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कहानी: भेड़-भेड़िए - अरविन्द जैन


महिलाओं और कानून पर लिखने वाले अधिवक्ता "औरत होने की सज़ा" के लेखक अरविन्द जैन (Arvind Jain) की कहानियां प्रकाशित होती रही हैं.
"भेड़-भेड़िए" के दो पैराग्राफ के बाद तीसरे में ही कुछ ऐसा हुआ कि मुझे लगा कि शायद मैंने पहले-दूसरे को ध्यान से नहीं पढ़ा है. वापस शुरू से पढ़ा और महसूस हुआ कि उनकी लिखी हर पंक्ति का हर शब्द कुछ-ज़रूरी कह रहा है और ये बात कहानी के अंत तक ज़ारी रही.
कहानी छोटी है शायद इसलिए कि लेखक ने अपनी बात को कहने के लिए ज्यादा (या कहें फ़ालतू) शब्दों का प्रयोग नहीं करा है - - - यह ही उनकी शैली की विशेषता लगी वर्ना पेशे से अधिवक्ता और हर दूसरे खबरिया टी० वी० चैनल पर बहस में नज़र आने वाले अरविन्द जैन को, बातों को बड़ा करके कैसे लिखा जाए, ये अच्छी तरह आता होगा...
पाठको से अनुरोध है कि कहानी पढ़ते वक़्त शुरू से ही, हर शब्द को बड़े ध्यान से पढ़े क्योंकि २००० शब्दों की ये कहानी खत्म होने पर कहीं गहरे बैठने वाली है.
- भरत तिवारी  (संपादक)

  मधु और माणिक के बीच अवैध संबंधों के हिंसक और जंगली घोड़े हिनहिनाने लगे, तो दूर-दूर तक अनहोनी ने भी अपने पाँव पसारने शुरू कर दिए. प्रेम के पागलपन में आवारा और उद्दाम आकाक्षाएं, निरंतर क्रूर और वहशी होने लगी. ऐसे में वासना की गोद में लेटी कामनाओं ने, सच के संभावित चशमदीद गवाहों को हमेशा के लिए चुप्प करने-कराने का षड़यंत्र रचा होगा.

पता नहीं मुझे क्यों लगता है क़ि फ्रिज में रखा दूध फट गया होगा. डीपफ्रिज खोलते डर लगता है क़ि गले-सड़े संबंधों की लाशें बाहर निकल आएँगी. हर समय महसूस होता है कि रिश्तों क़ि तमाम पावनता-पवित्रता संदेह के घेरे में आ खड़ी हुई हैं. बाहर ही नहीं, दोस्तों या रिश्तेदारों से भी डर लगने लगा है कि कहीं कोई साजिश तो नहीं रच रहा. बड़े भाई ने जूस का गिलास लाकर दिया, तो दिमाग में संदेह के कीड़े कुलबुलाने लगे कि जरूर ज़हर मिला कर लाया होगा. आस्था और विश्वास- कांच के टुकड़ो की तरह, दिलो-दिमाग में बिखरे पड़े हैं और रह-रह कर चुभते रहते हैं. घर से दफ्तर के बीच का रास्ता, किसी सुनसान श्मशान सा लगता है. सारी रात सपने में कभी भूखा-प्यासा और लहूलुहान, दूर तक पसरे थार, बीहड़ जंगल या दुर्गम पहाड़ियों में चीखता-चिल्लाता घूमता रहता हूँ, कभी किसी तूफानी नदी में कागज़ की किश्तियाँ चलाते-चलाते डूब जाता हूँ. मैं उस घटना-दुर्घटना को भूलना चाह कर भी, भूल ही नहीं पाता.

       हमारा घर माणिक कि हवेली से थोड़ी ही दूर था , सो आना-जाना लगा ही रहता था. जन्मदिन की पार्टी से लेकर पिकनिक तक में अक्सर माणिक, हमारे साथ ही रहता. धीरे-धीरे माणिक, मधु के प्रेम के चक्कर में पड़ गया था. न जाने कब, क्यों और कैसे? संभवत मधु का सपना था, अपना एक 'ब्यूटी पार्लर' खोलना और माणिक ने उस सपने को हकीक़त में बदलने के,ख्वाब दिखाने शुरू कर दिए थे.

       माणिक की हवेली, किसी आलिशान किले से कम न थी. हवेली के बाहर चमचमाती देशी-विदेशी मंहगी गाड़िया खड़ी रहती थी और बड़ी-बड़ी मूंछों वाले चौकीदार. हवेली के चारों तरफ हमेशा पेड़, पौधे और रंग-बिरंगे फूल खिले रहते थे. दो-तीन माली सुबह से शाम तक इनकी, बच्चों से भी ज्यादा देखभाल जो करते थे. हर कमरे में एयर कंडीशनर और फर्श पर ईरानी कालीन. दिवाली के दिन तो हवेली, दुल्हन सी सजी दिखाई देती थी.

       आये दिन हवेली में कोई न कोई पार्टी या जश्न होता और मेहमान (युवा स्त्री-पुरुष) देर रात गए तक शराब पीते, मादक संगीत की धुनों पर नाचते-गाते, खूब मौज-मस्ती करते और सुबह होने से पहले ही गायब हो जाते. हर महीनें कबाड़ी आता तो अखबार, चिकने पन्नों वाली फ़िल्मी मैगज़ीन, अंग्रेजी नॉवेल और शराब की सैंकड़ों खाली बोतलें (टीचर, जॉनी वाकर, शिवास रिगल, ब्लैक डॉग) बोरी में भर कर ले जाता.

       माणिक कोई बहुत बड़ा उद्योगपति या कारोबारी नहीं बल्कि 'प्रोपर्टी डीलर' था यानि दोनों तरफ से दो प्रतिशत कमिशन पर जमीन, कोठी, बंगले, फ्लैट खरीदवाने-बिकवाने का काम करता था. दरअसल उन दिनों गली-गली में 'प्रोपर्टी डीलर', 'ब्यूटी पार्लर' और 'एन. जी. ओ.' के बोर्ड लगने शुरू हो गए थे. देखते-देखते लोगों के लिए दलाली से अच्छा और कोई काम नहीं रह गया था. दलाली चाहे जमीन जायदाद की हो या किसी भी सरकारी खरीद की. यहाँ तक कि बहुत से लोग तो कोटा, परमिट, पेट्रोल पम्प का लायसेंस, चुनावी टिकेट और हवाई जहाज से लेकर तोपों कि खरीद तक कि दलाली करने लग गए थे. हिंग लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा. अदालतों की बाहरी दीवारों पर तो एक बड़ा सा बोर्ड टंगा रहता "दलाओं से सावधान, अपने वकील से सीधे संपर्क करें". दिन-रात दलालों कि गाड़ियाँ, लाल बत्ती वाली गाड़ियों के इलाके से लेकर एयर पोर्ट तक ही घूमती रहती थी.

       दोनों के बीच चल रहे प्रेम-प्रसंगों की भनक लगी या शक होने लगा, तो मैं अपना घर बेच हवेली से थोड़ी दूर जा बसा. लेकिन अक्सर मधु और माणिक गायब हो जाते और दो-तीन दिन घूम-घूमा कर वापिस आ जाते. माणिक और मधु के बीच पांच सितारा होटलों में होने वाली रंगरेलियों के बारे में, अनुमान लगाया जा सकता हैं.

       मधु और माणिक के बीच अवैध संबंधों के हिंसक और जंगली घोड़े हिनहिनाने लगे, तो दूर-दूर तक अनहोनी ने भी अपने पाँव पसारने शुरू कर दिए. प्रेम के पागलपन में आवारा और उद्दाम आकाक्षाएं, निरंतर क्रूर और वहशी होने लगी. ऐसे में वासना की गोद में लेटी कामनाओं ने, सच के संभावित चशमदीद गवाहों को हमेशा के लिए चुप्प करने-कराने का षड़यंत्र रचा होगा.

       उस दिन सात साला बेटा और चार साल की बेटी टूयशन पढने क्या गए, कि फिर लौट कर ही नहीं आये. रास्ते में ही माणिक ने बच्चों को उठाया, गाड़ी में बैठाया और शहर के सुनसान पहाड़ी जंगल में ले जाकर, जिन्दा जला दिया. बच्चों को बचाने कि तमाम कोशिशें, व्यर्थ साबित हुई.

       उनके पास और भी तो विकल्प थे. बच्चों को छोड़ कर, भाग जाते देश-विदेश कहीं भी. कहते तो मैं खुद ही तलाक दे देता.पर कैसे भाग जाते? अनहोनी तो सिर पर, नंगी हो कर नाच रही थी. मन में अक्सर यह सवाल कोंधता है कि फूल से अबोध-निर्दोष बच्चों को पेट्रोल छिड़क कर जलाते समय, क्या माणिक कि आत्मा ने एक बार भी नहीं रोका-टोका होगा? ऐसे तो कोई जानवरों को भी नहीं मारता.

       कुछ ही महीने बाद, मधु को स्त्री होने और मुकदमें में सालों लगने कि वजह से, जमानत पर रिहा कर दिया गया और अन्तत: बरी भी हो गयी थी. न मालूम क्यों, मधु क़ी ज़मानत करवाने वाले वकील साब क़ी कुछ ही समय बाद दिन-दिहाड़े हुई हत्या भी मुझे आश्चर्यजनक सी लगती है. बार-बार शक़ होता है कि कहीं इसमें, मधु या माणिक या दोनों का हाथ तो नहीं.



       इसके बाद तो मुझे हर जगह वह ही घूमती नज़र आने लगी. बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन से लेकर एयर पोर्ट तक. हस्पताल, बाज़ार, होटल, पुलिस स्टेशन और मंदिर से लेकर माल तक. मोटरसाइकिल पर पीछे बैठे दो बच्चे देखते ही सायरन सा बजता कि यह इन्हें पहाड़ी जंगल ले जाकर जिन्दा जला देगा. मैं जब तक चीखता, तब तक वह बहुत दूर जा चुका होता. रेलवे स्टेशन पर, लावारिस सा बैग देख कर लगता कि इसमें दोनों बच्चों कि लाश होगी. पेट्रोल पम्प पर किसी को प्लास्टिक क़ी बोतल में पेट्रोल लेते देखता, तो सोचता कि माणिक बच्चों को जलाने के लिए ले जा रहा है. सालों डाक्टरी इलाज़ के बाद, थोड़ा ठीक होने लगा था कि फिर से अखबार में छपी खबर 'माणिक को सजा-ए-मौत' पढ़ कर सारे शरीर में संदेह कि ज़हर बुझी सुइयां चुभने लगी. बच्चों कि अनसुनी चीखें अब भी अदालत के उन गलियारों में सुनाई पड़ती हैं, जहाँ मुकदमें कि सालों सुनवाई होती रही.

       दस साल बाद अखबारों में समाचार छपा था कि तमाम गवाहों, तथ्यों-सत्यों को देखते हुए और दोनों पक्ष के विद्वान वकीलों कि बहस सुनने के बाद, सेशन जज ने माणिक को ‘सजा-ए-मौत’ का हुकुम दिया है, बशर्ते कि उच्च न्यायालय फैसले कि पुष्टि कर दे.

       ‘सजा-ए-मौत’ तो ठीक लगी, बहुत खुश भी हुआ मगर 'बशर्ते कि उच्च न्यायालय फैसले कि पुष्टि कर दे' को लेकर मन में सैंकड़ों सवाल उमड़ते-घुमड़ते रहते. उच्च न्यायालय ने पुष्टि नहीं कि तो? क्या बरी कर देगी....क्या उम्र कैद में बदल देगी? माणिक बच जायेगा, तो फिर से बच्चों को जलाएगा. नहीं...नहीं....नहीं....ऐसा नहीं हो सकता... अगर हुआ तो...तो..तो...मैं ??????

       उच्च न्यायालय का फैसला आने तक, मेरी हालत पहले से भी ज्यादा खराब होने लगी. कभी कहीं बम्ब विस्फोट में बच्चे मारे जाते और कभी किसी ट्रेन में आग लगने-लगाने से. कभी स्कूल कि छत गिरने से मासूम बच्चों कि मौत तो कभी बस दुर्घटना से. कभी नाबालिग बच्चियों की बलात्कार के बाद, गला घोंट कर हत्या कर-करवा दी जाती तो कभी किसी गंदे नाले या नहर से किसी अनाम बच्चे या बच्ची क़ी सड़ी-गली लाश बरामद होती.

       अब तो अखबारों से बहुत पहले, टी.वी. चैंनलों के कैमरा घटनास्थल पर पहुँच कर आँखों देखा हाल सुनाने लगते हैं. ऐसी खबरे पढने-सुनने के बाद तो सचमुच दिमाग भन्नाने लगता है और ऐसे महसूस होता है, जैसे हर जगह शिकारी गश्त लगा रहे हैं. मैं जब तक सारे अखबार फाड़-फाड़ कर कचरे का ढेर लगाता हूँ, तब तक नए अखबार ‘आज की ताजा खबर’ के साथ दरवाजे पर घंटी बजाने लगते हैं.

       टी. वी. बंद .... अखबार बंद ..... और दिमाग बंद कर हफ़्तों गुमसुम अपने कमरे में ही पड़ा-पड़ा, न जाने क्या-क्या सोचता-समझता रहता हूँ. सबने पागल कहना शुरू कर दिया है. कोई 'फिलास्फर' कहता है और कोई सिरफिरा या सनकी. ब्रेकिंग न्यूज़ यह है कि ‘देश और समाज के बारे में सोचने को, दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया है’. सूचना के अधिकार के तहत जो कोई भी सूचना मांगेगा, उसे गोली मार दी जाएगी.

       मैं अपने आप को बहुत समझाता-बुझाता हूँ "कल से दफ्तर जाऊँगा, मन लगा कर काम करूंगा, कुछ भी उलटा-पुल्टा नहीं सोचूंगा, और...और.... कोई फिजूल पंगा नहीं...." परन्तु दोपहर होते-होते दिमाग में फिर से वही गर्मी और फितूर करवटें लेने लगता है. मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊं.... किससे कहूं?

       लगभग दो साल बाद वही हुआ, जिसकी आशंका थी. अखबारों में छोटी सी खबर थी कि उच्च न्यायालय की माननीय न्यायमूर्ति सुश्री (क्षमा करें याद नहीं आ रहा, न जाने क्या नाम था जजसाहिबा का) ने गंभीरतापूर्वक वरिष्ठ वकीलों कि बहस सुनने और तमाम मुद्दों पर विचार करने के बाद, सजा फांसी की बजाय, बीस साल उम्र कैद में बदलते हुए कहा है कि यह 'दुर्लभतम में दुर्लभ' मामला नहीं है.

       खबर बहुत ही छोटी सी छपी या छापी गई थी मगर मेरे लिए तो यह किसी भयंकर भूकंप जैसी थी, जिसमें बहुत कुछ तहस-नहस हो गया या होने वाला था. खबर पढ़ते-पढ़ते ही दिमाग सुन्न सा हो गया.चाय का कप फर्श पर गिरा और टूट गया. चश्मा उतारने लगा, तो हाथ फूलदान से जा टकराया. ना चश्मा बचा और ना ही फूलदान. शाम तक शायद कुछ भी साबुत नहीं बच पाया. रही-सही आशा, उम्मीद और विश्वास को पिछले प्रांगन में दफ़न कर दिया. दिल,दिमाग और आत्मा किसी ऐसे गहरे अंधे कुंए में भटक रहे हैं, जिससे फिलहाल बाहर निकलने का कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा.

       ऐसी ही मनः स्थिति में दिन...महीने....साल बीतते गए. निरंतर धर्म-ध्यान-योग-साधना-और चिंतन के बावजूद, ना कोई फायदा हुआ और ना होने कि कोई गुंजाइश दिखती है.

       सुबह घर से दफ्तर जाते समय, राजघाट से लेकर राजपथ तक ट्रैफिक जाम था. रास्ते में देखा कि न्याय के सबसे बड़े मंदिर के सामने दुनिया भर के टी.वी. चैंनलों क़ी गाड़ियाँ खड़ी हैं और रोजाना क़ी अपेक्षा कुछ ज्यादा ही भीड़ है. भीड़ में आम आदमी कम, काले-काले लम्बे चोगे वाले अधिक दिखाई दे रहे हैं. मन में यह ख्याल भी आया कि माणिक के खिलाफ दायर, सरकार कि अपील पर क्या कोई निर्णय हुआ या नहीं? मैंने हमेशा कि तरह निराशावादी ढंग से अनुमान लगाया कि कुछ नहीं होगा.....कुछ भी नहीं होगा..... सिवा तारीख....तारीख.....तारीख.

       रात को खाना खाने के बाद थोड़ी देर अमर्त्य सेन क़ी पुस्तक 'एन आईडिया ऑफ़ जस्टिस' के पन्ने पलटता रहा और ना जाने कब गहरी नींद सो गया. पिछले पुस्तक मेले में खरीदी इस किताब को, आज तक खोल कर भी नहीं देखा. सुबह-सवेरे आँख खुल गयी तो मन हुआ कि पहले कि तरह, आज से पार्क घूमने जरूर जाया करूंगा. उस दिन वैसे भी छुट्टी थी, सो चुपचाप कपडे और जूते पहन सैर करने निकल पड़ा.

       पार्क में घंटा भर चक्कर काटने के बाद इच्छा हुई क़ि एक कप चाय पी जाये तो मज़ा आ जायेगा. चाय का आर्डर देकर मैं पास पड़े बेंच पर बैठ गया. सोचा जब तक चाय आती है, तब तक सामने पड़ा अखबार ही देख लेता हूँ. हाथ बढा अखबार उठाया और एक के बाद एक खबर पढने लगा.

       पढ़ते-पढ़ते अचानक कानूनी पन्ना सामने था. सबसे नीचे एक कालम में मुश्किल से दस लाइनो का समाचार. सुप्रीम कोर्ट द्वारा माणिक केस में दायर, राज्य सरकार की याचिका खारिज.फैसले में कहा गया है ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी को फांसी कि सजा सुनाई मगर हाई कोर्ट ने इसे २० साल कैद में बदल दिया. हाई कोर्ट के फैसले के विरुद्ध राज्य सरकार ने विशेष अनुमति याचिका दायर की, जिसे दो साल बाद सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया गया. स्वीकार करने के छः साल बाद, अब यह अपील अंतिम सुनवाई पर आई है. सभी पक्षों ने माना कि इस बीच बीस साल की सजा पूरी होने के कारण, माणिक को जेल से रिहा कर दिया गया है. इस हालात में अपील मंजूर करके, सजा-ए-मौत का आदेश देना सचमुच न्याय का मज़ाक उड़ाने के समान होगा. हालांकि हम ट्रायल कोर्ट के फैसले को सही मानते हैं, जिसमें कहा गया है कि प्रतिवादी द्वारा किया अपराध वास्तव में बेहद बर्बर है और किसी रहम के काबिल नहीं है.

        माणिक जेल से कब रिहा हुआ....मुझे पता भी नहीं चला. उफ़....पता नहीं लड़का कब, चाय का कप रख कर चला गया और चाय रखी-रखी ठंडी हो गई या खबर पढ़ते-पढ़ते कब, कैसे और क्यों बेहोश हुआ और कौन मुझे उठा कर हस्पताल लाया. होश आया तो मैं किसी विशालकाय अदालत के खंडहरनुमा संग्राहलय में घुन्न या दीमग लगी मेज-कुर्सियों और किताबों के ढेर में आग लगा, जोर-जोर से बोलता जा रहा था 'आर्डर....आर्डर….जस्टिस........हाज़िर हों'.

       आग कि रौशनी में सामने बनी मीनार के पत्थर पर बनी, सदियों पुरानी कोई कलाकृति दिखाई दी तो पास जाकर देखने लगा और देखता ही रह गया. किसी भेड़िएनुमा आदमी के एक हाथ में भारी सी तलवार थी और दूसरे में तराजू. उसके पीछे एक बड़े से पेड़ पर बैठे बन्दर अजीब-अजीब सा मुंह बना रहे थे और बेहद भयभीत नज़र आ रहे थे. दांई तरफ बाड़े में बंद भेड़ों के सिर पर, काली पट्टी बँधी थी. उसके ठीक सामने काठ का काफी मोटा सा लट्ठा रखा था, जिसपर खून से लथपथ कटी हुई भेड़ पड़ी थी. मुझे ऐसा लगा जैसे तराजू के एक पलड़े में भेड़ का मांस है और दूसरे में सोने-चांदी के सिक्के. भेड़िएनुमा आदमी के चेहरे पर रहस्यमयी सी मुस्कान और अपार संतोष नज़र आ रहा था.

       दोस्तों! मुझे तो आज तक उस कलाकृति का सही-सही मतलब समझ नहीं आया. आपको कुछ समझ आये, तो मुझे जरूर बताना. मैं सचमुच आपका आभारी हूँगा.

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