाजाल 

प्रेम भारद्वाज 

छोटे शहर से गुजरते हुए सहसा ही धूमिल की ये पंक्तियां याद आतीहैं। सड़क की बाईं ओर किसी संगोष्ठी का बैनर है। विषय है- ‘क्या भाषा अनुभव का स्थानापन्न बन सकती है?’ बाहर एक लाउड स्पीकर लगा है जो खराब है। रह-रहकर टूट-टूटकर आती आवाजें। संगोष्ठी प्रारंभ होने वाली है। बैनर के ठीक नीचे एक मदारी मजमा लगाने की तैयारी में है। डुगडुगी बजाता हुआ। बचपन में सुनी डुगडुगी की आवाज और मदारी की भाषा ने मोह लिया। रुक गया। मदारी अपनी रौ में है। भाषा का मोहफांस। वहां से गुजरने वालों को फंसाती उसकी चमत्कृत कर देने वाली जादुई भाषा... खास किस्म का उसका चुंबकीय अंदाज-ए-बयां...।

       ‘मेहरबान। साहेबान। हिंदुओं को राम-राम। मुसलमान भाइयों को सलाम। मेरे हुनर, भाषा और कला के कद्रदान। एहसान कि आप रुक गए, कि आप सुन रहे हैं, यकीन है। अंतिम शब्द को भी सुनकर ही जाएंगे। तो सुनिए। बहुत गौर से सुनिए... मैं कोई प्रवचन करने नहीं जा रहा हूं। अलबत्ता एक वचन देता हूं... कि आप यहां से कुछ लेकर जाएंगे। एक ऐसी चीज जो अनमोल है, जिसकी आपको आरजू रही है, लेकिन जो अब तक तामील नहीं हो सकी। जो आपका ख्वाब है... मगर उसके हकीकत में ढलने का इंतजार है। आज इंतजार की वे घड़ियां खत्म। लेकिन साहेबान, इसका यह मतलब नहीं कि तमाशा नहीं होगा... वह होगा... और जबरदस्त होगा। दिल थामकर खड़े रहिए, ऐसा तमाशा दिखाऊंगा कि यहां से जाने के बाद आपमें से किसी को यह मलाल नहीं रह जाएगा कि ‘देखने हम भी गए, मगर तमाशा न हुआ।’ इसे देखने के बाद भूल जाएंगे राजकपूर की ‘बरसात’, ‘शोले’ का गब्बर, ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ का शाहरुख। सर्कस का रोमांच, संसद का हंगामा, पहली रात का मजा, कैटरीना के ठुमके, सब भूल जाएंगे आप, याद रहेगा... सिर्फ और सिर्फ इस मदारी का तमाशा।

       लाउड स्पीकर से भीतर चल रही संगोष्ठी की आवाज सुनाई दी। कोई वक्ता ज्ञान बघार रहे थे- मार्केज कहते हैं कि ‘भाषा दो तरह की होती है, पेट की भाषा और दिल की भाषा।’ पेट की भाषा समझ में आती है, दिल की भाषा भी। लेकिन इन दिनों एक तीसरी किस्म की भाषा भी हिंदी या कहें इस देश-दुनिया में चल पड़ी है जिसका संबंध न पेट से है, न दिल से। वह भाषा बाजार की है जो बाकी दो भाषाओं की नसों में लोभ का जहर भर रही है।

       मदारी अपनी रौ में है। उसकी भाषा का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है, ‘हां तो मेहरबान, कद्रदान, साहेबान, अगर इस खेल और तमाशे का पूरा मजा लेना चाहते हैं तो बदले में न पैसा मांगता हूं, न टिकट, न निमंत्रण पत्र। स्टेडियम में जाएंगे तो आईपीएल का टिकट दस हजार का है... और मल्टीप्लेक्स में सिनेमा का टिकट दो सौ से पांच सौ तक का। लेकिन यहां उससे भी ज्यादा मजा मिलेगा और वह भी मुफ्त। बस जैसा मैं कहता हूं, वैसा करते जाइए। और खेला फ्री में देखिए। घबराइए मत, ये मदारी न आपसे आपकी कुर्सी मांगेगा। न धन, न रोटी, न राजपाट... दिल तो बिलकुल ही नहीं जो वैसे ही आपके पास नहीं है... अगर किन्हीं भाई के पास होगा तो पहले ही किसी को गिफ्ट कर दिया होगा। आप सोच में पड़ गए। जानता हूं क्या सोच रहे हैं? अब कसम उस ऊपर वाले की जिसने हमें रचा है... हिंदू है तो भगवान की सौगंध, मुसलमान है तो खुदा की कसम, सिख है तो नानक की और ईसाई है तो कसम जीसस की। अगर बदले में आपसे कुछ भी मांगूं तो थूक देना मेरे मुंह पर। यह मदारी उस जमात का नहीं है जो खेल के आखिर में कुछ बेचते हैं... चादर फैलाकर पैसा मांगते हैं। साहेबान मैं तो आपको तनाव भरे इस जीवन में कुछ राहत-मनोरंजन के पल देना चाहता हूं। और अंत में एक ऐसी अद्भुत चीज जो अनमोल है और जो आपके खुद के लिए बड़े काम की चीज है। जिससे आपका जीवन संवर जाएगा।’

       संगोष्ठी से आवाजें आ रही हैं। वक्ता बदल गया है। जाहिर है आवाज और अंदाज भी। नए वक्ता का नया ज्ञान- जॉन इडली ने कहा है कि ‘जिसने ईमानदारी खो दी, उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं बचता।’ लेकिन बात भाषा की हो रही है। उदय प्रकाश ने साहित्य अकादमी मिलने पर अपने वक्तव्य में कहा था, ‘लेखक की अपनी भाषा ही उसका जल, जंगल, जमीन और जीवन हुआ करती है। किसी लालच या अन्य उन्माद में सभ्यता हमेशा आदिवासियों को उनके स्थान से विस्थापित करती आई है। भाषा भी पूंजी और तकनीक के साथ जुड़ी सत्ता-संरचनाओं की चपेट में है। मैं जिस भाषा में लिखता हूं उस भाषा का मालिक कौन? लेखक और कुछ नहीं, भाषा में ही अपना अस्तित्व हासिल करता कोई प्राणी होता है।

       मदारी की अपनी भाषा है। जुदा-जद्दोजहद। अलग तरह का संकट और उसका संघर्ष। अंदाज-ए-बयां गालिब की तरह मुश्किल नहीं, मजेवादी है, इसके मूल में मजा है। कुछ इस तरह, ‘हां तो साहेबान अगर खेल का फुल मजा लेना चाहते हैं तो आप सभी बैठ जाइए, बैठ जाइए... अब अपने दोनों हाथ खोल लीजिए। अगर मुट्ठी बंद है तो उसे खोल लीजिए। आपसे मैं कोई परेड नहीं करा रहा हूं। न हेड मास्टर, सीएम या पीएम की तरह हुक्म दे रहा हूं। दरअसल, यह इस तमाशे का उसूल है... नियम है। हां एक बात और आप में से कोई भी बीच में खेल छोड़कर नहीं जाएगा। ऐसे में किसी के साथ अनजाने में कोई अनहोनी हो जाए तो उससे इस मदारी का कोई लेना-देना नहीं होगा।

       भाषा पर चल रही संगोष्ठी अब अपनी जड़ों की ओर लौटी। जड़ें बोले तो लोक, जीवन और संघर्ष। नए वक्ता जो अपनी टोन से ही देशज मालूम होते हैं, श्रोताओं को समझा रहे हैं- साहित्य की भाषा में जो सृजनशीलता आती है, वह लोक भाषा से आती है। उसी से शक्ति पाकर साहित्य अपने रूढ़ रूप और घिसे हुए प्रतीकों से मुक्त होकर सृजनशीलता की ओर अग्रसर होता है। ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ में राहुल सांकृत्यायन ने जीवटता की याद दिलाई थी, ‘किताबें पढ़कर सीखने वालों की भाषा में जीवटता नहीं होती। हिंदी पढ़ने वालों ने सैकड़ों बरस पहले उन गंवारों की भाखा तो ले ली मगर उनकी जीवटता नहीं ली। अगर जीवटता हो तो मामूली भाषा में भी बारीक औजार की धार होगी।निराला ने इसी जीवटता को ‘जीवन संग्राम की भाषा’ कहा। हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर की भाषा को लेकर इसी जीवटता और संघर्ष की अदा को दिखा सके। मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक डायरी’ के संघर्ष में इसी तनावपूर्ण भाषा का जीवन संघर्ष है। केशवदास के मुकाबले कबीर की भाषा इसलिए ताकतवर है क्योंकि वह दिल से निकली भाषा है और उसमें संघर्ष का ताप है। यही बात निराला भुवनेश्वर, नागार्जुन, मुक्तिबोध, धूमिल, राजकमल चैधरी, मलयज और गोरख पांडेय पर भी लागू होती है। जहां भाषा अपने तेवर और तनाव में है। जो सौंदर्य के अंतःपुर से नहीं संघर्ष की भट्टी से निकली है। जाहिर है वह भट्टी सामाजिक तो है ही, व्यक्तिगत जीवन की विसंगतियों की व्यथा में शब्द पकाती चिमनियां भी उसमें हैं।

       ‘लीजिए खेल शुरू होता है। अब सबसे पहले जोर से ताली बजाइए... अरे। ये क्या, बीवी ने खाना नहीं दिया... प्रेमिका ने दिल तोड़ दिया या दफ्तर में बॉस ने डांटा है। भूल जाइए सब कुछ, सारा रंज-ओ-गम। चुटकी नहीं ताली बजाइए। ...ये हुई न बात।

मदारी का खेल उत्कर्ष पर है। उसने लड़की को गायब कर दिया। लोगों ने तालियां बजाईं। लड़के का छाती फाड़कर रक्त सने उसके कलेजे को हाथ में लेकर हौलनाक दृश्य पैदा किया। तालियां बहुत तेज बजीं। लड़का खून से लथपथ दर्द से छटपटाता रहा। तालियां बजती रहीं। तमाशे का क्लाइमेक्स। गजब का मजा। लेकिन मदारी के चेहरे पर तनाव। वह गुस्से में है, ‘बड़े बेमुरौव्वत, बेरहम और संगदिल हैं आप सब! आपके भीतर का जज्बा मर चुका है। इंसानियत सूख गई है। मैं आप लोगों को खेल दिखाकर शर्मसार हूं। मैंने तो एक बार तालियां बजाने को कहा, मगर आप लोगों ने तो हद ही कर दी। एक जवान लड़की दिन-दहाड़े शहर की भीड़ से गायब हो गई। तालियां बजा रहे हैं आप। सरेआम एक मासूम बच्चे का कत्ल हो गया। तब भी तालियां पीट रहे हैं। हैरान हूं मैं।

       संगोष्ठी ने भावनात्मक करवट ली। भाषा के नए रूप- स्वरूप और उसकी ताकत से नए वक्ता श्रोताओं को वाकिफ करा रहे थे। नए वक्ता भावावेग में हैं। बोले- जब कोई शब्द नहीं था कोई भाषा नहीं थी, तब भी भाव तो थे। भूख थी, प्यास थी, प्रेम, नफरत, हिंसा और चीख थी। दुनिया और इस सृष्टि की सबसे ताकतवर भाषा ‘चीख’ है जो शब्दों के सहारे नहीं, दिल से फूटती है जो सिंहासन को बच्चों के खिलौने में तब्दील कर देती है। राजा को रंक में। इस समय चमकदार भाषा की नहीं, एक चीख की दरकार है जो दर्द की घाटी से निकले। जुल्म जिसका देश है, शोषण जहां की संसद है। मलयज ने इस बाबत बहुत पहले ही यह चिंता प्रकट की थी, ‘फिलहाल स्थिति यह है कि हममें समय की अनुभूति है, पर इससे निकली हुई वह अग्नि दृष्टि नहीं, जो इस रस को पकाकर रसायन बना दे। अनुभव से साक्षात्कार के क्षण को उसकी चरम परिणति तक पहुंचाने के पहले ही हमारा कवि फट जाता है। शब्द और अर्थ एक दूसरे से अलग हो जाते हैं और काव्य-संवेदना कच्चे बीजों की तरह बिखर जाती है। ‘वहां जीभ से अलग कटी पड़ी है भाषा/जहां हकला-हकलाकर चीजों को चीजों से जोड़ रही थी/पाया खिलखिलाकर हंसते हुए मेरा अकेलापन।’

       मदारी का मायाजाल। उसका मूल मकसद अब प्रकट होना ही चाहता है, ‘क्या आप नहीं चाहते कि लड़की वापस लौटे, बच्चा जिंदा हो जाए।’ भीड़ से आवाज आई, ‘हम चाहते हैं।’ ‘तो इसके लिए आपको प्रायश्चित करना पड़ेगा। वह इस तरह कि जिससे जो भी बने एक रुपए, दो रुपए, पांच, दस, बीस, पचास, इस कटोरे में डाल दे वर्ना न तो लड़की वापस आएगी, न यह मासूम बच्चा जिंदा रहेगा। अगर नहीं, तो मैं चला। बाकी आप जाने। आपकी इंसानियत जाने... मेरा खेल खत्म।

       संगोष्ठी में अध्यक्षीय भाषण चल रहा था। अध्यक्ष महोदय कोई नई बात कहने की जुगत में हैं- नागार्जुन अक्सर कहा करते थे, ‘बोले तो बहुत, अब कुछ कहिए भी।’ मौजूदा दौर में बोला तो बहुत जा रहा है, कहा कम जा रहा है। इसे साहित्य के संदर्भ में भी हमें समझना होगा। रचनाकारों की एक जमात है जिसके पास जीवनानुभव का घोर अभाव है। उस खालीपन को वह जादुई भाषा से भरना चाहता है। रुपयों से कटोरा भर गया। मदारी के चेहरे का तनाव तिरोहित हो गया है। वह खुश है। खेल का पैसा वसूल हो चुका है। लड़की लौट आई। बच्चा भी सामने खड़ा है, मुस्कुराते हुए। ‘हां, तो मेहरबान-साहेबान अब वक्त आ गया वादा है निभाने का। वह अनमोल चीज देने का जिसको देने का वादा मैंने शुरू में ही किया था, तो लीजिए यह शीशी है...। अलादीन के चिराग की तरह जादुई है यह। इसे मैं आपको देता हूं मगर एक शर्त है कि इसे अभी मत खोलिएगा वर्ना इसका असर खत्म हो जाएगा। इसे जेब में रखकर घर ले जाइए। जहां सोते हैं, उस बिस्तर में तकिए के नीचे रख दीजिए। कल सुबह इसे खोलिएगा। उसके बाद देखिए इसका कमाल। आपकी किस्मत का पिटारा खुल जाएगा, यह इस मदारी का वचन है। और इसके लिए मैं आपसे एक पैसा भी नहीं लेने जा रहा। यह एकदम फ्री है।’ मदारी ने वहां मौजूद सभी लोगों को एक छोटी शीशी बांटी। लोग-बाग यानी तमाम तमाशबीन उस शीशी को जेब में रखकर लौट गए। जाहिर सी बात है कि मैं भी।

       घर लौटते हुए मदारी से जुड़ी कई बातें। मुद्दे। विचार। कल्पनाएं। कहां-कहां नहीं है मदारी। मजमा। उसका तमाशा। तालियां पीटते तमाशबीन। मदारी का चेहरा बदलता है। भाषा बदलती है। अंदाज-ए-बयां जुदा, लेकिन तमाशा वही, खेल का खाका वही। - - -
सरेआम लड़कियां गायब हो जाती हैं। राजधानी दिल्ली में संसद के साये में, सियासत की बिसात पर उनके साथ बलात्कार होता है। एक दलित की 15 अगस्त के दिन देश का राष्ट्रीय झंडा फहराने के ‘अपराध’ में हत्या कर दी जाती है। विश्व बैंक का मैनेजर मदारी बन जाता है और देश का बैंक (अर्थव्यवस्था) बदहाल हो जाता है। खबरों को गायब कर हर प्राइम टाइम में मजमा लगाने वाले ‘मदारी’ अपनी ही जमात के एक झटके में तीन सौ से ज्यादा ‘रोजगारीय नरसंहार’ को खबर नहीं बना पाते। न्यूज चैनल्स पर भी खबर के नाम पर मजमेवादी हैं। मदारी की सी भाषा है। सनसनी का संजाल। फुल मजा देने की अप्रत्यक्ष-अघोषित गारंटी। इन मदारियों के ऊपर टीआरपी की लटकती तलवार है जो इनकी हत्या कभी भी कर सकती है। इसलिए वे खबरों की हत्या कर उसे मनोरंजन या तमाशा, मतलब खेल में तब्दील कर देने को अभिशप्त हैं। हर मदारी की मजबूरी है। हम समझते हैं इन पढ़े लिखे मदारियों की मजबूरी। मदारियों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है, जिनमें न संवेदना है, न सोच, न सरोकार, बाबाओं का मजमेवाद सबसे निराला है। उनकी भी मदारियों की सी भाषा है। लोगों को फांसने की कला है। मगर मक्कारी मदारियों से बड़ी है। कहीं गंदगी से सने निर्मल बाबा होते हैं, कहीं निराशा के पर्याय आसाराम जिनमें रामत्व की जगह रावणत्व है।

       वेदना के रक्त से सने लाल-सुर्ख पोस्टर शहर से गायब होने लगे हैं। उन पोस्टरों की खास पहचान होती थी। पोस्टर माने प्रतिरोध, पुकार, संघर्ष, चीख। आलोक धन्वा के शब्दों में कहें तो ‘गोली दागो पोस्टर’। अब दीवारों पर लिखा है- ‘यहां पोस्टर लगाना मना है।’
पूंजी की खूबसूरत दीवारों को वंचितों की चीत्कार, उनके हक-हकूक की पुकार से भरे पोस्टर गंदा करते हैं। 
       अब इस दुनिया को खूबसूरती और पूंजीपति ही बचाएंगे। यह ग्राम्शी के सौंदर्यशास्त्र का नया पाठ है, जो सिर के बल उलटा खड़ा है। पोस्टरों की जगह खूबसूरत और बड़े-बड़े होर्डिंग्स ने ले ली है। होर्डिंग्स के लिए लेन-देन होता है। सौदा किया जाता है। पोस्टर संस्कृति इस सौदे के खिलाफ रही है, संघर्ष करती रही है। होर्डिंग्स चमकते हैं और पोस्टर चीखते हैं। एक मुख्यधारा का मलमली अंदाज दूसरा गमनाक अंधेरे में गर्क हाशिया जिसके हाथ में केवल जलती मशाल। आप किसी भी शहर में रहते हों, घरों से बाहर निकलकर देखिए। अगर शहर से पोस्टर गायब हो रहे हैं तो समझ जाइए आप विकास पथ पर हैं, जहां नकाब का चलन बढ़ा है। भाव पर भाषा की चमक हावी है। न जाने क्यों यह मानने को जी चाह रहा है कि सभ्य होना प्रकृति विरोधी होना है। जैसे सत्ता की मीनार संवेदना की कब्र पर खड़ी होती है। हमारी सभ्यता दिखावा है, ढोंग है, एक खूबसूरत चोला है, अपने भीतर के मनुष्य विरोधी भावों को छिपाने की खातिर। चीख और स्पर्श के भाव हम भूल गए हैं। चीख प्रतिरोध है, स्पर्श प्यार है। निःशब्द। दोनों ही भाषाविहीन।
आप मान क्यों नहीं लेते कि हम तमाम सभ्य चेहरों के भीतर कोई एक कबिलाई बसर करता है, जो अपनी ‘मांद’ से अक्सर बाहर आ जाता है जो कभी गुजरात दंगा, कभी बाबरी विध्वंस, कभी इराक युद्ध तो कभी निर्भया, तो कभी दाभोलकर की हत्या के रूप में सामने आता है।

       खैर, मैं घर लौटता हूं। बेसब्री के आलम में मदारी की हिदायतों को धता बताते हुए उसकी दी हुई शीशी खोलता हूं। ऐसे करते हुए न जाने क्या सोचकर मेरी सांसें थमती प्रतीत हुईं। शीशी में एक पुड़िया थी। पुड़िया पर कुछ लिखा था, माफ करें, पापी पेट का सवाल है। पेट की भाषा है, पेट की खातिर झूठ है। छोटा फरेब है, चालाकी। मैं छोटा मदारी हूं। मामूली। भूख भर रोटी की चाहत।

       मैं हैरान रह जाता हूं। प्लीज, अब मुझसे उस शहर का नाम पूछकर शर्मिंदा मत कीजिए, जहां वह मदारी मिला था। आपके किसी सवाल का जवाब देने की बजाए मैं इस चिंता में घुला जा रहा हूं कि क्या दूसरे शहरों, दूसरे देशों, पूरी दुनिया में मदारी का मायाजाल नहीं बिछा हुआ है। लेकिन एक सवाल हम मनुष्य कितने हैं, कितने मदारी और कितने तमाशबीन हैं। इनमें से कोई एक या थोड़ा-थोड़ा तीनों का ही कॉकटेल।

-
'पाखी' सितम्बर २०१३ से साभार

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
ट्विटर: तस्वीर नहीं, बेटी के साथ क्या हुआ यह देखें — डॉ  शशि थरूर  | Restore Rahul Gandhi’s Twitter account - Shashi Tharoor
Hindi Story: दादी माँ — शिवप्रसाद सिंह की कहानी | Dadi Maa By Shivprasad Singh
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'
मन्नू भंडारी की कहानी  — 'नई नौकरी' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Nayi Naukri' मन्नू भंडारी जी का जाना हिन्दी और उसके साहित्य के उपन्यास-जगत, कहानी-संसार का विराट नुकसान है