दामिनी यादव की कवितायेँ | Damini Yadav ki Kavitayen (hindi kavita sangrah)


कवितायेँ 

- दामिनी यादव


damini yadav ki kavitayen दामिनी यादव की कवितायेँस्वतंत्र लेखन, संपादन और अनुवाद के ज़रिये हिंदी से जुड़ी दामिनी यादव की कवितायेँ स्त्री के मन के भावों को बिना छुपाये बेबाकी से कहती हैं. 24 अक्टूबर 1981, को नई दिल्ली में जन्मीं दामिनी हिंदी में स्नातकोत्तर हैं इनका लिखा नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता, हिंदुस्तान, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, हंस, सर्वनाम, अलाव और संवदिया आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहा है। दामिनी की तीन पुस्तकें - मादा ही नहीं मनुष्य भी (स्त्री विमर्श), समय से परे सरोकार (समसामयिक विषयों पर केन्द्रित) और ताल ठोक के (कविता-संग्रह) प्रकाशित हो चुकी हैं ; वो हिन्द पॉकेट बुक्स, मेरी संगिनी, डायमंड प्रकाशन की पत्रिका ‘गृहलक्ष्मी’ में क्रमशः सहायक संपादक व वरिष्ठ सहायक संपादक तथा कुछ वर्षों तक आकाशवाणी दिल्ली से भी संबद्ध रही हैं. दामिनी का लेख ‘वितान’ सातवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक सम्मिलित है.

ईमेल: damini2050@gmail.com




चेतावनी

हे सभ्य समाज के
व्यंग्य बाणो!
तुम्हें मेरा शत्-शत् प्रणाम
कोटि-कोटि धन्यवाद,
आखिर तुम मेरे
श्रद्धेय हो
पूजनीय हो
प्रेरणा हो,
तुम्हीं ने धकेला है मुझे
साधारणता से
असाधारणता के मार्ग पर।
तुम्हीं ने छीना है मुझसे
मेरा संकोच, मेरी लज्जा
मेरा भय, मेरी सज्जा,
तुम ही ने किया है निर्माण
मुझ ही को तोड़कर
मुझ ही से मेरे
प्रस्तर व्यक्तित्व का
तुम्हीं ने प्रदान की है मुझे
दृढ़ इच्छाशक्ति।
आशा और निराशा
पाने और खो जाने के
भय से छुटकारा,
घनघोर अंधेरों से
केवल और केवल
आशा की ओर
सत्य की ओर
सफलता की ओर
इच्छित की ओर
बढ़ते जाने का साहस।
तुम्हें शत्-शत् प्रणाम
कोटि-कोटि धन्यवाद
आख़िर तुम मेरे
श्रद्धेय हो
पूजनीय हो
प्रेरणा हो, परंतु
हे सभ्य समाज के
व्यंग्य बाणो, सावधान!
तुम कोई भी अवसर
मुझे तोड़ने का
झिंझोड़ने का
रूलाने का, सताने का
चूक ना जाना,
भरपूर करो वार,
और वार पे वार
और करो इंतज़ार
मेरे संपूर्ण प्रस्तर होने का
क्योंकि, तब तक
तुमसे टूटते-टूटते
मैं
तुम्हें तोड़ने योग्य हो जाऊंगी।





ओ हव्वा! 

बिस्तर का ठंडापन
क्या इतना खतरनाक होता है,
कि अच्छे-भले सांस लेते,
धड़कते जिस्म को मुर्दा कर दे?
क्यों काफी नहीं होती
अपने लिए अपने ही जिस्म की हरारत
कि उसूल और मर्यादाएं तक
इस ठंडेपन से पिघलकर
बहने लगते हैं,
कुछ पलों को सैलाब
क्यों भारी पड़ने लगता है
चट्टानी इच्छाशक्ति तक पर?
जिस्म की ‘निचली’ बहती सफेदी
क्यों जिस्म के ऊपर उगे चेहरे पर
मल जाती है कालिख?
ओ हव्वा! सुनो!
तुमने तो खा लिया था बोधिफल
और मिटा ली थी अपनी
जिज्ञासाओं की अकुलाहट भरी भूख
पर क्या कुछ अधूरा था उस संतुष्टि में
जो तुमने छोड़ दिया बाकी
अपनी पीढ़ियों के जिस्म में
प्यासा, सुलगता, मृगतृष्णा से भरा
फिर भी तटस्थ लगता
रेतीला तूफान!
तेरी उस संतुष्टि ने तय किया था सफर
जन्नत से जमीन तक के दरमियान
मेरे इन सवालों के जवाब के दरिया में
बह सकती है यह जमीन भी,
तब क्या तलाश पाएंगे मेरे पांव
कहीं और, कोई और मुकाम?





मां 

मानती हूं कि किसी ने मेरी कोख में
खलबली नहीं मचाई,
ये भी माना कि दूध की नदियां
मेरी छातियों ने नहीं बहाई,
सच है, किसी के रोने से
मेरी नींद नहीं अचकचाई,
मैं सोई हूं सदा सूखे बिछौने पे
किसी ने मेरी चादर नहीं भिगाई,
ये सब भी है कुबुल मुझे कि
मैंने किसी के लिए लोरी नहीं गाई,
किसी के शुरुआती कदमों को
ऊंगली भी नहीं थमाई,
मगर, पूछना चाहती हूं मैं ये सवाल,
क्या यही सब बातें हैं मां होने का प्रमाण?
भला कब नहीं थी मुझमें ममता?
कब नहीं थी मैं मां?
हां, मैं तब भी मां थी,
जब सुलाती-जगाती, दुलारती-लताड़ती
और खिलाती-पिलाती थी अपनी गुड़िया को,
कम भावभीनी नहीं थी मेरे लिए
उसकी शादी और विदाई।
मैं तब भी मां थी,
जब अम्मा की गोद में था मुन्ना,
और अपने से दो बरस छोटी मुन्नी के लिए,
मैंने ही थी मां जैसी गोद जुटाई,
मैं तब भी मां थी,
जब रूठे भाई को,
मैंने लाड़-मुनहार से रोटी खिलाई ,
मैं अपनी मां के लिए भी,
मां बनी हूं तब,
जब बिखरे घर की,
मैंने जिम्मेदारी उठाई।
समेटकर अपनी विधवा मां के
बिखरे वजूद को अपनी बांहों में
मां की ही तरह,
मैंने उसके लिए सुरक्षा की छत जुटाई।
बताओ, कहां नहीं दी
तुमको मुझमें मां दिखाई?
नहीं कहा मैंने कभी कि
मेरे भींचे होठों में सैकड़ों लोरियां
हजारों परी-कथाएं खामोश हैं,
मैंने ये भी नहीं बताया कभी कि
जो दूध मैने छातियों में सूख जाने दिया,
वो आंखों में अब भी छलछलाता है,
मेरी कोख में जो बंजर सूख गया,
वो सिर्फ उम्र का एक गुजरता पल था,
ममता तो बिखर गई है मेरे सारे वजूद में।
आ जाए कोई भी,
किलकारियां मारता या भरता रुलाई,
मुझमें पा जाएगा
मां जैसी ही परछाईं,
फिर भी आप कहते हैं
तो मान लेती हूं,
कि बस मां जैसी हूं,
मैं मां नहीं हूं,
चलो ये क्या कम है,
अगर मेरी कोख किसी को
दुनिया में नहीं लाई
तो किसी जिंदगी की पहली सांस को ही,
सड़क किनारे की झाड़ियों में,
मौत की नींद भी नहीं सुलाई।
नहीं भरा किसी अनाथालय का
एक और पालना मैंने,
ना ही जिंदगी की वो लावारिस सौगात
मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ाई।
कोई माने, ना माने,
क्या फर्क पड़ता है मुझे।
मैं जानती हूं कि ममता की खुशबू
किस कदर है
मेरे कुंवारे वजूद में समाई।





माधुरी

वो अपने भारी नितंबों को
बड़े ही मादक ढंग से हिलाती है,
इसीलिए इस गली में
‘माधुरी’ के नाम से जानी जाती है।
वैसे ये नाम भी
उसके शुरुआती एक ग्राहक ने ही सुझाया था,
जो उसका ‘सावित्री’ नाम जान
देर तक खिलखिलाया था,
पहले उसे इस काम की
कलाएं नहीं आती थीं,
सो दिन-भर में बस
एक-आध ही निबटा पाती थी,
अब तो एक बार जो
उसके कोठे से हो के जाता है,
वो करवाचैथ की रात को भी
यहीं भाग आता है।
जी हां, रात ही नहीं दिन में भी
धड़ल्ले से चलती है उसकी दुकान,
दिन में घर से बाहर रहना
होता है वैसे भी आसान
अक्सर जो घर में मक्खी देख के
गुस्से से बीवी पे भिनभिनाता है,
वो भी इन बजबजाती गलियों में
बेखटके गुनगुनाता चला आता है,
माधुरी जानती है,
कैसे कम वक्त में
ज्यादा-से-ज्यादा ग्राहक निबटाए
साथ ही पूरी संतुष्टि दे
उसे टिकाऊ भी बनाए,
वो अक्सर ये कह के इतराती है,
कि उसी की बदौलत,
कई घरों की मां-बहन बच जाती हैं,
पर वो आज ये सोच के है घबराई,
रात के ग्राहक के अपने स्तनों पर दिए
दंतचिन्ह को कैसे छिपाएगी,
आज जब उन्हीं से,
अपने बच्चे को दूध पिलाएगी?





इज्जत

यह बात इतनी खास भी नहीं
मगर इतनी आम भी नहीं,
बताती हूं आपको
यह किस्सा-ए-मुख्तसर
आपने भी देखा होगा ये अक्सर,
सड़क के किनारे या झाड़ियों-पेड़ तले मुंह किए
या किसी दीवार की तरफ चेहरा छिपाए
बहुत से मर्द करते रहते हैं
लघु शंकाओं के दीर्घ निवारण।
कभी बेचारे तन्हा खड़े हो जाते हैं,
कभी दो-तीन मिलकर
पेंच-से-पेंच लड़ाते हैं,
बिना म्यूनिसिपालिटी की देखरेख के ही
सारे पेड़-झाड़ियां हरे-भरे नजर आते हैं,
क्योंकि इन्हें सींचने का ठेका
बड़ी जिम्मेदारी से सिर्फ पुरुष ही उठाते हैं।
बिना बरसात ही दीवारें धुल-पुछ जाती हैं,
क्योंकि पुरुषों की लघुशंकाएं रुक नहीं पाती हैं।
क्या पुरुषों की इज्जत नहीं होती?
बीच-चैराहे से मौहल्ले-चैपाल तक
भरे बाजार से लेकर अपने घर-ससुराल तक
जब देखो ‘वहां’ खुजाते रहते हैं,
क्या यह इस तरह से बार-बार
अपने पुरुषत्व का भरोसा जुटाते रहते हैं?
और झिझकते भी नहीं!
क्या पुरुषों की इज्जत नहीं होती?
हम औरतों की लघुश्ंाकाएं
बस शंकाएं बनी रह जाती हैं।
अक्सर आसानी से नहीं मिलता
कोई ‘सुलभ’ ठीया, कोई मुकाम
और सब्र बांधे हो जाती है
सुबह से शाम, क्योंकि
सब कहते हैं
औरतों की इज्जत होती है।
ओ पुरुषो! है हिम्मत तो दिखाओ
रोक कर पांच-सात घंटे अपनी ‘नेचर काॅल’
जानो-समझो क्या होती है उसे रोकने की तकलीफ
कैसे बजते हैं पेट में नगाड़े-ढोल
किस तरह पड़ता है उसका
सेहत पर असर
ये जान पाओगे सिर्फ औरत होकर
अगर हम जींस पहनें
तो किसी काॅलेज में,
बैन लगवा लेती हैं,
स्कर्ट-स्लीव्लेस में
‘आइटम’, ‘माल’ कहला लेती हैं,
नाइट शिफ्ट से लौटें तो
कुल्टा बन जाती हैं,
इस घर से उस घर तक की
पगड़ी का मान जुटाती हैं,
कर लें अगर प्यार या मनमानी कभी
तो बीच चैराहे-चैपाल
बेसूत कर दी जाती हैं।
चलो, आपने समझाया
और हमने समझा
कि सारी मर्यादाएं और मान
हम माँ, बहन, बीवी, बेटियों
से ही होती हैं और
इनके ठींकरें भी
हमीं ढोती हैं, पर
क्या पुरुषों की इज्जत
वाकई नहीं होती?





मूक कर्मयोगी। 

शुक्र है चीटियां
राशिफल नहीं पढ़ पाती हैं।
सितारों की बनती-बिगड़ती चाल या
पूर्वजन्म के कर्मों की उन्हें
चिंता नहीं सताती है,
आस-पास से गुजरती हरेक चींटी के लिए,
येे चीटियां ठहरती तो जरूर हैं,
क्या कभी इन्हें भी
बनावटी मुस्कान या सभ्यता के मुखौटों की
जरूरत पेश आती हैं?
अपने से दस गुना बड़े अनाज के दाने को
लुढ़काए लिये चली जाती हैं,
पर क्यों नहीं ये कभी
पसीने से लथपथ या थकान से चूर
नजर आती हैं?
क्या कभी इन्हें भी होता होगा तनाव या
कभी अपनों के अकेलेपन की चिंता सताती है?
भीड़ में रहकर भी,
कौन-सी ‘गीता’ की उपासक हैं ये
कि हर वक्त,
कर्म का मंत्र ही दोहराती नजर आती हैं?
या फिर एक अनाज का दाना या टुकड़ा-भर ही
इनके सारे जीवन की धुरी है?
चींटियों का संसार
इंसानों के आस-पास ही बसा पाता है,
पर फिर भी कोई ‘ह्यूमन-फ्लू’
इन्हें छू तक नहीं पाता है।
शायद अनुराग, प्यार से नहीं हैं
ये भी अछूती।
अंडों से निकल संपूर्ण-चींटी बनने तक
इनका वजूद भी मां से ही
दिशा पाता है।
जीवन-मृत्यु का चक्र
इनके जीवन में भी आता है,
पर कोई बीता हुआ या आनेवाला कल
इनके आज को उगने और
सार्थकता से गुजरने से
रोक नहीं पाता है।
कर्म पर आधारित चींटियों का संसार
शायद बैठ के कर्म-चिंतन का
वक्त नहीं निकाल पाता है।


००००००००००००००००

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
ऐ लड़की: एक बुजुर्ग पर आधुनिकतम स्त्री की कहानी — कविता
अखिलेश की कहानी 'अँधेरा' | Hindi Kahani 'Andhera' by Akhilesh
 प्रेमचंद के फटे जूते — हरिशंकर परसाई Premchand ke phate joote hindi premchand ki kahani
समीक्षा: अँधेरा : सांप्रदायिक दंगे का ब्लैकआउट - विनोद तिवारी | Review of writer Akhilesh's Hindi story by Vinod Tiwari
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
मन्नू भंडारी: कहानी - एक कहानी यह भी (आत्मकथ्य)  Manu Bhandari - Hindi Kahani - Atmakathy