"प्रभावपूर्ण साहित्य अवश्य ही लोक भाषा के निकट होगा। श्रम की भाषा और जीवन का अनुभव लोक पक्षधरता को तय करता है। साहित्य का लोकपक्ष अपने समय का गवाह होता है।"
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इससे पहले यशपाल पुरस्कार से सम्मानित डाॅ. विनय दास की सद्यः प्रकाशित समीक्षा कृति ‘‘परिप्रेक्ष्य को सही करते हुए’’ का विमोचन किया गया। सरस्वती के चित्र पर अध्यक्ष स्वप्निल श्रीवास्तव और मुख्य अतिथि डा. गौरीशंकर पाण्डेय ने माल्यार्पण किया। इसके बाद आचार्य पाठक की बहुचर्चित ‘सर्वमंगला’ के प्रथम सर्ग का धर्मेन्द्र कुमार ने पाठ किया।
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‘साहित्य का लोकपक्ष’ विषयक संगोष्ठी का विषय प्रवर्तन करते हुए विजयरंजन ने साहित्य के लोकपक्ष के लिए प्राचीन आर्य मनीषा के विचार ग्रहण करने की बात कही। ‘आपस’ के निदेशक डाॅ. विन्ध्यमणि ने कहा साहित्य में लोक-चित्रण हमेशा से सामाजिक समरसता और कल्याण का द्योतक रहा है। वैश्विक घटाटोप के समय में लोकपक्षधरता के बिना साहित्य का सहित भाव पूरा ही नहीं हो सकता।
गीतकार दयानन्द सिंह मृदुल ने प्रेमचन्द के कहानी और उपन्यास की लोकपक्ष के सन्दर्भ में चर्चा की। मुख्य अतिथि डाॅ. गौरी शंकर पाण्डेय ने कहा कि लोक पक्षधरता के लिए राम तो सीता को भी छोडने की बात करते है। जनता की उम्मीदो के अनुरूप साहित्य होना चाहिये।
संगोष्ठी को आर.डी. आनन्द, दयानन्द सिंह मृदुल, डाॅ. ओकार त्रिपाठी, सी.पी. तिवारी, डाॅ. विनयदास आदि ने सम्बोधित किया। कार्यक्रम का संचालन ‘आपस’ के निदेशक डाॅ. विन्ध्यमणि ने किया। अन्त में आलोक कुमार गुप्ता ने आये हुये सभी अतिथियों के प्रति आभार व्यक्त किया।
कार्यक्रम में विशाल श्रीवास्तव, सुदामा सिंह, निरुपमा श्रीवास्तव, सौमित्र मिश्र, आशोक टाटम्बरी, देव प्रसाद पाण्डेय, नवीन मणि, महेन्द्र उपाध्याय के साथ-साथ फैजाबाद शहर, बाराबंकी और सुल्तानपुर के अनेक साहित्य सेवियों ने भी भाग लिया।
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