ग़लती बाबा और 'हड़बड़ पार्टी' की गड़बड़! - क़मर वहीद नक़वी


ग़लती बाबा और 'हड़बड़ पार्टी' की गड़बड़!

- क़मर वहीद नक़वी


एक ग़लती बाबा हैं! दूसरों की ग़लतियों से पनपे और फूले. फूल-फूल कर कुप्पा हो गये! और अब अपनी ग़लतियों से पिचक भी गये! आप तो समझ ही गये होंगे कि हम 'आप' ही की बात कर रहे हैं! अरे वही तो, 'आप' के ग़लती बाबा केजरीवाल जी की! वह एक कहावत है, नेकी कर और दरिया में डाल. यानी नेकी कर और भूल जा. अपने ग़लती बाबा ने इसे ग़लती से पढ़ लिया, ग़लती कर और भूल जा! सो वह ग़लती करते जाते हैं, ग़लती मानते जाते हैं और फिर नयी ग़लती कर देते हैं!

ग़लती से हो या क़िस्मत से, राजनीति ने औचक करवट ले ली है. चुनावों में चटनी हार से काँग्रेस ढुलमुल यक़ीन हुई पड़ी है! सवाल उठने लगे हैं कि काँग्रेस का हाथ किसके हाथ में रहे? यह काँग्रेस के लिए बहुत बड़ा और बहुत कड़ा सवाल है! पता नहीं, काँग्रेस कोई कड़ा फ़ैसला ले पायेगी या फिर ऐसे ही चलती रहेगी. जवाब दोनों में से चाहे जो भी हो, काँग्रेस के सामने हाड़-तोड़ चुनौतियाँ हैं! पिछले बीस-पच्चीस बरसों में काँग्रेस एक-एक करके देश के तमाम राज्यों से लगातार सिमटती गयी है. और इस चुनाव ने उसकी रही-सही बखिया भी उधेड़ दी! ऐसे में वह चाहे पुरानी उँगलियों के इशारों पर चले या किसी नये करिश्मे की डोरी पर पेंगे भरने की सोचे, उसका निकट भविष्य में फिर से मोदी सेना से लड़ने लायक़ बन पाना फ़िलहाल तो आसमान से तारे तोड़ लाने जैसा नामुमकिन दिखता है!

अब पता नहीं, केजरीवाल जी को एहसास है कि नहीं? समय एक बार फिर एक सम्भावना बन कर उनके सामने उपस्थित है! देश को फ़िलहाल एक जुझारू विपक्ष चाहिए! ऐसा विपक्ष, जिसकी उपस्थिति सारे देश में हो. 'आप' को भले ही लोग 'नकटी' कह कर चिढ़ा रहे हों क्योंकि पिछले चुनाव में उसके लगभग सारे ही उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गयी थी, लेकिन यह कम बड़ी उपलब्धि है क्या कि  'आप' ने एक-डेढ़ साल की अपनी उम्र में ही हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज तो करा ली है. जनता में 'आप' की साख काँग्रेस से कहीं बेहतर हो सकती है, बशर्ते कि 'आप' राजनीति को गम्भीरता से लेना शुरू कर दे! ख़ास कर तब, जब काँग्रेस ख़ुद ही अपनी ऊहापोह की धुँध में बुरी तरह उलझी और अकबकाई हुई हो और उसे आगे का रास्ता न सूझ रहा हो! क्या केजरीवाल और उनके साथियों के मन में यह सवाल कौंधा है कि अब देश भर में बीजेपी का मुक़ाबला कौन करेगा? ज़ाहिर है कि बीजेपी के अलावा केवल दो ही और पार्टियों का विस्तार राष्ट्रीय स्तर पर है, एक काँग्रेस और दूसरी 'आप.' काँग्रेस की चर्चा हम पहले कर चुके. अब बाक़ी बच गयी आप! क्या 'आप' सत्ता के बजाय विपक्ष की लड़ाई लड़ कर बीजेपी का रास्ता रोकने की कोशिश करेंगे या ठाले बैठ कर उसे आराम से 'स्पेस' दे देंगे?

क्योंकि सत्ता तो अब 'आप' को शायद दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी न मिल पाये! इसलिए वह चाहे न चाहे, लड़ना तो उसे अब विपक्ष की लड़ाई ही है! यह भी अजब संयोग है कि काँग्रेस की तरह 'आप' के सामने भी नेतृत्व का ही संकट है, लेकिन एक दूसरे क़िस्म का? किसी को केजरीवाल की ईमानदारी, उनके इरादों, उनके जुझारूपन, इच्छाशक्ति, उनके नारों और वादों पर कोई शक नहीं. लोगों को अगर केजरीवाल पर भरोसा नहीं तो वह इस बात पर कि इसका कोई ठिकाना नहीं कि वह कब क्या कर बैठेंगे? कब धरने पर बैठ जायेंगे, कब कुर्सी छोड़ देंगे, कब जेल जाने की ठान लेंगे, कब क्या बोल देंगे, बिना यह सोचे-समझे कि बैठे-बिठाये उसका क्या ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ेगा. इसलिए ग़लती बाबा जब तक अपने आपको नहीं बदलेंगे, अपना काम करने और फ़ैसला लेने का तरीक़ा नहीं बदलेंगे, तब तक 'आप' ऐसे ही हाँफ़ू-हाँफ़ू करके घिसटती रहेगी.

और दुर्भाग्य से केजरीवाल की ग़लतियों का सिलसिला लम्बा है. सोमनाथ भारती के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के बजाय उनको 'न्याय' दिलाने के लिए धरने पर बैठ जाना! मुख्यमंत्री होते हुए ख़ुद ही क़ानून और सरकारी शिष्टाचार का मखौल उड़ाना! सांविधानिक प्रक्रियाओं का सम्मान न कर ज़बर्दस्ती अपना इस्तीफ़ा थोप देना! बिना कारण ही गालियाँ दे-देकर मीडिया को अपना दुश्मन बना लेना, आ मीडिया मुझे मार! बार-बार ऐसी बातें करना, जिसे निभाया न जा सके और आख़िर उनसे यू-टर्न लेना पड़े, चाहे वह बातें अनाड़ीपन में की गयी हों, ज़िद में की गयी हों या पार्टी के लोगों के दबाव में, लेकिन ऐसी बातों ने केजरीवाल को जहाँ मज़ाक़ का विषय बना दिया, वहीं उनके कट्टर समर्थकों तक को बिदका दिया!

अब सोचने वाली बात यह है कि इतनी ग़लतियाँ हुई क्यों और क्या तरीक़ा है कि ग़लतियाँ आगे न हों? यह सही है कि 'आप' हड़बड़ी में बनी एक पार्टी थी, लेकिन यह भी सोचनेवाली बात है कि यह कब तक 'हड़बड़ पार्टी' बनी रहेगी? लोकसभा चुनावों ने पार्टी को समर्पित कार्यकर्ताओं की लम्बी-चौड़ी फ़ौज दी है, अब उस पर संगठन का एक विधिवत और मज़बूत ढाँचा खड़ा करने की ज़रूरत है. नीचे से लेकर ऊपर तक पार्टी के फ़ैसले कैसे लिये जायें, इसकी कोई सुनिश्चित प्रक्रिया हो. यह नहीं कि कुमार विश्वास अगर पार्टी के बड़े नेता हैं तो मनमाने ढंग से अमेठी से अपनी उम्मीदवारी का एलान कर दें और पार्टी देखती रह जाय. फिर देखादेखी बाद में केजरीवाल को भी लगे कि उन्हें भी मोदी जैसे किसी 'बिग शाॅट' के ख़िलाफ़ लड़ना चाहिए तो वह भी आँख बन्द कर चुनाव मैदान में कूद जायें! और आपने चार सौ से ज़्यादा जिन उम्मीदवारों को चुनावी महाभारत में झोंक दिया हो, वे बेचारे अपने-अपने चक्रव्यूहों में अकेले पड़ कर मारे जायें! कोई बड़ी पार्टी ऐसे नहीं चल सकती!

टीम मोदी ने जिस तरह पिछला चुनाव लड़ा, ज़ाहिर-सी बात है कि अगले चुनाव अब उससे भी ज़्यादा ताक़त लगा कर लड़े जायेंगे और बीजेपी के अश्वमेध रथ को रोकने का सपना देखनेवालों को यह बात समझनी ही पड़ेगी. इसलिए 'आप' को भी समझना होगा कि पार्टी अब और 'तमाशेबाज़ी' से नहीं चल सकती! ऐसे तमाशों का अब कोई ख़रीदार नहीं! इसलिए पार्टी को एक राजनीतिक दल की तरह चलाइए, सर्कस कम्पनी की तरह नहीं! पार्टी का एक स्पष्ट 'मिशन स्टेटमेंट' होना चाहिए, एक सुविचारित 'विज़न डाक्यूमेंट' हो, यह तय हो कि पार्टी के क्या लक्ष्य हैं और उन्हें वह कैसे पूरा करेगी, राजनीतिक गठबन्धनों के बारे में क्या नीति हो और यहाँ तक कि सामान्य सदस्यता देने के आधार क्या हों, इन सब पर विचार और नीतियाँ स्पष्ट होनी चाहिए. ख़ास तौर पर इसलिए कि 'आप' ने राजनीति के एक नये आदर्श और शुचिता की एक लक्ष्मण रेखा को अपना 'यूएसपी' बनाया है, जनता उससे एक अलग तरह की राजनीति की उम्मीद रखती है. इसलिए पार्टी का दिमाग़ इस बारे में साफ़ होना चाहिए कि वह बाक़ी पार्टियों की तरह सत्ता की अवसरवादी राजनीति करेगी या शुचिता का झंडा उठाये रहेगी? मुझे लगता है कि राजनीतिक शुचिता और ईमानदारी पर ही 'आप' की साख टिकी है, यही उसकी इकलौती जीवनरेखा है और पार्टी अगर सत्ता के लालच में इससे डिगी तो कहीं की न रहेगी! अभी लोकसभा चुनावों के बाद 'आप' ने दिल्ली की गद्दी वापस पाने के लिए जो बचकानी कोशिशें की, उससे तो यही सन्देश गया कि पार्टी और उसके विधायक कुर्सी पाने के लिए तरस रहे हैं. जिस किसी ने भी अरविन्द केजरीवाल को लेफ़्टिनेंट गवर्नर को चिट्ठी लिखने की सलाह दी थी, तय मानिए कि उसे राजनीति के 'र' तक की समझ नहीं है!

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