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कहानी : फत्ते भाई - अनवर सुहैल


कहानी : अनवर सुहैल

फत्ते भाई



चारों तरफ एक ही चर्चा। फत्ते भाई काफ़िर हो गए। उन्हें दुबारा कलमा पढ़कर इस्लाम में दाख़िल होना होगा। फत्ते भाई जात के साई थे। साई यानी फकीर बिरादरी। मुहर्रम की रंग-बिरंगी ताजिया और फत्ते भाई एक दूसरे का पर्याय थे। उन्होंने उमरिया, चंदिया, जबलपुर की देखा-देखी इस नगर में भी ताजिया की शुरूआत की। पहला ताजिया अनाकर्शक, बेडौल बना लेकिन इसी के साथ शुरू हुई थी, मुस्लिम समुदाय में एक सैद्धान्तिक लड़ाई। मुसलमानों के दो गुट थे। एक स्वयं को देवबंदी कहता और असल सुन्नी मुसलमान बतलाता था। दूसरा तबका बरेलवी कहलाता। ये भी स्वयं को असल सुन्नी मुसलमान कहते तथा देवबंदी लोगों को ‘वहाबी’ कहा करते थे। देवबंदी लोगों का सम्बंध इस्लाम के मूल-तत्वदर्शन, पैगम्बर की जीवन पद्धति का अनुकरण तथा तब्लीग जमात द्वारा धर्म-प्रचार से था। ये लोग इस्लाम की मूल अवधारणाओं में रत्ती भर भी फेरबदल नहीं चाहते थे। दूसरी तरफ बरेलवी लोग हुए, जहां इस्लामी दर्शन की एक नई व्याख्या की गई। जिसमें अल्लाह को पाने के लिए ‘सिलसिले’ का फलसफा आया। यानी औलिया-पीरों के मार्फत पैगम्बर तक पहुंचना और उसके बाद अल्लाह तक पहुंचना। इसका प्रभाव सूफीमत के रूप में नजर आया। कर्मकाण्ड बढ़े। मजार-खानकाहों की नातादाद वृद्धि र्हुइं। चमत्कारों पर लोगों की आस्था बढ़ी। फत्ते भाई बचपन से जुमा की नमाज और ईद-बकरीद की नमाज ही पढ़ा करते थे। कुछ समझदार हुए तो एक नमाज में और इजाफा कर लिया, वो थी ‘जनाजे की नमाज’। ये सभी नमाजे वे देवबंदी पेश इमामों के पीछे पढ़ा करते थे। चंदा, सदका, जकात वगैरा भी देवबंदियों की मस्जिद में दिया करते थे। जब ताजिया बना कर उसका प्रदर्शन कर चुके तब देवबंदी मस्जिद की कमेटी के सदर साहब का फतवा उन तक पहुंचा---’’इस्लाम में बुतपरस्ती हराम है। ताजिया बुत-परस्ती का एक रूप है।’’

अनवर सुहैल
संपादक 'संकेत'
कोल इंडिया लिमिटेड में वरिष्ठ प्रबंधक
उपन्यास : पहचान (राजकमल प्रकाशन)
कथा संग्रह : कुंजड कसाई ( समय प्रकाशन) और गहरी जड़ें (यथार्थ प्रकाशन)
कविता केन्द्रित लघुपत्रिका 'संकेत' के अब तक १४ अंक प्रकाशित
संपर्क
टाइप 4/3 ऑफिसर कॉलोनी, पो बिजुरी, जिला अनुपपुर (म प्र) 484440
ईमेल: sanketpatrika@gmail.com
मोबाईल: 9907978108
फत्ते भाई के करीबी दोस्त अहबाब जबबार तांगेवाला, शरीफ भाई गैराज वाले, कब्रिस्तान का चौकीदार सुल्तान आदि ने इस फतवे का विरोध किय--’’ये सब वहाबियों की बातें हैं। बिहार, यूपी और पूरे हिन्दुस्तान में ताजिया निकलता है, मातम-मर्सिया होता है। ये तो दीन-मजहब का काम है फत्ते भाई!’’

शरीफ भाई ने नारा दिया--’’इस्लाम ज़िन्दा होता है हर इक कर्बला के बाद!’’

सुल्तान ने टुकड़ा जोड़ा--’’ये देवबंदी सब यजीद के रिश्तेदार होते हैं और हमारे नबी के नवासों के हत्यारे हैं।’’

फत्ते भाई को राहत मिली। फत्ते भाई अनपढ़ थे। इस्लामी इतिहास की उनकी उतनी ही जानकारी थी, जितनी मौलवी-वाइज बताया करते। मुहर्रम के बारे में इतना ही जानते थे कि एक खलनायक यजीद था। समर्थ दुष्ट शासक। उसने हजरत इमाम हसन और हुसैन समेत गिनती के ईमानवालों को प्यास-भूख से तड़पा-तड़पा कर तलवार के घाट उतारा था। यह अंतिम युद्ध कर्बला के मैदान में हुआ। दर्दनाक हादसा। उसी कर्बला की याद में, नगर के बाहर बैरियर के पास बड़ा सा तालाब है, उसे कर्बला का नाम दे दिया गया है। उसी तालाब में दसवीं मुहर्रम को ताजिया सिराई जाती है। फत्ते भाई के सहयोंगियों में शिया मुसलमान, टार्च मेकेनिक शब्बीर भाई और बलदेव पनवाड़ी भी थे। इन सभी का योगदान मिलता और ताजिया निर्माण का काम हर्शोल्लास से सम्पन्न होता। फत्ते भाई गांजा पीने के शौकीन थे। उनकी मित्र-मण्डली भी यह शौक किया करती किन्तु मुहर्रम के दस दिन वे लोग गांजा से परहेज करते। पुरानी ताजिया की लकड़ी का ढांचा साल भर सुरक्षित रखा जाता। मुहर्रम से पूर्व उस ढांचे को रिपेयर कर, उस पर कागज की नई परत चढ़ाई जाती। सलमा-सितारे, कांच और रंगबिरंगी चमकदार पन्नियों से ताजिया जब बन कर तैयार होता तो लोग ‘वाह!’ कर उठते। इस टीम को देखकर ऐसा प्रतीत होता जेसे मुहर्रम के दस दिनों के लिए ही ये लोग धरती पर आए हों। सारा नगर ढोल-ताशे की आवाज से गूंज ता। ‘‘तक्कड़ तक्कड़, तक्कड़ तक्कड़, धिम्मक तक्कड़, धिम्मक तक्कड़!’’

बच्चे-बूढ़े आ जुटते। ताशा-ढोल बजाने की होड़ लग जाती। ताशे चार-पांच और एक ढोल। भारी-भरकम ढोल। अमूमन तेल-ग्रीस के ड्रम को आधा काट कर उसके दोनों तरफ चमड़ा मढ़ कर ढोल बनाया जाता। इसे मजबूत जवान युवक गरदन पर टांग लेते । फिर छाती और पेट पर टिके ढोल को ‘मारतुल’ से मार-मार कर बजाया करते। ढम.....ढम। ताशे मिटटी के बने होते। इन्हें जमीन पर बैठकर या खड़े-खड़े गरदन से लटकाकर लकड़ी की पतली खपच्चियों से बजाया जाता। ‘‘तक्कड़  तक्कड़।’’

मुहर्रम के दिनों में ढोल-ताशा की आवाज सुन फत्ते भाई को जबलपुर, उमरिया में बीता अपना बचपन याद आ जाता। जब उनकी दादी मां ढोल-ताशे की गूंज का शाब्दिक जामा पहनाया करतीं --’’संयक सक्कर....संयक सक्कर...दूध मलिद्दा........दूध मलिद्दा।

    तक्कड़-तक्कड़,  तक्कड-तक्कड, धिम्मक तक्कड़..धिम्मक तक्कड़।’’

मुहर्रम की खास शीरनी दूध-मलीदा हुआ करती है। रोटी को चूरा करके उसमें शक्कर मिला कर मलीदा बनाया जाता। यह भी एक ऐसी परम्परा थी, जिसका हवाला इस्लामी इतिहास-कर्मकाण्ड में कहीं नहीं मिलता। चावल और चने की दाल का खिचड़ा भी बनता। नगर के बड़े-बड़े सेठ-महाजन और समर्थ मुस्लिम श्रद्धालु एक एक मन अनाज का खिचड़ा बनवा कर ताजिया के साथ घूमते मजमे में बंटवाया करते। जगह-जगह शर्बत बांटी जाती। आस-पास की कोयला खदानों में बसे मुस्लिम-गैरमुस्लिम लोग नगर में ताजिया-दर्शन को आते। लाठी भांजने वालों और तलवार बाजी के माहिर लोगों को अपनी कला के सार्वजनिक प्रदर्शन का अवसर मिलता। बेपर्दा औरतों-लड़कियों का रेला इस ताजिया के आगे-पीछे रहता। गैर मुस्लिम भी ताजिया का आदर करते। कई मारवाड़ी औरतें मन्नत की ताजिया बनवाया करतीं। अपने घरों के आगे रेवड़ी की फातिहा करवा कर प्रसाद ग्रहण करतीं। काले कपड़े में सजे फत्ते भाई, शीरनी को अपने हाथ में लेते। कुछ बुदबुदाते। उस पर फूंक मार कर शीरनी का थोड़ा हिस्सा ताजिया के नीचे बांधी गई चादर में डालते जाते। हजारों बार फातिहा पढ़ना पड़ता उन्हें। ताजिया पांच-दस कदम बाद रूक जाता। लोग शीरनी लेकर ठेलते-ठालते उन तक पहुंचने का उपक्रम किया करते। औरतें और बच्चे ताजिया के नीचे से पार होकर अपने आप को धन्य करते। मुहर्रम के हीरो हुआ करते थे फत्ते भाई। अंधेरा घिरने के पहले फत्ते भाई पर सवारी आने का लक्षण दिखने लगता। उनका सिर अपने आप हिलने लगता। ताजिया के सामने मातम करने वाले लड़के ताव में आते। फत्ते भाई का पैर कांपने लगता। जिस्म लहराने लगता। शब्बीर, जब्बार, जमालू, शरीफ, बलदेव इत्यादि समझ जाते। मर्सिया गाने वालों को अपना शानदार कलाम पढ़ने का हुक्म दिया जाता। ढोल-ताशों पर अनुभवी हाथ आ विराजते। माहौल सर्द हो जाता जब फत्ते भाई की पागलपन से लबरेज आवाज गूंजती--’’नाराए तकबीर!’’

लोग जोश के साथ जवाब देते--’’अल्लाहो अकबर!’’
उसके बाद शुरू होता खूंखार मातम। फत्ते भाई उंगलियों के बीच ‘ब्लेड’फंसा लेते। मर्सिया-ख़्वानी के साथ मातम शुरू होता। ‘‘या  ली  मौ ला’’

‘‘हैदर मौला’’

ठस नारे के साथ बायां-दायां हाथ छाती पर जोर-जोर से बजने लगता एक रिद्म के साथ। ‘‘याली मौला, हैदर मौला’’ छाती पर हथेलियों की मार बढ़ती जाती। फत्ते भाई रोते-कलपते मातम करते। ‘‘या हुस्सैन...या हुस्सैन!’’

ढोल-ताशा मातमियों का हौसला बढ़ाता।

    तक्कड़-तक्कड़,  तक्कड-तक्कड, धिम्मक तक्कड़..धिम्मक तक्कड़।’’

कई और लोग मातम करने कूद पड़ते। नगर का चौराहा मातम की गूंज से गमगीन हो जाता। मातम का दिल दहलाने वाला दौर परवाज चढ़ता। फत्ते भाई हाल की हालत में चीखते-’’या हसन’’ और छाती पर हाथ मारते। अन्य मातमी जवाब देते--’’या हुस्सैन!’’ और दूसरा हाथ छाती पर मारते। धीरे-धीरे ‘या हसन’ ‘या हुसैन’ की लय बढ़ती जाती और कुछ देर बाद छाती पर हाथ मारने की प्रक्रिया तीव्र हो जाती और लोगों को सुनाई देता --’’हस्सा-हुस्सै’ ‘हस्सा-हुस्सै’। फत्ते भाई पागल से हो जाते। उनकी आवाज फट जाती। उनकी छाती लहूलुहान हो जाती। कई छातियां खून से लाल हो जातीं। ताजिया के संग चलने वाली सैकड़ों औरतें-लड़कियां दहाड़ें मार-मार कर रोने लगतीं। वे भी मातम करतीं सारा माहौल गमगीन हो जाता। फत्ते भाई की आवाज अन्त कर बैठ जाती। वे मातम करते कुछ भी कहना चाहते तो एक अजीब सी आवाज के साथ हवा बाहर निकलती। मुहर्रम के बाद चालीसवां तक उनकी आवाज बेसुरी रहती।


फत्ते भाई काफिर हो गए।

एक ही चर्चा चारों तरफ।

उन्हें कलमा पढ़कर मुसलमान होना होगा और दुबारा निकाह पढ़ाना होगा। फत्ते भाई पेशे से रिक्शा-साईकिल मिस्त्री थे। चार-पांच साइकिलें और एक रिक्शा किराए पर चलता। नगरपालिका भवन के सामने एक गुमटी पर उनकी दुकान सजती। चेला-चपाटी न रखते। पंक्चर बनाने से लेकर रिपेयर का काम स्वयं करते। काम के वक्त पैजामा ऊपर खोंस कर उठा लिया करते। सुबह सात बजे घर से निकलते। झाड़ू निकाल कर पहले दुकान का कचड़ा बुहारते फिर किराए पर चलने वाली साइकिलें निकाल कर एक तरफ लाईन से खड़ा करते। सब साईकिलों की हवा चेक करते। साइकिल टनाटन रहे तो किराएदार टिके रहते हैं। सुबह से ही किराएदारों की आमद शुरू हो जाती। आठ आना प्रति घण्टा के हिसाब से साइकिल किराए पर जाती। इन साइकिलों से ही वह प्रतिदिन तीस-पैंतीस रूपिया कमा लेते। कुछ कमाई रिक्शा के किराए से आ जाती। साइकिल रिपेयर से भी कुछ मिल ही जाता था। गुमटी के अंदर लोहे की एक बाल्टी, पंक्चर चेक करने के लिए एक तसला, लकड़ी का एक बड़ा बक्सा जिसमें औजार भरा होता और कई ताखों पर छोटे-बड़े डिब्बे जिनमें नट-बोल्ट से लेकर छोटे-मोटे स्पेयर होते। हवा भरने के दो पम्प और चक्का सीधा करने का एक शिकंजा। सामने दीवार पर दो-तीन तस्वीरें मढ़ी हुई लगी होतीं। एक तस्वीर अजमेर शरीफ की, दूसरी बाबा ताजुद्दीन की, और तीसरी तस्वीर में एक ऐसी आकृति की थी जिसका जिस्म घोड़े का है और मुंह एक खूबसूरत औरत का। उसी के बगल में कुरान-शरीफ की आयतों वाली एक तस्वीर। फत्ते भाई सुबह-शाम इन तस्वीरों के पास अगरबत्ती अवश्य जलाया करते। गुमटी के बाहर रेल-लाईन का एक टुकड़ा पड़ा रहता। इसी टुकड़े पर रखकर वह रिपेयर के लिए हथौड़ा चलाते। विश्वकर्मा पूजा के दिन वह दुकान खोलते और विश्वकर्मा पूजा समिति की तरफ से दिया गया नारियल बगल के पनवाड़ी बलदेव से इसी लोहे के टुकड़े पर फोड़वाया करते। विश्वकर्मा पूजा के दिन वह कोई काम न करते। शाम को बीवी हमीदा के साथ सैर-सपाटा करते। बीवी हमीदा उनकी सच्ची शरीके-हयात थीं। वह भी बीवी हमीदा के पक्के शौहर थे। फत्ते भाई का वास्तविक नाम फतह मुहम्मद था, जिसे वह अब तक भूल चुके थे। उन्हें अल्लाह ने औलाद का सुख नहीं दिया था। शादी के पंद्रह सोलह साल बाद जब औलाद न हुई तो फत्ते भाई पीरी-मुरीदी, जड़ी-बूटी, वैद्य-हकीमी और टोना-टोटका सब करवा देखे। आज तक उनको औलाद नसीब न हुई । अब तो खैर से उम्मीद करना बेकार था लेकिन आस्थावान फत्ते भाई कभी नाउम्मीद न हुए। बीवी हमीदा को भी वे ढाढ़स बंधाया करते। फत्ते भाई महफिल-पसंद आदमी थे। समाज के निचले तबके में उनकी अच्छी रसूख थी। कोर्ट कचहरी में जमानत दिया करते और इस तरह बेकस-मजलूमों की मदद करते। सिनेमा-थियेटर के शौकीन भी थे। अधिकतर सेकण्ड-शो सिनेमा जाते। साथ में होतीं बीवी हमीदा। साइकिल पर पीछे बैठ जातीं। दुबली-पतली काया, सलवार-कुर्ता और दुपट्टा पहनतीं। निस्संतान बीवी हमीदा देखने सुनने में ठीक-ठाक थीं। उम्र का असर उन तक नहीं आया था। शरीफ भाई हों या जब्बार! फत्ते भाई को जब बीवी हमीदा के साथ सैर-सपाटे पर पाते तो टोकते जरूर’--’’लैला मजनूं की जोड़ी कहां चली?’’

हमीदा बीवी भी चुप न रहतीं-’’देखने वालों का कलेजा क्यों फट रहा है? अपनी जोरू को सात पर्दों में काहे छुपाए रखते हैं। घूमिए न आप लोग भी अपनी हूरों के संग, कौन मना करता है!’’

जमालू भाई अपनी दो मन की बीवी को याद कर आहें भरते--’’फत्ते भाई जैसी क़िस्मत हम बदनसीबों को कहां!’’
हमीदा बीवी जवानी में बहुत सुंदर थीं। पास ही के गांव में एक नाई खानदान में पैदा हुई थीं। नाई लोगों को ‘छत्तीसा’ भी कहा जाता है। ‘छत्तीसा’

माने छत्तीस कला के माहिर लोग। जाने कौन सी कला काम आई कि फत्ते भाई आज तक फतिंगे की तरह अपनी बीवी पर मरते हैं। फत्ते भाई की जिन्दगी ठीक-ठाक चल रही थी। न उनके ख़्वाब बड़े थे, न पांव..........चादर की नाप उन्हें अच्छी तरह मालूम थी।

बदरी-बरखा, पूस का जाड़ा। जाड़े की सर्द रात। फत्ते भाई लुंगी-बनियान में घर से बाहर निकले। नाली के किनारे पेशाब करने को बैठे। उन्हें ठण्ड लग गई। ठण्ड तो शाम ही से लग रही थी। बीती शाम उन्होंने बिलसपुरिहा बिही
(अमरूद) खाकर खूब पानी पिया था। पेशाब करके वह उठे तो शरीर कांप रहा था। कमजोरी सी लग रही थी। वापस आकर वह पुनरू सो गए। सुबह उनका बदन जलते तवे सा तप रहा था। ठण्ड से जिस्म कांप रहा था। बीवी हमीदा घबरा गई। तीन रजाईयां उनके ऊपर डाल दीं। कोई फर्क न पड़ा। फत्ते भाई का बदन कांपे जा रहा था। दांत बज रहे थे। वह कुछ बोल नहीं पा रहे थे। हमीदा बीवी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें, क्या न करें। फत्ते भाई के मुंह से गर्म सांस निकल रही थी। लगा वह कुछ कहना चाह रहे हों। हमीदा बीवी अपना कान उनके मुंह के करीब ले र्गइं। लेकिन ये क्या.... फत्ते भाई का निचला जबड़ा र्बाइं तरफ लटक गया था। हमीदा बीवी चीख पड़ीं। बेबस फत्ते भाई की आंख से आंसू झर रहे थे। वे ठण्ड से अब भी कांप रहे थे। हमीदा बीवी उन्हें उसी हालत में छोड़ बाहर्र आइं। जाड़े की सुबह कुहरा छाया हुआ था। वे पड़ोसी बलदेव पनवाड़ी और शरीफ भाई के पास गई। दोनों तत्काल दौड़े चले आए। फत्ते भाई की हालत देख बलदेव साईकिल उठा साहनी डॉक्टर को इत्तला करने चला गया। डॉक्टर साहनी नगर के पुराने प्राईवेट डॉक्टर है। मरीज की हालत सुन चले आए। कुछ इंजेक्शन दी। दवा लिखी। फिर कहा कि मरीज को भरती करना होगा। बेहतर होगा कि इन्हें पास के कॉलरी के हॉस्पीटल में भर्ती करवाया जाए। वहां बेहतर इंतेजाम है। इन पर लकवा का अटैक है। दवा से ठीक भी हो सकते हैं। ढिलाई न की जाए। कॉलरी हॉस्पीटल के डॉक्टरों को वे फोन कर देंगे। दवा-इंजेक्शन के बाद फत्ते भाई की कंपकंपी कुछ कम हुई। इंजेक्शन का प्रभाव था या थकावट, फत्ते भाई को नींद आ गई। शरीफ भाई ऑटो-रिक्शा बुला लाए। हमीदा बीवी रोते-रोते बेहाल हुई जा रही थीं। बलदेव की घरवाली आ गई थी और उन्हें सांत्वना दे रही थी। उनके पास तीनेक हजार रूपए थे। शरीफ भाई और बलदेव पनवाड़ी ने धैर्य रखने को कहा। रूपए-पैसे की चिन्ता नहीं करने को कहा। हमीदा बीवी सिर्फ रो रही थीं। इसके बाद चला महंगी दवाओं का लम्बा इलाज। फत्ते भाई इस बीच भिलाई के डॉक्टरों को दिखा आए। इससे फायदा हुआ। जबड़ा जो एक तरफ लटक गया था, उसमें जान आई। बोलने-खाने में उन्हें अब भी परेशानी होती थी। सिानीय मस्जिद के हाफ़िज ने तावीज दिया था। फत्ते भाई की बांह पर तावीज बंधा रहता। अंग्रेजी दवा भी चालू थी। हमीदा बीवी ने ताजुद्दीन बावा के मजार में ‘चादर चढ़ाने’ की मन्नत मानी। ख़्वाजा गरीब नवाज को भी चादर चढ़ाने की मनौती मानी। स्थानीय शाह बाबा की मजार पर जाकर माथा टेक आई थीं। मुजावर बताशा बाबा को घर बुलाकर फत्ते भाई पर दम भी करवा दिया था। पता नहीं ये अंग्रेजी दवाओं का असर था या गंडा-तावीजों का प्रभाव......... फत्ते भाई का जबड़ा अपनी जगह में आने लगा था। फत्ते भाई दुकान खोलकर बैठने भी लगे थे। इस बीमारी में उनके कई हजार खतम हो चुके थे। बीमारी ठीक न हुई थी। कोई कहता दिल्ली चले जाओ, कोई सलाह देता मद्रास। फत्ते भाई सबकी सुनते, मन की करते। उन्हें तो सबसे ज्यादा चिन्ता मुहर्रम की सताती। यदि रोग यूं ही बना रहा तो ताजिया कैसे उठेगा। या गरीब-नवाज, या मुशकिल-कुशा!

फत्ते भाई पढ़े-लिखे न थे। हां लढ़े जरूर थे। दुनिया की ठोकरों ने उन्हें तैयार किया था। इल्म और मजहब के बारे में जिसने जो बताया, मान लेते। किसी दूसरे मजहब की बुराई कतई न करते। बलदेव पनवाड़ी उनका पड़ोसी, कुछ न कुछ नई सूचनाएं दिया करता। आजकल बाजार में कटनी के पास किसी चमत्कारी जगह का बहुत प्रचार हो रहा था। कहते हैं, वहां स्वयं बजरंग बली प्रकट हुए हैं। असाध्य रोग जैसे लकवा, टीबी, कैंसर, बवासीर, मधुमेह सब ठीक हो जाते हैं। बलदेव अपनी छोटी बहन को लेकर वहां गया था। लौटकर आया तो फत्ते भाई को हाल-चाल बताने लगा।--’’बजरंगबली की महिमा अपरम्पार है फत्ते भाई। लछमन जी को मूर्छा लगी थी तो मृत संजीवनी बूटी लेकर बजरंगबली ने दिया था। तब जाकर लछमनजी की मूर्छा टूटी थी। कटनी के बजरंगबली का प्रसाद किसी संजीवनी बूटी से कम नहीं। वहां प्रसाद में चढ़ाया गया नारियल संत-महात्मा अपने हाथों से रोगी को देते हैं। इसमें भभूत भी मिला होता है। जितना भी प्रसाद मिले, उसके चार हिस्से बनाने पड़ते हैं। चार दिन की चार खूराक। कैसा भी मर्ज़ हो। स...ब ठीक हो जाता है। हजारों लोग डेली वहां पहुंच रहे हैं। दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता और भी जाने कहां-कहां से बेचारे, किस्मत के मारे वहां आते हैं। किसी को कैंसर है, किसी को लकवा, किसी को टीबी है तो किसी को शक्कर की बीमारी। फत्ते भाई ने उसे टोका--’तुम्हारी बहन अब कैसी है?’’

बलदेव पनवाड़ी ने बताया-’’उसके साथ तो चमत्कार ही हुआ। हम लोग तो निराश थे। लेकिन प्रसाद का पहला खूराक खाते ही उसके कमजोर हाथों में ताकत आ गई। पूजा की डलिया उसी हाथ में उठाए वह वापस लौटी। टांगों में भी कोई नई शक्ति को वह महसूस कर रही है। आज दूसरा खूराक खाई है। बजरंगबली की महिमा अपार! क्या बताएं फत्ते भाई, हम वहां मंगल के दिन पहुंचे तो भीड़ देखकर हौसला पस्त हो गया था। सोचा कि नम्बर शायद अब बुधवार को ही आएगा, किन्तु बजरंगबली की कृपा ऐसी हुई कि उसी दिन प्रसाद मिल गया।’’
फत्ते भाई आजकल बोलते कम और सुनते अधिक थे। जबड़े की शक्तिहीनता के कारण उन्हें तकलीफ होती थी। बलदेव तो अपनी बहन को लेकर दुनिया घूम चुका था। फत्ते भाई के साथ ख़्वाजा गरीब नवाज की मजार मे जाकर मन्नत भी मान आया था। सुनवाई हुई तो बजरंगबली के पास! शायद ख़्वाजा गरीब नवाज खुद फत्ते भाई को इसी बहाने कोई रास्ता दिखा रहे हों। आस्थावान, फत्ते भाई के लिए ये नया विचार आशाजनक लगा। पूछ बैठे--’’यार बलदेव भाई, हमारे वास्ते भी परसाद मंगवा दो न!’’

बलदेव ‘नहीं’ की मुद्रा में सिर हिलाने लगा--’’नहीं हो सकता फत्ते भाई!

वहां का प्रसाद बनिया की दुकान में बिकने वाला हल्दी-जीरा नहीं कि गए, पुड़िया बनवाई, पैसे दिए और चल दिए। वहां तो साथी पूरे देश से श्रद्धालु आते हैं। अमीर-गरीब सभी, नाना प्रकार के रोग पाले हुए लोग। सभी को हनुमान जी के सामने आरती में खड़ा होना पड़ता है। शीश झुका कर प्रसाद ग्रहण करना पड़ता है। जिसे मर्ज हो, वही प्रसाद पाए। और कोई दूसरा तरीका नहीं है। वहां आपको जाना ही होगा।’’

फत्ते भाई सारा दिन मथते रहे खुद को। एक मुसलमान का मंदिर में जाकर पूजा में शामिल होना, फिर प्रसाद पाना, उसे खाना...छिरू   छिरू! नहीं हो सकता।

वह मर भले जाएं, ऐसा गुनाह कभी न करेंगे। फिर विचार आता कि उनके हिन्दू भाई तो ताजिया हो या शाह बाबा की मजार या अजमेर शरीफ की यात्रा....सभी जगह बेहिचक शामिल होते हैं और पूरी अकीदत रखते हैं। उन्हें जनसंघियों का भाषण याद हो आया। उस दिन चैक में जनसंघी नेता भाषण दे रहे थे--- ‘‘हिन्दुस्तान में मुसलमान कहीं बाहर से नहीं आए हैं, बल्कि मुगलों के शासनकाल में इनके पूर्वजों ने अंधाधुंध धर्म परिवर्तन किया था। इसी प्रकार आज इसाई मिशनरियां सक्रिय हैं। मुसलमान हमारे छोटे भाई हैं।’’

उस दिन फत्ते भाई को गुस्सा हो आया था कि यदि हम छोटे भाई हुए तो हिन्दू सब बड़े भाई। यानी हमें हिन्दुओं से हमेशा दब के रहना होगा क्योंकि हम तो उनके छोटे भाई जो हुए। लगता है हुमायूं-अकबर का जमाना भूल गए हैं सब। लेकिन बाद में जब उनका क्रोध शांत हुआ तो उन्हें वास्तविक लगी थी जनसंघियों की बातें। हिन्दुस्तानी मुसलमानों में उच्च कुल वंश परम्परा का आधिपत्य था, जबकि छोटी जातियों के मुसलमान जो अमूमन रंग-रूप, कद-काठी में दलित हिन्दू भाई की तरह दीखते, अशराफों द्वारा हिकारत की निगाह से देखे जाते। स्वयं फत्ते भाई को साई कहकर लोग उनका मखौल उड़ाया की करते हैं। उनकी पत्नी हमीदा बीवी को ‘छत्तीसा’ करकर चिढ़ाया ही जाता है। उन्हें बस यही लग रहा था कि अल्लाह तआला खुद उन्हें रास्ता दिखा रहे हों। उनके दिलो-दिमाग में एक ही बात रह-रहकर उभर रही थी, कि बलदेव के साथ जाकर एक बार बजरंग बली को भी आजमा लिया जाए। बचपन में तो वे गणेश पूजा, दुर्गा पूजा, काली पूजा का प्रसाद बड़े शौक से खाया करते थे। रामलीलाएं भी बहुत देखा करते थे। आरती की थाल के लिए तब वे जेब में पांच-दस पैसा खुदरा जरूर रखा करते। आरती की थाल लेकर पुजारी आता तो दीपक की लौ की आंच से हथेली तर करके सिर पर फेर लेते। पैसा थाल पर छोड़ दिया करते। उनके अधिकांश दोस्त हिन्दू थे। भले ही बचपन में झगड़ा-लड़ाई होने पर वही दोस्त अन्य गालियों के अलावा ‘कटुआ’ और ‘पाकिस्तानी’ की गाली दिया करते हों, किन्तु बचपन का झगड़ा होता कित्ती देर के लिए था। बस यही इत्ती से देर के लिए ही तो...!

इस्लाम के एकेश्वरवाद की कट्टर दीक्षा से वह वंचित रहे। इस्लाम में चमत्कार की प्रमुखता नहीं, वे नहीं जानते थे। अल्लाह के प्यारे रसूल इस दुनिया में आए और बिना किसी जादू या चमत्कार दिखाए इस्लाम के संदेश को जन-जन तक पहुंचाया। वे तो यही जानते थे कि जिस तरह मजार खानकाहों में मन की मुुरादें पूरी हो जाती हैं, उसी तरह से चमत्कारिक सिलों में भी ऐसी शक्तियां होती हैं, जिनसे इंसान के दुख-दर्द दूर हो जाते हैं, भले ही वे सिल अन्य धर्मावलम्बियों के हों। अकसर अपने दोस्तों के बीच वे कहा करते---’’धर्म अलग हों तो क्या पहुंचना तो सबको एक ही जगह है।’’ फत्ते भाई बहुत भोले-भाले मुसलमान थे। शायद इसीलिए इंसानियत पर आस्था-विश्वास उनके कायम था। घर आए तो बीवी हमीदा उनकी चिन्ता का कारण जान परेशान हो उठीं। अपनी सीमित सूझ-बूझ के तहत उन्होंने भी फत्ते भाई को यही सलाह दी कि एक बार गुपचुप आजमा आने में हर्ज ही क्या है। सैयदानियां भी तो ज्योतिशियों, तांत्रिकों की गुपचुप मदद लिया करती हैं।


फत्ते भाई और बीवी हमीदा ने बलदेव भाई को घर बुलवा लिया। सिर्फ तीन लोग ही इस बात के जानकार थे। फत्ते भाई इलाज के लिए कटनी के पास स्थित बजरंगबली के चमत्कारिक सिल जा रहे हैं। कटनी छरू घण्टे का रास्ता है। सुबह शटल से निकले और बारह बजे तक कटनी पहुंच गए। किसी का कानो कान खबर भी न हो और प्रसाद भी पा लिया जाए। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। चारों तरफ एक ही चर्चा। फत्ते भाई काफिर हुए। उन्हें दुबारा कलमा पढ़ कर इस्लाम में दाखिल होना होगा। फत्ते भाई ने बजरंगबली का प्रसाद ग्रहण किया था। अंग्रेजी दवाएं भी चल रही थीं।  उनका जबड़ा नार्मल हुआ जा रहा था। फत्ते भाई अपनी ठीक होती हालत से खुश थे लेकिन नगर में उठ रही चर्चा से भयभीत भी थे। शाम शरीफ भाई ने फत्ते भाई से जानना चाह कि नगर में आजकल जो चर्चा चल रही है क्या वह वाकई सच है?

फत्ते भाई सहम गए। जिससे डरते थे वही बात हो गई। हमीदा बीवी के कान में भी मस्जिद-मुहल्ला से उठने वाली आवाजें सुनाई देने लगी थीं। इसका अर्थ ये हुआ कि उनका कटनी जाकर बजरंगबली की पूजा-अराधना और प्रसाद-ग्रहण की खबर यहां पहुंच चुकी है। खुदा जाने, क्या होगा? या परवरदिगार.................या गौस-पाक! गुमटी बंद कर घर लौटना चाह रहे थे कि बरेलवी मस्जिद की अंजुमन कमेटी का कारिंदा सब्जीफरोश कल्लू मियां आ पहुंचा। उन्हें रोककर उसने फुसफुसाते हुए कहा--’’फत्ते भाई, कल बाद नमाज जुहर आप मदरसा आइएगा। वहां कमेटी आपसे कुछ सवाल-जवाब करेगी।’’

फत्ते भाई उस समय भौंचक-अवाक रह गए। दिल की धड़कनें बढ़ र्गइं। कान सांय-सांय करने लगा। जिस जबड़े के इलाज के लिए वे कटनी गए थे, वह जबड़ा पुनरू अशक्त हो लटक सा गया। कल्लू मियां पुनरू फुसफुसाए--’’का हो, बात सही है कि आप हिन्दुअन के भगवान की पूजा-पाठ किए रहौ?’’

फत्ते भाई उस नामाकूल से कुछ न बोले। उन्हें कुछ भी समझ न आ रहा था कि क्या करें, क्या न करें। बचपन में गलती पकड़े जाने पर अच्छा इलाज हुआ करता था। मार पड़ने पर जोर-जोर से रोने लगो तो मार कम पड़ती थी। लेकिन इस गलती के लिए अल्लाह-रसूल की बारगाह में दोशी, गुनहगार होने के अलावा कमेटी और बिरादरी में भी अपमानित होने का भय उन्हें शर्मसार किये जा रहा था। सिर्फ याद आ रही थीं हमीदा बीवी। वे बेहोश होने से पूर्व हमीदा बीवी के पास पहुंचना चाह रहे थे। हमीदा बीवी, उनका इश्क, उनकी शरीके-हयात, उनकी मरहूम अम्मा का अवतार, उनके जीवन का आधार!



मदरसा का सभागार।

बड़ा सा हाल। खराब मौसम के कारण अंदर बिजली जला दी गई थी। पूरे हाल में दरी बिछी थी। मुख्य द्वार के ठीक सामने वाली दीवार पर बीचों-बीच ‘मक्का-मदीना’ की एक बड़ी तस्वीर लगी थी। उसी तस्वीर के नीचे सफेद कपड़े, काली टोपी में कुछ सफेद दाढ़ीदार बुजुर्ग बैठे थे। उनके सामने लकड़ी की एक छोटी सी टेबिल थी जिस पर कागजात रखे थे। फत्ते भाई अपने साथ शरीफ भाई को भी ले आए थे। शरीफ भाई सदर जनाब मन्नान सिद्दीकी से गुफ्तगू कर रहे थे। फत्ते भाई ने हाल में उपस्थित मजमे पर उड़ती सी निगाह डाली। तमाम लोग परिचित थे। सभी के चेहरे पर एक प्रश्न-चिन्ह लटक रहा था। मंच पर बैठे थे जनाब सैयद मुस्तफा रजा साहब। उनके दाहिनी जानिब थे सेक्रेटरी जनाब “शेख सत्तार खां साहब और पेश-इमाम जनाब मुहम्मद शाहिद कादरी तथा सदर साहब के बाई जानिब बैठे थे कब्र में पांव लटकाए बुजुर्ग हकीम मन्जूरूल हक साहब।  ये ही लोग हैं जो आज फत्ते भाई की गुस्ताखी का फेसला करेंगे। फत्ते भाई ने अपने कमजोर दिल के बा-रफ्तार चलते रहने के लिए सारी कायनात के मालिक अल्लाह तआला को याद किया। फिर रसूले-खुदा को याद किया। फिर भी घबराहट जारी रही तब गौस-पाक, फिर गरीब-नवाज सभी को याद किया। घबराहट कम हुई तो मुकद्दमा के लिए मुंसिफों के सामने जा बैठे। दरी एकदम ठण्डी थी। हॉल की अंदरूनी फिजा सर्द थी। सेक्रेटरी जनाब सत्तार साहब जिनकी कपड़े की बड़ी दुकानें इस नगर में हैं, की आवाज गूंजी और सभा शांत हुई। --’’बिरादराने इस्लाम, अस्सलाम व अलैकुम!’’ सलाम का जवाब सुने बगैर उन्होंने बात जारी रखी। --’’फतह मुहम्मद वल्द बन्ने साई पर इल्जाम है कि ये अपने इलाज के लिए काफिरों के देवताओं की  पूजा-पाठ किए और वहां से पूरी अकीदत के साथ जो चढ़ाया गया प्रसाद मिला, उसे खाया और उस देवता-बुत के आगे सिर झुकाया। क्या फतह मुहम्मद वल्द बन्ने साई पर लगाए गए इल्जाम सही हैं? जवाब खुद फतह मुहम्मद दें।’’

फत्ते भाई को काटो तो खून नहीं। क्या कहते। गलती तो हो ही गई थी। उन्होंने कितना बड़ा गुंनाह किया था, उसका उन्हें अन्दाजा न था। फत्ते भाई खड़े हुए। कुछ समझ में न आ रहा था कि क्या सफाई दें कुछ बोलना चाहा तो तनाव के अतिरेक में चेहरा विकृत हुआ, जबड़ा पुनरू लटक गया। कण्ठ अवरूद्ध हो गया। बस फत्ते भाई को इतना याद है कि उन्होंने सिर हिलाकर तमाम इल्जामात को मंजूरी दे दी थी। सेक्रेटरी साहब चुप रहे। बहस की गुंजाईश खत्म हो गई थी। जुर्म कुबूल लिया गया था। उपस्थित जन-समूह बड़ी नफरत से फत्ते भाई को ताक रहा था और इशारा कर बातें बना रहा था। हॉल का माहौल एकबारगी गर्म हो गया। फत्ते भाई के पक्ष में कोई बोलने वाला न था। फत्ते भाई इस तरह बीच सभा में खड़े थे जैसे उन पर कत्ल या ज़िना का इल्जाम लगा हो। दुख हो या खुशी का मौका.............भीड़ का चरित्र एक तरह का होता है। ऐसा नहीं है कि इस महफिल में फत्ते भाई ही एक गुनहगार हों। रोजमर्रा की जरूरतों में फंसा हरेक शख़्स किसी न किसी गुनाह में मुब्तिला है, बस फर्क इतना है कि शिर्क यानी कुफ्र  का गुनाह सबसे बड़ा गुनाह होता है अर्थात गुनाहे-कबीरा। ऐसा गुनाह करने वाला काफिर हो जाता है और गुनाह से तौबा करने के बाद दुबारा इस्लाम कुबूल करता है। यह तो सभी जानते हैं कि इस्लाम में बुतपरस्ती की मनाही है और बुतपरस्त काफिर होता हैं। फत्ते भाई ने यकीनन बुतपरस्ती की थी लेकिन इस महफिल में ऐसे कितने लोग है जो जादू-टोना, भूत-प्रेत आदि में फंस जाने पर काफिरों के तौर-तरीकों से झड़वाते-फुुकवाते नहीं। मन में बसा भूत-प्रेत जब अपने आमिलों के काबू में नहीं आ पाता तब गैरों के दरवाजे पर चोरी छिपे जाकर झड़वाया तो सभी करते हैं। महफिल में बैठा कोई भी शख़्स  ये नहीं सोच पा रहा था कि आखिर वे कौन से हालात हैं जिनसे घबराकर ‘एक अल्लाह’ को सबसे बड़ा मानने वाले लोग अपने ईमान-यकीन से डिग जाते हैं। मजार-खानकाहों में मन्नत-मुरादें मांगने, रोन-गिड़गिड़ाने वाले जाहिल मुसलमान कब किधर का रूख करेंगे कौन जानता है। सेक्रेटरी सत्तार खां साहब जानते थे और न जनाब मन्नान सिद्दीकी साहब, जो यंग मुस्लिम कमेटी के आतिश बयान सदर थे। तभी बुजुर्ग जनाब हकीम मन्जूरूल हक साहब लरजते हुए उठ खड़े हुए। महफिल में खामोशी छा गई। बुजुर्गवार से खंखारकर बोलना शु रू किया--’’बिरादराने इस्लाम, गौरो-फ़िक्र के बाद कमेटी इस नतीजे पर पहुंची है कि फतह मुहम्मद वल्द बन्ने साई से कुुफ्र हुआ है। कुरआन और हदीस की रोशनी में ये गुनाहे-कबीरा है। कमेटी की राय है कि फतह मुहम्मद वल्द बन्ने साई, इस्लाम में दुबारा दाखिल हों। कल इन्शाअल्लाह, बाद नमाज जुमा, जामा मस्जिद में फतह मुहम्मद हाजिर होकर कलमा पढ़ें। दूसरी अहम बात ये है कि कुफ्र करने वाले का निकाह टूट जाता है, इसलिए उसे दुबारा निकाह भी पढ़वाना होगा। अस्सलाम व अलैकुम।’’

हकीम साहब बैठ गए।

महफिल खत्म हुई।

फत्ते भाई के कमजोर बेसुध जिस्म को शरीफ भाई जगाना चाह रहे थे।

जापानी पर्यटक से रेप... यत्र नारी पुज्यते, रमंते तत्र देवता ??? - नीलम मलकानिया

मंथन
भारत में बलात्कार की दिन ब दिन बढती जा रही घटनाएँ अब वीभत्स रूप ले चुकी हैं इन घटनाओं का रूप तब कुछ और घिनौना हो जाता है जब भारत भ्रमण को आयी, हमारी मेहमान, विदेशी महिला के साथ बलात्कार होता है एक सवाल मेरे ज़हन में उठता है कि यदि मैं एक विदेशी महिला होता तो क्या भारत आने की हिम्मत जुटा पाता? नहीं ! आप अपना जवाब दें ...

नीलम मलकानिया, भारत की हैं और जापान में 'रेडियो जापान' की हिन्दी सेवा से जुडी हैं हाल में कोलकाता में एक जापानी महिला पर्यटक के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना से आक्रोशित हो कर उन्होंने जो लेख लिखा है, वह ना सिर्फ भारतीय-पुरुष की मानसिकता को नंगा कर के दिखता है बल्कि साथ ही ऐसे बिन्दुओं को भी देखने को मजबूर करता है, जो हमारे ऊपर लगे वो धब्बे हैं, जिन्हें हमने अगर साफ़ नहीं किया तो वो हर हाल में कैंसर का रूप धारण कर लेंगे. 

नीलम ने अपने विचारों को शब्दांकन से साझा किया इसके लिए उन्हें धन्यवाद... 

भरत तिवारी

जापानी पर्यटक से रेप... यत्र नारी पुज्यते, रमंते तत्र देवता ??? 

नीलम मलकानिया

एक बात जिसकी मैं भारत में कल्पना तक नहीं कर सकती वो है किसी पुरुष के साथ के बिना भी अकेले घूम सकना और पूरी तरह सुरक्षित महसूस करना ...


जो समाज अपनी ही गली-मोहल्ले की लड़की की इज़्ज़त नहीं कर सकता उससे एक विदेशी के प्रति सम्मान के भाव की अपेक्षा करना बेकार है।
हमारे देश में महिलाओं के ख़िलाफ़ पता नहीं कौन सा एक युद्ध चल रहा है कि किसी भी गली-कूचे में, भीड़ या सुनसान जगह में, रेल में या बस में, कार में या सड़क पर पैदल चलते समय यहाँ तक कि दफ़्तर और घर में भी महिलाएँ सुरक्षित नहीं। हमारे बीच शायद ही कोई ऐसी महिला हो जो यौन उत्पीड़न का शिकार ना हुई हो। हाल ही में एक जापानी युवती के साथ भारत में हुए दुष्कर्म की ख़बर से मन बहुत खिन्न है। ... हालाँकि सरकार द्वारा त्वरित कार्यवाही होना अपेक्षित ही था। दो देशों के आपसी संबंधों मे खटास लाने की एक सोची-समझी साज़िश की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता जैसा कि मीडिया में बताया जा रहा है लेकिन फिर भी बेहद दुख हुआ इस ख़बर से। इसके कई कारण हैं एक तो लड़की होने के नाते सहज ही इस दर्द से जुड़ाव हो जाता है और उस पर जापान में रहते हुए संवेदना कुछ अधिक गहरी हो जाती है। जब-जब कोई ऐसी ख़बर सुनती हूँ तो निर्भया और बदायूँ जैसी अनेक घटनाएँ आँखों के सामने एक प्रश्नचिह्न बनकर तैरने लगती हैं। 

ज़रूरी ये है कि देश के पुरुषों की मानसिकता का शुद्धिकरण किया जाए
मुझे लगता है कि भारतीय पुरुषों की कुंठित मानसिकता एक शोध का विषय है। जो समाज अपनी ही गली-मोहल्ले की लड़की की इज़्ज़त नहीं कर सकता उससे एक विदेशी के प्रति सम्मान के भाव की अपेक्षा करना बेकार है। भारत के अपार संभावनाओं से भरे पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने के लिए सभी संबंधित मंत्रालय एकजुट होकर काम कर रहे हैं। सड़कों की हालत सुधारना, देश में सफ़ाई को बढ़ावा देना, यातायात व्यवस्था को बेहतर करना, मुख्य पर्यटन स्थलों को सुख-सुविधाओं से लैस करना। ये सब बहुत ज़रूरी है, लेकिन इससे भी ज़रूरी ये है कि देश के पुरुषों की मानसिकता का शुद्धिकरण किया जाए। सरकार तो अपनी कोशिश कर ही रही है, उम्मीद है कि माहौल बदले लेकिन ये एक सामाजिक दायित्व भी तो है। हर एक को समाज का ये डरावना चेहरा बदलने में योगदान करना चाहिए। मैं हमेशा से कहती आई हूँ कि काशी तो क्योतो नगरी बन जाएगी पर मानसिकता का क्या होगा? मानती हूँ कि सभी पुरुष ऐसे नहीं हैं लेकिन जो हैं क्या वो भारतीय नहीं हैं? क्या उनकी वजह से विदेशों में भारत की छवि ख़राब नहीं होती? अगर तथाकथित शरीफ़ पुरुषों को अपनी छवी प्यारी है तो मुझे लगता है कि उन पर महिलाओं के मुक़ाबले अधिक ज़िम्मा है कि जब वो किसी महिला को असुरक्षा के भाव से घिरी पाएँ तब अपनी शराफ़त के बोझ तले दबे, मुँह में ताला लगाए चुपचाप किसी कोने में ना दुबकें। बल्कि जो ग़लत हो रहा है उसका विरोध करें अन्यथा ये आरोप सुनने को तैयार रहें कि सभी एक जैसे हैं। 

क्यों हमारे यहाँ पर्यटन से जुड़े शोध और व्यवसाय पर पुरुषों का वर्चस्व बना हुआ है?
विदेशी लड़कियाँ सामान्य परिस्थितियों में मुश्किल से कुछ दिन या कुछ सप्ताह भारत में रहती है और उनमें से अधिकतर का भारत का ये पहला सफ़र अंतिम सफ़र भी बन जाता है। अनुभव ही इतने कड़वे होते हैं कि वो दुबारा ये सब झेलना नहीं चाहतीं और कभी भी भारत ना जाने का फ़ैसला कर लेती हैं। कोई अपनी मेहनत की कमाई ख़र्च करके दुनिया के एक ऐसे देश को देखने आता है जो विश्व गुरु होने का दंभ भरता है और बदले में क्या पाता है, उम्र भर के लिए कड़वी यादें? मुझे बहुत अच्छा लगता है ये देखकर जब जापानी लड़कियाँ भारत से आने के बाद दिखाती हैं कि उन्होंने वहाँ से क्या ख़रीदा या कहाँ घूमी। जब वो भारत से लाई गई साड़ी पहनती हैं या बिन्दी लगाती हैं तो और भी प्यारी लगने लगती हैं। भारतीय संस्कृति और विभिन्न रीति रिवाजों के बारे में उनकी जिज्ञासा बेहद मासूम लगती है और उस एक पल में अपने देश के प्रति हमारा सम्मान और प्यार बढ़ जाता है। निजी अनुभव के आधार पर कह रही हूँ कि जब भी जापान में कहीं पर्यटन की बात होती है तब हम उसे अपने देश से जोड़कर ज़रूर देखते हैं। तुलना करने पर पाते हैं कि हमारी संस्कृति बहुत सम्पन्न है, पूरी दुनिया में अलग-अलग कोनों में जो अनुभव लिया जा सकता है वो भारत के ही पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण में घूमकर लिया जा सकता है। कभी-कभी लगता है कि भारत इस दुनिया का ही एक मिनिएचर है। यहाँ जापान में मैं ख़ूब घूमती हूँ और पाती हूँ कि जो भी सुख-सुविधाएँ यहाँ उपलब्ध करवाई गई हैं वो हमारे यहाँ भी करवाई जा सकती हैं बस बजट और इच्छाशक्ति का मसला है। लेकिन एक और मसला है जो बहुत गंभीर है जिस पर सबसे पहले ध्यान दिया जाना बेहद ज़रूरी है - वो है महिलाओं की सुरक्षा का मसला। क्या वजह है कि भारत में महिलाएँ अपने ही देश के अलग-अलग हिस्सों में कहीँ अकेली घूमने की हिम्मत नहीं कर सकतीं। क्यों हमारे यहाँ पर्यटन से जुड़े शोध और व्यवसाय पर पुरुषों का वर्चस्व बना हुआ है? क्यों हमारे यहाँ अध्यात्म से जुड़ा भ्रमण हो या फिर काम से कुछ दिन की छुट्टी, महिलाओं को एक सीमित और सुरक्षित कोना ही तलाशना पड़ता है? 

कत्थक सीखने जापान से भारत गई एक लड़की ने कहा था कि शायद ये छेड़खानी भारत की संस्कृति का हिस्सा है
मैं यहाँ जापान में रहते हुए अपने देश की बहुत सी बातें मिस करती हूँ और साथ ही यहाँ की बहुत सी सुविधाओं का लाभ भी उठाती हूँ। लेकिन एक बात जिसकी मैं भारत में कल्पना तक नहीं कर सकती वो है किसी पुरुष के साथ के बिना भी अकेले घूम सकना और पूरी तरह सुरक्षित महसूस करना। हम अपने विविध राज्यों की तुलना तो कर सकते हैं कि कहाँ महिलाएँ अपेक्षाकृत कम असुरक्षित हैं लेकिन सीना ठोक कर ये नहीं कह सकते कि अधिकतर स्थानों में सुरक्षित हैं। भारत में जो जापानी नागरिक रह रहे हैं और जापान में जितने भारतीय हैं उन सबकी यही कोशिश रहती है कि दोनों देशों के बीच सम्बन्ध और प्रगाढ़ होते रहें। इसी उद्देश्य से हम लोग अपने-अपने अनुभव भी साझा करते हैं कि परस्पर पर्यटन को बढ़ावा मिले और एक देश की विशेषता से दूसरे देश के नागरिक अवगत हो सकें। शायद यही वजह है कि तमाम सामरिक कूटनीतियों में जन का जन से सम्पर्क विशेष महत्व रखता है। जापान से जब भी मेरी कोई परिचित भारत घूमने जाने की इच्छा व्यक्त करती है तब तमाम गर्व के साथ और देश की ख़ूबियों व विविधताओं के बखान के साथ, अपनी सांस्कृतिक धरोहर की बात करते समय या फिर उसकी रुचियों के अनुकूल उपयुक्त शहर का नाम बताते समय एक बात ज़रूर कहनी पड़ती है कि अपना ध्यान रखना, किसी अन्जान व्यक्ति के साथ कहीं बाहर मत जाना, लगातार फ़ोन करती रहना वगैरह वगैरह...पता नहीं क्यों दिल किसी आशंका से भर जाता है।
नीलम मलकानिया रेडियो जापान जापानी पर्यटक से रेप

नीलम मलकानिया

रेडियो के विदेश प्रसारण प्रभाग में कार्यरत जापान में रह रही नीलम मलकानिया रेडियो जापान की हिन्दी सेवा में कार्यरत हैं।

16 अक्तूबर 1980 को पंजाब में जन्मी नीलम दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक व हिन्दी साहित्य व रंगमंच में स्नातकोत्तर हैं और कॉलेज के समय से पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतन्त्र लेखन करती रही हैं। दिल्ली व मुंबई में कई नाटकों के मंचन में मंच पर और मंच-परे सक्रिय भूमिका निभाने वाली नीलम इग्नू से रेडियो लेखन में डिप्लोमाधारी भी हैं। ऑल इण्डिया रेडियो के नाटक एकांश में रांगेय राघव, सत्यजीत रे, रवीन्द्र नाथ ठाकुर की रचनाओं का रेडियो नाट्य रूपान्तरण पेश कर चुकी नीलम एक 'बी हाई ग्रेड' की कलाकार हैं। हिन्दी, उर्दू और पंजाबी सहित पाँच भाषाओं में कई धारावाहिकों की डबिंग करने वाली हंसमुख स्वभाव की नीलम लगभग चार सालों तक FM Gold में प्रेज़ेन्टर रही हैं साथ ही कई टेलिविज़न धारावाहिकों में अभिनय तथा धारावाहिकों का लेखन भी करती रही हैं। । कई मंचों पर स्वरचित कविताओं का पाठ कर वाहवाही बटोरने वाली नीलम इन दिनों एक किताब पर और एक फ़िल्म की कहानी पर काम कर रही हैं लेकिन बहुत पूछने पर भी इस बारे में अभी कुछ ज्यादा बताने को राज़ी नहीं हुईं... हमारी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं नीलम।

ईमेल: meriawaazsuno16@gmail.com
फोन : +81-80-8474-1413
... बहुत पहले मेरी एक जापानी सहेली ने बताया था कि भारत में एक ऑटोड्राइवर ने उसके साथ बदतमीज़ी की थी और वो कुछ ना कर सकी... कत्थक सीखने जापान से भारत गई एक लड़की ने कहा था कि शायद ये छेड़खानी भारत की संस्कृति का हिस्सा है... नीदरलैंड की मेरी एक प्रौढ़ परिचित जब भारत में रह रही थीं तब एक आदमी रोज़ उनका पीछा करता था....पिछले दिनों रोमेनिया की एक लड़की ने भारत-भ्रमण के दौरान सहेजे अपने अनुभव साझा किए और कुछ बताते-बताते रुक गई। जो उसने नहीं बताया उससे मैं भारतीय `लड़की` होने के नाते अच्छी तरह परिचित हूँ। मुझे लगता है कि हर भारतवासी जब देश से बाहर जाता है तो ख़ुशी से चमकती उसकी आँखों में ये सपना भी होता है कि काश!हमारा देश भी ऐसा बन जाए। मन में सवाल उठते हैं कि कब हम अपने हर संसाधन का सही इस्तेमाल करके अपने अवसरों का दोहन इस तरह करेंगे कि आर्थिक कारण हमें अपना देश छोड़ने को मजबूर ना करें। देश से बाहर पैर निकले तो बस पर्यटन के प्रयोजन से। बहुत सी आँखें ये सपना देख रहीं हैं और उम्मीद है कि कभी न कभी ये पूरा भी होगा। पूरी दुनिया किसी ना किसी वजह से भारत पर नज़र लगाए है, भले ही हमसे कोई द्विपक्षीय व्यापार ना कर रहा हो और भले ही हमारी विदेश नीति में उसका कोई विशेष महत्व ना हो लेकिन भारत आज अपने आंतरिक और विदेशी मसलों में एक ऐसे महत्वपूर्ण मोड़ से गुज़र रहा है कि सबकी निगाह तो है ही हम पर। हम अपने घर में बैठकर कितनी भी बुराई करें अपनी लेकिन जब ये बुराई सीमाएँ लाँघकर बाहर निकलती है तब उसकी चुभन बढ़ जाती है। बुराई तो सड़े हुए पानी सी है, हम उसे ढक तो सकते हैं लेकिन उसकी सडाँध का क्या करेंगे? ये वही देश है जिसके मूल में यत्र नारी पुज्यते, रमंते तत्र देवता का भाव है। ये वही देश है जो नवरात्रि में भक्तिभाव से भर जाता है। ये वही देश है जिसके हर उच्च पद पर महिला रही है और आज भी है, ये वही देश है जो अपने जनसांख्यिकी आँकड़ो के हिसाब से अब सबसे युवा देश होने का अपार लाभ उठाने जा रहा है। भारतीय मानसिकता महिलाओं के मामले में देवी से दासी के बीच ही झूलती रहती है। सखा भाव या सहयोगी भाव कितना दुर्लभ बना दिया गया है। अपने देश के प्रति सम्मान का भाव रखते हुए भी और देश-प्रेम से लबरेज़ होते हुए भी मुझे बहुत दुख से कहना पड़ रहा है कि भारतीय समुदाय के कुछ हिस्से अपनी तमाम सम्पन्नाताओं के बावजूद एक बात में बहुत ग़रीब हैं और वो है महिलाओं के प्रति सम्मान का भाव।.....

कहानी: लाल डोरा - महेन्द्र भीष्म

कहानी

लाल डोरा

महेन्द्र भीष्म


लोगों में दहशत व्याप्त थी । यह दहशत किसी प्राकृतिक आपदा की पूर्व चेतावनी वाली नहीं थी जिसे मौसम वैज्ञानिक रेडियो, टेलीविजन के माध्यम से आमजन की जान–माल की सलामती के लिए दिया करते हैं ।

विजन 2021 के तहत देहली महानगर के व्यवस्थापन एवं सुन्दरीकरण के लिए बनाई गयी महायोजना के अंतर्गत शहर की मुख्य सड़कें चैड़ी की जा रही थीं । आसपास के गांवों को एम०सी०डी० यानी म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन ऑफ डेलही की परिधि में विशेषज्ञ समिति लाल डोरा की अनुशंसा से जोड़ा जा रहा था । मजदूर, ठेकेदार, इंजीनियर आक्रमणकारी फौज की तरह कुदाल, बेलचा, हथौड़ा, फावड़ा हाथों में लिए और पैटन टैंकों व तोपों की भांति बुलडोजर, जे०सी०बी० के साथ शहर की मुख्य सड़क पर आ डटे थे । सड़क पर लोगों का हुजूम उतर आया था । चारों ओर शोरगुल बढ़ रहा था ।
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महेन्द्र भीष्म

संयुक्त रजिस्ट्रार, प्रधान पीठ सचिव उच्च न्यायालय इलाहाबाद, लखनऊ पीठ, लखनऊ

संपर्क: +Mahendra Bhishma
ईमेल: mahendrabhishma@gmail.com
मोबाईल: +91-8004905043, +91-9455121443

स्थानीय लोगों के सम्भावित विरोध को मद्देनजर रखते हुए शान्ति व्यवस्था भंग न हो, इसलिए पर्याप्त पुलिस बल की तैनाती भी प्रशासन द्वारा कर दी गयी थी ।

यह मानव स्वभाव ही है कि परिजन की हत्या से भी बढ़कर दारुण दु:ख, क्लेश सम्पत्ति के अपहरण या नष्ट होने पर होता है । वर्षों की जमा पूंजी जोड़कर बनाई दुकान या मकान जब ताश के पत्तों की तरह ढहने के करीब हो, तब उसके स्वामी की क्या हालत हो सकती है, यह तो कोई भुक्तभोगी ही महसूस कर सकता है ।

सड़क के चैड़ीकरण में कइयों का तो पूरा सूपड़ा ही साफ हो रहा था । नीचे दुकान, ऊपर मकान दोनों लाल डोरा की जद में आ गये थे, इंच भर जमीन भी नहीं बच पा रही थी । उन बेचारों का दिमाग काम नहीं कर रहा था, दिल बैठा जा रहा था तो दूसरी ओर जिनके मकान लाल डोरा की जद से बचे हुए थे, उनके भवन स्वामियों की बांछें खिल आई थीं । वर्षों से अपने भाग्य को कोसते और पड़ोसी के भाग्य पर ईर्ष्या करते ऐसे लोग आज मन ही मन बहुत खुश हो रहे थे । कई एक ने तो अपने–अपने मकान में दुकान, रेस्टोरेंट होटल तक के नक्शे तैयार करा लिए थे । दूसरों की अवनति के बावजूद खुद की प्रगति होने की उम्मीद मात्र से मानव प्रफुल्लित हो उठता है । जैसे कुछ लोगों को अपने घर में जन्मे बच्चे की अपार खुशी होती है और दूसरे के घर में मृत बच्चा पैदा होने पर कोई दु:ख नहीं होता, ठीक इसी तरह की स्थिति आज शहर की इस प्रमुख सड़क के दोनों ओर बसे बाशिन्दों की थी । वे बड़े खुश थे जिनके मकान लाल डोरा की निशानदेही से बचे थे और अब उनके मकान सड़क के ठीक सामने आ जाने वाले थे, वहीं दूसरी ओर जिनकी दुकान–मकान सब ध्वस्त हो जाने वाले थे, उनके हृदय की धड़कन पल–प्रतिपल बढ़ती जा रही थी । मारे घबराहट के उन बेचारों को कुछ सुझाई नहीं दे रहा था, कोर्ट ने स्थगनादेश देने से मना कर दिया था । बचाव के सारे प्रयास निष्फल हो चुके थे । धूमिल आशाएं धुएं की तरह तिरोहित हो चुकी थीं । उम्मीद जब तक रहती है, व्यक्ति में ढाढ़स बंधा रहता है, उम्मीद के टूटते ही सब कुछ खत्म हो जाता है ।

वयोवृद्ध राजिन्दर खन्ना छियहत्तर साल के होने जा रहे थे । विभाजन के समय वह दसेक वर्ष के किशोर थे । तीन बहनों के बाद वह अपने माता–पिता की अंतिम सन्तान थे । अपना सर्वस्व साम्प्रदायिकता की आग में झोंकते दंगा–फसाद से बचते–बचाते, जब वह इस शहर में पहुंचा था, तब वह अपने माता–पिता के साथ अकेला ही था । तीनों बड़ी बहनों को उसके एवज में वहीं पाकिस्तान में रोक लिया गया था । उसके प्राण बख्श दिए गये थे, ऐसा बहुत सालों बाद मां ने उसे मरते वक्त बताया था ।

बड़ी, पापड़, अचार का व्यवसाय उसके पिता ने शुरू किया था । मां बनाती, किराने की दुकानों में बेच आते, आदेश लेते, शादी–ब्याह या जन्मदिन की पार्टियों के लिए विशेष रूप से अचार आदि की आपूर्ति करते । दो पैसे खर्च करते, दो पैसे बचा लेते । शनै:–शनै: परिश्रम रंग लाया, धन्धे ने तेजी पकड़ी । शरणार्थी कैम्प से निकलकर एक छोटा–सा घर किराये पर ले लिया । कुछ वर्ष बीते और मुख्य सड़क से लगे इस मकान को खरीद लिया । पापाजी के स्वर्गवासी होने तक उसने अपने दोनों बेटों को अचार के धन्धे में अपने साथ मदद में ले लिया । इकलौती बेटी की शादी कर दी । दोनों बेटों ने मकान के नीचे के हिस्से को आधुनिक दुकान का रूप दे दिया था । शोरूम में कांच के पारदर्शी खिड़की–दरवाजे लग गये । कंप्यूटर से बिल निकलने लगा । शोकेस में नाना प्रकार के अचार कांच के पारदर्शी कनटेनरों में रखे जाते । शहर के तीन सितारा व पांच सितारा होटलों तक में उनके यहां का बना अचार पहुंचाया जाने लगा । अचार की मांग बढ़ी तो कर्मचारी बढ़े और रुपये–पैसों की आमदनी भी ।

राजिन्दर खन्ना नियमित शोरूम में जाते, निर्धारित स्थान पर बैठते और दुकान में चल रही गतिविधियों को देख मन ही मन खुश होते । दोनों स्वस्थ बेटों के प्रसन्न चेहरे देख उनका दिल बाग–बाग हो उठता । ईश्वर का दिया सब कुछ था उनके पास आज्ञाकारी दोनों पुत्र, सेवाभाव से परिपूर्ण संस्कारित बहुएं, धर्मपरायण धर्मपत्नी, समृद्ध घर–परिवार में ब्याही बेटी, स्वस्थ नाती–पोते । वाहे गुरु की असीम अनुकम्पा उनके परिवार के ऊपर बरस रही थी । खुशहाल परिवार था उनका । दो वर्ष पहले पड़े हृदयाघात के बाद दोनों बेटे–बहुओं ने उनका विशेष खयाल रखना शुरू कर दिया था । कुछ भी ऐसा नहीं करने देते थे जो स्वास्थ्य के लिए घातक हो । उनकी दवा–दारू से लेकर खानपान की बारीकियों तक का ध्यान रखा जाने लगा था । सब कुछ ठीक चल रहा था । बच्चों की आत्मीयता–निकटता के अहसास मात्र से उनकी आत्मा गद्गद हो उठती थी । धर्मपत्नी के सेवा भाव के वह पहले से ही कायल थे, पर इन दिनों जो निकटता व प्यार उन्हें मिल रहा था, वह किसी भी औषधि से कहीं बढ़कर था ।

लाल डोरा’ ग्रहण बन आ चुका था राजिन्दर और उनके परिवार के ऊपर । एक बार फिर वे अपने ही घर से विस्थापित कर दिए जाने वाले थे । विस्थापन का दंश शूल बन चुभता ही नहीं, विध्वंस कर देता है मन और आत्मा दोनों को । तिनका–तिनका जोड़कर जिस घर, जिस दुकान को उन्होंने बनाया था, वह नेस्तनाबूद हो जाने वाले थे । लाल डोरा की जद में आ चुका था उनका मकान । पड़ोसी रहमत जो कभी मुंह उठाकर देखता भी नहीं था उनकी ओर, सुबह से तीन बार चाय के लिए पूछ गया था । दिखावटी प्रेम भला कहां छुपता है, हां दिल की खुशी छुपाए नहीं छुपती जो इन दिनों उनके पड़ोसी रहमत को हो रही थी । पड़ोसी रहमत बाहर से तो उनके प्रति दु:ख–संवेदना का इजहार करता थकता नहीं था, पर कहीं दिल के किसी कोने से जो प्रसन्नता की बयार उसके बहती, वह राजिन्दर को महसूस हो ही जाती । आखिर उनके पराभाव के बाद ही उसके दिन जो फिरने वाले थे । इतना हिमायती है तो क्यों नहीं कहता, “कोई बात नहीं खन्ना साहब । आप हमारे मकान के नीचे वाले हिस्से में वैसा ही शोरूम बना लीजिए और दूसरे हिस्से में रहिए ।” और मनचाहा किराया पाता, पर ऐसा भला वह क्यों करने चला था । अब तो उसका मकान मुख्य सड़क पर आ जाने वाला था । वह अपना धन्धा बढ़ाएगा, अपनी दुकान खोलेगा, उन्हें भला क्यों पूछने चला ?

दोनों बेटों की मनोदशा देख और दुखी हो जाते राजिन्दर खन्ना । एक पिता अपने बेटे को कभी दुखी नहीं देखना चाहता, वह उसे पराजित होते नहीं देख सकता । यहां उनके दोनों बेटे दु:ख और पराजय से जूझ रहे थे । भयानक शून्य उनके सामने आ खड़ा हुआ था । कल शाम से उठे सीने के दर्द को वह छुपाए हुए थे । कैसे बतलाएं वह अपनी परेशानी । इस समय शारीरिक कष्ट से ज्यादा मानसिक सन्ताप से सभी घरवाले दो–चार हो रहे थे ।

सुबह से ही रहमत मियां के मकान के नीचे वाले हिस्से में दुकान खाली कर सामान रखवाया जाने लगा था । कुछ दिन के लिए यह अस्थायी व्यवस्था की जा रही थी । घर का सारा सामान पहले ही पैक कर लिया गया था । सुबह का नाश्ता बहुओं ने तैयार कर लिया था ।

चाय–नाश्ते के पूर्व राजिन्दर ने दोनों बहुओं के सिर पर रोज की तरह हाथ रखा था, पर आज उनके हाथ कांप रहे थे । सुबह तड़के सीने में तेज दर्द उभरा था, उन्होंने सारबीट्रेट किसी को बताए बिना ली थी । आराम किया, यह बात उन्होंने किसी को नहीं बताई, फिर ऐसी परेशानी के समय तो वह कदापि बताने वाले नहीं थे । दोनों बेटे अपनी धर्मपत्नियों से कह रहे थे कि पापाजी का खयाल रखना और व्यस्त हो गये ।

नौकरों से उन्हें पता चल चुका था कि आज एम०सी०डी० वाले बुलडोजर चलाएंगे । उनके दोनों बेटे–बहुएं इस वक्त नौकरों सहित इसी में लगे थे कि जितना बच जाए, सुरक्षित कर लिया जाए । एम०सी०डी० वालों की पूर्व चेतावनी और मियाद कब की खत्म हो चुकी थी, पर उनकी तरह सभी को लग रहा था शायद अंत तक कोई रास्ता निकल आए, शायद उनकी दुकानें, उनके मकान टूटने से बच जाएं । शायद...और अब तो कोई चारा नहीं थाय सिवाय इसके कि जो बचा सको, वह बचा लो, बाकी अपनी आंखों के सामने ध्वस्त होते देखते रहो । यही नियति बना दी थी नीति नियंताओं ने जो इस वक्त की दशा और पीड़ितों की मनोदशा से कोसों दूर अपने वातानुकूलित कक्षों में चाय सिप कर रहे होंगे या मीटिंगों में मशगूल होंगे ।

तेज खनखनाहट की आवाज हुई, रजिन्दर जी से रहा नहीं गया, पास से गुजरते एक नौकर से पूछ ही लिया, “क्या हुआ ? यह भयानक आवाज कैसी ?” “पापाजी एम०सी०डी० का बुलडोर दुकान ढहा रहा है । दुकान की सामने की कांच की दीवार गिरी है, उसकी आवाज थी...”

नौकर चला गया । कितनी मोटी कांच की दीवार थी आर–पार साफ–साफ दिखता था । बड़े बेटे ने बताया था, ‘पापा यह दीवार कांच की जरूर है, पर होती बहुत मजबूत है, बुलडोजर से ही टूट सकती है ।’ और आज वह बुलडोजर से ही टूट रही है ।

एम०सी०डी० के मजदूरों के घन चलाने की आवाजें आनी शुरू हो चुकी थीं । अपने कमरे में लेटे राजिन्दर खन्ना के सीने में तेज दर्द उभरा, उन्होंने स्टूल पर रखे दवा के डिब्बे की ओर हाथ बढ़ाया, तभी तेज भड़भड़ाकर कुछ गिरने की आवाज उनके कानों में सुनाई दी । सब कुछ बिखरता जा रहा था । वे दवा की डिब्बी से सारबीट्रेट निकाल नहीं पाए, घन की पड़ती कर्कश चोटें एकाएक उन्हें अपने सीने पर पड़ती महसूस हुर्इं, कुछ पल बाद वह संज्ञाशून्य हो गये, उनकी निस्तेज खुली आंखों की दृष्टि कमरे की छत पर अटक कर रह गयी । घन, बुलडोजर के साथ लोगों की तेज होती आवाजें समवेत रूप से चहुं ओर गूंज रही थीं, पर इन सबसे परे राजिन्दर खन्ना देह त्याग चुके थे, त्रासदियों से दूर, भव बाधाओं से मुक्त वे अनन्त गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर चुके थे ।

जब तक देह में प्राण हैं, सारे सरोकार उसके साथ जुड़े हैं । देह से प्राण के जाते ही देह मिट्टी हो जाती है और अपने ही लोगों में मिट्टी को मिट्टी में मिला दिए जाने की उतावली बलवती होने लगती है ।

तुम भी हमारी तरह कब्र में रहते हो - प्रेम भारद्वाज

कुछ रोज़ पहले हतप्रभ था कि लोग बीते दिनों आसाम में हुई हत्याओं की तुलना पेशावर में हुई बच्चों की हत्या से अजीब ढंग से कर रहे थे, समझ नहीं आया कि क्या कहना/बताना/सीखाना चाह रहे थे.... क्या अब संवेदनशीलता इतनी सेलेक्टिव हो गयी है ???

मुझे प्रेम भारद्वाज सरीखा संवेदनशील संपादक दूसरा नहीं दीखता. ये तो नहीं पता कि अच्छे संपादक में क्या-क्या गुण होने चाहियें लेकिन इतना पता है कि संवेदनशीलता और मनुष्यता दैरेक्ट्ली प्रपोर्श्नल हैं...

पेशावर में हुए निर्मम हत्याकांड जिसमे बच्चों को निशाना बनाया गया उस पर उन्होंने जो बाते लिखी हैं वो भीतर तक झकझोरती हैं.... ...............

भरत तिवारी



मुझे अफसोस है कि जिनके बारे में ‘कागद कारे’ कर रहा हूं, वे शायद ही इन्हें पढ़ पाएं...प्रेम भारद्वाज

प्लीज... कब्र से घर ले चलो अंकल! 

(प्लीज, इसे हॉरर फिल्मों के दृश्यों से न जोड़ें, जादुई यथार्थवाद से तो कतई नहीं...) 

   बच्चे बहुत दिनों तक जीवित रह सकते हैं 
   अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें 
   भूख से 
   महामारी से 
   बाढ़ से और गोलियों से मारते हैं आप उन्हें 
   बच्चों को मारने वाले आप लोग! 
   एक दिन पूरे संसार से बाहर निकाल दिए जाएंगे 
   बच्चों को मारने वाले शासको! 
   सावधान! 
   एक दिन आपको बर्फ में फेंक दिया जाएगा 
   जहां आप लोग गलते हुए मरेंगे 
   और आपकी बंदूकें भी बर्फ में गल जाएंगी 
                                    [आलोकधन्वा]


तुम भी हमारी तरह कब्र में रहते हो 
प्रेम भारद्वाज




उन्होंने कहा- गुलाब पर लिखो, जिंदगी खुशी का फूल बन जाएगी। उन्होंने फिर कहा- अपनी कहानी का अंत सुखांत करो, सुखी हो जाओगे। एक बार और दोहराया- बेहद हौलनाक अंधेरा है तुम्हारे हर्फों में, उजाले भरो इनमें। फिर-फिर कहा- आप खुद को उदासी की खोह में छिपाने के लिए बहाने ढूंढ़ते हैं और आपको मिल भी जाते हैं... अगर आपका घर कब्र में तब्दील हो गया है तो अपने हालात के लिए आप खुद जिम्मेदार हैं... दिसंबर को जनवरी बनाओ। कांटो को फूल। अंधेरे को उजाला। गम को खुशी। मैं ऐसा ही करने को आगे बढ़ा कि गोलियों की बौछार हो गई... फूलों का बगीचा कब्रिस्तान बन गया। पेशावर से पूर्वोत्तर तक लाशें ही लाशें। दिसंबर को जनवरी बनाने की मेरी कोशिश कैसे लहूलुहान हो गई, इसे जरा आप भी देख और महसूस कर लीजिए, बशर्ते कि आपके पास थोड़ा-सा वक्त हो और अपना मूड खराब करने की कूवत भी। 

सर्द स्याह रात की हाड़ कंपा देने वाली ठंड। बाहर धुंध। भीतर धुंआ। सब कुछ को गर्क करता माहौल। रघुवीर सहाय की कविता ‘रामदास’ पढ़ते और रजाई की गर्माहट में खुद को खुशनुमा महसूस करते लगा कि यही वक्त है पेशावर में मारे गए बच्चों पर संपादकीय लिख ही डाला जाए। कलम उठाया ही था, पहला शब्द लिखने ही जा रहा था कि दरवाजे पर बहुत तेज दस्तक हुई। दरवाजा खोलते ही सामने का दृश्य देखकर दंग रह गया... 

-क्या अंकल... सबकी तरह तुम भी घर में रहकर कब्र के बारे में लिख रहे हो? 

-तुम्हारा चेहरा उन अंकल से मिलता है जिन्होंने हमें मारा... और उनका हमारे अब्बा से। 

-वहां कब्र में दम घुटता है, बहुत अंधेरा है... अंधेरे से बहुत डर लगता अंकल, इसलिए वहां से हम भाग आए हैं। 

-वहां बहुत सर्दी है... प्लीज अंकल हमें रजाई में अपने साथ सुला लो न... 

-हमें बहुत भूख लगी है... कुछ खाने को दो न...! 

-हमने बहुत से दरवाजों पर दस्तक दी... कोई नहीं खुला। कुछ ने खोलकर झटाक से बंद कर लिया... वे हमें प्रेत समझ रहे हैं... जो बच्चे सारी दुनिया से डरते हैं, उनसे भी कोई डरता है क्या... 

-हमें पनाह चाहिए अंकल! 

मैं दरवाजे से अलग हट जाता हूं। खून से लथपथ वे तमाम बच्चे इस अंदाज में घर में दाखिल हो जाते हैं जैसे स्कूल से भूखे-प्यासे घर लौटे हों। घर का आकार जादुई तरीके से बढ़ गया। बच्चे सबसे पहले किचेन में गए जिसको जो भी मिला खाने लगा... यह देखकर ऐसी खुशी मिली जिसे शायद मैं जिंदगी में पहली बार महसूस कर रहा था। वे मेरी रजाई में दुबक जाते हैं, मुझे भी साथ लेकर। मैं चुप हूं। वे बेचैन... -अंकल हर महीने तो लिखते हो अलग-अलग विषयों पर। इस बार हम पर लिखो न... हम बोलेंगे, तुम सुनना... हम बच्चों की कोई नहीं सुनता... तुम सुन लो...। 

मैं सुन रहा था। मुझे सुनना था। मैं सुनना चाहता था उन आवाजों को जिसे सादियों से अनसुना किया जाता रहा है। 

-अंकल, क्या तुम बता सकते हो? हमें हर जगह हर बार क्यों मारा जाता है? 

-अरे बुद्धू, मारने वालों में कोई भी आंटी नहीं थी न, इसीलिए हम मारे गए। अगर होती तो हम बच जाते। आंटी को अपना बच्चा याद आ जाता जो हमारी ही तरह का होता... आंटियां औरत होती हैं न। टीचर ने सिखाया था कि औरतें जन्म देना जानती हैं, मारने का काम मर्द करता है... औरतें तो हमेशा बचाती हैं- धन, इज्जत, मर्यादा, इंसानियत और दुनिया भी। 

-मैं ऐसा नहीं कह सकती दोस्त... मेरी तरफ इतनी हैरानी से मत देखो... तुमको सिर्फ मेरी आवाज सुनाई देगी... चेहरा या आकार नहीं क्योंकि मैं भ्रूण हूं... मैं जब अपनी मां के पेट में थी तो मुझे चौथे महीने ही खत्म कर दिया गया... मुझे खत्म मान लिया गया... मैं नहीं हूं, मगर मैं हूं... और नहीं होकर भी होना या होकर भी नहीं होना मेरा अभिशाप है... मेरा अपराध इतना भर था कि मैं मादा भ्रूण थी, पैदा होकर लड़की बनती तो स्त्री हो जाती... मेरी मां को बेटी ही चाहिए थी... बड़ी लालसा थी उसकी, अभी वह 45 साल की है। लेकिन वह लालसा खत्म नहीं हुई है। उसको आज भी पछतावा है कि मेरे पिता और अपने पति के कहने पर वह क्यों जननी से हत्यारिन बन गई। वह खुद को मेरी हत्यारिन मानती है। पिता समझाते हैं कि तब पैसे की कमी थी... मैं पिता को नहीं समझा पाई कि क्या गरीबों के घर बेटियां जन्म नहीं लेती हैं, क्यों मुझे बोझ मान लिया गया... क्या ले लेती मैं- गोद में बित्ता भर जगह। अंजुरी भर दूध। कुल्ला भर पानी मैं अलग से अपने लिए कोई जगह भी तो नहीं घेरती। मां के वजूद और उसके स्नेह में मिसरी की तरह घुल जाती। पानी में घुल गई मिसरी की मिठास को फिर पानी से अलग करने की पीड़ा, पानी और मिसरी के लिए कितनी यातनादायक होती है, इसे मेरी मां जानती है जो होकर भी नहीं है और मैं जो नहीं होकर भी हूं। उसके गर्भ, उसके दिल, दिमाग, नमकीन आंसुओं, हर वक्त धमनियों में बहते खून में मैं खुद को आकार लेते देखना चाहती थी अंकल, देख न सकी... चाहती थी लोग मुझे देखें, मेरी मां मुझे देखे... देखना चाहती थी कि वह मुझे जन्म देने के बाद पहली बार मुझे कैसे देखती है। उसकी आंखों में तैरते प्यार को देखने की तमन्ना थी... मां समझती है कि मैं मर गई, लेकिन मैं हूं। अंकल तुम उसे इतना बता देना कि वह मेरी हत्यारिन नहीं है। मैं तो मरी ही नहीं। उसके सीने से मेरी हत्या का बोझ हट जाएगा, जो उसके रातों को उसे सोने नहीं देता। दिन में चैन से जीने नहीं देता। 

-हमें दंगे में इसलिए मार दिया गया क्योंकि हम मुसलमान के बच्चे थे। हमें तो हिंदू-मुसलमान, मंदिर-मस्जिद, भगवान-खुदा का फर्क भी समझ में नहीं आता... क्या मुसलमान होना खराब बात है अंकल? 

-हमें बिहार के जातीय नरसंहार में बेरहमी से कत्ल किया गया क्योंकि हम दलित घर में जन्मे थे... हमें पेट में ही इसलिए नष्ट कर दिया गया क्योंकि उनको डर था कि हम जन्म लेकर नक्सली बनेंगे... ये नक्सली क्या होता है अंकल? 

-हमारे कंधों पर हथियारों का बोझ है... खिलौने से खेलने वाले दिनों में हम पर कभी काम का बोझ तो कभी एके-47 का... हम हर जगह हैं अंकल... फुटपाथ पर भीख मांगते... चाय की दूकान, होटलों में बर्तन धोते... चोरी करते... राहत शिविरों में जन्म लेते, निठारी में दरिंदगी का शिकार बनते। गाली सुनते, गाली देते। हम गरीब बच्चे हैं, काले हैं... दलित हैं... इसलिए इस धरती का एक नरक कोना हमारे लिए सदा से ही सुरक्षित रहता है...। 

-हमें खरीदा और बेचा जाता है... हम ‘चीज’ हैं... हम अनाथालयों में अपनी बदनसीबी के साथ हैं। जेलों में सजा भुगत रहे हैं मां के संग। हम कभी जायज हैं, कभी नाजायज। नाजायज औलाद क्या होती है अंकल? 

-हमारी गर्दन कबूतर की गर्दन से भी नाजुक और कमजोर है... हम कमजोर गर्दन भर हैं अंकल, जिसे कभी भी कोई मरोड़कर, छुरी से काट डालता है। 

-जब बड़ा हो जाना हत्यारा हो जाना है तो हे ईश्वर मेरे साथ इस वक्त दुनिया के किसी भी बच्चे को कभी बड़ा मत होने देना। 

-वह कौन सा अदृश्य तीर है जिसके निशाने पर इस दुनिया का हर बच्चा है... तीर लिए हुए वह पुरुष कौन है... 

... 

बच्चे अब खामोश हो गए हैं। उनकी खामोशी खुशनुमा नहीं है। वे सबके सब सिसक रहे हैं। बेशक बात अतिशयोक्ति की परिधि में दाखिल हो सकती है। लेकिन मुझे ऐसा लगता है तो मैंने मान लिया है, मानने की माकूल वजह भी जरूर होगी जिसे फिलहाल तलाशने की फुर्सत नहीं है। बच्चों की बर्बर हत्याओं पर लिखना एक असहनीय दर्द से गुजरने के साथ-साथ एक बार फिर से मरे बच्चों को मारने सरीखा है। मेरे जैसे बहुत सारे पढ़ने-लिखने वाले लोग ऐसा करते हैं। इसे मजबूरी, पेशा कुछ भी नाम दे दीजिए, लेकिन है तो यह धंधेबाजी ही, संवेदना की सौदेबाजी ही। 

हमारा एक पैर सभ्यता तो दूसरा बर्बरता की जमीन पर टिका है। हम सभ्य और क्रूर एक साथ हैं। हम में से 90 फीसदी ईश्वर को मानते हैं। उसके सामने सजदे में झुककर इबादत-प्रार्थना करते हैं। बच्चों को ईश्वर का रूप भी मानते हैं। अजीब घालमेल है। जिसे खुदा मानते हैं, उसके ही सीने में खंजर उतार देना हमने कहां से सीखा? दुनिया में अब तक के इतिहास में जब कभी भी किसी बच्चे की हत्या हुई होगी। तब-तब सभ्यता और मनुष्यता के हलक से चीखें निकली होंगी। किसी भी बच्चे का निर्मम अंत हमारे ‘होने’ की हत्या है? 

नहीं समझ पाता हूं क्यों लोग मुस्कुराते हुए एक रूमानी शोक से भर जाते हैं। क्यों जख्म रिसकर एक नए जख्म को जन्म दे देता है। हमारे भीतर का बच्चा कब, कहां और क्यों गायब हो जाता है। हम कभी उसकी गुमशुदगी पर गमगीन-परेशान क्यों नहीं होते? बच्चे हमेशा ही बर्बरता की सलीब पर टंगे रहे। कुछ मोड़ और कुछ पड़ाव तो याद आ सकते हैं, लेकिन हर पल में लिपटा लहूलुहान बचपन न हमेशा दिखाई देता और न ही हम देखना चाहते हैं। 

अब हम उनकी मौत पर दो मिनट का मौन रखेंगे, मोमबत्ती जलाएंगे। गोष्ठियां करेंगे। लेख-संपादकीय लिखेंगे। टी.वी. पर चिंता करते दिखेंगे...? और फिर खामोशी। कुछ दिन बाद! हमारा मौन ही उनकी मौत की वजह है। मोमबत्ती घरों-दिलों में रोशन होनी चाहिए, सड़क पर लैंपपोस्ट की तल्ख रोशनी में नहीं। लेखन से पहले जीवन होना चाहिए। जीवन- सुंदर और सवंदेनशील। लेकिन जो चाहिए वह है नहीं। जो है वह भयावह है। अनुराग कश्यप की फिल्म ‘अगली’ की उस मासूम बच्ची की तरह ही इस देश में कई बच्चे मर-कट रहे हैं जिनकी तलाश में सब अपना स्कोर सेट कर रहे हैं। बच्ची अंततः दम तोड़ देती है। हमारा स्वार्थ ही बच्चों का हत्यारा है। उनके प्रति बेपरवाही ही बर्बरता। वे नर्म-नाजुक, कमजोर हैं। उन पर खंजर लटका है। उनको जिबह किया जाता है। गर्दन इसलिए भी काटी जाती है क्योंकि वहां कोई हड्डी नहीं होती। रघुवीर सहाय के ‘रामदास’ को मालूम था कि उसकी हत्या होगी। हत्यारे को मालूम था कि वह उसकी हत्या करने वाला है। समाज भी जान रहा था कि रामदास की हत्या होने जा रही है। लेकिन किसी ने इसका प्रतिरोध नहीं किया। न समाज ने, न खुद रामदास ने ही। जहां प्रतिरोध न हो वहां हत्या हमेशा ही सुलभ हो जाया करती है, जैसे हमारे समाज में बच्चों को मारना कबूतर को मारने से भी ज्यादा आसान हो गया है। वे नहीं जानते हैं कि मुस्कुराते बच्चे से सुंदर इस सृष्टि में कुछ भी नहीं। बच्चों की हत्या से भयावह इस ब्रह्मांड में कुछ और नहीं। 

मेरे भीतर का अंधकार रोशनी की चाहत में और अधिक गहरा हो गया है। उम्मीदों की वैशाखियों पर झूलती उदासी भी फिसलकर फिर से नीचे दर्द की घाटियों में जा पहुंची। फूल को छूने की चाहत में हाथ खून से रंग गए। नए साल के पहले दिन, पहली सुबह उसकी प्रथम किरण को मुट्ठी में भर लेने की तीव्र इच्छा बच्चों की चीत्कार में कहीं खो गई। 

मुझे अफसोस है कि जिनके बारे में ‘कागद कारे’ कर रहा हूं, वे शायद ही इन्हें पढ़ पाएं। इस अंकल की रजाई में गर्माहट पाने वाले उन तमाम बच्चों में कोई भी एक इन शब्दों के मरहम से राहत पा सके। ठीक उसी तरह जिस तरह प्रेमचंद के ‘कफन’ के घीसू-माधव तक वह कहानी आज भी नहीं पहुंची। मैं आगे कुछ और लिखना चाहता हूं कि सहसा एक बच्चा बोल पड़ा: 

-अंकल दो प्रार्थनाएं सुन लो। पहले यह कि तुम अंधेरे बंद कमरे में औरों की तरह केवल लिखते ही रहोगे या बाहर निकलकर हमारे लिए कुछ करोगे भी। बकियों की तरह तुम भी हमें एक विषय मानकर प्रतिष्ठा, नाम, इनाम बटोरना चाहते हो। प्लीज अपने प्रोफेसन के फ्रेम को तोड़कर कुछ करो क्योंकि तुम सबसे पहले इंसान हो। 

-अंकल, क्या तुम भी हमारी तरह कब्र में रहते हो, अंधेरे में जीते हों... अगर ऐसा है तो गलत है। तुम इस कब्र को घर में बदलो और प्लीज हमें कब्र के अंधेरे से निकालकर घर के उजाले और शोर में ले चलो...।

prem bhardwaj
editor pakhi 

विधवा कॉलोनी - स्वाति तिवारी

यह भोपाल के साथ, भोपाल गैस त्रासदी के साथ, स्वाति तिवारी जैसे लोगों का न के बराबर होना ही है जो पीड़ितों को अब तक न्याय नहीं मिला है. यही कारण है कि त्रासदी महज एक बरसी का रूप ले चुकी है, जिसे हर साल रस्मी तौर पर मना कर हम मान लेते हैं कि भाई हमको बहुत दुःख है !!!

स्वाति तिवारी से हो रही बातचीत के दरमियाँ उनके मुंह से तीसरी बार 'विधवा कॉलोनी' का नाम सुनकर, वो ख़ुशी जिस पर उन्हें बधाई देने के लिए फ़ोन किया था (शिवना सम्मान जो पत्रकारिता अथवा शोध पुस्तक हेतु प्रदान किया जाता है, वह साहित्यकार श्रीमती स्वाति तिवारी को उनकी सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित भोपाल गैस कांड पर लिखी गई बहुचर्चित पुस्तक ‘सवाल आज भी ज़िंदा है’ हेतु प्रदान किया जाएगा।) कहीं छुप गयी थी. 'विधवा कॉलोनी' शब्द सुनकर ही घोर पीड़ा हो रही थी सोचिये कि वहां रहने वालों का किस दौर से गुजरना पड़ा होगा, पड़ रहा होगा...

निःसंदेह भोपाल त्रासदी के पीड़ितों के साथ होते आये अन्याय को मिटाने के लिए स्वाति जी का आगे आना और उस पर लिखना उन साहित्यकारों, कलाधर्मियों को कहीं न कहीं कचोट रहा होगा जो भोपाल की महिमा का गान तो करते हैं लेकिन त्रासदी नहीं देख पाते. उम्मीद है कि वो जागेंगे.

स्वाति जी के शब्दों में "मैं भोपाल में रहती हूँ और साहित्यकार होने के नाते अपना फ़र्ज़ समझती हूँ - इस त्रासदी के बारे में लिखना" वो कहती हैं " पहली पीढ़ी की मृत्य हो गयी, दूसरी पीढ़ी पीड़ित ही रही और तीसरी ... तीसरी पैदा ही नहीं हुई ...."


आप शब्दांकन पाठकों के लिए ‘सवाल आज भी ज़िंदा है’ का अंश 'विधवा कॉलोनी' ...

भरत तिवारी

विधवा कॉलोनी

स्वाति तिवारी


 सुप्रसिद्ध साहित्यकार शरद जोशी का एक प्रसिद्ध व्यंग्य है-‘भोपाल एक क्रिया है।’ इसमें उन्होंने लिखा कि व्याकरण की दृष्टि से काफी वर्षों तक संज्ञा रहने के बाद भोपाल में सरकार यह दावे करती रही है कि शीघ्र यह नगर एक विशेषण में बदल जाएगा। भाषा में विशेष उपमाओं के लिए काम आएगा। वे ये हवा बांधते रहे कि यह क्रिया-विशेषण का क्षेत्र है, यहां जो कुछ होगा, क्रिया के गुणों का सूचक होगा। विशेष यह हो रहा था कि वहां सुरीले वाद्यों और जहरीली गैस को एक साथ स्वीकृति प्रदान की गई। ऐसा लगा कि व्याकरण में जो सम्बोधन ‘हां’, ‘ही’ और ‘है’ है, वे भोपाल में सर्वाधिक होंगे। कुछ वर्षों में आदमी कदरदान हो जाएगा और उसकी वे नसें फडक़नें लगेंगी, जो वर्षों से सुप्त रही हैं। शरदजी अगर आज होते तो वे खुद जान जाते कि व्याकरण का वह अध्याय आगे इसी गली में लिखा गया। व्याकरण में विशेषण भी होता है ना? तो भोपाल पर वह विशेषण भी लगा। जिस प्रक्रिया से भोपाल क्रिया हुआ, उसी क्रिया से भोपाल की एक कॉलोनी को विशेषण भी लगा ‘विधवा कॉलोनी’। विशेषण विशेषता बताता है। यहां विशेषता बना ‘वैधव्य।’

swati tiwari ki hindi sahitya kahani
 विधवा कॉलोनी एक बार फिर चर्चा में आई, जब मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने इसका नया नामकरण किया-जीवनज्योति कॉलोनी। वाह! २७ साल तक समाज के गाल पर एक जोरदार तमाचे की तरह जड़ा रहा वह नाम और किसी संस्था या सरकार का ध्यान इस पर नहीं गया। यह कैसा अपमानजनक नाम इसे दिया गया। दुनिया के किसी कोने में शायद इस नाम की कॉलोनी नहीं होगी, न होनी चाहिए। मुझे आश्चर्य है कि किसी महिला संगठन, किसी एनजीओ, किसी साहित्यकार, किसी लेखिका और क्लब ने इस पर सवाल नहीं उठाया। सबने स्वीकार किया। स्त्री विमर्श से जुड़ी किसी हस्ती ने औरतों की पीड़ा से, उसके मौन से या उसके आंसुओं से कोई सरोकार नहीं रखा। उनका विमर्श तो स्त्री की देह के व्याकरण से, देह के भूगोल से और उस भूगोल से आकार लेने वाली उत्तेजक मुद्राओं से ही हो जाता है। कई संगठन अक्सर फिल्मों और विज्ञापनों के अश्लील पोस्टरों पर अपना विरोध देश भर में जताते रहे हैं। भोपाल में भी समाज के इन स्वयंभू कर्णधारों की कमी नहीं है। लेकिन विधवा कॉलोनी पर किसी ने अपना प्रतीकात्मक विरोध भी दर्ज नहीं कराया। यह आश्चर्य की बात है। किसी के दिमाग में यह शब्द खटके क्यों नहीं? पता नहीं कितनी लेखिकाओं ने इस कॉलोनी का रुख किया होगा। अगर कोई गया होता तो शायद उसकी संवेदनाएं झंकृत भी होतीं। यह इतना बड़ा विषय था,  लेकिन आंखों से अछूता ही रहता आया। 

  समाजशास्त्री कहते हैं कि जिस प्रकार असत्य या अवैज्ञानिक होकर भी जात-पात भारतीय समाज व्यवस्था की एक जटिल-दारुण सच्चाई बनी, उसी प्रकार ‘विधवा’ की अवधारणा भी असत्य-अवैज्ञानिक और स्त्री के जीवन की एक अत्यन्त भयानक सामाजिक सच्चाई है, जो समाज के आधे हिस्से को सदियों से पीडि़त व आंतकित करती रही है। ‘वैधव्य’ एक काल्पनिक दुख है, जो स्त्री पर थोप कर उसे दुखी बने रहने को धर्म ठहराते हुए हमेशा के लिए बाध्य करता है।

 डॉ. अमत्र्य सेन ने एक जगह १९९१ की जनसंख्या के अनुसार ३.३ करोड़ विधवाओं के मौजूद रहने की बात कही थी, जो औरतों की आबादी का आठ प्रतिशत है। उनकी रिपोर्ट यह भी कहती है कि ६० वर्ष की उम्र पार करने पर ६३ प्रतिशत महिलाएं अकेली हो चुकी होती हैं और ७० वर्ष पार करने पर ८० प्रतिशत महिलाएं। पुनर्विवाह की आजादी और सामाजिक स्वीकार्यता के चलते सिर्फ ढाई फीसदी पुरुष ही विधुर जीवन जीते हुए पाए गए। महिलाओं की तादाद इससे तीन गुना से भी ज्यादा है। हम न तो औरतों को आश्रय दे सकते, न सामाजिक संरक्षण और न ही इज्जत। विधवा कॉलोनी इस बहस का सबसे कलंकित अध्याय है और हादसे के प्रभावितों के प्रति पूरी व्यवस्था व समाज का असली चेहरा भी उजागर करता है। क्या यह सामन्ती नजरिये से बनी कॉलोनी तो नहीं थी, जिसके चलते विधवा बेसहारा आश्रम, नारी निकेतन, नारी उद्धारगृह चलते हैं? जिनकी असलियतें अक्सर उजागर होती रही हैं।  

 इस कॉलोनी में रहने आईं औरतों के कष्ट यहीं खत्म नहीं हुए। छोटी सी चारदीवारी में अकेली और पुरुष सदस्यों के न होने से शहर के मवालियों और मनचलों के लिए यह बस्ती एक सॉफ्ट टारगेट भी बनी। शाम ढलते ही यहां आवारा लोगों की बेधडक़ आवक ने इज्जतदार घरों की मेहनतकश बेसहारा औरतों का जीना हराम कर दिया। ऐसा हो नहीं सकता कि स्थानीय पुलिस की जानकारियों में यह सब न रहा हो। लेकिन बसाहट के कुछ ही समय बाद यह एक बदनाम इलाका भी बन गया। अपनी इज्जत की खातिर एक युवती ने इस कॉलोनी से बाहर किराए का घर लिया। उसने बताया कि हालत यह हो गई थी कि सडक़ों पर से गुजरना मुश्किल हो गया था। लोग इस कॉलोनी में आईं औरतों को सिर्फ इस्तेमाल करना चाहते थे। आर्थिक रूप से कमजोर कुछ औरतों ने मजबूरी के चलते समझौते किए होंगे, लेकिन अधिकतर औरतें अच्छे घरों की थीं। उनके भाई, पिता या पति मारे गए थे। कमाई के जरिए नहीं थे। सिर्फ रहने का ठिकाना मिल गया था। इसलिए लोगों ने बेजा फायदा उठाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। लेकिन न तो किसी राजनीतिक पार्टी, न सामाजिक संगठन, न महिलाओं के समूह और न ही कानून के रखवालों ने इन औरतों के सम्मान के लिए कुछ किया। और यह सब दूरदराज के किसी इलाके में नहीं हो रहा था।

 यह नर्क राजधानी की नाक के नीचे रचा गया।  हालांकि जो समाज जीते-जी औरतों को डायन और कुलटा कहकर सरे बाजार नंगा घुमाता हो और आग के हवाले कर देता हो, जो समाज अपनी आधी आबादी को तहजीब का जामा पहनाकर परदे में डाल देता हो, वह कितना संवेदनशील होगा और कितनी इज्जत की परवाह करेगा, यह उम्मीद ही बेमानी है। और हमारी कानून-व्यवस्था खामोशी से यह सब देखती रही हो, वह क्या सख्त कदम उठाने का पौरुष रखती है? यह सब हमारी नपुंसक सोच के नतीजे हैं, जो औरतों के हिस्से में आए हैं।

अगर निराश्रित औरतों के प्रति हमारा रवैया मानवीय होता तो काशी और वृंदावन की गलियों में सिर घुटाए सफेद धोती में घूमती हजारों बेसहारा औरतों की जिंदगी ही दूसरी होती। लेकिन ऐसा नहीं है। रोंगटे खड़े हो जाते हैं ‘वॉटर’ के अन्तिम दृश्य में नन्ही चुहिया (बाल विधवा) की स्थिति को देखकर।  ‘वॉटर’ का तो जमकर विरोध हुआ था, लेकिन इन कुरीतियों को काटने के लिए कोई कर्मवीर सामने नहीं आया। दीपा मेहता ने तमाम विरोध के बावजूद फिल्म बनाई और औरतों के प्रति हमारी संवेदनहीनता को असल रूप में परदे पर पेश किया। जब विरोध के लिए कोई दलील नहीं बची तो कुछ स्वयंभू संगठन यह तर्क देते हुए भी सुने गए कि वॉटर में हिंदू औरतों को अतिरंजित करके पेश किया गया है। यह मकबूल फिदा हुसैन की उन विवादित पेंटिंग्स की तरह हैं, जिसमें उन्होंने हिंदु देवी-देवताओं को अश्लील ढंग से प्रस्तुत किया। तर्क यह आया कि आप मुस्लिमों की ऐसी ही कुरीतियों और उनके ऐतिहासिक व मजहबी किरदारों की यही तस्वीर पेश करने की हिम्मत दिखाइए! बेशक यह दलील खारिज करने के योग्य नहीं है। सच्चे लोकतंत्र में और अभिव्यक्ति की आजादी के सच्चे और संतुलित इस्तेमाल में समाज के हर पक्ष की असलियत उजागर होनी चाहिए, लेकिन इस आधार पर जो दिखाया गया, उसे खारिज करना भी एक शुतुरमुर्गी तर्क ही है।

ये औरतें सौभाग्य को गंवाकर इन घरों में आईं। वे अपनी जिंदगी बचने पर खुद को खुशनसीब कैसे मान सकती थीं?  वे समझ नहीं पाती हैं कि इस भाग्य पर रोएं या खुश हों? यह कॉलोनी वह है, जो नारीत्व के दुर्भाग्यपूर्ण मिथकों से बनी है। पर ये वे औरतें नहीं हैं जिन्हें धर्म, समाज, रूढिय़ां और साहित्य नारीत्व के मिथकों से प्रस्तुत करता है। ये गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर की ‘ओ वूमन! दाऊ आर्ट हाफ ड्रीम एण्ड हाफ रियेलिटी’ की रहस्यात्मक से आच्छादित औरतें भी नहीं हैं। ये जयशंकर प्रसाद की ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ वाली नारी भी नहीं हैं पर ये शायद मैथिलीशरण गुप्त की ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी’ की पात्र जरूर हैं। इसीलिए इन्हें बहुत स्पष्ट निर्लज्जता के साथ यहां बसाया गया। सुविख्यात चिंतक व लेखिका ‘सिमोन द बोउआर’ इस मनोवृत्ति को दुनिया की हर संस्कृति में पाती हैं। यह कॉलोनी सहानुभूति की जमीन पर सरकारी खैरात की शक्ल में खड़ी तो की गई, लेकिन लोक व्यवहार उस देश की तस्वीर से कतई मेल नहीं खाता, जिसमें हजारों सालों से यह दोहराया गया हो कि यत्र नारयस्तु पूजयंते रमंते तत्र देवता। शायद इसकी एक सच्चाई यह भी है कि चूंकि नारी हो यहां बहुत अपमानजनक हालातों में न सिर्फ बसाया गया, बल्कि जीने के लिए मजबूर भी किया गया इसलिए देवताओं ने भी बेरुखी अपनाए रखी। न इंसान अदब से पेश आए, न देवताओं ने ही सुध ली। 

चलिए इस अंतहीन बहस से बाहर आते हैं। सीधे कॉलोनी की मुख्य सडक़ पर नूरजहां के घर में दाखिल होते हैं।  मकान नम्बर ६०५ में 65 साल की यह औरत कहती है कि मैं जिस कॉलोनी में रहती आई हूं शायद ही वैसी कॉलोनी दुनिया में कहीं और हो। खुदा करे कहीं न हो। सुना है आपने, इसका नाम-विधवा कॉलोनी।

 नूरजहां हादसे में अपना सब कुछ गंवाकर बची हैं। दो हजार से ज्यादा उनके जैसी औरतों की बस्ती है यह। मरहूम अजीज मियां की बेगम नूरजहां कहती हैं कि किसने सोचा था एक रात के चन्द लम्हे जीवन से उसका नूर लूट कर बस नाम में जोड़े रखेंगे। मेरे हर सवाल पर नूरजहां यादों के एक तकलीफदेह सफर से लौट आती है। वह कुछ देर मुझे देखती है। शायद वह टटोलती है कि उसके दर्द की समझ मुझमें कितनी है, फिर बोलती है –एक पल को उसके चेहरे पर मुझे वही नरगिस लौटती दिखती है, जो एक शादीशुदा सुखी औरत के चेहरे पर दिखती है। कभी इसका अपना संसार था। नूरजहां और अजीज मियां की गृहस्थी। तीन मासूम बच्चे-हबीब और हनीफ और सबसे छोटी शाहजहां। पेशे से ड्रायवर अजीज मियां का यह रोज टूर पर जाने वाला पेशा था उनका। वे ड्रायवर थे। रोज सोचती थी आज टूर पर न जाएं और उस हादसे के बाद से सोचती रहती हूं काश वो टूर पर ही होते। पर जो खुदा को मंजूर होता है, वही होता है। उस रोज मौत ने ही उन्हें घर पर रोके रखा। वे कहीं नहीं गए।  सर्द रात थी पर हवा में बहती बेचैनी की वजह से रात दो बजे नींद टूटी। एक घन्टे के बाद हवा तीखी हुई, कुछ जलन हुई तो बाहर निकले। वहां का खौफनाक दृश्य...वो रुक गई बोलते-बोलते। लगा जैसे भीड़ में भटक गई है। अब किधर जाएं? बाहर अफरा-तफरी का आलम था। सर्द रात और एक ही तरफ भागते हुए लोग...जो रास्ते में गिर गया...वह फिर नहीं उठा। उसकी लाश ही उठी। अजीज मियां हादसे के दो महीने बाद खून की उल्टियाँ करते हुए एक कभी न खत्म होने वाले टूर पर चले गए। हनीफ के गुर्दे गैस से प्रभावित हो गए। कभी एक ख्वाब था दोनों का। अब यादें हैं उसकी। जद्दोजहद भरी जिन्दगी थी। माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी हमारी। जिन्दगी बहुत खुशगवार रही हो ऐसा भी नहीं था। गृहस्थी की खटपट में बच्चों की परवरिश बेहतर ढंग से कर पाएं कुछ बना पाएं उन्हें। पढ़ा लिखा कर बच्चों का जीवन संवारने की इच्छा थी। कोई आसमानी चाहतें नहीं थीं।  

  हादसे के बाद क्या? वे कहती हैं-हां घर मिला, मुआवजे का रुपया भी मिला। पर उसका क्या जो चला गया। बस कहिए एक छत है, जो आसरा है। हमारे एक बूढ़े बेसहारा भाई नसीर मियां भी साथ रहने यहीं आ गए। सूनी आंखों से ठंड की सांझ यह औरत सडक़ के पार देखकर कहती है, यूनियन कार्बाइड के पास से गुजरती हूं तो मेरे घाव हरे हो जाते हैं। दर्द की एक लहर पूरे वजूद को हिलाकर रख देती है। लाशों के ढेर और रात का कहर दिखने लगता है। कोई बुरा ख्वाब हो तो भूल जाओ, पर भोगी हुई हकीकत है तो भूल कैसे सकते हैं। खाली वक्त में सोच-विचार को कैसे रोक सकते हैं आप। खासतौर से तब जब ऐसे भयानक दौर से आपका गुजरना हुआ हो। एक रात में क्या कुछ बदल गया सब कुछ। 

विधवा कॉलोनी की एक और रहवासी। नाम कुछ भी मान लीजिए। वे बताती हैं कि यहां पर रहने में डर लगने लगा था। किसी को कहते हुए शर्म लगती थी कि हाउसिंग बोर्ड की विधवा कॉलोनी में रहते हैं। पिछले कुछ सालों में हादसे की सहानुभूति कम होती चली गयी है। लोग समझते हैं बस इन औरतों को तो पैसा चाहिए। कुछ मुआवजा मांगती रहती हैं और कुछ मुआवजा वसूलती हैं। आदमी मर गए थे तो गरीब जवान औरतें भी थीं। लोग पूरी बस्ती को ही रेड लाइट एरिया समझने लगे। मारते का हाथ पकड़ सकते हैं पर बोलते की जिव्हा कैसे पकड़ते? हमने सुना है। बड़ी ढिठाई से लोग औरतों से पूछते, क्यों विधवा कॉलोनी जा रही हो ‘धंधा’ करने? या  क्यों ‘धंधा’ करके आ रही हो? गैस के कहर से बचने के बाद यह जिल्लत भोगना अभी हमारी जिंदगी में बाकी था। साहित्यकार पाल क्लाडेल की पंक्तियाँ हैं-

   अस्सी वर्ष की आयु!
   न आंख बची
   न कान, न दांत,
   न पैर, न दिमाग
   और जब सब कुछ कह और कर चुके
   कितना विस्मयकारी है
   उनके बिना किसी का जीवन।

अध्ययन बताते हैं कि गरीब लड़कियों या औरतों को चंगुल में फंसाने के लिए देह व्यापार के दलाल या सेक्सवर्कर किस तरह के जाल फैलाते हैं। वे रुपयों का लालच देते हैं और यहां तक कि प्रेम प्रसंगों में उलझाकर भी अंधेरी गलियों में ढकेल देते हैं। बात भोपाल की इस कॉलोनी के संदर्भ में निकली जरूर है पर यह समस्या किसी एक कॉलोनी की नहीं है, यह एक व्यापक होती सामाजिक समस्या है। भूमंडलीकरण के तहत तेजी से पनपता-फैलता यौन व्यापार अब उद्योग में बदल चुका है। हाल में दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ खेलों के समय दुनिया भर की सेक्सवर्कर भी अपने कारोबार के लिए यहां पहुंची और देश के जागरूक संस्थाओं ने करीब एक लाख कंडोम शहर में रखवाए। हालांकि इन खबरों पर किन्हीं संस्कृतिवादियों के पेट में दर्द नहीं हुआ। 

प्रभा खेतान लिखती हैं कि औरतों के कमजोर तबके की तस्करी (ट्रेफिकिंग) में भी वृद्धि हुई है। इसके पीछे व्यावसायिक यौन शोषण बड़ी वजह है। देखा जाए तो यह श्रम का मात्र एक खतरनाक प्रकार ही नहीं, बल्कि हिंसक अपराध भी है। यह मानवता की बुनियादी धारणा का उपहास करता है तथा समाज के सर्वाधिक असुरक्षित सदस्यों को स्वतंत्रता तथा मान-मर्यादा से वंचित करता है। औरतों और लड़कियों के ट्रेफिकिंग के इन रूपों में हिंसा, धमकी, छल-कपट अथवा कर्ज के जरिए बंधक बनाकर श्रम शोषण के लिए औरतों की आवाजाही शामिल है।

आर्थिक उदारीकरण के नतीजे भयावक रूप में सामने आए हैं। यह सिर्फ भारत की नहीं एशिया की एक बड़ी व्याधि के रूप में उभर कर सामने आया है कि गरीबों की गरीबी बढ़ी है और दूसरी तरफ अमीर और ज्यादा अमीर हुए हैं।  भारत जैसे विकराल आबादी वाले देश में दो देश साफ नजर आने लगे हैं-भारत और इंडिया के बीच बढ़ी खाई पर बहस भी तेज हो रही है।  नवधनाढ्य इंडिया में औरतों के प्रति पुरुषों का यौन व्यवहार नई शक्ल ले रहा है। अब इन संपन्न इलाकों में औरतें गांव की मजबूर औरतों की तरह शोषण की शिकार भले ही न हों, लेकिन फैशनपरस्त माहौल में मजे करने की संस्कृति ने सीमाओं को नई शक्ल दे दी है। अधिक पैसा कमाने की चाह आसान समझौतों का रास्ता साफ कर रही है। स्कूल-कॉलेज में पढ़ रही लड़कियों को मिली आजादी पुरुष समाज के साथ उनके रिश्तों की नई बानगी पेश कर रही है। टेलीविजन और फिल्मों ने भी विपरीत लिंगों के बीच संबंधों में भूख का नया भूगोल रचा है। 

रोजगार की खातिर गांवों से पलायन करके शहरों में मजदूरी कर रहे परिवारों की औरतों का जीना अलग तरह के मुश्किल हालातों में हो रहा है। ठेकेदारों के चंगुल में उनकी भयावह जिंदगी की दास्तानें कभी पुलिस के रोजनामचे में नहीं आ पातीं। अक्सर देखा गया है कि मजबूरी देखकर महत्वाकाक्षांएं जगाई जाती हैं, बच्चों के प्रति, भाई-बहनों के प्रति उसकी संवेदनशीलता का लाभ लेकर दायित्वों और उनकी पूर्ति के शार्टकट रास्ते, सौंदर्य बोध और कई बार स्त्री की स्वयं की यौनेच्छा को उकसाया जाता है। इन समस्त अवधारणाओं और सिद्धांतों की सच्चाई विधवा कॉलोनी की बेबस औरतों ने भोगी है। यहां आकर बसने के बाद उनकी जिंदगी में संघर्ष का एक अलग अध्याय है। वे आपको बताएंगी कि उन्होंने क्या कुछ झेला। राजी-मर्जी से या मजबूरी के चलते। यहां गुजरा हुआ वक्त उनकी यादों में ठहरा हुआ है। हर औरत एक चलता फिरता उपन्यास है। उसकी जिंदगी में आए किरदारों के तरह-तरह के तजुर्बे आपको सुनने को मिलेंगे। कुलमिलाकर यह हमारे समाज की एक घृणित तस्वीर ही सामने लाते हैं।

वैज्ञानिक कहते हैं कि हमारे मस्तिष्क की अनंत गहराइयों में परफैक्ट मेमोरी की जबर्दस्त क्षमताएं हैं। स्मृतियों पर किया गया थोड़ा सा अभ्यास हमारी प्रतिभा को तराश देती है। वैज्ञानिक केवल परफैक्ट मेमोरी को तराशने की बात करते हैं। यह एक सकारात्मक वैज्ञानिक अवधारणा है। लेकिन दर्द से भरे दृश्यों की नींद हराम कर देने वाली हजारों स्मृतियां इन औरतों के जेहन में सालों से कौंधती रही हैं। यह सब भुलाने के लिए इनके लिए क्या अभ्यास होने चाहिए?  

   किसी को अपने मासूम बच्चे की आखिरी किलकारी याद आती है, कोई अपने भाइयों को मरते हुए सपनों में देखती है, किसी के पिता कराहते हुए दम तोड़ देते हैं, किसी के पति की लाचारी में हुई मौत उसे हर पल परेशान करती है, कोई अपने बेटे-बहुओं को खोने का गम ढो रही है...स्मृतियों यह सिलसिला अनंत है। मस्तिष्क से इन्हें लुप्त करने की कोई तकनीक किसी के पास नहीं है। ये यादें कभी भी ताजा हो जाती हैं। कोई पुरानी तस्वीर उन तारों को छेड़ देती है। कोई पुरानी चीज 27 साल पुराने दिनों में ला घसीटती है, जब सब कुछ सामान्य था। जिंदगी मजे से कट रही थी। भविष्य के सपने देखे जा रहे थे। रोज के संघर्ष तो थे ही। कोई घर से निकला था, लेकिन लौटकर नहीं आया। उसका रात का खाना ठंडा होता रहा। कोई बड़़े दिन बाद घर आया था और आखिरी सांस ले ली। कोई भीड़ में ऐसा गुमा कि पता ही नहीं चला कहां गया। कितने लोग कब्रस्तान में दफना दिए गए और कितनों की चिताएं सामूहिक रूप से जलकर ठंडी हो गईं। उनमें कौन कहां से लाकर पटका गया था, किसे मालूम। और जिन्होंने लाशों के ढेर में अपनों को पहचान लिया, उनकी आंखों में वे दर्दनाक दृश्य पत्थर की लकीर बन गए। जरा सी याद दिलाओ और आंखों से धार फूट पड़ती है। क्या करे कोई जब यह परफैक्ट मेमोरी उसके जीवन में एमआईसी की धुंध अक्सर उठाती रहती है। 

   इन्हीं सडक़ों पर
   इन्हीं सडक़ों के नीचे से
   पड़ोसवाली खिडक़ी के टूटे शीशे से
   झांकती हैं चीखें, चेहरे और चाहतें
   याद आती है उन सपनों की
   तो पागल कर जाती है
   तब वह घुटनों में माथा टेक लेती है
   या कि दीवारों पर सर फोड़ती हैं
   यादों की अंधी सुरंग को बन्द करने के लिए? 

सरकार ने गृह निर्माण मण्डल सेे २४८६ आवास निर्मित कराए गए, जिसमें २२९० आवास आवंटित किए जा चुके हैं और १९६ आवास खाली हैं। यह सरकार की जिम्मेदारी थी। वास्तव में इस कॉलोनी पर  ‘जीवन-ज्योति’ शब्द ज्यादा सम्मानजनक है। ये औरतें खैरात या मदद से पहले इज्जत की हकदार ज्यादा थीं। इस कॉलोनी की बदनामी में कई तथ्य उभर कर सामने आते हैं। 

* खाली घरों में असामाजिक तत्वों का अतिक्रमण एवं उनका अनैतिक कार्यों में उपयोग किया जाना, जिसके चलते महिलाओं के आसपास माहौल बिगड़ा। चर्चा में एक महत्वपूर्ण तथ्य ये भी उभरकर आया था कि कॉलोनी के कुछ ब्लाक उन पुरुषों को आवंटित हैं, जिनकी औरतें मर गई थीं। उन पुरुषों के ब्लाक के ज्यादातर घर या तो खाली पड़े रहे या उनमें अनाधिकृत कब्जे हुए। उन्हीं में ताले तोडक़र भी लोग रहने लगे- असामाजिक गतिविधियों की शुरुआत कुछ ऐसे ही कब्जे वाले घरों से शुरू हुई थी।

* अत्यन्त गरीबी, बेसहारा  और छोटे बच्चों के पालन-पोषण में परेशानी आने पर वे कई बार कुछ समर्थ लोगों से मदद मांगती हैं। यह आशंका प्रबल है कि मदद की कीमत के रूप में वह यौन सम्बन्ध के लिए बाध्य हो। एक गलत शुरुआत आगे जाकर एक सतत प्रक्रिया में बदल जाए। ऐसी रिलेशनशिप जब लोगों के ध्यान में आती हैं तो दूसरे लोग भी अपने लिए सहज उपलब्धता मानकर चलते हैं। जैसा कि यहां हुआ भी। 

* जैसा कि आमतौर पर ऐसे हालातों में होता है, पति के रिश्तेदारों, मित्र या पड़ोसी भी औरत के अकेलेपन का फायदा उठाते हैं। यहां भी कई अनुभव ऐसे ही सामने आए, जब हादसे की शिकार अकेली औरत के घर ऐसे शुभचिंतकों की आवक बढ़ी। इससे दूसरे लोगों की धारणाएं गलत बनीं, लेकिन कुछ मामलों में यह बेवजह भी नहीं थीं।

* असामाजिक तत्वों की आवक से स्थानीय पुलिस प्रशासन बेखबर रहा। जब धीरे-धीरे यहां की कुख्याति बढ़ी तो पुलिस हमेशा आंखें मूंदे रही। पुलिस भी यह मानकर चली कि इन औरतों को सहारे की भी जरूरत है और अपना खर्च चलाने के लिए रुपयों की भी।

* कई बार दमित यौन कुण्ठाएं औरत को मानसिक सन्ताप देती हैं, जिससे मुक्त होने के लिए वह स्वयं किसी सम्बन्ध की पहल कर बैठती है जो उसके चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। 

भोपाल में मुख्य शहर से सात-आठ किलोमीटर दूर  सिर्फ औरतों के लिए अलग पुनर्वास देते वक्त यह विचार किया जाना हमारी पहली प्राथमिकता होना चाहिए था कि इनकी हिफाजत का क्या होगा। पुरुष सत्तात्मक समाज में ऐसी बस्ती या ऐसी कॉलोनी का भविष्य क्या होगा? कॉलोनी की एक रहवासी कहती हैं-हम १९९० से यहां रहने आए हैं। तब से अब तक आपको बता नहीं सकती कितने कष्ट उठाए हैं। केवल घर दे दिए गए थे। न बाजार था, न दुकानें। न बस आती थी। न ऑटो वाले। बच्चों को स्कूल भेजना, रोज अस्पताल जाना और गुजारे के लिए खुद कामकाज ढूंढना। सब कुछ असंभव जैसा था।  

सरकार ने मुआवजा दिया और एक दो कमरे का घर दे दिया तो क्या जीवन चलाना आसान हो गया? घर चलाने, बच्चे पालने और खुद का पेट पालने के लिए क्या ये दो निर्जीव वस्तुएं पर्याप्त हैं? मुआवजा तो दवा और डॉक्टर में ही चला गया और घर एक छत भर है पर छत के नीचे-चूल्हा भी होता है। एक आग पेट की भी होती है, जिसे बुझाने के लिए आमदनी का जरिया चाहिए। किसी का पति मरा, किसी का बेटा, किसी की बेटी, किसी के माँ-बाप मर गए। वो लोग हताश निराश यहाँ रहने आ भी गए तो भी उनकी मुश्किलें ज्यों की त्यों बनी रहीं। एक और रहवासी कहती हैं, हम पर ‘बेचारी विधवाएं’ शब्द चस्पा हो गया था। जब भी कानों में पड़ता, लगता कि गाली दी गई हो।  

 एक और महिला ने बताया कि ऑटो वाले इधर आते ही नहीं थे। शहर जाने में परेशानी होती थी। काम यहां मिलता ही नहीं था, काम देता कौन? सभी एक जैसे थे। सबको काम धन्धा चाहिए था। पैदल चलकर आसपास के मोहल्लों में  घर का बर्तन-कपड़ा, झाडू-पौंछा करके घर चलाया। सौ-डेढ़ सौ रुपए महीने में यह काम किया। पैदल जाते, पैदल आते। आते वक्त साग-भाजी, राशन उठा कर लाते या बच्चे सायकल पर रखकर साथ चलते। फिर यहां लोगों की आवाजाही बढऩे लगी। 

खाली पड़े मकानों में असामाजिक तत्वों ने अनाधिकृत रूप से कब्जे कर लिए। कौन लोग? पूछने पर वे एक-दूसरे का मुंह देखती हैं जैसे बताने से पहले ये परखना चाहती हैं कि कोई मुसीबत तो नहीं आएगी? फिर कहती हैं, कब्जा कौन लोग करते हैं? सभ्य और अच्छे लोग तो करते नहीं? बदमाश, चोर, उचक्के, गुण्डे-मवाली या वे जो डण्डे और चाकू चलाने में माहिर होते हैं और वे जिन्हें पुलिस का संरक्षण प्राप्त होता है।

सच ही तो कह रही थीं.... भूत-पलीतों का डेरा ऐसी ही कमजोर बस्तियां तो होती है..... ऐसे लातों के भूत भगाना कितना मुश्किल होता है। उनका कहना था कि उन सब के आने के बाद कॉलोनी में वे सब काम शुरू हो गए जो असामाजिक होते हैं। यहां तक की गतिविधियाँ होने लगी कि शहर से आने के लिए अगर आने-वाले से कहते हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी जाना है तो वे फिकरा कसते थे अच्छा ‘वेश्या कॉलोनी’ जाएगी। विधवा कॉलोनी बदनाम होने लगी थी। 

कुछ घर जो पुरुषों को आवंटित थे, उनमें वे रहने के लिए आए नहीं, कुछ में पुलिसवाले घुस गए थे और कुछ में गलत लोग आ गए थे। आज भी बहुत से घर अनाधिकृत लोगों के कब्जे में हैं। कुछ बेच दिए गए...देखने वाला ही कोई नहीं था। एक बार आवंटित किए और रामजी कर गए जिम्मेदार लोग...सरकार तो घर देकर गंगा नहा ली पर रहवासी मुश्किलों की दलदल में जा फंसे...औरतें, बच्चे, जवान, बहू-बेटियां ‘छेड़छाड़’ की शिकार होने लगीं। सडक़ों से उनका गुजरना और घरों की दहलीज पर खड़े होना भी दूभर हो गया। ज्यादातर लोगों के लिए यह एक कैद की तरह थी। पूरी कॉलोनी अपमानजनक खुले कारागार की तरह थी। किसी के आने जाने पर कोई रोक-टोक नहीं थी। सुरक्षा के लिए कोई इंतजाम नहीं।

ये महिलाएं दबे स्वर में अपनी आपबीती बता रही थीं मुझे कि नाम न आ जाए हमारा। वे लोग चाकू अड़ा देते हैं। बच्चों वाले हैं हम, नई मुसीबत नहीं मोल लेनी हमको। आप नाम मत छाप देना हमारा...। हाथ के इशारे से उन्होंने बताया कि ‘उस तरफ हैं कुछ घर जिनमें खराब औरतें आकर रहने लगी हैं। इनके कारण पूरी बस्ती बदनाम हुई। बाहरी लोग तो यहां रहनी वाली सब औरतों को एक जैसा ही समझते हैं।’

‘कैसे?’

‘गुण्डे जहां आ जाएं वहां ऐसी औरतें लाने में कौन-सी देर लगती है?’ उन्होंने कहा।

ओह!

 एक ने बताया कि एक बार शाम को एक पुलिसवाला ही नशे में धुत मेरे गले पड़ गया। मैं चिल्लाई जोर से और एक लात मारी। भला हो, पड़ोस वाली भाभी का कि वे आईं और मामले को संभाला। वह कमीना एक बार तो गिर पड़ा जमीन पर। उठा तो हिम्मत देखिए कि चांटा भाभी के गाल पर मारा उसने। लोग इकट्ठे हो गए। 

फिर तो संगठन ने हमारी मदद की और हम औरतें धरने पर बैठ गईं। अब तक सस्पेंड है वह।  कुछ बहनें अपनी पीड़ा को बयां करती हैं। कुछ वह भी नहीं कर पाती। इन महिलाओं के अनुभव करीब-करीब एक जैसे हैं। उन्होंने मुझे हिदायत दी कि मैं किससे बात करूं और कहां न करूं। कौन किस तरह के लोग हैं, जो यहां आकर बस गए हैं। 

यह एक कड़वी सच्चाई थी। निहत्थी, अकेली और बेसहारा औरतों को देख दबंगों ने अपने डेरे यहां जमा लिए। सोचा होगा कि ये मजलूम हमसे क्या पंगा लेंगी। ये तो मुआवजों की लड़ाई में ही मरखप जाएंगी। ये एंडरसन को जिन्दा या मुर्दा भारत में पेश करवाने के लिए झण्डे, डंडे और रैलियाँ निकालने और नारे लगाने में ही खत्म हो जाएंगी। 

करीब ६५ वर्षीय एक महिला ने कहा, हमारे घर के सामने एक दुकान है। पास में एक शख्स जोर-जोर से गंदे गाने बजाता है। पहले उसका बाप मुझे छ़ेडता था। अब छोरा मेरी बेटी को परेशान करता है। एक दिन उसका पीछा करता हुआ गया और बोलता है ‘ऐ आती क्या खण्डाला? हम सख्ती से पेश भी नहीं आ सकते, क्योंकि रहना यहीं है। यहां कानून का राज नहीं चलता। हम किस-किससे उलझेंगे और किसके भरोसे? उसने बताया कि बेटी के लिए पास के गांव में रिश्ता तय कर दिया। पर वह वहां भी पहुंच गया।’

 इन महिलाओं को भलीभांति पता है कि आजकल किस मकान में महंगी कारों में लड़कियां आती हैं। घण्टे दो घण्टे बाद वे चली भी जाती हैं। कई दफा इसकी शिकायतें की गईं। एक बार छापा तक पड़ा। कुछ लोग पकड़े भी गए। पर थोड़े दिनों बाद फिर ताले तोड़ के घुस जाते हैं। वे कहती हैं कि बिना पुलिस की मिलीभगत के यह मुमकिन नहीं है।

कॉलोनी में एक और दिन मुलाकात का। आज जिनसे बात हुई उन्हीं के घर में पाँच-छह महिलाएं आकर बैठ गईं। एक ने बताया कि वे १९९० से कॉलोनी में रह रही हैं। पति हादसे के आठ दिन बाद गुजर गए। तीन बेटे एक बेटी थी। दस-दस रुपए में पूरी बेलने जाती थीं। यहां से पैदल जाती पैदल आती। घर चलाना मुश्किल था। यहाँ पढ़ाने की व्यवस्था नहीं थी। भीषण गंदगी। पीने का पानी भी नहीं था शुरू में। गैस ने मेरे घर से तीन लोग छीन लिए। आठ साल बाद बेटी भी चली गई। बेटा भी चला गया। ये बच्चे पल गए बस यही एक बात है। दुख का कोई आर-पार नहीं। एक दुख हो तो बताएं। बच्चों को पाला तो, पर पढ़ा नहीं पाए। 

 ठाकुर परिवार की ये महिला ऊंची पूरी गौरवर्णी स्वस्थ सुंदर व्यक्तित्व की हैं। आंखें पोंछते हुए कहती हैं - ‘हम तलैया में रहते थे। गैस के १४ दिन के बाद पति खत्म हो गए थे। उन्हें गैस ज्यादा लगी थी। वे पूरी तरह अंधे हो गए थे। बड़ा बेटा बीस साल का था तब। वे एक अखबार में नौकरी करते थे। पाँच बच्चे हैं मेरे। तब पाँच साल की एक बेटी भी थी। चौका बर्तन करके, लोगों की रोटी बनाकर बच्चे पाले। मुआवजा एक लाख रुपए मिला था पर उससे क्या होता? पांच पीडि़तों के घर कब तक चलते? डॉक्टर व दवाई की भेंट चढ़ गए। गैस मुझे भी लगी थी। हार्ट अटैक भी आ चुका है, इलाज अब तक चलता है। चौका बर्तन में मिलता ही कितना है। बड़े घरों में एक दिन के नाश्ते पर जितना खर्चा होता है, उसका आधा भी महीने भर में घरेलू नौकरानी को नहीं दिया जाता। बीमारी में नागा अलग काट लेते हैं। हम जिन हालातों का सामना करते हुए निकले हैं, किसी को हम पर दया नहीं आई। कैसा अजीब समाज है हमारा और कैसी सरकारें हैं। इसे हम आजादी कहते हैं? कितनी सरकारें आईं-गईं। हमने कुछ भी बदलते हुए नहीं  देखा। सरकारें काहे के लिए बनती हैं, यही समझ में नहीं आया।

जुनिया बाई-मंगलवारा में रहती थीं। अब पुनर्वास कॉलोनी में हैं। एक आंख की रोशनी गैस के कारण चली गई। पति चाक चलाकर मिट्टी के बर्तन बनाते थे। वह चाक आज भी उनके आंगन में मौजूद है।  अब वह बर्तन नहीं गढ़ता केवल पूजा जाता है। जुनिया बाई कहती हैं चाक बेचा नहीं गया मुझसे। हम बेघर हुए थे पर प्रजापति की घरवाली चाक को घर से बेदखल नहीं कर पाई। उनकी उंगलियों के निशान चाक पर लगी गीली मिट्टी पर बने हैं। छह बच्चों का जिम्मा था मुझ पर। पति को खून की उल्टी होती रही। एक माह के अंदर ही मिट्टी से खेलने वाला मिट्टी में मिल गया। पति के अलावा देवर देवरानी भी मरे। उनके भी पांच बच्चे पालने थे। क्या करती? बर्तन गढऩा नहीं सीखा था कभी? हां, उनके लिए मिट्टी जरूर तैयार करती थी। उसी मिट्टी से फर्मा बनाकर रात-दिन गुल्लक बनाती, उन्हें रंगती और बच्चे बेच आते और घर की दाल-रोटी का इन्तजाम करती। 

रोशनपुरा में बर्तनों की दुकान थी, वह अब भी है। वहां बड़ा बेटा अपने परिवार के साथ रहता है। वह छोटा था, चाक चलाना नहीं सिखा पाए थे पिता। इसलिए गुजरात से लाकर मटके बेचता है। छ: अपने और पांच बच्चे देवर के थे। इतने बच्चे पढ़ाती कैसे? पल गए इसी बात का संतोष करती हूं। यह घर पैंसठ हजार रुपए जमा करने पर मिला। एक लडक़ा आज तक बीमार रहता है। एक लाख रुपए मिले थे मुआवजे के, बाद में ६० हजार और मिले। मुश्किलों के आगे यह रकम मामूली ही थी...

छोला नाका की रहने वाली लक्ष्मी ठाकुर। हादसे वाली रात को याद करते हुए कहती हैं कि मूंग की दाल देखती हूँ तो आंखों में धुआं आ जाता है। उस रात मूंग दाल और रोटी ही बनाई थी, एक बच्चा पान की दुकान पर काम करता था, वह अकेला बचा था रोटी खाने वाला। पति रेलवे में काम करते थे, कुछ गड़बड़ हो गई थी नौकरी से सस्पेंड हो गए थे। वे घर पर ही थे। हम सब सो गए थे खाना खा कर। १२ साल का बेटा पान की दुकान से आकर देर रात रोटी खाता था। वह भागता हुआ घर आया और हम सबको जगाया। उसी ने बताया कि कारखाने से गैस निकली है, जल्दी भागो नहीं तो मर जाएंगे। उसने छोटे भाई-बहनों को भी उठाया। एक दूसरे का हाथ पकड़ चार साल, तीन साल, दो साल के मेरे बच्चे भाई का हाथ पकडक़र भागे। हम सब हबीबगंज की तरफ भागे थे कि कोई ट्रेन खड़ी होगी तो उसमें बैठ कर चले जाएंगे। बच्चे तो भागते रहे पर उनके पिता रास्ते में ही बीमार पड़ गए और अगले दिन चले गए। 

अब मेरे दो लडक़े, दो लड़कियां हैं। ऊपर वाले ने उन्हें बचा लिया पर जो चले गए उनका कोई मुआवजा नहीं दे सकता। आज भी वह बेटा पान की दुकान चलाता है। यदि वह अपनी जान की परवाह किए बगैर घर नहीं आता तो हमें नहीं बचा पाता। उसी बारह बरस के मासूम ने बाप बनकर बच्चों को पालने में मदद दी। वह मूंग की दाल उस दिन यूं ही कटोरे में पड़ी रही। वह बेटा उसके बाद कई दिनों तक रोटी नहीं खा पाया था। 

एक दिन मैं मिली चिरोंजी बाई से। वे भी यहां सन् १९९० से रह रही हैं। घर के सामने वाले बरामदे को उन्होंने कमरे में बदल दिया है। घर में अब बहू बच्चे सब हैं। कभी टीला जमालपुरा में रहती थीं। हादसे की रात मोहल्ले में बारात आ रही थी। रात चौका बर्तन निपटा कर बच्चों के साथ बारात का नाच गाना देख रहे थे सब। पति चाय की दुकान चलाते थे चौक बाजार में। वे दुकान बंद कर घर आए, खाना खाया और रजाई ओढ़ के सो गए। दुकान अच्छी चलती थी, चार-पांच लडक़े काम करते थे दुकान पर। वे थक कर चूर हो जाते थे सारा दिन काम करते हुए। 

गैस की आहट खांसी की शक्ल में हुई। मैंने फिर उठाया उनको तो जोर से चिल्लाए। उन्होंने कहा और मैंने दरवाजा खोल दिया। दरवाजा खोलते ही जैसे घर में कोई बम फटा हो। ढेर सारा धुआं बागड़ बना कर दरवाजे के बाहर अटका था। वह घर में भरने लगा। थोड़ी देर बाद पुलिस की गाड़ी ने ऐलान किया कि कारखाने में गैस रिसाव हो गया है। जान बचाने के लिए सुरक्षित स्थानों पर जाएं...पर सुरक्षित जगह कौन सी थी किसी को नहीं मालूम था। मैं बच्चों को लेकर भागी। दो-ढाई बजे हम सब शाहजहांनाबाद पहुंचे एक रिश्तेदार के घर। पति ट्रक में चढक़र बैरागढ़ की तरफ भाग गए थे। थके मांदे रातभर जागे हुए अगले दिन वापस आए घर पति को ढूंढने। 

वे नहीं थे घर पर। सबकी आंखें बंद होने लगीं और नहीं पता कौन कब हमें हमीदिया अस्पताल में भर्ती करवा गया। तीन दिन सब भर्ती रहे। वापस घर आए तो पति हमको ढूंढ रहे थे, उनको सबसे ज्यादा गैस लगी थी। उनको अगले दिन लकवा लग गया और आठ माह बाद वे चल बसे। उनका एक लाख मुआवजा मिला। आप ही बताइए एक स्वस्थ कमाते खाते परिवार पालते आदमी की कीमत लगाई गई सिर्फ एक लाख रुपए? बच्चों को २५ हजार। जीवन है या भार? कीड़े-मकोड़े की मौत मार डाला लोगों को और मौत का ऐसा मोल-भाव किया। एक बेटा १२ साल पहले दमे में मर गया। बेटी की शादी की, सालभर में वह भी मर गई। वह एक तस्वीर दिखाती है-देखो, यह है मेरा परिवार, जो एक साथ घर की दीवार पर टंगा है। साल-दो साल उद्योग चलाने की नौटंकी चली फिर सिलाई केन्द्र बन्द करने की घोषणा हो गई। दस रुपए रोज में पूरी बेलने यहां से पैदल जाती थी। बारह साल के बच्चे ने फिर मजदूरी की, दुकान चलाई, तब घर चला। मकान के नाम पर ६५ हजार दिए, तब पट्टा मिला... पर मालिकाना हक बाकी है। लड़ रहे हैं अभी भी पट्टा नहीं। हम इस मकान के मालिक नहीं हैं।  

एक और आवासहीन पीडि़ता ने अपनी आपबीती सुनाई, मैंने तो १२ साल बाद ये मकान किसी से खरीदा है। मुझे तो मुआवजे के अस्सी हजार मिले थे। हर महीने सात सौ रुपए मिलते थे उन्हीं से घर चलाया। गाय, भैंस थी घर में। हादसे के  बाद घर लौटे तो जानवर मरे पड़े।  गैस के प्रभाव से बाद में लडक़ी भी मर गई। पति टेलर का काम करते थे। भोपाल के लोगों ने उन दिनों गैस प्रभावित लोगों की खूब सेवा की। कोई दरवाजे पर दूध के पैकेट रख गया, कोई हलवा-पूड़ी-साग बांट रहा था। कोई कभी ब्रेड के पैकेट दे जाता था। पति तो तभी खत्म हो गए थे। एक लाख बाद में भी मिले। पर घर नहीं मिला था। घर मैंने खरीद लिया। हालांकि मैं जानती हूँ ये पट्टे के मकान हैं इन्हें बेचा या दान नहीं किया जा सकता, पर यहां की दुर्दशा से लोग बेच देते हैं। दूसरे गैस पीडि़त खरीद लेते हैं। पट्टा ले लेते हैं। हमारी मांग है, हमें रजिस्ट्रियां करवा कर मकान का मालिकाना हक चाहिए।

रशीदा सुलताना कहती हैं कि हादसे के दिनों में न कोई हिन्दू था, न मुसलमान। तब सारे लोग सिर्फ केवल भोपालवासी थे। केवल एक अहसास था कि हम सब पीडि़त हैं। हादसे के तुरंत बाद ऐसा लगा कि अल्लाह के भेजे हुए फरिश्ते दरवाजों पर आए। उन्होंने हमारी मदद की। अस्पताल पहुंचाया। हमारे बिछुड़े हुए लोगों की खोज में हाथ बटाए। जिनके घर मौतें हुईं, उन्हें सहारा दिया। इज्जत से अंतिम संस्कार के इंतजाम किए। हालांकि सब परेशानहाल थे फिर भी कुछ लोग सिर्फ सहारा बनकर सक्रिय थे। उस वक्त वे हिंदु या मुसलमान नहीं, सिर्फ इंसाान बनकर मदद कर रहे थे। ऐसा ही जज्बा हम हमेशा क्यों नहीं बनाए रख पाते। 

दान पत्रों पर हुआ सौदा


हाउसिंग बोर्ड ने दड़बेनुमा इन मकानों का निर्माण करते समय सीवेज और पीने के पानी की पाइप लाइनों में निकासी की उचित व्यवस्था नहीं की थी। जिससे कहीं-कहीं सीवेज और पाइप लाइन मिल गई हैं। वे गंदा पानी पीने को विवश हैं। एक तो वे पहले से ही अस्वस्थ हैं, इस प्रदूषण का भी उनके स्वास्थ्य पर अत्याधिक दुष्प्रभाव पड़ रहा है। ६५ वर्षीय रईसा बी के अनुसार नगर निगम उनसे पानी के लिए १५० रुपए प्रतिमाह ले रहा है। रोजगार नहीं है, ऊपर से पानी के लिए १५० रुपए कहां से लाएं। वे चाहती हैं कि उन्हें नि:शुल्क पेयजल उपलब्ध हो। यही कहना है ५० वर्षीय कुसुमलता का। गैस पीडि़त बेसहारा औरतों को ७५० रुपए प्रतिमाह मासिक पेंशन मिलती थी, लेकिन अब वह भी बंद है। राहत विभाग ने रोजगार के लिए शेड इत्यादि बनाये थे, जहां अब ताला लगा है। किसी के यहां दिन में एक बार चूल्हा जलता है तो कोई असामाजिक तत्वों और दबंग लोगों से परेशान है। कॉलोनी की तीस महिलाओं के मकानों पर दूसरों ने जबरन कब्जा कर रखा है। पुलिस में गुहार लगाने से भी न्याय नहीं मिला। अनेक महिलाएं जिनके परिवार में सभी की मृत्यु हो चुकी है, यहां रहने से घबराती हैं। 

वक्त कितना गुजर गया। एक सरकार बनती है, चली जाती है, लेकिन पीडि़तों की मुश्किलें कम नहीं हुईं। आज आवश्यकता इस बात की अधिक है कि गैस पीड़ितों के आर्थिक पुनर्वास और चिकित्सा सुविधाओं को जुटाने के हर संभव प्रयास किए जाएं। अब तक अरबों रुपए गैस पीडि़तों के पुनर्वास पर खर्च करने के बाद भी स्थिति यह है कि हम जीने लायक स्वस्थ पर्यावरण भी मुहैया नहीं करा पाए हैं।  जो कार्यक्रम मध्यप्रदेश सरकार ने चलाए थे वे पूर्णत: असफल साबित हो चुके हैं। आवास कॉलोनियां यातना शिविरों से कम नहीं। 

भीख मांगने पर मजबूर


तीस करोड़ की लागत से यह कॉलोनी बसाई गई थी। आज इसके पांच सौ से अधिक मकान दानपत्रों के माध्यम से बेचे जा चुके हैं। नत्थी बाई पति श्याम निवासी राजेन्द्र नगर को ही लीजिए। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्याम की मौत हादसे में हुई तो उसकी बीवी को मकान आवंटित हो गया। उन पर इतना कर्ज हो गया कि वे मकान बेचकर चली गर्ईं और उज्जैन में भीख मांगकर गुजारा करते हुए शरीर त्याग दिया। एक और महिला पार्वती बाई की कहानी भी ऐसी ही है। पार्वती बाई को यहां मकान आवंटित किया गया। अकेली महिला ने जीवन-यापन के लिए मकान बेचा और इसी कॉलोनी में भीख मांगकर गुजारा करती रही। आज भी यह महिला किसी के बरामदे में पड़ी नजर आ जाएगी। हुस्नबानो को एल ५१ नम्बर आवंटित हुआ था। परिवार में झगड़े बढ़े तो उन्होंने मकान जयराम को बेच दिया। हुस्नबानो अब कहां हैं, किसी को भी नहीं मालूम। गुलाम नबी अंसारी ने मकान लईक भाई को बेच दिया तो शांति बाई के मकान में आज दिल्ली से आए सलीम निवास कर रहे हैं। लगभग पांच सौ मकानों के सौदे हुए और प्रशासन या गैस राहत विभाग को खबर नहीं हुई। जिस तरह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्याम की पत्नी जहां भीख मांगते हुए उज्जैन में काल के गाल में समा गई, वहीं कपड़ा मिल के श्रमिक बाबूलाल की पत्नी कस्तूरी बाई ने मकान बेचकर होशंगाबाद में नर्मदा तट पर भीख मांगते हुए देखी गईं। उनकी वहीं मौत हो गई। 

अस्सी हजार के मकान बिके कौडिय़ों के भाव। गृह निर्माण मंडल ने  प्रत्येक आवास की कीमत ७८ हजार १६५ रूपए बताई थी। बाद में जब मकानों के बिकने का सिलसिला शुरू हुआ तो लोगों ने कौडिय़ों के दाम यह मकान खरीदे। 

वह एक चबूतरे पर बैठी मिली थी मुझे। बात करने की असफल कोशिश की थी मैंने पर वो केवल एक गीत की पंक्तियां गुनगुना रही थीं। एक ऑटो वाला मेरी मंशा समझ गया। रुककर बोला बहनजी अम्मा सुनती नहीं है। बस बड़बड़ाती है। यहां-वहां सडक़ों पर  घूमती रहती है। अकेली है अब।  वह जो बड़बड़ा रही थी वह कुछ-कुछ ऐसा, शायद कोई शोक गीत-

   कैसा सोया रे प्राणीला, कैसी निद्रा लागी।।
   ताम्बा पीतल शीशे अती घणो, कछु कामनी आयो,
   काम आयो रे माटी को धड़ों, थारा संग फूटी जाए।

 काश किसी ने सुनी होती


 डॉ. कुमकुम सक्सेना दुर्घटना से पहले यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में चिकित्सा अधिकारी थीं। उन्होंने पहले ही चेतावनी दे दी थी सुरक्षा उपायों के विषय में और उनके उपायों की अनदेखी कर दी गई। काश कि उनकी बात पर ध्यान दिया गया होता। डॉक्टर सक्सेना को ऐसे ही किसी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ने सचेत कर दिया होगा। उन्होंने यूनियन कार्बाइड में काम करते हुए महाविनाश की आशंका का पूर्वानुमान लगा लिया होगा, तभी तो हादसे के पहले ही पद से इस्तीफा दे दिया था, क्योंकि फैक्ट्री में उनके द्वारा बताए गए सुरक्षा उपायों की अनदेखी की गई थी। हादसे की रात एक स्थानीय चिकित्सालय में उन्होंने लोगों पर इस जहरीली गैस के प्रभाव को करीब से देखा था। डॉक्टर सक्सेना ने १९८५ में भोपाल छोड़ा दिया और उसके बाद वे अमेरिका के एक अस्पताल में काम करने लगीं।  

सवाल, समस्याएं और विमर्श


यौन छेड़छाड़ पर स्त्री-विमर्श की दृष्टि से समाजशाीय विश्लेषण करते हुए तसलीमा ने लिखा, ‘छेड़छाड़’ को भारतीय उपमहाद्वीप में ‘ईव टीजिंग’ कहा जाता है। इस कुत्सित हरकत को ‘ईव टीजिंग’ कहकर माफ नहीं किया जा सकता। यह कोई रूमानी हरकत नहीं है। भारत जैसे देश में आखिर इसे गुनाह क्यूं नहीं समझा जाता। जो लडक़े सेक्सुअल शरारतें करते हैं वे लोग तो इसे ही ‘स्वाभाविक’ समझ कर करते हैं। सुनने वाले भी प्रतिवाद नहीं करते, बल्कि कई बार उस छेड़छाड़ में शामिल हो जाते हैं। 

जो लोग ऐसे वक्त पर भी जुबान पर ताला जड़े बैठे रहते हैं। विरोध या प्रतिवाद नहीं करते यह भी एक किस्म का समर्थन ही होता है। जो लोग यह कह कर बच निकलते हैं कि कौन मुसीबत मोल ले, या हमारी हिम्मत नहीं होती। पर उन्हें याद रखना चाहिए कि उनका मौन समर्थन समाज को कितना महंगा पड़ता है। इन असामाजिक कृत्यों में लिप्त लोग अनदेखी के चलते ही बड़ी वारदातों के लिए आजाद रखे जाते हैं। सवाल यह है कि अपराध रोकेगा कौन? जब रोकने वालों पर से ही विश्वास उठ जाए? हमने विधवा कॉलोनी की महिलाओं से सुना कि किस तरह पुलिस के लोगों का असभ्य व्यवहार सामने आया। वो भी ऐसी संवेदनशील जगह पर। 

बार्नर और टीटर्स का कथन महत्वपूर्ण है, अपराध एक इस प्रकार का समाज विरोधी व्यवहार है जो कि जनता की भावना को इस सीमा तक भंग करें कि उसे कानून द्वारा निषिद्ध कर दिया गया हो। यहां यह सुनिश्चित होता है कि इस तरह के अपराध और अपराधी दोनों का संबंध समाज के संदर्भ में होता है। इन सबके बावजूद बड़ी संख्या में लोग इन सबके बीच रहते हैं, शायद भगवान के ही भरोसे। 

२००६ की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार भारत में पुरुष जहां औसतन ६/३१ घं.मि. खटता है वहां स्त्री ७/३७ घं.मि. खटती है। नारी का यह खटने वाला अनुपात (पुरुष को १०० मानक पर रखते हुए) ११७ हैं। इससे समझा जा सकता है कि महिलाओं पर श्रम का भार कहीं ज्यादा है।  ऊपर से स्वयं के घर का घरेलू कामकाज और मातृत्व के उत्तरदायित्व अलग। यही इन महिलाओं की भी विडम्बना है कि असंगठित क्षेत्र में स्त्रियां श्रम शोषण करने पर भी संगठित होकर विद्रोह नहीं कर पातीं। कारण गरीबी, मजबूरी और शिक्षा की कमी ही है।

स्वाति तिवारी

स्वाति तिवारी को शिवना सम्मान

सीहोर । साठोत्तरी हिंदी कविता के यशस्वी कवि जनार्दन शर्मा की पुण्यतिथि पर हर वर्ष होने वाली पुण्य स्मरण संध्या का आयोजन इस वर्ष भी 19 जनवरी को किया जाएगा। इस अवसर पर प्रकाशन संस्था शिवना प्रकाशन द्वारा चार सम्मान प्रदान किये जाएंगे।

सीहोर पत्रकारिता की पहचान रहे स्व. बाबा अम्बादत्त भारतीय की स्मृति में स्थापित शिवना सम्मान जो पत्रकारिता अथवा शोध पुस्तक हेतु प्रदान किया जाता है, वह साहित्यकार  स्वाति तिवारी को उनकी सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित भोपाल गैस कांड पर लिखी गई बहुचर्चित पुस्तक ‘सवाल आज भी ज़िंदा है’ हेतु प्रदान किया जाएगा। स्‍वाति तिवारी मध्‍यप्रदेश संदेश पत्रिका की सह संपादक हैं वे भोपाल में जनसंपर्क विभाग में पदस्थ हैं तथा देश की ख्यातिनाम कहानीकार हैं।

पैंतीसवा जनार्दन शर्मा सम्मान प्रतिष्ठित कवि मोहन सगोरिया को साखी प्रकाशन से प्रकाशित उनकी कविता पुस्तक ‘दिन में मोमबत्तियाँ’ हेतु प्रदान किया जायेगा। वर्तमान में हिन्दी कविता के महत्त्वपूर्ण कवि मोहन सगोरिया इलेक्‍ट्रानिकी आपके लिये पत्रिका के सह संपादक हैं उनके इस संग्रह में उनकी एक ही विषय नींद पर लिखी कविताएँ संकलित हैं।

गीतकार स्व. रमेश हठीला की स्मृति में दिया जाने वाला शिवना सम्मान वरिष्ठ शायरा  इस्मत ज़ैदी को प्रदान किया जायेगा। सतना मध्यप्रदेश की ज़ैदी अपनी सांप्रदायिक सौहार्द तथा अमन-शांति की ग़ज़लों के लिये एक जाना पहचाना नाम हैं।

गीतकार श्री मोहन राय की स्मृति में दिया जाने वाला शिवना सम्मान सीहोर के ही वरिष्ठ शायर रियाज़ मोहम्मद रियाज़ को दिया जा रहा है। अपनी अनूठी तथा अलग मिज़ाज की ग़ज़लों के लिये  रियाज़ श्रोताओं के बीच बहुत सराहे जाते हैं।

सम्मानों हेतु नाम चयन करने के लिये एक समिति का गठन प्रोफेसर डॉ. पुष्पा दुबे की अध्यक्षता में किया गया था, चयन समिति ने सर्व सम्मति से सम्मानों के लिये इन तीनों नामों का चयन किया है।