हिंदी की दुनिया में बड़े लेखकों के निधन से रिक्तता - अशोक मिश्र
रवीश कुमार की जिस लघु प्रेम कथा को ‘लप्रेक’ के नाम से छापा गया वह हिंदी की मुख्यधारा में अरसा पहले आठवें दशक से ही लघुकथा विधा के नाम से मौजूद है जिसे प्रेमचंद ने लिखा था
फेसबुक पर टिप्पणी करने वाले कई लेखकों को यह भी मालूम भी नहीं था कि विजय मोहन सिंह हैं कौन?
फेसबुक पर साहित्य और पुस्तक मेला के नए संकेत नव वर्ष की शुरुआत में ही इस बरस छत्तीसगढ़ सरकार ने अपनी अनूठी सोच और संकल्पना के तहत तीन दिनों के रायपुर साहित्य महोत्सव का शुभारंभ किया जिसमें हमारे समय के महत्वपूर्ण लेखकों विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी, नरेश सक्सेना और मैत्रेयी पुष्पा समेत साहित्य, कला, सिनेमा, प्रकाशन, मीडिया, रंगमंच की दुनिया से जुड़ी कई नामचीन हस्तियों ने हिस्सेदारी की। मीडिया में इस महोत्सव के पक्ष और विपक्ष में खबरें छपती रहीं। इन दिनों अंतर्जाल पर सोशल मीडिया की और फेसबुक व ट्विटर की उपलब्धता जिस कदर बढ़ी है उसने आत्मप्रचार को इस कदर बढ़ावा दिया है कि युवा और प्रौढ़ दोनों ही पीढि़यों के लोग सारा दिन उसी पर जमे रहते हैं। फेसबुक पर इन दिनों एक नए किस्म की प्रवृत्ति यह भी सामने आई है कि वहां किसी भी विवाद या मु्ददे के उठते ही उसके पक्ष और विपक्ष में जमकर बहसबाजी शुरू हो जाती है। भले ही बहस का कोई नतीजा न निकले लेकिन बहस जमकर होती है और अकसर पूर्वाग्रह भरी टिप्पणियां भी आती हैं। कम से कम मेरे सामने दो ऐसे मौके आए जिन्होंने मेरी इस धारणा को पुष्ट किया। पहला उदाहरण रायपुर साहित्य महोत्सव था, जिसके रचनात्मक पक्ष पर चर्चा करने या एक अच्छी शुरुआत के रूप में रेखांकित करने या किसी नए आयोजन का स्वागत करने के स्थान पर उसके विरोध में बेसिरपैर की टिप्पणियां शुरू हो गईं। इन टिप्पणियों की भाषा ऐसी थी कि जो कहीं से भी बुद्धिजीवी कहलाने वालों की नहीं थी। दरअसल फेसबुक पर सक्रिय खद्योत के समान प्रकाश फैलाने वाले कुछेक लेखकों की पीड़ा यह थी कि आखिर इस महोत्सव में वे क्यों न हुए। दूसरा उदाहरण पिछले दिनों ‘बहुवचन’ पत्रिका में प्रकाशित वरिष्ठ आलोचक विजय मोहन सिंह (अब दिवंगत) के साक्षात्कार पर हुई चर्चा का था जिसमें युवा कथाकार मनोज कुमार पांडेय ने जैसे ही फेसबुक पर सिंह द्वारा- ‘राग दरबारी’ को तीन कौड़ी का उपन्यास बताए जाने की पोस्ट लिखी वैसे ही एक जबरदस्त विवाद उसके पक्ष और विपक्ष में शुरू हो गया। फेसबुक पर टिप्पणी करने वाले कई लेखकों को यह भी मालूम भी नहीं था कि विजय मोहन सिंह हैं कौन? जाहिर है कि यहां भी बहस का स्तर बहुत गया गुजरा ही था। संपादक होने के नाते मैं कम से कम यह जरूर मानता हूं कि विजय मोहनजी ने कृतियों को अपने तर्कों से खारिज करने का साहस तो किया जबकि आज की ज्यादातर आलोचना मुंहदेखी में बदल चुकी है। इन दो उदाहरणों से साफ तौर पर समझा जा सकता है कि फेसबुक पर होने वाली बहसों का स्तर क्या है। शायद यही वजह है कि कई धीर गंभीर प्रबुद्धजन वहां से अपना एकाउंट बंदकर विदा ले रहे हैं।
इसके बाद एक लेखक और संपादक के रूप में विश्व पुस्तक मेला 2015 में भाग लेने का अवसर मिला। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि दिल्ली शहर में बीस साल रहने के बावजूद मैं लगातार नौ दिनों तक पुस्तक मेला जा सकूं। यह भागीदारी अधिक से अधिक तीन या चार दिन वह भी आधा दिन बीतने के बाद ही हो पाती थी। यह महज इत्तफाक है कि इस बार विश्वविद्यालय के कुलपतिजी ने संपादक और हिंदी अधिकारी, राजेश कुमार यादव को विश्वविद्यालय के प्रकाशन विभाग का स्टाॅल संचालित करने के लिए यह अवसर दिया जिससे मेले और उसकी सारी गतिविधियों को नौ दिनों तक जी भरकर देखने का अवसर मिला। साफ-साफ यह भी दिखा कि हिंदी की दुनिया में बड़े लेखकों के निधन से रिक्तता और प्रकाशित हो रही स्तरहीन कृतियों से परिदृश्य निराशाजनक होता जा रहा है। नए लेखक अपना स्थान बनाने की कोशिश में हैं और उन्हें कुछ-कुछ सफलता मिल भी रही है जो एक सुखद संकेत है।
इत्तफाक से हमारे स्टाल के ठीक सामने नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा संचालित ‘लेखक मंच’ पर पूरे नौ दिनों तक एक के बाद एक करके सैकड़ों गोष्ठियां और लोकार्पण होते रहे। इन सारे कार्यक्रमों का स्तर इतना खराब था कि सुनकर-सुनकर निराशा होती थी। इसके बावजूद आत्ममुग्धता और- ‘अरे भाई मुझे भी पहचानो मैं भी लेखक हूं’ देखकर यही लगता रहा कि अब लेखन में गुणवत्ता का सवाल बेमानी है। मेले में जनसंपर्क का दौर-दौरा ही ज्यादा दिखा। पुस्तक मेले में इस बार एक नई रुझान सुप्रसिद्ध हस्तियों की किताबें छापने का रहा। उदाहरण के लिए चर्चित टीवी पत्राकार रवीश कुमार और टीवी के ही पूर्व पत्राकार आशुतोष की किताबें छापकर कुछेक बड़े प्रकाशक लीक तोड़कर नए रास्ते पर चलते दिखे। जाहिर है कि ये प्रकाशक अपने नामचीन लेखकों की लोकप्रियता को भुनाकर अपना बाजार बनाना चाहते हैं। अपने साहित्यिक लेखकों को प्रचार-प्रसार के जरिए मशहूर हस्ती बनाने की प्रवृत्ति हिंदी के प्रकाशकों में कमतर होती दिख रही है। ऐसे में एक बड़ा खतरा असली लेखन के पीछे चले जाने और कमजोर लेखन के सामने आने का है। रवीश कुमार की जिस लघु प्रेम कथा को ‘लप्रेक’ के नाम से छापा गया वह हिंदी की मुख्यधारा में अरसा पहले आठवें दशक से ही लघुकथा विधा के नाम से मौजूद है जिसे प्रेमचंद ने लिखा था और आज उदयप्रकाश, असगर वजाहत, चित्रा मुदगल जैसे सैकड़ों लेखक लिख रहे हैं लेकिन उनको प्रकाशकों ने कभी महत्व नहीं दिया। सुप्रसिद्ध लेखकों की कृतियां तो फिर भी छप जाती हैं लेकिन नए लेखकों को कई बार मायूसी का सामना करना पड़ता है। यहां भी साहित्य और प्रकाशन के कई पक्ष हैं लेकिन उन पर फिर कभी। नए लेखकों को भी अवसर मिले यह हमारे साहित्यिक संसार को समृद्ध बनाने के लिए बहुत जरूरी है।
हमारे विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ‘बहुवचन’ के प्रत्येक अंक की तैयारी में पर्याप्त रुचि लेते हैं यह मेरे लिए खासा उत्साहवर्धक है। मुझे खुशी है कि इस बार उन्होंने मेरे निवेदन को स्वीकारते हुए महावीर प्रसाद द्विवेदी पर हुई संगोष्ठी में दिए गए वक्तव्य को प्रकाशित होने के लिए दिया उनका आभार। आपको अंक कैसा लगा प्रतिक्रिया व्यक्त कर जरूर बताएं।

सम्पादकीय
बहुवचन
अंतरराष्ट्रीय त्रौमासिक
अंक: 45 (अप्रैल-जून 2015)
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)
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