दिनेश कुमार शुक्ल की तीन कवितायें | Poems - Dinesh Kumar Shukla (hindi kavita sangrah)


दिनेश कुमार शुक्ल की तीन कवितायें | Poems - Dinesh Kumar Shukla

दिनेश कुमार शुक्ल की तीन कवितायें



खिलखिलाहट
    .................................... 1


तुम से बात करना 

   अब और कठिन 
तुम्हारा बेटा अब नाराज़ हो सकता है 
कहा तुमने 
और सच ही कहा


फोन काटते-काटते 
तुमने फुसफुसा कर कहा   
जल्दी से लिख डालो समीक्षा अब 
         महीनों से  टालते जा रहे हो 
देखती हूँ आलसी बहुत हो गए हो
झूठे कहीं के 

और फिर से तुम्हारी आवाज़ 
निर्भय हो गई 
तुम्हारी नाराजगी के बाद आने वाली 
खिलखिलाहट में 
बिल्कुल वही पुरानी वाली नदी 
         अब भी कल-कल करती 
बह रही थी 

मैं चमत्कृत था 
तुम्हारी कविताओं मे 
       छुपा तुम्हारा डर
        कहीं था ही नहीं 
कविता मे नदी अब भी थी 
      हाँ अब वह बहुत शांत 
और विस्तार भर कर बह रही थी
   उसमे सिर्फ बहा जा सकता था 

उस पर कुछ भी लिखना 
              संभव नहीं था 
     वर्ण माला गले से उतार कर
कोई नदी मे फेंक 
चला गया था.... अवाक
माला बहती चली जा रही थी...... 


दूसरा सीन
    .................................... 2


लुप्त हो गया था 

पथरचटा 
नामोनिशान नहीं दूर तक 
वह 
   जो चट्टानें फोड़ कर 
पनपता चला जाता था 
हरी-लाल धमनियों सी बेल 
गोल-गोल हरे सिक्कों जैसे 
 पत्ते कुछ-कुछ खटास लिए, 
आप उनसे सीटी बना सकते थे 
या टिकुली या 
अपनी तख्ती पर पुराना लिखा 
मिटा सकते थे उसकी लुगदी से... 

वो पथरचटा 
लुप्त ऐसा हुआ
कि भाषा से भी गायब हो गया
पूछो गाँव में किसी युवक से 
  उसने सुना ही नहीं ये नाम

एक दिन 
सुबह-सुबह 
दिखा एक चैनल पर अचानक 
पहले से अधिक सरसब्ज 
योगिराज  उसका 
परिचय करा रहे थे  
हाँ ,नाम अब उसका बदल चुका था 
अब था वह पुनर्नवा

मुझे देख पहले तो मुसकाया 
फिर जाने क्या हुआ कि अचानक 
देखते-देखते उसकी पत्तियाँ -डंठल 
                    मुरझा कर झूल गए

फिर टीवी पर दूसरा सीन आ गया  


हरक लाल हरक लाल
    .................................... 3 


हरक लाल हरक लाल

अब तुम्हारी बकरियाँ 
चोरी-चोरी मेरी मेड़ की घास
क्यों नहीं चर जातीं 

हरक लाल हरक लाल 
अब तुम लोग कटाई के वक़्त 
सीला बीनने क्यों नहीं आते 
और हाँ 
बहुत दिन हुए
त्योहार लेने भी नहीं आए तुम 
न तुम्हारी घरवाली, 
पुरानी उतरन भी नहीं ले गए  
तुम कैसे गुजारते हो जाड़ा 

दिनेश कुमार शुक्ल

संपर्क
ए-201, इरवो क्लासिक अपार्टमेन्ट्स, सेक्टर - 57, गुड़गाँव - 122003 (हरियाणा)
मोबाईल : +91-9810004446
ईमेल : dkshukla9@yahoo.com

देखो तुम तो मेरे सहपाठी हो 
मैंने तो हमेशा तुमको 
अकेले में अपने बराबर बैठाया 
सभा सुसाइटी की बात अलग
छूआछूत मानी भला मैंने कभी 
अब तुम जाने क्यों 
कन्नी सी काटते  हो
सबके सामने जोहार तक नहीं 
ऊसर वाला खेत भी 
कबसे नहीं मांगा तुमने बटाई पर 
कर्ज़ भी नहीं मांगते 
तुम तो सहपाठी हो मेरे 

सुना है तुम्हारा लड़का 
मेरी खिलाफत करेगा अबकी 
प्रधानी मे 

हरक लाल 
ये हो क्या गया है तुम लोगों को
और फिर
तुम तो मेरे सहपाठी रहे हो !

ये पढ़ी हैं आपने?

दमनक जहानाबादी की विफल-गाथा — गीताश्री की नई कहानी
वैनिला आइसक्रीम और चॉकलेट सॉस - अचला बंसल की कहानी
जंगल सफारी: बांधवगढ़ की सीता - मध्य प्रदेश का एक अविस्मरणीय यात्रा वृत्तांत - इंदिरा दाँगी
कहानी ... प्लीज मम्मी, किल मी ! - प्रेम भारद्वाज
अखिलेश की कहानी 'अँधेरा' | Hindi Kahani 'Andhera' by Akhilesh
समीक्षा: अँधेरा : सांप्रदायिक दंगे का ब्लैकआउट - विनोद तिवारी | Review of writer Akhilesh's Hindi story by Vinod Tiwari
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Hindi Story: दादी माँ — शिवप्रसाद सिंह की कहानी | Dadi Maa By Shivprasad Singh
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
Hindi Story: कोई रिश्ता ना होगा तब — नीलिमा शर्मा की कहानी