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प्रवासी फिल्म:: वर्तमान दौर में डायस्पोरिक सिनेमा — सक्षम द्विवेदी



प्रवासी भारतीय फिल्म dysphoric-cinema

प्रवासी फिल्म

प्रवासी भारतीय फिल्म



वर्तमान  दौर में डायस्पोरिक सिनेमा

 — सक्षम द्विवेदी


प्रवासन एक ऐसी प्रक्रिया है जो कि मनुष्य की उत्पत्ति के साथ से ही जारी है। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट बताती है कि सन 2005 में विश्व की कुल आबादी की 3 प्रतिशत जनसंख्या प्रवासितों की है। प्रवासन के फलस्वरूप जिस समुदाय का निर्माण हुआ उसे डायस्पोरा कहा गया।

डायस्पोरा का शाब्दिक अर्थ बिखराव है, परन्तु यहूदियेां के बेबीलोन से पलायन के बाद पलायित समूह को डायस्पोरा की संज्ञा दी गयी। वर्तमान में प्रवासन तथा प्रवासित समूहों के अध्ययन हेतु ‘डायस्पोरा’ शब्द ही एकडमिक जगत में ग्रहण कर लिया गया है।

कोहेन तथा सैफरसन जैसे विद्वानों का मानना है कि प्रवासित समूह अपने मूल निवास, परंपरा, भाषा सहित अपनी संस्कृति के प्रति झुकाव रखता है तथा उसे संरक्षित और संवर्धित करने का प्रयास करता है। उनकी इसी प्रवृत्ति के कारण इन तमाम बिन्दुओं की अभिव्यक्ति गंतव्य स्थलों में विभिन्न माघ्यमों द्वारा की जाने लगी। अर्जुन अप्पादुराई के अनुसार प्रवासित लोग अपने क्रिया-कलापेां और स्मृतियों को लिखित माघ्यम, श्रव्य माघ्यम तथा द्श्य-श्रव्य माघ्यम में संरक्षित रखने का प्रयास करते हैं । इसको उन्होने ‘मीडिया स्केप’ के रूप में दर्शाया।

वीडियो के माघ्यम से स्मृति सरंक्षण, संस्कृति संरक्षण और उसकी अभिव्यक्ति ही डायस्पोरा तथा फिल्म के बीच की कड़ी बनती है। विभिन्न फिल्मों में प्रवासियों के जीवन को अभिव्यक्त किया गया है। मीरा नायर, ईश अमितोज, विमल रेड्डी आदि ने प्रवासियों की समस्या पर आधारित फिल्मों का निर्माण कर सफलता भी प्राप्त की।

मीरा नायर की नेमसेक जहां बंगालीयों के पहचान संकट को वैश्विक स्तर पर दिखाने का प्रयास है, वहीं मनमोहन सिंह की फिल्म असां नू मान वतनां दा पंजाबी डायस्पोरा पर आधारित कहानी है। यह फिल्म दर्शाती है कि यदि एक प्रवासित व्यक्ति वापस अपनी स्वभूमि में लौटकर बसना चाहता है तब उसे किस प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है इसके अलावा बेंड इट लाइक बेकहम, मानसून वेडिंग, अधूरा सपना अलग-अलग तरह की प्रवासियों की समस्या को उजागर करती है।

विमल रेड्डी फिजी में रह रहे भारतीय डायस्पोरा की समस्याओं पर केन्द्रित फिल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं। इनके द्वारा निर्मित अधूरा सपना, घर-परदेश और हाई वे टू सूवा फिजी में रह रहे प्रवासी भारतीयों की अभिव्यक्ति है। ईश अमितोज की कंदबी कलाई प्रवासीयों पर आधारित एक चर्चित फिल्म रही। इस फिल्म में सिख डायस्पोरा की समस्याओं को उजागर किया गया है।

अतः इतना तो स्पष्ट है कि फिल्मेां तथा प्रवासी जीवन का गहरा संबध रहा है। परन्तु ऐकेडमिक अघ्ययन के दृष्टीकोण से इसे कैसे देखा जाए और समाज को इसका क्या लाभ है तथा आज के समय में इस प्रकार के अघ्ययन का क्या उपयोग है, इसको जानना भी आवश्यक हो जाता है।

अगर हम विगत 20 वर्षो पर नजर डालते हैं तो साफ दिखाई देता है कि ऐसे विषयों पर अनेक शोध हुऐं हैं जो कि फिल्मों तथा डायस्पोरा के अंतरसंबधों पर आधरित हैं। रेखा शर्मा ने फिल्मों द्वारा दक्षिण एशियाई जीवन को कैसे दिखाया जा रहा है अपने शोध पत्र का विषय बनाया। रेखा शर्मा ने अमेरिकन देसी फिल्म का विश्लेषण कर दक्षिण ऐशियाई प्रतिनिधित्व को फिल्मों के माध्यम से देखने का प्रयास किया। सृजा सान्याल ने नेमसेक में यह परीक्षण किया कि एक स्त्री प्रवासित होने पर किस प्रकार की समस्याओं का सामना करती है। सुब्रता दास ने बंगाली डायस्पोरा की समस्याओं को नेमसेक फिल्म को आधार बनाकर देखा। अर्जुन अप्पादुराई ने मीडिया तथा फिल्म के अंर्तसंबधों की व्याख्या की है। इसी प्रकार करीम एच करीम ऐथेनिक मीडिया पर विमर्श प्रस्तुत करते हैं। अनीता शर्मा अपने डायस्पोरिक फिल्म से जुड़े शोध में यह निष्कर्ष प्राप्त करतीं हैं कि प्रवासीयों की द्वितीय पीढ़ी में कल्पित स्वभूमि की भावना तथा पहचान संकट पाया जाता है। उन्होने अपना शोध नेमसेक फिल्म के पात्र गोगोल को केन्द्र में रखकर किया। गोगोल एक प्रवासित व्यक्ति की संतान है,जिसका प्रवासन भारत से अमेरिका में हुआ है।

आज भारत में भी प्रवासियों के जीवन पर आधारित फिल्में सफलता प्राप्त कर रहीं हैं। हाल ही में रीलीज हुयी एअर लिफ्ट की सफलता यह दर्शाती है कि अब आम जनमानस भी कहीं न कहीं न कहीं प्रवासियों से जुड़े जीवन को देखना चाहता है। एअल लिफ्ट खाड़ी देशेां के अराजक महौल में फंसे भारतीयों को वापस लाने की कहानी पर आधारित फिल्म है। भारत में बनी प्रवासी फिल्मों मे नमस्ते लंदन, पूरब-पश्चिम, तमस, ट्रेन टू पाकिस्तान प्रमुख है। शोएब मंसूर की निर्देशित ‘खुदा के लिए’ अमेरिका और ब्रिटेन में रह रहे प्रवासी पाकिस्तानीयों के पहचान संकट को अभिव्यक्त करती है। यह फिल्म खास तौर पर 11 सितंबर के बाद अमेरिका पाकिस्तान और अफगानिस्तान के प्रति दृष्टीकोण और उसके आम नागरिकों पर पड़ने वाले प्रभावों को दर्शाती है।

भारत के तीन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में जहां डायस्पोरा अध्ययन हो रहा है - महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय तथा गुजरात विश्वविद्यालय है। इन तीनो ही संस्थानों में डायस्पोरा तथा फिल्म के अंतरसंबधों पर शोध कार्य हो चुके हैं तथा अनवरत जारी भी हैं।

हैदराबाद में सुब्राता दास ने फिल्म तथा बंगाली डायस्पोरा को आधार बनाकर तथा रूपाली अलोने ने फिजी में निर्मित फिल्म अधूरा सपना को आधार बनाकर शोध किया वहीं गुजरात में अनुज सिंह मीडिया तथा डायस्पोरा के अंतरसंबधों पर शोध कर रहें हैं। जो यह दर्शाता है कि व्यहवारिक समाज सहित ऐकेडमिक संस्थानों में भी प्रवासियो तथा फिल्म के संबधों पर गहनता से चर्चा की जा रही है तथा समाज में इस प्रकार की फिल्मों के प्रभाव को जानने का प्रयास किया जा रहा है।

फिल्म तथा डायस्पोरा के अंतरसंबधों का अध्ययन और खास तौर पर प्रवासियों के जीवन पर बनी उन फिल्मों का तुलनात्मक अध्ययन जिनका निर्माण प्रवासी देशों में हुआ है तथा जिनका निर्माण स्वभूमी में हुआ है। लोगों को यह बताने में अहम भूमिका निभा रहा है कि स्वभूमि मे रहने वाले लोग प्रवासियों के बारे में किस प्रकार की सोच रखते हैं और स्वयं प्रवासी अपने जीवन के बारे में किस प्रकार की सेाच रखते हैं।

हांलाकि यह सच है कि इस प्रकार की फिल्मों पर डायस्पोरिक दृष्टीकोण से शोध शुरू हुये अभी अधिक समय नहीं बीता है, परन्तु यह स्पष्ट है कि फिल्म तथा डायस्पोरा के अंतरसंबधांे के महत्व को एक महत्वपूर्ण विषय के रूप में मान्यता मिल चुकी है।

सक्षम द्विवेदी,
एम0फिल0 प्रवासन एवं डायस्पोरा विभाग।
महात्मागांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा,महाराष्ट्र।
mob- ७५८८१०७१६४ .

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प्रत्यक्षा — बलमवा तुम क्या जानो प्रीत — हिन्दी कहानियाँ


Brilliant hindi kahani by pratyaksha - balamwa tum kya jano preet

Hindi Kahani by Pratyaksha

बलमवा तुम क्या जानो प्रीत 

कहीं मकान के पेट से ये आवाज़ अँधेरे को चीरती तीखेपन से पहुँचती । बूढ़ा उठ कर पिछवाड़े के दरवाज़े तक जाता । फिर सूप भरा बोल लेकर वापस अपनी बदरंग पर आरामदेह कुर्सी पर बैठ जाता । सुड़क सुड़क कर पानीदार सूप पीता । ऐसे समय किसी का भी हस्तक्षेप उसे रास न आता । भले ही कोई सचमुच का ग्राहक किसी चाँदी के गुच्छे पर जान न्योछवर करता दाम पूछता । 

बात सिर्फ इतनी सी थी, सिर्फ इतनी ही तो... कि बस जी नहीं लगता था कहीं भी, किसी से भी । अंदर सन्नाटा गोल-गोल घूमर बनाता प्राण उमेठता और फीकी बेरौनक मुस्कान के कोने पुराने स्वेटर से उधड़ते बिखर जाते । संगीत शब्द रंग बन्द तहखाने में सात तालों के भीतर लुकाई बात थी, दूसरे समय की । तब भी यही समय था और अब भी की आह दबी-दबी उठती, बेचैन कराहटों की उँगली थामे, दीवार टटोलते धीरे से चुक जाती, अपने होने से शर्मसार लिथड़ती खामोशी कोने-अतरों पर घिसटती खत्म होती ।

गली से घूमती विचरती आवाज़ दरवाज़े से झाँकती लौट जाती । गली के मुहाने पर जो दुकान थी उसके अँधेरे कोनों में ग्रामोफोन बजता, ठेठ खराशदार आवाज़ में किसी तकलीफ और मनुहार की दिल तोड़ देने वाली गमक । भीतर अजायबघर था । पुरानी घड़ियाँ, रेत घड़ी, क्म्पास, टूटे दरके चीनी मिट्टी के नक्काशीदार प्लेट और सूप बोल्स, चाँदी की तश्तरियाँ, पीले पड़े फ्रेम में जाने किस किस की तस्वीरें, क्रोशिया से बने झागदार पीले चादर और स्टोल ।

बूढ़ा अपनी सुनहरी कमानी वाले फ्रेमलेस चश्मे से गली के सन्नाटे को ताकता ग्रामोफोन सुनता । बार-बार एक ही गीत । कोई ग्राहक भूले भटके आता तो अँधेरे सीलेपन से घबड़ा कर धूप भरी गली में तुरत लौट जाता । बूढ़ा चुप देखता, पतलून की जेब से घड़ी निकाल कर समय देखता । अगर बारह बजे होते तो एक कर्कश घँटी बजती । कहीं मकान के पेट से ये आवाज़ अँधेरे को चीरती तीखेपन से पहुँचती । बूढ़ा उठ कर पिछवाड़े के दरवाज़े तक जाता । फिर सूप भरा बोल लेकर वापस अपनी बदरंग पर आरामदेह कुर्सी पर बैठ जाता । सुड़क सुड़क कर पानीदार सूप पीता । ऐसे समय किसी का भी हस्तक्षेप उसे रास न आता । भले ही कोई सचमुच का ग्राहक किसी चाँदी के गुच्छे पर जान न्योछवर करता दाम पूछता ।

दुकान के पिछवाड़े वाले हिस्से का दरवाज़ा बगल की गली को खुलता था । औरत खुले दरवाज़े और गली के बीच टंगी मोढ़े पर बैठी रहती । औरत कामकाजी थी इसलिये हर वक्त काम करती दिखती । जब बैठी होती तब भी उसका बाकी शरीर विश्राम की अवस्था में रहता पर उसके हाथ और उसका मुँह काम करते रहते । उसके गले से गीत थोड़ा बेसुरा मोटे सुर में फुसफुसाते स्वर में निकलता जैसे गाने की बजाय कुछ याद करते रहने की कोशिश हो । औरत मफलर बुनती थी । कभी-कभी शाल भी बुन लेती थी । गर्मियों में क्रोशिया के लेस बुनती । बूढ़ा निर्विकार भाव से दुकान में बैठता ।

∎ ∎ ∎

सुनहरे नक्काशीदार फ्रेम में जड़ी तस्वीर औरत की थी जिसके चेहरे पर अथाह मासूमियत और अथाह दर्द था । मज़े की बात कि तस्वीर में उसके कंधे हँस रहे दीखते थे जबकि चेहरा चुप था । ऐसा होना किसी सुराख से उस पार गिर जाना होता था जहाँ रात और दिन के बीच कोई विभाजन समय नहीं था । और उसी तरह सुख और दुख का भी । मसलन सुखी होते-होते अचानक उसके ठीक से पूरा होने के ऐन पहले दुख हरहरा कर तोड़फोड़ मचाता घुस आता । और दुख के चरम पर कोई भूली हुई या फिर आगत सुख की लहर का आभास ऐसे कौंधता कि, दुखी थे, अच्छा ? जैसे चेहरा चौंक जाता ।

रंग भी सफेद स्याह कहाँ थे । वाटर कलर्स की तरह सब एक दूसरे में बहते घुलते मिलते । जैसे सब तरल था और कोई तयशुदा सीमा नहीं । जैसे पूरा ब्रह्माँड धड़कता हो, हर धड़कन पर उसका चेहरा बदल जाता हो, उसकी प्रकृति तक, उसका गँध रूप रस, सब । और ये आदमी झुकता चलता फिर सीधा खड़ा होता, किसी ऐनिमेशन फिल्म का कैरिकेचर जिसकी अंतिम परिणिति फिर उस जीव की हो जो एक कोशिका से बना था । कि सब इतना दुरूह हुआ कि एकदम धुर सरलता में ही इस दुरूहता का भरण हो सके । कि जैसे बच्चे के मासूम भोलेपने में कुटिलता के सब बीज गुम्फित रहें । साईलेंट फैक्टर्स । जो हिस्सा उँगली के पोर से सबसे पहले छू जाये वही सबसे पहले जीवित हो, आकार ले ।

∎ ∎ ∎

रात में कई बार बूढ़ा उस तस्वीर को अपने कमरे में ले आता । लैम्प के पीले बीमार रौशनी में उस चेहरे को देखता । फिर साँस भरकर बगल के मेज़ पर एहतियात से रख देता । उसी एहतियात से अपने कपड़े बदलता, उन्हें सरियाता और बिस्तर के पायताने रख देता । टोपी उतारता, अपने सर को सहलाता फिर प्रार्थना जैसा कुछ बुदबुदाते लेट जाता । उसकी आँखों से कभी-कभी आँसू रिसते पर बारहा उसे मालूम नहीं पड़ता । अपने शरीर के अंग प्रत्यंग पर अब उसकी पकड़ धीमी होती जा रही थी । जैसे छोटे राजा क्षत्रप बगावत पर उतर आये हों ।

रात को सोने के पहले औरत लैम्प बन्द करने आती । तस्वीर उठाकर वापस सामने वाले हिस्से में जहाँ दुकान थी, वहाँ रख आती ।

∎ ∎ ∎

मुन्नी बेगम जब गातीं, बलमवा तुम क्या जानो प्रीत, महफिल में रस बरसता । शमादान में शमा लहरा कर काँप जाती । सुनने वालों के दिल से आह उठती । मुन्नी बेगम का चेहरा पाक साफ संजीदा रहता । जैसे प्रीत से उनका कोई वास्ता न हो । ऐसे बेरुख नक्श पर टीस मारती आवाज़ कहर ढाती ।

अल्लाताला ने जैसी सूरत दी थी वैसा ही गला भी दिया था । कहतें हैं जब पान खातीं तो रस की धार गले से उतरती दिखती । नाक का हीरे का लौंग कटार की तरह लश्कारा मारता । राजा साहब और नवाब साहब हुक्के की पेंच से कश खींचते बेहोश होते । सिक्कों और नोटों से भरा थैला फर्श पर झँकार बजाता गिरता ।

इन सब से गाफिल मुन्नी बेगम आँख मून्दें आलाप लेतीं... गँगा रेती में बँगला छवाय मोरे राजा, आवे लहर जमुने की...

उनकी आवाज़ में किसी बच्चे के गले सी मिठास थी । और उस भोलेपन के कच्चे गमक में किसी नायिका का मनुहार जब घुलता तो जान निकल जाती । गाढ़े शहद की शिथिलता, जैसे अभिसार के बाद की अलसाई नींद ।

नवाब रिफाकत अली बेग और राजा नौबहार राय में होड़ मची थी उनका नथ कौन उतारे । मुन्नी बेगम बेखबर, अपने सर की मलमल की ओढनी सँभालते, आलाप लेतीं । उनका छोटा सा मासूम चेहरा संगीत के रस में डूबता तमतमाने लगता । जैसे देवी जी चढ़ी हों, ऐसा परबतिया, जो मुँहलगी दासी थी, मुँह पर हाथ धरे बोलती ।

कोठे की पहली मंजिल की खिड़की के नीचे खड़ा नौजवान दीवार से पीठ टिकाकर आँख मून्द लेता । उसको लगता वो किसी तन्द्रा में है । उसके पाँव खड़े-खड़े अकड़ जाते । उसका शरीर कड़ा हो जाता । पर उसका मन धीरे-धीरे नदी बनता जाता । उसको लगता एक दिन उसका शरीर बहने लगेगा । मुन्नी बेगम एक छोटी सी मछली बन जायेगी और उसकी नदी में तैरेगी । फिर दोनों बहते हुये किसी और दुनिया में निकल जायेंगे । उस आने वाले दिन की उम्मीद में उसकी छाती ऐसे भर जाती कि साँस तक का बोझ उसको तोड़ देगा की अनूभुति होती । लौंगलत्ती, मुन्नी बेगम की खासमखास ऊपरी मंजिल की खिड़की से झाँकती और उफ्फ करती । ये लौंगलत्ती का ही करम था कि महफिल खत्म होने पर एक रात उसने उस नौजवान को लुका छिपा कर मुन्नी के कमरे में पहुँचाया था ।

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बूढ़ा उलटी हथेली से अपने होंठ पोछता है । आस्तीन का कोर मैल से चीकट हो चला है । दुकान के अँधेरे ठंडेपन में नम मिट्टी सा सुकून है । बाहर धूप की तरफ देखते उसकी आँखें पनियाती हैं । उसके पंजों पर झुर्रियों का जाल है, नीले नस रस्सी की तरह कड़े होकर उभर आये हैं । खाल पर भूरे लाल तिल और चकत्तों की भरमार है । मेज़ पर रखी घँटी को कुछ गुस्से से बार-बार दबाता है । औरत झल्लाती हुई आती है

क्या है ? तुमने आज मुझे सूप नहीं दिया ? औरत बिना कुछ कहे मुड़ जाती है । दो मिनट बाद गंदा बोल जिसमें अब भी सूप तलछट पर तैर रहा है, उसके चेहरे की तरफ ठेलती है,

अब याद आया ? फिर गुस्से से धमधमाती लौट जाती है ।

बूढ़ा आँख झपकाता देखता है । उसके होंठों के कोर एक महीन रुलाई में नीचे गिर जाते हैं । धीमे से उठता है, तस्वीर वाली औरत को छाती से लगाकर कुछ देर खड़ा रहता है ।

औरत धीमे दबे आवाज़ आती है । बूढ़े के हाथ से तस्वीर लेकर शेल्फ पर रखती है फिर उसका हाथ पकड़ कर नरमी से उसे कुर्सी तक ले जाती है ।

मेज़ पर एक कप ओवलटीन और दो अरारोट के बिस्किट तश्तरी में रखे हैं । कप से भाप उठ रहा है ।

ये खा लो अभी फिर आधे घँटे में खाना लगाती हूँ । औरत की आवाज़ में बच्चे को पुचकारने सा दुलार है । उसका सख्त चेहरा नरम पड़ गया है । बहुत ज़िंदगी देख ली और कुछ मिला नहीं जैसा थकने जाने वाला भाव उसके चेहरे पर है । पर कड़ी मिट्टी पर बारिश की बून्दों का गीलापन भी है ।

बूढ़ा बच्चे की तरह हँस पड़ता है, कहता है लौंगलत्ती तुम बहुत अच्छी हो । फिर उठकर ग्रामोफोन पर रेकार्ड लगाता है... बलमवा तुम क्या जानो प्रीत...

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मुन्नी बेगम रातों रात भागीं थीं । नवाब बेग की सोने की मुहरों वाली भारी थैली ले कर भागीं थीं । लौंगलत्ती राज़दार थी । ज़ैबुनिस्सा खैरुनिस्सा, फरखंदा फरज़ंदा, सबको छोड़ लौंगलत्ती भी गायब हो गई थी एक दिन । ब्रैडली हडसन की रेलवे की नौकरी थी । भाग जाना आसान था । रेल गाड़ी बदलते, एक शहर से दूसरे । लिलुआ, मखलौटगंज, कलकत्ता... जाने कहाँ-कहाँ । जीवन भर सेवा की लौंगलत्ती ने । पहले मुन्नी बेगम की फिर उनकी मौत के बाद ब्रैडली साहब की । क्यों की सोचती है कई बार ।

पुराने चाँदी के बर्तन साफ करते धीरे से कुछ बेसुर गुनगुनाती है, बलमवा तुम क्या जानो... फिर प्रीत कहते आवाज़ लड़खड़ाती है, खाँसती है फिर खुद से हँसती पूरा करती है... पीर, तुम क्या जानो पीर ! बलमवा...
Pratyaksha Sinha : pratyaksha@gmail.com
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एक रिनेशां (पुनर्जागरण) और चाहिए — अनुज #Renaissance

Need one more Renaissance - Anuj

Why is there a need for renaissance - Anuj
Leonardo da Vinci's descendants 'include director Franco Zeffirelli'
Mona Lisa based on Da Vinci's gay lover, art detective claims

एक रिनेशां (Renaissance) और चाहिए -  विंची को याद करते हुए

— अनुज


इतिहासकारों का स्वाभाविक शगल

अभी हाल ही में यह ख़बर आई कि इटली के कुछ अनुसंधानकर्ता पिछले कुछ वर्षों से विश्वविख्यात चित्रकार और पाश्चात्य पुनर्जागरण (रिनेशां) के महत्वपूर्ण आधार-स्तम्भ लियोनार्दो द विंची की वंशावली की तलाश में जुटे हैं। लियोनार्दो द विंची म्यूजियम ऐन्ड सबाटो के निदेशक और इंटरनेशनल द विंची एसोसिएशन के अध्यक्ष ने तो यहाँ तक दावा किया है कि इतालवी इतिहासकारों ने लियोनार्दो के वंशज के रूप में कुछेक की पहचान भी कर ली है।

Franco Zeffirelli. Photograph: Roy Jones/ANL/REX Shutterstock
सबसे मज़ेदार बात तो यह है कि इन तथाकथित वंशजों की फेहरिश्त में इतालवी फिल्म, ओपेरा और टेलीविज़न अकादमी अवार्ड के लिए नामित और इतालवी कला की दुनिया के स्थापित कलाकार फ्रैंको ज़ेफीरेली भी शामिल हैं (The Guardian: Leonardo da Vinci's descendants 'include director Franco Zeffirelli' http://gu.com/p/4tc5q/stw) । यहाँ पाठकों को यह याद दिला देना उचित होगा कि लियोनार्दो का जन्म-दिन इसी महीने की 15 तारीख को पड़ता है। यह सच है कि किसी ऐतिहासिक कल्ट के वशजों की तलाश करना इतिहासकारों का स्वाभाविक शगल होता है, लेकिन इतने सालों बाद यदि आज फिर से लियोनार्दो द विंची के वंशजों की तलाश की जा रही है तो जाहिर है कि कुछ तो बात होगी उस व्यक्ति में! यह भी सवाल उठता है कि वंशजों की तलाश का आख़िर क्या अर्थ हो सकता है। कहना न होगा कि अगर इतिहासकारों ने इस संदर्भ में किसी प्रकार की कोई दावा या घोषणा की है, और वह भी  बगैर किसी वैज्ञानिक प्रमाण के तो कुछ तो विशेष प्रयोजन रहा होगा? हालांकि यह दावा भी किया गया है कि अनुसंधानकर्ता इस परियोजना पर 1973 से काम कर रहे हैं। इसीलिए यह जरूरी हो जाता है कि हम लियोनार्दो द विंची की प्रासंगिकता और विश्व इतिहास में उसके महत्व पर यहाँ एक संक्षिप्त चर्चा करें। (BBC News - Leonardo da Vinci's 'living relatives' identified http://www.bbc.com/news/world-europe-36053229)

'रिनेशां' अर्थात् पुनर्जागरण

विंची का काल विश्व इतिहास परिदृश्य का वह काल था जिसे 'रिनेशां' अर्थात् पुनर्जागरण का काल कहते हैं। पुनर्जागरण की शुरुआत इटली से हुई थी। वस्तुत: पुनर्जागरण वह काल-खंड था जब से इंसान इंसानी कार्यकलापों पर गहरायी से विचार करने लगा था। इससे पूर्व दुनिया के लगभग सभी साहित्य और कला की चिन्ता जीवनोपरान्त के सत्य की तलाश ही रही थी जहाँ धर्म और दर्शन का वर्चस्व रहा था। लेकिन अब का मनुष्य वर्तमान की समस्याओं पर सोचने लगा था। उसकी चिन्ता अब यह नहीं रही थी कि जीवन के उपरान्त का जीवन कैसा होगा या कि इस जीवन के बाद क्या है। ऐसे में, मानव-जीवन में धर्म और दर्शन के स्थान पर तर्क की प्रधानता होने लगी थी और इंसान इस ओर उत्सुक रहने लगा कि मनुष्य की वास्तविक समस्या का अध्ययन किया जाना चाहिए। अब इंसान इस अनुभूति से गुजरने लगा कि मानव जीवन भी महत्वपूर्ण है और उसके क्रिया-कलापों को समझने की आवश्यकता है। अब तक मनुष्य की ज्ञान-प्राप्ति का लक्ष्य बदलने लगा था। यह मानवता के महत्व की स्थापना का काल था और मानवता की यह स्थापना ही लियोनार्दो द विंची की कला का मूल कथ्य है। दरअसल, पुनर्जागरण की भावना की पूर्ण अभिव्यक्ति इटली के तीन कलाकारों माइकेल एंजिलो, रफेल और लियोनार्दो द विंची की कृतियों में मिलती हैं

लियोनार्दो द विंची

लियोनार्दो द विंची का जन्म 15 अप्रैल, 1452 को इटली के विंची नामक स्थान पर हुआ था। हालांकि वे मूलत: एक चित्रकार थे, लेकिन उनकी रुचि एक विस्तृत कैनवास पर बिखरी पड़ी थी। वे एक मूर्तिकार, गणितज्ञ, वैज्ञानिक, अभियांत्रिकी के विशेषज्ञ, इतिहासकार, लेखक, कवि, दार्शनिक और गायक आदि सभी एक साथ थे। कहते हैं कि उन्होंने ही सर्वप्रथम हवाई जहाज का मॉडल बनाया था। उन्हें हेलीकॉप्टर और टैंक के इज़ाद का भी श्रेय दिया जाता है। लेकिन उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि उनकी चित्रकारी थी। 'द मोनालिसा' और 'द लास्ट सपर' का नाम उनकी ही नहीं, रहती दुनिया की कला के इतिहास की अनुपम थाती में शुमार किया जाता है।

मोनालिसा

जब कभी भी पेंटिंग्स की बात चलती है तो सबसे पहला नाम 'द मोनालिसा' की अवश्य ही चलती है। कभी मोनालिसा की मुस्कराहट की बात चलती है तो कभी उसकी आँखें के पास और होठों के पास के शैडो को लेकर विद्वान बहस करते रहते हैं। मोनालिसा की महत्ता इसी बात में निहित है कि आज भी उसपर पूरी दुनिया में बहस की जाती है। कुछ लोगों का मानना है कि मोनालिसा विंची की प्रेमिका थी तो कुछ कहते हैं कि यह उनकी कोई बहन थी। हालांकि लियोनार्दो द विंची की अपनी कोई संतान नहीं थी लेकिन उनके पिता ने कई विवाह किए थे जिसके उपरान्त विंची के भाई-बहनों की संख्या अच्छी खासी हो गयी थी। हाल ही में, एक शोधकर्ता ने शोध करके यह बताया है कि विंची 'गे-सेक्सुअल' थे और 'द मोनालिसा' उनके किसी 'गे' पार्टनर की तस्वीर है। यह भी हद है यार कि लोग विंची जैसे बड़े व्यक्ति की छीछालेदर से बाज भी नहीं आते.....! हो सकता है कि यह कयास इसलिए भी लगाया जा रहा हो क्योंकि एकबार लियोनार्दो 'सोडोमी' के मामले में कानून के अपराधी बने थे, हालांकि उन्हें बिना किसी दंड आदि बवेले के तत्काल छोड़ दिया गया था(Telegraph: Mona Lisa based on Da Vinci's gay lover, art detective claims http://www.telegraph.co.uk/news/2016/04/20/mona-lisa-based-on-da-vincis-gay-lover-art-detective-claims/)

मोनालिसा की रहस्यमयी मुस्कराहट


Mona Lisa has long been thought to be based on the wife
of a Florentine silk merchant
बहरहाल, मोनालिसा चाहे जो भी रही हो, या कि यह एक पेंटर की कपोल-कल्पना ही हो, लेकिन इसकी महत्ता इस बात में निहित है कि मोनालिसा मानवता की और मानवीय भावना की प्रथम मुखर अभिव्यक्ति है। विंची की विशेषता इसबात में अधिक है कि वे मोनालिसा के रूप में एक स्त्री का चित्र खींचते हैं जिसकी मुस्कराहट में हज़ारों मानवीय भाव एक साथ एकाकार होकर अभिव्यक्त हो आए हों। विंची की 'मोनालिसा' की खासियत इसी तथ्य में छुपी है कि मोनालिसा धार्मिक चरित्र नहीं है बल्कि वह एक सामान्य स्त्री है। अपनी इस कृति से लियोनार्दो द विंची ने यह संदेश दिया है कि मनुष्य एक सुंदर कृति है। मोनालिसा की रहस्यमयी मुस्कराहट यह बताती है कि सामान्य मनुष्य की आंतरिक शक्तियाँ असीम है। इसतरह विंची लघु-मानव की महत्ता को स्थापित करते हैं। यह विंची की अद्भुत सोच थी। कहना न होगा कि विंची का समय अंधकार और वर्जनाओं में डूबा हुआ मध्यकाल था।

द लास्ट सपर

पुनर्जागरण काल की कलात्मकता की यह एक खास विशेषता थी कि कलाकारों ने अपने विषय तो धर्मग्रंथों से लिए लेकिन उसे रूप मानवीय दिया। लियोनार्दो द विंची की पेंटिंग्स 'द लास्ट सपर' इसका जीवन्त उदाहरण है। यह विंची की सोच का ही कमाल था कि उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पेंटिंग्स 'द लास्ट सपर' में जीसस क्राइस्ट को आम लोगों के साथ भोजन करते हुए दिखाया। विंची की चिन्ता आम जनता थी। शायद यही कारण है कि उन्होंने क्लासिकी को छोड़कर जन-जीवन में उतरना ही अपनी कला का ध्येय बनाया। यही वह बिन्दु है जहाँ विंची बड़े बन जाते हैं।

विंची के वंशज

और आज जब विंची के वंशजों की तलाश की जा रही है तो इसका अर्थ कहीं यह तो नहीं कि एक बार फिर से लघु-मानव की महत्ता की स्थापना की आवश्यकता महसूस की जा रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि विश्व स्तर पर बढ़ते धार्मिक कट्टरतावाद के विरुद्ध यह आग़ाज़ है फिर से मानवता की स्थापना की संकल्पना को दोहराने की? सवाल यह उठता है कि क्या आज सचमुच हमें विंची के बहाने यह याद करने की जरूरत नहीं है कि हम अत्याधुनिक होने का चाहे कितना ही ढोल क्यों न पीट लें, हम कितने ही हाईटैक होने का दावा कर लें, हम अभी भी उसी सामंती युग और उन्हीं वर्जनाओं में जी रहे हैं जिसके विरुद्ध लियोनार्दो द विंची, माइकेल एंजिलो, रफेल, पेट्रार्क और दांते आदि ने विद्रोह का शंखनाद किया था?

अनुज
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शेखर गुप्ता — मराठवाड़ा वाया 'गाइड' — 50 वर्षों में उनकी जिंदगी में कुछ भी नहीं बदला है @ShekharGupta


Marathwada dam levels drop to 3% | Marathwada Via Guide - Shekhar Gupta

‘गाइड’ के दृश्य का दोहराव क्यों?

 — शेखर गुप्ता



यदि आपने देव आनंद की 1965 की क्लासिक फिल्म ‘गाइड’ देखी हो तो टीवी स्क्रीन पर सूखे से प्रभावित क्षेत्रों खासतौर पर महाराष्ट्र के दृश्य अापको पहले देखे हुए से लगेंगे। फिल्म के अंतिम हिस्से में राजू गाइड सूखे से प्रभावित क्षेत्र के एक मंदिर में शरण लेता है। गांव वालों को लगता है कि वे कोई पहुंचे हुए स्वामीजी हैं और ग्रामीण उसे तब तक उपवास करने पर मजबूर करते हैं, जब तक कि वर्षा के देवता कृपा नहीं बरसा देते। उपवासरत स्वामीजी की ख्याति जैसे-जैसे फैलती है, पूरे इलाके के हताश ग्रामीण, सफेद टोपी पहने, बैल गाड़ियों पर सवार होकर मंदिर पहुंचने लगते हैं। क्या यही दृश्य इन दिनों आप महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित क्षेत्रों के टीवी दृश्यों में नहीं देख रहे हैं? यहां तक कि ग्रामीण इलाके और लैंडस्केप भी वैसा ही नज़र आता है।

इस साम्यता पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहए। देव आनंद ने भीतरी महाराष्ट्र का एक गांव फिल्म के इस हिस्से की शूटिंग के लिए खोज निकाला था, जहां सूखा पड़ा था। फिल्म में दिखाई दे रही भीड़ के ज्यादातर लोग वास्तविक थे, जो यह अफवाह सुनकर आए थे कि कोई साधु (न कि फिल्म स्टार) बारिश लाने के लिए उपवास कर रहे हैं। फिल्म में तो जब राजू अपनी अंतिम सांस लेता है तो आसमान से मूसलधार बारिश शुरू हो जाती है।

ठीक 50 साल बाद सूखे के कारण वही इलाका, उसी त्रासदी को भुगत रहा है

Marathwada dam levels drop to 3%
Photo Hindustan Times
किंतु आश्चर्य यह अहसास होने पर होता है कि ठीक 50 साल बाद सूखे के कारण वही इलाका, उसी त्रासदी को भुगत रहा है। लोग उतने ही असहाय नज़र आते हैं। थोड़ी-सी बारिश के लिए प्रार्थना करते हुए, नीले आसमान को देखते हुए जबकि उन्हें भी मालूम है कि जून अंत तक बारिश की कोई उम्मीद नहीं है। क्या 50 वर्षों में उनकी जिंदगी में कुछ भी नहीं बदला है? इससे भी ज्यादा महत्व तो इस सवाल का है कि क्या सिंचाई योजनाओं पर खर्च किए गए दसियों हजार करोड़ रुपए बर्बाद हो गए?

हममें से बहुत कम लोगों को पता होगा कि

इसका जवाब इतना आसान नहीं है। इस आधी सदी में काफी कुछ बदल गया है और वह भी बेहतरी की दिशा में। अपवाद सिर्फ एक ही है, जो वैसी ही बनी हुई है बल्कि और खराब हुई है- जलवायु। मराठवाड़ा भारत के उन बड़े, स्पष्ट रूप से चिह्नित और ज्ञात भौगोलिक क्षेत्रों में से है, जहां बारिश कम होती रही है, जल संकट सतत रहा है बल्कि हमेशा ही ऐसा रहेगा। हममें से बहुत कम लोगों को पता होगा कि देश के सबसे बड़े शुष्क भूभाग राजस्थान के बाद ऐसा क्षेत्र कर्नाटक में मौजूद है। ठीक-ठीक कहें तो यह उत्तरी और उत्तर की ओर भीतरी कर्नाटक का क्षेत्र है। फिर आंध्र का रायलसीमा, उत्तरप्रदेश का बुंदेलखंड, मध्यप्रदेश झारखंड के कई जिले भौगोलिक कारणों से अल्पवर्षा वाले क्षेत्रों में आते हैं। चूंकि यहां हमेशा ही बारिश कम होगी, इसलिए इन इलाकों में बड़े पैमाने पर आबादी का पलायन हुआ है, जिससे उनकी स्थानीय अर्थव्यवस्था का और पतन हुआ है।

वहां गन्ना उगाना तो अपराध है

इन क्षेत्रों में निश्चित ही जल संरक्षण, वितरण और सिंचाई के क्षेत्रों में अधिक तथा समझदारी भरे निवेश की आवश्यकता है। किंतु इससे भी आधारभूत मुद्‌दा नहीं बदलेगा : हमें अधिक पानी देने की प्रकृति की अक्षमता। इन क्षेत्रों को कृषि, अर्थव्यवस्था और सामाजिक व्यवहार में बदलाव की भी जरूरत होगी। मराठवाड़ा और महाराष्ट्र के शेष अपेक्षाकृत शुष्क इलाकों को उदाहरण के तौर पर लें। स्थानीय नेताओं का इसे चीनी उत्पादन का केंद्र बनाना कितना चतुराईभरा कदम था! गन्ने की खेती में बहुत सारा पानी लगता है और जिस क्षेत्र में जलसंकट हो, वहां इसे उगाना तो अपराध है। किंतु न सिर्फ यहां बहुत सारा गन्ना उगाया जाता है बल्कि बड़ी संख्या में चीनी मिलें (उन्हें भी पानी लगता है) हैं। चीनी के सहकारी क्षेत्र पर नेताओं का प्रभुत्व है और चुनावी राजनीति पर पूरी तरह चीनी लॉबी का दबदबा है। अब कोई इस बिल्ली के गले में घंटी बांधने को राजी नहीं है। इस क्षेत्र में ऐसी स्थिति तो आएगी नहीं कि पानी जरूरत से ज्यादा उपलब्ध हो जाए, लेकिन क्या स्थिति बेहतर नहीं होगी यदि यह क्षेत्र फलियां (दालें), मोटा अनाज, तिलहन और ऐसे फलों की खेती करने लगे, जिन्हें गन्ने की तुलना में बहुत ही कम पानी लगता है? यानी पानी के बुद्धिमानीपूर्ण इस्तेमाल से स्थिति में सुधार हो सकता है।

ऐसी ही कहानी और कहीं भी दोहराई जा रही है

ऐसी ही कहानी और कहीं भी दोहराई जा रही है। पंजाब बहुत कम पानी में लहलहाने वाली अन्य फसलें लेने की बजाय धान की इतनी फसल क्यों लेता है? वहां भूमिगत जल भी बहुत नीचे गया है बल्कि मिट्‌टी की गुणवत्ता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा है। धान की तुलना में इन फसलों को आंशिक पानी ही लगता है। इससे इसके भूमिगत जलस्तर को ऊंचा उठाने और मिट्‌टी की गुणवत्ता बढ़ाने में मदद मिलेगी। इसके अलावा अपने पड़ोसियों के खिलाफ पानी के लिए युद्ध छेड़ना इतना महत्वपूर्ण नहीं रह जाएगा। पंजाब और हरियाणा को नकद फसल उगानी चाहिए और धान पूर्वी क्षेत्रों में जाना चाहिए, जिन्हें सालभर बहने वाली नदियों और भरपूर भूमिगत जल का वरदान प्राप्त है। इसी तरह बुंदेलखंड का समाधान यमुना की सहायक नदियों केन, बेतवा और चंबल के अतिरिक्त जल के दोहन में है, फिर चाहे उन्हें आपस में जोड़ना ही क्यों न पड़े। इससे मानसून का पानी बंगाल की खाड़ी में व्यर्थ नहीं बहेगा। इसकी योजनाएं तो दशकों से मौजूद हैं। कई बार उन्हें मंजूरी दी गई है, लेकिन फिर आंदोलनकारियों ने उन्हें रुकवा दिया।

इजरायली यह सब हासिल करने में वर्ल्ड चैंपियन हैं

सूखे के इस संकट में सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि हम देश का भूगोल तो बदल नहीं सकते। जहां तक प्रकृति का सवाल है, शुष्क क्षेत्र तो शुष्क ही बने रहेंगे। हमें टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके, लोगों को प्रेरित करके और जहां जरूरत है वहां वित्तीय साधन लगाकर वहां की अर्थव्यवस्था को बदलना होगा। ऐसा नहीं है कि यह हो नहीं सकता। यह असंभव नहीं है। पानी का महत्व समझकर, इसे बुद्धिमानी से खर्च करके, जल संग्रहण, जल संरक्षण और कचरे में कमी लाने की टेक्नोलॉजी का विकास करके इसे बखूबी किया जा सकता है। हमारे मित्र, इजरायली यह सब हासिल करने में वर्ल्ड चैंपियन हैं। हमें उनके अनुभव से भी सीखना चाहिए। सूखा कभी नहीं जाएगा, लेकिन सूखे से संबंधित दुश्वारियां पूरी तरह से खत्म न भी की जा सकें तो बहुत हद तक घटाई जा सकती हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

शेखर गुप्ता
जाने-माने संपादक और टीवी एंकर
Twitter : @ShekharGupta

दैनिक भास्कर से साभार
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बेहतरीन कहानियां — कृष्णा अग्निहोत्री — मैं जिन्दा हूँ


A must read story by senior author Krishna Agnihotri

Main Zinda Hoon

— Hindi Kahani by Krishna Agnihotri

पुनः तेज छुरी से व्यवहार से राग वृद्धा आहत होने लगी। उसके कटने, रक्तरंजित होने की खबर किसी को नहीं थी। जब कभी मेहमानों के सामने जोर-शोर से बहू कहती। क्या करें, हम बाहर नहीं जा पाते। घर में निठल्ले, निकम्मों का बसाव जो है।

मैं जिन्दा हूँ 
 
 कृष्णा अग्निहोत्री


छड़ी थाम संध्या के धुंधलके में कुर्सी से राग शनैः शनैः उठी, पैर दर्द से ऐंठें पर उसने उठना प्रारंभ रखा और वह खिड़की खोलने में समर्थ हुई। पलड़ों को छेड़ती हवा सर्राकर उसके चेहरे को छूने लगी। गाऊन को ठीक कर उसने बाहर झांका। चौदह पन्द्रह वर्ष के बच्चे गेंद खेल रहे थे। सड़क पर छोटे बच्चे साईकल चलाने की प्रेक्टिस कर रहे थे। दाई ओर के खाली प्लाट पर चलती ड्रिल मशीन की सूं…… सूं आज उसे अच्छी लगी। दिमाग व शरीर पर छाये सन्नाटे को जैसे किसी ने तेजी से थपेड़े मार तोड़ दिया। वे ताजी/ खुशनुमा हवा से कब झपकी ले अपने पैतृक घर शांति नगर में पहुँच गई। उन्हें समझ ही न आया। मां की ममता भरी झिड़की चालू थी। अरे राग तू कब तक ओस में नंगे पैर टहलेगी? देख भीतर आ ठंड लग गई तो? पिता अपनी इकलौती संतान को दुलराते   समझाते। बिटिया स्वास्थ्य व अपने अस्तित्व को समयानुसार बनाना चाहिए। एक बार वे ढुलके तो रोकने में भारी मशक्कत करनी पड़ती है न। तुम्हें तो बहादुर बेटी बनना है। हमारा नाम प्रतिष्ठित करना है। यूं ही खा पी सोकर निठल्ली बनेगी तो कदापि नहीं जीना। भीतर आते ही मां सर पोंछ चीखतीं। अरी जरा गरम बादाम वाला दूध तो लेती आ।

सेठ बिंदा नामी-गामी व्यक्ति होने के बावजूद शाम की आरती में सपरिवार रहते और स्वयं मीठी आवाज में भजन गाते। घर के सदस्यों को कुछ न कुछ भजन गाने ही पड़ते। रागनी को सोने के पूर्व मां-बाप कुछ न कुछ संस्कार परोसने लगते उस अधकचरी मानसिक अव्यवस्थित स्थिति में सुने व समझे वाक्यों का निनाद अभी भी उसके दिमाग में बजता है। जैसे मनुष्य के लिये जो व्यक्तिगत है वहीं समाज के लिये संस्कृति सार है। इसको समझने हेतु श्रेष्ठतम चरित्र पढ़ने चाहिये। क्योंकि ये ही आदर्शों, मूल्यों की स्थापना जीवन को विशिष्टता व एकता स्वरूप प्रदान करते है। एवं परिष्कृत भी करते है। सामाजिक चेतना एक आत्मीय गुण है। जो मानव में फूल की सुगंध सा समाया हुआ है। कला व साहित्य इस खुशबू का विकास करते हैं। मां कहती, बेटी शादी पश्चात पति को संभालना, परिवार में रिश्तों को स्वीकारना हम स्त्रियों का ही धर्म है और धर्म को आस्था से अपनाया जाता है वहां तर्क काम नहीं करता। मां व पिताजी के कारण ही तो रागिनी पढ़ंता बन गई। एक अच्छी पुस्तक यदि हाथ लगती, तो वो पार्टी, खाना-पीना छोड़ उसे ही समाप्त करने में जुट जाती।

बहुत कुछ आधुनिक विचारों का स्वागत करने के पश्चात भी घरेलू विषयों में मां व बाबूजी परंपरावादी ही अधिक थे। उन दो की विभिन्न विचारधाराएँ होते भी दोनों समझौता वादी अधिक थे लेकिन जब वे रूढ़िग्रस्त होते तो रागिनी को उनसे सुलह कठिन पड़ती। इसी तरह पति को सब कुछ मानने की संस्कृति का भार ढोती राग पति की मान्यताओं से खुश न रहकर भी उनका विरोध नहीं कर पाती।

अंग्रेजी साहित्य में फर्स्टक्लास सांवली तीखे नक्ष वाली राग पति को यह नही समझा पाई कि चार बच्चों से अधिक का बोझ वह नहीं उठा पायेगी। डिप्टी कलक्टर मनीष ने साफ कह दिया, बच्चे भगवान का स्वरूप होते है जितने वो दे, उन्हें संभालना हमारा कर्तव्य है। बीमार सी कमजोरी सहन करती राग जब छठे बच्चे की मां बनी तो जचकी ही में सन्निपात हो गया। मां आई थी। सास को घर व बच्चे संभालना कतई पसंद न था। मां कब तक इस बच्चों की भीड़ को संभालती। तब भी बेटी के स्वास्थ्य हेतु वे छै माह में एक माह रूक जाती। अन्यथा बच्चे लावारिसों जैसे ही पलते। दोनों बड़ों को वे साथ ले गई। वे पढ़ने में भी अच्छे ही रहे। अपनी इकलौती संतान को स्वस्थ देखने हेतु मां स्वयं निराश व पीड़ित ही रही।

राग के लिये जीवन एक चुनौती बना था। पति दौरे से लौटते ही बीमार पत्नी के जिस्म को नोंचना अपना अधिकार मानते तो पत्नी शरीर को घायल करवाकर पत्नी धर्म अपना लेती। लेकिन अब वे मानसिक असंतुलन में जीने लगी। प्रयत्न बावजूद संवरी हुई राग फटेहाल हो गई। प्रयत्न बावजूद वे मनीष के काम भूल जाती। फोन पर बताये काम विस्मृत हो जाते। यदि इसी समय उन्हें कोई मनोविज्ञानिक को दिखा देता तो शायद वे संभल जाती परन्तु थके हारे मनीष पत्नी पर हिकारत फेंकते दो, तीन, चार पैग उड़ेल खुर्राटे लेते सब भूल जाते।

रागिनी रूखी-सूखी सूरज ढलते ही आज की ही भांति कुंठित हो अतीत में ही खो अपने सुखों को खंगालती। अतीत के सुख खड़खड़ाते वर्तमान को कांटे से भरा हरियाली से दूर एक बियाबान जंगल बना देते। वो समझने में असमर्थ थी कि हरियाली क्यों छुपी। और कांटे क्यों उग तनाव व द्वंद पैदा करने लगे। एकाग्रता इकट्ठी करे तो भी कभी सब्जी में नमक ज्यादा तो कभी दाल जल जाती। राग क्षोभ व पीड़ा से कराह उठती जब वो बच्चों को पेशाब से उठा नहीं पाती या उन्हें नहला तक नहीं सकती। मनीष झुंझलाकर उसे जोर से धक्का दे देते। ससुरी मां है या कसाई? लेकिन उन्होंने यह ध्यान नहीं दिया कि आखिर इस सबका कारण क्या है।

पल-पल पति की घृणा व ससुराल की उपेक्षा ने उसे अधिक लापरवाह एवं सुस्त बनाया। वो ठीक से स्नान न करती। झुककर चलने से कूबड़ जैसी निकल आई जब ननद व नन्दोठ्र उसका मजाक बनाते तो वो मन ही मन उन्हें कोसती। ईश्वर तुम सबकी पीठ पर एक बड़ा कूबड निकाल दो ताकि वे सब उसकी सी लाचारी का स्वाद तो चख सकें। आश्चर्य था कि मनीष को वो गलती से भी नहीं कोसती। उसे मां के उपदेश घेर लेते। बेटी पति की छत्रछाया छप्पर की भी हो तो वो मूल्यवान होती है। पत्नी वहां सदा सुरक्षित रहती है। लंगड़कर घसिटती अपनी काया को वो भुतवा मन सहित घर के किसी भी काम में जुटाकर आह ओह करती इसी कुर्सी पर जीम रहती। बच्चे जब तक छोटे थे घर को पेशाब, लैटरीन की दुर्गंध से भरते और बड़े हुये तो मनमाना खाना, नाश्ता सब खा मां को ऐ....ऐ कर चिढ़ाते पढ़ने चले जाते। पल-पल उन चीखने वाले एक सी आदतों के तीतरो को जाली के दड़बे में बंद न कर पा वो स्वयं अपने कपाट बंद कर देती।

मां ठीक कहती थी, जन्म मां-बाप देते है। प्रारब्ध वे कर्मो से बनाते है। बड़े दोनों बेटे वकील व इंजीनियर बनकर दूर-दूर पोस्ट हो गये। बेटियाँ न्यूयार्क में बसी है। नन्दे वर्ष दो वर्ष में पलटे तो मां से उनका इतना ही संवाद होता। चलते है मां, अपना ख्याल रखना।

एक बार छोटी बेटी का आंचल थाम राग ने बड़ी बेबसी से घिघियाय कहां। बिटिया कुछ और रूक जाए मन घबराता है तो बेटी ने अश्रुविहल हो समझाया। मां तुम्हारे दामाद को तो लंदन भाया है तो वहीं रहना पड़ेगा ना। पर तसल्ली रखो मंझले भैया व भाभी यही शिफ्ट होंगे। भोली सरल अंग्रेजी में एम.ए. रागनी खुश हो गई। बच्चे छोटे से बड़े किन वातावरणों में कैसे बने उन्हें इसका जरा भी आभास नहीं। मशीनी जीवन में जीती स्पंदनपूर्ण राग अज्ञात स्थितियों से अवगत नहीं थी कि उनके सीधे बच्चे स्वार्थ व लालच की पनाह में कितने स्वार्थी व अजनबी हो गए।

मनीष खुश थे कि बहू के आने से पूरा घर खिलखिलाहट से भर जायेगा। कुछ देर बेटे से संवाद होगा तो उन्हें ऊबाऊ पत्नी से छुटकारा ही मिलेगा। काश वे पत्नी के अस्तित्व का महत्व समझ सकते।

बहू ने कुछ दिन तो नीचे गुजारे पर अचानक मनीष ने देखा कि ऊपर से चार कमरे सुधर रहे है। राग तो आज भी सुरीले स्वर से रामचंद्रमानस के दोहे अनमनी बैठक में गुनगुनाती है। रामचंद्र कृपालु भज मन। जो हो जैसी है पत्नी तो है अब वे मुस्करा कर हट जाते है। क्योंकि दोहा यहीं अटका रहेगा और घिसे-पिटे रिकार्ड की सुई यहीं अटक जायेगी।

अचानक खाना बनाने वाली बाई छुट्टी पर चली गई और बहू बीमार पड़ी। मनीष अब क्या करें। रसोई घर में लेकिन सन्नाटा नहीं था। राग लंगड़ाती पराठे बना रही थी। उसने जैसे-तैसे भिंडी की सब्जी बना दी थी। मनीष को देख वो मुस्कराई और उसने थाली उसे पकड़ा दी मनीष ने शाम ही को मीना बहू व बेटे आशीष की परेड ली। ये क्या? तुम लोग चुपचाप बाहर खा आते और ये बीमार माँ, व मैं थका हारा भूखे रहे। हमारे लिये ले आते।

- मीना बीमार थी। खिचड़ी क्या लाते आशीष नजर चुरा चला गया। चार दिन तक राग बड़बड़ाती कभी दाल चांवल तो कभी पराठे तो कभी कुछ बना ही देती।

पंचवे दिन मंझली बेटी ने आ घर संभाला। उसने मां के गंदे कपड़े उतार उन्हें गाऊन पहनाया तो राग की आंखो में प्रश्न था कि यह क्यों? उसे तो यही स्मरण था कि वो तो ब्रैंडेड सलवार सूट ही पहनती है।

-मां तुमसे कपड़े संभलते नहीं यह आरामदायक रहेगा।

मनीष ने खुश हो इसका समर्थन किया और क्या अब इस उम्र में छोकरियों जैसा सलवार कुरता पहनना।

बेटी चली गई। कामवालियाँ काम करती। बहू नीचे नहीं उतरती। जैसे-तैसे चूं चां करती ज़िंदगी चल पड़ी।

बज्रपात तो तब हुआ जब मनीष का हार्ट अटैक से टूर ही पर देहांत हो गया। मनीष के शव को ताक राग बोली। उठो न...... खाना तैयार है। बेटी ने चुपचाप उनके उनसे पैर छुलवाये व कमरे में वापसी करा दी। तेरह दिन बाद ही राग को उनके टूटे-फूटे सामान सहित सबसे छोटे इस कमरे में शिफ्ट कर दिया गया। बहू आहिस्ते से बड़बड़ाई। निकम्मी, निठल्ली यही रहों और हमें जीने दो। तेज छुरी से कटने की व्यथा सहकर भी मासूमियत से बहू के सर पर हाथ रख राग बोली। यहां? क्यो?

- पड़ी रहो चुपचाप। बूढ़ी तो हो ही उस पर आधी पागल।

अब ज़िंदगी तो घटनाओं के ऊहा-पोह से भरी है। मरण-जीवन ही तो व्यक्ति के अधिकार में नहीं। राग का अव्यवस्थित मन अपनी मां की स्मृति में कराहा तो बहू ने रूखे स्वर में सूचना दी। तुम्हारी जैसी अभागी के साथ जो होना था वो हो गया। तुम्हारे माता-पिता तीर्थ यात्रा के दौरान केदारनाथ में दफन हो गये।

जैसे ही उन्हें पता लगा कि रागिनी के नाम उनकी जायदाद का बड़ा हिस्सा है और शेष ट्रस्ट में चला गया वैसे ही उन्होंने राग के लिए एक अलग से नौकरानी लगा अपने कर्तव्य का पालन किया। उन्हें यह भी पता था कि मनीष की पे पर राग ही का अधिकार है। वर्ष बीता कि आशीष व मीना कार में राग को बैठा बैंक ले गये और उसने वहां ‘मैं जिंदा हूँ’ का आवेदन पत्र जमा किया।

आज राग को अरसे बाद खुली हवा में सांस लेने का सुख मिला। बेटे ने पूछ-पूछकर उसे खाना, मिठाई खिलाई पर जो चैक से पैसा मिला उसे झपटकर अपने पास रख लिया।

पुनः तेज छुरी से व्यवहार से राग वृद्धा आहत होने लगी। उसके कटने, रक्तरंजित होने की खबर किसी को नहीं थी। जब कभी मेहमानों के सामने जोर-शोर से बहू कहती। क्या करें, हम बाहर नहीं जा पाते। घर में निठल्ले, निकम्मों का बसाव जो है।

तब अवश्य राग आत्मघात की स्थिति तक पहुंच जाती। अचानक एक सुबह कबूतरों का एक जोड़ा गुटर गूं करता राग के सामने की खिड़की से झांकने लगा। घिसटकर राग ने खिड़की पर लगे प्लाय को चौड़ा किया तो वे अंदर फड़फड़ाते आये व कोने में रखी डलिया में दुबककर राग को निहारने लगें।

मायके में खिले गुलाब सी महकती डोलती राग अब जिंदा प्राणी को देखने व संवाद को तरसती। पोता जब पल भर को झांक कहता “ओल्डी हाऊॅं आर यूं” और भाग जाता तो राग उसे आलिंगन करने को तरस प्यार स्पर्श से भी वंचित ही रहती । आस-पास टंगी रहे नंगी तलवारें तो प्रेम कैसे बरसे। सारी हरहराहट, मुस्कान व उमंग राग कबूतरों पर उडेल देती। कभी दाना-पानी, रूई बैठने को देती तो वे भी निर्भीक हो उसके कंधों पर गोद में उसे बैइ दुलारते अब राग अपने रिसते घावों के बावजूद सहज हो गोरैया सी उड़ सकती थी। बचपन में पाली बिल्ली की याद मीठे दानों सी हो गई और कबूतरों का प्यार फड़फड़ाने लगा।

मनीष की रखी बाई यू तो कुछ न कुछ चुरा लेती पर बेहद ईमानदारी से राग की देखभाल करती। कभी-कभी अपने टिफन से कुछ भी अच्छा ला उसे खिला भी देती। वैसे तो नौकरानी गुड्डी टी.वी. लगाती तो राग आंखे चौड़ी कर सब बेहद घूर-घूर कर ही देखती लेकिन शायद आंखे कमजोर होने से आंखे बंद कर लेट जाती। हां कुछ समय के लिये तो कबूतरों को गोदी में बैठा बेहद उत्सुकता से टी.वी. ताकती। लेकिन जब बहू ने टी.वी. उठवाकर ऊपर किचन में रखा तो राग ने कई बार गुड्डी को झकझोरते हुये इशारे से जानना चाहा कि टी.वी. कहां गया। टी.वी. को शिफ्ट करना तो गुड्डी को भी अच्छा नहीं लगा परन्तु वो चुप ही रही।

-वो बहू जी को चाहिये था।

-अच्छा-अच्छा और राग ने आज्ञाकारी भोले बच्चे सा सर हिला दिया। मां कहकर वो हंसी। तख्त बरांडे में पड़ा रहता जहां चाय की चुस्कियां लेते पिताजी वा वो बहुधा अन्तराक्षरी खेलते ठिलठिलाते ही रहते थे। अब क्यों सारी कमियां उसके भाग के पल्लू में आ गिरी वो समझ नहीं पाईं। गुड्डी को अस्वस्थता में लगभग 1 बजे एक टिफन ऊपर से उनके कमरे तक लटक जाता जिसे वे भूखे भेड़िया सी झपट लेती। छड़ी से उसे पुनः रस्सी से बांध देती और रात्रि को पुनः खींच लेती।

छोटी बेटी मन की अमीर थी। जब भी आती तो फल, मिठाई व नमकीन कोने में पड़ी जाली में सजा जाती। बेटा तो अपने हक की सम्पदा में शानदार ज़िंदगी जीता कर्तव्य व रिश्ते, अपनत्व जैसे शब्दों को बाजार के गंदे बेसमेंट के कूड़ेदान में दफन कर चुका था।

बस 1 तारीख को रूखे अंदाज से चैकबुक पर साईन करवा कुछ विशेष खाने को दे जाता। राग 1 तारिख को बेइंतहा प्रसन्न हो साइन करके अच्छे भोजन पाने की प्रतीक्षा में व्याकुल रहती।

उस दिन राग ने मचलकर गुड्डी से बाहर घूमने की जिद की। छड़ी ले वे बाहर निकली कि आस-पास के पड़ौसियों ने खुश हो उनसे पूछा। कहां रहीं मिसिज सिंह? बहुत दिनों से तो आपको देखा तक नहीं।

छत से बहू ने सुना तो कई बहाने बना टहल को प्रतिबंधित कर दिया व सब्जियाँ संभालने का उत्तरदायित्व सौंप दिया। राग मेथी, पालक मटर संभालती मुंडी घुमा सोचती, “सच तो है बड़े बूढ़ों को काम करते रहना चाहिये।”

एक दिन पोते ने यह कहकर उसे हतप्रभ किया कि दादू की जगह आपको मरना था। दादू तो मुझे नई नई चाकलेट देते थे।

एक शाम छोटी बेटी आई तो उसने मां को बेतरतीब देखा तो पूछा तुम जीना नहीं चाहती? अरे तुम भी प्राणी हो तुम्हें भी अपना शेष जीवन हंसते हुये खुशनुमा हाल में जीना चाहिये। तुम्हें पता नहीं कि पिताजी की पेंशन तीस हजार जमा होती है। तुम्हारी मां, नानी-नाना ने तुम्हारे नाम पचास लाख जमा कर दिये है। तब तुम भिक्षुक नहीं। स्वयं सब देखों व दूसरों को अपने हाथ से जायज खर्च दो। पढ़ी-लिखी हो तब भी तुम्हारे स्वाभिमान में काई क्यों लग गई? देखो इन कबूतरों को ये भी जीने के लिये तुम्हारे पास बैठे है। तुम क्यों खाली मन से रहती हो?

तुम्हें ही तुम्हारे घर में कबाड़ा बना दिया गया और तुम टुकड़ों पर खुश होती हो। क्या मां, तुम्हें अपने अस्तित्व की पहचान नहीं रही? यदि भैया से कुछ लेना नहीं चाहती तो हाथों से गरीबों को तो कुछ दे ही सकती हो न। राग ऊ....ऊ कर जैसे ही बेटी को आलिंगन करने आगे बढ़ी तो उसने हट कर धिक्कारा। मां अन्याय आदर्श नहीं, पिता की मनमानी सहकर तुमने परिवार व समाज को कोई नीतियां नहीं दी और न ही अब बेटे बहू की उपेक्षाएं सहकर कोई नारियों के लिये इतिहास गढ़ रही हो। वृद्ध होना कोई पाप नहीं। किसी भी उम्र में व्यक्ति अपनी सहज ज़िंदगी जी सकता है। बस थोड़ा संघर्ष व प्रयत्न चाहिये। और वह गुस्से से बाहर चली गई। राग स्तब्ध बैठी नन्ही-नन्हीं तितलियों व गोरैयों को ऊॅचें-ऊॅंचे उड़ती देखती रही। हां सच तो कहा है बिटिया ने जब इन चिड़े, चिड़ियों में जीने का हौसला, उमंग है तो वो क्यों नहीं आशा से जी सकती। भौतिक रूप से जब उसे उसके अपनों ने उसकी पहचान छीनना प्रारंभ किया है तो वो भी कहीं न कहीं किसी से जुड़ ज़िंदगी में मायने भर देगी। तभी उसने देखा कि एक प्यासी गिलहरी पानी पीने के लिये कबूतरों के डब्बे के पास खसक रही है लेकिन सामने दाना चुगते उन्हें देख भयभीत हो भागती-दौड़ती छुप जाती।

पुनः इधर-उधर ताक वो शीघ्रता से पानी के पास आई भरपूर पानी पी भाग गई। जीवन में डर का कांटा बेमतलब नहीं उगना चाहिये।

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राग नित्य छड़ी ले टहलती सोचती रहती सच तो है कि अभाव से ही भाव का जन्म होता है क्योंकि अमंगल के गर्भ में मंगल छुपा है। वो भी कटु उत्तरों से राह खोजने के लिये तैयार थी। उसे अपने पिता के शब्दों ने राह प्रशस्त करने की शक्ति प्रदान की। बेटी कर्तव्य पूरा करो पर अन्याय का दबाव न सहो।

जैसे ही आशीष तीस को चैकबुक व कुछ जलेबी ले आया तो आश्चर्यचकित हो अपनी तनी तीखे तेवरों वाली मां को बोलते व सख्त हो खड़े होते देखा। वो मिठाई को हटा बोली। मुझे मेरी पूरी पेंशन लाकर दो। मैं युवाओं जैसी फिजूल की महत्वाकांक्षाएँ तो नहीं पाले हूँ पर वृद्ध होना तो जीवन प्रक्रिया है। मैं उपेक्षा व घृणा क्यों सहूं? मुझे मेरा अधिकार दो वरना मैं चैक साइन नहीं करूंगी। मुझे मेरा कमरा वापस चाहिये। वहां मेरी पुस्तकें अलमारी है। ए.सी. फिट है। साथ लगा बाथरूम भी है। जहां तुम्हारा 12 साल का बेटा दोस्तों के साथ मस्ती भर करता है।

एक बात और आशीष। इस उम्र में मुझे तुमसे अधिक सुविधाएँ चाहिये। नवम्बर भी पास है मैं वहां बैंक में “मैं जिंदा हूँ” का फार्म भरने भी नहीं जाऊॅंगी, क्योंकि तुमने मुझे जीवित रखने का धर्म नहीं निभाया। ठीक है परंपराएँ व संस्कृति तुम्हारी मां से पूरे कर्तव्य करवाकर यदि उसे देवता नहीं मानती तो मत मानो पर उसे प्राणी, घर का सहयात्री तो मानों। तुम कुछ दे नहीं सकते, तो छीनों भी तो नही। मैं जानती हूँ कि मुझे तुम्हें क्या और क्यों देना चाहिये। आशीष के पैरों से जमीन घिसक गई। उसे पता था कि यह मकान भी मां के ही नाम है। यदि मां को अपने अधिकार समझ आ रहे है तो उसे नम्रता से कुछ मिल सकता है। उदंडता से कदापि नहीं। चुपचाप वो मां को बैंक ले गया। राग ने साइन किये। फार्म भरा “मैं जिंदा हूँ” और पेंशन के रुपये लेकर पूरे पन्द्रह हजार स्वयं रखे व बीस हजार बेटे के सर पर हाथ रख सौंप दिये। लौटते में कुछ जलेबियाँ समोसे खरीद वे वृद्धाश्रम पहूँची। वहां बांटकर लौटी तो उन्हें ऐसा लगा कि वे तो एक सक्षम जीवित प्राणी है। और पूरे स्वाभिमान लगन से जीती दूसरों को भी जीने की प्रेरणा दे सकती हैं।

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कोहिनूर के लिए कपिल मिश्रा का महेश शर्मा को पत्र @KapilMishraAAP


AAP MLA and Caninet Member Kapil Mishra expresses his concern over #Kohinoor in a letter to Culture Minister Mahesh Sharma @KapilMishraAAP @dr_maheshsharma

आपके (महेश शर्मा) मंत्रालय द्वारा दिया गया यह शपथ पत्र न केवल कोहिनूर हीरे से जुड़ी देश की भावना के विपरीत है बल्कि तथ्यहीन भी है 

— कपिल मिश्रा


आदरणीय महेश शर्मा जी


कुछ दिन पहले आपके मंत्रालय की तरफ से माननीय उच्चतम न्यायालय में विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरे से भारत का हक़ हटवाने संबंधी एक एफिडेविट दिया गया जिस पर स्वयं उच्चतम न्यायालय ने पुनर्विचार करने का आग्रह किया है।

मैं पत्र यह बताने की लिए लिख रहा हूँ कि आपके मंत्रालय द्वारा दिया गया यह शपथ पत्र न केवल कोहिनूर हीरे से जुड़ी देश की भावना के विपरीत है बल्कि तथ्यहीन भी है।

भारत के इतिहास की समझ रखने वाले लोग भी हैरान है कि आखिर क्या कारण है जो अचानक केंद्र सरकार इस बहुमूल्य हीरे पर से देश का हक़ सदा सदा के लिए ख़त्म करने की जल्दबाजी में है।

आपकी ही सरकार के कुछ अन्य स्रोत मीडिया में बता रहे है कि कोर्ट में दिया गया शपथ पत्र गलत है व सरकार कोहिनूर हीरे को भारत लाने के लिए प्रतिबद्ध है।

किसी भी देश की सरकार के लिए ये बड़ी शर्मनाक स्तिथी है। एक ऐतिहासिक धरोहर व राष्ट्रीय पहचान के मुद्दे पर सरकार को यहीं नहीं मालूम की उसकी नीति क्या है??

यहाँ में आपको यह भी बताना चाहता हूँ कि कोहिनूर हीरा ईस्ट इंडिया कंपनी ने किन हालातो में हासिल किया इस पर कई तरह के तथ्य मौजूद है और भारत की जनता जानती तथा मानती है कि इस को छल व बल पूर्वक लिया गया था। आप कृपया आधिकारिक तौर पर इसे उपहार में दिया गया बताकर पूरे देश के साथ धोखा मत कीजिये।

मैं यह चेताना चाहता हूँ कि अनजाने में या जानबूझकर कहीं न कहीं आपकी सरकार देश की विरासत व इतिहास के साथ एक बड़ा धोखा कर रही है यह किसी भी स्वाभिमानी देश के लोगो को मंजूर नहीं होगा।

याद रखिये आज पाकिस्तान भी कोहिनूर हीरे पर अपना हक़ जता रहा है और भारत द्वारा हक़ छोड़ने से पाकिस्तान इस हीरे पर अपने हक़ पर ओर जोर देगा।

आप इस शपथ पत्र को तुरंत वापस ले व कोहिनूर हीरे के सम्बन्ध में आपकी सरकार की क्या नीति है इस बारे में देश को विश्वास में ले।

धन्यवाद

आपका शुभेच्छु

कपिल मिश्रा

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हम टीवी लाइव | Hum TV Live


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हम टीवी लाइव | Hum TV Live

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Udaari

Udaari

 

After successfully creating the critically acclaimed drama “Rehaii” Kashf Foundation and Momina Duraid Productions have joined hands again to create Udaari which focuses on the social and economic marginalization of women in Pakistani society, while also highlighting deeply rooted problems such as child sexual abuse, in order to break the myths and taboos around these issues and provide solutions for their redressal.


Writer: Farhat Ishtiaq
Director: Ehtisham Uddin
Cast: Ahsan Khan, Farhan Saeed, Bushra Ansari, Behroz Sabzwari, Urwa, Samiya Mumtaz, Layla Zuberi, Mariyam Fatima, etc.
Every Sunday at 8:00 PM on Hum TV


Haya Kay Daman Main

Haya Kay Daman Main

Haya Ke Daaman Main is a story of a girl named Haya the only child of her parents, she wants to live her life with full of happiness without any sorrow, but something happens and her complete life suddenly changes all her happiness changes into sadness and grief.

Writer: Waseem Ahmed
Director: Syed Wahab Jafri
Producer: Momina Duraid
Cast: Jahanzeb, Nida Khan, Hammad Ahmed Farooqi, Mariyam Nafees, Behroz Sabzwari, Fazila Qazi, Muhammad Qavi Khan, Afshan Qureshi, Sangeeta, Amber Wajid, etc.


Timings: Starting from 30th March (MONDAY to FRIDAY at 7:30pm)


Pakeeza 

Pakeeza

This is a story about a woman named Pakeeza married to a Jibran who cares less about his wife and family. Pakeeza finds solace in a friend named Azeem who always encourages and supports her at every step of the way.

The drama serial covers the deprivations of married women who are discouraged or ill treated by their husbands


Writer: Bushra Ansari
Dir:Misbah Khalid
Producer: Moomal Entertainment
Cast:  Aly Khan, Amina Sheikh, Adnan Siddiqui, Angeline Malik, etc.

Zara Yaad Kar

Zara Yaad Kar

Zara Yaad Kar is a New Pakistani drama serial starts from15th MARCH 201 6at Hum TV. It is directed and produced by Amna Nawaz Khan and written by Khalil-ur-Rehman Qamar under her production company. It stars Zahid Ahmed, Sana Javedand Yumna Zaidi.


Writer: Khalil Ur Rehman Qamar
Director: Amna Nawaz Khan
Producer: ANK Productions
Project Head: Momina Duraid
Cast: Sana Javed, Yumna Zaidi, Saba Faisal, Zahid Ahmed, Yasir Mazhar, Rashid Farooqui, etc.

Mann Mayal

Mann Mayal is a Pakistani TV drama serial that premiered on Hum TV on January 25, 2016. The story of drama serial is told in a deeply serialized way and it follows the lives of Manahil a college student and Salah-ul-Din a motivated person, who despite having a strong future career planning, falls in love with her but they incapable to unite because of family disputes and fate barriers.

Mann Mayal Writer: Sameera Fazal
Mann Mayal Director: Haseeb Hasan
Mann Mayal Producer: Momina Duraid, Sana Shanawaz, Samina Humayun & Tariq Shah
Mann Mayal Cast: Hamza Ali Abbasi, Maya Ali, Aisha Khan, Talat Hussain, Saba Hameed, Arjumand Rahim, Abdul Vasay Chaudhry, Gohar Rasheed, Naeem Tahir, etc.

Timing:
Watch ‘Mann Mayal ’ Every Monday at 8:00 PM only on HUM TV

Sehra Main Safar

Sehra Main Safar is the story of a girl, Iqra (Zarnish Khan), who likes being in a house and doing household tasks. She has no idea of doing a job and never wants to do a job either. Her father, Farooq is a very smart man and when he retires, the signal is that the duty of maintaining the house lands on Iqra. Her father is the uncle of Ayaz (Ali Kazmi), who likes Iqra. Watch the cute story of Iqra and Ayaz unfold.

Writer : Sarwat Nazir
Director :Azfar Ali
Producer : Momina Duraid & Satish Anand
Cast :Emmad Irfani, Zarnish, Ali Kazmi, Afraz Rasool, Lubna Aslam, Humaira Zaheer, Sheheryar Zaidi, Isha Noor, Hania Naqvi, etc.

Watch ‘Sehra Main Safar’ every Friday at 9:10 pm only on HUM TV . 
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गुलज़ार — एल.ओ.सी | LOC — #Gulzar Short stories hindi


India Pakistan Border Story in Hindi

गुलज़ार — एल.ओ.सी | LOC — #Gulzar

एल.ओ.सी
              — गुलज़ार  






1948 की झड़प के बाद... हिन्दूस्तान के बार्डर पर, फ़ौजें तक़रीबन बस चुकी थीं । बैरेकें भी पक्की हो गई थीं और बंकर भी... 1965 तक के पन्द्रह सालों में, एक रेवायत सी बन गई थी । फ़ौजी टुक्ड़ियों के आने, बसने और विदा होने की । बार्डर की ज़िन्दगी ने अपने आप एक निज़ाम बना लिया था । दोनों तरफ़ की धुऑं-दार तक़रीरों के पीछे, बन्दूक़ों की आइरिंग फ़ाइरिंग का मामूल भी बन गया था । नॉरमल मामूल यही था के जब भी कोई वज़ीर दौरे पर आता तो, आस पास के इलाक़ों में फ़ौजी फ़ाइरिंग करते थे । और कभी कभी किसी गॉंव में घुस कर कुछ भेड़ बकरियॉं उठा कर ले जाते और रात को कैम्प में दावत हो जाती । कुछ सीविलयन मारे जाते, तो अख़बारों को सुर्ख़ियाँ मिल जातीं और लीडरों को तक़रीरों के लिये मवाद मिल जाता ।  LOC एक ज़िन्दा तार की तरह सुलगती रहती । कभी बहुत बड़ा वक़्फ़ा आ जाता इस आपसी जंगबाज़ी में, तो लगता जैसे रस्म-व-राह ही नहीं रही । तालुक़ात ठॅंडे पड़ गये । तालुक़ात ताज़ा करने के लिये, फिर कुछ दिन आतिश बाज़ी कर लेते, ख़ून गर्म हो जाता । कुछ जवान इधर मारे जाते और कुछ जवान उधर मारे जाते । ख़बरों में एक गिन्ती का ज़िक्र होता, पॉंच इधर मारे गये, सात उस तरफ़... और जमा तफ़रीक़ का हिसाब बन जाता ।

दोनों तरफ़ के बंकर भी कोई दूर नहीं थे । कभी यूं भी होता था कि उधर की पहाड़ी से किसी ने कोई बोली या माहिया गा दिया ।

‘‘दो पुत्तर अनारां दे

साढी गली लंग माहिया

हाल पुछ जा बिमारां दे । ’’

तो इधर के सिपाही ने गाके जवाब दिया ।

‘‘दो पुत्तर अनारां दे

पहरे नहीं हड दे चनां

तेरे भैड़े भैड़े यारां दे । ’’



आमने सामने की पहाड़ियॉं भी, बस कन्धों ही की दूर पर थीं । झुक जायें तो शायद गले ही लग जायें । उधर की अज़ान इस तरफ़ सुनाई देती थी । और इधर की उस तरफ़ ।

मेजर कुलवंत सिंह ने एक बार अपने जूनियर कैप्टन से पूछा भी था ।

‘‘ओय, अपनी तरफ़ तो बांग एक ही बार हुआ करती थी । ये आधे घंटे बाद फिर कैसे शुरू हो गई.... ?’’

मजीद हंस पड़ा था ।

‘‘उस तरफ़ की है सर! पाकिस्तान का वक़्त हम से आधा घंटे पीछे है ना । ’’

‘‘तो तुम कौन सी बांग पर नमाज़ पढ़ने जाते हो ?’’

‘‘जो जिस दिन सुट कर जाये, सर!’’ और सैलूट मार के चला गया था । ’’

कुलवंत ने कहा था, उस नौजवान कैप्टन मजीद में कोई बात तो है कि बड़ी जलदी मुंह लग गया । उसकी मुस्कराहट यूं बोलती थी जैसे मेरा ही हाथ पकड़ के बड़ा हुआ है । एक रोज़ मजीद अहमद, रात के वक़्त इजाज़त लेकर उसके  खैमे में दाल हुआ और एक टिफ़िन लाकर दिया ।

‘‘क्या है ?’’

‘‘गोशत है सर, घर में पकाया है । ’’

कुलवंत अपना गिलास तपाई पे रखके खड़ा हो गया ।

‘‘अच्छा ?... अचानक ये कैसे भई ?’’

‘‘आज बक़रीद थी सर! क़ुर्बानी का गोशत है, खायेंगे ना ?’’

‘‘हॉं भई क्यों नहीं...’’ कुलवंत ने ख़ूद उठकर टिफ़िन खोला और भूने गोशत की एक बोटी निकालते हुये कहा...

‘‘मेक ऐ ड्रिंक फ़ोर योर सेलफ़!’’

‘‘नो सर! थैंकयू सर!’’

‘‘कम ओन... ड्रिंक बनाओ... ईद मुबार्क!’’

बोटी हाथ में झुलाते हुये वो तीन बार मजीद के गले मिला था ।

‘‘किसी ज़माने में फत्तू मासी खिलाया करती थी । मुशत्ताक़ की अम्मी, सहारनपूर में । काले चने की घुंघनियॉं और भुना गोशत खाया है कभी ?’’

मजीद कुछ कहते कहते रुक गया... फिर बोला ।

‘‘मेरी बहन ने भेजा है सर । ’’

‘‘वो यहॉं है ? कशमीर में ?’’

‘‘सर है यहीं, कशमीर में लेकिन...’’



‘‘लेकिन क्या ?...’’

‘‘ज़रगुल में है, उस तरफ़!’’

‘‘अरे ?...’’ कुलवंत दायें हाथ से बोटी चूस रहा था और बायें हाथ से उसने व्हिस्की का गिलास बना कर मजीद को पेश किया ।

‘‘चियर्ज़..... और फिर से ईद मुबार्क । ’’

चियर्ज़ के बाद कुलवंत ने फिर पूछा... ‘‘तो टिफ़िन भेजा कैसे तुम्हारी बहन ने ?’’

मजीद थोड़ा सा बेचैन मेहसूस करने लगा, कुलवंत ने फ़ौजियों की तरह सख़्ती से पूछा ।

‘‘तुम गये थे उस तरफ़ ?’’

‘‘नो सर!... नेवर, हरगिज़ नहीं!’’

‘‘तो...!’’

‘‘मेरे बहनोई उस तरफ़ लेफ़टेनन्ट कमान्डर हैं । बहन मिलने आई थी । ’’

कुलवंत ने गिलास उठाया, सिप लिया । टिफ़िन बन्द किया और मजीद के सामने आकर खड़ा हो गया ।

‘‘हाओ डिड यू मैनेज देट ?... क्या बन्दोबस्त किया था ?’’

मजीद चुप रहा ।

‘‘क्या बन्दोबस्त था ?’’

रुकते रुकते मजीद ने बताया.....

‘‘नीचे गॉंव में बहुत से लोग हैं जिनके घर इस तरफ़ हैं और खेतियॉं उस तरफ़ । इसी तरह उस तरफ़ भी ऐसे ही कुछ गॉंव हैं, जिनके घर और खेत बटे हुये हैं । ख़ान्दान भी, रिश्तेदार भी । ’’

अल्फ़ाज़ से ज़्यादा कुलवंत सिंह को कैप्टन मजीद की आवाज़ पर यक़ीन था । थोड़े से वक़्फ़े के बाद कुलवंत ने जब पिलेट में गोशत निकाला तो मजीद ने बताया ।

‘‘उस तरफ़ के कमान्डर आपके दोस्त हैं सर! मैंने आपका एक आर्टीकल पढ़ा था इस लिये जानता हूं । ’’

कुलवंत सिंह का हाथ रुक गया । फ़ौरन एक नाम का शक हुआ उसे । और जब मजीद ने नाम लिया तो उसकी ऑंखें भर आईं ।

‘‘मुशताक़ अहमद खोखर... सहारनपूर से!’’

कुलवंत का हाथ कांप गया । और वो  खैमे की खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया, बाहर कुछ फ़ौजी क़दम मिला कर कैम्प क्रॅास कर रहे थे । मजीद ने धीमी सी आवाज़ में कहा ।

‘‘कमान्डर मुशताक़ अहमद, मेरी बहन के ससुर हैं सर!’’

‘‘ससुर.... ? ओये नसीमा के बेटे से शादी हुई तुम्हारी बहन की ?’’

‘‘जी...!’’

कुलवंत ने तेज़ी से कहा! ‘‘ओये तू...’’ इससे आगे वो कुछ नहीं कह पाया, उसका गला रूंध गया । कुलवंत ने जब गिलास उठाया तो लगा वो कुछ निगलने की कोशिश कर रहा है ।

मुशताक़ और कुलवंत दोनों सहारनपूर के थे । किसी ज़माने में एक साथ ‘दून कॉलेज’ में पढ़ते थे । और दोनों ने ‘‘दून मिलेट्री ऐकडमी’’ में ट्रेनिंग ली थी । मुशताक़ की अम्मी और कुलवंत की बेजी बड़ी पक्की सहलियॉं थीं । फिर मुलक तक़सीम हो गया । फ़ौजें भी तक़सीम हो गईं । मुशताक़ अपने ख़ानदान समेत पाकिस्तान चला गया । और कुलवंत यहीं रहा । दोनों ख़ानदानों में उसके बाद कोई मेल न रहा ।

चन्द रोज़ बाद कुलवंत ने अपने एक जुनियर विश्वा को साथ लिया और कैम्प से दूर एक पहाड़ी की आड़ से उसने मुशताक़ को वायेर्लेस पर कोन्टेक्ट कर लिया । कुछ हैरानी के बाद दोनों दोस्तों ने पंजाबी में ऐसी चुनी चुनी गालियॉं दीं एक दूसरे को, कि दोनों के सीने खुल गये और ऑंखें बहने लगीं । जब सांस में सांस आई तो कुलवंतने पूछा ।

‘‘फत्तू मासी कैसी हैं ?’’

मुशताक़ ने बताया ‘‘अम्मी बहुत ज़ईफ़ हो गई हैं । एक मन्नत मांगी थी उन्होंने कि अजमेर शरीफ़ जाकर ‘‘ख़्वाजा मोइन चुशती’’ के मज़ार पे अपने हाथों से चादर चढ़ायेंगी । दिन रात मन्नत को तर्सती हैं, और राबिया बच्चों को छोड़ कर जा नहीं सकती । राबिया को तू नहीं जानता । ’’

‘‘जानता हूं! मजीद की बहन है राबिया, है ना ?’’

‘‘तुझे कैसे मालूम ?’’

‘‘मजीद मेरा जुनियर है भई....!’’

‘‘ओये.....’’ फिर एक लम्बी सी बोछाड़ गालियों के साथ, ऑंखों से गुज़र गई ।



‘‘उसका ख़याल रखियो ओये....’’ मुशताक़ ने रूंधे गले से कहा ।

फिर दोनों में तैय पाया, कि मुशताक़ किसी तरह अम्मी को वाघा तक पहुंचा देगा । वहॉंसे, कुलवंत की बीवी, संतोष आकर उन्हें दिल्ली ले जायेगी, आपने घर । अजमेर शरीफ़ की जि़यारत करा देगी और जाकर सहारनपूर छोड़ आयेगी, बेजी के पास । अम्मी के साथ कुछ दिन बहुत अच्छे कटेंगे । मुशताक़ के सीने से बहुत बड़ा बोझ हट गया ।

फिर एक रोज़ .... मुशताक़ का पैग़ाम आया, अम्मी को वीज़ा मिल गया है । कुलवंत ने संतोष के साथ (बार्डर पर मिलने की) तारीख़ तैय कर दी । सब इन्तेज़ाम हो चुके थे, बस मुशताक़ को ख़बर करना बाक़ी था । उसी दिन डीफ़ेंस मिन्सट्र एल.ओ.सी पर आ धमके और दोनों तरफ़ से ताक़त के मुज़ाहरे शुरू हो गये । कुलवंत जानता था के ये झक्कड़ दो एक रोज़ में गुज़र जायेगा । वायेर्लस पर न भी राबता क़ायेम हुआ तो किया.....! नीचे गॉंव में जाकर किसी को उस तरफ़ भेजने की ही तो बात है । मजीद को वसीला भी पता है । फिर भी फ़िक्र ना गई । संतोष बताती थी कि अब तो बेजी-जी रोज़ डाक ख़ाने से फ़ोन कर के पूछ लेती हैं ।

‘‘नी फत्तू आ रही है न ?... तू वाघा पहुंच जायेगी । पहचान लेगी कि मैं साथ चलूं ?’’

मजीद ने ख़बर दी... ‘‘सर पाकिस्तान की तरफ़ से शैलिंग बहुत तेज़ हो गइ है । ’’

कुलवंत चिड़ा हुआ बैठा था... बोला:

‘‘ओ खसमानों खाये पाकिस्तान, फत्तू मासी का क्या होगा ?’’

पहली सितम्बर के दिन, पाकिस्तानी फ़ौजों ने, ‘‘चम्भ’’ पर हमला किया और एल.ओ.सी. के अन्दर चली आईं ।

28 अगसत हिंदूस्तानी फ़ौजों ने ‘‘हाजी पीर’’ अपने क़बज़े में ले लिया । उसी दिन की ख़बर है, 28 अगस्त 1965.....

....... सहारनपूर में फत्तू मासी घुंघनियॉं वाला गोशत पका रही थी । बेजी ने काले चने उबाले थे । और एल.ओ.सी. पर ग्यारह फ़ौजी हलाक हो गये, जिन में एक मेजर कुलवंत सिंह था ।

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शनि का हाईकोर्ट — अशोक चक्रधर @ChakradharAshok


मामला हार-जीत का है ही नहीं। स्त्री द्वारा पुरुष के सामने अपने अस्तित्व की रक्षा करने का है

 — अशोक चक्रधर

Ashok Chakradhar on Shani Shingnapur Temple Row


— चौं रे चम्पू! औरत सनी देव के चौंतरा पै चढ़ि गईं, जीत भई उनकी?


— मामला हार-जीत का है ही नहीं। स्त्री द्वारा पुरुष के सामने अपने अस्तित्व की रक्षा करने का है। भेदभाव क्यों हो? यह लड़ाई महिलाओं द्वारा पूजा किए जाने के पक्ष में उतनी शायद नहीं थी, जितनी स्वयं को दूजा मानने और दोहरे मानदण्ड अपनाने के विरुद्ध थी।

— सनी मंदिर तौ वैसैऊ भौत कम ऐं।

— पर नए बनते जा रहे हैं, जबसे मीडिया ने शनि का प्रकोपों का बखान करने वाले अभिनेताओं को बुद्धू बक्से में बिठा दिया है। शनिदेव कोई बुरा न कर दें, यह भय पूजा कराने लगा है। शिंगणापुर का मंदिर भी मात्र चार सौ वर्ष पुराना है। मुझे प्रसन्नता है कि जो भेदभाव चल रहा था, उसे कोर्ट ने न्यायसंगत ढंग से निपटाया। मंदिर के प्रबंधकों की समझ में भी आ गया कि अब महिलाएं रुकने वाली नहीं हैं। जहां तक शनिदेव का प्रसंग है, वे आस्थाओं धारणाओं की परंपरानुसार दंडाधिकारी हैं। स्वयं अपने हाईकोर्ट के न्यायाधीश हैं। पुरस्कार और दंड, दोनों का विधान है उनके पास। उन्हें यह भेदभाव का पुरुषवादी गणित क्यों पसन्द आएगा भला! न्याय करते समय उन्होंने अपने पिता सूर्य को भी क्षमा नहीं किया। ज्योतिषाचार्य गणना करते हैं तो पिता-पुत्र के वैरभाव का ध्यान रखते हुए फलित निकालते हैं।

— बैरभाव चौं भयौ?

— कथा यह है कि काल गणनाजनक तेजस्वी सूर्य ने अपनी स्त्री पर संदेह किया। घर में काला पुत्र कैसे पैदा हुआ? इस कटूक्ति से शनि को अपनी जननी का अपमान लगा। क्रुद्ध शनि ने पिता को भी अपने दंडाधिकारी होने का परिचय दे दिया। सूर्य को कोढ़ हो गया। नवग्रहों में सर्वाधिक समय विद्यमान रहने वाले शनि सिर्फ़ बुरा करते हों, ऐसा नहीं है, लेकिन जब बुरा करने पर आमादा हो जाएं और साढ़े साती की नॉनबेलेबिल सज़ा सुना दें, तो बचाव का कोई रास्ता नहीं बचता। यह भी कहा जाता है कि कोबरा का काटा और शनि का मारा पानी नहीं मांगता। अब चचा, हिन्दू धर्म एकेश्वरवादी तो है नहीं, जिसकी जिस देवता में आस्था जगी, उसने उसकी राह पकड़ ली। आप तो पुराणों के ज्ञाता हैं, बताइए सबसे पुराने देवता कौन हैं?

— देवन के देव महादेव!

— ठीक कहा चचा! धरती पर महादेव के ही सर्वाधिक मंदिर, यानी शिवालय हुआ करते थे और संभवत: आज भी हैं। सरकार ने जनगणना विभाग तो बनाया है, देवगणना विभाग नहीं। अद्यतन आंकड़े मेरे पास नहीं हैं, फिर भी, हिंदू धर्म में शैवमत प्राचीनतम है। शिव के बाद शक्ति की, देवी की आराधना हुई, फिर विष्णु की। अर्द्धनारीश्वर का मिथक-बिंब शिव से आया, जो स्त्री-पुरुष को बराबर का महत्व देता है। मंदिर में मूर्ति शिवलिंग की होती है, भगवान शिव की नहीं। शिवलिंग का स्वरूप देखकर उसकी व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है कि वह स्त्री-पुरुष के संयुक्त-भाव में दैहिक अंतर्लोक की बिम्ब-प्रतिकृति है। शिवलिंग पर जल चढ़ाया जाता है। पता है क्यों?

— बता तू बता!

— अरे! पुरुष-तत्व के अन्दर की ऊर्जा और उसके उद्धत स्वरूप को शांत करने के लिए। कहीं यह अत्यधिक ओजस्विता समाज में, आज की भाषा में, आपराधिक कर्म न करा बैठे। वर्तमान पीनल कोड के अनुसार देखें तो पुराणों में कितनी अपराध-कथाएं हैं! कितने परस्त्री परपुरुष संसर्ग-प्रसंग हुए। शिवत्व दुष्प्रवृत्तियों का शमन है। जीवन का विष शिव ने पी लिया और गंगा को जटाओं में बांध लिया। उनके विश्राम और शयन का काल नहीं होता, इसलिए शिवालय में आपको पुजारियों की भीड़ नहीं मिलेगी। पिछले एक हज़ार साल में एक तरफ़ मस्जिद तो दूसरी तरफ शिवाला कहा गया, मंदिर नहीं कहा। ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीन देव हैं। ब्रह्मा पुत्री पर आसक्ति के कारण अधिक नहीं पूजे गए। कर्मकांडी पूजा केवल विष्णु और उनके विभिन्न रूपों की होती है। शनि नवग्रहों में एक हैं। उन्हें पुजारियों से अधिक ज्योतिषी चाहिए। मैंने बचपन से पंडितों को एक श्लोक पढ़ते सुना है।

— कौन सौ सिलोक?

— ’ब्रह्मा मुरारि: त्रिपुरांतकारि:, भानु: शशि: भूमिसुतो बुधश्च; गुरुश्च शुक्रो शनि राहु केतव:, सर्वे ग्रहा: शांतिकरा: भवंतु।’ तीन देव रक्षा करें और नवग्रह शांत रहें। भैरौं महाकाल दारू पीकर भला करें, सेवाभावी हनुमान जी सिंदूर चढ़वा कर महिलाओं के सिंदूर की रक्षा करें और शनि की आंखों में तेल रहे ताकि वे देख न सकें कि किसका हित-अहित करना है। शंकराचार्य कुछ भी कहें, महिलाएं तो बस बराबरी चाहती हैं चचा।

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नमिता गोखले की कल्पसृष्टि की 'शकुन्तला' — पुरुषोत्तम अग्रवाल


Namita Gokhale Shakuntala the play of memory. Excerpts and Purushottam Agrawal's comment.

शकुन्तला — स्मृति जाल

उपन्यास अंश



पुरुषोत्तम अग्रवाल Purushottam Agrawalयह महाभारत की शकुन्तला की कथा नहीं, एक और शकुन्तला की कहानी है। नमिता गोखले की अपनी स्मृति और कल्पसृष्टि की शकुन्तला। उस समय की शकुन्तला जबकि भारत पर सिकन्दर के आक्रमण को हजार वर्ष बीत चुके हैं, और ‘शाक्य मुनि का नया धर्म प्राचीन मत के आधार को खंडित’ कर रहा है। यह उथल-पुथल पृष्ठभूमि में अवश्य है, किन्तु उपन्यास का मर्म उस समय की ही नहीं,  किसी भी समय की स्त्री द्वारा इस सचाई के साक्षात्कार का रेखांकन करने में है कि, ‘तुम्हारे संसार में शक्तिशालिनी स्त्रिायों के लिए बहुत कम स्थान है, और अबलाओं के लिए बिल्कुल नहीं’।

शकुन्तला के लिए सारा जीवन इस संसार में अपना मार्ग, अपना स्थान खोजने का अनुष्ठान है। इस खोज में पहाड़ी गीत की तरह सुख-दुःख का मिश्रण तो है ही, अप्रत्याशित स्वर-कम्पन और उतार-चढ़ाव भी हैं। शरीर और मन दोनों धरातलों पर चल रही प्रेम और तृप्ति की इस खोज में शकुन्तला के व्यक्तित्व का रेखांकन भी है, और निम्नतम इच्छाओं के सामने समर्पण भी। उसकी आत्मखोज का एक धु्रव इस बोध में है कि जीवन जिया और दूसरा इस अहसास में कि इस जीने में ही अपना एक अंश खो भी दिया।
मार्के की बात है इन दोनों स्थितियों के प्रति, शकुन्तला की सजगता-जिसे नमिता गोखले बहुत सधे हुए ढंग से, रोचक आख्यान में पिरोती हैं।

यह कल्पसृष्टि इतिहास के एक खास बिन्दु पर घटित होने के साथ ही ऐन हमारे समय की स्त्री द्वारा भी अपनी अस्मिता की खोज का आख्यान रचती है, स्त्री के कोण से यौनिकता को देखती है, रचती है और उसकी विवेचना करती है। कर्तव्य, अकर्तव्य और मर्यादा के ही नहीं, स्त्री के अपने मन के द्वन्द्वों से भी नितान्त गैर-भावुक और इसीलिए अधिक मार्मिक ढंग से साक्षात्कार करती है। अपने अप्रत्याशित फैसलों से रचे गये जीवन के अन्त में, शकुन्तला घृणा, स्पष्टता, उत्साह और अर्थहीनता के मिले-जुले भावों के बावजूद मानती है, ‘‘संसार सदैव अपने मार्ग पर चलता है, किन्तु कम से कम मैंने अपना मार्ग खोजा तो। यही तारक था, शिव का मुक्तिदायक मन्त्र’’।

अत्यन्त पठनीय, इस उपन्यास की खूबी यह है कि शकुन्तला द्वारा अर्जित साक्षात्कार किसी सपाट नैतिक फैसले का साक्षात्कार नहीं, बल्कि स्याह-सफेद के बीच के विराट विस्तार का साक्षात्कार है, जोकि पाठक के लिए भी अवकाश छोड़ता है कि वह शकुन्तला के जीवन जीने के ढंग से सहमत या असहमत हो सके। उसके द्वारा अर्जित ‘तारक-मन्त्र’ से विवाद कर सके।

 — पुरुषोत्तम अग्रवाल


शकुन्तला

— नमिता गोखले


काशी, शिव की नगरी। यहाँ मृत्यु का वास है, जीवन का उपहास उड़ाती मृत्यु। लोग यहाँ प्राण त्याग जीवन-मृत्यु के चक्र से बचने आते हैं। इन घाटों पर शिव मृतकों के बीच घूमते हैं, उनके कानों में तारक मन्त्र पढ़ कर उन्हें मुक्ति देते हैं।

बनारस की वह पहली छवि मैं कभी भूल नहीं पायी: घाटों पर लपलपाती चिताओं की अग्नि, लहरों पर टूटती उनकी परछाइयाँ। उनके प्रकाश से धूमिल पड़ गया चन्द्रमा। जिह्ना लपलपाती आकाश की ओर लपकती ज्वाला। चिताओं के प्रकाश और चरमराहट के पीछे अँधेरे में डूबा नगर। शकुन्तला ने यहीं प्राण त्यागे थे, इस पवित्र नदी के तट पर। उस जन्म का स्मृति जाल मुझे मुक्त नहीं होने देता।

वर्षा ऋतु के अन्तिम बादल आकाश के किनारों पर छाये हुए हैं। पवन के झोंकों के साथ वर्षा की हल्की, क्लान्त-सी बौछार आती है, मेरे चेहरे पर नम राख छितर जाती है, राख मेरे केशों में भर जाती है। बिखरी हुई स्मृतियों की यह अग्नि-शय्या इसे कैसे नकार दूँ मैं? वह मुझे नहीं त्यागेगी, वह शकुन्तला। मैं उसकी पीड़ा और उसके प्रेमों का यह बोझ उठाये फिरती हूँ, जिसे मैं अभी तक समझ नहीं पायी हूँ।

सदैव की भांति वही पथरीली दीवार पर दीये की काँपती-थरथराती लौ की प्रकाश-क्रीड़ा। बाहर पत्थरों और चट्टानों से टकराती नदी की लहरें, रेतीला तट जहाँ एक मछुआरा अलाव जलाए प्रतीक्षारत बैठा है। शकुन्तला अपने प्रियतम के समीप लेटी है। दोनों की श्वासों की लय जैसे परस्पर गुँथ जाती है। उस पुरुष की देह से मिट्टी और चन्दन की गन्ध उठती है। उसके वक्ष के एक-एक रोम को वह पहचानती है, कैसे उनमें घूँघर पड़ते हैं और कैसे उसके अंक में आते ही वे सपाट हो जाते हैं। उसका मुखड़ा अन्धकार में छिपा है, लेकिन वह जानती है उसके नेत्र शान्त और सतर्क हैं। उसके अंग-अंग को वह पहचानती है। इस पहचान में प्रेम है, समझ है। इसमें वेदना है।

जब वह उससे लिपटी हुई थी, तब उस पुरुष ने उसके कान में क्या कहा था? मुझे तो बस अहाते में मोरों की पिऊ, पिऊ और अशान्त नदी के बहने की प्रतिध्वनि ही सुनाई देती है। एक कौआ निरन्तर काँव-काँव कर रहा था, उसकी विचार-शृंखला को तोड़ता, उसे कुछ बताता।

जल पर प्रकाश का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है, मेरी आँखें चुँधिया गयीं। मैं जैसे किसी और ही काल में पहुँच गयी थी, तब भी गंगा ऐसे ही दमकती थी। सूरज चढ़ आने के बाद भी नदी का जल शीतल है। शकुन्तला को लगा जैसे जल ने आतुरता से आकर उसके घुटनों को जकड़ लिया है, अधीर बालक की तरह उससे लिपट गया है, उसे खींचे ले जा रहा है। पीछे कुछ हलचल-सी हुई,
नमिता गोखले Namita Gokhale

नमिता गोखले


प्रख्यात भारतीय लेखिका, साहित्यकार व प्रकाशक हैं। भारतीय साहित्य के पाठ्यक्रम में पक्षपात को समाप्त करने में संघर्षशील, नमिता गोखले सकारात्मक विरोध की प्रतीक के रूप में जानी जाती हैं।

कॉलेज छोड़ने के तुरन्त बाद नमिता गोखले ने वर्ष 1977 के अन्त में ‘सुपर’ नाम की फिल्मी पत्रिका प्रकाशित की। उनका पहला उपन्यास ‘पारो: ड्रीम्स ऑफ पैशन’ अपनी बेबाकी और स्पष्ट यौन मनोवृत्ति के कारण काफी विवादों में रहा। भारतीय साहित्य के प्रसिद्ध नीमराणा अन्तरराष्ट्रीय महोत्सव और अफ्रीका एशिया साहित्य सम्मेलन शुरू करने का श्रेय उनको ही जाता है। गोखले जयपुर साहित्योत्सव की भी सह-संस्थापक हैं। साथ ही भूटान के साहित्यिक समारोह की सलाहकार भी हैं। वह ‘यात्रा-बुक्स’ की सह-संस्थापक हैं। ‘पारो: ड्रीम्स ऑफ पैशन’, ‘हिमालयन लव स्टोरी’, ‘द बुक ऑफ शाडौस’, ‘शकुन्तला: द प्ले ऑफ मेमोरी’, ‘प्रिया इन इनक्रेडिबल इण्डिया’, ‘द बुक ऑफ शिवा’, ‘द महाभारत’ और  ‘इन सर्च ऑफ सीता’ उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।

ईमेल: namitagokhale@gmail.com

मद्धम-सी छपाक और मृदु हास्य। वह पलट कर देखती है, जल के समीप एक अश्व खड़ा है, उसके उन्नत मस्तक पर एक बड़ा-सा श्वेत चिद्द है। उसकी लगाम थामे खड़ा है एक पुरुष — सुन्दर, बलिष्ठ पुरुष, एक पथिक जिसके नेत्रों में अदमनीय उल्लास झलक रहा है।

और फिर स्वर्ण शिखर पर लहराता-फरफराता लाल ध्वज। दोपहर की बयार उस शाश्वत नगरी की भूलभुलैयों और भवनों से होकर बहती है। नदी के पार, पहले रेत और फिर जंगल हैं। मन्दिरों की घंटियाँ बिना थमे मानो आर्तनाद करती गूँजती हैं। उसके गर्भ में एक घाव है, रक्त की धारा बह रही है। शकुन्तला की श्वास टूट रही है।

स्मृतियों से पीड़ित, पहचान लिए जाने के भय से व्याकुल, वह काशी में परित्यक्ता-सी पड़ी है, लहरों की तटस्थ झिलमिल जैसे उसका उपहास कर रही है। एक श्वान मार्ग के दूसरी ओर से लँगड़ाता हुआ आता है और उत्सुकता से उसे तकता है। उसकी पीड़ा को महसूस कर वह सखा की भाँति उसके समीप बैठ जाता है। भगवा वस्त्राधारी संन्यासियों का एक समूह वहाँ से निकलता है, पाँच संन्यासी। क्या उनमें संन्यासी गुरेश्वर भी है? गुरेश्वर की शान्त दृष्टि उसकी दृष्टि से टकरायी, उनमें भय नहीं है, बस एक नकारने का भाव है। उसमें, उसके भाई में दया नहीं है।

स्वप्न में मैं सियार को देखती हूँ, उसकी आँखें जल प्रवाह में कुछ खोज रही हैं, हमले के लिए प्रतीक्षारत-सी। काली, उसके वक्ष पर मुंडमाला सजी है, वह उसके साथ चल रही है। काली, इच्छाओं की संहारक, स्वप्नों के अवशेषों का भोज करने वाली। यद्यपि वह लगती निर्मम है, पर अत्यन्त ममतामयी है, उसके समीप पीड़ा नहीं है, कोई आशा-आकांक्षा नहीं है। पर शकुन्तला इस सान्त्वना से बच निकली और धारा के विपरीत संघर्ष करती उस जीवन की ओर चल पड़ी, जिसे वह बिना विचारे त्याग आयी थी।

इन छायाचित्रों के मध्य एक जीवन छिपा है।

हम किसलिए जीते हैं? किसलिए मृत्यु को प्राप्त होते हैं? स्वयं से भागने के लिए? क्या जीवन-क्षुधा स्वयं अपना आहार बन जाती है? क्या नदी का जल कभी अपनी पिपासा मिटा सकेगा?

गंगा किनारे एक पंडे से मैं पूछती हूँ कि ये स्मृतियाँ क्यों मेरे पीछे पड़ी हैं। वह क्लान्त है, कुछ उकताया सा। रुपये और सिक्के उसके फटे आसन के नीचे से निकले पड़ रहे हैं। सहस्रों वर्षों से उसके पूर्वज इस नगरी की इन्हीं सीढ़ियों पर बैठते रहे हैं और मेरे जैसे तीर्थयात्रियों का विवरण दर्ज करते आये हैं। शीत ऋतु का आरम्भ है, पर उसने मात्र एक धोती पहन रखी है। नग्न वक्ष पर मात्र एक जनेऊ पड़ा है। उसका वक्ष ढलक गया है और बड़े-बड़े नेत्र दृष्टिविहीन हैं।

‘‘तुम पहले भी यहाँ आयी हो, बहन,’’ उसने कहा, ‘‘इसी नदी के तट पर, इन्हीं सीढ़ियों पर।’’ अपने प्रकाशविहीन नेत्रों से नदी के बहाव को देखते हुए उसने अपनी काँखें खुजाईं। ‘‘अतीत जीवित रहता है। हम सब अपने साथ अपने अपूर्ण कर्मों के अवशेष लेकर आते हैं, ऋणों का बोझ जिन्हें हमें इस जन्म में उतारना होता है। तुम और नहीं भाग सकतीं, बहन। इस जीवन का सामना करो। स्वीकार करने में ही मुक्ति है।’’

सन्ध्या की आरती का समय है। आरती के दीयों की आभा गंगा में बिम्बित हो रही है। घड़ियाल और शंखों की ध्वनि के बीच, मैं घंटियों का रुदन सुनती हूँ। अनवरत रुदन। यहाँ तक कि उनकी प्रतिध्वनि भी अनवरत थी।

कहते हैं भगवान शंकर संहारक हैं, स्मृहर्ता, स्मृतियों के विनाशक। उनकी ही नगरी में मैंने प्राण त्यागे, किन्तु मैं तो कुछ नहीं भूली। अभी तक मुझे याद है कि कैसे शकुन्तला की देह भूखी थी, और कैसे देह को भोगती, उसे चूस कर फेंकती वह वीभत्स हो गयी थी। धूमकेतु की तरह, उस जीवन का अवशिष्ट जन्म-जन्मान्तरों से मेरा पीछा कर रहा है।


लखाती, पतित-पावनी गंगा आषाढ़ माह पार कर गयी। पहाड़ियाँ दूर तक फैले मैदानों को तकती हैं। काँपता नीला-हरा आकाश कमल की पंखुड़ी के रंग का सा हो गया है। ग्रीष्म ऋतु की शान्त धुन्ध में बिजली की पहली गूँज छुपी है।

माँ को घर के कामों में लगा छोड़ कर मैं जंगल में खेलने भाग आयी हूँ। लम्बी घास पर लेट कर आकाश में मँडराते गिद्धों और उकाबों को देखती हूँ, और फिर बादल गिनने में लग जाती हूँ, सबको कोई आकृति और नाम देती हूँ। आकाश में दुन्दुभि बजाता हाथी और एक गदबदा-सा खरगोश मुझे दीख पड़ता है।

बादल छा जाते हैं, और नियति के अपशगुन की भाँति एक अन्धकारपूर्ण समूह बना लेते हैं। मेरा संसार छोटा होने लगता है, आकाश दूर हो जाता है, सब जैसे बच भागते हैं। निराशा का अथाह बोझ मुझे सुन्न कर देता है। व्यक्ति पर यह तब हावी होता है जब सब कुछ समाप्त सा होता लगता है। मैं बदली में डूब जाती हूँ। दुख की आँधी मुझे साथ उड़ा ले जाती है। मैं कहीं गहरे छुपे, अनजाने क्रोध के प्रचंड वेग से संघर्ष करती हूँ। कड़कती बिजली मेरे भयों का उपहास उड़ाती है। वर्षा, गड़गड़ाहट, बिजली, ये सब क्या मेरे दुख, मेरी हताशा को जानते हैं?

फिर वर्षा थम गयी। नम, दबी घास से मिट्टी की सुगन्ध का भपारा फूट निकला। झींगुरों ने अपना उत्तेजक, क्रुद्ध गान छेड़ दिया। तीव्र बौछार ने नीले कीड़ों की समूहबद्ध पंक्ति को डुबो दिया। पहाड़ों में इन्हें इन्द्रगोपा कहते हैं। मेढकों की टरटराहट और मोरों की तीव्र पुकार ने मेरे कानों को बींध दिया। अपने चारों ओर की नमी, थम गयी वर्षा की कोंचती स्मृति से घबरा कर मैंने रोना बन्द कर दिया। भावनाओं को निरन्तर रौंदे जाने से थक कर मैं रीत गयी थी, मृतप्राय हो गयी थी। मेरा मलमल का घाघरा भीग कर कीचड़ में लिथड़ गया था, और जब किसी तरह घर पहुँची तो माँ ने मेरे मुँह पर तीन-चार चाँटे जड़ दिये।

‘‘दुष्ट, निर्लज्ज लड़की!’’ वे चिल्लाईं। ‘‘तू क्या मुझे सताने, यातना देने के लिए ही जन्मी है?’’

शुष्क नेत्रों से मैं उन्हें जैसे दूर से देखती रही: झुर्री पड़ा धँसा चेहरा, काँपता मुँह, फटे, सफेद होंठ, उनके किनारों पर थूक की हल्की सी परत जम गयी थी। मुझे उन पर दया आयी, कुछ-कुछ घिन भी।

एक बार पुनः, भावनाओं का बोझ मेरे भीतर टूटने लगा। मैं अनबहे आँसुओं से काँप उठी। माँ ने अचकचे भाव से मुझे सीने से लगाना चाहा, वे जानती थीं कि मैं उन्हें परे कर दूँगी। पूरी रात मैं बाँज की लकड़ी की पुरानी देहरी पर बैठी रही, अकेली अपने क्रोध और दुख से जूझती। मेरे रोने-धोने के बीच किसी पल पूर्व से प्रभात की सुनहरी किरणें फूट पड़ीं, और तब मैं पीछे के कमरे में अपनी छोटी-सी पुआल पर सोने चली गयी।

कालिदास के महाकाव्य की नायिका के नाम पर मेरा नाम शकुन्तला रखा गया था, यद्यपि उसकी शकुन्तला मेरी भाँति मनुष्य नहीं थी। मेरी नामराशि वह दिव्य थी, अमरत्व प्राप्त अप्सरा मेनका की पुत्री। मेनका, जिसने ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग करके उनका वीर्य चुरा लिया था। उस शकुन्तला को उसकी माँ मेनका ने त्यागा, जन्मदाता पिता विश्वामित्रा ने त्यागा और बाद में उसके पति दुष्यन्त ने त्याग सम्भवतः वह अपने भीतर त्यागे जाने का संस्कार वहन कर रही थी। कुछ लोग इस नाम को अभागा कह सकते हैं।

मेरी माँ ने मेरा नाम शकुन्तला रखा था। मैंने कभी इसका कारण नहीं पूछा। वे कोई दिव्यात्मा या अप्सरा नहीं थीं, न ही विदुषी रसिका थीं, बल्कि एक मामूली-सी पहाड़ी स्त्री थीं, जिन्हें जड़ी-बूटियों द्वारा चिकित्सा करने का व्यसन था। मैं चार वर्ष की थी तभी मेरे पिता चल बसे थे। हमारे अरक्षित जीवन में उनकी अनुपस्थिति सदैव उपस्थित रही। मुझे अपनी माँ की पहली याद उनके चिकित्सा में रत होने, हमारे उपवनों में लगन से जड़ी-बूटियाँ छाँटते रहने की ही है। मेरे पिता वैद्य थे। माँ ने जो थोड़ा-बहुत जड़ी-बूटियों का ज्ञान पाया, वह उन्हीं की देन थी। आमलक का तेज कसैलापन, अश्वगन्धा की खट्टी गन्ध बचपन की इन्हीं स्मृतियों में स्वयमेव जुड़ गये थे।

हमारी दोनों गायों का चारा-सानी भी माँ करतीं। उनके हाथों और कपड़ों में बसी पहाड़ी जड़ी-बूटियों की गन्ध में दूध और गोबर की गन्ध भी समा गयी थी। मुझे गायों से, उनके भले नेत्रों और लाल खुरदुरी जिह्ना से स्नेह था, लेकिन उन्हें दुहने में मुझे भय लगता कि मैं भी माँ के समान गन्धाने लगूँगी। माँ मुझे वक्ष से लगातीं, तो मिलीजुली गन्धों का एक भभका-सा आता, और मैं उनके बेध्यानी में भरे आलिंगनों से चुपचाप निकल भागती और घर के बाहर उद्यान में खेलने लग जाती।

सादा-सा उद्यान था हमारा। हमने पुष्प कम ही लगाये थे, किन्तु पोदीना, तुलसी, कान्ताकारी और अन्य उपयोगी जड़ियाँ बहुतायत से लगायी हुई थीं। माँ उन्हें स्वयं ही रोपतीं, उनका ध्यान रखतीं, उसी क्रम में जिसे उन्होंने यत्नपूर्वक सीखा था, समझा था और बाद में अपने अनुभव से सुधारा था। पटुआ को अमावस्या की चन्द्रविहीन अर्द्धरात्रि में ही रोपा जाता है, श्यामा तुलसी की पत्तियों को सूर्य देव के दिन अर्थात रविवार को नहीं तोड़ा जाता। उन्होंने ज्ञान की अपनी यह थाती मुझे सौंपनी चाही, किन्तु मैंने इस प्रबलता से इन प्रयासों का विरोध किया कि मुझे स्वयं पर आश्चर्य हुआ। माँ की हर बात से मुझे घृणा थी, उनके उलझे केशों, लँगड़ाती चाल और उनके कटे-फटे गन्दे पाँवों, सबसे। मैं उनके समान कभी नहीं बनना चाहती थी।

महाकाव्य की शकुन्तला की भाँति मैं भी पर्वतों में पली-बढ़ी थी। हमारी ओर के पहाड़ी लोग वनवासी कहलाते हैं। जीवन पथ कठिन था, सुख-साधन कम थे और नगरवासियों की तुलना में हमारा रहन-सहन अत्यधिक भिन्न था। नहाने आदि के लिए जल नहीं था, हमें बहुत दूर पहाड़ी के नीचे से जल भर कर लाना होता था। हमारा घर सदैव ठंडा, सीलनभरा और नम रहता था। मैं पुआल के बिस्तर पर सोती थी और प्रायः मकड़ी या कनखजूरे के रेंगने से जग जाती थी।

[ 2 ]

सँकरी घुमावदार गली के नुक्कड़ पर तीन गाय झुंड बनाये खड़ी थीं। उनकी उष्ण पशुगन्ध ने मुझे घर का स्मरण करा दिया। दास्यु और उसका बछड़ा मेरे नेत्रों के सामने साकार हो गये। क्या उन्होंने मुझे स्मरण किया होगा अथवा मेरी कमी अनुभव की होगी? इस विचार के साथ ही पहाड़ों के ताज़ा मक्खन और थक्केदार दही का स्वाद मेरी जिह्वा पर तिर गया।

दूर कहीं से मन्त्रोच्चार की ध्वनि उभरी, संन्यासियों की एक शोभायात्रा आती दिखाई दी। उनमें सबसे लम्बे संन्यासी में उसे गुरेश्वर की सी छवि प्रतीत हुई, वही सकुचाहटभरी उदारता, अपूर्ण सा अलगाव। क्या यह वही है? वे अभी भी दूर हैं। वह समझ नहीं पाती कि संन्यासियों की ओर बढ़े अथवा छुप जाए। उनके पीछे कहीं से एक आक्रामक साँड़ दौड़ा चला आता है, उनको छिटका कर अलग करता, मन्त्रोच्चार को शान्त करता। एकनिष्ठ उद्देश्य से वह शकुन्तला पर आक्रमण कर देता है। उसका गर्भ अनार की भाँति फट जाता है, पथरीली पगडंडी पर रक्त की बूँदें बिखर गयीं।

एक संन्यासी उसकी ओर दौड़ा। अपने भगवा वस्त्रा को फटकार कर उसने क्रुद्ध पशु को दूर किया। इस दंड से शान्त हो वह शिव का वाहन दूर चला गया। तीनों गाय, नियति की मूक त्रिधारा सी मन्दिर के बाहर पड़ी भेंटों और प्रसाद के अवशिष्ट खाती रहीं।

एक काषिणी ऊँचे तलवों वाली पादुकाएँ पहने पगडंडी पर लड़खड़ाती-सी चली जा रही थी। धूप से बचने के लिए उसने बाँस और रेशम से निर्मित छत्रा ले रखा था। शकुन्तला की याचक दृष्टि उसके नेत्रों से टकराई। ‘मेरी पुत्री को बचा लो,’ वह कह रही थी, यह मौन स्वर काषिणी को खींच लाया। स्त्री पगडंडी पर बहते रक्त को पार कर शकुन्तला के समीप आ कर बैठ गयी। सतर्क हाथों ने उसके गर्भ को जाँचा, रक्त के ढेर में जीवन के चिद्द खोजे।

‘‘अपना वस्त्र दीजिए,’’ काषिणी ने आदेशात्मक स्वर में संन्यासी से कहा। विनीत भाव से उसने अपना वही भगवा वस्त्रा काषिणी को सौंप दिया, जिससे उसने शिव के बैल को भगाया था। काषिणी ने मरणासन्न स्त्राी के उदर पर वस्त्रा बाँध दिया। क्षणांश में वस्त्र पर माणिक की सी गहरी लाल बूँदें झलक आयीं।

शकुन्तला पीड़ा से दोहरी हो रही थी। गहन पीड़ा से वह कराह रही थी, छटपटा रही थी। शिशु को गर्भ से निकालती काषिणी की उँगलियों में धारण की रत्नजड़ी अँगूठियों ने उसके घाव को और छील दिया था। जीवन का रुदन गूँज उठा, शिशु का कोमल रुदन।

‘‘वह जीवित है,’’ भयाक्रान्त स्वर में संन्यासी कह उठा, ‘‘शिव की कृपा से बालक जीवित है!’’ उसने बालक को लेने के लिए बाँहें फैला दीं।

‘‘एक शिशु और है,’’ काषिणी ने कहा। ‘‘इसके गर्भ में एक जीवन और है!’’ शकुन्तला को अपनी पुत्री की आशा थी, उसकी प्रतीक्षा थी। संन्यासियों के मन्त्रोच्चार के साथ ही शिशु के रुदन का स्वर भी दूर होता गया। ‘‘ईश्वर के अनुगामी तुम्हारे पुत्रा को साथ ले गये हैं,’’ काषिणी ने कहा। ‘‘यह तुम्हारा सौभाग्य है कि वह उनके आश्रय में है।’’

शेष बचे जीवन के भार को अपनी देह से निकालने के प्रयास में शकुन्तला के अधरों पर रक्त झिलमिला उठा। काषिणी ने उसे सान्त्वना दी, उसका मस्तक सहलाया। अपनी पुत्री का, उसके साथ अकेले जीवन बिताने का स्वप्न देखती शकुन्तला मुस्कुरा दी। उसका मस्तिष्क भटकता हुआ निर्जन परित्यक्त मन्दिर में उसे ले गया, उसके गर्भगृह में जहाँ थरथराती-सी दीये की लौ है, पाषाण-योनि पर पुष्प अर्पित हैं।

वह काषिणी की रत्नजड़ित उँगलियों को शिशु को निकालते अनुभव करती है। वह धैर्य से शिशु आगमन की सूचना देते रुदन को सुनने की प्रतीक्षा करती है, किन्तु कुछ सुनाई नहीं देता। समय विस्तृत होता है, संकुचित होता है। शिव, स्मृहर्त्ता, स्मृति-विनाशक। वे शकुन्तला के ऊपर झुकते हैं, उसके कान में तारक मन्त्र पढ़ते हैं। वह उनके वाहन, बैल के क्रुद्ध नेत्र देखती है, उसके सींग शिव के मस्तक पर विराजे चन्द्रमा की भाँति चमक रहे हैं। मृत्यु-छाया उसे घेर लेती हैं।

यह उसे नदी की कलकल सुनाई दे रही है, अथवा शिव का डमरू, समय की ताल है अथवा उसके रक्त का प्रवाह, अथवा उसकी टूटती साँसों की लय है? वह अपनी पुत्राी को पकड़ने का यत्न करती है, काषिणी उसे रोकती है। ‘‘इस संसार में हमारे लिए स्थान नहीं है,’’ वह हौले से कहती है।

सूर्य अभी आधा ही चढ़ा है, दोपहर ठहर गयी है। एक श्वेत प्रकाश मुझ पर छा जाता है। उदार हाथ पीतल के पात्रा से जल उड़ेल रहे हैं, किन्तु मेरे मुख में रक्त और ज़ंग का ही स्वाद है, मैं जल नहीं पी पाती। नदी असहज हो रही है। मेरे भीतर एक क्रोध फन उठाता है, घृणा, स्पष्टता और उत्साह का मिलाजुला भाव। यह अर्थहीन था, मैं जान गयी थी कि मैंने अपना जीवन निश्चित मार्ग की जगह अन्य प्रकार से जीना चाहा। संसार सदैव अपने मार्ग पर चलता है, किन्तु कम से कम मैंने अपने मार्ग को खोजा तो। यही तारक था, शिव का मुक्तिदायक मन्त्र।

सम्भवतः मैं सो गयी थी, क्योंकि जब दुबारा आँख खोली, तो मेरे समक्ष तारे जगमगा रहे थे। मैंने चिरपरिचित त्रिकोणीय वाण को देखा। ओरायन नक्षत्रा, नीरकस कहता था। उसने कहा था जब श्वान नक्षत्रा ऊपर उठता है, तो एजिप्टस नदी के पास की धरती को बाढ़ निगल लेती है।

संसार बहुत विशाल है, किन्तु यहाँ, नदी के किनारे, रात्रि की मन्द बयार मेरे मस्तक को शान्त करती है, लहरों की ध्वनि मेरा आलिंगन करती है।

उषा ने आकाश में अपना कपटजाल फैला दिया है। ब्रह्ममुहूर्त है, जब विधाता सारे संसारों को सन्तुलन में रखते हैं। मैं आने वाले वर्षों की झलक देखती हूँ, वे प्रातः की श्वास की भाँति थे, मेरे कानों में एक फुसफुसाहट के समान, एक आमन्त्राण देते से। तभी मन्दिर के घंटे अनवरत रूप से बजने लगे।

लम्बे अन्तराल के पश्चात मुझे अपनी माँ का ध्यान आया, वे कभी किसी बात से नहीं डरती थीं। उनका मुख मेरे स्मृति-पटल पर साकार हो गया, चिन्तित, सतर्क, जब मैं शिलाजीत की खोज में पहाड़ी पर चढ़ रही थी, क्या उनके नेत्रों में अश्रु थे?

‘‘मेरे लिए रोओ मत,’’ मैंने धीमे से कहा, प्रत्यक्षतः किसी से नहीं। मैं अपनी पुत्री के लिए नहीं रोऊँगी, अपने अश्रु व्यर्थ नहीं करूँगी। मैंने अपना जीवन भी वृथा नहीं किया। मैंने जीवन जिया।

मन्द पवन की भाँति मैं स्वयं को तैरते, ऊपर और ऊपर आकाश की ऊँचाइयों में एक काली पतंग के समकक्ष उड़ते देखती रही।
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