दीप्ति श्री - कविताएँ | Poems of Deepti Shree (hindi kavita sangrah)


कविताएँ 

दीप्ति श्री 

वर्तमान से भविष्य को देखती दीप्ति श्री की पांच कवितायेँ...

दरभंगा, बिहार की दीप्ति श्री वर्तमान में 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' से 'महिला व लिंग अध्ययन' में स्नातकोत्तर कर रही हैं तथा 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' से ही 'हिंदी पत्रकारिता' और  'प्रयोजनमूलक हिदी पत्रकारिता' में स्नातकोत्तर हैं.
संपर्क: deeptishree87@gmail.com




जब इतिहास घुंटता है...

काल क्रम की छातियों पर
दीप्ति श्री - कविताएँ | Poems of Deepti Shree
उपजा युगपुरुषों का रस,
आज ढूँढता है अपना ही स्वाद,
जहाँ विचारों के कारोबार में,
अवसर के तूफ़ान के साथ
कभी पूंजीवाद बहता है,
कभी साम्यवाद,
तो कभी अराजकतावाद,
यहाँ प्रति-दिन छले जाते हैं
वेद,  पुराण, और दर्शन;

और बेबस
अवसर की ढाल बना हुआ
वेबर, मार्क्स, लाओत्से
मूक, विस्मित, बुत
ढूँढता है अपना अस्तित्व,
और गौतम-गाँधी कुम्हलाहट में
धुनता है अपना सिर !





उत्तर के दिन

सामन्ती शंखनाद के साथ,
दीप्ति श्री - कविताएँ | Poems of Deepti Shree
खेतों और फसलों की लौ
हो रही मद्धम,
वहीँ किसानों की छाती में
मिलती है उफान पर जलन,
कई सवाल थे-
कैसा था इटली, रोम,
फ्रांस, रूस और जर्मनी ?
क्यूँ चिल्लाते रहे
समाजवाद के सिरमौर?
कैसे गुजरते थे
वक्त मजदूरों के ? और
कैसी व्यवस्था में
बंधे पड़े थे वे अपंग,
अनगिनत किताबे उलटी गई,
इतिहास के पन्नों ने
समझाया बहुत,
ढेरों ने लिखे अपने अपने दृष्टि
मगर उन प्रश्नों के उत्तर
यूँ मिल रहे हैं,
जैसे मैं कार्यशाला में हूँ...




संवेदना के सीने पर...

देखती हूँ,
दीप्ति श्री - कविताएँ | Poems of Deepti Shree
संवेदना को प्रखर होते,
हर एक सिसकियों के साथ,
झुग्गी-झोपड़ियों में,
फुटपाथ पर, और
साहूकारों के दर पर,
तो कभी अपने ही घर पर,
खादी के बोल में
उछाले जाते हैं जब सिक्के
और लगते हैं मंच चौराहों पर
उम्मीदों के बाज़ार,
पुनरावृत होती है हमारे
ठगे जाने का हास,
संसद से ऐसे उठती है ध्वनि,
कि ह्रदय बैठ जाता है,
बुचरखाने मेंबीतता है समय,
छिपने की जगह ढूँढते हुए,
फिर सर उठे तो किस तरह,
सवाल बच्चों के पेट का भी है,
जन-भावना के लथपथ शव,
सरे बाजार टुकड़ों-टुकड़ों में बेच,
किये जाते हैं खड़ी सरकारें,और फिर
रोपे जाते हैं अनंत सिसकियाँ,
साथ देखती हूँ,
सर उठाती संवेदना, और
उन्हें प्रखर होते...




आखिर कौन...?

नुक्कर-चौराहों पर खुले आम,
दीप्ति श्री - कविताएँ | Poems of Deepti Shree
कौन उछालता है खून के छींटे,
मंदिरों और मस्जिदों की दुनियाँ में,
कौन बाँटता है आदमी को,
और मुर्दों की जेब टटोलता है,

ये किसका खून है,
जो कभी अयोध्या में,
तो कभी कश्मीर में खौलता है,
ये कौन है
जो मजहब के नाम पर
रक्त में तेज़ाब घोलता है,

ये कौन कसाई है
जो कभी किसानों की छाती पर
सियासत की मूँग दलता है,
रेल चलता है,
फैक्ट्रियाँ बिठाता है, तो कभी
तसल्ली में मीठा जहर उगलता है,

ये कौन है
जो राष्ट्र हित की डुगडुगी बजाता है,
सिंहासन से छद्म हुंकार भरता है,
अनंत कराह सुनता है,
संसद की छत में बैठकर ग़दर कटता है,
और शहीदों के कब्र पर
बस संवेदना बांटता है,

वह कौन है,
जिसकी मनमानी पे
हिन्दुस्तान मौन है...!




पृथ्वी तुम्हारे लिए...

वो रोये भी तो किस तरह,
दीप्ति श्री - कविताएँ | Poems of Deepti Shree
सर टिकाए भी तो किसके काँधे,
कि हर बाजू ने
अपने जोर आजमाए हैं,
हर किसी ने लूटा है,
हर किसी ने मसला है,

जिसपे जीवन परिभाषित हुआ,
जिसने गर्भ धारण कर,
विज्ञानं को सींचा,
पत्थर, पंक्षी, और इंसान को सींचा,
साँझ, रात्रि
और विहान को सींचा,
विडंबना है, कि
हम उसे ही बाँट खाते हैं,
उसकी छाती को बेधते हैं,
उससे रिश्तों को छलते हैं,
और उसको भू-भक्षी बने
निर्दय काट खाते हैं,

छद्म संवेदना के नीचे,
एक दिन निर्धारित कर,
पृथ्वी तुम्हे बचाने की हुंकार भरते हैं,
तुम्हारी छूटती साँसों को
तसल्ली देने का ये बहाना भी खूब,
तुम सब समझती हो,
जब हम झूठी कसम उठाते हैं,

मुझे मालूम है
अभी तुम उदास हो, मगर चुप हो,
कि हम अभी भी न रुके
तो तुम अपना धैर्य खो दोगी,
फिर तुम हुंकार भरोगी,
और हम कराह भरेंगे,
कि अब भी न किये फ़िक्र तो
यहाँ कुछ न बचेगा...

००००००००००००००००

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