आचार्य विश्वनाथ पाठक का स्वर्गवासी होना पालि प्राकृत और संस्कृत अवधी भाषा के लिए अपूरणीय क्षति है
सर्वमंगला के प्रणेता, साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त अवधी के सर्वप्रमुख रचनाकार
आचार्य विश्वनाथ पाठक का निधन 3 नवम्बर 2014 को फैजाबाद में हुआ
उनके देहांत से कुछ ही दिनों पूर्व ‘आपस’ के निदेशक डॉ. विन्ध्यमणि त्रिपाठी की उनसे एक लम्बी बातचीत हुई थी, आप सब के लिए उस वार्तालाप के कुछ अंश -
लोकभाषा को मनुष्य माता के दूध के साथ सीखता है
∎ डॉ. विन्ध्यमणि : 38 साल के बाद ‘सर्वमंगला‘ को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला ‘आप की उम्र लगभग 80 वर्ष है, कैसा महसूस कर रहे हैं?∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : देखिए विन्ध्यमणि जी! अब इससे इतना संतोष तो होता ही है कि देवी की कथा को सम्मान मिला। ‘निज कवित्त केहि लाग न नीका‘ लेकिन यह सब तभी सार्थक होता है जब अन्य लोगों को भी अच्छा लगें। आर्थिक लाभ से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, जितना कि रचना को सम्मान मिला। इससे मैं प्रसन्न हूँ, लेकिन इस ढलती उम्र में इस पैसे का उपयोग मेरे लिए कोई विशेष महत्व नहीं रखता।
लोकभाषा को मनुष्य माता के दूध के साथ सीखता है जबकि साहित्यिक भाषा का अभ्यास करना पड़ता है। लोकभाषा के कवि जो बिम्ब अंकित करते हैं वे उनके पार्श्ववर्ती होते हैं इसलिए उनमें स्वाभाविकता होती है। साहित्यिक भाषा के कवि बड़े-बड़े नगरों में ऊँची अट्टालिकाओं के कक्ष में पंखे की हवा खाते हुए गाँव का सिर्फ सपना देखते हैं और काल्पनिक कागजी घोड़े दौड़ाते हैं।∎ डॉ. विन्ध्यमणि : आप के समय के रचनाकार नये भावबोध की कविता से प्रभावित रहे, फिर आप लोकभाषा की तरफ क्यों मुड़े?
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : पहली बार ‘प्राकृत‘ और ‘अपभ्रश‘ का अध्ययन करने के बाद मुझे लोकभाषा में लिखने की प्रेरणा मिली। बहुत पहले राजशेखर ने ‘कर्पूर मंजरी‘ नामक छोटा नाटक प्राकृत में लिखा था, उसकी एक पंक्ति ने मुझे प्रभावित किया। वह उक्ति इस प्रकार है-‘उक्तिविशेषोकव्वो भासा जा होई सा होई‘ अर्थात् भाषा चाहे जो हो यदि उक्ति में विशेषता है तो वह काव्य है। इसके अतिरिक्त कई कवि सम्मेलनों में देखा तो यह पाया कि अन्य रसों की स्तरीय रचनाएं प्रायः खड़ी बोली में होती हैं कुछ ब्रजभाषा में भी होती थी, परन्तु हास्य रस की रचना के लिए कवि अवधी भाषा का प्रयोग करता था। यह मुझे अवधी का अपमान प्रतीत हुआ और मैंने अवधी में लिखने का निश्चय किया।
∎ डॉ. विन्ध्यमणि : सर्वमंगला को रचने का विचार कैसे आया?
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : अंग्रेजी के वर्चस्व और ग्राम्य भाषाओं की अवहेलना से मैं दुखी था। प्रायः शिक्षित लोग अवधी को ग्रामीणों की भाषा समझते थे। भले ही ‘रामचरितमानस‘ और ‘पद्मावत‘ लोगों को आकृष्ट करते रहे हो किन्तु आधुनिक अवधी की कविताएं हास्यास्पद अथवा उपेक्षा की दृष्टि से देखी जाती थी इसलिए मैंने निश्चय किया कि अवधी में कोई ऐसा काव्य लिखा जाय जिसको लोग अवहेलना की दृष्टि से न देख सकें और न ही मुझे अवहेलित करें। इसीलिए मैंने सर्वमंगला का अन्तिम सर्ग प्राकृत भाषा में लिखा है। यह केवल इसलिए ताकि लोग मुझे गँवार न समझ लें। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी यही किया है उन्होंने मानस के सभी काण्डों की शुरूआत संस्कृत के श्लोक से की है।
∎ डॉ. विन्ध्यमणि : ‘सर्वमंगला‘ की रचना प्रक्रिया को आप किस तरह याद करना चाहेंगे?
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : ऐसा है कि सन् 1963-64 में ‘दुर्गासप्तशती‘ की कथा के आधार पर मैंने एक काव्य लिखना प्रारम्भ किया उसके दो सर्ग ही लिखे जा सके थे तभी मेरी (दाहिनी) आँख में भयानक चोट लगी, मैं दो साल तक हताश पड़ा रहा, आँख की दवा चलती रही। चीन के आक्रमण के समय मैं काफी मर्माहत भी हुआ था। उस आक्रमण के समय जो देश में जागृति थी उसको समेटते हुए कथा को मोड़ दिया और कथावस्तु में नई उद्भावना की, साथ ही मानवीय विद्वेष और कलह को शान्त करने के लिए विश्वबन्धुत्व के प्राचीन भारतीय सिद्धान्त को मुख्य वर्ण्य विषय बनाया और शिवाद्वैत (शिवा शब्द शक्ति अर्थात् दुर्गा का वाचक है) के आधार पर जगत को शक्ति या देवी का व्यक्त स्वरूप निरूपित कर देशप्रेम और वैश्विक प्रेम को अध्यात्मिक रूप प्रदान करने का प्रयास किया।
कालिदास की यह विशेषता है कि वे मार्मिक स्थलों को पहचानते हैं और दृश्य विधान अथवा विस्तृत वस्तु व्यापार का वर्णन नहीं करते कि पाठक ऊब जाय∎ डॉ. विन्ध्यमणि : किन-किन कवियों ने आप को प्रभावित किया?
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : अवधी में ‘रामचरितमानस‘ और ‘पद्मावत‘ का अध्ययन किया था, प्रभावित भी हुआ, ब्रजभाषा में ‘सूरसागर‘ से प्रभावित हुआ। ‘सर्वमंगला‘ में प्रयुक्त छन्द ‘सार‘ और ‘सरसी‘ का प्रयोग संस्कृत में ‘जयदेव‘ कर चुके थे, उनको मैंने पढ़ा भी था। सूर की रचना शैली से प्रभावित रहा परन्तु इन छन्दों को मैंने जयदेव से नहीं लिया। उन्हें मैंने ‘सूरसागर‘ से ग्रहण किया। अन्य छन्द जैसे ‘पद्धरि‘ इन्हें मैंने अपभ्रंश के काव्यों से ग्रहण किया। संस्कृत कवियों में कालिदास के बिम्बग्राही वर्णनों से भी मैं प्रभावित रहा। कालिदास की यह विशेषता है कि वे मार्मिक स्थलों को पहचानते हैं और दृश्य विधान अथवा विस्तृत वस्तु व्यापार का वर्णन नहीं करते कि पाठक ऊब जाय इसका ध्यान मैंने ‘सर्वमंगला‘ में रखा हैं।
∎ डॉ. विन्ध्यमणि : अवधी का काव्यपक्ष जितना उर्वर दिखता है उतना गद्यपक्ष नहीं ऐसा भला क्यों?
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : कारण यह है कि अवधी की साहित्य सम्पत्ति कम नहीं थी फिर भी आधुनिक अवधी प्रायः उपेक्षित रही, प्रशासन की ओर से भी उसे कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता था इसीलिए कवियों ने गद्य की तरफ ध्यान नहीं दिया और न ही विश्वविद्यालयों में अवधी पढ़ाई ही जाती थी। अवधी का गद्य बिल्कुल उपेक्षित रहा इसलिए भी उधर कोई लेखक अग्रसर नहीं हुआ। इधर लेकिन काफी अच्छा काम हुआ है उनका प्रयास भी श्लाध्य है फिर भी इस दिशा में और सजग प्रयास होना चाहिए। अवधी गद्य में ‘निर्मोही बाप‘ और ‘अमंगलहारी‘ जैसा उपन्यास लिखकर कृष्णमणि चतुर्वेदी ‘मैत्रेय‘ ने प्रशंसनीय कार्य किया है। डॉ. जयसिंह व्यथित ने भी अवधी में लघु कथायें लिखकर गद्य को समृद्ध किया है।
∎ डॉ. विन्ध्यमणि : अवधी भाषा का क्षेत्र ही क्या मूलरूप से अवधी साहित्य का आधार है?
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : यह बात आंशिक रूप से ही सही कही जा सकती है क्योंकि अवध क्षेत्र के बाहर के कई साहित्यकार हो चुके हैं जिनके द्वारा अवधी में की गई रचनाएँ महत्वपूर्ण मानी जाती हैं जैसे- रहीमदास, मधुसूदनदास और द्वारिका प्रसाद मिश्र। अतः यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि अवध क्षेत्र के ही कवियों साहित्यकारों ने अवधी को समृद्ध किया है अवधी का क्षेत्र व्यापक है।
डॅा. विन्ध्यमणि, जन्म तत्कालीन फैजाबाद जनपद का एक गाँव ‘कहरासुलेमपुर‘। एम.ए. (हिन्दी) बी.एड.,एम.जे. (पत्रकारिता) के बाद ‘जगदीश गुप्त‘ के काव्य पर शोध कार्य । 10 वर्षों तक आकाशवाणी फैजाबाद में नौकरी । पत्र पत्रिकाओं में लेखन । कई पत्रिकाओं में सहायक सम्पादक । साहित्यिक सामाजिक संस्थाओं से जुडाव। कविता, कहानी, साक्षात्कार में विशेष रुचि । संस्कृति संवर्धन एवं ग्रामीण विकास के लिए ‘आचार्य विश्वनाथ पाठक शोध संस्थान‘(आपस) की स्थापना।
सम्प्रति- स्नातकोत्तर महाविद्यालय, फैजाबाद में हिन्दी व्याख्याता।
dr.vmani19@gmail.com
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : जहाँ तक व्यक्तिगत जीवन के प्रतिबिम्बित होने की बात है तो मेरा यह कहना है कि यह मेरे दूसरे काव्य ‘घर कै कथा‘ में ढूँढ़ा जा सकता है जिसमें 1935 से लेकर 1952 तक अवधि के हरिजनों और किसानों की दशा का जीवन्त चित्रण और मेरा जीवन भी देखा जा सकता है। यद्यपि ‘सर्वमंगला में भी वैसे ही प्रतिबिम्ब उŸारार्ध के हिस्से में देखे जा सकते है जो कम यथार्थ नहीं हैं। चूंकि ‘सर्वमंगला‘ प्रबन्धकाव्य है उसकी कथावस्तु दुर्गासप्तशती पर आश्रित है किन्तु उसमें अनेक वर्तमान सन्दर्भ जुडे़ हुए हैं लेकिन सिर्फ वर्तमान सन्दर्भ से कोई काव्य दीर्घजीवी नहीं हो सकता। काव्य को दीर्घजीवी होने के लिए शाश्वत मूल्यों को अपनाना ही श्रेयस्कर हैं।
∎ डॉ. विन्ध्यमणि : आज के भूमण्डलीकरण के दौर में भविष्य के लिए अवधी कितना सार्थक सिद्ध होगी?
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : देखिए! ऐसा है कि अब अवधी की ओर लोगों का ध्यान जा रहा है अच्छे-अच्छे विद्वान अवधी में लिख रहे है और कुछ विशेष कार्य करना चाहते हैं। इससे लगता है कि अवधी का भविष्य उज्ज्वल है। डॉ. श्याम तिवारी, डॉ. मधुप, डॉ. रामबहादुर मिश्र, डॉ. सुशील सिद्धार्थ, जगदीश पीयूष, डॉ. आद्याप्रसाद सिंह, ‘प्रदीप‘ डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित जैसे कर्मठी लोगों को देखकर लगता है कि अवधी का भविष्य बहुत अच्छा है।
∎ डॉ. विन्ध्यमणि : अवधी भाषा की कविता क्या अन्य भाषाओं की तरह अपने वर्ण्य क्षेत्र और विषय क्षेत्र को व्यक्त कर सकने में समर्थ है?
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : अवश्य समर्थ है। अवधी ने जो बिम्ब साहित्य में उतारा है वह खड़ी बोली में दुर्लभ है। लोकभाषा जितनी जनजीवन के निकट है उतना साहित्यिक भाषा नहीं हो सकती क्योंकि लोकभाषा को मनुष्य माता के दूध के साथ सीखता है जबकि साहित्यिक भाषा का अभ्यास करना पड़ता है। लोकभाषा के कवि जो बिम्ब अंकित करते हैं वे उनके पार्श्ववर्ती होते हैं इसलिए उनमें स्वाभाविकता होती है। साहित्यिक भाषा के कवि बड़े-बड़े नगरों में ऊँची अट्टालिकाओं के कक्ष में पंखे की हवा खाते हुए गाँव का सिर्फ सपना देखते हैं और काल्पनिक कागजी घोड़े दौड़ाते हैं।
∎ डॉ. विन्ध्यमणि : अवधी साहित्य में नई भावभूमि और आधुनिक विचार घटनावलियों को कितना प्रश्रय मिलना चाहिए?
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : हाँ-हाँ अवश्य मिलना चाहिए। परिपूर्णता आवश्यक है। पुराने विचार तो हैं ही नई विचार धाराओं की महती आवश्यकता है। तभी नये बिम्ब आयेंगे और तभी साहित्य प्रासंगिक रहेगा। कविता को नये सन्दर्भों से जोड़ना अति आवश्यक है।
∎ डॉ. विन्ध्यमणि : आप के हिसाब से कविता कैसी होनी चाहिए या यूँ कहें कि कविता की सार्थक स्थिति क्या होनी चाहिए?
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : कविता लोक जीवन से जुड़ी होगी तभी लोक को प्रभावित कर सकेगी। यद्यपि कविता से मनोरंजन होता है तथापि मात्र मनोरंजन कविता का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। उसे निश्चय ही कुछ प्रेरणा व संदेश देना चाहिए। वह प्रेरणा उपदेश नहीं बल्कि अभिव्यंजित होना चाहिए। क्योंकि मनोरंजन तो बच्चों के खिलौने से भी होता है। कविता कोई खिलौना नहीं, खेल नहीं, उसका उद्देश्य गम्भीर होना चाहिए। कविता में ‘साधारणीकरण‘ होना अत्यन्त आवश्यक है। तत्लीनता भी तभी होती है जब वर्ण्य विषय का किसी एक व्यक्ति से नहीं बल्कि जनसामान्य से सम्बन्ध होता हैं।
∎ डॉ. विन्ध्यमणि : नये अवधी लेखकों कवियों से आप क्या कहना चाहेंगे?
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : देखिए! ऐसा है कि आज नाना प्रकार के विषयों को अवधी में मिलाने का प्रयत्न होना चाहिए, बल्कि इसको इस तरह कहें कि जो ‘अवधी‘ में नहीं हैं उसे अवधी में लाये और उसको व्यापक साहित्य प्रदान करें जो सामान्य जनजीवन के मर्म को स्पर्श करता हो जैसे-‘अवधी‘ में उपन्यास की कमी है, कहानी, निबन्ध, नाटक, समीक्षात्मक ग्रन्थों का अभाव है। अवधी में इने-गिने ‘कोश‘ हैं इनकी कमी पूरी होनी चाहिए। ताकि दूर-दूर तक बोली जाने वाली अवधी को विभिन्न क्षेत्रों के अवधी भाषी ‘अवधी‘ के शब्दों को हृदयंगम कर सकें। हालाँकि डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित जी इस क्षेत्र में अच्छा कार्य कर रहे हैं परन्तु यह बहुत बड़ा कार्य है, एक व्यक्ति के लिए इसको सम्पन्न करना नितान्त कठिन है। इसके लिए अवधी के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में निवास करने वाले विद्वानों को मिलकर एक सम्मिलित प्रयास करना चाहिए।
∎ डॉ. विन्ध्यमणि : ‘सर्वमंगला‘ कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल है क्या आप अपने साहित्यिक मूल्यांकन से संतुष्ट है?
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : जैसा हमने अब तक सुना है वैसा ठीक हो रहा है, क्योंकि मूल्यांकन, मूल्यांकन करने वाले की दृष्टि पर निर्भर है। किसी कृति का अलग-अलग क्षमता के अनुसार लोक मूल्यांकन करते हैं वह उनकी अपनी दृष्टि होती है।
∎ डॉ. विन्ध्यमणि : आप मेरी इस बात से कितना सहमत है कि अवधी भाषा का साहित्य आधुनिकता से पूरी तरह जुड़ नहीं पा रहा है?
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : अरे भई! आप किस आधुनिकता की बात कर रहे हैं अवधी में बिल्कुल नया प्रयोग तो हो ही नहीं सकता। करना वांछनीय नहीं है। नई कविता व्यक्तिवादी कविता रही है वह जनता की कविता कैसे कहे जा सकती है। कबीर, सूर, तुलसी की लोकभाषाई कविता को भिखमंगे भी गाते हैं। जनता की कविता लोकभाषा में ही हो सकती है। अगर नये प्रयोगों की बात करेगें तो कविता कवि तक ही सीमित रह जायेगी। उसे लोक प्रियता नहीं प्राप्त होगी। इसलिए आधुनिकता के नाम पर ‘नई कविता‘ की तरह का प्रयोग अवधी में ठीक नहीं होगा।
∎ डॉ. विन्ध्यमणि : पाठक जी! पिछले दो-ढ़ाई सालों से आप का लिखना-पढ़ना बन्द है? फिर आप मन में क्या सोचते है?
∎ आचार्य विश्वनाथ पाठक : सोचता क्या हूँ, मन ऊब जाता है ‘देवी जी‘ का स्मरण करता हूँ तो आराम मिल जाता है। कोई आता है मिलने तो बात करता हूँ इसी में समय बीत जाता है। मन समुद्र की तरह है उसमें नित नये विचार उमड़ते-घुमड़ते रहते है।
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