लघुकथा - शोभा रस्तोगी | A Short Story by Shobha Rastogi


लघुकथा

बाल मजदूरन - शोभा रस्तोगी


“हैं ! मेड रख ली तूने ? उम्र क्या है ?”
“बारह। यार, छोटे मोटे सौ काम खड़े रहते हैं। किसी को पानी, किसी को चाय, गेट खोलो, बंद करो, फलां, अलां …।”

“ये तो है। जरूरी कितना हो गया है परमानेंट मेड रखना।“

“बड़े काम के लिए तो बाई आती ही है।”

“वैसे, कहाँ हाथ मारा ?”

“गाँव में मेरे पापा के भट्टे हैं। वहीँ के मजदूर की बेटी है।”

“याद तो करती होगी घर को ?”

“धीरे धीरे सैट हो जाएगी।”

“अच्छा किया।” फुसफुसाई, “एक मेरे लिए भी ला दे यार।”

“बात करुँगी पापा से।“ टालते हुए बोली वो।

“ये ले। ख़ास तेरे लिए मंगवाए हैं गोवा से। छिलके वाले काजू। ग़ज़ब स्वाद है।”

“वाह ! मेरे लिए ! अब तो लानी ही पड़ेगी मेड तेरे लिए।”

“ये ले एक पैकेट और। एक बड़ा गिफ्ट मेड आने पर।”

“पक्का। आज ही करती हूँ बात पापा से।”

“सुन जरा। हमारा एन.जी.ओ. तो बाल मजदूरी का विरोध करता है न। पता लगा किसी को तो…?”

“नहीं लगेगा। एन.जी.ओ. के डायरेक्टर के घर दस-दस साल की दो चाइल्ड मेड हैं। आसाम से लाए थे… और सेक्रेटरी के ग्यारह की। बाकी सब के भी… ।”

“सच्ची ! फिर भी…?”
शोभा रस्तोगी
निगम प्रतिभा विद्यालय दिल्ली  में अध्यापिका
RZ-D - 208B, डी.डी.ए. पार्क रोड, राज नगर - II, पालम कालोनी, नई दिल्ली -110077
shobharastogishobha@gmail.com

“तब का तब देखेंगे। इन्हें बाहर का रास्ता नहीं दिखाना बस।“

“हाँ। ये ठीक है। वैसे, यार… हम अपने बच्चों को सीने से लगा कर रखते हैं। ये भी तो…।”

“पाल नहीं सकते इनके माँ बाप इन्हें। दो वक़्त की रोटी मुहैया नहीं होती। हमारे यहाँ, महल जैसा घर…  हमारे जैसा खाना-पीना। रंगत तक बदल जाती है यहाँ इनकी। फिर इनके घर पैसा भी तो भेजते हैं।”

“फिर भी यार। दिल तो सबके होता है।”

“दिल तो मान ही जाता है। पेट नहीं मानता।”

एन.जी.ओ. की दोनों अधिकारी चल दीं बाल मजदूरी विरोध में मीटिंग अटैंड करने।

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