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किस्सागोई का अनोखा वितान - मनीषा जैन | Ganv Bhitar Ganv's Review by Manisha Jain


किस्सागोई का अनोखा वितान ('गाँव भीतर गाँव ' सत्यनारायण पटेल)

मनीषा जैन

किस्सागोई का अनोखा वितान - मनीषा जैन गाँव भीतर गांव सत्यनारायण पटेल

'गाँव भीतर गाँव' सत्यनारायण पटेल के पहले उपन्यास के सबसे पहले ही पन्ने पर लिखा है- 'यथार्थ की ज़मीन पर दमित-दलित छल-छद्म  प्रेम-ईर्ष्या आस्था-अनास्था और टूटते-बिखरते विश्वास के अद्भुत क़िस्से' मानो सजीव पात्र बेचैनी के काल कुण्ड में तैरते-डूबते और सिसकते ख़ुद सुना रहे हों अपनी व्यथा-कथा और जैसे-जैसे आप उपन्यास पढ़ते जायेंगे आप भी बैचेनी में धंसते जायेगे। गाँव की अनेक परतों के भीतर धंसते जायेंगे। फिर रास्ता भी नहीं सूझेगा बिलकुल अभिमन्यु के चक्रव्यूह में फंसने की तरह या झब्बू को गाँव के शोषण में धंसने की तरह।

एक लेखक अपने इर्द-गिर्द समाज, देश के परिवेश में जो देखता सुनता है उसी से संवेदित हो कर अपनी अपनी रचनाओं का ताना-बाना बुनता है तभी राल्फ फॉक्स ने उपन्यास को मानव जीवन का महाकाव्य कहा। सो ही यह उपन्यास झब्बू व अन्य पात्रों के जीवन का महाकाव्य है। मृत्यु से शुरू हुआ यह उपन्यास मृत्यु पर ही समाप्त होता है यानि मृत्यु ही शाश्वत सत्य प्रतीत होती है और मृत्यु ही बहुत सारे प्रश्न भी खड़े करती है। और उपन्यास की नायिका झब्बू इसी शोषण के चक्रव्यूह से निकलने के बजाए इसमें धंसती जाती है तथा गाँव की सरपंची व्यवस्था की गुलेल का शिकार भी होती है। कहते हैं कि स्त्री विमर्श सिर्फ स्त्री ही लिख सकती है लेकिन उपन्यास एक पुरूष लेखक द्वारा नारी के जीवन के एक एक महीन रेशे का व्यापक चित्रण किया है। पति की मृत्यु के दुख से दुखी झब्बू शोषण का शिकार होकर जान से हाथ धो बैठती है। और झब्बू की मृत्यु बहुत सारे प्रश्न उठाती है क्या यही नारी की नियति है ? क्या जो स्त्री चाहे वह प्राप्त नहीं कर सकती? क्योंकि हमारा समाज पुरूष प्रधान है।

उपन्यास शुरू होते ही झब्बू के दुख शुरू हो जाते हैं कैसे पार करें! जिन्दगी एक काला समुन्द्र। टूटी नाव छितर बितर। चप्पू भी छिन गया ज़ोर-जबर। तू बड़ा निर्दयी ईश्वर। कैसे जिए कोई प्राण बगैर। झब्बू के पति की मृत्यु हुई है वह जिए तो किसके सहारे। दुख इतना गहन है मानो झब्बू के दुख में पंछी भी शामिल हैं-‘नीम नीचे चालीस पचास लोग जमा थे। नीम की डागलों पर मोर होला  कबूतर चिकी आदि पक्षी बैठे थे। सभी शांत! चुप! गिलहरी भी एक कोचर में से टुकर टुकर देखती रही’’ झब्बू के दुख का पारावार नहीं है। लेखक ने मृत्यु का ऐसा चित्रण किया है कि किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की आंखे छलछला आए वे लिखते हैं-  कैलास को ले जाया जा रहा। उसके पीछे नीम  मोर  कबूतर  चिकी गिलहरी, झोंपड़ा, झब्बू, रोशनी, गाँव और सब कुछ छूटता जा रहा’’ मानो लेखक कहना चाहता है कि सिर्फ मृत्यु ही सत्य है। एक मौत से साथ कितनों की मौत होती है कोई नहीं जानता। और किसी झब्बू जैसी स्त्री के पति की मौत तो और भी भयानक होती है क्यों कि एक तो स्त्री जात दूसरी गरीब व तीसरी दलित जाति। झब्बू तीन तरफा दुख से घिरी हुई है। लेखक लिखते हैं ‘‘कि गाँव भले ही इक्कीसवीं सदी के मुहाने पर खड़ा था लेकिन जात पात, छुआछूत अभी भी मुंशी प्रेमचद के जमाने की सी थी।’’ उपन्यास में लेखक ने झब्बू के माध्यम से दलित स्त्रियों के संपूर्ण जीवन का ताना बाना बुना है। तथा झब्बू के संघर्ष के माध्यम से 21 वीं सदी पर खड़े गाँव के सभी व्यक्तियों के आर्थिक, राजनैतिक तथा ग्लोबलाइजेशन का, गाँव पर असर, जाति प्रथा, छुआछूत तथा गांवों में फैलता भ्रष्टाचार, मूल्यहीनता को निर्ममता से उघाड़ा है।

'गाँव भीतर गाँव' शुरू से आखिर तक संबधों, संवेदना व संवेदनहीनता व शराब के प्रति आक्रोश, मैला ढ़ोने की पद्वति का विरोध, सरपंची व्यवस्था का भ्रष्टाचार, भूमाफिया का द्वन्द आदि अनेक विमर्शो का जीता जागता आख्यान है। इसमें वो सब है जिसका आज के संवेदनहीन समाज में बोलबाला है चाहे गांव ही क्यों न हो। इसमें शराब है, बलात्कार है, स्त्री उपेक्षा है, स्त्री को दबाने के सरपंची षड़यत्र है जो कि आज गांव गांव का सच है। शहरों में रहते हुए पता नहीं चलता गांवों के भीतर क्या क्या भ्रष्टाचार, राजनीति, षड़यंत्र पनप रहें हैं। यों तो प्रेमचंद ने गांवों का सर्वस्व ही अपने उपन्यासों में उतारा लेकिन इस उपन्यास का कथानक समकालीन यथार्थबोध से भरपूर है। यह उपन्यास मालवा की धरती के किसी एक गांव का आख्यान भर नहीं है बल्कि भारत के लगभग सभी गांवो का आख्यान है। उपन्यास के सारे चित्र स्वाभाविक, प्राकृतिक व यथार्थ के हैं जिनसे पाठक दो चार होता है। पाठक को लगता है कि हमारे आसपास ही तो घट रहें हैं ये दृश्य।

उपन्यास में गाँव की स्त्रियों के घर व बाहर का संघर्ष चरम पर है चाहे उनका शराब की दुकान का हटाना हो या मैला ढ़ोने की प्रथा का अंत हो, राजनीति में दख़ल हो, एन जी ओ का गाँव में पर्दापण हो, सिलाई का काम कर घर चलाना, बलात्कार, पुलिस की बरबरता का कहर आदि। इन सभी स्थितियों का बारीक चित्रण बहुत पठनीय है। गाँव से शराब की दुकान हटवाने से तिलमिलाया हुआ गाँव के जमींदार का चित्रण लेखक ने कुछ इस प्रकार किया-‘‘झब्बू ने सिर्फ कलाली नहीं हटवायी, बल्कि जैसे नाक पर मुक्का भी जड़ा हो, और जैसे जाम सिंह के भीतर मुक्के का दर्द दौड़ रहा हो। सीने में बारूद सुलगने लगी। लेकिन फिर भी जाम सिंह चुप खड़ा रहा, और हम्माल मेटाडोर में कलाली का सामान भरने लगे। बबूल पर बैठे पक्षी चहचाहने लगे। सूरज सुनहरी मुस्कान बिखेरने लगा।’’ उपन्यास में जाति प्रथा का दंश को गहरे से व्यक्त किया गया है। जिस तरह गांधी जी ने विदेशी कपड़ो की होली जलवाई थी इसी तरह लेखक ने परम्परागत कुप्रथा मैला ढ़ोने के साजो समान की होली जलवा कर दलित स्त्रियों को सशक्त बनाने की राह दिखाई। और ये भी कि गांवों में आज भी सवर्णो का शोषण किसी न किसी रूप में आज भी जारी है।

उपन्यास में झब्बू पति की मृत्यु के बाद ज्यादा मजबूत बन संघर्ष का सामना करती है वह सब दलित स्त्रियों की अगुवा बनती है और सिलाई का काम कर अपना व अपनी बेटी का पेट पालती है और धीरे-धीरे गाँव की सभी दलित औरतें उसके पास सलाह मशविरे के लिए आने लगती हैं। और अब झब्बू सरपंच का चुनाव लड़ कर सरपंच बन जाती है और अपनी बेटी को पढ़ने भाई के पास शहर भेज देती है। लेखक ने गाँव के भीतर चलने वाली राजनैतिक षड़यंत्र गहराई व सच्चाई से व्यक्त किये हैं ऐसे षड़यंत्र जिसे गाँव से बाहर बैठा व्यक्ति सोच भी नहीं सकता। झब्बू के सरपंच बनने से गाँव के ठाकुर तिलमिला जाते है और फिर झब्बू को बलात्कार की यातना से गुजरना पड़ता है। लेकिन झब्बू बलात्कार के बाद मानसिक यातना से गुजरने के बाद जब होश में आती है तो और जोर से चीखती है और रिर्पोट लिखने जाती है उसके शब्दों में-‘‘उन्होंने तो मेरे शरीर पर जुल्म किया है....। लेकिन मैं उनकी छाती पे मूंग दलूंगी....। अब मेरे पास बचा ही क्या है जो लूटेंगे....छीनेंगे....मुझे जिसका भय हो....डर हो.....कुछ भी तो नहीं ऐसा.....।’’ स्त्री का इस तरह सशक्त होना समाज की अन्य स्त्रियों को हिम्मत व आशा देता हैं तथा झब्बू का स्वयं आर्थिक स्वाबलम्बी बनना व अत्याचार का विरोध करना स्त्री सशक्तिकरण के पक्ष को उजागर करता है। इस तरह स्त्रियों के शोषण के कारनामों के अनेक विमर्शों के साथ साथ गाँव के जमींदारों द्वारा भूमि अधिग्रहण, भू माफिया का ताडंव, मीड डे मील की धांधलियां, फर्जीवाड़े, गाँव के पुरूषों की अमानवीयता भरे विवरण उपन्यास को समकालीनता के पायदान पर ला कर खड़ा करते हैं।
उपन्यासः गाँव भीतर गाँव
पेपरबेक संस्करण मूल्यः २००/-
पृष्ठ संख्याः ३२०
प्रकाशकः आधार प्रकाशन
पंचकूला, हरियाणा

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने निबंध ‘उपन्यास’ में कहा- ‘‘कि मानव जीवन के अनेक रूपों का परिचय कराना उपन्यास का काम है। यह उन सूक्ष्म से सूक्ष्म घटनाओं को प्रत्यक्ष करने का प्रयत्न करता है जिनसे मनुष्य का जीवन बनता है और जो इतिहास आदि की पहुंच से बाहर है’’ इसी तरह इस उपन्यास में स्त्रियों व गाँव की छोटी छोटी यथार्थ घटनाएं जिनका संबध गाँव के लोगों व जीवन से है वे विस्तार से है। स्त्रियों के जीवन की विडम्बनाओं को उपन्यासकार ने पूरे उपन्यास के केन्द्र में रखा है। उपन्यास में बार-बार दलित औरतों के शोषण का विरोध औरते स्वयं करती हैं। झब्बू के संघर्ष के साथ साथ लेखक ने समाज के सभी क्षेत्रों में व्याप्त शोषण, भ्रष्टाचार, अमानवीयता, पितृसत्तात्मक राजनीति, पुरूषसत्ता का सर्वोपरि होना व जाति भेद को खोल कर रख दिया है। निम्न वर्ग के लोगों के रोजाना के संघर्षों का चित्रण व दलितो के दलित जीवन का सर्वस्व उपन्यास में चित्रित है। हद तो जब हो जाती है जब गाँव में टेंट की दुकान खुलने पर टेंटवाला दलित स्त्रियों को टेंट देने से मना कर देता है क्योंकि फिर वे वाले टेंट पटेल, ठाकुर व ब्राहाम्ण इस्तेमाल करने से मना कर देंगे। इस तरह का छुआछूत, जातिदंश पूरे उपन्यास में व्याप्त है जो कि आज भी यथार्थ है। कैसी विडंबना है कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में जाति वर्गीकरण कभी समाप्त नहीं किया जा सकता। इसी कारण गाँव में दो बारातों में जाति के नाम पर जम कर मारकाट होती है। इस तरह के माहौल में सांप्रदायिकता की आंच में हाथ सेंकने वाले दंगा भड़काते हैं और गाँव व शहरों में आतंक मचाते हैं। लेखक ने कई स्थानों पर पुलिस के नाक़ाब उतारे हैं किस तरह पैसा ले देकर मामलों को रफा दफा किया जाता है। पुलिस के बर्बर अत्याचार की चरम सीमा के साथ गाँव में व्याप्त राजनीति, दलित समाज की त्रासद जिन्दगी, जमींदारों के अत्याचार पूरी बर्बरता के साथ व यथार्थ का चेहरा बहुत ही साफ साफ दिखाई पड़ता है। इस तरह की तंत्रव्यवस्था व भ्रष्टाचार देश को कहां लेकर जा रहे हैं ? इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।

असल में उपन्यास में देश के असली दुश्मन तो पूंजीवादी व्यवस्था, भ्रष्टाचार व धौंस की राजनीति, सरपंची कुव्यवस्था, वर्गीय भेदभाव को बताया है और उपन्यासकार ने इस सब का चेहरा बड़ा साफ साफ चित्रित किया है। देश का हर नागरिक भूख, गरीबी, मंहगाई, भ्रष्टाचार से लड़ रहा है। सीमा पर दुश्मन नहीं दुश्मन तो देश के भीतर ही गहरी पैठ बनाए हुए है और सत्ताधारी गिद्ध सब कुछ लील लेने को बैठे हैं। उपन्यास की सारी घटनाएं सत्य प्रतीत होती हैं। ऐसा लगता है कि सारी घटनाएं रोज कहीं न कहीं घट रहीं हैं इतना अंधेरा व्याप्त है कि आदमी की जान की कोई कीमत नहीं मानों-‘‘भ्रष्टाचार लाखों छोटे-बड़े मुंह वाला एक जीव है, झब्बू ने कहा, और आगे सोचते हुए बोली- और इसका पेट भी बहुत गहरा है। सरपंच से लेकर ठेठ ग्रामीण विकास मंत्रालय तक’’ मानो एक भ्रष्टाचारी सरकार जाती है दूसरी आ जाती है। उपन्यास में तानाशाही पुरूष मानस्किता सभी पात्रों पर हाबी है। वह सरपंच बनी स्त्री को भी अपनी अंगुली पर नचाता है और पुरूष स्त्री की रीढ़ पर बलात्कार रूपी ऐसा वार करता है कि वह उठ भी न सके। लेकिन झब्बू फिर फिर उठती है व संघर्ष करती है। और फिर झब्बू सारे राजनैतिक दावपेंच सीख जाती है। लेकिन ये राजनीति क्या क्या न करवा दें। राजनीति के कुचक्र में फंसी झब्बू को निबटवा दिया जाता है। अतः राजनीति में फंसी स्त्री का उपयोग व उपभोग सत्ता किस तरह करना चाहती है इस कुचक्र को लेखक साफ तरीके से दिखाने में सफल हुए हैं। और समाज में आर्थिक आधार ही सब क्रियाकलापों की जड़ में है लेखक सफेद को सफेद व काले को काला दिखाने में सफल हुए है। विश्व का हमारे गांवों पर क्या व कितना असर हो रहा है यह विभिन्न घटनाचक्रो से दिखाई पड़ता है। साथ ही साथ भूमाफिया का तांडव का  जिक्र लेखक की भविष्य दृष्टि का परिचय देता है कि किस तरह देश में भूमाफिया का बोलबाला है और सरकार चुप है। आज देश में साम्राज्यवाद हाबी है। जिस साम्राज्य को हमने उखाड़ फेंका था वह आज फिर पांव पसार रहा है।

उपन्यास में झब्बू की बेटी रोशनी अखबार के लिए जो आलेख लिखती है वह मानों पूरे उपन्यास का निचोड़ है। और वह लेख ब्लाग पर लगाते ही रोशनी के कमरे पर पुलिस आती है और उसे गिरफतार करके ले जाती हैै माने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी कब्जा। और गाँव की सत्ता व्यवस्था किस तरह पुलिस में मिलकर घोर षड़यंत्र करती है परिणाम स्वरूप पुलिस के अत्याचारों से सहमी रोशनी जेल में है और झब्बू की गाड़ी को टक्कर मार कर झब्बू का दुखद अंत होता है। इस तरह उपन्यास में एक जीता जागता यथार्थ सांस लेता है। जिससे हम हर समय दो चार होते रहते हैं।
मनीषा जैन
165 ए, वेस्टर्न एवेन्यू,
सैनिक फार्म
नई दिल्ली-110080
22manishajain@gmail.com
उपन्यासकार की किस्सागो शैली एक नया वितान रचती है जिससे रोचकता बढ़ती है तथा उपन्यास में छोटे छोटे वाक्य व पक्षी व गिलहरी का मानवीय दुख में भावाभिव्यक्ति शामिल करने से संप्रेषणीयता को बढ़ावा मिला है जो कि एक अनुपम चित्रण है। उपन्यास पढ़ने के बाद पाठक के भीतर एक खलबली सी मच जाती है कि हम गाँव व शहर के कैसे असंवेदनशील समाज में जी रहे हैं। इस तरह के मालवी संस्कृति के आंचलिक उपन्यास की तुलना नागार्जुन के बलचनामा व रेणु के मैला आंचल से बाखूबी की जा सकती है।

जिस तरह निराला जी ने कहा कि ‘‘गद्य जीवन संग्राम की भाषा है’’ उसी तरह यह उपन्यास एक आम मनुष्य के जीवन संग्राम का आख्यान है। इस तरह के उपन्यास बुनने के लिए एक विहंगम जीवन दृष्टि की जरूरत होती है निःसंदेह उपन्यासकार इस कसौटी पर खरे उतरे हैं। कुछ मालवी शब्दों का प्रयोग उत्तर भारत के पाठको को थोड़ा सा मुश्किल में डाल सकता है। लेकिन इस उपन्यास के आईने में भारत की वर्तमान व भविष्य की तस्वीर साफ साफ देख सकते हैं।


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आत्महत्या और ज़िंदा लोग - आशिमा | Suicide and People alive - Ashima


आत्महत्या और ज़िंदा लोग

आशिमा

हम ये सब बेशर्म आंखों से बर्दाश्त किये जा रहे हैं, और एक दिन जब इन्हीं में से किसी के आत्महत्या करने की खबर आती है, तो मायके ससुराल वाले, घरवाले बाहरवाले, माता पिता, पति पत्नी, दोस्त, रिश्तेदार सब अफसोस के लिए आगे आ जाते हैं। 

आधे तो हम उसी वक़्त मर चुके होते हैं, जिस वक़्त हमारे दिल में आत्महत्या करने का ख़्याल आता है। फर्क इस बात से पड़ता है की वो आधा हमारे आस पास और किस-किस को नज़र आता है, कौन हमारे उस आधे मरे को दोबारा ज़िंदा करने की हर मुमकिन कोशिश करता है, और कौन आधे ज़िंदा को ज़िंदा रखने की कोशिश। हम सभी का साबका ऐसे अधमरों से कई बार पड़ता है, हम खुद भी कई बार उनमें शामिल होते हैं, और अपने उस आधे ज़िंदा को आधे मरे पर हावी करने की कोशिश करते हैं, ताकि ज़िंदगी के कुछ और दिन कट जाएं, जिनको हमारे ज़िंदा रहने से तसल्ली है उन्हें चलते फिरते नज़र आते रहें, लेकिन कई बार किसी-किसी का ये आधा-ज़िंदा, आधे मरे से जीत नहीं पाता, और एक दिन हम पूरा... कभी-कभी यह भी लगता है, कि जब हम किसी ऐसे आधे मरे से वाकिफ होते हैं तो हम कहां से उसके पूरा मर जाने पर अफ़सोस करने का हक़ पा लेते हैं यदि न वाकिफ हों तो अलग बात है। हमारे देश में कई तरह के अवसाद और मानसिक प्रताड़नाओं की सामाजिक स्वीकृति होती है। जैसे एक औरत त्याग की मूरत है, ससुराल में चाहे कितना भी अनचाहा बर्ताव हो, पति चाहे जैसा भी हो उसे बर्दाश्त करना होगा, क्योंकि यही तो उसका फर्ज़ है। औरत ऐसी ही तमाम प्रताड़नाएं तो झेलने के लिए ही बनी हैं, और वे तमाम प्रताड़नाएं हमारे दैनिक जीवन के किरदारों के हिसाब से बनी हैं। 
आत्महत्या और ज़िंदा लोग - आशिमा | Suicide and People alive - Ashima

मसलन, समाज के लिए ये यूनिवर्सल ट्रुथ है कि कोई भी मां-बाप अपने बच्चे का बुरा नहीं सोचेंगे, चाहे वे उसपर क्लास में फर्स्ट आने का दबाव और ताने दिन रात देते रहें, बेटा-बेटी जिससे प्यार करें उससे शादी नहीं करने देंगे, क्योंकि माता-पिता हैं, वे किसी भी कीमत पर ग़लत नहीं हो सकते। ऐसे माता-पिता अपने बच्चों की आंखों में अपने प्रेमी, प्रेमिका से बिछड़ जाने का ग़म दिन रात देखते हैं, लेकिन उस दर्द को न जाने कौन सी बेदर्दी से हजम करते रहते हैं, क्योंकि वे तो माता-पिता हैं, जो हैं सही हैं, चाहे औलाद जीवन भर उसकी कीमत अदा करे। उसी तरह एक और ट्रुथ है कि पुरुष जज्बाती नहीं हो सकता, वह रो नहीं सकता, अपना दुख किसी से कह नहीं सकता, क्योंकि वह लड़का है और लड़कों को मातम करना आंसू बहाना सूट नहीं करता। ऐसे में ऐसे लड़के न जाने कितनी दुनिया के बराबर दुख अपने अंदर लेकर जीते हैं, क्योंकि अगर उसका इज़हार किया तो दुनिया दो मिनट नहीं लगाएगी उसे कमज़ोर करार देने में, ये पुरुष भी हमारे साथी हैं, मनुष्य हैं, और वे भी अपनों से अपनी परेशानी शेयर करने का, अपना मन हल्का करने का पूरा पूरा हक रखते हैं; लेकिन नहीं, समाज उन्हें इसकी मंज़ूरी नहीं देगा, और अगर उसने ऐसा किया भी तो उससे दुगना दुख समाज की प्रतिक्रिया से मिलेगा, क्योंकि मर्द को दर्द नहीं होता और दुखी नहीं होना ही उसकी बहादुरी है। 

सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि रोना कमज़ोरी की निशानी नहीं है बल्कि अपने जज़्बातों के प्रति ईमानदारी की निशानी है, जिसे हम अपने आंसुओं के रूप में बाहर लाते हैं। 

वैसे तो ये समस्या पूरी दुनिया की ही है लेकिन हमारे देश में तो यदि किसी को भूले-भटके सलाह भी दी जाय कि आप की हालत ठीक नहीं है आप किसी Psychologist से मिलें, तो कोई दो राय नहीं कि पहली प्रतिक्रिया यही आती है कि ‘ये कोई पागल थोड़े ही है’। मायके वाले कैसे ये स्वीकार कर लें कि उनकी बेटी डिप्रेशन का शिकार है, और उसे साइकोलोजिस्ट की ज़रूरत है, क्योंकि अगर ससुराल वालों को पता चला तो उसे स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि उसपर पागल होने का इल्जाम लगा देंगे, इसलिए उसे ससुराल की हर तकलीफ सहनी चाहिए यही उसके संस्कार होंगे। 

आत्महत्या और ज़िंदा लोग - आशिमा | Suicide and People alive - Ashima
फिटनेस फ्रीक आशिमा आईआईएमसी से पढाई करने के बाद, महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर स्वतन्त्र लेखन करती हैं। आशिमा नियमित रूप से दैनिक जागरण, नवभारत टाइम्स, जनसत्ता आदि अखबारों के लिए लिखती हैं।

ईमेल : blossomashima@gmail.com

जिस तरह से मौसम या माहौल खराब होने पर हमारा शरीर बर्दाश्त नहीं कर पाता और हम बीमार हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार हमारे दिमाग के साथ भी है, यदि कोई बात हमारे दिमाग की बर्दाश्त से बाहर हो जाएगी, तो हमारा दिमाग भी बीमार होगा, जिसको इलाज भी होगा, लेकिन नहीं हम पागल थोड़े ही न किसी को कहेंगे। 
तो क्यों न अब इस बात पर चर्चा की जाए, कि आखिरी बार कब ससुराल से मायके आई बेटी को माता-पिता ने घर से यह कहकर रुख़सत कर दिया था कि वही तुम्हारा घर है, और सहनशीलता के नाम पर घुटने टेक देने के पाठ पढ़ाकर वापस भेज दिया हो, खैर ऐसी लड़कियों को तो आत्महत्या भी बदनामी का दाग होता है। या फिर कोई बच्चा जो शाम को बाहर खेलने जाना चाहता है लेकिन पड़ोस के बच्चे से ज़्यादा नंबर लाने के दबाव में अब तक पढ़ रहा है। एक लड़का जिसने न जाने कितना दर्द अपने दिल में दबा रखा है, जो कि आंसुओं के जरिये बाहर आने को आतुर है, ज़रूरत है तो बस एक कंधे की, एक दर्द बांटने वाले इंसान-रूपी फरिश्ते की। लेकिन नहीं, हम ये सब बेशर्म आंखों से बर्दाश्त किये जा रहे हैं, और एक दिन जब इन्हीं में से किसी के आत्महत्या करने की खबर आती है, तो मायके ससुराल वाले, घरवाले बाहरवाले, माता पिता, पति पत्नी, दोस्त, रिश्तेदार सब अफसोस के लिए आगे आ जाते हैं। क्या वाकई उन सभी के ऐसे अंजामों का हमें अंदाज़ा नहीं होता? सबसे दुखदायी होता है यह सुनना कि वह ऐसा करने वालों में से तो नहीं था या थी। फिर तो उसके दर्द का अंदाजा और भी सहज लगाया जा सकता है, क्योंकि वह जाने वाला इस हद तक मजबूर था कि उसने वह कर डाला जो वह कभी नहीं कर सकता था। 

इस पूरे चक्के में इंसानियत के पाठ कहां हैं? क्या अब भी हमें समझ नहीं आया कि यह आधा-मरा और आधा-ज़िंदा क्या है? और हम ऐसे कितने लोगों को जानते हैं?

... जनाब असलियत तो ये है, कि हम सब शायद एक दूसरे का आधा-मरा नज़र अंदाज करते हैं। तो क्यों नहीं कम से कम अब से हम एक दूसरे का आधा-ज़िंदा बचाने की कोशिश करें, ज़िंदगी चाहे जैसे भी दिन दिखाए हम उससे आगे निकलते जाएं, एक दूसरे का आधा-ज़िंदा बचाएं, ऐसे तमाम सामाजिक यूनिवर्सल ट्रुथ को नकार दें जो खुलकर जीने की इजाजत नहीं देता। दुनिया का कोई भी रिश्ता या फर्ज़ अदायगी ज़िंदगी से बढ़कर नहीं है। ताकि मुस्कुराते चेहरे सिर्फ तस्वीरों में ही कैद होकर न रह जाएं। यकीन मानिये मुस्कुराते चेहरे तस्वीरों में नहीं बल्कि अपने आस-पास ज़्यादा अच्छे लगते हैं... एक की खुदकुशी बाकी कई ज़िंदा लोगों पर भारी है। और यह भी मानना पड़ेगा, कि खुदकुशी से दुख या समस्या सुलझती नहीं मात्र कुछ जिंदा लोगों पर टल जाती है। 
यकीन इस बात का भी मानिये ऐसे ही कहा जाने लगे, तो आत्महत्या हम में से कोई नहीं कर सकता, और सभी कर सकते हैं। क्योंकि कोई है जो किसी कारण से आत्महत्या कर चुका और कोई और भी है जो उन्ही कारणों के साथ ज़िंदा है, तो दोनों स्थितियों को कंपेयर करने के बजाय उनके कारणों और आस-पास के लोगों की भूमिकाओं पर चर्चा हो और उनके समाधान पर चर्चा हो तो सही होगा, क्योंकि किसी का मात्र ज़िंदा नज़र आते रहना ही जीवन नहीं है।

हंसमुख चेहरों को तस्वीरों में देख कर उनके ज़िंदा न होने का यकीन करना बहुत दुखदाई है, चाहे आप उन्हें अच्छी तरह से जानते हो या नहीं।

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कम से कम एक दरवाज़ा - सुधा अरोड़ा | Suicide in India - Sudha Arora


कम से कम एक दरवाज़ा

सुधा अरोड़ा

( समाज में जो बदलाव हमें दिखाई दे रहे हैं, वे बहुत ऊपरी हैं. कहीं आज भी हम स्त्रियों को उनका अपेक्षित सम्मान नहीं दिला पा रहे हैं और न ही उनके लिये परिवार और समाज की ओर से वह सपोर्ट सिस्टम तैयार कर पा रहे हैं, जो उन्हें जीवन की विसंगतियों से, असुविधाओं और कठिन परिस्थितियों से जूझने के रास्ते मुहैया करवा सके. शिक्षित करके हमने उन्हें अर्थ उपार्जन का रास्ता तो दिखा दिया, आत्मनिर्भर बनाकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा भी कर दिया, पर हम उन्हें जीवन जीने की कला, विपरीत परिस्थितियों से जूझने का तरीका, अपने लिये एक दरवाजा खुला रखने का ढब नहीं सिखा पाये.)

 आज से करीब डेढ़ सौ साल पहले की भारतीय स्त्रियों को अपनी सामाजिक स्थिति और अपनी यातना की पहचान ही नहीं थी. अपने घर की चहार दीवारी की परेशानियों से बिला शिकायत जूझना उनकी मजबूरी थी और उन्हें यथासंभव संवार कर चलना उनका स्वभाव. घर से बाहर उनकी गति नहीं थी इसलिये जहां, जितना, जैसा मिला,सब शिरोधार्य था. सहनशीलता और त्याग उनके आभूषण थे. अगर सम्मान मिला तो अहोभाग्य, दुत्कार मिली तो नियति- क्योंकि अपने जीवन से एक स्त्री की अपेक्षाएं कुछ थीं ही नहीं.


एक मध्यवर्ग की स्त्री अगर प्रतिभावान और रचनात्मक हुई तो वह रसोई और बच्चों की देखभाल के बाद दोपहर के बचे हुए समय में, घर के फेंके जाने वाले सामान से चित्रकला या क्रोशिए से बॉर्डर या कवर बिनतीं, साड़ियां, चादरें और तकिया गिलाफ़ काढ़तीं - इस तरह अपना पूरा समय वे घर की चहारदीवारी के भीतर की स्पेस को सजाने-संवारने-निखारने में बिता देतीं.

अपने अधिकारों के प्रति अज्ञानता, अपने घरेलू श्रम को कम करके आंकना, बचपन में विवाह, विधवा हो जाने पर सामान्य जीवन जीने पर अंकुश आदि ऐसी कुरीतियां थीं, जिसके चलते उन्हें शिक्षित करना उस कालखंड की अनिवार्यता बन गई. स्त्रियां शिक्षित हुईं. शिक्षा से स्त्रियों का जागरुक होना स्वाभाविक था. लेकिन बाहरी स्पेस में उनका काम स्कूल में अध्यापन करने तक ही सीमित रहा. शिक्षा के बाद की दूसरी सीढ़ी आई, उन्हें आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया गया और शिक्षण से आगे, बैंकों में, सरकारी दफ्तरों में, कॉरपोरेट जगत में और अन्य सभी क्षेत्रों में स्त्रियों ने दखल देना शुरु किया. आर्थिक रूप से हर समय अपना भिक्षापात्र पति के आगे फैलाने वाली स्त्री ने घर को चलाने में अपना आर्थिक योगदान भी दिया. पर इससे उसके घरेलू श्रम में कोई कटौती नहीं हुई. इस दोहरी जिम्मेदारी को भी उसने बखूबी निभाया.

माना कि भारतीय समाज में वैवाहिक सम्बन्धों में बेहतरी के लिये समीकरण बदले हैं, पर वह स्त्रियों के एक बहुत छोटे से वर्ग के लिये ही है- जहां पुरुषों में कुछ सकारात्मक बदलाव आये हैं. मध्यवर्गीय स्त्री के एक बड़े वर्ग के लिये आज स्थितियां पहले से भी बहुत ज़्यादा जटिल होती जा रही हैं.

आज स्त्रियों को लेकर पूरा परिदृश्य बहुत ज़्यादा निराशाजनक है. रोज़ का अखबार स्त्री के साथ घटित नये हादसे लेकर हमारे सामने आता है पर समय जितना असंवेदनशील होता जा रहा है, ये हादसे घटित होने के पहले दिन जैसे अखबार के पहले पन्ने पर रहते हैं और अगले कुछ दिनों में तीसरे चौथे पन्नों पर स्थानांतरित होकर अखबार से गायब हो जाते हैं, वैसे ही हमारे दिमाग़ पर सिर्फ पहले दिन इनकी दस्तक हथौड़े सी पड़ती है पर धीरे धीरे ये हमारी आंखों से ओझल होते ही मन पर हल्की सी खरोंच छोड़कर हमारी सोच का हिस्सा बनने से पहले ही हमारी दहलीज़ छोड़ जाते हैं.

आत्महत्या के फैसले

अन्तर्राट्रीय महिला दिवस के दिन 8 मार्च 2011 से 28 सितम्बर 2011 तक- छह महीनों के अंदर मुंबई के उपनगरों में बीस से बत्तीस की उम्र की चार लड़कियों की आत्महत्याएं नये सिरे से हमारे सामने ढेर सारे सवाल खड़े करती है. ये चार तो अखबारों के पहले पन्नों पर दर्ज किये गये मामले थे, प्रताड़ना के कई मामले बदनामी के डर से घर के सदस्यों द्वारा ही दबा दिये जाते हैं. पहले हम इन चारों आत्महत्याओं की स्थितियों पर एक नज़र डालें -

8 मार्च 2011 - अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दिन, जब दिल्ली से राधिका तंवर की हत्या की खबर पहुंची, उसके साथ ही दिल दहला देने वाली खबर थी- निधि गुप्ता (जालान) की- जिसने मलाड के एक रिहायशी टावर के उन्नीसवें माले के रिफ्यूज एरिया में जाकर अपने छह साल के बेटे गौरव और तीन साल की बेटी मिहिका को छत से नीचे फेंकने के बाद खुद कूद कर तीन ज़िदगियों का अंत किया. निधि गुप्ता एक चार्टर्ड अकाउंटेंट होने के साथ, मलाड के सराफ कॉलेज की विज़िटिंग लेक्चरार थी और एम.बी.ए. की परीक्षा में बैठने की तैयार कर रही थी.

16 अप्रैल 2011- दहिसर पूर्व के एक टावर की सातवीं मंज़िल पर रहने वाली दीप्ति चौहान (परमार) ने वॉचमैन से छत की चाबियां लीं. वहां जाकर पहले अपने छह साल के बेटे सिद्धेश की आंखों पर पट्टी बांधकर उसे छत से नीचे फेंका और उसके बाद खुद कूदकर अपनी जान दे दी. दीप्ति अब एक गृहिणी थी और उसका पति नीलेश शेयर मार्केट का ब्रोकर.

26 जुलाई 2011- शिवानी साहू- एम.बी.ए. ने, मुलुंड पूर्व के अपने निवास पर, डेढ़ साल की अपनी बच्ची को छोड़कर पंखे से झूलकर आत्महत्या कर ली.

28 सितम्बर 2011- निधि सिंह 24 वर्ष - आय.आय.टी. कानपुर की स्नातक और एम.बी.ए.- फरवरी में समदर्शी सिंह से प्रेम विवाह किया और मुंबई के उपनगर अंधेरी पूर्व में पहली मंजिल के फ्लैट में चार महीने पहले ही शिफ्ट हुई थी, शादी के सात महीने बाद, पंखे से झूलकर आत्महत्या कर ली. यह कदम उठाने से पहले उसने अपने मोबाइल पर एक मिनट का अपना बयान रिकॉर्ड किया कि उसके इस निर्णय में किसी का हाथ नहीं है. वह अपने माता पिता और पति को अपनी कुंठाओं से परेशान नहीं करना चाहती, इसलिये अपने जीवन का अंत कर रही है.

इन चारों आत्महत्याओं में कुछ आश्चर्यजनक समानताएं हैं. मध्यवर्ग से आई ये चारों लड़कियां पढ़ी लिखी थीं. शादी से पहले नौकरी करती थीं. चारों ने अपनी मर्ज़ी से अपने जीवन साथी का चुनाव कर प्रेम विवाह किया. अपनी डिग्रियों और योग्यता के बल पर वे अपना एक स्वतंत्र मुकाम बना सकती थीं, फिर इन्होंने आत्महत्या का रास्ता क्यों चुना? शिक्षा, आर्थिक आज़ादी और आत्मनिर्भरता के बावजूद ऐसे हादसों पर रोक नहीं लग पाई तो क्यों ? आखिर चूक कहां हो गई? यह सवाल किसी भी सोचने समझने वाले व्यक्ति को, समाजिक कार्यकर्ताओं को, समाज विज्ञान के अध्येताओं को विचलित करेगा. इनमें से कुछ हादसों के तह तक पहुंचने की एक कोशिश की जानी चाहिये. अखबार सिर्फ सूचना देते हैं, हादसों का विश्लेषण करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती.


चार्टर्ड अकाउंटेंट और मलाड के पोद्दार कॉलेज की शिक्षिका निधि गुप्ता के मित्रों, परिचितों और परिवार के सदस्यों ने बयान दिया कि निधि गुप्ता कभी अपनी घरेलू समस्याओं से परेशान दिखाई नहीं देती थी, वह बिल्कुल ‘नॉर्मल’ थी, अवसाद के कोई निशान उसके चेहरे पर नहीं थे .

गुप्ता परिवार के फ्लैट से कभी लड़ने झगड़ने की आवाज़ें नहीं आईं. दो बेडरूम के फ्लैट में वे दो भाई- जिसमें से एक की शादी नहीं हुई थी और एक बहन-बहनोई अपने माता पिता के साथ रहते थे. निधि गुप्ता के ससुरालवालों ने यही बयान दिया कि ‘सबकुछ ठीक था’, ‘परिवार में कोई तनाव नहीं था’ और ‘ वे निधि के अपने दो छोटे बच्चों को मारकर खुद आत्महत्या करने के ऐसे भयावह निर्णय के पीछे कोई कारण तलाश पाने में असमर्थ हैं.’

यह एक अप्रत्याशित कदम था और कोई नहीं जानता कि उसने ऐसा क्यों किया. लेकिन सतह पर सबकुछ सही और ठीक दिखते हुए भी भीतर कितनी उथलपुथल छिपाए रहता है, यह कोई समझ पाने की कोशिश भी नहीं करता. यह जानते हुए भी कि निधि गुप्ता ने अपनी शादी की सालगिरह की तारीख से एक दिन पहले अपने और अपने दोनों बच्चों के जीवन का अंत करने का निर्णय लिया, अखबारों में तीन दिन तक पहले पृष्ठ पर प्रमुखता से यही आता रहा कि उसने न अपने माता पिता से, न मित्रों से कभी अपने अवसाद की बात की.

शादी की सालगिरह से पहले यह निर्णय लेना स्पष्टता से यह तो बताता ही है कि सतह पर सामान्य दिखते रिश्तों की भीतरी गहरी दरारों को ऊपर से ढके रहना मुश्किल नहीं होता. आम तौर पर हर लड़की ऊपर से मुस्कुराहट बिखेरते हुए भी अपने भीतर का झंझावात छिपाये रखती है. जीवन साथी की अपने प्रति निर्मम उपेक्षा या भावात्मक हिंसा को अपने भीतर जज़्ब करते हुए वह अपने पड़ोसियों या कार्यस्थल के मित्रों के साथ बातें करने में, अपने को अपने करियर के लिये पढ़ाई में व्यस्त रखने में, बच्चों की देखभाल में या उनके स्कूल का होमवर्क कराने में, या घर गृहस्थी के अंतहीन कामों में अपने को खपा डालती है.

कोई भी मध्यवर्गीय स्त्री, खासतौर पर दो बच्चों की मां, अपने परिचितों और मित्रों से अपनी घरेलू निजी त्रासदियों का बखान करना पसंद नहीं करती. वह यही सोचती है कि अपनी समस्याओं का हल वह ढूंढ ही लेगी. अपने परिवेश के बढ़ते हुए दबाव को महसूस करते हुए भी वे इसे अपने भीतर ही छिपा कर रखना चाहती है.

अधिकांश महिलाओं के साथ यही होता है कि वे इसे सभी महिलाओं के जीवन की औसत त्रासदी समझती हैं और अपने मां-बाप से इस तकलीफ को बांटकर उनके दुख को और बढ़ाना नहीं चाहतीं. एक अलिखित आचार संहिता उन्हें रोकती है जिसके तहत वे सोचती हैं कि मां-बाप की ज़िम्मेदारी उन्हें पढ़ा-लिखा कर अपने पैरों पर खड़े होने की कूवत देने और अपनी मर्जी के लड़के से ब्याह करने की इजाज़त देने के बाद समाप्त हो जाती है और शादी के बाद की सारी समस्याओं से अब उन्हें अकेले ही निबटना है.

आज भी आम मध्यवर्ग की एक सामान्य लड़की अपना शत प्रतिशत दे देती है. शादी के बाद घर-परिवार, पति-बच्चे उसकी पहली प्राथमिकता होते हैं- आम तौर पर उसका अपना करिअर, अपनी महत्वाकांक्षाएं दूसरे नम्बर पर आती हैं पर उसकी इस प्राथमिकता और भावात्मक लगाव पर लगातार चोट की जाती है. ससुराल के अन्य सदस्य तो एक तरह से दुश्मन के खेमे में तैनात हो ही लेते हैं, अक्सर पति भी नयी ब्याही पत्नी का साथ छोड़कर अपने घर के सदस्यों का साथ देने लगता है. ऐसे में लड़की पर दोहरी चोट है. ससुराल के सदस्यों के प्रेम की वह हक़दार नहीं बनती और अपने मां-बाप के साथ अपनी इस त्रासदी को बांटकर उन्हें दुखी नहीं करना चाहती.

आपसी संबंधों में भावात्मक खाई और संवेदना का टकराव असंवेदनशीलता से होना उन्हें तोड़ता है. अगर वह अपने ही भीतर एक ऊर्जा, एक संबल पैदा करने में असमर्थ रहती है तो उसके भीतर अवसाद की जड़ें इतने गहरे तक पैठ जाती हैं कि बहुत दिनों तक भीतर एक झंझावात झेलते हुए और बाहर से एक खुशनुमा आवरण ओढ़ते हुए वह अंदर ही अंदर छीजती चली जाती है. ऐसी ही लड़कियों को एक चरम स्थिति (डेस्पेरेशन) में अपना और अपने बच्चों के जीवन का अंत करना ही एकमात्र हल दिखाई देता है.

आय.आय.टी. कानपुर की स्नातक और एम.बी.ए. निधि सिंह के पति ने बताया कि काम पर जाने से पहले निधि ने पति से मिन्नत की कि वह दस मिनट के लिये उससे बात करे और तब जाये. वह कुछ देर रुका भी पर उसे ऑफिस के लिये देर हो रही थी. ऑफिस जाने के कुछ देर बाद उसे एक एस.एम.एस. मिला- ‘‘सॉरी’’ उसने इसे गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि उसने नहीं सोचा था कि निधि अपने जीवन का अंत करने जा रही है. सिर्फ सात महीने पहले फरवरी में उनकी शादी हुई थी. निधि ने शादी के बाद अपनी नौकरी छोड़ दी थी और वे चार महीने पहले ही इस नये घर में शिफ्ट हुए थे.

‘बचाव के लिये पुकार ’ (Cry for Help)

आत्महत्या के निर्णय से पहले ‘सहारे की ललक‘ या ‘बचाव के लिये पुकार ’ ( क्राई फॉर हेल्प ) हमेशा दिखाई देती है. निधि सिंह का अपने पति को बात करने के लिये बार-बार रोकना इसी चीख के अंश है, आम तौर पर जिसे अनसुना कर दिया जाता है. निधि गुप्ता जालान और दीप्ति सावंत परमार के साथ भी यही स्थिति थी. दोनों ही अपने माता पिता को संकेत दे रही थीं कि वे एक दबाव और तनाव में जी रही हैं. घटना के बाद भी वे इन संकेतों को नकारते हैं. इन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता- यह कहकर कि यह तो सभी के साथ होता है और बीत जाता है. एडजस्टमेंट ही एक ऐसी घुट्टी है, जिसे हर मां-बाप अपनी बेटी की शादी में पोटली में बांधकर थमा देते हैं कि तालमेल बिठाकर रहना सीख लेना.

शादी के बाद बेटी की दबी दबी सी शिकायत पर ध्यान न देकर यही कहा जाता है कि आज की लड़कियों में सहनशीलता की बहुत कमी है. आज के समय की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि आज भी अपने आत्मसम्मान को पीछे धकेलकर उसी धैर्य और सहन करने की अपेक्षा उससे की जाती है जो विकल्पहीनता की स्थिति में सदियों तक स्त्री का एकमात्र चुनाव रहा है.


निधि गुप्ता को शादी के बाद नौकरी छोड़ने के लिये कहा गया क्योंकि बच्चे छोटे थे और उनकी देखभाल करने को सास या ननद तैयार नहीं थीं. उसने नौकरी छोड़ दी. बाद में उससे कहा गया कि उसके पति के व्यवसाय में मंदी आ गई है तो उसे नौकरी फिर कर लेनी चाहिये.

उसने सर्राफ कॉलेज में पार्ट टाइम नौकरी कर ली. संयुक्त परिवार होने के कारण उसे अपने रोज़मर्रा के खर्च के लिये अपने पति या बड़ी ननद के आगे हाथ फैलाने पड़ते थे. जिस दिन उसने यह कदम उठाया, उस दिन की घटना थी कि उसके छह साल के बेटे को स्कूल की किसी पिकनिक के लिये सौ रुपये चाहिये थे. उसने हमेशा की तरह बुआ से मांगे और बुआ ने नहीं दिये. बेटा रुआंसा हो गया.

दोनों बच्चों को टिफिन और पानी की बोतल और स्कूल के बस्ते से लैस निधि अपने निवास के नौवें माले से स्कूल के लिये तैयार बच्चों को लेकर निकली और लिफ़्ट से नीचे जाने के बजाय लिफ्ट को ऊपर उन्नीसवें माले के रिफ्यूज एरिया में ले गई जहां से उसने तीन ज़िंदगियों का अंत किया.

संयुक्त परिवार के नकारात्मक पक्ष यहां एक बड़ा रोल निभाते हैं जहां एक पढ़ी लिखी लड़की का भी अपनी कमाई पर अधिकार नहीं होता. परम्परा के वर्चस्व तले एक तयशुदा रूप से ससुराल के अन्य सदस्य परिचालित करना चाहते हैं और पति इसमें या तो मूक इकाई की भूमिका निभाता है या अपने घर के सदस्यों का साथ देता है, जो अपना घर-परिवार छोड़ कर आई लड़की को और उसके पैर तले की ज़मीन को और कमज़ोर कर देता है. जो घर वह छोड़कर आई है, वह उसे विदा कर अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो लेता है और जिसे वह अपना घर समझती है, वह भी उसका हो नहीं पाता. ऐसे में भावात्मक असुरक्षा उसे निपट अकेला कर देती है और घर के नाम पर उसके सामने एक शून्य होता है.

कुछ और मामले 

28 जून 2010 को सभी अखबारों में निशि जेठवानी (सोनी) की आत्महत्या की खबर थी, जिसने मुंबई के एक उपनगर मुलुंड की बहुमंजिला इमारत रुनवाल प्राइड के 27 वें माले से कूदकर आत्महत्या कर ली. मध्यवर्ग से आई निशि सोनी एक प्रमुख शेअर कम्पनी में कार्यरत थी, जहां उसकी पहचान रईस परिवार के जितेन्द्र जेठवानी से हुई. शादी से पहले ही उसके सामने अनिवार्य शर्त रख दी गई थी कि वह अपनी नौकरी छोड़ देगी.

उसके प्रेम विवाह को सिर्फ तेरह महीने हुए थे. शादी के कुछ महीनों बाद ही उससे नौकरानियों जैसा व्यवहार किया जाने लगा. घर के सारे काम उस पर लाद दिये गये. उसके खाने पर भी पाबंदी थी और उसे ससुराल के सदस्यों द्वारा पीटा भी जाने लगा. इसके विरोध में वह ढ़ाई महीने अपने मायके रही, जहां उसे ‘अपने’ घर से तालमेल बिठाकर रहने का सबक देकर फिर वापस भेज दिया गया.

पति के आश्वासन पर उसे भी लगा कि स्थितियां सुधर जायेंगी लेकिन यह उसका भ्रम था. अपनी आर्थिक स्वतंत्रता खोकर, और दोबारा विपरीत परिस्थितियों में झोंके जाने के बाद उसका दर्ज़ा एक नौकरानी से बेहतर नहीं था. अब 27 वें माले से कूदकर अपने जीवन की सारी यातनाओं से मुक्त होने का उसके सामने एकमात्र विकल्प था. अपने माता पिता की इच्छा के खिलाफ जाकर उसने एक रईस खानदान के लड़के से प्रेम विवाह करके बगावत की थी और अपने को सज़ा देने का यही क्रूर और निर्मम तरीका उसे आसान लगा, जिससे वह अपने मां-बाप को एक ही बार सारे जंजालों से उबार सके.

ऐसा ही एक केस था आकांक्षा का पर उसने अपनी मजबूती से स्थितियों को बदलने का हौसला दिखाया. लखनऊ की यह लड़की संस्कृत और मनोविज्ञान से एम.ए. करने के बाद एक जूनियर कॉलेज में पढ़ा रही थी. हॉस्टल में रहती थी और उसे नाटकों में अभिनय का शौक था. एक नाटक के दौरान उसकी मुलाकात अपने अभिनय के प्रशंसक एक बंगाली लड़के से हुई. घर से भाग कर उसने शादी की और आकांक्षा के घरवालों ने उससे रिश्ता तोड़ लिया और अपने घर के दरवाज़े उसके लिये बंद कर दिये.

शादी के बाद सात साल तक वह अपने पति के साथ दिल्ली, आबूधाबी और दोहा जैसी जगहों में उसकी नौकरी के साथ-साथ घूमती रही. एक बेटी भी पैदा हो गई. आखिर जब उनका ट्रांसफर मुंबई में हुआ तो उसने एक नाटक में अभिनय के लिये हामी भर दी. अब पति ने न सिर्फ नाटक करने के लिये मना किया, यह अल्टीमेटम भी थमा दिया कि नाटक में काम करने के बारे में उसने फिर सोचा भी तो वह शादी तोड़ देगा.

लड़ने का हौसला

मानसिक रूप से पूरी तरह ध्वस्त आकांक्षा हमारे पास आई- इस दृढ़ निश्चय के साथ कि वह आत्महत्या करने से पहले अपनी बेटी को पहले खत्म करेगी क्योंकि वह नहीं चाहती कि वह सौतेली मां के हाथों प्रताड़ित हो और उसके पापा में इतनी कूवत नहीं है कि वे उसे पनपने के लिये एक स्वस्थ माहौल दें. उसे हताश होकर दो दो ज़िंदगियां खत्म करने की जगह हौसला बुलंद रखने के लिये समझाया गया. अब उसकी एक और बेटी है. दोनों को साथ लेकर वह नाटक देखने जाती है. स्कूल में नौकरी भी करती है और बड़ी बेटी के स्कूल के लिये नाटक का निर्देशन कर रही है जिसमें दोनों मां बेटी हिस्सा ले रही हैं.

क्या किसी भी लड़की के विवाह को बचाने की यह शर्त होनी चाहिये कि वह अपनी सारी रचनात्मक प्रतिभा को समूल नष्ट कर दे. अगर इसी शर्त पर विवाह को बचना है तो आकांक्षा कहती है- ‘‘ मुझे भी निर्णय लेने का हक है कि मैं दोनों बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी उठाने के बाद अपनी रचनात्मकता और प्रतिभा को कैसे बचाये रखूं. आखिर पति जीवन के हर मोड़ पर अपनी ही शर्तें डिक्टेट नहीं कर सकता.’’

...और इस तरह के मामले तो असंख्य हैं जहां एक स्त्री अपनी मित्र या पड़ोसी से भी अपनी यातना को शेअर नहीं करती. मैं मुंबई के बांद्रा इलाके के अपने निवास पर अपनी पड़ोसी स्वाति खन्ना को भूल नहीं सकती, जो मुझे रोज़ सुबह की सैर के वक्त मिलती थी और जिनके साथ मैं कभी कभी ‘हेल्प‘ में काउंसिलिंग के लिये आये प्रताड़ित महिलाओं के मामलों के बारे में बात किया करती थी.


वे हमेशा यही कहतीं कि यह तो घर-घर का किस्सा है, सबके साथ होता है. पर उन्होंने कभी अपने बारे में कुछ नहीं बताया. नौ साल वहां रहने के बाद, अचानक एक रात मुझे एक दूसरी पड़ोसन ने रात के बारह बजे बुलाया. बचाओ-बचाओ की भयावह चीखें नीचे तक पहुंच रही थीं. पता चला- स्वाति लगातार 33 सालों तक अपने पति की हिंसा का शिकार हो रही थी. स्वाति उस पीढ़ी की थी, जो अपने सम्मान को अपने पति के सम्मान के साथ जोड़कर देखती हैं और सिर्फ तब अपने मुंह से चीखें बाहर आने देती है, जब उम्र के साथ कमज़ोर होती उनकी देह मारपीट झेलने के लायक नहीं रह जाती.

आज भी मध्यवर्ग की लड़कियां अगर कहती नहीं तो इसका अर्थ यह नहीं कि वे सहती नहीं. होता सिर्फ यह है कि एक सीमा के बाद उनके शॉक एब्ज़ॉर्बर्स बिल्कुल फेल हो जाते हैं और अपने सामने एक डेड एंड देखने के बाद ही वे ‘बचाव के लिये चीख ‘ का इस्तेमाल करती हैं. अचानक एक दिन आत्महत्या के खयाल का दौरा पड़ने पर कोई इतना बड़ा कदम नहीं उठा लेता, इसलिये इन उठती हुई छोटी-छोटी कराहों और चीखों को पहचानना ज़रूरी है.

दक़ियानूसी सोच से मुठभेड़ करने के कारगर तरीके : मीडिया और साहित्य 

जाहिर है, हमारे समाज में जो बदलाव हमें दिखाई दे रहे हैं, वे बहुत ऊपरी हैं. कहीं आज भी हम स्त्रियों को उनका अपेक्षित सम्मान नहीं दिला पा रहे हैं और न ही उनके लिये परिवार और समाज की ओर से वह सपोर्ट सिस्टम तैयार कर पा रहे हैं, जो उन्हें जीवन की विसंगतियों से, असुविधाओं और कठिन परिस्थितियों से जूझने के रास्ते मुहैया करवा सके. शिक्षित करके हमने उन्हें अर्थ उपार्जन का रास्ता तो दिखा दिया, आत्मनिर्भर बनाकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा भी कर दिया, पर हम उन्हें जीवन जीने की कला, विपरीत परिस्थितियों से जूझने का तरीका, अपने लिये एक दरवाजा खुला रखने का ढब नहीं सिखा पाये.

आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर स्त्रियां भी भावनात्मक रूप से अपने पति का ही मुंह जोहती रहीं. भावनात्मक आघात ही अपने जीवन का अंत करने पर उन्हें विवश करते हैं.

सबसे पहले तो हमें इस भ्रांति को तोड़ना होगा कि साहित्य से कोई सामाजिक क्रांति आ सकती है. इसके लिये दृश्य मीडिया एक ज्यादा असरकारक औजार हो सकता था पर दृश्य मीडिया को ‘चिकनी चमेली’ और ‘शीला की जवानी’ के प्रदर्शन और ‘एंटरटेनमेंट’ से ही फुर्सत नहीं है.

मीडिया और टी वी चैनलों में लगातार चलने वाले धारावाहिकों में संयुक्त परिवारों के अभिजात्य, साज सज्जा और शादियों के ताम-झाम को लगातार आकर्षक बनाकर दिखाया जाता है, जिसमें एक उच्च वर्ग की बहू की भूमिका कर्तव्यों से जकड़ी एक ‘ चुप रहकर सहने वाली स्त्री ‘ की होती है. उसके खिलाफ षडयंत्र रचने वाली एक खलनायिका स्त्री के महिमामंडन के तहत एक चरित्र गढ़ना अनिवार्य हो जाता है. जीवन की जटिलताओं को पहचानने और जीने के सकारात्मक पक्षों को उकेरने की ज़िम्मेदारी से मीडिया हमेशा बचता है. उच्चमध्य वर्ग की पढ़ी लिखी लड़कियां भी इस दोयम मानसिकता को स्वीकार करती हैं और उनके लिये अपने जीने की कीमत पर भी उसमें से बाहर निकलना आसान नहीं होता.

साहित्य की पहुंच बहुत सीमित है. इसे आज के समय में हम क्रांति का औजार नहीं मान सकते. यह जरूर है कि ऐसी स्थितियां हमारे मानस को झकझोरती हैं, तो हम अपनी कलम के जरिये एक बदलाव लाना चाहते हैं. परिवर्तन की प्रक्रिया को तेज़ करना चाहते हैं. जरूरत है, समाज की मानसिकता बदलने की. सामाजिक सरोकार रखने वाला हर रचनाकार अपनी अपनी तरह से यह कोशिश जरूर करता है कि बुनियादी कुरीतियां हटे, समाज में स्त्रियों के लिये सम्मान से जीने लायक एक माहौल बने पर यह संभव हो पाता है क्या ?

ऑनर किलिंग में इतने खूबसूरत युवा जोड़ों को प्रेम में पड़ने के कारण उनके जीने के हक़ से ही बेरहमी से बेदखल कर दिया जाता है. इन खाप पंचायतों के खिलाफ़ हम एक सख्त कानून तक नहीं बना पाते. बनाते भी हैं तो उसे अमल में नहीं ला पाते. वोट की राजनीति आड़े आ जाती है. सारी स्थितियां एक से एक जुड़ी हुई हैं. ऐसे में कुरीतियों को जड़ से उखाड़ पाने और बदलाव लाने की प्रक्रिया लंबी है.

क्या यह सच नहीं कि हमने लड़कियों को पैसा कमाकर अपने पांव पर खड़ा होना तो सिखाया पर दक़ियानूसी सोच से मुठभेड़ करने के कारगर तरीके नहीं समझा पाये. ज़रूरी है कि इन कारगर तरीकों को कॉलेज और उच्च शिक्षा संस्थानों के पाठ्यक्रम का एक ज़रूरी हिस्सा बनाया जाये ! तभी समाज में माता पिता और पति और उसके घर के लोगों की सोच में बदलाव आयेगा और इन शिक्षित लड़कियों के जीने की लड़ाई कुछ आसान हो जाएगी.

सुधार ज़रुरी है

विवाह संस्था ऑब्सोलीट हो रही है, ‘‘विवाह संस्था को खत्म करना चाहिये’’ की जगह क्या हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि विवाह संस्था में सुधार की ज़रूरत है! सुधार कहां और कैसे ? ज़ाहिर है, जब परिस्थितियां बदल गईं हैं तो व्यक्ति को उन परिस्थितियों के अनुरूप बदलना ही होगा. जब स्त्रियां भी बाहर जा कर पति के बराबर या उससे ज़्यादा भी कमा रही हैं तो फिर बच्चों की, रसोई की पूरी ज़िम्मेदारी आज भी सिर्फ़ स्त्री के खाते में क्यों हो!

जेंडर डिवीज़न ऑफ लेबर के खांचे टूटे हैं तो उन्हें बाहर की स्पेस में ही नहीं, घर की चहारदीवारी में भी टूटना होगा. क्यों बच्चों के स्कूल में पेरेंट्स टीचर मीट में हमेशा मां ही जाये, पिता क्यों नहीं. बच्चे पिता की भी उतनी ही बड़ी ज़िम्मेदारी है जितनी मां की. मां का बच्चे को अपनी कोख में नौ महीने रखना और प्रसव पीड़ा से गुज़रने का मतलब यह क़तई नहीं है कि बच्चे के स्कूल का होमवर्क देखने से लेकर उसके करिअर, उसकी परवरिश का पूरा जिम्मा सिर्फ़ मां का ही है, पिता का नहीं. अगर बच्चा बड़ा होकर अच्छी नौकरी में जाता है तो श्रेय पिता को मिलता है कि आखिर बेटा किसका है और अगर बुरी संगत में पड़ता है तो मां की परवरिश में दोष ढूंढा जाता है.
विवाह से पहले बेशक एक लड़की अपने होने वाले पति के साथ चार-पांच साल की कोर्टशिप कर ले पर पति का असली चेहरा विवाह के बाद ही सामने आता है, जब विवाह के पंजीकृत होते ही वह अपनी पत्नी पर मालिकाना हक़ जताने लगता है. जैसे कोई आदमी अपने लिये मकान खरीदता है और मकान के मालिकाना हक़ के कानूनी काग़ज़ातों पर दस्तख़त करने के बाद, मकान हाथ में आते ही शुरु में तो वह उसे प्यार-संभाल से रखता है, पर कुछ समय बीत जाने के बाद वह दीवारों पर जहां-तहां कील ठोकता है और सामान की इधर-उधर उठा पटक शुरु कर देता है. मकान पर उसकी मिल्कियत है तो वह दीवारों और फर्नीचर के साथ मनमाना सुलूक करता है. एक पत्नी के साथ भी यही व्यवहार किया जाता है.

उसे तो कई बार शुरुआती साज संभाल भी नहीं मिलती. अपने नाम का सिंदूर भरने के साथ साथ उसका प्रेमी पति उसके साथ ज़रख़रीद गुलाम का सा सुलूक करने लगता है. पुराने समय में विकल्पहीनता की स्थिति में हर तरह का सुलूक एक ब्याहता पत्नी के लिये शिरोधार्य होता था. आज एक मध्यवर्गीय शिक्षित आत्मनिर्भर लड़की, प्रेम विवाह के बाद, माता पिता का सपोर्ट सिस्टम न होने के कारण भावात्मक उपेक्षा से बिखर जाती है क्योंकि एक ओर वह संस्कारों से बंधी है, दूसरी ओर घर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारी के बावजूद अपने सदियों पुराने दोयम दजेऱ् में कोई तब्दीली नहीं पाती.

मुंबई हाई कोर्ट के एक जज का बयान आश्चर्यजनक रूप से बेटियों के खिलाफ जाता है. उन्होंने कहा था– When a daughter gets married and leaves the house of the father to reside with her husband , She ceases to be a member of the family of father . After marriage when she goes to the house of the parents , legally she is only a guest in the house ! ( Eye –The Sunday Express Magazine - March 4 ,2012 Pg no. 20 ). ‘‘ जब एक बेटी शादी के बाद अपने पिता का घर छोड़कर पति के साथ रहने के लिये जाती है तो वह अपने पिता के परिवार का सदस्य नहीं रह जाती ! शादी के बाद जब वह अपने पिता के घर जाती है तो कानूनी तौर पर वह उस घर में एक मेहमान की हैसियत ही रखती है ! ’’

आज के समय के एक शिक्षित न्यायाधीश का यह बयान पितृसत्तात्मक समाज के ओने कोने मजबूत करता है, पुरुषों के हाथ में बेटी की मिल्कियत थमाता है और कन्या भ्रूण हत्या के कारणों की ओर संकेत करता है जहां बेटी को आज भी ‘पराया धन’ मान कर बेटी के जन्म का स्वागत नहीं किया जाता.

रास्ता कहां है ?

अगर मध्यवर्गीय तबका अपनी बेटियों को जीवन के कई मोड़ों पर चुप्पी के संस्कारों को तोड़कर ज़बान खोलने और अपनी तकलीफ को साझा करने का रास्ता सुझायें तो ऐसी त्रासदियों को रोका जा सकता है !

• हर शिक्षित और आत्मनिर्भर लड़की को यातना के चरम पर भी यह संदेश जाना चाहिये कि हर जटिल स्थिति का विकल्प है और जीने की आशा मद्धिम नहीं हुई है. यह हर महिला की ज़िम्मेदारी है.

• इस संदेश को पहुंचाने की पहली ज़िम्मेदारी अभिभावकों की है. एक बेहद स्पष्ट और मुखर संदेश बेटियों तक संप्रेषित होना चाहिये कि शादी के साथ नये माहौल में जाते ही माता पिता से उसके संबंध बदल नहीं जाते. हो सकता है नया माहौल बहुत सहयोगी न हो इसलिये यह संदेश रेखांकित होना चाहिये कि अगर शादी के बाद तुम्हें विपरीत स्थितियों का सामना करना पड़े या अपमानित होना पड़े तो तुम अकेली नहीं हो इसलिये कभी चुप रहकर अपने भीतर मत घुटना.

• दूसरी ज़िम्मेदारी शैक्षणिक संस्थाओं और मीडिया की है. शिक्षा लड़कियों को भावनात्मक संबल नहीं देती, न जीने की कला सिखाती है, यह सिर्फ पैसा कमाने का सामथ्र्य पैदा करती है. लड़कियों का भावनात्मक रूप से भी आत्मनिर्भर होना बहुत ज़रूरी है.

• सभी स्कूल और कॉलेजों में एक स्थायी प्रशिक्षित सलाहकार नियुक्त किया जाना चाहिये, जो भारतीय समाज की पुरुषवादी मानसिकता और जीवन की व्यावहारिक जटिलताओं से भी छात्र का परिचय करवाये और उन्हें अपने जीवन साथी को उसका अपेक्षित सम्मान देना सिखाये.

• हमारी धार्मिक पुस्तकें और वैवाहिक मंत्र जिस तरह एक पक्ष के हर स्थिति को स्वीकार करने और तालमेल बिठाने पर जोर देते हैं, उसे उभयपक्षी किया जाये.

• शादी तय होते ही लड़कियां सुनहरे सपने देखने लगती हैं. इन सपनों के साथ उन्हें यह भी मालूम हो कि शादी सिर्फ़ फूलों की सेज नहीं है. शादी दो अलग अलग माहौल से आये व्यक्तियों का जुड़ाव है जिसे बहुत समझदारी के साथ दोनों को ही तालमेल बनाकर चलना है. इसे निभाना ज़रूरी है पर अपनी ज़िन्दगी की कीमत पर नहीं. सामाजिक प्रतिष्ठा, परम्परा और संस्कारों के नाम पर ज़रूरी नहीं कि अकेली या तलाकशुदा होने के डर से एक शिक्षित लड़की अपनी ज़िन्दगी को ही दांव पर लगा दे. उसे अपनी शर्तों पर अपने आत्मसम्मान को बचाते हुए जीना है.

• लड़कियों को यह समझना है कि उनका जीवन बेशकीमती है और अगर शादी ठीक नहीं चलती तो दुनिया वहीं खत्म नहीं हो जाती. हादसे और आघात ही हमें मज़बूत बनाते हैं. एक दरवाज़ा बंद होने से ज़िन्दगी रुकी नहीं रह जाती. रास्ते और मंज़िलें और भी हैं.

• हम अपनी चुप्पी के संस्कारों को तोड़ें तो ज़रूर कुछ नया गढ़ पायेंगे - अपने लिये और अपने समाज के लिये ! लेकिन सबसे ज़रूरी है बेटियों के लिये एक दरवाज़े का खुला होना !

इन्हीं स्थितियों ने मुझसे ये पंक्तियां लिखवा लीं –

    कम से कम एक दरवाज़ा
    चाहे नक्काशीदार एंटीक दरवाजा हो
    या लकड़ी के चिरे हुए फट्टों से बना
    उस पर ख़ूबसूरत हैंडल जड़ा हो
    या लोहे का कुंडा !

    वह दरवाज़ा ऐसे घर का हो
    जहाँ माँ बाप की रजामंदी के बगैर
    अपने प्रेमी के साथ भागी हुई बेटी से
    माता पिता कह सकें  --
      '' जानते हैं , तुमने गलत फैसला  लिया
      फिर भी हमारी यही दुआ है
      खुश रहो उसके साथ
      जिसे तुमने वरा है !
      यह मत भूलना
      कभी यह फैसला भारी पड़े
      और पाँव लौटने को मुड़ें
      तो यह दरवाज़ा खुला है तुम्हारे लिए ! ''

    बेटियों को जब सारी दिशाएं
    बंद नज़र आएं
    कम से कम एक दरवाज़ा
    हमेशा खुला रहे उनके लिए !
(आजकल: मार्च २०१२ )
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इस फिल्म के नायक हैं कथाकार शिवमूर्ति - कमल पांडेय | Kamal Pandey on Shivmurti


इस फिल्म के नायक हैं कथाकार शिवमूर्ति 

- कमल पांडेय

कैमरे की आंख से देखते हैं शिवमूर्ति ('मंच' जनवरी-मार्च 2011 से)


इस फिल्म के नायक हैं कथाकार शिवमूर्ति  - कमल पांडेय | Kamal Pandey on Shivmurti


मध्यरात्रि की हवा में नमी है... और अरब सागर की लहरों में तेज उछाल... अपने पूरे ज्वार के साथ उठती, मुंबई की ये समुद्री लहरें तटीय चट्टानों से टकरा–टकरा कर अपनी आवाज के शोर से उनींदे शहर को जगा रही हैं... वैसे भी मुंबई एक ऐसा शहर है... जिसको नींद नहीं आती और मुंबई का आदमी कभी थकता नहीं... हां, जागते–जागते कभी–कभी जरूर सोता है ये शहर... !

मेरे समकालीनो, प्रिय आत्मजनो, मित्रो, सुधी पाठकों... ! मैं भी आज रात सो नहीं पा रहा हूं... एक फिल्म जो देख रहा हूं... मेरे जीवन की ऐसी फिल्म जिसे मैं निरंतर देखता रहा हूं... जो मेरी स्मृतियों के पर्दे पर अक्सर अपने सारे जादुई बिंबों और नाटकीय कथानक के साथ अपने आप चल पड़ती है... 

इस फिल्म के नायक हैं कथाकार शिवमूर्ति और इस फिल्म में उनका पीछा कर रहा है 19 साल का एक इवल... बुंदेलखंड की सरजमीं का एक ऐसा... इवल जो अपनी गरीबी, अपने दुखों, अपने अभावों, अपनी मजबूरियों और अपनी अनंत पीड़ाओं के बावजूद अपनी आंखों में अनंत सपने बसाए है... जो अपने सीने में मौजूद महाबली डर के बावजूद दुनिया को जीत लेने की ललक लिए हुए है... जिसे नहीं पता कि उसकी विराट आकांक्षाओं की मंजिल क्या है... उसकी भूख की रोटी कौन–सी है...  और वो राह कौन–सी है... जिस राह उसे बढ़ना है... वो किले कौन से हैं जो उसे जीतने हैं... उसे तो बस ये पता है कि वो अपने दुखों को कविता में लिख सकता है... अपने संघर्षों को शब्द देकर कागजों पर दस्तावेजों की तरह दर्ज कर सकता है...  जिसे ये नहीं पता था कि अकीरा कुरोसोवा कहां पैदा हुए हैं या कि ऑसर्न वेल्स ने कौन सी फिल्म बनाई है या कि इंगमार बर्गमैन कौन हैं या कि विटोरियो डिसिका धरती पर जन्मे जा चुके किस प्राणी का नाम है...  या कि जोल्तान जाबरी इतना बड़ा महादर्शी कैसे बना...  । ये सारे महान फिल्मकारों के नाम उसके लिए अजनबी थे... 

सच तो ये है कि सिनेमा ही उसके लिए चैंकाने वाली बात थी... चित्रकूट जनपद के छीबो गांव का ये लड़का सिर्फ तब किसी भी तरह कामयाब होने और सम्मान की जिंदगी के सपने देखता था... वो भी अपने उस साहित्य के जरिए जो अभी रचा नहीं गया था... उन विचारों के जरिए जिनका अभी जन्म नहीं हुआ था...  ।

महत्वाकांक्षी और धुन के पक्के लड़के ने कक्षा चार में एक कहानी पढ़ी थी—कसाईबाड़ा और ये कहानी किसी महान फिल्म की तरह उसके दिलो–दिमाग के पर्दों पर रील–दर–रील भागती रहती थी... और वह इस कहानी के लेखक को चैथी कक्षा से ही खोज रहा था...  । यह तलाशी अभियान अचानक पूरा हुआ... बी–ए– फर्स्ट ईयर में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी पहंुचने पर । इस लड़के को पता चला कि कसाईबाड़ा के लेखक शिवमूर्ति इलाहाबाद में सेल्स टैक्स अधिकारी हैं... और अपनी चेन उतरती साइकिल की चेन चढ़ाता–चढ़ाता ये लड़का पहुंच गया शिवमूर्ति के पास...  ।

प्रिय दोस्तो, ये कहानी यहीं से शुरू होती है... अब इस लड़के का नाम जान लीजिए— ये कमल पांडेय है... कमल पांडेय अब शिवमूर्ति की सारी कहानियां पढ़ता है एक–एक कर... और अपने अंदर हैरानी भरता रहता है कि ये कहानियां दिखती क्यों हैं... अक्षरों की तरह दिल पर छपने की जगह दृश्यों में दिखती क्यों हैं... 

बरसों बाद मुंबई पहुंचने पर पता चला कि सिनेमा से ये मेरी पहली मुलाकात थी और ये भी पता चला कि जिंदगी और सामाजिक सच्चाइयों को शिवमूर्ति कैमरे की आंख से ही देखते थे... इसीलिए उनकी कहानियां दिखती थीं... पात्र जिंदा दौड़ते थे दिलों में... और ये भी पता चला कि इन कहानियों ने ही मुझे जिंदगी देखने की कला से अवगत कराया और दृश्यों से, बिंबों से नाता जुड़ा और मेरे अंदर एक फिल्मकार का जन्म हुआ...  ।

चाहे वो मुंबई का संघर्ष रहा हो या फिर दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया और फिर हिंदुस्तानी टेलीविजन की दुनिया में एक कामयाब लेखक बन जाने का नशा... चाहे पैसों की चकाचौंध रही हो... मुंबई में एक साथ तीन–तीन बड़े अपार्टमेंट्स खरीदने की खुशी... ! हर पल मुझे यही लगता है कि अब मुझे अपनी कहानियों को जिंदा देखना है बड़े पर्दे पर... 

पिछले साल टेलीविजन में लेखन के कथा–पटकथा के सारे एवार्ड जीतने के बाद मुझे शिवमूर्ति की कहानियों की फिर बहुत याद आई और याद आया मेरे सफर में उन कहानियों का योगदान... वो प्रेरणा– ––जो मुझे उन कहानियों ने दी और वह पहला संकल्प मुंबई जाकर फिल्मकार बनने का जब शिवमूर्ति की कहानी तिरिया–चरित्तर पर फिल्म बनाने बासु चटर्जी इलाहाबाद आए... बहुत डरते, सकुचाते हुए एक शाम मैंने शिवमूर्ति जी से कहा कि मुझे फिल्म लिखना है... फिल्में बनानी हैं... और तब उन्होंने कहा था कि यही आपकी मंजिल है, मुझे पता है... मेरी पहली कहानी पढ़ी थी शिवमूर्ति जी ने...  और उन्हें लगा था कि मैं सिनेमा के लिए ही बना हूं... 

बी.ए. की पढ़ाई पूरी होते ही शिवमूर्ति मुझे लेकर दिल्ली आए और अपने एक दोस्त चंद्रदेव यादव के साथ अब्दुल बिस्मिल्लाह जी के फ्लैट में पंद्रह दिनों तक मेरे रुकने की व्यवस्था करवाई और ये कहकर वापस इलाहाबाद चले गए कि अब आगे का रास्ता यहां से मुंबई तक का तुम्हें खुद तय करना है... माफ करना मेरे आत्मजनो, अपने बारे में ही कहता जा रहा हूं... पर क्या करूं... बाबा तुलसीदास ने भी तो लिखा है—स्वांत: सुखाय तुलसी रद्युनाथ गाथा... मित्रो, मैं भी यहां खुद को बोध देने के लिए ही स्मृतियों की यह फिल्म देख रहा हूं... 

कम शब्दों मे, यह रात बीत जाने से पहले, अरब सागर की इन लहरों के थक जाने से पहले मुंबई महानगर के जग जाने से पहले, मुझे इस फिल्म को देख लेना है... इस फिल्म के अगले दृश्यों में यह लड़का शिवमूर्ति जी के पूरे साहित्य को पढ़ जाता है और शिवमूर्ति जी के जरिए ही वो अपने प्रिय कथाकार उदय प्रकाश ... संजीव... प्रियंवद... सृंजय... चंद्रकिशोर जायसवाल... और साहित्य के दूसरे महारथी लेखकों के लेखन से परिचित होता है और मंत्रमुग्ध भी... अपनी समझ और सोच के फैलते आकाश में अब वो अपने जीवन का रास्ता देख रहा है... 

याद है इस लड़के को जब वो इलाहाबाद में हिंदी के एक गरीब कवि के घर से लौटा तो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में रास्ते–भर वह रोता रहा... इस गरीब कवि के गरीब घर में उसे उस मूर्धन्य कवि के दुख दिख गए थे... तभी एहसास हुआ था इस लड़के को कि बुद्ध बनने के लिए महल में पैदा होना पड़ता है... गरीब आदमी को सपने में रोटी–भात ही नजर आता है... शायद चारों तरफ फैले दुख से ऊबकर ही इस लड़के ने किताबों की दुनिया में नहीं सिनेमा की दुनिया का साहित्य लिखने की सोची... क्योंकि उसमें रोटी के सपने ज्यादा चटक दिख रहे थे... हालांकि सिनेमा की दुनिया तक पहुंचने के वर्ष बड़े खतरनाक थे... डरावने थे... हर जगह चोट मिल रही थी... 

इस लड़के को फिल्म का एक दृश्य और भी याद है... दिल्ली में घोर संघर्ष के दिनों में जब यह लड़का घर की तलाश में भटक रहा था तो कथाकार उदय प्रकाश से मुलाकात हुई... जेएनयू के ओल्ड कैम्पस में उदय प्रकाश अपनी सुविधा के लिए परिवार से अलग एक घर किराए पर लेकर रहते थे... क्योंकि उनकी शूटिंग वहीं आसपास चलती रहती थी...  उन्होंने मुझे 800 रुपए महीना, किराएदार के तौर पर अपने साथ रख लिया और मुझसे कहा कि आप चूंकि मनोहर श्याम जोशी को पेज करते हैं... आपका दायरा बड़ा है और Direct TV Serials और फिल्मों से जुड़ा है तो हम दोनों भाई मिलकर लिखेंगे भी और साथ रहेंगे भी... पर जल्दी ही उन्हें पता चल गया कि मैं घोर स्ट्रगलर हूं और जब मैं एडवांस नहीं दे पाया उन्हें तो वे मेरे सामान के साथ घर पर ताला लगाकर रोहिणी अपने घर चले गए... मैं दिल्ली की सड़कों पर भटकता रहा... उनसे गिड़गिड़ाता रहा कि ताला खोल दीजिए... मैं अपना सामान ले लूं... पर वो मुझे फोन पर धमकाते रहे कि आप क्या हैं... कोई महान लेखक... महान फोटोग्राफर... महान पेंटर... आप तो सिनेमा–उनेमा के जरिए पैसे कमाने आए हैं... मैं आपकी मदद क्यों करूं...  ?

मैंने कहा कि इंसानियत के नाते मेरा सामान दे दीजिए पर उनकी नजरों में इंसान सिर्फ लेखक... फिल्मकार... पेंटर और किसी बड़े फोटाग्राफर में ही मिलता था... बड़ी मुश्किल से मैं अपना सामान निकलवा पाया और पहले फोन शिवमूर्ति जी को किया और फोन पर रो पड़ा...  कमाल की बात ये है कि शिवमूर्ति जी ने कहा कि अच्छी बात तो ये है भइया कि ऐसी ही बातें, ऐसे ही आंसू... ऐसी ही ठोकरें आपको वह बनाएंगे जो आप बनने गए हैं... दुख मांजता है, ठोकरें मजबूत बनाती हैं... और अभाव सोचने पर विवश करता है... 

कमल पांडेय 
संपर्क : 9819649405 
जन्म : अगस्त 1975
स्थान : उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जनपद के छीबो गांव में । 
शिक्षा : स्नातक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय 
टेलिविजन साहित्य धारावाहिकों के लिए कथा–पटकथा और संवाद लेखन । 
आंच, शक्ति द पॉवर, शागिर्द, मिलन टॉकिज और निर्माणाधीन फिल्मों के लिए कथा–पटकथा और संवाद लेखन । 
सम्मान : लाडो और देवी के लिए सर्वश्रेष्ठ कथा और पटकथा के कई पुरस्कार । 

मैंने उनकी बात ध्यान से सुनी और इस बात को दिल से निकाल दिया कि हिंदी के एक महान और बेहद पठनीय और आज भी मेरे प्रिय कथाकार उदय प्रकाश ने मेरे साथ क्या किया था... आज भी उनकी कहानी मैं सबसे पहले पढ़ता हूं... दोस्तो यहां इस घटना का उल्लेख उदय प्रकाश जी से किसी प्रकार की शिकायत की वजह से नहीं किया मैंने बल्कि शिवमूर्ति जी के उस रिएक्शन के लिए किया है जो उन्होंने उस वक्त दिया था... 

बाद के वर्षों में मैं मुंबई पहुंचा... मेरे गुरुदेव... मेरे भाग्य–निर्माता कमलेश्वर जी मुझे मुंबई ले गए और वो भी शिवमूर्ति जी की तरह मुंबई में छोड़कर और यह कहकर दिल्ली चले गए कि मुंबई में समंदर है... यहां चाहो जितनी दूर तक तैर लेना पर कभी संमदर का पानी मत पीना बीमार पड़ जाओगे... 

मित्रो, यह लड़का हिंदी का साहित्य कभी नहीं लिख पाया;  पर अपने साहित्य से हिंदुस्तान के टेलीविजन को खूब सींचा ... पर हिंदी के इन दो महान लेखकों (लेखकों से भी बड़े महान व्यक्तित्वों) का वो हमेशा कर्जदार रहेगा... वह कर्ज जिसे कभी चुकाया नहीं जा सकता... बाद के वर्षों में यह लड़का एक के बाद एक सुपरहिट टीवी सीरियल्स लिखता है...  फिल्में लिखता है... दक्षिण कोरिया और इंडोनेशिया में एक दर्जन धारावाहिक और सात फिल्में भी लिखीं इस लड़के ने और जहां भी गया... जब भी खुश और उदास हुआ, जब भी गाइडेंस की जरूरत महसूस की, तब–तब शिवमूर्ति जी को फोन किया– ––और अपने ठेठ गंवई अंदाज में शिवमूर्ति जी अपने अनुभवों का लाभ इसे देते रहे...

दिल्ली की सड़कों पर बिना घर के भटकने का ही परिणाम था कि इस लड़के ने मुंबई में तीन–तीन अपार्टमेंट्स खरीदे–– –बाद में ये लेखक से प्रोड्यूसर बना... पर जल्दी ही उसे समझ में आ गया...  कि ढेरों पैसा और बहुत सारे बड़े घर उसका लक्ष्य नहीं हैं... उसका लक्ष्य है सिनेमा... तो आज जब अपने पहले फिल्म के निर्देशन की ओर ये लड़का बढ़ रहा है... आज रात फिर उस फिल्म को ये देख रहा है जो उसके जीवन की फिल्म है... यह बहुत पर्सनल बातें हैं... एक आत्ममंथन है... दिल के विचार हैं... और मेरे और मेरे बड़े भाई बन चुके शिवमूर्ति के रिश्तों की कहानी है... 

यह फिल्म चलती ही रहेगी... जब ये लड़का बहुत सारी फिल्में बना चुका होगा तब भी अपने एकांतों में बैठकर ऐसी ही तमाम रातों में जागकर ये लड़का कमल पांडेय इस फिल्म को देखता रहेगा...  विटोरियो डिसिका... की ‘बाइसिकल थीफ’ की तरह यह फिल्म भी कमल पांडेय के जीवन की सबसे अनमोल फिल्म जो है... 


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कहानी: मैं राम की बहुरिया - राजेन्द्र राव | Rajendra Rao HindiKahani "Mai Ram Ki Bahuriya"


मैं राम की बहुरिया

राजेन्द्र राव

कहानी:  मैं राम की बहुरिया  - राजेन्द्र राव | Rajendra Rao HindiKahani



सुखदेव प्रसाद अपनी मारुति-८०० में पहुंचे। पार्किंग में खड़ी करने लगे तो कुछ अकिंचन होने का एहसास हुआ। वहां एक से बढ़ कर एक छम्मकछल्लो कारों की नुमायश सी लगी थी। कुछ लाल-नीली बत्तियों वाली हूटर लगी गाड़ियां भी आड़ी टेढ़ी खड़ी थीं याने प्रशासनिक अमला वहां दमखम से मौजूद था। उनकी पत्नी कुछ देर से उतरीं, उन्होंने गौर से देखा, बिल्कुल सातवें दशक की साउथ इण्डियन हीरोइन जैसी सजधज में थीं। खाली मारुति-800 को ही दोष देने से क्या फायदा, पूरा गेटअप ही क्लासिकल ठहरा। वो तो देव ने सपत्नीक आने का जबर्दस्त आग्रह किया था, इसलिए मजबूरी थी। वह बंड आदमी था, कोई भरोसा नहीं अकेले पहुंचने पर सबके सामने गरियाने ही लगता। खैर, वहां काफी भीड़ थी और लोगों का आना जाना लगा हुआ था। हेरिटेज क्लब दुल्हन की तरह सजा हुआ था, किसी राष्ट्रीय पर्व की पूर्व संध्या पर सरकारी इमारतों पर लगाई जाने वाली बिजली की बेशुमार झालरों से जगमग। फूलों से बने कलात्मक प्रवेशद्वार पर शहनाई वादन अलग ही समां बांधे था। अंदर जाते हुए लगा कि सचमुच कहीं पहुंच रहे हैं। वैसे भी वहां ज्यादातर पहुंचे हुए लोग ही अंदर बाहर थे। उस माहौल में सुखदेव प्रसाद को एक बालसुलभ सी फीलिंग ने घेर लिया कि अभी हमें और आगे जाना है, मीलों का सफर तय करना है (सौजन्य जवाहर लाल नेहरू) । एक लगभग मूर्खतापूर्ण आत्मविश्वास जाग उठा कि –वी(आइ) कैन डू इट (सौजन्य-श्री बराक ओबामा)। अगर देव कर सकता है तो कोई भी(मैं) भी कर सकता है(हूं)। उत्साहित हो आगे बढ़े तो देखा प्रवेशद्वार पर एक बड़ा सा बैनर लगा था- “धीरज पोरवाल एवं देव मित्रमंडल आपका हार्दिक स्वागत करते हैं !” यह धीरज पोरवाल राजधानी के गिने चुने धन्नासेठों में से एक था। उसी की छत्रछाया में देव ने कारोबार शुरू किया था और फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। पोरवाल की सत्ता के गलियारों में गहरी पैठ थी जिसका भरपूर फायदा उठा कर देव भी बड़े बिल्डरों और पार्टी को मोटा चंदा देने वालों की विशिष्ट जमात में पहुंच गया था। 

अंदर मखमली लान पर लाल कालीन बिछा था जो ‘सागर मंथन’ सभागार के मुहाने तक पहुंचाने के निमित्त था। लान के दाहिनी ओर प्रीतिभोज का भव्य सरंजाम था। चारों ओर रेशमी (चाइनीज-एल ई डी) विद्युत लड़ियों की जगमग जगमग थी। प्रवेश पथ के दोनों ओर कृत्रिम फव्वारे खासी ऊंचाई तक सुगंधित जल की फुहारें छोड़ रहे थे। द्वार पर स्वागत के लिए श्री और श्रीमती देव अपने दोनों पुत्रों के साथ खड़े थे। चारों लकदक राजसी लिबास में ऎसे जम रहे थे जैसे कोई राजघराना हो। बाप बेटों के बंद गले के कामदार प्रिंस कोट और गृहणी की जरी के सच्चे काम वाली बनारसी सिल्क और जन्मजात गोरे रंग ने उन्हें एक दुर्लभ किस्म का विशिष्ट सामंती लुक प्रदान कर दिया था। कुल मिला कर वह भारी उपस्थिति वाला राजसी परिवार प्रतीत हो रहा था। उन्हें देखते ही देव ने जोर से नारा लगाया - “अरे सुखदेव, आओ मेरे मिट्टी के शेर ! तनी देखो तो अपने यार का जलवा। अरे भाभीजी! प्रणाम, हमारे धन भाग कि आपके दर्शन हो गए । इसने तो छुपा के रखा हुआ है आपको। आप को लाने के लिए बड़े निहोरे किये, हाथ जोड़ कर विनती की, थोड़ा धमकाया, समझ रही हैं ना, तब जाकर आपका दीदार हो पाया है। “वह कुछ और भी कहता मगर श्रीमती देव ने बड़े स्नेह से श्रीमती सुखदेव का हाथ पकड़ कर उन्हें अपनी ओर खींच लिया। हक्के बक्के से सुखदेव प्रसाद ने बधाई दी तो देव ने चहक कर कहा, ”गुरू, अपना तो यह उसूल है कि भैय्या या तो किसी पचड़े में पड़ो मत और पड़ ही गए तो फिर उसे ऎसे अंजाम तक पहुंचाओ कि देखने वालों की ब्राड़ हो जाए, ससुरे आंखें मलते रह जाएं। मैंने भी झोंक दिया अपने आप को, बहुत पसीना बहाया अब पैसा बहा रहा हूं। जरूरत पड़ी तो खून भी बहाया जा सकता है। खैर इसे छोड़ो और खुशखबरी सुनो, आज बतौर मुख्य अतिथि भाऊ साब खुद आ रहे हैं। उन्होंने तो बहुत टालने की कोशिश की, कहते रहे कि भँवर (मुख्यमंत्री) को ले जाओ, न हो बबुआ (उप मुख्यमंत्री) को ले जाओ, लेकिन मैं अड़ गया, बोले मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है इसलिए कहीं आता जाता नहीं हूं। मैंने कह दिया तो फिर मैं आपकी तबीयत ठीक होने तक प्रतीक्षा कर लूंगा, भले ही आप छै महीने बाद की तारीख दो मगर आशीर्वाद आपको ही देना होगा। सुन कर हंसने लगे, और सुनो फिर गाली देकर बोले देव, तुम परम हरामी हो, मानोगे नहीं, चलो आता हूं। जाओ सुथन्ना बाबू (निजी सचिव) से तारीख ले लो। तो भैय्या उन्हीं की अगवानी को खड़ा हूं। उनके नाम का जलवा देखो, आधा हाल तो बिना बुलाए मेहमानों से ही भर गया है। फौज-फांटा अलग से हाजिर है। डी. एम. और आइ. जी. सुबह से यहीं टहल रहे हैं। पार्टी के कुछ बड़े नेता और उनके लकुए-भकुए आकर आगे सीटों पर डट गए हैं, अब उन्हें कौन हटाए ! लेकिन पूरा भौकाल कायम है। “अभी यह प्रवचन कुछ देर और चलता मगर तभी वातावरण में कारों के सायरन गूंजने लगे। शायद भाऊ साब का काफिला आ पहुंचा था। देव के छोटे बेटे ने सुखदेव दंपत्ति को ले जाकर वी आइ पी एन्क्लोजर में बैठा दिया। सुखदेव ने देखा कि ‘सागर मंथन सभागार’ (जैसा बड़ा हाल भी) लगभग भर चुका था जबकि ऎसे समारोहों में सौ-दो सौ मेहमान जुटाना भी कठिन माना जाता है। हां, जाने पहचाने चेहरे बहुत कम नजर आ रहे थे। आगे की ज्यादातर सीटें राजनीतिक तबके के लोगों से भरी थीं जिनमें से कुछ को सुखदेव प्रसाद अखबार में अक्सर छपने वाली उनकी तस्वीरों के कारण पहचान गए। उन्हें लगा मामला गंभीर है - अभी तक तो वे इसे देव की खप्त मान कर हल्के में ले रहे थे। फिर उन्हें लगा कि जो हो रहा है उसे तमाशा समझ कर देख लेने में ही कुछ सार्थकता हो सकती है। फूलों और वंदनवार से सुसज्जित रोशनी में नहाए मंच पर दाहिनी ओर वीणावादिनी की लगभग मानवाकार प्रतिमा थी और एक सुंदर दीपस्तंभ था। पार्श्व में संभवत: कार्यक्रम का बैनर(फ्लैक्सीबोर्ड) था जिस पर चुन्नटदार सुनहरा परदा पड़ा था। बांई ओर सनमाइका वाला पोडियम था जिस पर कोष्ठक चिन्ह की तरह दो जुड़वां माइक वक्ताओं की बाट जोह रहे थे। जब तक वे कुछ और देख पाते पीछे प्रवेशद्वार की ओर से शोर सुनाई दिया और विंग्स से एक चुस्त दुरुस्त उद्घोषिका ने यकायक प्रगट होकर माइक संभाल लिया - “देवियों और सज्जनों, आज के समारोह के मुख्य अथिति, हम सब के परमपूज्य प्रात:स्मरणीय, आदरणीय भाऊ साब सभागार में पधार रहे हैं। कृपया खड़े होकर जोरदार करतलध्वनि से उनका स्वागत और अभिनंदन करें। “ और मंच पर यवनिकापात हो गया। उधर मुख्य अतिथि की शोभायात्रा मंच के ठीक सामने वाली अतिविशिष्ट सोफा-कतार की ओर धीरे दीरे बढ़ रही थी और हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। उस जुलूस में कम से कम बीस महानुभाव तो थे ही। देव भाऊ साहब के साथ चल रहा था। मंच के पास पहुंच कर कुछ देर के लिये यह कारवां रुका। हाल की आधी से ज्यादा सीटों पर जमे पार्टी कार्यकर्ताओं ने “भाऊ साब, जिंदाबाद, जिंदाबाद !!.. हमारा नेता कैसा हो, भाऊ साब जैसा हो!” का समवेत गायन शुरू कर दिया और तब तक करते रहे जब तक कि शोर से झुंझला कर स्वयं भाऊ साब ने हाथ उठा कर उन्हें चुप नहीं करवा दिया। 

मौका तड़कर अनेक वीर बालक वहां पहुंच गए। अपना अपना चेहरा दिखाने के लिए धक्का-मुक्की होने लगी। कुछ देर तक खड़े होकर भाऊ कदमबोसी और फर्शी सलाम कुबूल करते रहे फिर मानो तंग आकर देव से कहा - “चलो प्रोग्राम शुरू करवाओ !” और मध्य सोफे पर धंस गए। शोभायात्रा में शामिल लोग आगे की सोफा-पंक्ति पर पहले से बैठे लोगों को धकियाकर काबिज हो गए। देव ने इशारे से अपनी पत्नी और पुत्रों को बुला कर भाऊ के सन्मुख प्रस्तुत किया। सुखदेव वहां चल रहे संवाद तो नहीं सुन पाए परंतु देव परिवार को कुछ देर तक हाथ जोड़े मुख्य अथिति के वचनामृत का पान करते देखते रहे। तभी सुरीले स्वर में उदघोषणा हुई कि देश की प्रख्यात नृत्यांगना मीनल पटेल सरस्वती वंदन और देव-आवाहन नृत्य प्रस्तुत करेंगी। धीरे धीरे परदा उठा और अंधेरे मंच पर वीणापाणि की सुदर्शना मूर्ति प्रकाशित हो उठी। एक घूमती हुई स्पाट लाइट नृत्यांगना पर पड़ी जो आराधना की मुद्रा में नतमस्तक खड़ी थी और हाल वंदना के मधुर और समवेत स्वर से झंकृत हो उठा। मंच जैसे जैसे प्रकाशित होता गया वाद्यवृंद वादक प्रगट होते गए। वंदना शेष होते ही एक क्षण को अंधेरा हुआ और उजाला होते ही मंच पर घुंघरुओं की झंकार के साथ आधा दर्जन सह नर्तकों के चपल चरण थिरक उठे। वह बहुत ही शिप्र और प्राणवान प्रस्तुति थी जिसमें मीनल बादलों के बीच बिजली की तरह मचल रही थी। सुखदेव प्रसाद और उनकी पत्नी जैसे मंत्रमुग्ध होकर देखते रहे और जब परदा गिरा तो मानो ठगे से रह गए। हाल देर तक तालियों से गूंजता रहा। सुखदेव प्रसाद ने अनुभव किया कि देव डींग नहीं मार रहा था, सचमुच उसने एक भव्य और बेहद कलात्मक शो क्रियेट कर दिया था। अभी तक आंख से ओझल रही उसकी सांस्कृतिक चेतना के इस इस विराट दर्शन ने उन्हें जोरदार झटका दिया । उन्होंने मंच को मुग्धभाव से एकटक निहार रही पत्नी की तरफ देख कर कहा-‘कमाल है!’ देव याने देवप्रिय मिश्र उनका बाल्यसखा था। स्कूल के दिनों से उसकी गिनती ऊर्जावान मगर अव्वल दर्जे के शैतान बच्चों में होती थी। सुखदेव प्रसाद की तरह न तो वह पढ़ाकू था न बात बात पर टसुए बहाने वाला कविहृदय और भावुक बल्कि स्कूल के दबंग और नंबर वन खिलाड़ियों में से एक था। स्वभाव और प्रकृति के एक दूसरे के विपरीत होते हुए भी जाने कैसे दोनों में दांतकाटी रोटी वाली दोस्ती थी। शायद इसलिए कि वे पढ़ाई में, खास कर इम्तिहान के दिनों में उसकी सटीक मदद करते थे। संयोग कुछ ऎसा रहा कि दोनों स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक सहपाठी बने रहे। बाद में देव पारिवारिक व्यवसाव में चला गया और सुखदेव इंटर कालेज में पढ़ाने लगे। देव का पैतृक व्यवसाय गिरह-गांठ का था मगर उसने धीरज पोरवाल की मदद से प्रापर्टी डीलर का काम शुरू किया और प्रकारांतर से एक सफल बिल्डर के रूप में स्थापित हो गया। सुखदेव अपनी मामूली नौकरी में कुछ ज्यादा ही संतुष्ट थे क्योंकि यहां उन्हें लिखने पढ़ने के लिये अनुकूल परिवेश और समय खूब मिलता था। अपनी प्रतिभा और लगन से उन्होंने साहित्य जगत में एक लोकप्रिय कथाकार के रूप में सम्मानजनक स्थान बना लिया। प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी कहानियां छपती रहती थीं। कुछ कथा संकलन और दो उपन्यास भी प्रकाशित और चर्चित हो चुके थे। गहरी आर्थिक खाई के बावजूद देव अपने बचपन के मित्र को भूला नहीं, गाहे-बगाहे उनसे मिलने खुद चल कर आता रहा। यूं तो हंसी मजाक की उसकी शुरू से आदत थी मगर मौके-बेमौके वह उनकी खिंचाई करता, मास्टरी और पुस्तक प्रेम की खिल्ली उड़ाता - “भाई मेरे! क्या कर लिया तुमने इतने कागज काले कर के? एक ढंग का फ्लैट तक नहीं खरीद पाए, टुटहे स्कूटर पर घूमा करते हो। छोड़ो इस मास्टरी को आओ मेरे साथ बिजनेस में, कसम से पांच साल में करोड़पति न बनवा दूं तो कहना। मेरे पास भरोसे के आदमी की कमी है इसलिये कहता हूं मगर तुम्हारे कान पर जूं नहीं रेंगती। और ये तुम्हारी किताबें जिनमें तुमने अपनी जिंदगी और आंखें झोंक दीं, मुठ्ठीभर ठलुए इन्हें पढ़ते होंगे, कुछ तारीफ कर देते होंगे लेकिन इनसे क्या हासिल हुआ? बहुत हुआ तो दस हजार-बीस हजार। ऎसे कहीं कोई बना है। देखना सुखदेव एक दिन तुम्हें इन्हीं किताबों से नफरत हो जाएगी। तब शायद बहुत देर हो चुकी होगी… मुंह न बनाओ, मैं तो तुम्हारे भले के लिए कहता हूं। सच्ची, भाभी और बच्चों पर तरस आता है। ….यह भी सच था कि वह हितोपदेश के तहत ही कहता था। उसने जोर-जबर्दस्ती, धमका-फुसला कर अपने एक प्रोजेक्ट में एक टू.बी.एच.के. सुखदेव प्रसाद को आसान किस्तों पर दिलवा दिया था। लेकिन उसका रंग सुखदेव प्रसाद पर नहीं चढ़ा तो नहीं ही चढ़ा। जल्दी ही वे उसके हितोपदेश एक कान से सुन कर दूसरे से निकालने के अभ्यस्त गए। 

परदा उठा और मंच पर सुशोभित पांच कुर्सियां नजर आईं। बीचवाली कुर्सी बिल्कुल राजसिंहासननुमा थी। मुख्य अतिथि भाऊसाहब उस पर विराजमान हुए, उनके अगल बगल कार्यक्रम के अध्यक्ष संस्कृति मंत्री देवारी लाल और भाषा सदन के अध्यक्ष विद्यानिधि, शेष दो के सामने देव और धीरज पोरवाल की नामपट्टिकाएं मेज पर रखी थीं मगर बैठने के बजाए दोनों सावधान की मुद्रा में कुर्सियों के पीछे खड़े हो गए। पार्श्व में लगा रंगीन बैनर अब निरावृत हो चुका था और देव की प्रतिभा के नए आयाम की सूचना दे रहा था। । भाऊसाहब के मिजाज को देखते हुए कार्यक्रम का संचालन बेहद फुर्ती से होने लगा। वीणावादिनी को पुष्पांजली और दीप प्रज्वलन के बाद अतिथियों का औपचारिक स्वागत श्रीमती देव ने बुके भेंट करके किया । आयोजकों की ओर से स्मृतिचिन्ह के रूप में एक ठोस चांदी का फलक भाऊसाहब को अर्पित किया गया जिसमें युद्धभूमि में रथारूढ़ अर्जुन को कृष्ण भगवान गीता का उपदेश देते हुए उकेरे गये थे। उसके तुरंत बाद सुधीर पोरवाल माइक के सामने आ गए। उन्होंने मंच पर और नीचे हाल में उपस्थित अति विशिष्ट और विशिष्ट जन द्वारा मुख्य अतिथि का सूचीबद्ध माल्यार्पण कराने में खासा समय लिया और फिर हाथ में पकड़े कागज को जेब के हवाले करते हुए माथे का पसीना पोंछ कर आयोजन के उद्देश्य पर कुछ इस तरह से प्रकाश डाला- “देवियों और सज्जनों! आज का दिन हम सब देवप्रियजी के मित्रों के लिए बहुत खुशी और फख्र का दिन है जब हम उनको एक नए रूप में देख रहे हैं। सच तो यह है कि हममें से किसी ने यह सोचा भी नहीं था कि हमारा प्यारा दोस्त जिसे हम प्यार से ‘गुंडा’ कहा करते हैं एक दिन ऎसी अदाकारी दिखाएगा…..देखिये हंसने की बात नहीं है, आज मैं यह दोस्तों के बीच का राज खोल देता हूं कि वह मुझे बड़े प्यार से ‘बड़ा गुंडा’ और मैं उसे उतने ही दुलार से ‘छोटा गुंडा’ कहता हूं। मजाक अपनी जगह पर लेकिन हमारी लाइन के लोग जानते हैं कि देव ऎसी हस्ती है जिसके तेवर से अच्छे अच्छों के कसबल ढीले पड़ जाते हैं। आज वह एक बहुत कवि के रूप में ऎसी खूबसूरत किताब लेकर सामने आया है जो लिटरेचर की दुनिया में तहलका मचा देगी। दोस्तों आपने देखा होगा कि अक्सर कवि हुए, लेखक हुए, कलाकार हुए, ये बड़े नाजुक किस्म के लोग होते हैं जो जमाने की सर्दी-गर्मी को नहीं झेल पाते। लेकिन देव जैसे जिगरे का आदमी हाथ में कलम लेकर खड़ा हुआ है तो समझिये कि साहित्य की दुनिया में बहुत बड़ा बदलाव आने वाला है। इस जलसे का आयोजन इसी संभावना को सेलिब्रेट करने के लिए किया गया है। इस मुबारक मौके पर तहेदिल से आप सब का स्वागत करता है। “

आयोजक के वक्तव्य के बाद उद्घोषिका ने मुख्य अतिथि और अन्य मंचासीन महानुभाव से अनुरोध किया कि वे श्री देवप्रिय मिश्र के प्रथम काव्यसंकलन ‘तुम्हीं देवता हो’ का विधिवत लोकार्पण करने की कृपा करें। दो नृत्यांगनाएं हाथों में ट्रे लिये हुए आईं जिनमें सुनहरे वर्क में लिपटी पुस्तक की प्रतियां थीं। अतिथियोंके साथ आवृत पुस्तक लिये देव, पोरवाल और अचानक प्रगट हुईं श्रीमती देव एक कतार में खड़े हुए तो हाल में शहनाई का मधुर स्वर गूंज उठा। भाऊसाहब ने पुस्तक को सुनहरे पिंजड़े से आजाद किया तो दर्जनों कैमरों की चमकती फ्लैशलाइटों और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मंच पर पुष्पवृष्टि होने लगी। एक बार तो सभी फूलों की नाजुक पंखुरियों से आच्छादित हो उठे। – नीचे प्रेस फोटोग्राफरों का हजूम दनादन फ्लैश चमकाए जा रहा था। यह क्रम कुछ ज्यादा ही देर तक चलता रहा जैसे दीवाली में एक साथ आतिशबाजी छोड़ी जा रही हो। दुर्बल और निस्तेज नजर आने वाली हिंदी साहित्य की दुनिया में यह एक दुर्लभ और ज्योतिर्मय क्षण था जो समय की शिला पर, कम-अज-कम पचास प्रेस कैमरों के माध्यम से, गहरे अंकित हो गया। 

उद्घोषिका ने आसन्न वक्ताओं को आगाह किया कि भाऊसाहब को अगले कार्यक्रम के लिए प्रस्थान करना है अत: यथासंभव संक्षिप्त वक्तव्य देने की कृपा करें। सबको यथायोग्य करने के बाद संस्कृति मंत्री महोदय ने कहा - “भाइयों और बहनों, आप जानते हैं कि अक्सर कवि और लेखक गरीब और फटेहाल होते हैं। बीमार पड़ जाते हैं तो इलाज के लिए भी अनुदान का मुंह देखते हैं। जब तक सरकारी लिखापढ़ी पूरी हो वे इस दुनिया को ही छोड़ जाते हैं। हम लाख कोशिश करें कि साहित्यकारों की हालत सुधरे, उन्हें पेंशन, वजीफे, ग्रांट भी मुहैय्या कराते हैं लेकिन उनकी दशा में कोई खास सुधार नहीं हो पा रहा है। तब क्या उपाय है? मेरी समझ से तो इस क्षेत्र में उन्हीं लोगों को आगे आना चाहिये जो आर्थिक रूप से संपन्न हों ताकि मुसीबत के वक्त उन्हें समाज के आगे, सरकार के आगे झोली न फैलानी पड़े। अब जैसे हमारे देवप्रियजी हैं। आज देश के जाने माने बिल्डर्स में आपका नाम है। अपनी हैसियत बना कर अब साहित्य की दुनियां में उतर रहे हैं। सभी तरह की आर्थिक चिंताओं से मुक्त हैं सो इन्हें जो लिखना है डंके की चोट लिखेंगे। न किसी प्रकाशक के पीछे-पीछे घूमना पड़ेगा न किसी आलोचक की खुशामद करनी होगी। इनके पास इतने साधन हैं कि प्रकाशक और आलोचक इनको घेरे रहेंगे। रही बात पाठकों की तो यह समझ लीजिये कि इनके बसाए हजारों फ्लैटों के मालिक एक-एक प्रति भी खरीदेंगे तो इनकी किताब रातोंरात बिक जाएगी। जहां तक इनकी साहित्यसेवा के सम्मान का प्रश्न है तो उसके बारे में पूज्य भाऊसाहब कहेंगे तो हम सबको अच्छा लगेगा। मैं इस क्षेत्र में इनकी सफलता की कामना करता हूं। धन्यवाद। “

भाषा सदन के अध्यक्ष मुश्किल से दो मिनट बोले। वे कविसम्मेलनी धुरंधर और ख्यात वाग्वीर थे मगर भाऊसाहब की उपस्थिति से बहुत आक्रांत थे क्योंकि उनका कार्यकाल समाप्त होने को था और एक और कार्यकाल के लिए प्रयासरत थे। उन्होंने देव के व्यक्तित्व और कृतित्व पर कुछ अतिरंजित कसीदे पढ़े और अपने निजी मूल्यांकन के अनुसार लोकार्पित कृति ‘तुम्हीं देवता हो’ को संसार के बड़े से बड़े पुरस्कार के लायक पुस्तक घोषित किया। यह संकेत भी दिया कि संस्थान प्रदेश भर में इस पुस्तक के प्रसार और उपलब्धता के लिए आवश्यक कदम उठाने में नहीं हिचकेगा। और फिर भाऊसाहब का आशीर्वाद जिसे मिला हो उसे शिखर तक पहुंचने से भला कौन रोक सकता है। 

मुख्य अतिथि से बोलने का अनुरोध किया गया तो हाल में हलचल मच गई। तालियां बजने लगीं और बाकायदा नारे लगने लगे। –“देश का नेता कैसा हो? ...भाऊसाहब जैसा हो। भाऊसाहब !... जिंदाबाद, जिंदाबाद !!” यह सिलसिला देर तक चला क्योंकि मंच पर बैठे भाऊसाहब के सामने माइक लगाया जा रहा था और वे खड़े होकर बोलना चाहते थे तो लंबा वाला लाया गया मगर तब तक वे पोडियम तक जा पहुंचे और खड़े होकर माइकद्वै को अपने हिसाब से एडजस्ट करने लगे तो उनका ध्यान नारेबाजी पर गया। मुस्कुराते हुए उन्होंने हाथ ऊपर किया और हाल में यकायक पिनड्राप शांति छा गई। देव और उसकी पत्नी उनके पीछे, दायें-बायें खड़े हो गए। अब सारी निगाहें भाऊसाहब पर टिकी थीं कि देखें देव पर कैसी नजरे-इनायत होती है क्योंकि इस मामले में वे दिल के बादशाह माने जाते थे। 

भाऊसाहब ने कहा - “आज मुझे बहुत खुशी है। वो इस बात की खुशी है कि देखो राजनीति में, शासन में, प्रशासन में तो जाने कितने लोगों को मैंने बनाया, खड़ा किया, आगे बढ़ाया लेकिन यह पहली बार है कि मैंने किसी को साहित्यकार बना दिया। कैसे? तो सुन लीजिये, ये देवप्रिय खड़े हैं आपके सामने इन्होंने पैसे तो खूब कमा लिये, हमारी पार्टी के बड़े शुभचिंतकों और दानदाताओं में हैं, मगर नाम नहीं कमा पाये। मेरे पास जाने कब से इनकी शिकायतें आ रही थीं। जब सुनते सुनते तंग आ गया तो इन्हें बुलाया, समझाया कि खाली पैसा पैदा करना पर्याप्त नहीं है, कुछ अच्छे काम भी करो, तभी समाज में इज्जत मिलेगी। धरम-करम में मन नहीं लगता तो कुछ लिखना-पढ़ना शुरू करो, अच्छे-अच्छे लेख लिखो, कविताएं लिखो, पत्र पत्रिकाओं में भेजो, एक आध किताब छपवा डालो। हो सकता है शुरुआत में सफलता न मिले लेकिन लगे रहो, धीरे-धीरे तुम्हारी छबि बदलेगी। लेखक या कवि बन गए तो तो सभी क्षेत्रों में लोग तुम्हारा नाम आदर से लेंगे। ये हमारे भाषा सदन के अध्यक्ष महोदय बैठे हैं, विद्यानिधिजी । रहे होंगे पहले कभी, इन दिनों तो ये कोई खास कवि-अवि गिने नहीं जाते। भगवान जाने कब से लिखना पढ़ना छोड़कर राजनीति कर रहे हैं मगर एक बार छबि बन गई सो कमा-खा रहे हैं। खैर किस्सा कोताह यह कि देव बाबू ने हमारी सलाह मानी और जुट गए साहित्य साधना में। मैंने अभी इनकी किताब पढ़ी तो नहीं मगर मेरे पास उसकी अच्छी रिपोर्ट आई है। “कहते-कहते वह रुक गए, जैसे अनायास कुछ याद आ गया हो। 

कुछ देर संजीदा होकर बोले, “दोस्तों ! एक जमाना था कि मैं भी कविताएं लिखा करता था। राजनीति में न कूद पड़ता तो आज शायद टाप का कवि होता, भले ही टूटी टपरिया में गुजारा कर रहा होता। यही वजह है कि मेरे दिल में हमेशा से साहित्यकारों के लिए बड़ी इज्जत रही है। मैं तो बार-बार भंवर जी को कहता हूं, ये क्या बीस हजार-तीस हजार के पुरस्कार बांटा करते हो, देना है तो कम से कम लाख रुपये तो दो किसी जरूरतमंद लेखक को, जो उसकी अंधेरी दुनिया में कुछ उजाला हो। उसके बीबी-बच्चे भी कहें कि सरकार ने कुछ दिया, हमारे पापा का भी कुछ सम्मान है समाज में मगर वे एक कान से सुनते हैं दूसरे से निकाल देते हैं। कहते हैं इसके लिए बजट कहां से दूं? पहले गर्दिश के मारे किसानों को देखूं, बेबस मजदूरों की दशा सुधारूं या इन अकादमियों और संस्थानों का बजट बढ़ाता रहूं। इस सिलसिले में अभी-अभी मंत्री महोदय ने बड़ी अच्छी बात कही कि साहित्य और कला के क्षेत्र में उन्हीं को आना चाहिये जो आर्थिक दृष्टि से मजबूत हों। हमेशा कटोरा लिये अकादमियों और अध्यक्षों की परिक्रमा न करते रहें। ये बहुत काबिल मंत्री हैं, इसीलिए पशुपालन विभाग से यहां लाए गए हैं। कहने का मतलब है कि जैसे ये देवप्रिय हैं, आ गये हैं अपनी किताब लेकर। अब इन्हें साहित्यकार, कवि या लेखक, जो चाहे कह लीजिये। इनका सम्मान करना हो तो लाख-दो लाख पुरस्कार में देने का कोई मतलब नहीं है। बल्कि ऎसे कई पुरस्कार ये अपनी तरफ से हर साल बांट सकते हैं। अब सवाल है कि इन्हें दिया क्या जाए? मैं तो यह सोचता हूं कि ऎसे समर्थ आदमी को भाषासदन या कला अकादमी का कर्ता-धर्ता बना दिया जाए तो बजट और संसाधन जुटाने का हमेशा चलने वाला रोना-धोना खत्म हो जाएगा। पांच करोड़ सरकार दे तो दस करोड़ देव बाबू जुटाएं। यकीन मानिये यह इनके लिए बाएं हाथ का खेल है। आपने पी.पी.पी. का नाम सुना होगा, वो क्या होती है? अरे यही पी.पी.पी. है। हल्दी लगे न फिटकरी और रंग खूब चोखा होय ! क्यों विद्यानिधिजी, है कि नहीं? ”बोलते हुए वे रुक गए तो लोग जैसे सोते से जागे। देव ने फुर्ती से आगे बढ़कर भाऊसाहब के पैर छुए तो हाल करतल ध्वनि से गूंज उठा। भाऊसाहब मुड़ कर देखने लगे तो विद्यानिधिजी को उनकी तजवीज के समर्थन में मूंड हिलाना ही पड़ा लेकिन उनके चेहरे पर छाई मायूसी छुपाए नहीं छुप रही थी। एक और कार्यकाल पाने के लिए वे महीनों से गणेश परिक्रमा में जुटे थे मगर नियति के इस क्रूर प्रहार ने सब उलट-पलट कर दिया। उन्हें जरा भी अनुमान होता कि ऎसे भरी सभा में पैदल किये जाएंगे तो आते ही नहीं। लेकिन यह तो भाऊसाहब की खास स्टाइल ठहरी जिससे प्रदेश ही नहीं पूरा देश परिचित था। 

उधर विद्यानिधिजी का वध करके भाऊसाहब बैठे तो धन्यवाद ज्ञापन के लिए स्वयं देव ने माइक संभाला और बड़े नाटकीय ढ़ंग से, रुंधे हुए गले से मुख्य अतिथि के प्रति ‘ तुम सो को उदार जग माहीं ‘ मार्का भावोद्गारों का प्रगटीकरण किया और प्रतिज्ञापूर्वक घोषित किया कि उसे जो भी जिम्मेदारी सौंपी जाएगी उसका वह प्राणप्रण से निर्वाह करेगा। भाऊसाहब का आशीर्वाद बना रहे तो वह बगैर किसी सरकारी अनुदान के किसी भी संस्थान या अकादेमी को अकल्पनीय बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए जी जान से काम करेगा। इसके बाद अपनी कृति के बारे में उसने सनसनीखेज रहस्योद्घाटन करते हुए बताया कि शीर्षक “तुम्हीं देवता हो” में कवि के आराध्य देव और कोई नहीं स्वयं भाऊसाहब हैं जिन्होंने अपने पावन स्पर्श से उसके जैसे दुनियावी मकड़जाल में फंसे कारोबारी को एक साधनारत, संवेदनशील कवि के रूप में परिवर्तित कर दिया। यह उसका पुनर्जन्म नहीं तो और क्या है? ... यह सुन कर हाल में बहुत देर से संयत बैठे पार्टी के कार्यकर्तागण ताली बजाने तक ही सीमित न रह सके और फिर एक बार जोर शोर से भाऊसाहब जिंदाबाद के नारे लगाने लगे। मुस्कुराते हुए मुख्य अतिथि ने खड़े होकर जनता जनार्दन के अभिनंदन को हाथ जोड़कर स्वीकार किया और चल पड़े। 

भाऊसाहब जल्दी निकलना चाहते थे मगर चरण स्पर्श के आतुर कार्यकर्ताओं की वजह से धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। देव उनके लिये रास्ता बनाते हुए आगे आगे चल रहा था। सुखदेव प्रसाद और उनकी पत्नी अन्य लोगों की तरह मुख्य अतिथि के सम्मान में खड़े थे। सहसा देव ने आवाज देकर उन्हें बुलाया। वह उनकी ओर हाथ हिला कर जल्दी आने का इशारा कर रहा था। सकुचाते हुए वे बीच की गैलरी की तरफ बढ़े तो आस पास के विस्मित समुदाय के बीच, काई फटने की तरह, सहजता से फांक बनती गई और वे भक्तों से घिरे भगवान के अरदब में पेश हो गए। देव ने ऊंचे स्वर में कहा, ”सर ! ये मेरे मित्र और प्रसिद्ध लेखक सुखदेव प्रसाद हैं। आप प्रदेश ही नहीं इस समय देश के सबसे चर्चित उपन्यासकार-कथाकार हैं। “एकाएक सुखदेव प्रसाद को एक रहस्यमय से भक्तिभाव ने धर दबोचा और उन्होंने हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर सूबे के बेताज के बादशाह के समक्ष नमन किया। उसी क्षण किसी कैमरे का फ्लैश चमका और यह घटना भी इतिहास के खाते में दर्ज हो गई। भाऊसाहब ने आगे बढ़ कर उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा - “देखिये आपके दोस्त को हम बड़ी जिम्मेदारी देने जा रहे हैं। उसमें आप सब के सहयोग की जरूरत पड़ेगी। सब मिल कर काम करेंगे तो संस्था आगे बढ़ेगी, प्रदेश आगे बढ़ेगा। “ जब तक सुखदेव इसके निहितार्थ समझ पाते काफिला आगे बढ़ चुका था। 

बाहर पुलिस बैंड मधुर धुनें बिखेर रहा था। उत्सव का अगला चरण प्रारंभ होने को था। भोजस्थल से पहले एक स्टाल लगा था जहां सद्य: लोकार्पित कृति की प्रतियां उपलब्ध थीं। देव के लौट कर आते ही किताब खरीदने और कवि से हस्ताक्षर करवाने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी। तब कुछ स्वयंसेवकों ने आकर व्यवस्था कायम की। लोग पंक्तिबद्ध होकर किताब लेने लगे। सुखदेव प्रसाद भी सौजन्यवश लाइन में लग गए। उन्होंने देखा कि स्टाल पर किताब की कीमत चुकाने वाले देव से हस्ताक्षर करवाने के बाद जबरन उसकी जेब में व्यवहार के लिफाफे ठूंस रहे थे। यह उसकी बिजनेस की दुनिया के लोग थे और उनमें उसे प्रोत्साहित करने की जैसे होड़ लगी थी। खैर किताब खरीद कर देव के पास गए तो उसने नारा लगाते हुए उन्हें गले से लगा लिया और बहुत देर तक उनकी पीठ थपथपाता रहा। 

०००००

एक वर्ष में ही भाषा सदन का कायाकल्प हो गया। देव ने अभिनव कार्यक्रमों की एक श्रंखला आयोजित की जिसमें देश विदेश की मानी हुई हस्तियों ने भाग लिया। उसके कार्यकाल के पहले पुरस्कार समारोह में नव सृजित देवाक्षर पुरस्कार सुखदेव प्रसाद को उनके उपन्यास “मृगतृष्णा” पर दिया गया। एक बड़ी कंपनी द्वारा प्रायोजित इस पुरस्कार में पंद्रह लाख रुपये और एक रजत प्रतिमा उन्हें प्रदान की गई। यही नहीं उन्हें संस्था की संचालन समिति का मानद सद्स्य भी बनाया गया। सुखदेव प्रसाद को यह पुरस्कार एक भव्य समारोह में स्वयं भाउसाहब ने अपने करकमलों से प्रदान किया। 

कुछ दिन बाद देव ने अपने मित्र के सम्मान में एक पांच सितारा होटल में दावत दी जिसमें अति विशिष्ट जन के अतिरिक्त कई जाने माने लेखक, कवि आलोचक, कलाकार और प्रकाशक आमंत्रित थे। ये लोग देर तक बार में जुटे रहे। बड़ी मुश्किल से इन्हें खाने के लिये मनाया गया। जब लोग विदा होने लगे तो देव सुखदेव प्रसाद को पकड़ कर एक कमरे में ले गया। वहां उनके खाने पीने का सरंजाम था। देव ने दो पैग बनाए और एक अपने मित्र को पकड़ा कर चीयर्स किया - “अब बोलो मेरे दोस्त, कैसी रही मेरी यह सृजन यात्रा। बुरा मत मानना अगर मैं यह कहूं कि तुम्हें अपने लेखक होने पर बहुत घमंड था। सच कहना, तुम मन ही मन मुझे धनपशु से अधिक कुछ नहीं समझते थे न? तुम्हें अपनी गरीबी पर बड़ा नाज था मगर मुझे यह देख कर बहुत दुख होता था कि तुम्हारी साहित्य साधना की कोई कद्र नहीं है। एक बार भी पुरस्कारों में तुम्हारा नाम नहीं आया जबकि थर्ड रेट और घटिया कलमघिस्सू बाजी मारते रहे। फिर जिंदगी में कुछ ऎसा मोड़ आया कि इस साहित्य के कीड़े ने मुझे भी काट लिया। मैंने मन में ठान लिया कि अब मैं लेखक बन कर दिखाता हूं। मैंने कविता पर हाथ आजमाया। लिखता गया, लिखता गया और एक पूरी किताब भर कविताएं लिख डालीं। मगर उसमें तुम्हारी तरह खयाली पुलाव नहीं पकाया। बल्कि ऎसे नायक को चित्रित किया जिसके इशारे पर प्रदेश की राजनीति छम-छम नाचती है, उसकी मर्जी के बगैर यहां पत्ता भी नहीं हिलता, उनकी निगाहे करम हो जाए तो एक गधा भी महाकवि के रूप में अलंकृत हो सकता है। भाऊसाहब ने उस दिन मंच से जो कहा वह हंड्रेड परसेंट सच है। लोकपाल और जाने कौन कौन सी जांचें बिठाने की तैयारी थी क्योंकि मेरी बहुत शिकायतें पहुंची हुईं थीं। यह बिजनेस ही ऎसा है कि बिना हेरफेर किये कुछ होता हवाता नहीं है। ये तो भाऊसाहब ने मुझे मुसीबत में फंसने से बचा लिया। उनके कहे का मैंने अक्षरश: पालन किया और सारे काम छोड़कर लिखने-पढ़ने में जुट गया। कुछ लोगों से मदद भी ली, अच्छे-अच्छे कवि मेरे लिखे को सुधारने के लिए आगे आए। महाकवि दिवाकर जी से बाकयदा गंडा बंधवाया मैंने। उन्होंने कहा किसी एक महान कवि को अपना रोलमाडल बनाओ और फिर लिखना प्रारंभ करो। मैंने कहा, ”गुरुदेव मेरा रोलमाडल तो कबीर हैं जिन्होंने भक्तिमार्ग को नये ढंग से परिभाषित किया - ‘राम मोर पीउ, मैं राम की बहुरिया!’ मुझे भी काव्य में यही लाईन पकड़नी है और मैंने खूब पकड़ी। मैं भी अपने राम की बहुरिया बन गया हूं। समझे... अब इस लाइन में आने के बाद जैसे देव का पुनर्जन्म हो गया। अब कोई भी हाथ डालने पहले सौ बार सोचेगा। साहित्य के प्रति समर्पण का तो ये आलम है कि आजकल धंधा लगभग ठप पड़ा है लेकिन इस एक साल में मेरी तीसरी किताब आ चुकी है। भाषा सदन को मैंने कहां से कहां पहुंचा दिया यह तुम देख ही रहे हो। “

यूं तो वैसे ही देवाक्षर पुरस्कार की खुमारी उतरने का नाम ही नहीं ले रही थी ऊपर से ना ना करते हुए भी बढ़िया स्काच ह्विस्की के तीन लार्ज पैग सुखदेव प्रसाद के जेहन पर गुलाबी बादलों की तरह छाए थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि अपने लंगोटिया दोस्त का शुक्रिया कैसे अदा करूं। उन्होंने देव का हाथ अपने दोनों हाथों में लेकर विह्वल स्वर में कहा, ”देव तुम मेरे कृष्ण हो और मैं तुम्हारा सुदामा हूं। सच कहता हूं कि बचपन की यारी के बावजूद मैं तुम्हें समझ नहीं पाया था। तुम्हारा अहसान मैं जिंदगी भर नहीं भूलूंगा। जो प्रकाशक कभी सीधे मुंह बात नहीं करते थे अब एडवांस का चेक लिये दरवाजे पर खड़े नजर आते हैं। यह सब तुम्हारी वजह से है मेरे दोस्त !” कहते कहते देव का घुटना पकड़ लिया। – “अरे अरे, यह क्या कर रहे हो! तुम तो मेरे बड़े भाई हो। अरे भैय्या असली लेखक तो तुम ही हो, हम लोग तो डुप्लीकेट हैं। ... हां, इस बात की मुझे खुशी है कि तुम्हारे जैसे प्रतिभाशाली लेखक को उपेक्षा के अंधेरे से निकालने में सफल हो सका। लेकिन दोस्त यह तो ट्रेलर है, फिल्म अभी बाकी है। देखते जाओ आगे क्या कया होता है !...” बोलते बोलते सहसा वह चुप हो गया। सुखदेव प्रसाद ने देखा कि अचानक उसके चेहरे पर विषाद की छाया आ गई थी। कुछ देर के मौन के बाद एक आह सी भर कर देव ने संजीदगी से कहा, ”देखो सुखदेव, यह तो ठीक है कि मैं कवि बन गया, साहबे किताब हो गया, साहित्य सदन का अध्यक्ष हो गया मगर इस चक्कर में एक बहुत कीमती चीज मैंने खो दी है, जिसको लेकर मैं बहुत परेशान हूं। समझो मेरी रातों की नींद उड़ गई है। “अब उसे देख कर अनुमान लगाना मुश्किल था कि अभी कुछ देर पहले वह खुशी से चहक रहा था। 

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राजेन्द्र राव

साहित्‍य संपादक
दैनिक जागरण पुनर्नवा

संपर्क: 374 ए-2, तिवारीपुर, जे के रेयन गेट के सामने, जाजमऊ, कानपुर-208010 (उ.प्र.)
मोबाईल: 09935266693
ईमेलrajendraraoknp@gmail.com

सुखदेव प्रसाद ने धीरे से पूछा, ”भई ऎसा क्या हो गया? ” देव ने मुंह लटका कर कहा, ”क्या कहूं, कहते हुए भी शर्म आती है। शुरू में लिखना पढ़ना बबाल-ए-जान लगता था लेकिन जैसे जैसे मान्यता मिलती गई मुझे इसमें आनंद आने लगा। अब तो जैसे कोई नशा सा सवार रहता है। जिस पद पर बैठा दिया गया हूं वहां सुबह-दोपहर-शाम साहित्य चर्चा ही चलती रहती है। अच्छे अच्छे कवि, लेखक और प्रकाशक घेरे रहते हैं। लेकिन यह शोहरत, यह इज्जत, यह मसरूफियत मुझे अंदर ही अंदर घुन की तरह खाए जा रही है। इस तरावट के बावजूद मेरी मूल वासना का दरख्त जैसे सूखता जा रहा है। मुझे अपनी कूवत पर बड़ा नाज था, मेरी भूख इनसैटिएबुल थी लेकिन अब तो मन ही नहीं करता। हो सकता है आत्मा के छीजते जाने का नतीजा हो। बाद में धीरे धीरे वापसी हो जाए मगर अभी तो एकदम अंधेरा है मित्र। तुम बहुत दिनों से इस काम में हो । बताओ, क्या इसमें जरूरत से ज्यादा संलग्न हो जाना इस कदर खतरनाक हो सकताहै? तुम्हारा अपना अनुभव क्या है? क्या तुम्हारी सेक्स लाइफ नार्मल है? ”
और कोई अवसर होता तो उसके इस बेहूदा प्रश्न के लिए सुखदेव प्रसाद उसे आड़े हाथों लेते, खरी खोटी सुनाने से नहीं चूकते लेकिन उस समय जैसे उनकी बोलती बंद हो गई। देव ने शरारती अंदाज से एक टहोका देते कहा, ”अरे भाई, यारों से क्या पर्देदारी? होता है तो बता दो। सच कह रहा हूं कि पहले से पता होता तो इस झमेले में पड़ते ही नहीं। “

सुखदेव प्रसाद गंभीर होकर बोले, ”तुम्हारी यह धारणा गलत है कि लिखने पढ़ने से ह्रास होता है। मैं दो दशक से भी अधिक समय से लिख रहा हूं मगर बिलकुल सामान्य रहा लेकिन जबसे यह पुरस्कार मिला है... ”इसके बाद उनसे और अधिक बोला नहीं गया। देव ने तड़ तो लिया मगर उनके मुंह से कहलवाने की बहुत कोशिश की, दोस्ती की कसम दिलाई मगर उनके मुंह पर जैसे ताला जड़ गया था। 

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हंस, मार्च 2015 में प्रकाशित

रानियां सब जानती हैं - कवितायेँ: वर्तिका नन्दा | Raniyan Sab Janti Hain - Kavitayen: Vartika Nanda (hindi kavita sangrah)


अपमान – अपराध – प्रार्थना - चुप्पी...

रानियों के पास सारे सच थे पर जुबां बंद। पलकें भीगीं। सांसें भारी। मन बेदम। रानियों की कहानी किसी दिन एक किस्सागो ने सुनी तो सोचा –उनकी बात जितनी कह सकूं, कह लूं।

वैसे भी इस देश की कागजी इमारतों में न्याय भले ही दुबक कर बैठता हो लेकिन दैविक न्याय तो अपना दायरा पूरा करता ही है। राजा भूल जाते हैं – जब भी कोई विनाश आता है, उसकी तह में होती है – किसी रानी की आह!
इसलिए दुआ कि रानियां बची रहें। साथ ही बचा रहे – उनके  मन में बिखरा गुलाल और लहंगे पर छितराए मोरपंख। कम से कम उम्मीदों की पालकी को सजाए रखे रहने पर तो राजा बंदिश नहीं लगा सकते न।
रानियों की तरफ से

वर्तिका नन्दा



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रानियां सब जानती हैं

उनकी आंखों में सपने तैरते ही नहीं

वे भारी पलकों से रियासतें देखती हैं
सत्ताओं के खेल
राजा की चौसर

वे इंतजार करती हैं
अपने चीर हरण का
या फिर आहुति देने का

वे जानती हैं
दीवार के उस पार से होने वाला हमला
तबाह करेगा सबसे पहले
उनकी ही दुनिया

पर वे यह भी जानती हैं
गुलाब जल से चमकती काया
मालिशें
खुशबुएं
ये सब चक्रव्यूह हैं

वे जानती हैं
पत्थर की इन दीवारों में कोई रोशनदान नहीं
और पायल की आवाज में इतना जोर नहीं

चीखें यहीं दबेंगी
आंसू यहीं चिपकेंगे
मकबरे यहीं बनेंगे
तारीखें यहीं बदलेंगी
पर उनकी किस्मत नहीं
रानियां बुदबुदाती हैं
गर्म दिनों में सर्द आहें भरती हैं
सुराही सी दिखकर
सूखी रहती हैं – अंदर, बहुत अंदर तक

राजा नहीं जानते
दर्द के हिचकोले लेती यही आहें
सियासतों को, तख्तों को,
मिट्टी में मिला देती हैं एक दिन

राजा सोचा करते हैं
दीवारें मजबूत होंगी
तो वे भी टिके रहेंगे

राजा को क्या पता
रानी में खुशी की छलक होगी
मन में इबादत और
हथेली में सच्चे प्रेम की मेहंदी
तभी टिकेगी सियासत

रानियां सब जानती हैं
पर चुप रहती हैं
आंखों के नीचे
गहरे काले धब्बे
भारी लहंगे से रिसता हुआ खून
थका दिल
रानी के साथ चलता है
तो समय का पहिया कंपकंपा जाता है

सियासतें कंपकंपा जाती हैं
तो राजा लगते हैं दहाड़ने
इस कंपन का स्रोत जानने की नर्माहट
राजा के पास कहां है

रानियां जो जानती हैं
वे राजा नहीं जानते
न बेटे
न दासियां

हरम के अंदर हरम
हरम के अंदर हरम
तालों में
सींखचों में
पहरे में

हवा तक बाहर ठहरती है
और सुख भी


रानियां जानती हैं
चाहे कितनी ही बार लिखे जाएं इतिहास
फटे हुए ये पन्ने उड़कर बाहर जा नहीं पाएंगें

रानियों के पास कलम नहीं है
सत्ता नहीं
राजपाट भी नहीं है
लेकिन उनके पास सच है

मगर अफ़सोस !
सच के संदूकों की चाबी भी
राजा के ही पास है

हां, रानियां ये भी जानती हैं



मानव अधिकारों की श्रद्धांजलि – सुनंदा पुष्कर के लिए

श्रद्धांजलियां सच नहीं होतीं हमेशा
जैसे जिंदगी नहीं होती पूरी सच

तस्वीर के साथ
समय तारीख उम्र पता
यह सरकारी सुबूत तो होते ही हैं
पर
यह कौन लिखे कि
मरने वाली
मरी
या
मारी गई

श्रद्धांजलि में फिर
श्रद्धा किसकी, कैसे, कहां
पूरा जीवन वृतांत
एक सजे-सजाए घेरे में?

यात्रा के फरेब
षड्यंत्र
पठार
सांपों की चाल
श्रद्धांजलि नहीं कहती
वो अखबार की नियमित घोषणा होती है
एक इश्तिहार
जिंदगी का एक बिंदु
अफसोस
श्रद्धांजलि जिसकी होती है
वो उसका लेखक नहीं होता
इसलिए श्रद्धांजलि कभी भी पूरी होती नहीं

सच, न तो जिंदगी होती है पूरी
न श्रद्धांजलि
बेहतर है
जीना बिना किसी उम्मीद के
और फिर मरना भी

परिभाषित करना खुद को जब भी समय हो
और शीशे में अपने अक्स को
खुद ही पोंछ लेना
किसी ऐतिहासिक रूमाल से
प्रूफ की गलतियों, हड़बड़ियों, आंदोलनों, राजनेताओं की घमाघम के बीच
बेहतर है
खुद ही लिख जाना
अपनी एक अदद श्रद्धांजलि ( 17 जनवरी, 2014 को )



मारी गई औरतें 

मारी गई औरतों की कहानी तो इतिहास भी नहीं लिखता
इतिहास आंखें मूंदे रखता है
बड़े गुरूओं की ही तरह
उन तमाम सवालों पर
जो तीखे हो सकते हैं

इतिहास रेत पर पानी नहीं डालता
पानी पर रेत नहीं

मारी गई औऱतों की कहानी कहने का जोखिम
इतिहास नहीं उठाता
हिम्मत की कमी तो
वर्तमान में भी बनी रहती है हमेशा
वर्तमान तराजू लिए चलता है
और किस्से कहता है
राजनीति, दबाव और प्रभाव के बीच
मारी गई औरतें
हमेशा सस्ती और हलकी पड़ती हैं
भविष्य दूर खड़ा इन पन्नों को
चुपके से छिपा दिए जाने का साक्षी रहता है हमेशा
पर गवाही वह भी नहीं देता

अतीत, वर्तमान और भविष्य
मारी गई औरतों को लेकर
शब्दों के हेर-फेर, जोड़-तोड़ और हिसाब में माहिर रहे हैं
विधिवत सजाए गए इन सारे मंसूबों के बावजूद
मारी गई औरतों के गले शरीर
कभी भी
पूरी तरह खत्म नहीं होते
जिन आपदाओं को वजहों को खुरचने में
कानून थक जाता है
उनके सीने में
उन्हीं औरतों की कंपन होती है
जो मारी जाती हैं उनके हाथों
जिन्हें बचाने की जुगत में
सतत भिड़े रहते हैं –

अतीत, वर्तमान और भविष्य




कठपुतली 
(एसिड अटैक से पीड़ित युवतियों के नाम )

सपनों के शहजादे की तलाश का अंत हो चुका है अब
तमाम चेहरे
नौटंकियां
मेले
हाट
तमाशे 
मोहल्ले, पुलिस और कचहरियों
में बिकते झूठ
देखने के बाद
अपना चेहरा बहुत भला लगने लगा है
सुंदर न भी हो
पर मन में एक सुर्ख लाल बिंदी है अब भी
हवन का धुंआ
और स्लेट पर पहली बार उकेरा अपना नाम भी
सब सुंदर है
सत्य भी, शिव भी और अपना अंतस भी
खुद से प्यार करने का समय 
शुरू होता है – अब!





औरत : बादलों के बीच एक औरत 
हर औरत लिखती है कविता
हर औरत के पास होती है एक कविता
हर औरत होती है कविता
कविता लिखते-लिखते एक दिन खो जाती है औरत
और फिर सालों बाद बादलों के बीच से
झांकती है औरत
सच उसकी मुट्ठी में होता है
तुड़े-मुड़े कागज –सा
खुल जाए
तो कांप जाए सत्ता
पर औरत 
ऐसा नहीं चाहती
औरत पढ़ नहीं पाती अपनी लिखी कविता
पढ़ पाती तो जी लेती उसे
इसलिए बादलों के बीच से झांकती है औरत
बादलों में बादलों सी हो जाती है औरत



भरपाई
किस्मत में कोई छेद हो जाए
तो उसे तारों से भर देना चाहिए
सिल देना चाहिए सारे छेदों को
किसी संभावना के धागे से 
अपराधों की छुअन से हुए छेद
बमुश्किल भरते हैं
छेद भरने से भी
अपराध की खराश तो बची ही रहेगी
पर इससे कम से कम
बेहतर दिनों की गुंजाइश तो बनी रहेगी

Vatika Nanda's Email: vartikamedia@gmail.com


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