संसार की रहस्यमयताओं को खोलती प्रियदर्शन की कविता
हाथ
ये हाथ हैं
जिन्होंने हमें आदमी बनाया-
चौपाये से दुपाया।
इन हाथों से हमने बहुत कुछ रचा-
खिलौने बनाए, नाव बनाई पतवार बनाई,
तरह-तरह के औजार बनाए।
हथेलियों से लगी पांच-पांच उंगलियां हमारे बदन की सबसे सुंदर और नाजुक संरचनाएं रहीं
लेकिन बेहद मजबूत लचीली, कभी हार न मानने वाली।
जब ये हाथ किसी के हाथों से मिले तो दोस्ती ने मायने हासिल किए
जब ये हाथ किसी कंधे पर रखे गए तो दिलासे और भरोसे ने पलट कर देखा
जब इन उंगलियों ने साज़ छेड़े तो रोशनियों की तरह झरती ध्वनियों के जादू ने पहाड़ों, झरनों और पूरी कायनात को जीवित कर दिया
इन हाथों ने सुगंध और स्वाद को नए अर्थ और आयाम दिए
स्पर्श को प्रेम से लबालब मनुष्यता दी
इन हाथों ने जंगल साफ़ किए खेत बनाए,
पहाड़ तोड़े रास्ते बनाए
ये जो पूरी दुनिया हमारे सामने पसरी है
अपनी विशालकाय निर्मितियों से हैरत में डालने वाली
उसके बारे में सोच कर देखिए तो अजब सा लगता है
आख़िर ये दुनिया हमारी दोनों हथेलियों से लगी पांच-पांच छोटी उंगलियों का ही तो करिश्मा है।
पांव
पांवों ने भी कभी शिकायत नहीं की
तब भी जब हाथों ने चलने से हाथ खींच लिया और
रास्ता तय करने का काम पांवों पर छोड़ दिया।
वे चुपचाप चलते रहे, रास्ते के कांटे झेलते हुए
फफोलों और छालों को साथी बनाते हुए
बदन का पूरा बोझ अपने घुटनों और पिंडलियों पर ढोते हुए
खुरदरापन हाथों में भी आया, लेकिन पांव तो जैसे खुरदरेपन की कहानी हो गए।
इस सफ़र में ऐसा भी वक़्त आया होगा
जब तार-तार पांव चलने लायक नहीं बचे होंगे
तब हथेलियों ने निकाले होंगे कांटे, तलवों को सहलाया होगा
और फिर पांवों ने घिसट-घिसट कर आगे का रास्ता तय किया होगा।
सारी नदियां, सारे समंदर, सारे पहाड़ इन्हीं पांवो ने लांघे
क्या ये भी कम अजूबा है?
आंखें
बहुत कुछ देखने से वंचित रह गईं
लेकिन फिर भी आंखों ने बहुत कुछ देखा
एक लगभग गोलाकार पृथ्वी की चौरस लगती बेडौल संरचनाओं की
सुंदरता,
सदियों से पछाड़ खाते समंदर की लहरों का उठना-गिरना,
नदियों का बल खाना, वृक्षों का हवा में लहराना
खिलखिलाते हुए झरनों का पहाड़ों से उतरना और बिखर जाना
धरती और चांद के आरपार पसरे रात के आकाश में बेसुध तारों की झालर
धरती को अर्थ देते अक्षर
वे चरिंदे और परिंदे जो धरती और आकाश को गति, स्पंदन और सांस देते हैं
यह जीवन न होता तो वह हवा भी किस काम की होती जिसे हम जीवनदायिनी कहते हैं।
वाकई बहुत कुछ नहीं देख पाईं आंखें
लेकिन जितना देखा, उससे सत्य और सुंदर सार्थक हुआ
जीने की इच्छा जागी, रचने का भरोसा जागा।
कान
सिर के दोनों तरफ
अपनी आंखों को न दिखने वाली
ये कोमल उपास्थियां न होतीं
तो ध्वनियों का वह संसार कैसे संभव होता
जिसने रचे हुए, देखे हुए को साझा करने लायक बनाया।
एक-दूसरे को सुनना, अपने आसपास को बुनना,
चुप्पी को भी सुनना और सुनने को भी सुनना
सारा कहना-सुनना सिर्फ इसलिए संभव नहीं हुआ कि ज़ुबान थी,
बल्कि इसलिए भी कि कान थे जो कहीं न कहीं लगे रहते थे।
एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देने की तजबीज चाहे जिस कानाफूसी का नतीजा रही हो,
लेकिन इसी से यह संभव हुआ कि तमाम शोरो-गुल और कोलाहल के बीच वह सुनना संभव हुआ
जो हम सुनना चाहते रहे-
समय की आहट भी,
जीवन की फुसफुसाहट भी,
मृत्यु की सरसराहट भी,
सभ्यता की धुकधुकी भी
और
वह महामौन भी,
जो शून्य शिखर पर अनहद बजता है।
ज़ुबान
ज़ुबान के साथ न जाने कितनी क्रियाएं हमने जोड़ीं
ज़ुबान चलाने का बुरा माना, ज़ुबान फिसलने का और बुरा माना,
ज़ुबान देना और निभाना मुश्किल पाया,
ज़ुबान काटना जितना आसान लगा, उतना ही असंभव साबित हुआ
दरअसल सारे खेल ज़ुबान ने किए
उसे समझना और समझाना सबसे मुश्किल काम रहा,
जिन्होंने तोलने और बोलने के हुनर को बड़े अभ्यास से साधा
और ये मान लिया कि ज़ुबान पर पक्का नियंत्रण ही उनकी सफलता और स्वीकृति की गारंटी बना हुआ है,
उन्हें भी यह समझ में नहीं आया कि इस बालिश्त भर की चीज़ ने
कैसे चुपचाप और बेख़बर उनकी पोल खोल दी,
कि बोलना ही बोलने का हिस्सा नहीं है
न बोलना भी बोलने का ही हिस्सा है
कि बेहद मुलायम और लचीली लगने वाली ज़ुबान
जब खुलती है तो हम चाहे न चाहें
सच और झूठ के परदे भी खुलते चलते हैं।
दिल और दिमाग़
ठीक-ठीक नहीं मालूम,
दोनों में क्या फर्क़ है
दिल दिमाग़ की सुनता है
या दिमाग़ दिल की?
या दोनों अपने-अपने रास्ते चलते हैं
या फि कभी दिल दिमाग़ की सुन लेता है
और कभी दिमाग़ दिल की?
इन पेचीदा सवालों के बीच की सरल सच्चाई बस इतनी है
कि दिल और दिमाग़ के रिश्ते ने दुनिया बनाई भी तोड़ी भी।
इनकी वजह से कभी हाथ आततायी बने कभी पांव भगोड़े
इनकी वजह से आंखें समय पर कहीं और मुड़ गईं
इन्होंने कानों से कहा, बिल्कुल बंद
और
ज़ुबान से कहा, एकदम चुप।
इन्होंने साहस को दुस्साहस में बदला
कृति को दुष्कृति में
इन्होंने क्रोध को प्रतिशोध से जोड़ा
और इन्होंने ही प्रतिशोध के बाद प्रायश्चित भी किया।
इंसानियत इनकी वजह से ज़िंदा भी है
इंसानियत इनकी वजह से शर्मिंदा भी है
कह देना आसान है कि दिल और दिमाग को वहीं लगाएं
जिससे अपना भी भला हो और सबका भी,
लेकिन प्रेम और घृणा की, स्वार्थ और परित्याग की,
स्मृति और संभावना की, हताशा और उम्मीद की
और ऐसी ही बहुत सारी दूसरी भावनाओं की
जब बहुत तीखी टकराहट चलती है तो
दिल और दिमाग़ दोनों काबू में नहीं रह पाते
कभी भगवान हो जाता है इंसान
कभी शैतान बन जाता है
बहरहाल, दिल और दिमाग की इस गुत्थी का करें भी क्या
और उनके साथ हाथ, पांव, आंख, कान, जुबान यानी पूरे जिस्म के रिश्ते को समझें कैसे।
यह जो काया की माया है
इसी में संसार समाया है।
1 टिप्पणियाँ
bahut hii sundar v sarthak rachnaen hain jo bahut kuchh kahti huee mahsoos hoti hain,badhai Priydarsha jee ko
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