दो गज़लें - मूसा खान अशांत


अब  तो  लगता  है  इस  तरह से  जीना होगा
प्यास  लगने  पे  लहू  अपना  ही  पीना  होगा

किसको फुर्सत है की ग़म बाँट ले गैरों का यहाँ
अपने  अश्कों  को  तुम्हे  आप  ही पीना होगा

ये  दरिंदों  का  नगर  है   यहाँ  इन्सान  कहाँ
जीने  वाले  को  यहाँ   ज़हर  भी  पीना  होगा

Mosa khan Ashant Barabankvi मूसा खान अशांत बाराबंकवी

हाथ में  सबके है  खंजर यहाँ  क़ातिल  हैं सभी
ऐ   मेरे  दोस्त  यहाँ   होठों  को  सीना  होगा

सोचता  हूँ  कि  कहाँ  सर  ये  झुकाऊं  ‘मूसा’
किस  जगह  काशी  कहाँ  अपना मदीना होगा



उसके   घर   के  क़रीबतर  होता
तो  मिरा  घर  भी कोई घर होता

उन  हवाओं  से  साँस  भर  लेता
उनका आँचल जिधर जिधर होता

गुनगुनाता   नयी   नयी   ग़ज़लें
वो  मिरी  ज़ीस्त  में  अगर होता

सज  संवर  के निकलते वो बाहर
ईद  का जश्न  अपने   घर होता

आरज़ू   दिल  में  है  यही ‘मूसा’
आपका  दर औ अपना सर होता

मो० मूसा खान अशांत बाराबंकवी
मो० 073 76 255606
ईमेल mmkashant@gmail.com

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