ग़ालिब छुटी शराब, शेखर - एक जीवनी, गुनाहों का देवता, राग दरबारी और जॉनाथन लिविंग स्टोन सीगल में क्या चीज़ कॉमन है ? ये उन पुस्तकों के नाम हैं - जिन्होंने मुझे अलग-अलग वक़्त पर इतना प्रभावित किया कि ज़िन्दगी को देखने और जीने का मेरा नज़रिया और तरीका बदला... और ये मेरे हाथ की पहुँच में रहती हैं
यहाँ ग़ालिब छुटी शराब की बात करना चाह रहा हूँ। मुझे बाकी और ग़ालिब छुटी शराब में एक बड़ा अंतर दिखा, जहाँ बाकियों को पहली बार पढ़ने में यह रहा कि रातों-रात ख़त्म वहीँ ग़ालिब , चाय की चुस्कियों की तरह पढ़ी गयी, सुबह की पहली चाय के जैसे कि जल्दी ख़त्म ना हो, कि कहीं कोई स्वाद छूट ना जाये।
इस की तसदीक करता है वो हस्ताक्षर, जो रवीन्द्र जी ने 27/8/2013 को मुझे पुस्तक भेंट करते समय, ज्ञानपीठ के अपने लोधी रोड के दफ्तर में, किताब पर "भरत तिवारी को सस्नेह" लिखने के बाद किया... और आज 21/11/2013 की तारीख जब ग़ालिब ... को अभी कोई एक घंटे पहले खत्म किया है.... और इस दुःख में हूँ कि ख़त्म हो गयी, थोडा और सब्र से पढ़ा होता तो कुछ दिन और पढता। मैंने पहले कभी तीन सौ पन्नो को पढने में नब्बे दिन नहीं लगाये थे – वाह क्या स्वाद है इस शराब का, क्या शुरुर !
बहरहाल जब ग़ालिब छुटी शराब पढ़ रहा था (पिछले तीन महीने) तो ज़िदगी से जुड़े रोज़मर्रा के काम और हिंदी-साहित्य की गतिविधियों (रोज़मर्रा का ही हिस्सा) से भी जुड़ा रहा... और इस सारे वक़्त ग़ालिब छुटी शराब को ले कर एक ही बात ज़ेहन में उठती रही - जिसे आप को नहीं बताया तो पेट में दर्द शुरू हो जायेगा ...
जिधर भी देखा साहित्यिक पार्टीयों, गोष्ठीयों, औपचारिक-अनौपचारिक मुलाक़ात, सोशल मिडिया.... जिसे भी देखा समीक्षक, कथाकार, कवि, प्रकाशक... यही सोचता रहा - क्या इनमे से कोई दूसरा रवीन्द्र कालिया बनेगा? संबंधों की इतनी धता उतारने के बाद क्या इनमे से कोई अपनी ग़ालिब छुटी शराब लिख सकेगा.... ना ! दुःख हुआ, जिसे भी इस दृष्टि से देखा कि क्या ये ? जवाब अंततः "नहीं लिख सकेगा" ही आया।
और हर एक "ना" ये दिखा गयी कि हमने संबंधों को सिर्फ-और-सिर्फ व्यावसायिक बना छोड़ा है.
कुल जमा हासिल यही हुआ कि ग़ालिब छुटी शराब अब शेखर - एक जीवनी, गुनाहों का देवता, राग दरबारी और जॉनाथन लिविंग स्टोन सीगल के साथ बेड-टेबल पर ही रहेगी, शेल्फ में नहीं जाएगी।
आपका
यहाँ ग़ालिब छुटी शराब की बात करना चाह रहा हूँ। मुझे बाकी और ग़ालिब छुटी शराब में एक बड़ा अंतर दिखा, जहाँ बाकियों को पहली बार पढ़ने में यह रहा कि रातों-रात ख़त्म वहीँ ग़ालिब , चाय की चुस्कियों की तरह पढ़ी गयी, सुबह की पहली चाय के जैसे कि जल्दी ख़त्म ना हो, कि कहीं कोई स्वाद छूट ना जाये।
इस की तसदीक करता है वो हस्ताक्षर, जो रवीन्द्र जी ने 27/8/2013 को मुझे पुस्तक भेंट करते समय, ज्ञानपीठ के अपने लोधी रोड के दफ्तर में, किताब पर "भरत तिवारी को सस्नेह" लिखने के बाद किया... और आज 21/11/2013 की तारीख जब ग़ालिब ... को अभी कोई एक घंटे पहले खत्म किया है.... और इस दुःख में हूँ कि ख़त्म हो गयी, थोडा और सब्र से पढ़ा होता तो कुछ दिन और पढता। मैंने पहले कभी तीन सौ पन्नो को पढने में नब्बे दिन नहीं लगाये थे – वाह क्या स्वाद है इस शराब का, क्या शुरुर !
बहरहाल जब ग़ालिब छुटी शराब पढ़ रहा था (पिछले तीन महीने) तो ज़िदगी से जुड़े रोज़मर्रा के काम और हिंदी-साहित्य की गतिविधियों (रोज़मर्रा का ही हिस्सा) से भी जुड़ा रहा... और इस सारे वक़्त ग़ालिब छुटी शराब को ले कर एक ही बात ज़ेहन में उठती रही - जिसे आप को नहीं बताया तो पेट में दर्द शुरू हो जायेगा ...
जिधर भी देखा साहित्यिक पार्टीयों, गोष्ठीयों, औपचारिक-अनौपचारिक मुलाक़ात, सोशल मिडिया.... जिसे भी देखा समीक्षक, कथाकार, कवि, प्रकाशक... यही सोचता रहा - क्या इनमे से कोई दूसरा रवीन्द्र कालिया बनेगा? संबंधों की इतनी धता उतारने के बाद क्या इनमे से कोई अपनी ग़ालिब छुटी शराब लिख सकेगा.... ना ! दुःख हुआ, जिसे भी इस दृष्टि से देखा कि क्या ये ? जवाब अंततः "नहीं लिख सकेगा" ही आया।
और हर एक "ना" ये दिखा गयी कि हमने संबंधों को सिर्फ-और-सिर्फ व्यावसायिक बना छोड़ा है.
कुल जमा हासिल यही हुआ कि ग़ालिब छुटी शराब अब शेखर - एक जीवनी, गुनाहों का देवता, राग दरबारी और जॉनाथन लिविंग स्टोन सीगल के साथ बेड-टेबल पर ही रहेगी, शेल्फ में नहीं जाएगी।
शुक्रिया रवीन्द्र कालिया सर... ये आपके लिए -
ग़ालिब छुटी शराब ना छूटेगी ये किताब
पड़ता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में
आपका
1 टिप्पणियाँ
GAALIB CHHUTEE SHARAAB BAAR - BAAR PADHEE TO JAATEE HAI LEKIN LIKHEE NAHIN JAA SAKTEE HAI .
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