बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है - रवीन्द्र त्रिपाठी Ravindra Tripathi Reviews documentary 'Darwin's Nightmare'

मत्स्य न्याय और विश्व व्यापार की खौफनाक सूचनाएं

रवीन्द्र त्रिपाठी


Ravindra Tripathi Reviews documentary 'Darwin's Nightmare'
ह्यूबर्ट सौपर (Hubert Sauper) की आस्ट्रियन-फ्रांसीसी-बेल्जियम डॉक्यूमेंट्री फिल्म `डार्विन्स नाइटमेयर’ 2004 में बनी थी और इसे 2004 के ही वेनिस फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया था। इस फिल्म को 2006 के 78वें एकेडमी एवार्ड्स में भी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की श्रेणी के तहत नामांकित किया गया था। ये कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में दिखाई जा चुकी है और विश्व भर में अपने पर्यावरणीय और मानवीय सरोकारों के लिए सराही भी जा चुकी है। ये ग्लोबलाईजेशन के दुष्प्रभावों को भी रेखांकित करती है और ये दिखाती है कि किस तरह विश्व की नई अर्थव्यवस्था में अभी भी समृध देश गरीब देशों का न सिर्फ शोषण कर रहे हं बल्कि उनको ऐसे दुष्चक्र में धकेल रहे हैं जिसमें भुखमरी से लेकर एड्स और वेश्यावृत्ति जैसी परिघटनाएं बढ़ रही हैं। फिल्म न सिर्फ एक खबर देती है बल्कि कई नैतिक मुद्दों को रेखांकित करती है। और आगे बढ़कर अफ्रीकी देशों के उस दुखांत को भी सामने लाती है जो `आजाद’ होने के बावजूद अघोषित आर्थिक साम्राज्यवाद के शिकार हैं।

`डार्विन्स नाइटमेयर’ वैसे तो तंजानिया में मछली पालन और मछली के व्यापार पर है लेकिन इसके कई तरह के आशय हैं। तंजानिया का विक्टोरिया झील एक विराट जलाशय है। कभी इस झील में तरह तरह की मछलियां पाई जाती थीं। लेकिन सन् 1960 के इर्दगिर्द इस झील में नील पर्च नाम की एक मछली वैज्ञानिक प्रयोग के तहत डाली गई। देखते ही देखते इस मछली ने दूसरी प्रजाति की तमाम मछलियों को खा डाला और `बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है’ वाली कहावत चरितार्थ हुई। उसके बाद शुरू हुआ एक दूसरा कारोबार। इस बड़ी मछली, नील पर्च, के निर्यात का कारोबार। आज लगभग यूरोप में बीस लाख लोग प्रतिदिन इस नील पर्च मछली को खाते हैं। लेकिन ये कारोबार सिर्फ व्यापारिक नहीं है। इससे कई मानवीय त्रासदियां जुड़ी हैं और दिखाती हैं कि तंजानिया मछली व्यापार के एक ऐसे मकड़जाल में फंस गया है जो उसके अंदर कई तरह की विसंगतियां पैदा कर रहा है।

फिल्म शुरू होती है तंजानिया के शहर म्वांजा (जो विक्टोरिया झील के करीब है) की हवाई पट्टी पर पूर्व सोवियत संघ के कार्गो जहाज इलीयूशीन-II के उतरने से। ये सरकारी हवाई जहाज नहीं बल्कि प्रायवेट हैं। उससे चार पायलट उतरते हैं जो रुसी या यूक्रनियाई मूल के हैं। फिल्म में पायलटों से साक्षात्कार लिया जाता है। उनकी गर्लफ्रेंड से भी। (जी हां, कई पायलटों की एक ही गर्लफ्रेंड है।) उसके बाद धीर-धीरे मछली व्यापार के तंत्र का खुलासा होता है। ऐसा नहीं होता कि मछली झील से निकाल कर सीधे सीधे जहाज में चढ़ा दी जाती है। बल्कि उसकी लंबी प्रकिया होती है। पहले मछली नावों के द्वारा कड़ी जाती है, फिर उसकी प्रोसेसिंग होती है यानी उसके मांस को हडडियों से अलग किया जाता है और बेहतर और स्वादिष्ट हिस्से को यूरोपीय बाजारों में आपूर्ति के भेजा जाता है। इस प्रोसेसिंग के कई चरण होते हैं। ये मछली, नील पर्च, इतनी महंगी होती है कि इसे स्थानीय लोग खरीद नहीं पाते। उनके हिस्से में सिर्फ हड्डिया आती हैं। म्वांजा में प्रतिदिन दो कार्गो जहाज आते हैं और मछली लेकर जाते हैं। हर जहाज में 55 टन मछली होती है।

डॉक्यूमेंट्री में इस हवाई पट्टी पर काम करनेवाले गार्डों, इस कारोबार में लगी कंपनियों के अधिकारियों के साथ साथ कई स्थानीय लोगों, बच्चों और महिलाओं से बात की गई है और उस दौरान कई तथ्यों का खुलासा होता है। जैसे एक तो ये कि इस कारोबार की वजह से स्थानीय स्तर पर महिला देह व्यापार बढ़ा है। कई महिलाएं इसी कारण एचआईवी जैसी बीमारियों से ग्रसित हो गई हैं। उनके इलाज की भी व्यवस्था नहीं है। मछली पकड़ने के लिए मछुआरे दूर दराज से बुलाए जाते हैं और उनकी मजदूरी भी बहुत कम है। काम का दबाव इतना ज्यादा है कि उनमें से कई बीमार पड़ जाते हैं और कुछ की तो मृत्यु भी हो जाती है। एक आदमी साक्षात्कार के दौरान बताता कि अगर कोई मछुआरा मर जाता है तो उसके मृत शरीर को उसके गांव में ले जाना बहुत ही महंगा होता है। प्रोसेसिंग जिस जगह पर होती है उसकी देखरेख में सुरक्षा गार्ड भी रहते हैं। एक सुरक्षा गार्ड ने बताया (और दिखाया भी) कि उसके पास जहर बुझे तीर होते हैं और किसी को ये तीर थोड़ा भी चुभ जाए तो उसकी मौत निश्चित है।

डॉक्यूमेंट्री में जोनाथन नाम के युवा पेंटर से बात की गई है जो अपनी कलाकृतियों में ये दिखाता है किस तरह म्वांजा में आर्थिक विषमता फैल रही है और लोग सड़कों पर रह रहे हैं। जोनाथन अपने कैनवासों पर शहर की जिंदगी के पहलुओ को चित्रित करता है। उसकी एक पेंटिंग में ये दिखाया गया है कि किस तरह शहर की एक लड़की एक कारवाले से भीख मांग रही है। जोनाथन बातचीत के दौरान बताता है कि जिन लड़कियों और औरतों को भीख भी नहीं मिलती वे देह व्यापार में लग जाती हैं। उसकी एक अन्य पेंटिग में दिखाया गया है कि कुछ लोग आपस में लड़ रहे हैं और एक आदमी टूटी हुई बोतल लिए दूसरे पर हमला कर रहा है। ये सब मछली व्यापार का असर है। जिस दौरान इस फिल्म की शूटिंग हो रही थी उस दौरान तंजानिया में अकाल पड़ा था। वह प्रसंग भी इसमें आता है।

डार्विन का मशहूर कथन कि `सबसे शक्तिशाली जीता है’ (सरवाईवल ऑफ द फिट्टेस्ट) एक नया अर्थ ग्रहण कर लेता है। यहां सबसे शक्तिशाली का अर्थ सिर्फ नील पर्च नाम की मछली नहीं है जो विक्टोरिया झील की सभी अन्य मछलियों को खाकर खत्म कर देती है बल्कि `पश्चिमी देश’ भी है जो तंजानिया या दूसरे अफ्रीकी देशों पर शोषण का फंदा अभी भी कसे हुए हैं। छोटी मछलियां तो अफ्रीकी देश हैं और समद्ध देश बड़ी मछली।

पर `डार्विन्स नाइटमेयर’ में सिर्फ मछली व्यापार का व्यापार को नहीं दिखाया गया है। विदेशी पायलटों के साक्षात्कार के दौरान ये भी पता चलता है कि तंजानिया की इस हवाई पट्टी पर उतरने वाले जहाज खाली नहीं आते है। आखिर खाली आने की लागत भी ज्यादा होती है। और उनका खाली आना मुनाफे का सौदा भी नहीं है। इसलिए वे बड़े गोपनीय तरीके से हथियार और दूसरे अस्त्रशस्त्र भी लाते हैं जिसे यहां से (तंजानिया से) अंगोला भेजा जाता है। इस तरह मछली व्यापार हथियार के सौदागरों के लिए एक बहाना बन जाता है जिसकी आड़ में वे अपना कारोबार चलाते हैं। 

Darwin's Nightmare is a 2004 Austrian-French-Belgian documentary film written and directed by Hubert Sauper, dealing with the environmental and social effects of the fishing industry around Lake Victoria in Tanzania. It premiered at the 2004 Venice Film Festival, and was nominated for the 2006 Academy Award for Documentary Feature at the 78th Academy Awards. The Boston Globe called it

डार्विनस नाईटमेयर 



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Part 4 of 10


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Part 7 of 10


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Part 9 of 10


Part 10 of 10

फिल्म के निर्देशक ह्यूबर्ट सौपर को `डार्विन्स नाइटमेयर’ बनाने का खयाल तब आया था जब वे 1998 में डॉक्यूमेंट्री फिल्म `किसनगानी डायरी’ ( 1998) बना रहे थे। ये रवांडा के शरणार्थियों पर है। उस डॉक्यूमेंट्री पर शोध करने के दौरान सौपर के पता चला कि उस दौरान उन शरणार्णियों के खाने के जिस जहाज से खाद्य सामग्री लाई जाती थी उसी से गुप्त तरीके से हथियार भी लाए जाते थे जो विरोधी पक्ष के लिए होते थे। दिन में जो शरणार्थी जहाज से लाए खाद्य सामग्री को खाकर पेट भरते थे और जिंदा रहते थे उनको रात में इसी जहाज से लाए हथियारों से मार दिया जाता था। इस तरह मानवीय सहायता और नरसंहार का खेल साथ साथ चलता था। सौपर का वो शोध जारी रहा और आगे उनको जो जानकारियां मिलीं उसी का नतीजा रहा `डार्विन्स नाइटमेयर’ । ये फिल्म सचाई को जताने वाली एक भयावह खबर है और साथ ही एक दुस्वन भी। ये अंतरराष्ट्रीय व्यापार के अंडरवर्ल्ड में जाती है और खौफनाक सूचनाएं लाती है। 

रवीन्द्र त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार, फिल्म-कला-रंगमंच-साहित्य समीक्षक, व्यंग्यकार और वृत्तचित्र निर्माता हैं... आप ईमेल  tripathi.ravindra@gmail.com मोबाईल 09873196343 पर उनसे संपर्क कर सकते हैं।

Darwin's Nightmare
2004 Entrevues Film Festival (Entre vues), Audience Award
Darwin's Nightmare -Directed by Hubert Sauper 
Awards
2004 European Film Award for Best Documentary
2004 Vienna International Film Festival, Vienna Film Award
2005 Thessaloniki Documentary Festival, Audience Award
2005 Angers European First Film Festival, European Jury Award
2005 Mexico City International Contemporary Film Festival, Audience Award
2005 Sydney Film Festival, FIPRESCI Prize
2005 Yamagata International Documentary Film Festival, Special Jury Prize and Community Cinema Award
2006 César Award for Best First Work (Meilleur premier film)
2006 Academy Awards Best Documentary Feature nominee



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