तुम्हीं कहो कि यह अंदाज़े गुफ़्तगू क्या है - प्रियदर्शन | Priyadarshan on Khushwant Singh

तुम्हीं कहो कि यह अंदाज़े गुफ़्तगू क्या है

विस्थापन और बेदखली की मारी अपनी सदी में वे ऐसे बहुत कम ख़ुशक़िस्मत लोगों में थे जो अपने पिता के बनाए शहर और अपने दादा के नाम पर बनी कॉलोनी में ताउम्र रह सके

इसमें संदेह नहीं कि खुशवंत सिंह भारत के सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले लेखकों और स्तंभकारों में रहे। उनके आलोचक कम नहीं थे, लेकिन उनके मुरीदों की संख्या अक्सर इतनी बड़ी निकलती थी कि इस पाठकीय विराटता के आगे बाकी कसौटियां जैसे बौनी पड़ जाती थीं। अपने लेखन को मिली इस अखिल भारतीय स्वीकृति ने भी शायद उन्हें यह आत्मविश्वास दिया कि वे जो चाहे वह लिखें, खुल कर लिखें और ख़ुद पर भी लिखे।

          हालांकि ध्यान से देखें तो खुशवंत सिंह औसत प्रतिभा के लेखक रहे। उन्होंने चर्चित किताबें ढेर सारी लिखीं। ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’, ‘दिल्ली’, ‘सेक्स, स्कॉच ऐंड स्कॉलरशिप’, ‘नॉट अ नाइस मैन टू नो’, ‘वीमन ऐंड मेन इन माई लाइफ़’ जैसी किताबें हों या “विद मैलिस टुवर्ड्स वन ऐंड ऑल’ जैसा कॉलम- इन सबको बड़ी आसानी से याद किया जा सकता है। लेकिन खुशवंत सिंह ने ऐसा कोई मूल्यवान साहित्य लिखा जिसे समकालीन भारतीय लेखन की सर्वोत्कृष्ट रचनाओं के बीच भी रखा जा सके, यह याद नहीं आता। बेशक, सिखों के इतिहास को लेकर उनका काम महत्त्वपूर्ण माना जाता रहा है।

हिंदी में राजेंद्र यादव जो काम बड़ी गंभीरता से करने की विमर्शनुमा कोशिश में अपनों के बीच खलनायक होते चले गए, वही अपनी गप्पबाज़ शैली में खुशवंत सिंह ने अपने लिए दोस्त-यार जुटाते हुए कर लिया।

          मगर यदि वे वाकई इतने ही औसत लेखक थे तो उन्हें इस क़दर पसंद क्यों किया गया? दरअसल उनके औसतपन में कई तरह के तत्व थे। एक ढीला-ढाला खुलापन उनकी जीवन शैली में भी था और लेखन शैली में भी। विस्थापन और बेदखली की मारी अपनी सदी में वे ऐसे बहुत कम ख़ुशक़िस्मत लोगों में थे जो अपने पिता के बनाए शहर और अपने दादा के नाम पर बनी कॉलोनी में ताउम्र रह सके। आज़ादी के पहले और बाद की दिल्ली को उन्होंने बहुत क़रीब से देखा और सत्ता केंद्रों के भी बहुत क़रीब रहे। राजनीति, साहित्य, कला और संस्कृति की लगातार दिल्ली में सिमटती आती सत्ताओं ने खुशवंत सिंह को बड़े संपर्क भी दिए, उनसे जुड़े संस्मरण भी और लगातार लिखने लायक सामग्री भी। जो बेफिक्री उनके लिखे में दिखती रही, वह दरअसल उनके जिए हुए से निकलती रही जिसमें निजी दुख या अभाव या किसी और तक़लीफ़ की कोई गहरी छाया नहीं थी।

मेरे न रहने के बाद
शायद लोग मुझे इस तरह करें याद-
खुले थे उसके गुनाहों के हिसाब
मगर पढ़ी जाती थी उसकी क़िताब
- खुशवंत सिंह

          यह खाता-पीता खुशहाल जीवन उनके खाते-पीते खुशहाल लेखन का हिस्सा भी बना रहा। हालांकि यह कहना एक सरलीकरण होगा कि उनके हिस्से दुख नहीं आए होंगे- दुखों की सेंध बहुत बारीक होती है, वे दूसरों के धागे लेकर भी हमारी आत्माओं में उतर आते हैं। निस्संदेह खुशवंत अगर संवेदनशील नहीं होते तो वकालत या विदेश सेवा छोड़कर लेखन में नहीं आए होते। 

          दूसरी बात यह कि खुशवंत ने सहजता और सादगी को अपनी शैली बनाया। उन्होंने बौद्धिक होने का दिखावा कभी नहीं किया। वे अंग्रेजी में लिखने के बावजूद अपनी शैली को एक तरह की जनप्रियता प्रदान करते रहे। अपने नियमित स्तंभों में हास्य-व्यंग्य का पुट डालने के अलावा उन्होंने एक हिस्सा सीधे-सीधे चुटकुलों के लिए निकाला। लेकिन हास्य शायद उनके लिए सिर्फ लोकप्रिय होने का नुस्खा भर नहीं था। दरअसल खुशवंत इस बात को मार्मिक ढंग से समझते रहे कि किसी भी समाज की सेहत के लिए हंसी ज़रूरी है। हंसी होगी तो जड़ता या क्रूरता कुछ कम होगी- शायद यह भरोसा उन्हें था।

          ओढ़ी हुई नैतिकताओं और परंपराओं की धज्जियां भी खुशवंत सिंह ने जमकर उड़ाईं। वे अपने शराब पीने का, अपनी तथाकथित अय्याशियों का, अपनी ख़ूबसूरत महिला मित्रों का और उनके साथ शराब पार्टियों के दौरान चलने वाली शरारत का वे इस सहजता से ज़िक्र करते रहे कि लोगों ने बुरा भी न माना और परंपरा की नकाब भी उतरती रही। इस लिहाज से देखें तो हिंदी में राजेंद्र यादव जो काम बड़ी गंभीरता से करने की विमर्शनुमा कोशिश में अपनों के बीच खलनायक होते चले गए, वही अपनी गप्पबाज़ शैली में खुशवंत सिंह ने अपने लिए दोस्त-यार जुटाते हुए कर लिया।

          लेकिन आधुनिकता के प्रति उत्साह हो या परंपरा को लेकर संदेह- एक सरलीकरण खुशवंत सिंह में जैसे बार-बार मिलता है। इसी सरलीकरण से कभी खुशवंत ने रवींद्रनाथ ठाकुर को औसत प्रतिभा का लेखक बताया और कभी अज्ञेय का मज़ाक बनाया। इसके लिए वे आलोचनाओं से भी घिरे। लेकिन जिस शोहरत के घेरे में वे रह रहे थे, उसमें इन आलोचनाओं की उपेक्षा उनके लिए सहज-स्वाभाविक थी। इसके अलावा शायद अपनी राय पर कायम रहना उनकी फितरत में भी था। सलमान रुश्दी की किताब ‘सैटेनिक वर्सेज़’ पर प्रतिबंध के वे ख़िलाफ़ रहे। किताबों के साथ यह सलूक उन्हें मंज़ूर नहीं था। मगर इससे कहीं ज्यादा बड़ी पाबंदी थोपने वाली इमरजेंसी का वे हमेशा समर्थन करते रहे। 

          लेकिन ऐसे अंतर्विरोधों की रेखाएं कई तरह की सिलवटों से भरी उनकी शख्सियत में कहीं खो जाती थीं। वे उर्दू शायरी के बड़े मुरीद रहे और ग़ालिब और इक़बाल को पूरे जतन से पढ़ते और अपने लेखन में उद्धृत करते रहे। एक भरी-पूरी समृद्ध ज़िंदगी का संतोष उनकी कलम में झलकता रहा।

          दरअसल खुशवंत सिंह मुगालतों से ऊपर उठे हुए व्यक्ति और लेखक थे। बरसों पहले उन्होंने हिलेयर बेलोक को उद्धृत करते हुए बताया था कि वे कैसे याद रखा जाना पसंद करेंगे- “When I am dead, I hope it may be said, 'His sins were scarlet, but his books were read.” (मेरे न रहने के बाद / शायद लोग मुझे इस तरह करें याद- / खुले थे उसके गुनाहों के हिसाब / मगर पढ़ी जाती थी उसकी क़िताब)।

          बेशक, आजाद भारत की पत्रकारिता में खुशवंत सिंह का बड़ा मोल है- उन्होंने पत्रकारिता को बेलागपन और बेलौसपन दिया, अपनी और दूसरों की कमज़ोरियों से आंख मिलाने का सलीका दिया और सारी आलोचनाओं के बीच निर्भीक ढंग से हंसते रहने का हौसला भी। उनका अपना एक ‘अंदाज़े गुफ़्तगू’ रहा जिससे ज़माना बंधा रहा।
खुशवंत सिंह पर यह टिप्पणी प्रियदर्शन ने 'हंस' के लिए लिखी है

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