भाई परमानंद और स्वराज्य
लेखक : पंडित जवाहरलाल नेहरू
नेहरू जी का हिन्दी में यह पहला लेख है। इसे उन्होंने अलमोड़ा जेल में लिखा था और विलायत जाते वक्त सरस्वती के लिए आनन्दभवन में छोड़ गये थे।
मेरा ख़याल था—संभव है कि यह ग़लत हो—कि जिस ‘स्व’ में हिन्दू-महासभा को ख़ास दिलचस्पी है वह सरकारी नौकरी-चाकरी और कौंसिलों वग़ैरा की मेम्बरी से संबंद रखता है—
जवाहरलाल नेहरू
भाई परमानन्दजी का एक लेख—’स्वराज्य क्या है?’—मैंने अभी पढ़ा (सरस्वती अगस्त, 1935)। बहुत आशा से पढ़ा था कि इस कठिन सवाल के हल करने में या समझने में कुछ सहायता मिलेगी। लेकिन पढ़कर आश्चर्य हुआ। भाई जी हिन्दू-महासभा के एक बड़े नेता हैं और उस सभा का ध्येय क्या है या दृष्टिकोण क्या है यह बताने का उनको पूरा हक़ है और कदाचित् कोई और उतने अधिकार से यह न बतला सके। कांग्रेस का इस समय क्या राजनैतिक ध्येय है वह छिपी बात नहीं है लेकिन जो भाई जी उसको समझे हैं वह अजीब बात है। अगर भाई जी की तरह और लोग भी कुछ ऐसा ही समझे हैं तो तअज्जुब क्या कि इतनी ग़लतफ़हमी है?
#स्वराज्य क्या है? लेखक : श्रीयुत भाई परमानंद, एम.ए., एम.एल.ए. | What is Swarajya - Bhai Parmanand
भाई जी ने ‘स्वराज्य’ के दो अर्थ लगाये हैं। मुख्तसर एक तो यह है कि अपने ‘स्व’ पर क़ायम रहें यानी धर्म, सभ्यता, संस्कृति, आचार इत्यादि पर क़ायम रहें; और दूसरे यह कि अपने ‘स्व’ को स्वीकार कर लें—अपना धर्म छोड़ दें, पूर्वजों को तिलांजलि दे दें, जातीयता को त्याग दें। इस भेद के समझाने के लिए उन्होंने भारत में जब इस्लामी राज्य था उस समय का उदाहरण दिया है और मिस्र और ईरान की भी मिसाल पेश की है। फिर भाई जी ने हमको यह बताया है कि पहले तरह के स्वराज्य के लिए हिन्दू-महासभा यत्न कर रही है, यानी अपनी जातीयता और धर्म रखने की, और दूसरे प्रकार के स्वराज्य की कांग्रेस कोशिश करती है, यानी अपनी जातीयता मिटा दें और पराये की ओढ़ लें। यह भी उन्होंने दिखाया है कि इस प्रकार की नई जातीयता और ‘स्वराज्य’ लेने का सबसे आसान तरीक़ा यह है कि हम सब अपना धर्म छोड़कर ईसाई हो जावें—’’हमारा ‘स्व’ इंग्लैंड के लोगों का ‘सेल्फ़’ हो जायगा और हम स्वतन्त्र हो जायँगे।’’
किसी मज़मून पर विचार करने में यह अच्छा होता है अगर हम अपने मुख़ालिफ़ की राय को ठीक-ठीक समझें और लिखें, नहीं तो हम हवाई लड़ाई लड़ते हैं। भाई जी ने कांग्रेस के बारे में जो बात लिखी है वह मैंने आज पहली बार सुनी है और मेरे समझ में नहीं आता कि भाई जी ऐसी बेबुनियाद बात जि़म्मेदारी के साथ कैसे कह सकते हैं। कोई भी भारत का बच्चा शायद उनको बता दे कि यह बात सरासर ग़लत है।
छोटे से मज़मून में भाई जी ने बहुत बहस-तलब, और मेरी राय में ग़लत बातें लिखी हैं और उन पर कुछ कहने को जी चाहता है। बहुत अदब से मैं उनसे यह कहना चाहता हूँ कि चन्द कांग्रेसवाले भी ऐसे हैं जो हिन्दू-इतिहास और विश्व-इतिहास कुछ जानते हैं (इतिहास हिन्दू या मुसलमान या ईसाई कैसे हो जाता है, मैं समझा नहीं—लेकिन कदाचित् उनका मतलब यह हो कि भारत के हिन्दुओं का इतिहास)। मिस्र और ईरान की मिसाल जो भाई जी ने दी है वह मुझे सही नहीं मालूम होती, लेकिन इन सब बातों में जाना मेरे लिए यहाँ असम्भव है। इसी तरह से और कई बातों का भी मैं बिलफ़ेल यहाँ जि़क्र नहीं करता। मैं आशा करता हूँ कि भाई जी ज़्यादा विस्तारपूर्वक इस मज़मून को लिखेंगे और उसमें जिस सबूत और जिन वाक़यात पर उन्होंने अपनी राय क़ायम की है उनको पेश करेंगे।
ख़ास तौर से उनको चाहिए कि कांग्रेस के ध्येय के बारे में जो उनकी राय है उसको साबित करें, क्योंकि यह मुनासिब तो नहीं है कि कोई इलज़ाम बग़ैर काफ़ी वजह और सबूत के लगाया जाये। एक अजीब बात मालूम होती है कि कांग्रेस अँगरेज़ों (या ईसाइयों) का ‘स्व’ हासिल करने को अँगरेज़ी हुकूमत से असहयोग, सत्याग्रह, जंग करे और हिन्दू-महासभा अपनी पुरानी जातीयता और ‘स्व’ क़ायम रखने को गवर्नमेंट से सहयोग करें।
भाई जी ने असल सवाल पर तो अपने मज़मून में ग़ौर किया ही नहीं। वे हम लोगों की पुरानी ग़लती में पड़ गये—शब्दों के गुलाम हो गये और उनमें फँसकर असली माने छोड़ दिये। स्वराज्य क्या चीज़ है, यह एक निहायत पेचीदा सवाल है और उसी के साथ निहायत ज़रूरी है। अपने भगवानदास जी अरसे से कोशिश कर रहे हैं। इस प्रश्न का उत्तर मिले, लेकिन बहुत कम लोगों ने इसकी तरफ़ ध्यान दिया। और ध्यान न देने से यह नतीजा हुआ कि एक अजीब दिमागी गड़बड़ पैदा हो गया, और हर एक श़ख्स अपने ही माने लगा रहा है। चुनांचे भाई परमानन्द ने भी एक ऐसी दूर की पकड़ी कि वहाँ तक किसी और की अभी तक पहुँच नहीं हुई थी। स्वराज्य के सब पहलुओं में इस लेख में मैं नहीं जा सकता। न मुझे अधिकार है कि मैं कांग्रेस की ओर से ज़ाब्ते से जवाब दूँ। फिर भी कुछ ऐसी बातें जो बुनियादी हैं और जो अकसर लोग जानते हैं उनकी ओर मैं ध्यान आकर्षित किया चाहता हूँ।
स्वराज्य शब्द का पहले तो संबंध है एक देश का दूसरे देश या देशों से रिश्ता, और यह रिश्ता राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक इत्यादि होता है। अगर राजनैतिक और आर्थिक बातों में कोई देश अन्य देशों के अधीन नहीं है तब वह आज़ाद या स्वतन्त्र कहलाता है। इसमें भी धोखेबाज़ी अक्सर होती है—देश सियासी तौर पर स्वतन्त्र माने जाते हैं, लेकिन परदे के पीछे वे किसी और देश के आर्थिक गुलाम होते हैं। इसी के साथ यह भी याद रखना है कि आजकल की दुनिया में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और तेज़ी से सफ़र करने से और हवाई जहाज़ और तार और रेडियो इत्यादि की वजह से सब देशों में ऐसा घनिष्ठ संबंध हो गया है कि कोई भी पूरी तौर से स्वतन्त्र नहीं कहला सकता और एक का असर दूसरे पर पड़ता है। फिर भी हम यह कह सकते हैं कि जो राजनैतिक और आर्थिक बातों में आज़ाद हैं वह इन्डेपेन्डेन्ट या स्वतन्त्र हैं। अगर यह आज़ादी उसकी है तब कोई सवाल सांस्कृतिक या सामाजिक आज़ादी का नहीं उठता, क्योंकि वह तो उसमें मिली हुई हैं। इन मामलों में उस देश को अपनी हुकूमत या रहनेवालों का अधिकार है, जो चाहें करें। अगर वे अपने पुराने आचार और संस्कृति पर क़ायम रहना चाहते हैं तो कोई उनको उससे हटा नहीं सकता। अगर वे उनको बदला चाहें तो कौन उनको रोके?
एक दूसरा पहलू भी स्वराज्य शब्द का है—देश के अन्दर लोगों का एक-दूसरे से क्या संबंध था—राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक इत्यादि। इसमें बहुत पेचीदगियाँ पैदा हो जाती हैं और तरह-तरह की रायें हैं। अक्सर लोग आधुनिक संसार में (सिवा उन देशों के जहाँ फ्रेसिज़्म का वाद है) लोकतन्त्रवाद को पसंद करेंगे। इसमें भी भेद है कि यह लोकतन्त्रवाद खाली राजनैतिक हो कि आर्थिक और सामाजिक (Economic and social democracy) भी। पूँजीवाद, साम्यवाद इत्यादि के प्रश्न यहाँ पर उठते हैं।
कांग्रेस का क्या ध्येय है? पहले तो ज़ाहिर है कि हमारा देश और देशों के मुक़ाबले में स्वतन्त्र और इन्डेपेन्डेन्ट हो राजनैतिक और आर्थिक बातों में। इसके माने यह है कि सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक बातें उस आज़ादी में शामिल हैं और किसी बाहरवाले को उनमें दख़ल देने का कोई अधिकार नहीं है। जो हमारा देश ख़ुद चाहेगा वह तय करेगा।
अंदरूनी पहलू में कांग्रेस क्या चाहती है? इसका जवाब देना ज़्यादा कठिन है सिवा इसके कि वह राजनैतिक लोकतन्त्रवाद के हक़ में है। बा़की उसने अभी तक कोई फैसला नहीं किया है, जिसके माने किसी क़दर यही हैं कि आधुनिक हालत में बहुत फ़़र्क नहीं किया चाहती। कांग्रेस एक बड़ी संस्था की सूरत में देश के सामने है, लेकिन वह तो असल में एक सर्वदल-सम्मेलन है, जिसमें बहुत तरह के और बहुत रायों के लोग हैं, जिनमें एकता ख़ाली राजनैतिक स्वतंत्रता के बारे में है। इन लोगों में आपस में आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर भेद है—साम्यवाद, पूँजीवाद और अन्य वादों के पक्षपाती सब ही हैं। कांग्रेस के नेता अधिकतर आधुनिक पूँजीवाद को पसंद करते हैं और उसमें बहुत फ़र्क़ नहीं किया चाहते।
बाद में कांग्रेस इन आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर क्या राय क़ायम करेगी, मैं नहीं कह सकता। जिधर कसरत राय होगी, उधर ही वह झुकेगी जैसा कि लोकतन्त्रवादी संस्थाओं में होता है। वह शुरू में केवल राजनैतिक कार्यों के लिए स्थापित की गई थी जैसी कि सब पराधीन देशों की राष्ट्रीय संस्थायें होती हैं। अब मजबूरी दर्जे उन सभों को और प्रश्नों का भी सामना करना पड़ रहा है। कांग्रेस या कोई भी जीवित संस्था इससे बच नहीं सकती।
परन्तु भाई परमानन्द जी के ‘स्व’ को छोड़ने का प्रश्न कहाँ उठता है? और अपनी जातीयता और धर्म और संस्कृति छोड़ने का? यह ‘स्व’ क्या है और भाई जी की राय में हिन्दुत्व क्या है, यह ठीक-ठीक मालूम हो तो उन पर विचार किया जा सकता है। हिन्दुओं में जाति-भेद बहुत जड़ पकड़े हुए है। इसको भाई जी हिन्दुत्व में रखेंगे? जहाँ तक मैं जानता हूँ वे इसके विरुद्ध हैं और जात-पाँत-तोड़क-मंडल के सदस्य हैं। और हमारे बहुत रवाज हैं—विधवाओं के संबंधी, विरासत के बारे में, विवाह के, मरने के, पूजा इत्यादि के, खाने के, छूत-छात के, कपड़ों के, इनमें से क्या-क्या बातें हिन्दूत्व में रखनी चाहिए? यह कहा जा सकता है कि ज़्यादातर ये बातें ऊपरी हैं और मूल बातें पकडने के लिए हमें वेदों को लेना चाहिए या हमारे दर्शन-शास्त्र को। बहुत हिन्दू यह नहीं मानेंगे कि हम इन ‘ऊपरी’ बातों को अहमियत न दें। वे उनको वेदों से अधिक आवश्यक समझते हैं। और अगर हिन्दुओं के आगे बढि़ए और बौद्ध, सिक्ख, जैनों को लीजिए (जिनको मुझे खुशी है कि हिन्दू-महासभा ने अपनाने का यत्न किया है) तब और भी पेचीदगियाँ बढ़ती हैं। बौद्ध-दर्शन शास्त्रों में और हिन्दू-दर्शन शास्त्रों में बहुत फ़़र्क है। वे वेदों को नहीं मानते। वे तो ईश्वर तक को नहीं मानते। ऐसी हालत में अगर मेरे ऐसे कम जाननेवाले लोग गड़बड़ा जावें तो क्या आश्चर्य है? इसलिए यह आवश्यक है कि भाई परमानन्द जी और हिन्दू-महासभा इस बात को बिलकुल साफ़ कर दे कि किस ‘स्व’ के लिए वे कोशिश करते हैं, किस हिन्दूत्व को वे इस हमारे देश में क़ायम रक्खा चाहते हैं। और यह भी साफ़ बताया जावे कि उनकी राय में कांग्रेस कहाँ-कहाँ ‘स्व’ को छोड़ रही है। विचार करनेवाले लोग गोल शब्दों की उलझन से निकलकर हर बात को साफ़ कहने और लिखने की कोशिश करते हैं। तब ही उस पर विचार हो सकता है, नहीं तो केवल जोश बढ़ाने के शब्द वे हो जाते हैं।
मेरा ख़याल था—संभव है कि यह ग़लत हो—कि जिस ‘स्व’ में हिन्दू-महासभा को ख़ास दिलचस्पी है वह सरकारी नौकरी-चाकरी और कौंसिलों वग़ैरह की मेम्बरी से संबंध रखता है—कितने तहसीलदार, डिप्टी कलक्टर और पुलिस के अफ़सर हिन्दू हों। यह भी मैंने देखा कि हिन्दू-महासभा को राजाओं, तअल्लुक़दारों और बड़े ज़मींदारों और साहूकारों से बहुत मोहब्बत है और उसे उनके ह़कूक़ की रक्षा की फिक्र रहती है। क़र्ज़-संबंधी क़ानूनों का उन्होंने विरोध किया इस बुनियाद पर कि वे साहूकार को हानि पहुँचाते हैं चाहे वे किसान और छोटे ज़मींदारों को फायदा क्यों न करें। क्या ये सब बातें हिन्दूत्व में मिली हुई हैं और साहूकार का ज़बर्दस्त सूद लेना भी हमारे उस ‘स्व’ का एक हिस्सा है जिसकी हमें रक्षा करनी है?
एक और विचारणीय बात है। इतिहास-लेखकों का यह ख़याल है कि भारत में मुस्लिम राज्य स्थापित होने पर हिन्दू-सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र दक्षिण-भारत की तरफ़ चला गया। वहाँ मुसलमानों की पहुँच कम थी। आज-कल भी दक्षिण में पुराना हिन्दू-वर्णाश्रम-धर्म उत्तर-भारत से अधिक है और भारत भर में यह हिन्दूत्व कदाचित् पंजाब में सबसे कम हो। इसकी वजह साफ़ है। पंजाब और सिन्ध का इस्लामी राजाओं और हुकूमत से हमारे देश में सबसे अधिक संबंध रहा। विचारणीय बात तो यह है कि इस समय इसी पंजाब में हिन्दू-महासभा की शक्ति ज़्यादा है और दक्षिण में तो उसकी पहुँच बहुत कम है।
मुझे सभ्यता और संस्कृति के इतिहास में बहुत दिलचस्पी रही है और असल में तो वही इतिहास है, बा़की राजाओं का आना और जाना और लडऩा है। जब कभी सभ्यता या संस्कृति का प्रश्न उठता है तब मैं उधर खिंचता हूँ और कुछ सीखने और समझने की कोशिश करता हूँ। सर मोहम्मद इक़बाल अक्सर इस्लामी संस्कृति का जि़क्र करते हैं। मुझे यह बात गोल मालूम हुई, इसलिए मैंने उनसे इसको साफ़ करने को कहा और कई सवाल पूछे। वे ख़ामोश रहे और कोई जवाब नहीं दिया।
भाई जी का यह कहना कि अगर हम सब ईसाई हो जावें तब हमारा ‘स्व’ इंग्लैंड का ‘सेल्फ़’ हो जावेगा, वह हमें अपना लेगी और हम उसके ढंग के स्वतंत्र हो जावेंगे, एक ऐसी अजीब बात है कि पढ़कर आश्चर्य होता है कि कोई भी ऐसा ख़याल रक्खे। इसके माने यह है कि भाई जी समझते हैं कि योरप का आधुनिक साम्राज्यवाद ईसाई-धर्म कहलाने का है! इस ग़लती में तो शायद कोई स्कूल का बच्चा भी न पड़े। साम्राज्यवाद से और धर्म में क्या संबंध? अबीसीनिया तो ईसाई-देश है और सबमें पुराना ईसाई-देश है जबकि योरपवाले तक ईसाई नहीं हुए थे। उस पर इटली का क्यों मिला? योरप के ईसाई-देशों में आपस में पिछली बड़ी लड़ाई क्यों हुईं? आयर्लेंड भी ईसाई-देश एक हज़ार वर्ष से ऊपर से है। उस पर अँगरेज़ी साम्राज्यवाद क्यों सात सौ बरस से चढ़ाई करता रहता है।
देशों की जातीयता और सभ्यता को लीजिए। भाई जी मिस्र और ईरान की मिसाल देते हैं कि जिन्होंने अपनी जातीयता को मिटा दिया और अपने की शासक विदेशी जाति के अन्दर जज़्ब करवा दिया। मिस्र का हज़ारों वर्ष का पुराना इतिहास चला आता था और उसमें बहुत ऊँच-नीच और तबादले तथा हमले और फ़तेह हुए थे—फिर क़रीब 2200 साल हुए सिकंदर ने मिस्र फ़तेह किया और उसकी वापसी के बाद उसका एक जेनेरल टोलोमी वहाँ का बादशाह हुआ। उसने मिस्र के देवता और आचार स्वीकार किये, केवल उनमें कुछ अपने ग्रीस के भी देवता दिये। मिस्र एक बड़ा केन्द्र ग्रीक-सभ्यता और मिस्र का हो गया। फिर बहुत दिन बाद वह रोमन-साम्राज्य के अधीन हो गया। ईसाई मज़हब वहाँ योरप के पहले फैला और कई सौ वर्ष तक रहा। बाद में इस्लाम वहाँ आया और उसकी आसानी से जीत हुई। इस समय मिस्र में अधिकतर मुसलमान हैं और कुछ पुराने, इस्लाम के पहले के, ईसाई हैं जो कोप्ट्स कहलाते हैं। इस्लाम भी वहाँ 1300 वर्ष से है। जब भाई जी कहते हैं कि मिस्र ने अपनी जातीयता को मिटा दिया तब उनका क्या मतलब है? पिछले 7000 वर्ष के इतिहास में किस ज़माने को वे मिस्र की असली जातीयता का ज़माना गिनते हैं?
ईरान में इस्लाम की जीत मिस्र की तरह जल्दी हुई। लेकिन जाननेवालों की राय यह है कि उससे ईरानी सभ्यता और संस्कृति दबी नहीं, बल्कि अरबी मुसलमानों तक पर हावी आ गई और अरबी ख़ली़फा पुराने ईरानी बादशाहों की और बहुतेरे रवाजों की नक्ल करने लगे। वह ईरानी संस्कृति इतनी ज़ोरदार थी कि उसका असर पश्चिमी एशिया से लेकर चीन तक लगातार क़ायम रहा। इस समय ईरान में इस्लाम के पहले की यह पुरानी संस्कृति लोगों को ज़ोरों से आकर्षित कर रही है।
हमारे देश के पुराने इतिहास की तरफ़ एक झलक देखिए। आर्यों के आने के पूर्व कई सहस्र वर्ष तक यहाँ एक ऊँचे दर्जे की सभ्यता थी, जिसका छोटा-सा नमूना हमको मोहनजोदारो में मिलता है। शायद उसका संबंध द्राविड़-सभ्यता से हो जो स्वयं आर्यों के पहले की थी। फिर आर्य आये और द्राविड़ लोगों को हराया और उन पर हुकूमत की। कुछ रवाज और धर्म के मामले में उनसे समझौता किया, कुछ अपने देवता उनके सामने रक्खे। इन समझौतों से एक मिली हुई संस्कृति पैदा हुई जिसमें आर्यों का अधिक हिस्सा था। फिर और बहुत जातियाँ इस देश में हमला करके आईं, जिनमें ख़ास तौर से कई तुर्की जातियाँ थीं, और यहाँ बस गईं। राजपूताने और काठियावाड़ के हमारे बहुतेरे राजपूत ख़ानदान तुर्की खून रखते हैं। उस ज़माने में दूसरे धर्म का सवाल नहीं था, क्योंकि मध्य-एशिया के ये तुर्की लोग सब बौद्ध थे। फिर भी वे अपने बहुतेरे रवाज और आचार यहाँ ले आये। इसी तरह से भारत में (और हर देश ही में) बहुत चश्मे और दरिया मु़ख्तलिफ़ देशों से बहकर आये और हमारी संस्कृति पर असर डालते गये। फिर इस्लाम फ़तेह की सूरत में आया और हम अपने को उससे बचाने के लिए सिकुड़ गये और अपनी संस्कृति की खिड़कियाँ जो खुली रहती थीं, उनको बंद कर लिया।
भाई जी की राय में हमारी हिन्दू-जातीयता कब शुरू होती है? आर्यों के आने पर? यह क्यों? हम उनके पहले मोहेनजोदारो के ज़माने को क्यों छोड़ दें, और फिर द्राविड़-ज़माने को? क्या द्राविड़ लोगों को कहने का अधिकार नहीं है कि आर्य लोग बाहरी हैं जो आके यहाँ बलपूर्वक जम गये हैं? ऐसे बहुत सवाल उठ सकते हैं, क्योंकि इतिहास में सभ्यता, संस्कृति, विचारधारा—ये सब बहती हुई एक देश से दूसरे देश में जाती रहती हैं और एक-दूसरे पर असर डालती हैं। उनके बीच में अलग करने को क़तार खींच देनी कठिन है। किसी भी जीवित चीज़ की यह निशानी है कि वह बढ़ती है और बदलती है। जहाँ उसका बढ़ना रोका वहाँ उसकी जान निकल गई। सभ्यता और संस्कृति भी इसी तरह उसी समय तक जिन्दा रहती हैं जब तक उनमें माद्दा है बदलती हुई दुनिया के साथ ख़ुद भी कुछ बदलने का। सबसे बड़ा सबक़ जो इतिहास हमको सिखाता है वह यह है कि कोई चीज़ एक-सी नहीं रहती। हर समय बढ़ना या घटना, क्रान्ति या इन्क़लाब। जिस जाति ने इससे बचने की कोशिश की और अपने को जकड़ लिया वह अपने ही बनाये हुए पिंजरे में कैदी बनकर सूखने लगी।
पहले ज़माने में जब दूर का सफ़र करना कठिन था, देशों का एक-दूसरे से संबंध कम था और इससे उनमें फ़़र्क थे। जितना अधिक आना-जाना हुआ उतना ही असर एक-दूसरे पर पड़ा। आधुनिक दुनिया में रेल, मोटर, हवाई जहाज़ ने सरहदें क़रीब-क़रीब मिटा दीं और दुनिया की एकता बढ़ा दी। किताबें, समाचार-पत्र, तार, रेडियो, सिनेमा इत्यादि हर वक्त हम पर असर डालते हैं और हमारे विचारों को हलके-हलके बदलते हैं। इनको हम पसंद करें या नापसंद करें, हम इनसे बच नहीं सकते। इसलिए इनको समझना चाहिए और इनको अपने क़ाबू में लाना चाहिए।
इन सब बातों के लिए हमारा पुराना हिन्दूत्व क्या सलाह देता है, मैं भाई जी से पूछना चाहता हूँ? वे धार्मिक सभ्यताओं और जातीयता की चर्चा करते हैं। लेकिन आधुनिक संसार की सभ्यता तो लोहे की मशीन की और ज़बर्दस्त कारखानों की है। उसको धर्म से क्या मतलब? और बग़ैर पूछे या बहस किये वह पुरानी मूर्तियों को गिराती हुई आगे बढ़ती जाती है। हिन्दुओं के जाति-भेद के मिटाने को बड़े आन्दोलन हुए, लेकिन सबसे बड़ी क्रान्ति पैदा करनेवाली तो रेल है और ट्राम और लारी। उनमें कौन अपने पड़ोसी की जात देखता है?
पुराने इतिहास और आधुनिक संसार की राजनीति पर विचार करते हुए दिमाग़ में ख़यालात का एक हुजूम पैदा हो जाता है। क़लम उनका साथ नहीं दे सकता। वह बेचारा तो धीरे-धीरे काग़ज़ पर काली लकीरें खींचता है, विचारों की दौड़ में बिलकुल पिछड़ जाता है। उसकी धीमी ऱफ्तार से उलझन पैदा होने लगती है। खैर, यह मज़मून बहुत लम्बा हुआ और, हालाँकि नाक़ाफ़ी है और नामुकम्मल है, अब इसका ख़त्म करना ही मुनासिब है। संभव है कि फिर काग़ज़-क़लम और स्याही का सहारा लेऊँ और इन मज़मूनों पर अपने फिरते हुए विचारों को शक्ल और सूरत दूँ। एक प्रार्थना फिर से दोहराता हूँ कि भाई परमानन्द अपने मानों पर ज़्यादा रोशनी डालें और जिन बातों की तरफ़ मैंने इस लेख में इशारा किया है उनको साफ़ करें।
[‘सरस्वती’, अक्टूबर 1935 से साभार]
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