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उपन्यास कैसे लिखें? ऐसे— पढ़िए: उमा शंकर चौधरी के उपन्यास 'अंधेरा कोना' के अंश




उपन्यास कैसे लिखें? ऐसे — पढ़िए: उमा शंकर चौधरी के उपन्यास 'अंधेरा कोना' के अंश ... पता नहीं, लेकिन हो सकता है कि आपने भी कभी मेरी तरह यह सोचा हो कि कोई कथाकार आपका प्रिय लेखक क्यों हो जाता है। उमा शंकर को जितनी दफ़ा पढ़ता हूँ बस यही लगता रहता है उससे अधिक सच किसी और लेखक को हो सकता है पता हो लेकिन उससे अधिक उस सच को उसके पूरे दुःख समेत लिख और कोई नहीं पाता। 

ये ज़रा देखिये
नागो ने कलम से उस रजिस्टर को भरना शुरू कर दिया। नाम पता के साथ समस्या पर लिखा- ‘सूरज के पास कामे नहीं है। उ खड़े खड़े मर रहा है। नांय काम है, नांय खाना। क्या करें हम उसका, हमारी समझ में नहीं आता।’


नागो रजिस्टर पर अपनी समस्या लिखकर आकर बैठ गया। कुर्सी कोई खाली नहीं थी। वह नीचे जमीन पर बैठा। बाहर बारिश जैसा मौसम था। रोशनी कम हो गई थी। बहुत सारी औरतें घूंघट ओढ़े वहां बैठी थीं। छोटे छोटे बच्चे उन घूंघट काढ़े औरतों के शरीर से चिपके हुए थे। वे रो रहे थे और पूरे माहौल में एक चिल्ल पों मची हुई थी। लोग जो वहां मौजूद थे उनमें से कुर्सियों पर बहुत सारे बूढ़े बैठे हुए थे। बहुत सारे ऐसे लोग जो अब जवान रहे नहीं और अभी बूढ़े हुए नहीं हैं वे या तो जमीन पर बैठे थे या फिर वे इधर उधर खड़े थे। जो शामियाने के अंदर बैठे थे उनमें से बहुत सारे लोग उस दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए थे जिधर वह बड़ा सा हाॅल था और जहां मुख्यमंत्री बैठने वाले थे। बहुत सारे लोग जो उस दरवाजे पर टकटकी लगाए बैठे थे वे बीच में कभी कभी अपना सिर उपर उठाकर आसमान की ओर देख लेते थे। लेकन ऊपर आसमान नहीं शामियाना था ऐसा उन्हें हर बार अहसास होता होगा लेकिन थोड़ी थोड़ी देर पर ऐसा बहुत से लोग करते ही रहे।  

उमा शंकर चौधरी के उपन्यास 'अंधेरा कोना' से

लम्बी रेस का घोड़ा, उपन्यास 'अँधेरा कोना' के ये अंश पढ़ना, उमा शंकर की स्टाइल में उन सचों को महसूस करना, जिनके होने का मुझे पता है, नहीं पता था, वही अजीब-सी कशमकश दिये हुए है जिसमें मैं सचों के बीच यह सोच रहा होता हूँ कि कोई कथाकार आपका प्रिय लेखक क्यों हो जाता है।
उपन्यास और कहानी में अंतर! छोड़िये, पढ़िए — उमा शंकर चौधरी के उपन्यास 'अंधेरा कोना' के अंश..

भरत एस तिवारी
6-01-2019


उमा शंकर चौधरी के उपन्यास 'अंधेरा कोना' के अंश

घोड़ों के बारे में आपने इतिहास में बहुत पढ़ा और सुना होगा। घोड़ों ने आर्यों को गतिशीलता दी थी। घोड़ों ने इतिहास में नायकों को नायकत्व दिया था। लेकिन घोड़े कई बार इतिहास को झुठला देते हैं और खुद बन जाते हैं नायक।






चुनाव, सड़क, गिट्टी और अलकतरा  


जब पूरे इलाके में अलकतरा की गंध घुल गई तो गांव में खुशी की लहर दौड़ गई। वर्षों गड़ढे में सड़क को ढूंढने वाले गांव के लोगों को अब यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कभी ऐसा भी होगा कि एक दिन इस गांव की सड़क मखमली बन जायेगी। लेकिन आज जब अलकतरा की गंध फिजाओं में चारों तरफ फैल गई तो लोगों को लगा जैसे सपना साकार होने वाला है।

      सुबह होते ही यह खबर आग की तरफ फैल गई कि रातांे रात जहां-तहां गिट्टियां गिरा दी गई हैं। थोड़ी-थोड़ी दूर पर अलकतरा के ड्रम। लगता है अंधेरे ही काम भी शुरू हो गया। और रातांे रात ही कम से कम तीन जगहों पर एक एक बोर्ड लगा दिया गया। ’इस पथ के निर्माण का कार्य विधायक छुई देवी के फंड से हो रहा है उनके अथक प्रयास के लिए उनका साधुवाद।’ साथ ही विधायक छुई देवी की फोटो और उनका चुनाव चिह्न भी। उस फोटो में छुई देवी अपने सिर पर साड़ी का आंचल लिये हुए थी और मुस्करा रही थी। उस साड़ी में कई फूल थे।

पच्चासी साल की उम्र में फूलो बाबू ने तो जैसे आस ही छोड़ दी थी कि इस जिन्दगी में कभी वे इस सड़क को सड़क कह भी पायेंगे। फूलो बाबू कहते ‘‘जब से बुढापा आया है तब से कभी ऐसा नहीं हुआ कि टिशन से घर पहुंचे और दो दिन खाट पर न गुजारें।’’ बहुत दुखी होते तो कहते ‘‘सार जिन्दा में तो मारा ही मर के भी इहे गड्ढा होयके जाय पड़ी। अरे कम से कम हमरे लास क त सुकून मिल जाय।’’ सड़क बन रही है यह खबर सुनते ही सबसे पहले उन्होंने अपने मुंह से निकाला ‘‘चलो हमरे लहास क त सांति नसीब हुआ। इ देस में साला लास क भी सुकून नसीब हो जाये त कम बड़ी बात नांय है।’’

अभी बिहान तरीके से हुआ भी नहीं था कि सार लल्लनवां चिल्लाने लगा। ‘‘अब देखो इ गांव के सन्त लोग हमरे गांव में कैसे बनता है हेमा मालिनी क गाल।’’ एकदम बौरा गया था साला। धोती फाड़के रुमाल तो नहीं बनाया था हां अखबार को मोड़कर माइक जरूर बना लिया था। ‘‘सुनो भाइयो, भोर हो गया है। एक खुसखबरी के साथ अपन अपन आंख खोलिए। अरे मुरगा बांग दे न दे घर को चला गया है सारा तारा। इ है छुई देवी का वादा सबको मिलेगा ओमपुरिया के गाल से छुटकारा।’’ लल्लनवा पैरेडी करने में बड़ा माहिर है।

शिवधरवा को रोज जाना पड़ता है ट्रेन पकड़कर सरैया बाजार। इस सड़क से बहुत दुखी रहता है वह। कहता है ‘साला आते आते जो बैंड बजता है इ शरीर का कि कुछ पता नहीं रहता है कि कौन सा अंग कहां है। रोज जाने का पड़े तो कौनो काम के रह नहीं जायेंगे भाई। रोज जाना पड़ता ही है तब साला बीवी के साथ सोने के लिए कौनो और आयेगा क्या? साला कमर का इ हाल हो जाता है कि उठा ना जाये, बैठा न जाये। बिछौना पर जाते ही सुध कहां रहता है कि कहां है बीवी।’

अखबार वाले भोंपू से जब यह आवाज गूंज कर निकली तब सबको तो पहले लगा साला इ लल्लनवा पगला गया है। लेकिन जब सबने इस आवाज की गूंज के मैटर को सुना तो सबकी बांछें खिल गई।

दिन निकला तो लोग झुंड बना कर निकले देखने। पुरुष अलग। महिलाएं अलग। कौवों का झुंड भी अलग। गायों ने सड़कों की तरफ मुंह करके एक खास किस्म की आवाज निकाली। अतिया देवी प्राथमिक विद्यालय, तेतरी में अपने मोटरसाइकिल से शिक्षक प्रशांत सिंह पहुंचे तो अपने साथ अलकतरे की थोड़ी सी खुशबू भी साथ ले आये। शिक्षक नियुक्त होने के बाद अभी हाल ही में शादी हुई है। दहेज में मिली यह मोटरसाइकिल के साथ साथ बांये हाथ की तीसरी उंगली में सोने की अंगूठी भी चमक रही है। यहां अलकतरे की खुशबू के साथ बोले ‘स्पीड तो बहुत है भाई। ऐसे ही चुनाव हर साल आवे तो मजा आ जावे।’ विद्यालय में चार मास्टरनी पर अकेले मास्टर हैं इसलिए भाषा थोड़ी मुम्बइया हो गई है। कुछ लौंडों ने छुई देवी के उस बोर्ड के साथ सेल्फी दे मारा। कुछ ने आग पर गर्म हो रहे अलकतरा के साथ तो कुछ ने बनते हुए सड़क को अपनी सेल्फी में शामिल कर लिया। अभी पिपरी तक ही खंभा गड़ा है इसलिए वहां के लौण्डे जरा ज्यादा फ्रेंडली हो गए हैं मोबाइल के साथ। वैसे मोबाइल तो तेतरी और उससे आगे झुनरी तक के लौण्डे लपाटे इस्तेमाल करते हैं लेकिन हां चार्ज करने की समस्या है। तो यहां सेल्फी लेने में पिपरी तक के लड़के ज्यादा थे।

विदो बाबू अपना राग अलापते दिखे। ‘कब तक काम नहीं करेंगे आखिरकार यह लोकतंत्र है। हम भी कोई चुगद नहीं बैठे हुए हैैं। आपको जवाब देना पड़ेगा। आखिर हमारे इतने सारे सवालों का जवाब तो उनको देना ही था।’

कुछ लोग तो साफ मानते हैं कि यह आगामी चुनाव का नतीजा है लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि विदो बाबू की बात में भी दम है। विदो बाबू कहते थे कि ‘इस लोकतंत्र में देर है मगर अंधेर नहीं।’ उन्होंने ढेर सारे पत्र लिखे थे। वे कहते थे ‘एक दिन उन्हें जवाब देना ही होगा।’ इसे अब वे अपना जवाब मानते हैं। यह अलग बात है कि उनके बहुत सारे पत्र आज भी अनुत्तरित ही हैं।

शाम को ठकुरवारी के प्रांगण में लैला-मजनू पेड़ के नीचे मंडली बैठी। मौसम सुहावना था और बहुत गर्मी नहीं थी। यह मंदिर बहुत पुराना था और इसमें कई भगवान थे। अहाते के भीतर यह लैला-मजनू पेड़ था। लैला-मजनू यानि पीपल और बरगद एक साथ। आप देख लेंगे तो हैरान। दोनों के जड़ एक साथ। दोनों की टहनियां और पत्ते तक एक-दूसरे में गंुथे हुए। एकदम एक-दूसरे में लिपटा हुआ पेड़, खजुराहो की मुर्तियां सरीखा। ये दोनों कैसे साथ हुए किसी को नहीं पता। साथ लगाये गये या साथ हो गये नहीं पता। हां लेकिन ये पक्का है कि ये पेड़ हैं बहुत पुराने। पुराने इतने कि ठीक-ठीक यह पता करना मुश्किल कि ये पेड़ ज्यादा पुराने हैं या यह मन्दिर। कभी लगता है कि मन्दिर था इसलिए यहां ये पेड़ लगाऐ गए होंगे। कभी लगता है यह अजीब किस्म का पेड़ था इसलिए यहां मन्दिर बन गया होगा। खैर.........। इस पेड़ के चारो तरफ गोलाई में सीमेन्ट का चबूतरा बना दिया गया है। ठकुरवारी की तरफ इस गोलाई को बढाकर ठकुरवारी से मिला दिया गया है जिससे बैठने के लिए चौरस सी अच्छी खासी जगह निकल आयी है। इस चबूतरे पर दिन में लोग सुस्ताते हैं और मंगल, बृहस्पतिवार और शनिवार शाम को चौरस की जगह पर मंडली बैठती है और भजन होता है। चबूतरे के बगल में चापाकल है जिसका पानी बहुत मीठा है। इन पेड़ों के बीच से बरगद की लताएं लटकी हुई हैं जिनसे बच्चे लटकते रहते हैं।

                आज दिन सोमवार है लेकिन मंडली बैठी है। मंडली बैठी और पूरा गांव उमड़ पड़ा। लेकिन आज सिर्फ भजन नहीं हुआ। कुछ मस्ती और कुछ रोमांस। दुक्खन ने गीत गाया तो सारा गांव जैसे झूूम गया। दुक्खन कपड़े की सिलवायी हुई बनियान पहिने हुए था और मटमैली सी धोती। धोती कुछ मटमैली हो गयी थी और कुछ रंग ही ऐसा था। बैठते वक्त धोती को अक्सर वो ऊपर की ओर समेट लेता था, इसलिए अर्धनग्न सा बैठता था। मुंह में ऊपर के लगभग सारे दांत टूट गए थे इसलिए वह बोलता तो उसके मुंह से हवा बिना रुकावट के बाहर निकल आती थी। स्वर वर्ण के उच्चारण में तो कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन व्यंजन ध्वनि में पर्याप्त संघर्ष नहीं हो पाता था इसलिए शब्द तुतला कर ही बाहर निकल पाता था। जब वो बोलता है तो शब्दों के साथ एक खास तरह की फुस्स की आवाज निकलती है। आम दिनों में दुक्खन गीत गाता था तो लोग हंसते थे। परन्तु आज दुक्खन की आवाज में गाना सुनकर लोग पागल हुए पड़े थे। ढोलक की थाप पे आज दुक्खन अपने रंग में था और गांव के लोग उसी थाप पे नाच रहे थे। गांव वाले नाच रहे थे तो नागो भी नाच रहा था। गंजी लुंगी पहने नागो के इस नाच को पहले किसी ने देखा नहीं था। नागो को नाचना नहीं आता पर वह नाच रहा था। आज खुशी का दिन जो था।

तू लगावे ला जब लिपिस्टिक, हिलेला सारा डिस्टीक, जिला टाॅप लागे लू, कमरिया.........






कुछ सवाल और उनके उत्तर का इंतजार


इस तेतरी गांव के लिए विदो बाबू एक उपलब्धि की तरह हैं। यह इस गांव का सौभाग्य है कि इस गांव में विदो बाबू हैं।

‘इ गांव में गाय भैंस, जानवर से लेकर इंसान तक सभै उनके ही त भरोसे हैं। डागडर त भगवाने का रूप होता है।’

‘उनका नाम सम्मान से लीजिए उ खाली डागडर ही नहीं हैं। उ का कहते हैं। उ त कारकर्ता हैं।’

‘अरे सार उ कारकर्ता नहीं होता है आन्दोलनकारी होता हैं।’

विदो बाबू वेटेनरी डाॅक्टर थे। यहां के लोग भेटेनरी डागडर कहते हैं। इस तेतरी गांव से लगभग चौदह किलोमीटर दूर जो काजरा ब्लाॅक है वहीं वेटेनरी अस्पताल है। वे ताउम्र वहीं डाॅक्टर रहे और ताउम्र अपनी साइकिल से जाते रहे। अभी साढे चार वर्ष होने को आये जब वे अपनी नौकरी से अवकाश प्राप्त कर चुके हैं। लेकिन डाॅक्टर भी क्या कभी अवकाश प्राप्त करता है। विदो बाबू जब नौकरी में थे तब भी उनकी इस काबिलियत का फायदा इस गांव को मिलता रहा था।  अब तो खैर वे गांव के होकर ही रह गए हैं।

इस गांव में कम ही लोग होंगे जो फुलपैंट और शर्ट पहनते होंगे। विदो बाबू उनमें से एक थे। और शायद यह भी कारण है कि वे अपनी उम्र से कम से कम दस वर्ष कम लगते हैं। सिर के बाल अभी पूरी तरह सफेद नहीं हुए थे। खिचड़ी बाल उनकी उम्र को कुछ हद तक ढंकता था। मूंछ के बाल भी खिचड़ी ही थे। शरीर उनका बहुत दुबला नहीं था लेकिन वे बहुत मोटे भी नहीं थे। जब वे साइकिल की सवारी करते थे तब ऐसा लगता नहीं था कि साइकिल उनके बोझ से दब जायेगी। वे साइकिल आराम आराम से चलाते थे और पीछे कैरियर में एक बैग खोंस के रखते थे। उस बैग में उनके बहुत सारे औजार होते थे, कुछ दवाइयां, कुछ इंजेक्शन।

विदो बाबू का कद छोटा था इसलिए अपनी साइकिल पर मेढक की तरह फुदक कर चढ़ते थे। उनको साइकिल चलाते हुए देखने में हमेशा ऐसा महसूस होता जैसे उनके दोनों पैर दोनों तरफ की पाइडिल के चक्र को पूरा नहीं कर पायेंगे। कई बार लोग सड़क किनारे खड़े होकर यह देखने में लग जाते थे कि उनके पैर इस चक्र को पूरा कर पा रहे हैं या नहीं। और यह एक रहस्य की तरह ही तबतक रहता था जबतक कि यह चक्र पूरा नहीं हो जाता। परन्तु विदो बाबू लोगों के सारे अंदेशों को धता बताते हुए पाइडिल के चक्र को पूरा करते थे और उनकी साइकिल आगे बढती थी। हां इसमें कोई शक नहीं है कि साइकिल पर चढ़ना-उतरना उनके लिए थोड़ा मुश्किल अवश्य था। वे अक्सर साइकिल पर चढने के लिए थोड़ी ऊंची जगह की तलाश में रहते थे जिस पर एक पांव रखकर वे साइकिल पर चढना चाहते थे। और जब ऐसी कोई ऊंची जगह नहीं मिलती तब वे अपनी साइकिल पर फुदक कर चढते थे। हां अचानक ब्रेक लगाकर साइकिल से उतरने में उन्हें आज भी दिक्कत ही होती है।

विदो बाबू अक्सर उदास रहते थे। वे हंसते थे तब भी उदास ही दिखते थे। या उनका चेहरा ही उदास था। जब वे बोलते थे तो वे अपनी उदासी को और घना कर लेते थे। वे ऐसा जानबूझकर करते थे या उनका चेहरा ही ऐसा था यह तो किसी को नहीं पता, परन्तु उनकी उदासी उनकी पहचान सी हो गयी थी। लोगों को कभी यह समझ में नहीं आता था कि अब इस गांव में सड़क, बिजली, अस्पताल नहीं है तो यह अच्छी बात तो नहीं है परन्तु इसमें इतना दुख मानने वाली कौन सी बात है।

विदो बाबू सड़क के गड्ढों को देखते और उदास हो जाते। विदो बाबू यहां के लोगों को देखते और उदास हो जाते। वे पेड़ों को देखते और उदास हो जाते। वे पेड़ों पर बैठी चिड़ियों को देखते और उदास हो जाते। वे अक्सर कुंओं को देखते, उसमेें झांकते और उदास हो जाते। वे पोखरों को देखते और उदास हो जाते। वे खेतों को दूर तक देखते और उदास हो जाते। उस गांव के लोग विदो बाबू को देखते और उलझन में पड़ जाते। सड़क किनारे खड़े विदो बाबू  पेड़ पर बैठी चिड़िया को उदास होकर देखते रहते और लोग उदास खडे विदो बाबू को देखते रह जाते। विदो बाबू उदास हो जाते तो उनके माथे पर एक खास तरह की सिकुड़न आ जाती थी जिससे उनकी दोनों भवें आपस में नजदीक आ जाती थीं। 

विदो बाबू जानवर के डाॅक्टर थे परन्तु गांव के लोग अक्सर अपना इलाज कराने आ जाया करते थे। गांव में कोई डाॅक्टर उपलब्ध नहीं था इसलिए लोग जानवर के डाॅक्टर को भी अपने लिए वरदान ही मानते थे।

       पहले शुरू में तो विदो बाबू ने लोगों को समझाना चाहा कि वे जानवर के डाॅक्टर हैं और जानवर और इंसान में बहुत फर्क होता है। लेकिन लोग कहते ‘जानवर और इंसान में काहे का फर्क। हम भी जीते हैं और वह भी जीता है। हम भी खाते हैं वह भी खाता है। हम भी सांस लेते हैं और वह भी लेता है। और इससे आगे ना हम कुछ करते हैं और ना ही वह।’

और इस तरह विदो बाबू ने इस गांव की आवश्यकता के लिए इंसानों का इलाज भी सीखा। फिर वे थोडे़ पतले वाले इंजेक्शन भी ले आये जो इंसानों को दिये जा सकें।

विदो बाबू बहुत ही नैतिक इंसान थे। एकदम सच्चे अपने कर्तव्य के प्रति। इसलिए वे अपनी नौकरी में भी सब को अखरते रहे। जब तक नौकरी किया एकदम सच्चाई से किया। जो भी उनका कर्तव्य था उन्होंने उसमें कभी कोताही नहीं की। और अपने संज्ञान तक जो कोताही करने वाले थे उनके खिलाफ शिकायत भी की। यही कारण है कि ऊपर से लेकर नीचे तक सभी लोग विदो बाबू से नाराज रहते रहे।

‘इ युधिष्ठिर की औलाद जबे तक रहेगा साला जिन्दगिये बरबाद है।’ सारे स्टाफ कोशिश करते रहे कि उस अस्पताल से उनका तबादला हो जाए। लेकिन तबादला के लिए पैसा चाहिए। और पैसा तो पहले कमाना पड़ता। पैसा विदो बाबू कमाने नहीं देते। इसलिए वे सब एक ऐसे चक्र में उलझ गए थे जिसका समाधान सिर्फ विदो बाबू के रिटायरमेंट में था। विदो बाबू रिटायर हुए तो सबकी चांदी हो गयी लेकिन तब तक में कइयों की जिन्दगी पूरी ही हुई समझिये।

विदो बाबू ने ढेर सारे पत्र लिखे। कुछ अपने साथ नौकरी करने वालों के खिलाफ। कुछ उस विभाग की अनियमितता के खिलाफ और कुछ उस विभाग के सुधार के लिए।

इससे सुधार तो कुछ नहीं हुआ और न ही उनकी शिकायतों या सुझावों पर कोई सुनवाई हुई। हां यह जरूर हुआ कि उनके ढेर सारे दुश्मन पैदा हो गए। ढेर सारा या कहें लगभग सारे ही। जब विदो बाबू रिटायर हुए तब उनकी पेंशन से लेकर सारे कागज-पत्तर तक संभालने में काफी दिक्कतें आईं। उनका उस वेटनेरी अस्पताल में जाना लगभग बन्द कर दिया गया था। लेकिन विदो बाबू को न तो कोई फर्क ही पड़ा और न ही उन्हांेने अपने आप को बदला।

इस गांव की समस्या को लेकर विदो बाबू यहां-वहां शिकायत लिखते रहे थे परन्तु रिटायरमेंट के बाद जब उन्होंने तेतरी मंे रहना शुरू किया तब इस गांव की समस्याओं को अपनी जिम्मेदारी बना लिया और उसपर जम कर लिखना शुरू कर दिया। पटौना रेलवे स्टेशन से लेकर तेतरी और आसपास के कई गांवों की ढेर सारी समस्याओं पर उनकी निगाह थी।

पटौना रेलवे स्टेशन के उस पार जो स्कूल था वहां बच्चे कैसे जायंे। पूछा विदो बाबू ने। बच्चे जाएं तो कोई रेलवे फाटक क्यों नहीं है वहां। पूछा विदो बाबू ने। बच्चे जब उस रेलवे लाइन को पार करें तो दायें देखें कि बायें। पूछा विदो बाबू ने।

‘इन बच्चों की जान की चिंता सरकार नहीं करेगी तो कौन करेगा।’

विदो बाबू ने सूखते जा रहे पोखर के बारे में सवाल पूछा। इस खस्ता हालत सड़क के बारे में सवाल पूछा। पेड़-पौधे, हवा, पशु-पक्षी के बारे में पूछा। विधायक का जो फंड आता है वह कहां गया पूछा विदो बाबू ने। इ गांव में कौनों काम विधायक के फंड से काहे नहीं हुआ पूछा विदो बाबू ने।

वे सवाल पूछते लेकिन लिखित में। वे चिट्ठियों में सवाल पूछते रहे और सारी चिट्ठियां हवा में तैरती रहीं।

ऐसा नहीं है कि छुई देवी या फिर घुटर यादव से विदो बाबू की कोई व्यक्तिगत अनबन है। हां यह जरूर हुआ कि छुई देवी इस बार जीत कर सत्ता में आई और कुछ ही दिनों में विदो बाबू रिटायर हो गए। ऐसा भी नहीं है कि जबतक विदो बाबू नौकरी में थे तब तक वे इस गांव की समस्याओं के बारे में शिकायत नहीं लिखते थे। लेकिन जब से उन्होंने अवकाश प्राप्त किया उनके सामने गांव की सारी समस्याएं उनके सामने मुंह बाए खड़ी हो गयी। विदो बाबू द्वारा किए गए इन शिकायतों से पिछलेे साढे चार सालों से छुई देवी जूझ रही है। छुई देवी क्या जूझेगी जूझ तो रहा है इ घुटर यादव।

विदो बाबू ने भी सीधे इस घुटर यादव पर ही अटैक भी किया। ऊपर तक यह लिखा कि इ घुटर यादव कौन है। कैसे उसने अपनी गाड़ी में लाल बत्ती लगा रखी है। कैसे उसने अपनी गाड़ी में विधायक लिखवा रखा है। कैसे हर टेंडर को वही देखता है और कैसे अपने साथ वह इतने गनमैन को रखता है। एक दिन तो गुस्से में यहां तक लिख दिया कि यह घुटर यादव सीना इतना चौड़ा करके क्यों चलता है।

छुई देवी परेशान रहती रही। घुटर यादव ने दिल से बहुत चाहा कि विदो को खत्म कर दें। लेकिन विदो बाबू इस गांव के चहेते थे। और लोग यह जानते थे कि विदो बाबू और घुटर यादव के बीच जोरदार टकरार है।

‘इ सब आपलोग का भरम है। घुटर दा चाह लें त इ विदवा का चीज है! दू मिनटे में कहां चल जायेगा पता भी नांय चलेगा।’ लल्लनमा एकदम छुई देवी का चमचा है। छुई देवी का नहीं घुटर दादा का। घुटर दा उसको देशी पिलाता है। एकदम रंगीन।

‘आप ढहाएंगे घुटर दादा का लंका त उ बजा देंगे आपका डंका।’ लल्लनमा चिल्लाता रहा। लेकिन ना तो विदो बाबू ही घुटर यादव का कुछ बिगाड़ पाए और ना ही घुटर यादव विदो बाबू का कुछ बिगाड़ पाए।






काली नागिन और बारिश की बूंदें 


नागो का टमटम पहुंचता है स्टेशन पर और चिड़िया का दिल धक से रह जाता है। चिड़िया इस चिलचिलाती धूप में नागो के लिए अपने उस लाल डिब्बे से ठंडा पानी निकालती है। नागो चिड़िया के हाथ से पानी की बोतल लेता है पानी को गले के नीचे उड़ेलता है पर कहता कुछ नहीं है। जितनी देर चिड़िया सामने खड़ी रहती है नागो उस ठंढे पानी को पेट में जाने को महसूस कर रहा होता है। फिर वह सिर उठाकर देखता है चारों तरफ। हलुआई महंत ही नहीं सबकी निगाह उस पर टिकी है।

नागो कुछ कहता नहीं है लेकिन कभी मना भी नहीं करता है।

नागो एकदम गउ जैसा सीधा है।

ऐसा नहीं है कि चिड़िया इस चौक पर आई और इस धाक के साथ यहां अपनी दुकान चलाने लगी और नागो को पता न चला हो। ऐसा भी नहीं है कि नागो यह नहीं जानता है कि चिड़िया पर इस चौक के सभी मर्द फिदा हैं। चिड़िया के बाल घुंघराले हैं। चिड़िया की आंखों में काजल लगा हुआ है। चिड़िया के दांतों में एक दांत उठा हुआ है जो मोती जैसे है। वहां की फ़िजाओं में तैरती इन बातों को नागो भी सुनता रहता था। लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं कि नागो ने चिड़िया की तरफ तरीके से आंख उठाकर देखा भी हो।

नागो अपने टमटम से आता है, सवारी को उतारता है और अपने टमटम पर बैठ जाता है। नागो कभी कभी इस पीपल के पेड़ के नीचे भी बैठता है। पीपल के पत्ते बहुत गझिन हैं। पेड़ पर अक्सर ढेर सारी मैना बैठी होती हैं। मैना ऊपर से बैठकर सब देखती है। मैना नागो के मन को भी पढ लेती है।

नागो का टमटम लगा रहता है। गाड़ी आती है और सवारी नागो के टमटम पे बैठ जाती है और नागो अपने घोड़े को हांक लेता है।

नागो के मन में भी चिड़िया को लेकर कई सवाल हैं। मन करता है एक दिन उ पिपरी वाला पोखर की सीढी पर बैठाकर पूछे सारे सवाल का जवाब। लेकिन नागो कुछ कहता नहीं है।

नागो कुछ कहता नहीं है। और यही चुप्पापन चिड़िया के कलेजे को चीर देता है। ‘काहे रे माधो एतना काटा काहे उगा रखे हो अपने मन में। तेरे मन में कौनो गुलाब का पंखुरी नहीं है का।’

‘एतना मरद हमरे लिए पागल है त तू कौन से मिट्टी के बने हो हे महादेव।’

‘अरे हम कौन से मांग रहे हैं तुमसे पूरा जिनगी बस अपन आंख के समंदर में हमको डूब जाने द।’

चिड़िया देखती है उसको और बह जाती है। मन में ढेर सारी बातें हैं लेकिन चिड़िया भी कह कहां पाती है। मन बातें करता है लेकिन जुबान कहां। मुंह पे तो जैसे किसी ने लट्ठा लगा दिया हो। लेकिन इ तन और इ मन। चिड़िया क्या करे इस मन का और क्या करे इस शरीर का ।

चिड़िया मन में सोचती है कि कौन सा व्रत कर लें, कौन सा उपवास कर लें या कौन सा मन्नत मांग ले कि इ भोलेबाबा के इ पत्थर जैसा मन में थोड़ा सा प्यार जग जाये। चिड़िया इतनी मुंहफट है कि कोई उसकी तरफ तिरछी निगाह करके भी तो देख ले तो गालियों से उसको नंगा कर दे लेकिन उसकी जुबान यहां उसका साथ छोड़ देती है।

चिड़िया अपने ग्राहकों में व्यस्त रहती है। एगो सिगरेट। एगो गुटखा। कोल्ड ड्रिंक तो चिप्स, कुरकुरे। तभी देखती है नागो का टमटम आके लग गया है। चिड़िया की आंखें फिर उसके वश में कहां रह पाती हंै? चिड़िया कई बार सोचती है आज वह कुछ कहेगी लेकिन हर बार यह पीपल का पेड़ बैरी बन जाता है। चिड़िया बढती है नागो की तरफ और इस पीपल के पत्तों में जंुबिश आ जाती है। उसके पत्तों में एक सरसराहट आ जाती है। सूखे पत्तों से खडखडाहट की आवाज निकलती है। पेड़ पर बैठी सारी मैना एकटक देखने लगती है चिड़िया को और चिड़िया एकदम से घबरा जाती है। चिड़िया जाती है और उसको पानी देकर आ जाती है। या कभी ऐसे ही खाली हाथ। 

नागो उसकी तरफ देखता नहीं है। लेकिन कब तक? यह नजर है कि अब बरबस उस ओर जाने ही लगी। लेकिन जब कभी उसकी तरफ देखती निगाह को देख लेती है चिड़िया, एकदम से सकपका जाता है नागो। मन में सोचता है ‘हे भोलाबाबा, काली नागिन की तरह काहे हमरे मगज में घुसती जा रही है इ।’

चौक के लोग कहते हैं ‘इ चुडै़ल ढूंढ ली है अपना शिकार। नगवा अब जायेगा तेलहंड में।

चुड़ैल एक मकसदे से आती है। इ चौक पे आयी थी जिस मकसद से बस वह पूरा होने ही वाला है। मिल गया उसको अपना शिकार।

और नागो ने सोचा सचमुच की चुड़ैल ही निकली इ चिड़िया।

उस दिन दिन के ढाई बजे के करीब जब नागो तीन बजे की गाड़ी की सवारी लेकर आ रहा था तो मौसम बहुत खराब था। आसमान में काले काले बादल थे। पक्षी अपने घर की तरफ लौट रहे थे। नागो को रास्ते में ही लग रहा था कि कहीं बहुत तेज बारिश ना हो जाये। उसे अपने घोड़े सूरज को लेकर काफी दुख हो रहा था कि वह इसे लेकर आज निकला ही क्यों। लेकिन उसके पास अब कोई रास्ता नहीं था।

उसने टमटम को ज्यों ही स्टेशन पर पहुंचाया बूंदाबूंदी शुरू हो गयी। और फिर संभलने का मौका भी कहां मिला। नागो ने सूरज को बरसाती से ढंकना चाहा। बरसाती को बांधते हुए उसने देखा चिड़िया भी अपनी दुकान को पन्नी से ढंक रही है। लेकिन अचानक से बारिश की बौछार ने नागो को लगभग आधा भिगो दिया। नागो मन्दिर के बरामदे की तरफ दौड़ा। मन्दिर में कई लोग अपना सिर छुपा चुके थे। नागो ने देखा चिड़िया अभी अपनी दुकान को ढंक ही रही है। चिड़िया लगभग भीग चुकी थी। वह सीधी खड़ी हुई और बारिश से छुपने की तलाश में सिर उठाकर देखा। नागो उसको देख रहा था। चिड़िया ने नागो को देखा और एक क्षण को दोनों की निगाहें टकरा गयीं। नागो ने अपनी नजर को दूसरी तरफ मोड़ लिया। चिड़ि़या उसकी तरफ दौड़ पड़ी।

पीपल के पत्तों में आज फिर से जुंबिश आ गयी। परन्तु उसकी आवाज आज बारिश की आवाज में घुल गई। पीपल के पेड़ पर आज एक भी मैना नहीं थी। चिड़िया के मन में जरूर आया कि वह एक बार पीपल के पत्तोें की तरफ देख ले पर बारिश के कारण वह ऐसा कर नहीं पायी। मन्दिर के बरामदे में घुस जाने के बाद वह ऐसा नहीं कर सकती थी क्योंकि पीपल के पेड़ के नीचे ही यह मन्दिर था।

चिड़िया जब उस बरामदे पर पहुंची तो वह बरामदा पूरी तरह भरा हुआ था। नागो आगे की पंक्ति में था। उसके ठीक सामने अगड़ी से पानी की तेज धार बह रही थी।

जब चिड़िया भागती हुई उस तरफ आयी तो उस अगड़ी से गिरने वाले पानी के इस पार वह एक पल को रुकी। नागो ने उसको देखा और वह सकपका गया। और फिर चिड़िया अगड़ी से गिरने वाले उस पानी को परे धकेलते हुए नागो के ठीक सामने घुस गई। नागो ने जबरन अपने को पीछे धकेला और चिड़िया वहां समा गई। पीछे जगह नहीं थी और चाहकर भी नागो कोई खास जगह बना नहीं पाया। अगड़ी से गिरने वाले पानी से बचने के लिए चिड़िया लगभग नागो की देह पर झुक गई। नागो ने अपने को जबरन रोक रखा था नहीं तो वह चिड़िया के वजन से तिरछा हो जाता। चिड़िया ने अपने वजन को लगभग उसके ऊपर छोड़ रखा था।   

नागो के दोनो पैरों के बीच चिड़िया का पैर था और नागो के चेहरे के ठीक सामने थोड़ा नीचे चिड़िया की गरदन। चिड़िया के बाल भीगे हुए थे और उसकी गरदन पर पानी की कुछ बूंदें टिकी हुई थीं। चिड़िया के ब्लाउज से उसकी गरदन और पीठ का कुछ हिस्सा नागो के सामने था। नागो ने देखा चिड़िया के बालों से पानी की बूूंद उसकी गरदन पर गिरकर ब्लाउज के अंदर समा रही थीं। नागो के शरीर में सिहरन सी होने लगी। 

नागो को अचानक से पंडित जगन्नाथ मिश्र की बात याद हो आई। उसे लगा ठीक कहते थे पंडित जी जब तक मरद के जांघ में दम है तब तक मरद मरद है। उसने सोचा ठीक कहते थे पंडित जी औरत ही मरद की असली छांह है। औरत के बिना मरद का कौनो वजूद नहीं है।

उसके पिता कहते थे कबे तक खटिया के दोनों तरफ से उतरोगे बेटा। नागो ने सोचा बाबू भी ठीके कहते थे।

नागो ने उस गरदन की तरफ फिर से देखा वहां अब भी पानी की बूंदें मौजूद थीं। बाहर बारिश अपनी रफ्तार में थी। नागो की निगाह बाहर गिर रही बारिश पर गई। गिरते हुए पानी में बुलबुले बन और फूट रहे थे। नागो के मन में आया अभी और बारिश होगी। नागो मदहोश सा होता जा रहा था। उसे ऐसा लगा कि वह पानी की उस बूंद पर अपने ओंठ रख दे।

नागो ने अपने आप को जज्ब किया। और मन में सोचा सच में इ काली नागिन है। भोले बाबा इ नागिन से तो बचना मुश्किले है।

नागो का मुंह चिड़िया के कान के ठीक पीछे था। और नागो के मुंह से एकबारगी निकल गया ‘भगजोगनी’। चिड़िया ने पीछे मुड़कर देखा। नागो एकदम सकपका गया।






मचान, गुल्लर का पेड़ और विदो बाबू की अनुपस्थिति


विदो बाबू गायब हो गए।

अभी चुनाव का रिजल्ट आये मुश्किल से पंद्रह दिन ही गुजरे होंगे कि यह खबर पूरे गांव में आग की तरह फैल गयी।

गायब हो गए, मतलब? पूरे गांव में जो सुनता उसके मुंह से पहला सवाल उठता। ‘ अरे सार उ कौनो बच्चा हैं कि गायब हो जायेंगे। सुतल-पटायल होंगे यहां वहां कहीं और का।’ परन्तु ऐसा नहीं था। वे सचमुच गायब हो गए थे।

एक-दिन दो-दिन तक तो इंतजार होता रहा फिर पुलिस तक बात पहंुची लेकिन कुछ पता नहीं चला। पुलिस आती रही पूछताछ होती रही लेकिन कोई खास मतलब निकला नहीं।

‘इ तो साला होना ही था।’ जब यह तय हो गया कि विदो बाबू सचमुच में गायब हो गए हैं तब सबसे पहली प्रतिक्रिया लोगों की यही थी। लेकिन आगे बात बढ़ी तो बात में से बात भी निकली। अब इतना बड़ा इलाका है तो कौन सा एक बात ही रह जायेगी। जितने लोग उतनी तरह की बातें।

‘उ जो चिट्ठिया लिख दिये थे ना वही काल बन गया उनके लिए। उ तो चुनाव था तो घुटर यादव खून का घूंट पी के रह गया था लेकिन छोड़ कैसे देता।’ लोग कहते इसे दबी जुबान से थे लेकिन कानाफूसी के मारफत मालूम सबको था।

लेकिन लल्लनमा फाड़ा कसके लड़ने के लिए तैयार हो जाता है। ‘सार इ गांव में एगो कबूतरो उड़ जायेगा तो का उसका दोषी घुटरे दा होंगे। घुटर दा को यह सब करना होता तो बाबू इ चुनाव से पहले ही कर लेते। घुटर दा तो इ खबर सुनके खुदे बहुत दुखी हैं। उ तो खुदे दरोगा को फोन किए हैं कि विदो बाबू को तुरंते ढूंढिये।’

कई तरह की बातें चल रही थीं। किसी ने कहा कि यह चुनाव वाला सदमा वे बरदास्त नहीं कर पाये। जब से रिजल्ट आया है, बहुते उदास थे।

‘अबे सार त उ खुश कब रहते थे उ त उदासे रहते थे। उ त दुर्गा-दिवाली-होलियो में उदासे रहते थे। उससे आगे कुछ है त बताव।’

लेकिन लोगों ने कहा ‘नांय नांय इ बार का उदासी थोड़ा डिफरेंट था। रिजल्ट के बाद उ ज्यादाहि उदास हो गए थे। उदास एतना कि लगा चेहरवे फट जायेगा।’

रिजल्ट के बाद किसी ने उन्हें गांव में घूमते कभी नहीं देखा। उसके बाद वे मचान पर जो चढ़े तो कभी उतरे ही नहीं।

‘खाली दिशा-फरागत के लिए ही उतरे तो उतरे नांय तो चुपचाप वहीं पर बैठे रहते थे।’ बेटे ने पहले लोगों को बतलाया फिर बाद में पुलिस को भी यही बतलाया। कई लोगांे ने भी इस बात की पुष्टि की कि वे वास्तव में मचान पर ही बैठे रहते थे और कभी भी कहीं नहीं जाते थे।

‘नहीं नहीं एक दिन तो मंदिर पर आये थे। वहे दस मिनट के लिए। लेकिन गमछा से अपना मुंह छिपाये हुए थे। दुक्खन से मिले थे। कह रहे थे सांस लेने में तकलीफ हो रही है। कह रहे थे कि ऐसा लग रहा है जैसे सांस के बदले काला धुआं भीतर ले रहे हंै।’ दुक्खन से पूछा गया तो दुक्खन ने सहमति जताई कि हां वे मंदिर पर आये थे और उससे उन्होंने ऐसा कहा भी था।

किसी ने कहा कि वे घुटर यादव के जीतने से इतने आहत थे कि वे बार बार कहते थे कि अब यह जगह रहने लायक नहीं है। वे अपने मन में कुछ कुछ बड़बड़ाते रहते थे। सदमा को बरदास्त नहीं कर पाये थे।

किसी ने कहा दो दिन पहले सुबह सुबह ही जब अंधेरा ठीक से छंटा भी नहीं था तब वे उधर स्टेशन की तरफ जाते दिखे थे। लोगों ने पूछा, कन्फर्म हो कि वही थे तो वह बताने वाला पीछे हट गया। ‘लग तो ऐसे ही रहा था लेकिन अंधेरा था तो बढिया से देख नहीं पाये।’

बेटे ने कहा ‘रात को खाना खाके सोये थे भोरे जब बहुत देर तक नहीं उठे तो लगा कुछ हो तो नहीं गया फिर मचान पे चढके देखे तो हइये नहीं थे। सोचे कहीं गए होंगे लेकिन तब से लौटे ही नहीं।’

बेटे ने सफाई दी तो लोगों ने एक शक यह भी जाहिर किया कि कहीं बेटों ने ही तो नहीं मार दिया। ‘बहुते परेशान रहता था उनसे। घुटर यादव से कुछ चाहिए तो बिना विदो बाबू के हटाये तो संभव था नहीं। बस सारों ने कर दिया काम तमाम।’

‘इ घटना में पूरा परिवार साथ है इसलिए देखते नहीं हो कि कैसे सब एक सुर में बात कर रहा है। अरे कहीं गायब हो गए या कोई कुछ कर दिया तो तुम लोगों को पता कैसे नहीं चला।’

‘नहीं नहीं आज तक इ गांव में तो ऐसा कभी नहीं हुआ। अरे कोई भी कितना भी परेशान क्यों ना हो लेकिन एतना अनर्थ नहीं हो सकता है। अरे झगड़ा झंझट कौन सा घर में नहीं होता है, इसका मतलब इ थोड़े ना है कि एतना बड़ा अनर्थ हो जायेगा।’

‘भैया अब वह जमाना नहीं रहा। सब बदल गया। इ दुनिया अब वह दुनिया नांय रहा जहां सुकून से लोग रहते थे। अब बहुते अविश्वास है इ दुनिया में।’

फुलो बाबू को पता चला तो बोले ‘अरे ये तो कुछ भी नहीं है इ सालों ने तो सफदर हाशमी को दिन दहाड़े मार दिया था। जो भी आवाज उठायेगा वह मारा ही जायेगा। सवाल यह है ही नहीं कि किसने मारा, किसने गायब किया, कब मारा, कब गायब हुआ। सवाल इ सब नहीं है। बस जो बोलेगा वह ऐसे ही गायब हो जायेगा। और जो करता है उसका कोई शक्ल थोड़े ना होता है। बिना शक्ल के लोग हैं। अब भैया शक्ले नांय है तो पकड़ोगे किसको। सालांे पूछोगे किसको।’ आहत थे फूलो बाबू तो काफी लम्बा बोल गए बिना इस बात की चिंता किए कि लोगों को क्या समझ में आया होगा। इतना लम्बा बोलने से या फिर दुख से उन्हें खांसी आ गयी। वे खांसने लगे और इसी बीच लोग यह सोचने लगे कि इ सफदर कौन था। और किसने मारा था उ सफदरवा को।

‘घनघोर पाप है यह। बस यही होना बाकी था। अब कौन सा मुंह दिखाएगा इ गांव का लोग।’

जब से विदो बाबू गायब हुए हैं पूरे इलाके में यही खबर चल रही है। मुंह खोलकर कोई कुछ नहीं कहता लेकिन अपनी ओर से अंदाज लगाने की कोशिश सब कर रहे हैं। हां यह जरूर है कि पूरे गांव में एक उदासी का माहौल छा गया है। कम से कम एक महीना तक मन्दिर में कीर्तन मंडली नहीं बैठी। इकट्ठे होते तो बस यही चर्चा चल निकलती। लेकिन इंसान हैं तो अवसाद में कब तक रह सकते। कहीं न कहीं तो दिल लगाना ही था।

नागो यह जानकर बहुत दुखी हुआ कि विदो बाबू कहीं गायब हो गए हैं। नागो विदो बाबू को बहुत पसंद करता था। वह इस बात को जानता था कि विदो बाबू ने घुटर यादव का बहुत विरोध किया था तो वह भी इस घटना को इस चुनाव से जोड़ के ही देख रहा था। घुटर यादव ऐसा कर भी सकता है ऐसा सोच कर भी नागो को अपने ऊपर बहुत शर्म आ रही थी कि उसने भी घुटर यादव को जिताने में साथ दिया था।

घोड़ा, वोट देने का अधिकार और बारिश की बूंदें


‘लिखना आता है जी।’ जब उस सरकारी मुलाजिम ने रजिस्टर को आगे करके पूछा तो नागो को अपने ऊपर गर्व हो गया। उसे अपने पिता पर गर्व हुआ जिन्होंने अपने सारे बच्चों को कम से कम उस क्लास तक तो पढ़वाया ही जिस क्लास तक का स्कूल गांव में मौजूद था। नागो ने गर्व से सिर को हां में झुकाया तो उस सरकारी मुलाजिम ने रजिस्टर को उसकी ओर घुमा दिया। नागो ने अगंूठा लगाने वाली स्याही को खिसका कर कलम उठा लिया।

‘अपना नाम पता के साथ विस्तार से अपनी समस्या लिखिये। और आपका नम्बर है 96। इसे भर करके आप जाके बैठिये वहां जाकर, जब आपका नाम पुकारा जायेगा तब आइयेगा।’

नागो रजिस्टर को अपनी ओर घुमाकर अपनी नजर को चारों तरफ घुमाता है। यहां बहुत शोर है। एक शामियाना लगा हुआ है। प्लास्टिक की ढेर सारी कुर्सियां रखी हुई हैं। लेकिन फिर भी आदमी इन कुर्सियों की तुलना में लगभग तिगुना हंै। यह कुर्सी टेबुल बरामदे पर रखी हुई हंै जिसके सामने अभी नागो खड़ा था। उस कुर्सी पर वह सरकारी कर्मचारी बैठा था। इस बरामदे के पीछे एक बड़ा सा हाॅल है। उसमें भी कुछ कुर्सियां रखी हुई हैं। एक बड़ा सा टेबुल और एक कुर्सी हाॅल के मुख्य जगह पर रखा हुआ है। उस कुर्सी पर एक सफेद मेजपोश है और उसपर एक गुलदस्ता रखा हुआ। अभी उस कुर्सी पर मुख्यमंत्री बैठे नहीं थे। इस कुर्सी टेबुल के साथ एक और कुर्सी टेबुल रखा हुआ था जिसपर एक कम्प्यूटर रखा था। उस कुर्सी पर एक लड़का बैठा था और उस कम्प्यूटर पर कुछ कर रहा था।

‘ओ महाशय ऐतना टाइम नहीं है। नजारा बाद में देख लीजिएगा पहले यहां अपना ब्याह के लिए डिटेल भर दीजिए।’ नागो ने देखा कि उस सरकारी कर्मचारी के मुंह में पान है और वह उससे गिरने गिरने को है। उसने बहुत ही कलाकारी से उसे संभाल रखा था।

‘अरे हटो हो कुछ समस्ये नहीं है तो काहेल आ जाते हैं यहां पर।’ यह आवाज पीछे से आयी। नागो ने पीछे पलटकर देखा। अरे बाप रे इतनी लम्बी लाइन कब बन गई।

‘समस्या कैसे नहीं है। बहुते विकराल समस्या है। उ वहां खड़े खड़े मरा जा रहा है और आप कहते हैं समस्ये नहीं है।’ नागो ने अपने हद तक इतनी तेज बोला था कि वहां खड़े लोगों को सुनाई पड़ जाये लेकिन वहां शोर बहुत था और सारे लोग इस जनता दरबार में अपनी समस्या के साथ थे इसलिए किसी की रुचि भी नहीं थी उसे सुनने में।

नागो ने कलम से उस रजिस्टर को भरना शुरू कर दिया। नाम पता के साथ समस्या पर लिखा- ‘सूरज के पास कामे नहीं है। उ खड़े खड़े मर रहा है। नांय काम है, नांय खाना। क्या करें हम उसका, हमारी समझ में नहीं आता।’

नागो रजिस्टर पर अपनी समस्या लिखकर आकर बैठ गया। कुर्सी कोई खाली नहीं थी। वह नीचे जमीन पर बैठा। बाहर बारिश जैसा मौसम था। रोशनी कम हो गई थी। बहुत सारी औरतें घूंघट ओढ़े वहां बैठी थीं। छोटे छोटे बच्चे उन घूंघट काढ़े औरतों के शरीर से चिपके हुए थे। वे रो रहे थे और पूरे माहौल में एक चिल्ल पों मची हुई थी। लोग जो वहां मौजूद थे उनमें से कुर्सियों पर बहुत सारे बूढ़े बैठे हुए थे। बहुत सारे ऐसे लोग जो अब जवान रहे नहीं और अभी बूढ़े हुए नहीं हैं वे या तो जमीन पर बैठे थे या फिर वे इधर उधर खड़े थे। जो शामियाने के अंदर बैठे थे उनमें से बहुत सारे लोग उस दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए थे जिधर वह बड़ा सा हाॅल था और जहां मुख्यमंत्री बैठने वाले थे। बहुत सारे लोग जो उस दरवाजे पर टकटकी लगाए बैठे थे वे बीच में कभी कभी अपना सिर उपर उठाकर आसमान की ओर देख लेते थे। लेकन ऊपर आसमान नहीं शामियाना था ऐसा उन्हें हर बार अहसास होता होगा लेकिन थोड़ी थोड़ी देर पर ऐसा बहुत से लोग करते ही रहे।

जब मुख्यमंत्री आकर बैठे और लोगों को अंदर बुलाया जाने लगा तब यह चिल्लपों वाला शोर फुसफुसाहट में बदल गया। लोग आपस में अपनी समस्याओं पर विचार करने लगे कि उसे मुख्यमंत्री के सामने किस तरह रखा जाना चाहिए। तभी एक चपरासीनुमा आदमी ने नागो का नाम पुकारा। नागो को उम्मीद नहीं थी उसका नम्बर इतनी जल्दी आ जायेगा। वह उठा और उस व्यक्ति के पीछे चल दिया। वह आदमी उसे मुख्यमंत्री के पास नहीं बल्कि फिर से उस टेबुल के पास ले आया जहां नागो ने रजिस्टर में अपने बारे में सारी जानकारियां लिखी थीं। नागो ने देखा अब उस टेबुल के पास बिल्कुल भी भीड़ नहीं थी। वह आदमी जो उस समय बहुत व्यस्त था अब वह वहां खाली बैठा हुआ रजिस्टर का निरीक्षण कर रहा था।

‘कवि महोदय यहां इ कविता काहे लिखे हैं। अपनी समस्या लिखनी थी कविता नहीं।’ नागो इस बार सचमुच उसकी बात को समझ नहीं पाया था। उसने बहुत ही आश्चर्य से उस सरकारी मुलाजिम की ओर देखा। उस आदमी के मुंह में अब पान नहीं था। और वह अब साफ साफ बात कर पा रहा था।

‘और यहां बेरोजगारी का हल नहीं निकलता है। रोजगार नहीं है, काम नहीं है त इस समस्या का हल अगर मुख्यमंत्री साहब निकालने लगे फिर तो पूरा राज्य अगले जनता दरबार में यहीं खड़ा दिखेगा। किसको किसको नौकरी देते फिरेंगे। अरे नौकरी तो हर को चाहिए। कोई और समस्या है तो लिखिए। नहीं तो यहां से उत्तर दिशा का टेªन पकड़ लीजिए।’ उस कर्मचारी ने उत्तर दिशा का ही ट्रेन क्यों बोला नागो समझ नहीं पाया। नागो ने सोचा हो सकता है यह गुस्से में बोला गया उसका तकियाकलाम हो।

‘अरे कैसन बात कर रहे हैं वहां उ बिना काम धाम के मरने की हालत पे आ गया है और आप कहते हैं कि सरकार हमारा बात ही नहीं सुनेंगे। इ लोकतंत्र है हमारा बात तो उनको सुनना ही पड़ेगा।’ नागो की आवाज में तल्खी आ गई और उसकी आवाज थोड़ी ऊंची हो गई।

‘अच्छा सुनना ही पड़ेगा! बराती बुलाएं आपको ले जाने के लिए यहां से या आप ऐसे ही चले जायेंगे।’ उस सरकारी मुलाजिम ने इसे बहुत ही सामान्य रूप से बोला इससे ऐसा लगा जैसे इस तरह की समस्या से वह अक्सर निपटता ही रहा है। उसने ऐसा कहते हुए अपनी निगाह उस बरामदे से बाहर उसी अहाते में खड़ी पुलिस पर जमा ली।

नागो पुलिस के नाम से नहीं इस बात से डर गया कि उसे बिना अपनी समस्या को रखे यहां से जाने को कहा जा रहा है। नागो का गुस्सा एकदम से झड़ गया और उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। उसने हाथ जोड़ लिए।

‘ऐसा जुलुम मत कीजिए साहब आप नहीं जानते हम केतना कष्ट में हैं। एक बार प्रयास तो कर लेने दीजिए। आपका बहुते एहसान होगा। नहीं तो उ मर जायेगा।’

वैसे तो इस तरह के जितने भी अवसर आए होंगे उनमें एक-दो को ही उस सरकारी मुलाजिम ने बख्शा होगा और शायद नागो उन्हीं एक-दो में से था।

‘चल चल समस्या को कुछ और लिख दे। इ समस्या के साथ तो तू नहीं जा पायेगा वहां तक। वहां जाके साहब को अपनी समस्या कह लेना, बाद बाकी तुम्हारी किस्मत।’ अभी तक वह नागो को आप कह रहा था लेकिन अब वह तुम पर उतर आया था।

नागो को अजीब लगा लेकिन वह शांत रहा।

‘यहां लिख दो लइका का तबीयत खराब है। और इलाज के लिए पैसा नहीं है।’

‘बताओ लइका का उमर कितना है?’ उस आदमी ने नागो को कहा तो नागो कुछ समझ नहीं पाया। वह चुप्प होकर उस बात को समझने की कोशिश करने लगा।

‘अरे बेटवा का उमर बताओगे तभी तो कुछ बिमारी सोच के लिखेंगे महोदय।’

‘अरे साहेब उ मेरा बेटवा नहीं है उ त हमरा घोड़ा है।’ वहां पर उस सरकारी कर्मचारी के साथ जो दो-तीन लोग थे सब भौचक रह गए थे।

‘मतलब?’

‘हां साहब उ तो हमरा घोड़ा है जो हमारे साथ ही रहता है।’ अब उन तीनों-चारों लोगों के मन में इस कहानी को जान लेने के लिए जिज्ञासा सी जग गई।

नागो ने अपनी सीमा तक पूरी कहानी को संक्षेप में सुनाया कि किस तरह उस घोड़े ने वर्षों तक उसके परिवार का पेट पाला है और कैसे एक दिन वहां चुनाव से ठीक पहले सड़क बननी शुरू हुई और कैसे सड़क बनते ही वहां ई रिक्शा चलने लगे और कैसे सारे घोड़े बेकार हो गए। और कैसे अब उसके घर की हालत बहुत ही जर्जर है। कैसे वह उस घोड़े को खाना नहीं खिला पाता। कैसे वह उसका इलाज नहीं करवा पाता, कैसे वह एक झोपड़ी के नीचे पड़े-पड़े गलता चला जा रहा है।

नागो ने जब इन घटनाओं को सुनाना शुरू किया था तब उसने अपने मन में सोचा था कि बहुत संक्षेप में वह सुना कर निकल लेगा लेकिन जब उसने देखा कि सारे लोग उसमें रुचि ले रहे हैं तब उसने उसे थोड़ा विस्तार दे दिया था। वह सुना रहा था और और वे तीनों लोग बहुत ध्यान से उसे सुन रहे थे। नागो को लगा कि उसकी समस्या उन लोगों को समझ में आ गयी है।

तभी हुआ इसका ठीक उलटा। वह सरकारी मुलाजिम जो बहुत ध्यान से सुन रहा था, इस कहानी के खत्म होने के बाद थोड़ी देर तक शांत रहा। फिर अचानक लगभग चिल्लाते हुए कहा ‘सार भाग यहां से। घोड़ा, बकरी, गदहा, सांप, छुछुन्दर की बात सुना रहा है। हमको का सार चूतिया समझ रखे हो। यहां चीफ मिनिस्टर बैठे हैं तुमरा सांप छुछुन्दर की कहानी सुनने।’

‘छुछुन्दर नहीं उ घोड़ा है। और उ का इ राज्य में नहीं रहता?’ नागो ने पहले वाक्य में जबाव था और दूसरे में प्रश्न।

‘रहता है तो का करें। उ वोट तो नहीं न देता है। पहले उसका वोट देने का नियम बनवा लीजिए धर्मराज महराज फिर ले आइयेगा अपने अश्व को। तब तक के लिए अपनी तशरीफ को यहां से ले जाइये।’

‘अब उ मर रहा है त हम कहां जाएं।’

‘आप भगवान विष्णु के पास जाइये वही आपका समाधान निकालेंगे।’ ऐसा कहकर वह सरकारी मुलाजिम अपने फाइल को समेट कर वहां से चलता बना। उसने नागो को डांटते हुए उसे भगवान विष्णु के पास ही जाने को क्यों कहा नागो यह भी समझ नहीं पाया। परन्तु नागो के पास अब कोई उपाय बचा नहीं रह पाया था। कोई उम्मीद नहीं देखकर नागो एकदम हताश हो गया।

नागो ने बाहर देखा अंधेरा और घना हो गया था कुछ बूंदें भी गिरने लगी थीं। उसके पेट में मरोड़ उठा। दर्द की एक लहर। उसने अपने पेट को पकड़ लिया और शामियाने से बाहर नीचे जमीन पर बैठ गया। बारिश की बूंदें उसके शरीर पर गिर रही थीं।

एक अंधेरा कोना, कुछ सामान और कुछ जब्त आवाज़ें 


नागो को वह जगह, वह बूढ़ा, वे सामान सब बहुत रहस्यमय लग रहे थे। वह मुंह से भले ही कुछ नहीं कह रहा हो लेकिन वह अंदर से बहुत घबरा रहा था। वह रहस्यमय बूढ़ा उसके साथ था जिसके कारण उसे कुछ हिम्मत बंध रही थी लेकिन उसी बूढ़े के कारण उसे डर भी लग रहा था।

वह बूढ़ा चलते चलते फिर रुक गया था और उसके साथ नागो भी। नागो रुका और उस बूढ़े को देखने लगा। उस बूढ़े ने अपने हाथ के इशारे से अपनी बांयी तरफ इशारा किया। उस बूढ़े की सांस शायद खत्म हो गयी थी इसलिए उसने अपने मुंह से कुछ नहीं निकाला, सिर्फ इशारा ही किया। नागो ने उन पायों के पीछे देखा वहां कुछ अजीब अजीब से जानवर थे। ऐसे जानवर जिन्हें नागो ने अपनी आंखों से कभी देखा नहीं था। सारे जानवर वहां सुस्त पड़े हुए थे। वह आगे बढ़ा और भांैचक रह गया। वहीं उसका सूरज बैठा हुआ था। उसने अपने सूरज को पहचान लिया था।

नागो सूरज के पास गया लेकिन सूरज बिना हिले-डुले शांत बैठा हुआ रहा। नागो ने देखा घोड़ा एक महीने में ही कंकाल सा हो गया था। उसका चेहरा काला पड़ गया था। उसकी आंखें धंस गयी थीं। वह बैठा हुआ था और उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि उसमें उठने की क्षमता ही नहीं है। उसके वे बाल जिसपर नागो कभी एक भी गंदगी तक बैठने नहीं देता था वे झड़ रहे थे। नागो ने उसे देखा और विचलित हो गया। उसने उस घोड़े को प्यार करना चाहा लेकिन उस घोड़े को देखकर सचमुच में उसे प्यार नहीं आया। सूरज ने भी नागो को देखा लेकिन शायद उसकी पहचानने की शक्ति बिल्कुल खत्म हो गयी थी। इसलिए उसके चेहरे में कोई बदलाव नहीं आया। सूरज ने नागो को देखकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो नागो का कलेजा एकदम फट गया। वह अभी चिंतित खड़ा ही था कि वह बूढ़ा पीछे से आया और ठीक उसके कान के पीछे आकर कहा ‘देखो तुम्हारा घोड़ा यहां कितना सुरक्षित है।’

नागो ने सुरक्षित शब्द को सुना और तिलमिला गया। उसके मुंह से अचानक निकला ‘उसे शायद प्यास लगी है।’ और फिर वह चुप हो गया।

‘प्याऽऽस!’ इस शब्द को उस बूढ़े ने लम्बा खींच कर रहस्यमय बना दिया।

फिर नागो की शक्ल को देखकर कहा ‘लगता है कि तुम खुश नहीं हो।’ फिर थोड़ी देर चुप रह कर वहा बोला ‘वैसे सही मायने में देखा जाए तो खुश तो मैं भी नहीं हूं।’

नागो फिर भी चुप रहा।

‘तो तुम्हें क्या लगा था कि तुम्हारे घोड़े को प्रधानमंत्री अपनी शाही सवारी में लगायेंगे।’ जब बूढ़े ने ऐसा कहा तो अचानक नागो को पंडित मिश्र की याद आ गयी। उसे याद आया कि पंडित मिश्र ने भी ठीक यही बात उससे कही थी। नागो ने सोचा काश उसने पंडित मिश्र की बात मान ली होती।

नागो को पंडित मिश्र की याद आयी तो अचानक अपने गांव, अपने मां-पिता और सबसे अधिक चिड़िया की याद आयी। चिड़िया की याद आयी तो अचानक उसके मन में आया कि पता नहीं इस वक्त चिड़िया क्या कर रही होगी। जब मन में यह आया कि पता नहीं वह क्या कर रही होगी तो उसने सोचा इस समय दिन का कौन सा पहर है। उसने छत की तरफ देखा लेकिन उसे कुछ समझ नहीं आया कि अभी दिन का कौन सा पहर है।

खैर अपनी उदासी के साथ फिर से उस बूढ़े की तरफ लौटा। वह उदास था तो बूढ़ा उसकी तरफ देख रहा था।

‘तुमने सरकार से कुछ ज्यादा उम्मीदें पाल नहीं रखी है?’ बूढ़े ने ऐसा कहा और हंसने लगा। नागो उदास था और भीतर से बहुत खिन्नाया हुआ था उसका मन किया कि वह धक्का देकर उस बूढ़े को नीचे गिरा दे। नागो ने उस बूढ़े की तरफ देखा। और देखा नहीं उसकी तरफ वह  बढ़ा भी फिर अचानक उसकी निगाह बूढ़े पर गयी और वह सहम गया। बेहद कमजोर और बेहद लाचार सा वह बूढ़ा उसके सामने खड़ा था। नागो एकाएक पीछे हट गया। उस बूढ़े ने कुछ नहीं समझा और ना ही वह जान पाया कि नागो उदास है और गुस्से में है। वह बूढ़ा एमदम सामान्य था और उसके सामने खड़ा था।

नागो एकदम से घबराकर उन जानवरों के बीच से बाहर आ गया और एक पाये के साथ खड़ा हो गया। नागो ने कुछ बोलना चाहा तो उस समय वह बूढ़ा लम्बी सांस लेने लगा इसलिए नागो कुछ सैकेण्ड के लिए चुप हो गया। फिर नागो ने कहा, ‘लेकिन सरकार से हमारा शर्त हुआ था घोड़ा को बढिया से रखने का।’

‘सरकााााार!’ बूढ़े ने इस शब्द को भी थोड़ा लम्बा खींचा और इसे भी रहस्यमय बना दिया।

‘बहुत बड़ा देश है। सरकार वायदे भूल जाती है।’ यह बनिस्पत थोड़ा धीरे से बोला गया वाक्य था लेकिन इतना ही धीरे जितने में नागो सुन जरूर ले। नागो अब शांत हो गया था उसे अचानक से लगने लगा था कि जिस बूढ़े पर वह इस कदर गुस्सा रहा था वह भी एक सताया हुआ इंसान ही है।

नागो दीवार से पीठ लगा कर पहले खड़ा था अब उसी दीवार से अपने शरीर को घसीटते हुए वह नीचे बैठ गया। वह बूढ़ा पहले खड़ा रहा फिर वह भी बैठ गया। वैसे वहां इतनी बदबू थी कि बैठना संभव नहीं था लेकिन उस समय नागो इतना दुखी था कि उसे कुछ पता नहीं चल रहा था।

‘इ कहां आ गए हैं हम? इ कौन जगह है?’ नागो बार बार कोशिश कर रहा था कि वह टूटी फूटी ही सही लेकिन हिन्दी बोले ताकि उसकी बात वह बूढ़ा आसानी से समझ जाए।

‘मुझे कैसे पता होगा कि यह कौन सी जगह है, मैं तो बस यहां इन सभी चीजों की देखभाल करता हूं। जैसे मुझे यह तक नहीं मालूम है कि मैं यहां कहां से लाया जाता हूं और कहां मैं चला जाता हूं। लेकिन यहां मैं हूं तो यहां मेरे साथ चमगादड़ भी तो हैं, कुछ आवाजें भी तो हैं।’ वह बूढ़ा ऐसा कहकर थोड़ी देर चुप रहा फिर बोला ‘तुमको मालूम है सूर्य को मैंने सिर्फ बचपन में एक बार देखा था। क्या पता अब बाहर वह है भी या नहीं।’

नागो सुनता रहा, तब बूढ़े ने कहा-

‘बस इतना समझो कि सरकार को इस इतने बड़े देश को आरामदायक रूप से चलाने के लिए ऐसे गुप्त स्थान बनाने पड़ते हैं। और ऐसी जगहें कोई एक नहीं होती हैं। पता नहीं इस देश में ऐसी कितनी जगहें सरकार ने निर्माण कर रखी होंगी।’

‘सरकार आगे की तरफ बढती है और उस आगे बढने के रास्ते में जो भी आता है उसे रौंदना सरकार का कर्तव्य है। अब लोकतंत्र में हमेशा क्रूरतम तरीके से रौंदना संभव नहीं है इसलिए सरकार उन्हें ओझल कर देती हैं। अब वह कोई चुका हुआ सामान हो, कोई कला, कोई शब्द या फिर कोई आदमी।’

‘तुम चाहो तो इसे सरकार का एक अंधेरा कोना कह सकते हो। एक ऐसा अंधेरा कोना जहां कुछ भी उपयोगी नहीं है या कह लो कि वे यहां रखे हुए हैं यही उनका उपयोग है। ऐसा नहीं है कि सरकार उन्हें सीधे सीधे नष्ट करना चाहती है। ऐसा भी नहीं है कि सरकार उनका सम्मान नहीं करती है। बस उनका अंदाज अपना है। जितनी भी चीजें यहां रखीं हैं वे यहां सुरक्षित ही तो हैं।’

‘यहां वे सामान हैं जिनसे हमने कभी न कभी बहुत अधिक मोहब्बत की होगी और जो अब हमारे इस्तेमाल की नहीं हैं। हम जिसे बहुत मोहब्बत करें और एक समय के बाद अगर वह हमारे उपयोग की ना रहे तो उसको अपने हाथों से नष्ट करना कितना मुश्किल है यह तो तुम भी जानते ही होगे। यह बेतरतीब सी बनी जगह हमें उस अपराधबोध से बचाती है।’ वह बूढ़ा बोल रहा था और नागो चुपचाप सुन रहा था। नागो जमीन की तरफ अपनी आंखें गड़ाए हुए था। बूढ़ा इतना बोलकर सांसों को अपने भीतर भरने लगा। वह अभी सांस को पूरा भर भी नहीं पाया था कि बीच में ही उस सांसों के क्रम को तोड़कर धीरे से बोल पड़ा।

‘मोहब्बत तो समझते हो तुम?’ बूढ़ा फिर सांस इकट्ठा करने लगा। सांसों को इकट्ठा करके वह उससे बाहर निकला और नागो के चेहरे की तरफ देखते हुए एक लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा ‘मोहब्बत कौन नहीं करता। तुमने भी तो किसी न किसी से मोहब्बत की ही होगी। अब यह घोड़ा भी तो तुम्हारी मोहब्बत ही है जिसके लिए तुम आज यहां खड़े हो।’

फिर अचानक वह बूढ़ा घुटन महसूस करने लगा और खड़ा हो गया और आह भरते हुए कहा ‘पता नहीं मैं फिर सूरज की रोशनी कब देख पाउंगा।’ नागो को जब लगा कि अब उठना पड़ेगा तो वह बूढ़ा फिर से बैठ गया और इस बार उसके शरीर में थोड़ी फुर्ती थी। शायद अभी अभी सांसों को इकट्ठा करने के कारण ऐसा हुआ था।

‘यह मोहब्बत भी अजीब चीज है। हरेक की मोहब्बत अलग अलग है। कोई अपनी पत्नी से मोहब्बत करता है कोई अपनी प्रेमिका से। कोई सत्ता से, कोई आंसू से, कोई नशे से और कोई अपनी कुर्सी के नशे से, तो कोई अपने विचार से।’

‘इसलिए चाहे तुम इसे पागलघर कह लो, कूड़ा घर कह लो, अंधेरा कोना या फिर सरकार चलाने के अन्य अनेक क्रूरतम तरीकों में से एक। इस तर्ज पर यहां वह सब कुछ मिल सकता है जिससे या तो तुम बहुत मोहब्बत करते हो या फिर यह सत्ता जिससे बहुत नफरत करती हो। जैसे हवा, पानी, आग, लोहे का कोई टुकड़ा, कोई पत्थर, कोई औजार, कोई मशीन या फिर आंसू या कोई शब्द।’

अचानक वह बूढ़ा उठा और फुर्ती से एक किनारे गया जहां ढेर सारे इलैक्ट्रिक सामान बिखरे पड़े थे। वह उस ढेर में कुछ ढूंढने लगा। नागो वहीं से बैठा उसे देखता रहा। वह बूढ़ा वहां से एक छोटी सी मशीन उठा लाया। बिल्कुल छोटे वाले मोबाइल के आकार का। और नागो को दिखाते हुए कहा ‘इसे पहचानते हो।’ नागो ने देखा उसमें एक छोटी सी स्क्रीन थी। उसका रंग काला था और उसमें सामने एक दो छोटे छोटे बटन थे।

नागो ने नहीं में सिर हिलाया तो उस बूढ़े ने कहा ‘अब कोई क्यों इसे जानेगा। एक समय था जब यह इस समाज की रानी थी। लोगों को इसने दीवाना बना रखा था। लोग अपनी प्रेमिका के लिए अपने दिल के भीतरी कोने में जो सोचते थे वह उसकी प्रेमिका तक पहुंचाने का यह एक सशक्त माध्यम था। प्रेमी अपनी प्रेमिका को कहता था तुम मेरी पुरबइया हो और प्रेमिका तुरंत उसी पुरबइया में उड़ जाती थी।’

उस बूढ़े ने उस औजार को उसी ढेर की तरफ फेंकते हुए कहा ‘अब कोई नहीं पूछता इसे, तो यह यहां कूड़े के ढेर में पड़ा है।’

‘अब तुम अपने आप को ही देखो क्या करते अपने टमटम का और टमटम में जुते इस घोड़े का। तुमने इससे मोहब्बत की थी इसलिए तुम इसे अपने हाथों नष्ट कैसे करते। लेकिन सोचो यह वही घोड़ा है जिसपर बैठा आदमी एक समय में इस समाज का सबसे बड़ा नायक हुआ करता था। आज तुम इस घोड़े को लेकर शर्म में गड़ते चले जा रहे थे। तब फिर इसी कबाड़खाने ने तो उस शर्म से तुम्हें उबारा है। सरकार विकास चाहती है तो इस टमटम, घोड़े और कुल मिलाकर तुम जैसे आदमी को कुर्बानी देनी ही होगी।’

लम्बा भाषण देकर चुप होकर उस बूढ़े ने अपने चेहरे का रंग अचानक बदल लिया और अपने चेहरे पर थोड़ा बचपना लाकर कहा ‘बाहर बारिश की बूंदे भी छोटी हो गयी हैं क्या? क्या बारिश में खड़े होकर लोग अभी भी भीगते हैं या नहीं?’

नागो ने ऐसा रहस्यमय व्यक्ति कभी देखा नहीं था। उसे वह बूढ़ा पागल नहीं रहस्यमय लग रहा था। नागो का दिमाग चकरा गया था। बदबू से उसके सिर में तेज दर्द हो रहा था। उसके पेट में मरोड़ हो रहा था। लग रहा था उसके पेट में जैसे कोई चकरी चल रही हो।

‘केतना बड़ा है इ आपका कबाड़खाना?’ नागो ने अपने सिर को ऊंचा करके पीछे की ओर देखना चाहा।

‘अब मुझे क्या मालूम। मैंने कौन सा देखा है। होने को तो यह बहुत बड़ा हो और होने को यह उस पाये के बाद खत्म हो जाए। मैंने कभी इसका अंत देखा नहीं है। और अगर मैंने इसका अंत देखा भी होगा तो मुझे अब याद नहीं है। और अगर मुझे याद भी होगा तो तुमको यह पूछने का अधिकार भी किसने दिया। हो गया तुमने देख लिया अब अपने घोड़े को अब तुम जा सकते हो।’ नागो को वह बूढ़ा खिझा हुआ सा लगा।

नागो को ऐसा लगा जैसे शायद वह बूढ़ा अपने इस लम्बे लेक्चर पर उसकी सहमति चाहता था या फिर उससे भी कुछ और ज्यादा उस लम्बे भाषण के लिए अपनी तारीफ। नागो चुप था इसलिए शायद वह बूढ़ा खीझ गया था। लेकिन वह बूढ़ा था ही अजीब उसे नागो से कोई अपेक्षा भी नहीं थी।

नागो उठा और चलने को हुआ तो बूढ़ा फिर अपने आप ही बोला,  ‘ये आवाजें सुन रहे हो तुम। कैसी लगती हैं तुम्हें ये आवाजें।’ अब वह बूढ़ा एकदम सामान्य था।

नागो तब से आवाजें वहां सुन तो रहा था जिसमें उसे लग रहा था कि कई आवाजें घुली हुई थीं। चूहा, चमगादड़, मशीनें, और कुछ मनुष्य की आवाजें, कुछ रोना, कुछ आंसू, पानी की टपटप, कुछ थोड़े से शब्दों के आपस में टकराने की आवाजें। लेकिन सब कुछ गड्डमड्ड, कुछ भी स्पष्ट नहीं।

‘मैं इन आवाजों का दीवाना हूं। मैं अक्सर यहीं आकर सो जाता हूं। इन आवाजों के बीच मुझे सोने में बहुत आनन्द आता है।’

‘इन आवाजों में क्या मनुष्यों की भी आवाजें हैं?’

‘नहीं! यहां मनुष्य तो हैं लेकिन उन्हें आवाज निकालने की आजादी नहीं है।’ बूढ़े ने बहुत ही नाटकीय अंदाज में अपने मुंह पर उंगली रखकर कहा।

‘ऊपर और इन दीवारों पर रखीं जो ये पोटलियां तुम देख रहे हो ये इनकी आवाजें ही तो हैं।’

नागो यह सुनकर एकदम सहम गया और दीवार में सट गया।

‘डरो नहीं ये आवाजें यहां आराम से सो रही हैं। तुम्हारी स्मृति में बहुत सी आवाजें नहीं रह पायें इसलिए उन्हें यहां कैद कर लिया गया है। तुम अपनी स्मृति में से उन आवाजों को निकाल ना लो इसलिए उन आवाजों को यहां रख लिया गया है। तुम्हारी स्मृतियों को रोज नई नई आवाजों से भर दिया गया है। कोई भी सरकार यह नहीं चाहती है कि तुम अपनी स्मृतियों को याद रखो इसलिए उन्हें वहां से हटा कर यहां रख दिया जाता है। तुम्हारी स्मृतियां खाली नहीं रहें इसलिए बहुत सारी आवाजों को उसके बदले वहां रख दिया जाता है। तुम्हीं सोचो अब तुम्हें कहां याद होगा कि तुमसे जिंदा रहने के लिए सांसें देने का वायदा किया गया था।’

‘तुम्हें याद नहीं है कि तुमसे क्या क्या वायदे किए गए थे लेकिन वे सारे वायदे यहां कैद हैं।’

वह बूढ़ा उठ कर नागो के सामने खड़ा हो गया और उसके बहुत पास आ गया, एकदम उसके चेहरे के पास और कहा ‘जानते हो तुम्हारे पास जो एक चीज है जो और सरकार के लिए सबसे खतरनाक है वह क्या है?’ बूढ़ा एक मिनट चुप रहा और नागो उसकी तरफ देखता रहा। वह बूढ़ा उसके इतना नजदीक खड़ा था कि उसकी सांसों की आवाज नागो सुन पा रहा था।

‘तुम्हारी स्मृति।’ वह बूढ़ा ऐसा कहते हुए जोर से हंसने लगा।

‘जब तक तुम्हारे पास तुम्हारी स्मृति है तुम खतरनाक हो, इसलिए तो..................।’ वह बूढ़ा इस वाक्य को अधूरा ही छोड़कर फिर से हंसने लगा। हंसते हुए वह चारो तरफ घूम गया।

थोड़ी देर तक शांति रही। दोनों चुप थे। बूढ़ा उसको एकटक घूरे जा रहा था। फिर वह वापस जिधर से आया था, बिना नागो की परवाह किए, वापस उधर चलना शुरू कर दिया। नागो के पास कोई और उपाय नहीं था। उसने एक बार कोशिश की कि उस जगह का अंत वह देख सके लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद उसे अंत कहीं नजर नहीं आया। उसने सूरज की तरफ देखना चाहा लेकिन वह जहां खड़ा था वहां से सूरज थोड़ा दूर था। वह चाहता तो उस बूढ़े से कहकर दुबारा सूरज से मिलने जा सकता था परन्तु उसने ऐसा नहीं किया। वह उस बूढ़े के साथ चलने लगा।

उमा शंकर चौधरी
मो.-9810229111

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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उस्ताद अमजद अली खाँ साब, यह प्यार का रिश्ता है — भरत एस तिवारी @bharattiwari



उस्ताद अमजद अली खाँ साब यह प्यार का रिश्ता है 

— भरत एस तिवारी

आज के प्रभात खबर में प्रकाशित हुए इस लेख को अख़बार में जगह की कमी के चलते हुई कतर-ब्योंत कुछ अटपटी है, इसलिए यहां पूरा लेख आपके लिए।


दुनिया में धार्मिक इमारते बहुत बन चुकी हैं, मुझे नहीं लगता कि हमें अब उन्हें और बनाने की ज़रुरत है।  





पिछले दिनों इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में मेंबर सेक्रेटरी के दफ़्तर की लॉबी में बैठा था। उनके कमरे का दरवाज़ा खुला और बाहर को आये डॉ सच्चिदानंद जोशी, अचल पांड्या और उनके साथ थे उस्ताद अमजद अली खाँ साब। जब तक मैं खड़ा हो ही रहा हूँ खाँ साब वहीँ से नाम लेते हुए कुछ ऐसा बोले जो मेरे अन्दर के कलाकार की प्रशंसा थी। क्या मैं हक्काबक्का रह गया क्या सरलता इतनी विरल हो चुकी है कि सामना होने पर हम चौंक जाते है? उसके बाद सब साथ ही रहे काफी देर तक। उनके मूड और हावभाव से यह अहसास हो रहा था कि वह आईजीएनसीए जिस कारण से भी आये होंगे वह कुछ बहुत अच्छा ही होगा। हुआ भी ऐसा ही, उनकी संस्था ‘सरोद घर’ और आईजीएनसीए मिलकर 21,22 और 23 दिसम्बर को उनकी रागों का उत्सव मना रहे हैं। ‘दीक्षा: गुरु-शिष्य परम्परा श्रृंखला’ में उस्ताद अमजद अली खाँ के शिष्य देश के विभिन्न हिस्सों से जमा होंगे और तीन शामें — अपने गुरु के सानिध्य में गुरु की ही बनायीं धुनों से — संगीत से सजायेंगे। यह बेजोड़ प्रयोग है। और यह शायद-ही इस स्तर पर पहले किया गया हो। खाँ साब में एक अनोखी दिव्यता है — दिव्य मेरे लिए बड़ा सम्मानीय शब्द है और उनकी शख्सियत के साथ इस ‘दिव्य’ लिखने से पहले ज़ेहन में कई ऐसे वाकये गुजरे और ठहरे हैं जो ‘उनकी दिव्यता’ को दर्शाते हैं। इस पर कभी विस्तार से लिखूंगा।

उस रोज़ उनके घर पर बातें हो रही थीं... खाँ साब बोले “आज की दुनिया में एक सीमेंटेड बिल्डिंग को इंस्टीट्यूशन कहा जाता है पहले ज़माने में एक विद्वान् आदमी को इंस्टीट्यूशन समझा जाता था। और इसीलिए गुरु शिष्य परंपरा बनी; शिष्य गुरु के साथ रहते थे, गुरु के साथ खाते थे और गुरु की सेवा करते थे। सेवा जैसे कोई सेवादार करता है: ‘जाओ भाई पान ले आओ’ ‘हाथ दबा दो’ ‘पांव दबा दो’ और शागिर्द यह सब ख़ुशी के साथ, समर्पण भाव से करता था। आज हर कला इंस्टीट्यूश्न्लाईज़ड हो गयी है। सीखने वाला फीस देता है और सिखाने वाले को तनख्वाह मिलती है तो एक बहुत फॉर्मल रिलेशन बनती है...”





मैंने इससे जुड़ा सवाल उठाया: दो लोग हैं एक गुरु शिष्य परंपरा से सीखता है और दूसरा एक ‘फीस और तनख्वाह वाली’ संस्था से, ऐसे में दोनों की कला में फ़र्क-सा नज़र क्यों आता है?

“मेरे बुजुर्गों का मानना था कि ‘एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाए’! तब हम ग्वालियर में थे, पिताजी के साथ मैं वहाँ के सिंधिया स्कूल में गया। प्रिंसिपल शुक्लाजी ने पिताजी से कहा कि इन्हें हम पढ़ाना चाहेंगे इन्हें बोर्डिंग में भर्ती कर दीजिये। पिताजी ने सवाल किया “अगर यह बोर्डिंग में होंगे तो इन्हें मैं सिखाऊंगा कब? उनका सोच था कि पढ़ाई और संगीत एक साथ नहीं हो सकती। मेरा सोच यह नहीं है, मैं ईश्वरीय सत्ता में भरोसा रखता हूँ और ईश्वर ज़र्रे को आफ़ताब बना सकता है... जब आप किसी पीएचडी को सुनते हैं जो कि बेशक बहुत अच्छा सुना रहा है लेकिन आपको क्यों लगता है कि कोई पीएचडी सुना रहा है... कहीं न कहीं कुछ छूट जाता है इस सब के बाद जो बात सबसे महत्वपूर्ण है कि दुनिया किसको अपनाती है — आज दुनिया बिस्मिल्लाह खाँ को मिस कर रही है; वो सिर्फ़ शहनाई के लिए दुनिया में आये थे। यह प्यार का रिश्ता है, दुनिया जिसे प्यार दे वह ही सबसे बड़ा कलाकार है। “

और जैसा कि हर बातचीत घूमते-फिरते आज के माहौल पर ज़रूर आती है... खाँ साब कह रहे थे कि “दुनिया में धार्मिक इमारते बहुत बन चुकी हैं, मुझे नहीं लगता कि हमें अब उन्हें और बनाने की ज़रुरत है। टीवी खोलते ही हिन्दू-मुस्लिम हिन्दू-मुस्लिम की बहस को देख कर मुझे यह चिंता होती है कि हमारे बच्चों पर और हमारी युवा पीढ़ी पर इसका क्या असर हो रहा होगा? ये मेरी अपील है लोगों से “हर शहर में अच्छे से अच्छे हॉस्पिटल बनाएं ताकि ग़रीब आदमी का भी इलाज हो सके। आज इतने फाइव स्टार हॉस्पिटल बन गए हैं हमारे देश में जहाँ ग़रीब इन्सान जा ही नहीं सकता।“ ... उस्ताद अमजद अली खाँ में वह शक्ति है जिसे मैं दिव्य मानता हूँ और आपसे यह कह सकता हूँ कि आप में भी वह शक्ति है, क्या आपने उसके होने को नकार दिया है? सनद रहे “संगीत ईश्वर है”

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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शादी की कहानी बताइए : हंस में प्रकाशित मलय जैन की कहानी 'शालिगराम की नतबहू'


हंस नवम्बर' 18 में प्रकाशित शालिगराम की नतबहू — मलय जैन,


ऊंचाई ठीक-ठाक, रंग कन्हैया को मात देता और बचपन में निकली बड़ी माता से चेहरा छप्पन टिकलियों का कोलाज़, मगर वधू चाहिए एकदम भक्क गोरी, छरहरी लावण्य मयी कंचन काया । सर्वगुण संपन्न। जैसे लम्बरदार फुरसत में पड़े पड़े मधुबाला और वहीदा रहमान के नाना प्रकार के चित्र कल्पनाओं में खींचते रहते हैं न, वैसे ही फुर्सत में बनाई हुई कोई अतुल्य सुंदरी उनकी सौभाग्यवती हो। उनकी बुआ कहतीं थीं, " लम्बरदार के लाने लड़की देखने जाने है। कोई मजाक थोड़ी है कि चाहे जिस ऐरे गैरे की, चाहे जैसी लूली, कंटी लड़की उठा लाओ और बांध दो लल्ला के गले।"
शादी की कहानी बताइए : हंस में प्रकाशित मलय जैन की कहानी 'शालिगराम की नतबहू'

शालिगराम की नतबहू

— मलय जैन






"सुदर्शन बाबू घोड़ी पर चढ़ ही गये अंततः। यों निकले हुए पेट वाले ऐसे अधेड़ दूल्हे को देख एक पल तो घोड़ी भी ठिठकी होगी मगर गुलाबी नोटों वाले ठीक ठाक नेंग के हाथ आते ही मालिक ने उसकी ठुनक दूर कर दी और ठाठ से बैठे दूल्हे राजा को लेकर घोड़ी ठुमकती हुई चल पड़ी। दुल्हन का डील डौल देख घोड़ी से ज़्यादा तो सुदर्शन बाबू ठिठके, मगर अब वक्त ठिठकने का नहीं, लम्बरदारी की ठसक और अपनों की ठिल ठिल करती निगाहों को ठेंगे पर धर ठीक ठाक ढंग से ठिकाने लग जाने का था सो यार दोस्तों के ठहाकों के बीच सुदर्शन बाबू ने दूल्होचित ठनगन के साथ फेरे लिये और इस प्रकार वे विधिवत वर दिये गये "

मलय जैन
जन्म: 27 फरवरी 1970, सागर मप्र
लेखन: दो किशोर उपन्यास प्रकाशित
'ढाक के तीन पात' 2015 में प्रकाशित।
नया ज्ञानोदय, हंस, आउटलुक, व्यंग्य यात्रा,
आदि पत्रिकाओं में व्यंग्य प्रकाशित।
पुरस्कार: साहित्य अकादमी मप्र से
उपन्यास 'ढाक के तीन पात' पर
बाल कृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार से सम्मानित।
सम्प्रति: सहायक पुलिस महानिरीक्षक
पुलिस मुख्यालय, भोपाल
सम्पर्क: मलय जैन,
सेक्टर K- H50, अयोध्यानगर,
भोपाल मप्र 462041
मोबाईल 9425465140
ई मेल: maloyjain@gmail.com
अस्सी के पेटे में पड़े शालिगराम यदि इस उमर में हर वक्त एक अप्सरा सी सुंदरी की कल्पना करते थे तो इसके पीछे वह खुद नहीं, उनके खानदान का इकलौता चिराग, नाती सुदर्शन बाबू थे जिनके ब्याह की चिंता में वह दस बरस से घुले जा रहे थे और इस वक्त शालिगराम की बाँछें यदि इतनी खिली थीं जितनी शायद बरसों में न खिली होंगी तो इसके पीछे मोंटी की दी हुई वह झन्नाट खबर थी जिसके हिसाब से सब ठीक रहा तो सुदर्शन बाबू भी दूल्हा बनने वाले थे। मोंटी भले आप दूल्हा नहीं हुए थे लेकिन जोड़े मिलाने की कला में निष्णात थे। शादी कराओ बैंड बजवाओ डॉट कॉम नाम से जहां बाजे बजवाने वह ऑनलाइन सक्रिय रहते थे, वहीं ऑफ़लाइन मोड में भी मिलन की तुरही बजाने हरदम तैयार मिलते थे। समाज के विभिन्न परिचय सम्मेलनों के फटों में उनकी टांगें सम्मान पाती थीं और ऐसा माना जाता था कि मोंटी मोटा माल ज़रूर कमीशन के रुप में ले लें, लेकिन मजाल है, उनकी मिलायी जोड़ी में कोई ऐब निकल आवे।

शालिगराम को कुछ माह पहले ही यह तारणहार मिला था जिसके पास हर मर्ज का तोड़ था और जिसे दृढ़ विश्वास था कि जिसका जोड़ भगवान न जोड़ सका, उसका जोड़ उनके पास है। इसी भयंकर विश्वास के साथ वह शालिगराम से मिले थे और उनका भव सुधारने मोंटी बस पहुंचने ही वाले थे।

शालिगराम उस इलाके के लम्बरदार थे और एक ज़माने में उनका अपना चरचराटा हुआ करता था। बरसों से वह नातीराजा सुदर्शन के लिये रिश्ता खोजते फिर रहे थे, मगर नातीराजा के भाग देखो, हाड़ तरस गए थे उनके

हल्दी लगवावे। शालिगराम हताशा में आम बूढ़ों की भाँति ज़माने को कोसते। कमबखत जमाना ही खराब आ गया। एक हमारा जमाना था, अंडा में से फूटे नहीं कि घुड़चढ़ी को तैयार। आठवां दर्जा पहुंचे न पहुंचे, दूर दूर से रिश्ते पर रिश्ते। कुछ जमाने को कोसते और कुछ मोंटी के आने की उत्तेजना में करवट लेते शालिगराम खटिया से तो लुढ़कते बचे मगर अतीत में अवश्य लुढ़क गए।

तब मसें भीगनी शुरू ही हुईं थीं शालिगराम की, मगर तमाम बुआ फूफियां, मामियां और भाभियां अपने दूर दूर की रिश्तेदारी से न जाने कहां कहां की हूरों के प्रस्ताव खोज लातीं उनके लिए और वह उमंग से भर भर जाते। शरीर से शालिगराम यों तो स्वतः भगवान के पूरे थे। माने ऊंचाई ठीक-ठाक, रंग कन्हैया को मात देता और बचपन में निकली बड़ी माता से चेहरा छप्पन टिकलियों का कोलाज़, मगर वधू चाहिए एकदम भक्क गोरी, छरहरी लावण्य मयी कंचन काया । सर्वगुण संपन्न। जैसे लम्बरदार फुरसत में पड़े पड़े मधुबाला और वहीदा रहमान के नाना प्रकार के चित्र कल्पनाओं में खींचते रहते हैं न, वैसे ही फुर्सत में बनाई हुई कोई अतुल्य सुंदरी उनकी सौभाग्यवती हो। उनकी बुआ कहतीं थीं, " लम्बरदार के लाने लड़की देखने जाने है। कोई मजाक थोड़ी है कि चाहे जिस ऐरे गैरे की, चाहे जैसी लूली, कंटी लड़की उठा लाओ और बांध दो लल्ला के गले।"

अपने लिए हूर की तलाश में वह दूर दूर तक फिरे। एक से एक लड़कियां देखीं । तब लड़की देखने जाना भी उत्सव और मनोरंजन के विषय से कम न होता। आजकल की बारात में जितने लोग नाचते दिखते हैं न, इतने तो वह लड़की देखने साथ लेकर जाते थे। यानी लड़का जाएगा तो लड़के का फूफा, मौसा, मामा भी साथ जाएंगे ही कई बार तो मौसा के फूफा तो कभी फूफा के फूफा भी साथ जाएंगे l कहीं ललितपुर वाले फूफा जी संग गये तो लड़की को बाकायदा रैंपवॉक कर यह प्रमाणपत्र देना पड़ता कि वह लूली नहीं है। बुआ जी तो एक कदम आगे। वह लड़की से न केवल गाना गववाएं, सिलाई कढ़ाई के नमूने देख उनमें बींगें भी निकालें बल्कि मुंह खुलवाकर दाँत भी देखें। उनका बस चले तो मुंह में बैठकर ही तस्दीक करने लग जाएं, लड़की के दाँत और जीभ सही सलामत हैं या नहीं और लड़की उनकी तरह तोतली बतोली तो नहीं है। पनागर वाले मामा जी की खोजी निगाहें लड़की को एक नजर देख कर ही निष्कर्ष पर पहुंच जातीं कि लड़की शालिगराम के लिए फिट बैठेगी या नहीं। उम्र में बड़ी तो नहीं लगेगी। जोड़ में ऊंची या नाटी तो नहीं लगेगी। मौसी अपनी अलहदा भूमिका में रहतीं। लड़की के मुंह से बोल का एक फूल झरने पर ही चरित्र सत्यापन संपन्न कर लेतीं। लड़की आंख मटका कर बोले तो चालू, नज़र मिलाकर बात करे तो झगड़ालू और पैर के अंगूठे से जमीन खोद खोद कर जमीन में ही गड़ी रहे तो समझ लो पहली परीक्षा में पास।

इसके बाद साक्षात्कार की प्रक्रिया प्रारंभ होती। साथ जाते निरे अपढ़ रिश्तेदार लड़की का साक्षात्कार लेते दुनिया दारी के ऐसे ऐसे सवाल करते कि लोक सेवा आयोग भी हैरान रह जाये। साक्षात्कार के साथ ही लड़की का इम्तिहान समाप्त हो जाता और उसके पिता का शुरू हो जाता। शालिगराम के पिता की ओर से खरचा जैसे कठिन विषय पर अर्थशास्त्र का परचा फ़िल्म के

क्लाइमैक्स की भाँति प्रकट होता जिसे हल करने में लड़की के पिता का दिमाग घूम जाता। लम्बरदार का ब्याह है, कोई हँसी ठट्ठा है क्या ! शालिगराम ने ठंडी सांस ली। उनकी बुढ़िया भले अब नहीं रहीं लेकिन इस घर में आ पाईं थीं बड़ी कठिन परीक्षा के बाद ही।




और अब? शालिगराम ने आँखे मूंदी। जैसे बीते हुए दिन याद कर रहे हों। सुदर्शन जब पूरे अठारह के भी नहीं हुए थे तो उन्होंने सोच लिया था, इसका ब्याह कराएंगे तो वैसी ही अप्सरा से जैसी अप्सरा की कल्पना वह स्वयं के लिए किया करते थे। भले उनके लिए अप्सरा ढूंढने वाली बुआ जी, मौसी, ताऊ, मामा जी सब दुनिया से निकल लिए मगर नातीराजा के लिए बहू पसंद करेंगे वह खुद। लंबरदार शालिगराम की नतबहू होनी भी चाहिए एकदम झक्कास। चाल-ढाल, नाक नक्श, रंगरूप सब एवन, कि चार गांवों में चर्चा भी हो तो बस उनकी नतबहू के रूप की।

इधर सुदर्शन बीस के न हुए और उनके मां-बाप दोनों न रहे। रिश्तेदार बाहर गांवों में या दूर शहरों में। अब घर में बचे बस विधुर शालिगराम और नाती सुदर्शन बाबू। शालिगराम तब जवान होते सुदर्शन को मनभर निहार निहाल होते। यूं उम्र के हिसाब से उनके मन में कभी यह भय भी रहता कि ऐसा न हो, सुदर्शन बाबू गांव की किसी छोरी से प्रेम प्यार कर बैठें और बैठे बिठाये उनके सपनों पर पानी फिर जाए। सुदर्शन बाबू हैं भी बड़े संजीदा स्वभाव के सो कौन सी लड़की कब इन्हें फांस ले, पता नहीं। फिर उन्हें यह सोचकर सुकून भी आता कि गांव भर की लड़कियां या तो पढ़ने शहर चली गईं या शादी ब्याह कर फुरसत पा गईं। सो वह ऐसे भय को झट मन से निकाल देते।

शालिगराम को उम्मीद थी, जमाने के हिसाब से चलो तो भी सुदर्शन बीस इक्कीस की उमर पूरी न करेंगे और उनके लिए रिश्तो की ऐसी ही झड़ी लग जाएगी जैसी एक जमाने में उनके लिए लगा करती थी। लेकिन सुदर्शन बाबू तेईस चौबीस की उमर पार करते ग्रहस्थ आश्रम की अवस्था में भी पहुंच गए, मगर रिश्तों की झड़ी लगना तो छोड़ो, एक बूंद भी न पड़ी उनके आँगन में। उन्होंने खुद ही रिश्तेदारियों में पैगाम भेजे मगर सब टाल गए। ' कोई लड़की आज के जमाने में गांव में जाकर रहेगी क्या? ' ऐसे सवाल सुन सुनकर वह निरुत्तर हो जाते। हर लड़की पढ़ी-लिखी और तो और नौकरीपेशा भी। कुछ रिश्तेदार कहते, " एक ही स्थिति में बात बन सकती है लम्बरदार, या तो सुदर्शन गांव का मोह छोड़ आप ही शहर जाकर बस जावें। चाहें तो ससुराल में ही रहने खाने का इंतजाम हो जाये और अगर जी में ज्यादा ही खुद्दारी की सनक है तो लड़की वाले बढ़िया किसी कॉलोनी में अलग से रहने की व्यवस्था को भी तैयार हैं और काम धंधे में लगवाने को भी। " मगर सुदर्शन बाबू ! वह गांव का जमा जमाया कामधंधा छोड़कर शहर जाएं भी तो क्यों, तिस पर घर जमाई बनकर? छि: ... वह सुनते ही उखड़ जाते।

 शालिगराम तब और जल भुन जाते जब शहर के रिश्तेदार कहते, " अरे लंबरदार, तुम्हें काहे की फिकर, अपना सुदर्शन तो हीरो है हीरो। वैसे भी ज़माना कैरियर बनाने का है आजकल सो पहले सबै नौकरी ही दिखती है। इतनी जल्दी शादी ब्याह के टंटों में कोई नहीं पड़ता। न लड़का न लड़कियां। "

शालिगराम अपने हीरो को लाड़ से निहारते और यह सोच, नातीराजा को क्या कैरियर की चिंता, पहले ही पुश्तैनी दुकान बढ़िया सम्भाल रहे हैं, निशफ़िकर हो जाते। मगर जब तीस के होते हीरो के माथे पर चांद उतरने लगा और कनपटियों पर चांदनी, ऊपर से पेट भी सतमासी गर्भिणी सा मुँह चिढ़ाने लगा तो शालिगराम हीरो को निहारने की जगह निराशा से हारने लगे। उन्हें कभी-कभी अपने नौकरों हरकारों बुधिया मंगतू के भाग्य से ईर्ष्या हो उठती। देखो सालों को, बाप दादा के जमाने से मजदूरी करते आ रहे लेकिन मुओं की किस्मत तो देखो, बहुएँ कैसे चट से मिल जाती हैं इन्हें। इनकी औलादों को देखो, कैसे फटफटिया पर अपनी ब्याहताओं को बिठाए हवा से बातें करते हैं और एक वह हैं जो इलाके के लंबरदार होकर एक नतबहू के लिए तरस रहे हैं। अपने तो छोड़ो, हवाएं भी उनसे इस बारे में बात करना नहीं चाहतीं। लंबरदारी उन्हें व्यर्थ मालूम होती। कहां लेकर जाएंगे ये पचासों एकड़ में फैली जमीनें और लक्ष्मी की माया। वह बुदबुदाते, " गोधन, गजधन, बाजीधन और रतन धन खान, जो आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान .." मगर यह संतोषधन आए तो आए कहां से !

शालिगराम अकेले इतने क्षीण पुण्य हों ऐसा भी नहीं था। वह जानते थे, उनके अपने गांव में सुदर्शन बाबू से भी पकी उमर के पन्द्रह पचीस लड़के कुंवारे बैठे हैं और गांव तो छोड़ो, पास के बड़े-बड़े कस्बों में भी तमाम लड़के ऐसे ही बुढ़ाये जा रहे हैं बिना ब्याह के। घिसपिट के दसवां बारहवां दरजा पास किए और लग गए पुश्तैनी काम धंधे में। शुरू सात तीन का फेर। और लड़कियां ! सब पढ़ने लिखने शहर में। न गांव की लड़की गांव में रहना चाहती है न शहर की लड़की गांव में ब्याही जाना। जिसे देखो पढ़ लिखकर कंप्यूटर की नौकरी ... मुंबई पूना न जाने कहां कहां ! कई तो हवाई जहाजों में आती जाती हैं और गांव तक अपनी कारों से आती हैं। इनकी साथ की उमर के लड़के ... साले निखट्टू .. पढ़ लिख जाते तो ये भी कुछ कर दिखाते।

इधर उठते बैठते शालिगराम को तमाम घरों के किस्से सुनने मिलते। फलां सेठ तो सुदूर समुद्री देहात से बहू लाए हैं लाख दो लाख देकर। जिन घरों में बिना छाने पानी न पिया गया हो, चींटी भी भूल से दब जाने का परिणाम प्रायश्चित में होता हो वहां मत्स्यभक्षी बहू ! हे भगवान ... उनके बदन में झुरझुरी दौड़ जाती। इसे कहते हैं कलजुग। अर्थशास्त्र तो पहले ही चूल्हे में चला गया, अब तो समाज की चाल भी उल्टी हो गई। वह जमाने को पानी पी पीकर कोसते। कभी अपने जमाने के उन कर्मों को जब लड़की के जन्मते ही घर में मातम सा हो जाता था। बुआ ताई यूं ही लड़की को यह ताकीद कर अफीम दे देती थीं कि जाओ लली, अबकी बस लला को ही भेजना। अब? अब बच गए बस लला ही लला ... धर लो इन बिनब्याहे ललों को मूड़ पर ' शालिगराम अपराध बोध से भर जाते। उनकी ही आत्मा भीतर से गरियाती, तुम्हारे ही तो कर्मों का फल है लम्बरदार जो आज लड़कियां ढूंढे नहीं मिल रहीं और मिल भी रही है तो सभी तुम्हारे इन निखट्टू गँवार लड़कों से इक्कीस।

समय के साथ शालिगराम की सोच भी उल्टी हो गई ..'जो शालिगराम कुछ बरस पहले यह भय खाते थे कि नातीराजा प्रेम में पड़कर ऊंच नीच न बांध लें, वही अब मन में कसमसाते, ' इससे तो अच्छा था सुदर्शन बाबू प्रेम व्रेम में ही पड़ जाते। भले किसी को भगाकर ही ले आते तो नतबहू की गमक तो इन सूनी देहरियों पर दौड़ती। ' संस्कारों और सिध्दांतों के पक्के शालिगराम का बेबस मन शास्त्रों में लिखें गंधर्व विवाह औऱ राक्षस विवाह तक की अनुमोदना कर बैठता। फिर सुदर्शन बाबू के धीर गम्भीर चेहरे को देखते तो उल्टे उन्हें चिढ़ हो आती। ' यह भी भगवान के पूरे हैं ... अल्लाह मियां की गाय .. इनसे तो यह भी ना होगा। थोड़े भी चंट फंट होते तो कहीं न कहीं से फांस लाते किसी को .. मगर किसको? ' उनका मन उन्हीं से प्रश्न करता, ' लड़कियां हैं कहां? किसे भगा लाते? ' वह स्वयं अपने आगे निरुत्तर हो जाते। इस प्रकार खुद से उलझते सुलझते वह इसी निष्कर्ष पर आ गये कि अब बहुत हुआ। जो मिले, जैसी मिले जितने में मिले, सब चलेगा बस सुदर्शन बाबू के हाथ पीले हो जायें। '

और जो हो, जैसी हो की बात पर अब श्री श्री मोंटी आने को ही थे। फोन पर उन्होंने इतना बता दिया था कि एक तो लड़की अपने ही समाज की है, ऊपर से घर परिवार भी जाना पहचाना है .... बस्स .... "

इतना कहकर मोंटी चुप हो गए थे। यह कमबख्त बस्स .... बड़ा रहस्यमय था। पूछने पर मोंटी ने कहा था, " कोई खास बात नहीं, बस लड़की की उमर कुछ ज्यादा है। "




शालिगराम पहले तो तनिक सोच में पड़े। फिर स्वगत बुदबुदाए, ' अपने नाती राजा भी कौन सी कम उमर के हैं, उन्होंने ही जन्मपत्री में कई साल से उन्हें तीस की उमर पर स्थिर कर रखा है मगर असल में तो वह पैंतीस भी पार कर चुके हैं। '

उनकी उधेड़बुन ज़ारी थी कि एक तेज आवाज़ वाली बुलट आकर रुकी और मोंटी आ पहुंचे। शहर में रहकर एकदम आधुनिक ढब की चकाचक शैली वाले मोंटी। कब अंगरेजी में बतियाने लग जाएं और कब उसमें अमरीकी के साथ बुन्देली लहजे का फ्यूजन घुसा होठों को दायें बायें कट मारते बातों में दम ले आएं, पता नहीं।

मोंटी ने आते ही मोबाइल निकाला और होने वाली नतबहू की जो शकल दिखाई कि शालिगराम का दिल डूब गया।

" यह... यह लड़की है? यह तो ऐसा मालूम होता है, दो चार बच्चों की मां होगी !"

मोंटी ने आदत के मुताबिक मुंह को तिरछा किया फिर आंखों में शरारत भर कर बोले, " होने को तो अपने लला भी चार बच्चों के बाप से कम नहीं दिखते नन्ना। रही चार बच्चों की अम्मा की बात तो लड़की एकदम कुंवारी है ... सौ टंच खरा माल। आप समझ रहे हैं न? "

मोंटी के इशारे पर शालिगराम खुद ही झेंप गये। आजकल के लड़के देखो, साले कैसे धुर बकलोल ! न किसी से शरम न लिहाज।

मोंटी ने कुर्सी पास खींचकर कहा, " लड़की गरीब घर की है। बिन बाप की। माँ ही जैसे तैसे ख़र्चा चलाती है। वह रिश्ते को तैयार है। शर्त एक ही है कि सारग परसों तक ही है तो बस्स...। "

 इस बार फिर बस्स ... के आगे ब्रेक लगा मोंटी ने लम्बरदार को पशोपेश में डाल दिया।

" इतनी जल्दी? " शालिगराम सोच में पड़ गए, " ज़रा समय तो दो। चार जगह रिश्तेदारी में खबर करनी होगी। तारीख सधवानी होगी। मुहूरत देखना होगा। "

" उसकी फ़िकर आप छोड़ दो नन्ना। मैंने मुहूरत के लिए पण्डित से भी सैटिंग ज़मा ली है। कल नहीं तो परसों, जब आप कहो, आपका काम फिट। "

" अरे भाई मोंटी, शादी ब्याह में ऐसे सेटिंग थोड़ी चलती है। एक एक मिनट के अंतर में ग्रह नक्षत्र फिर जाते हैं। "

मुँहफट मोंटी ने ऐसी शक्ल बनाई मानो कह रहे हों किस अहमक से पाला पड़ गया। उनकी आंखों से चिढ़ और मुंह से आईना दिखाते शब्द एकसाथ फटे,

" और नन्ना, आप जो कुंडली में बरसों से सुदर्शन बाबू की उमर तीस पर रोके बैठे हो तब? "

 शालिगराम निरुत्तर हो गये। ठीक ही तो कह रहे हैं मोंटी।

मोंटी चेताते हुए बोले, " नन्ना, लड़की के लिए और भी घरों के लोग पड़े हैं मेरे पीछे। दो दो लाख देने को तैयार हैं। आप हाँ करो तो आज अपनी जेब से लाख रुपये दे आऊं लड़की की मां को और नक्की करूँ ये रिश्ता? "

शालिगराम मनधरी में पड़ गये। बल्कि किंकर्तव्यविमूढ़ ही हो गए। क्या करें क्या न करें। एक और कुँआ तो दूसरी ओर खाई। ' तस्वीर देख क्या सोचेंगे सुदर्शन बाबू, नन्ना को यही मिली उनके लिए ! ' फिर ख़ुद को समझाते बुदबुदाए, ' सुदर्शन बाबू ऐसी अवस्था में हैं कि अप्सरा तो मिलने से रही। अप्सरा क्या, दासी मिल जाये, इसका भी आसरा नहीं। इस बार चूके तो क्या पता फिर ..... !'

 उनके भीतर से आवाज़ आई, ' मत दिमाग़ लगा लम्बरदार। अवसर द्वार खटखटा रहा है। इस बार जो चूका सो तुझसे बड़ा मूरख नहीं कोई। '

लम्बरदार अंतरात्मा से नहीं झगड़ पाये। फिर भी अपना कबूलनामा और साथ ही मन की शल्य में संतुलन रखते बोले, " भइया लाख दो लाख की बात नहीं है। लड़की वाले जो चाहेंगे सो हम देने में कसर न छोड़ेंगे, मगर सुदर्शन बाबू? वह तैयार होंगे इस लड़की के लिए? "

मोंटी मन में व्यंग्य से बुदबुदाए, ' सुदर्शन बाबू अब वैसे भी सुदर्शन नहीं रहे कि इनके लिए विश्व सुंदरी आहें भरे। ' फिर प्रकट में चहक कर बोले,

 " उसकी फिक्र आप मत कीजिए। मुझ पर छोड़िए "

और वाकई, न जाने कौन सी जड़ी फिराई, मोंटी ने एक बार में सुदर्शन बाबू को लपेटे में ले लिया। एकबारगी फोटो देख सपने तो सुदर्शन बाबू के भी टूटे थे। लंबरदार के नाती जो ठहरे। मगर हालात ऐसे थे कि वह कुबूल है, कुबूल है, कुबूल है जैसे मुंडी हिलाकर रह गए और उनकी मुंडी के हां में हिलते ही शालिगराम मानो मनों बोझ से मुक्त हो गए।

प्रगल्भ मोंटी के पास चट मंगनी पट ब्याह के रेडीमेड पैकेज थे। जैसे जादूगर विशिष्ट मुस्कान के साथ खाली रुमाल को हवा में झटक नाना प्रकार के आइटम निकलता है न, वैसी ही मुस्कान के साथ मोंटी एक एक कर हवा में सारे समाधान प्रकट कर रहे थे। प्रकट क्या, तय ही करते जा रहे थे और शालिग्राम हैरानी से मुँह बाये इस चमत्कार को देखे जा रहे थे।

विवाह की तिथि तय। विवाह का स्थान तय। भोजन तय। भोजन के ठेके वाला तय। आतिशबाजी तय। पण्डित तय। पण्डाल तय। खाम तय। खवास तय। ख़ास कश्मीर से बुलाईं खुशबुएँ तय। बाजे तय। घोड़ी तय। सब कुछ तय। मगर बाराती? मोंटी का बस चलता तो रुमाल झटककर बाराती भी तय कर देते और बारात में नाचने वाले भी, मगर यह ज़िम्मेदारी शालिगराम ने ही उठाई।

" लड्डू पेड़े, पीले चावल, छपे हुए कार्ड सब बीते ज़माने की बातें हैं नन्ना, आजकल तो कम्प्यूटर पर कार्ड बनवाओ और फुर्र कर दो मोबाइल से, जो व्हाट्सएप नहीं चलाना जानते, उन्हें फोन पर ही न्योत दो। " ये कहकर शालिगराम को राह देने वाले मोंटी थे तो काम के आदमी। उन्होंने ही शालिगराम का यह वज़न भी हल्का किया और चट से कार्ड भी कबूतर बन पहुंच गये सबके पास। फोन पर यों ज़्यादातर क़रीबी रिश्तेदारों ने मुंह ही बनाया, ' परसों की शादी? ऐसी भी क्या अबेर पड़ी थी ? इत्ते साल सबर पकड़ी, महीना दो महीना की और सबर पकड़ लेते नन्ना ! दफ़्तर से छुट्टी, बाल बच्चन की परीक्षा। इत्ता आसान है क्या? कछु तो सोचा होता इत्ती बड़ी बात सोचे से पहले ! "

शालिगराम क्या कहते कि उनके लिये भी आसान था क्या यह युद्ध जीतना? कैसे तो अब जाके उनकी साध पूरी हो पा रही है। एक मन तो हुआ, मुंह बनाने वालों से पूछ ही डालें, ' तुमने कौन से हाथ पाँव हिलाये आज तक सुदर्शन बाबू के ब्याह के लिये, और अब जब इतनी तपस्या के बाद अवसाद से उबर प्रसाद का समय आया तो बड़े आये, रिश्तों का उलाहना देने !'

तमाम रिश्तेदार रूठ गये। सुदर्शन बाबू की कैई चचेरी ममेरी जिज्जी बिन्नूएं, जिन्होंने शायद ही किसी दूज पर अपने इस देहाती भाई की फ़िकर की थी, एकदम रिसा बैठीं।

परसों का दिन भी पलक झपकते आ गया। लगे गांव खेड़े और कस्बों की बूढ़ी पुरानी मौसियां, चाची काकियाँ, ताऊ, कक्का अवश्य आ गये हिलती गरदन, चुके हुए घुटनों और अल्जाइमर के मरीज होते हुए भी अपने खून से मिलने की ललक लिये। तमाम ना नुकुर और गुस्सा फ़ज़ीहत के बाद व्यस्तता के घोड़े पर सवार रिश्तेदार भी अपने अपने साधनों से आ पहुंचे।

सुदर्शन बाबू घोड़ी पर चढ़ ही गये अंततः। यों निकले हुए पेट वाले ऐसे अधेड़ दूल्हे को देख एक पल तो घोड़ी भी ठिठकी होगी मगर गुलाबी नोटों वाले ठीक ठाक नेंग के हाथ आते ही मालिक ने उसकी ठुनक दूर कर दी और ठाठ से बैठे दूल्हे राजा को लेकर घोड़ी ठुमकती हुई चल पड़ी।

दुल्हन का डील डौल देख घोड़ी से ज़्यादा तो सुदर्शन बाबू ठिठके, मगर अब वक्त ठिठकने का नहीं, लम्बरदारी की ठसक और अपनों की ठिल ठिल करती निगाहों को ठेंगे पर धर ठीक ठाक ढंग से ठिकाने लग जाने का था सो यार दोस्तों के ठहाकों के बीच सुदर्शन बाबू ने दूल्होचित ठनगन के साथ फेरे लिये और इस प्रकार वे विधिवत वर दिये गये। प्रसन्न देवताओं रिश्तेदारों ने उन्हें यथाशीघ्र दूध से नहाने और पूत फलने का वर दिया सो वर को साकार करने की उत्कट लालसा लिये सुदर्शन बाबू और लजाये लजाये से दिखते, कनखियों से अपनी दुल्हन को देखते फूलों से सजी कार में बैठ घर को लौटे जहां उनके स्वागत में शालिगराम ने अपनी हैसियत से कहीं आगे रौशनियों और आतिशबाजियों से पूरा मोहल्ला गुलज़ार कर रखा था।

सुदीर्घ धैर्योपवास के बाद हुई पारणा की तरह आनन्दकारी था यह अवसर सो शालिगराम के उत्साह का ठिकाना नहीं था। यूँ वरमाला से लेकर फेरों और पाणिग्रहण से लेकर विदा तक नतबहू का मुखमंडल देख वह अचंभित तो खूब हुए थे। सपाट चेहरा, जीवन की इस सबसे महत्वपूर्ण घड़ी पर न खुशी का कोई भाव न माँ से बिछोह का ग़म। शून्यता का स्थायी भाव उन्हें कुछ पल को बेचैन कर गया था मगर नतबहू के आने की प्रसन्नता में शीघ्र ही वह इससे उबर भी गये। जिस मोबाइल को वह नई पीढ़ी को भ्रष्ट कर देने वाला मान उसकी मुख़ालिफ़त करते न थकते थे, उस मोबाइल की ऐसी ज़बरदस्त उपयोगिता उन्हें पहली बार मोंटी के सौजन्य से ही ज्ञात हुई थी और अब वह मोहल्ले भर को इकट्ठा कर फोटो पर फोटो खिंचवा रहे थे और दे दनादन अपने रिश्तेदारों को भिजवा रहे थे। देखें तो लोग एक बार लम्बरदार का ठसका। शालिगराम नतबहू लेकर आये हैं। देर से ही सही, दुनिया में ख़बर फैलनी तो चाहिये, पीठ पीछे तंज़ कसने वालों के सीने से हाय तो निकलनी चाहिये।

इधर सुदर्शन बाबू का उत्साह भी देखते ही बन रहा था। यों तो दुल्हन के मुंह से हां हूँ के अलावा शब्दों की कोई मिसरी उनके कानों में नहीं घुली थी मगर जो आल्हाद और उत्तेजना उनके चेहरे से रिस रिस चुगली करती फिर रही थी, वह न नई दुल्हन से छिप रही थी न सुदर्शन बाबू के यार दोस्तों से जो न जाने कितने ऐसे वैसे उपहार लाकर कमरे में किसी ख़ास जगह पर रख रहे थे और तमाम ताक़ीदों हिदायतों के साथ दूल्हे राजा से फोश मज़ाक करते उनकी सेज तैयार कर रहे थे।

शालिगराम का कमरा ऐन घर के प्रवेश द्वार से लगा था, उसके बाद लम्बी दाल्हान और उस छोर पर सुदर्शन बाबू का कमरा, जहां से चम्पा, चमेली, चन्दन के खुश्बू भरे झोंके दाल्हान की दहलीज पार कर शालिगराम को गुदगुदाते अपना अतीत याद करने पर विवश कर रहे थे। दीपक राग से झुलसी ज़मीन पर मेघ मल्हार की तान के बाद जो सोंधी महक होती होगी न, उससे कहीं ज्यादा महक रहा था यह बूढ़ा हो चुका घर।




साथ वाले कमरे में मांई और जिज्जी से भी शालिगराम की प्रसन्नता छिपी न थी। बल्कि शालिगराम को दाल्हान की ओर झाँकते पा वे हँसती हुई उलाहना दे बैठीं, " बुढ़ऊ, चुपचाप सो जाओ ज़ल्दी। अच्छी बात नहीं है जे कि झाँके जा रहे हो ऐसे ! "

मगर बुढ़ऊ का दिल भी कहाँ माने। पोपले मुंह में जितने खीसे बचे थे, निपोर कर चूड़ियों की कभी कभी आने वाली उन खनक को सुन झंकृत होते रहे जिसके लिए वह बरसों से तरस रहे थे।

रात कुछ गहरी हुई। सुदर्शन बाबू के यार दोस्त भी कुछ देर उन्हें छेड़ने के बाद धौल धप्पा करते अपने-अपने घर को बढ़ लिये। जिज्जी और मांई मुंह ढाँप सो रहीं मगर एक और पीढ़ी के स्वागत को आतुर शालिगराम मन में लड्डू बनाते फोड़ते न जाने कब तक जागते रहे।

सुबह सुदर्शन बाबू देर तक उनके सामने नहीं पड़े। शालिगराम मुस्कुरा उठे। जानते हैं, शरमाते होंगे। इतने संस्कार तो जीवित हैं ही अभी। लेकिन जब सुदर्शन बाबू दिखे मगर थोबड़ा घुटनों तक लटकाये तो उन्हें हैरानी हुई। समझ न पाये की मामला क्या है। जब दिन चढ़ते नतबहू चौके में न जाती दिखीं न ही परम्परा के मान से मन्दिर जाने को तत्पर दिखीं तो उनके चेहरे पर प्रश्नचिन्ह उभरे और समाधान किया जिज्जी ने, " अरे लम्बरदार, दो चार दिन गम खाने पड़ है अपने नातीराजा को, " खटमिट्ठा अफ़सोस प्रकट कर जिज्जी ज़ोर से हँस पड़ीं।

शालिगराम मुंडी नीची करे बैठे रहे। अब कहें भी तो क्या इस पर। इधर बचे खुचे रिश्तेदार अपनी अपनी अटैचियाँ उठा रवानगी को तैयार दिखने लगे। किसी की बस है तो किसी की ट्रेन। अब वे जमाने तो रहे नहीं कि शादी के नाम पर हफ़्ता भर टिके रहें, रात रात भर हंसी ठट्ठे हों और ढोलक की थापें मोहल्ले भर को जगायी रहें। सबके अपने काम और अपनी शल्य सो दोपहर होते न होते सब अपनी राह पकड़ बैठे। जिज्जी और मांई, ये दो बूढ़ीयां ही बच गईं। महाराजिन के साथ रसोई भी संभालतीं और शालिगराम की नतबहू को भी, जो मालूम होता था, अखण्ड मौन के संकल्प के साथ ही मायके से विदा हुई थी। यदि वह जिज्जी से स्नानघर और दो चार अपरिहार्य चीजों के बारे में न पूछती तो घर में शंका और मोहल्ले भर में चर्चा का एक नया अध्याय और शुरू हो जाता कि शालिगराम की नतबहू तो गूँगी है और क्या पता, बहरी भी न हो।

ये दोनों बूढियां यद्यपि किसी हड़बड़ी में नहीं थीं वापसी की मगर तीसरी सुबह हो न पाई और बेटा बहुओं ने फोन कर कर हलाकान कर दिया, मानो उनका जीवन ठहर गया हो इनके बिना। यूँ समझती ये भी खूब थीं कि उनके बिना बहुओं के क्या क्या काम रुके होंगे, फिर भी बेचारियों ने अपने कपड़े बांध लिये। अब तक सुदर्शन बाबू के यथावत लटके मुंह और उनकी ब्याहता के बिचके मुंह को देख उन्हें यह तो अंदाज़ हो गया था कि कुछ गड़बड़ तो है। मगर क्या, ये न समझ पाईं।

चलते चलते जिज्जी अपने दशकों के अनुभवों की गठान खोलतीं शालिगराम के कान में इतना अवश्य कह गईं, " तुम्हारी नतबहू के लच्छन कछु ठीक नहीं दिख रये लम्बरदार, देखे रहियो तनक। "

शालिगराम की समझ में कुछ न आया। अभी भी उन पर मेघ मल्हार का सम्मोहन तारी था। दो दिन और गुज़र गये मगर न नतबहू चौके की ओर झाँकी न कमरे से बाहर निकलने में रुचि दिखाई उलटे महाराजिन को ही खाना पकाने के अलावा कमरे से महारानी की जूठी थाली उठानी पड़ी तो शालिगराम के मन में द्रुत पर जारी संगीत लहरियां मद्धिम पड़ीं। महाराजिन ने भी जब उनके कानों में नतबहू के रंग ढंग ठीक न दिखने का अंदेशा दिया तो शालिगराम के कान खड़े हुए। जिज्जी की कही बात अब चेतन में आ कुछ अघट का संकेत देने लगी। दिन सोचते विचारते कटा। रात भी यूँ ही करवटें बदलते रहे। कुछ खुटका उनके मन में भी हुआ। ब्याह के बाद से नातीराजा पहले से कहीं ज़्यादा संजीदा दिख रहे हैं। सामने भी नहीं पड़ते। या पड़ भी जाएं तो कटकर निकल जा रहे हैं आजकल। दिन दिन भर दुकान पर ऐसे क्या व्यस्त हो गये जबकि नई नई शादी में तो आदमी बहाने ढूंढ़ ढूंढ़, घड़ी घड़ी घर भागता है !

अलसुबह टूटी नींद में उन्होंने मन को समझाया, ' नैक गम खा ले बुढ़ऊ, हर बात में उलटा ही क्यों सोचता है। ' फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सुदर्शन के जागते ही बुलाकर डपट देंगे, ' क्या नई बहू को कमरे में बंद कर रखा है। आज ही अटैची उठा और निकल जा बहू को कुल्लू मनाली घुमाने। '

इधर उन्होंने यह सोचा, उधर कमरे की ओर कुछ खटपट हुई। अगले क्षण दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई तो शालिगराम ने उस ओर झाँका और जो देखा तो चौंक पड़े। सुदर्शन बाबू तो सचमुच अटैचियाँ लिये बाहर खड़े थे। मगर, ऐसे कहाँ जा रहे हैं ये, रात के पहने गुड़ी मुड़ी कपड़ों में? जबकि वह तो बग़ैर इस्तरी किये कपड़ों के घर से बाहर कदम नहीं रखते !

उधर एकाएक बाहर कार आकर भी रुकी। वही, जिसमें बिठाकर नातीराजा अपनी दुल्हन को लाये थे। कार से उतरने वाले सज्जन सुदर्शन के बालसखा थे, शशिमोहन। उन्होंने आते ही बग़ैर कुछ बोले शालिगराम के पैर छुए।

शालिगराम कुछ पूछते, तब तक पीछे से चूड़ियों की आवाज़ आई तो वह उस ओर घूमे।

नतबहू सिर झुकाये खड़ी थीं। मगर ये भी ऐसी ही अवस्था में मानो सोकर उठते ही कहीं जाने को उद्यत हो गई हों।

" बेटा, अचानक कहां चल दिये तुम लोग, वह भी घर के कपड़ों में? "

नतबहू कुछ न बोलीं और गरदन नीची किये चुपचाप कार में जा बैठीं। शशिमोहन सुदर्शन के हाथ से अटैचियाँ ले कार की ओर बढ़े तो शालिगराम चिल्लाये, " सुदर्शन, ये सब क्या हो रहा है? नतबहू कहाँ जा रही है और तू ऐसे क्यों खड़ा है पुतले जैसा? "

पैर के अंगूठे से ज़मीन को खोदते सुदर्शन कुछ न बोल सके तो शशिमोहन ही पास आकर अपराधी से स्वर में बोले, " नन्ना, मोंटी भइया हमारे साथ चोट कर गये "

" चोट? मतलब क्या? "

" नन्ना, भाभी तो पहले ही घर से भग के शादी कर चुकी हैं दूसरे समाज में। इनकी माताराम जबरन पकड़ लाईं थीं इन्हें वहां से और अपने मरने की कसमें दिलाकर बांध गईं हमारे पल्ले। जे न चल पायेंगी अपने यहाँ सो इनके ओरिजनल हसबैंड के पास पहुंचाने को कहा है सुदर्शन बाबू ने। "

" ओरिजनल हसबैंड ! तो ये क्या है जो भरी पंचायत में ब्याह के लाया है? " शालिगराम सुदर्शन बाबू की ओर देख शक्ति भर चीखे लेकिन उनकी आवाज़ कार की आवाज़ में दब गई।

जिस कार को फूलों से सजाकर लाया गया था, उसके फूल कभी के नोंच लिये गये थे और अब उस पर धूल और गर्द के बदरंग धब्बे ही बचे थे। कार धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी। अवाक शालिग्राम कभी बुत बने खड़े सुदर्शन बाबू को देख रहे थे तो कभी जाती हुई नतबहू को। एकदम हतप्रभ, हतसंज्ञ।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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सोनाली मिश्रा की कवितायें | Sonali Mishra ki Kavitayen

सोनाली मिश्रा की कवितायें | Sonali Mishra ki Kavitayen

प्रथम और अंतिम और अन्य सोनाली मिश्रा की कवितायें




प्रथम और अंतिम


अपने मिलन के प्रथम बिंदु पर
उसके माथे पर तुमने धर कर अपने होंठ,
खोल दिया पिटारा अपने पिछले प्रेमों का,
और कहा
"मैं नहीं छिपाना चाहता कुछ भी आज की रात"
और सम्बन्धों में ले आए पारदर्शिता की परत।
वह सकुचाई,
कुछ बोलने को थी ही,
कि तुम बोल पड़े फिर,
"मगर मैं जानता हूँ कि तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं ही आया हूँ सबसे पहले,
तुम तो शक्ल से ही लगती हो अनछुई,
ये, मैंने ही छुआ है तुम्हे सबसे "
वह भी बोलने को थी अपने प्रथम प्रेम की बात,
वह भी चाहती थी कि अपने जी को कर ले हल्का,
पर तुम्हारे गर्वित पौरुष की मुस्कान देखकर,
उसने तुम्हारे प्रथम की परिभाषा को समेट कर खुद में,
आँखों में छिपे आख़िरी पुरुष को धुंधला कर दिया।
तुमने देखा नहीं, पर मिलन के प्रथम बिंदु पर ही,
प्रथम अंतिम की परिभाषा में उलझ गए,
और
उधर उसके दिल में तहखाने में घुटन बढ़ रही थी,
और तुम उस घुटन से बेखबर मिलन के पन्ने पलट रहे थे,
उसका न पूछना,
आज तक किसने स्त्री के प्रेम को स्वीकार किया है।






मुझे पाना


ऐसा नहीं था कि बच गया था कुछ,
स्लीवलेस टॉप पर जाल
खुले बालों का,
और मुंह में पेन दबाकर सिमोन पढ़ना,
ऐसा नहीं था कि देखा नहीं था तुमने मेरा यह रूप!
तुम्हीं तो थे जो मुंह से मेरे ले लिया करते थे पेन,
और हाथों से लेकर किताब,
बंद कर देते थे लिहाफ का मुंह!
कितनी सहजता से सटाते थे किताब को कमरे के दरवाजे से,
वो तो मैं थी कि अपने कमरे में
तय करती थी किताबों का एक कोना भी!
ऐसा नहीं था कि तुम्हें पता नहीं था,
कि मेरे बालों को आज़ादी पसंद है!
मुझे पसंद है कोहरे की धुंध,
मुझे पसंद है रात को दो बजे जागना,
ऐसा नहीं था
तुम्हें मेरे बिंदासपन का अहसास नहीं था,
फिर भी,
संबंधों के मोह में तुमने दूर करनी चाही मेरी ज़मीन मुझसे,
ऐसा नहीं था, कि मेरा कुछ रह गया था अनछुआ तुमसे,
पर,
अधिकार से भ्रमित होकर तुम अनछुए को अनजान
करते गए!
तुम, प्रेम और अधिकार पर पुस्तकें लिखते गए,
और प्रेम से विमुख होते गए!
मुझे मुझसे परे करके खिड़की बंद कर क्या प्रेम का दरवाजा खोल पाए!
अधिकारों को हाट में लगाकर
मुझे पाना कहाँ सहज था!
नहीं नहीं! मुझे तो केवल तुम होकर ही पाना संभव था............
मुझे तो केवल सरलता से ही पाना संभव था,






खेमों का विमर्श


दोनों खेमों में चर्चाओं ने करवट ले ली,
एक ने सिगरेट सुलगाई
"बढ़ गयी है असहिष्णुता"
दूसरे खेमे ने भी उधर से सिगरेट सुलगाई
"उन लोगों ने आज तक किसी का सुना है,
जो अब सुनेंगे!"
पहला खेमा बहुत मुखर था,
और गाढ़ा धुँआ करते हुए बोला
"ओह! इन लोगों में तो है नहीं तमीज,
कुछ लिखने पढने की"
दूसरा खेमे पर अब चढ़ने लगा था सुरूर
वो बोला
"इन लोगों ने लिखा ही क्या है!"
पहला खेमे से कुछ लोग छिटके,
वे लिखने वाले रहे होंगे!
शायद उनका कोई रचना कर रही थी इंतज़ार!
दूसरे खेमे से भी कुछ लोग खिसक गए!
शायद,
उन्हें भी याद हो गया होगा कुछ जरूरी काम!
धीरधीरे एक एक कर खिसकते रहे सब,
और
कुछ ही देर में हो गया मैदान खाली
लोग छंट गए थे,
इंसान बंट गए थे,
बोल मगर दोनों के एक थे,
"हम रचेंगे साथी,
हम लिखेंगे साथी!"
खेमे टकरा रहे थे,
धुँआ भी सिगरेटों का टकरा रहा था!
मगर एक तरफ धुँआ घुलकर एक हो रहा था,
और विचारों का टकराव
और गाढ़ा हो रहा था!
तलवारों और कलम में अंतर और कम हो रहा था






जरूरी तो है ही


कई बार जरूरी है टूट जाए कई भ्रम,
टूट जाए यह भ्रम कि कहीं कोई इंतजार में है,
टूट जाए यह भ्रम कि कोई बरगद की छाँव पसारे है,
टूटना जरूरी है यह भ्रम कि कोई चुन्नी में
मुकेश टंकवा रहा है,
टूटना जरूरी है यह भ्रम कि कोई सम्हाल लेगा अगर गिरो तो,
बहुत बार जरूरी हो जाती है टूटन,
टूटन जो मन में विध्वंस करा दे,
टूटन जो सिले हुए सभी संवादों की सीवन खोल दे,
बहुत जरूरी है टूटना और एक बार फिर से पहुंच जाना शून्य पर,
अजनबियों की पंगत में खुद को बैठा देना,
जरूरी हो जाता है,
गुमनामियों से चर्चा करना,
सत्ता के मठों से दूर हो जाना,
चर्चाओं से भाग जाना,
खुद के लिए बनाए गए खांचों को तोड़ देना!
सच बहुत जरूरी है तोड़कर ऊपरी काया को
खुद को महसूस करना,
भ्रम को तोड़कर यथार्थ को अनुभव करना.
मगर जरूरी यह भी है कि हम
कैक्टस में खिले हुए फूलों को देख लें!
भ्रम को तोड़ना और जीवन से विमुखता दोनों पृथक पृथक हैं,
भ्रम की दीवारें तोड़कर खुद को पा लेना
अमृत यही है
और आज मैंने तोड़ दिए हैं कई भ्रम,
जेठ की दोपहरी में नंगे पाँव खड़ी हो गयी हूँ,
पक्के आंगन में,
जलने दे रही हूँ,
मगर भ्रम की छाँव से बेहतर है पाँव में यथार्थ के छाले पड़ जाना,
ऐसे ही स्त्री मजबूत नहीं हुई है.
उसके पैरों के ऊपर भले ही भ्रम का कोहरा रहा हो,
तलवों ने तो सदा जलन ही पाई है.






डिज़ाईनर लोक की कवितायेँ


बहुत दिन नहीं हुए, जब कविता का दर्द
पगडंडियों पर लगती हुई चोट से उभरता था,
नहीं बहुत दिन नहीं हुए, जब कबीर चाकी
में पिसते हुए घुन को देखते थे और लिख डालते थे,
उसकी व्यथा!
बहुत दिन कहाँ हुए जब मीरा देखती थी कान्हा को
और पी जाती थी विष हँसते हँसते!
नहीं! बहुत दिन नहीं हुए, जब कंक्रीट के जंगलों से दूर
बसती थी सभ्यताएं, और होती थी चर्चाएँ!
और रचे जाते थे लोक गान,
रची जाती थीं लोक धुन!
माटी की सौंधी सौंधी गंधों में स्त्री गंध के घुलने को
महसूस करती थी रचनाएं!
अब उस सौंधेपन का अहसास देने के लिए
विशेषीकृत ए.सी. हैं!
और उन ए.सी. के बीच बंद दरवाजों में बैठी हुई
कृत्रिम संवेदनाएं!
अब बुद्धिजीवियों का दर्द ट्विटर और फेसबुक पढ़कर जागता है!
डिज़ाईनर पत्रकारों की पत्रकारिता से पैदा होता है विमर्श!
स्विफ्ट के नए मॉडल पर बैठकर ई-रिक्शा की समस्याओं
पर चलाते हैं कलम!
प्रायोजित संसार में रच जाते नए लोक!
रेगिस्तान में बैठकर एस्किमो पर कलम चलाना
कितना कठिन है,
और चाहते हो कबीर बन जाना,
बिना राम को जाने तुलसी बन जाना!
बिना कृष्ण को जाने सूर और मीरा बन जाना!
कपड़ा बुनने के लिए धागा जरूरी है मित्र,
डिज़ाईनर बाज़ार एक दिन सूखेगा याद रखना,
फिर चाहे, विमर्श हो, संवेदना हो या फिर रचना ही...........
बचेगा वही जो लोक से उपजेगा,
डिज़ाईनर लोक नहीं, मिट्टी के लोक से!
मिट्टी की देह एक दिन मिट्टी में ही मिल जाएगी...........

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