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जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएँ | Poems: Jitendra Srivastava


जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएँ #शब्दांकन

वह बहुत डरता है राजदण्ड से

जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएँ



>>सरकारों के स्वप्न में

वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू करने का समय करीब आ रहा है। कर्मचारी उल्लसित हैं। महँगाई इस कदर बढ़ चुकी है कि मुश्किल से चल रहा है परिवार, कहते हैं बहुत सारे लोग। शायद वेतन आयोग की सिफारिशों से बदल जाए कुछ!

उम्मीद में बीत रहे हैं बहुतों के दिन
बन रही हैं योजनाएं
आकार ले रहे हैं नए स्वप्न

दूसरी ओर विकल हैं मजदूर। न काम हैं न बढ़ रही है मजदूरी हिसाब से। न जाने कितना वक्त बीत गया उन्हें कोई नया वस्त्र पहने। अपनी रसोई में मनचाहा पकवान एक स्वप्न है उनके लिए।

स्वप्न की कोई एक देह नहीं होती
अलग­अलग समयों में
अलग­अलग देशों में
अलग­अलग विचारधाराओं में
वह मिलता है बिलकुल अलग­अलग ढंग से

इस सृष्टि में हर कोई प्रतीक्षा कर रहा है किसी न किसी स्वप्न के फलित होने का।

पर सबसे अलग है
इन दिनों लोकतंत्र में सरकारों का स्वप्न
उनके स्वप्न में सब कुछ है .......... सब कुछ
बस ’समाज का आखिरी आदमी’ नहीं।


>>दिल्ली में एक दिन भर जाना भीतर तक 

पिछले शुक्रवार मेरे घर आए वृद्धिचंद गुप्ता
अपने छोटे भाई विश्वम्भर के साथ

वर्षों बाद मैंने देखा उन्हें
उन्होंने देखा मुझे यह कहते हुए
कि कहीं राह में मिलता
तो यक़ीनन पहचान नहीं पाता जितेन्द्र बाबू

मैंने कहा, लेकिन बहुत अंतर नहीं आया है आपके चेहरे में
आपको कैसे भूल सकता हूँ मैं
न जाने कितनी बार खरीदी मैंने
आपकी दुकान से खडि़या, पेंसिल, स्याही और चाकलेट

भइया, आदमी जीवन में चाहे जितना आगे निकल जाए
उसकी स्मृति में शामिल हो जाएं चाहे ढेर सारी दूसरी बातें
या वह भुला दे बहुत कुछ सायास
फिर भी नहीं भुला पाता अपना बचपन

बचपन चेतना का वह हिस्सा है
जिसे नींद नहीं आती मृत्यु से पहले

बहुत देर तक हम बैठे बतियाते रहे
मैं पूछता रहा गाँव के लोगों के बारे में
वे बताते रहे
कि कितना विकट हो चला है गाँव
हालांकि भौतिक प्रगति भी खूब हुई है
अब भुखमरी नहीं रही पहले की तरह
तीन सौ घरों वाले गाँव में
कम से कम दो सौ मोटर साइकिलें तो हैं ही इन दिनों

अब नवरात्रि में कई मूर्तियाँ स्थापित होती हैं दुर्गा जी की
ताजिए की कर्बला यात्रा में अब भी
पहले की तरह शामिल होते हैं हिन्दू
वैसे अब भी साल में हो ही जाते हैं एक­दो कत्ल
जमीन­जायदाद को लेकर

उन्होंने कहा यूँ ही बतियाते­बतियाते
कि अब पहले वाली बात नहीं रही
लाज­लिहाज़ कम हुआ है गाँव में


थोड़ी देर चुप रहे हम लोग
फिर मैंने पूछा
अब भी ठीक से चलती है दुकान?
उन्होंने कहा
दुकान अब बहाना है समय काटने का
बेटा इंजीनियर है इंडियन ऑयल में
अब कोई दिक्कत नहीं रही जीवन में
इधर­उधर बैठने, लगाने­बझाने से
लाख गुना अच्छा है दुकान पर बैठे रहना

बाबू, बाप­दादा की विरासत है
जब तक चल जाए चलाऊँगा
जब थक जाएगी देह
बढ़ा दूँगा दुकान पूर्वजों से क्षमा माँगते हुए

विश्वम्भर के याद दिलाने पर
एक­दो बातें याद कीं उन्होंने मेरे बचपन की
मेरे सहपाठियों की

सुनकर मुस्कुराईं मेरी बेटियाँ
मैं भी मुस्कुराया भीतर ही भीतर
बहुत दिनों बाद
मैंने खुद को पाया भरा­भरा
बहुत दिनो बाद
किसी के जाने पर घर खाली­खाली लगा।


>>दिल्ली की नींद

वटवृक्ष की पत्तियों के बीच से
उतर रही हैं किरणें
हरियाली से गलबहियाँ करते हुए

इन क्षणों में हर्षित है धरा
उड़ान में हैं पक्षी
चींटियाँ निकल पड़ी हैं अन्न की खोज में
कुछ सुग्गे कलरव कर रहे हैं
अमरूद के पेड़ पर

झर चुके हैं हरसिंगार के फूल
खुशबू उतर आई है दूब की देह में

यह सुबह है अरावली की
सब जाग रहे हैं धीरे­धीरे चारों ओर
टूट रही है लोगों की तन्द्रा
उतार पर है नींद का जादू
पर आश्चर्य!
जिसे जगना चाहिए सबसे पहले
अरावली के मस्तक पर लेटी वह दिल्ली
अभी सो रही है।


>>किसी सगे की तरह

जो चीजें वर्षों रही हों आपके साथ
उनका किसी दिन किसी स्टेशन से गुम हो जाना
अखरता है देर तक दिनों तक

चीजें आती हैं पैसों से
लेकिन वे महज पैसा नहीं होतीं
एक लम्बा वक्त गुजारा होता है आपने उनके साथ
आपके जीवन में वे होती हैं
किसी सगे की तरह

उनका जाना
महज कुछ चीजों का खो जाना नहीं
किसी सगे का
हमेशा हमेशा के लिए चले जाना है।


>>तुम्हारे साथ चलते हुए

कल वसंत पंचमी थी
हम घूमते रहे थे
शहर में
शहर की कई फुलवारियों में

फूलों का निमंत्रण
मादक हो न हो
होता है पवित्र निश्छल विश्वासभीना
मैंने कल ही जाना यह
तुम्हारे साथ चलते हुए

और आज इस क्षण
जब घर में पूरा कर रहे हैं हम
अपने-अपने हिस्से का काम
तुमने बाँध रखा है सिर को तौलिए से
निकाल रही हो झाले कोने-अंतरे से
उन्हीं में से एक-दो आ गिरे हैं तौलिए पर
लटक रहे हैं तुम्हारे गालों पर

ऐसे में तुम अजब-गजब दिखती हो
मेरे टोकने पर हँस देती हो
और सचमुच बदल जाता है मेरी आँखों का रंग
मुझे महसूस होता है
जैसे सृष्टि के सारे फूलों का रंग
उतर आया है तुम्हारी हँसी में। “


>>वह बहुत डरता है

यह खड़ी दोपहर है
सूरज चढ़ आया है सिर पर
जबकि लैंपपोस्ट अभी जल रहे हैं सड़कों पर
सरकार अभी सोई है
लाइनमैन परेशान है
वह बुझाना चाहता है सारी बत्तियाँ
लेकिन बत्तियों के बुझने से खलल पड़ेगी
सरकार की नींद में मनचाहे सपनों में
उसे भ्रम हो जाएगा उजाले का

सरकार को रात के उजाले अच्छे लगते हैं
उसे सूरज बिलकुल नहीं सुहाता
यह अच्छा है उसका घर बहुत दूर है
वह पहुँच के पार है
अन्यथा राजदण्ड का भागी होता

लाइनमैन डरता है
बीबी-बच्चों का चेहरा उसकी पुतलियों में रहता है
उसे मालूम है
राजद्रोह सिद्ध करने वालों को
बहुत रास आती हैं व्रिदोहियों की आँखें
वे और ही ढंग से समझते-समझाते हैं
‘न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी’ का निहितार्थ

घबराया हुआ लाइनमैन इधर-उधर देखता है
अजीब सी झुरझरी उठती है बदन में
माथे से टपक पड़ता है पसीना
अरावली की पहाडि़यों पर झूम कर खिले हुए कचनार
उसमें रंग नहीं भर पाते फागुन का

वह एक साधारण आदमी है
छोटी-सी नौकरी में खुश रहना चाहता है
वह चाहता है बदल जाएं स्थितियाँ
वह स्वागत करना चाहता है नए उजाले का
लेकिन सरकार की नज़र में नहीं आना चाहता
वह बहुत डरता है राजदण्ड से।


>>धोखा एक अदृष्य घुन है

असफलताएं तोड़ती हैं आदमी को कुछ समय के लिए
पर धोखे तोड़ देते हैं बाहर­भीतर सब कुछ

असफलताओं से उबर जाता है आदमी
एक न एक दिन मिल ही जाती है
सफलता की कोई पुष्प वाटिका
पर धोखे का अंधेरा
गहरा होता है किसी भी अंधरे से
धोखा एक अदृष्य घुन है
जो पल­पल चाटता है विश्वास!


>>पत्नी पूछती है कुछ वैसा ही प्रश्न

जो कभी पूछा था माँ ने पिता से

ए जी, ये लोकतंत्र क्या होता है?

पूछा था माँ ने पिता जी से
कई वर्ष पहले जब मैं किशोर था

माँ के सवाल पर
थोड़ा अकबकाए फिर मुस्कुराए थे पिताजी

माँ समझ गयी थी
वे टाल रहे हैं उसका सवाल
उसने फिर पूछा था -
बताइए न, ये लोकतंत्र क्या होता है?

अब पिता सतर्क थे
‘सतर्क’ के हर अर्थ में
उन्होंने कहा था -
तुम जानती हो लोकतंत्र की परिभाषा उसके निहितार्थ
पढ़ाती हो बच्चों को
फिर मुझसे क्यों पूछती हो, क्या दुविधा है?

माँ ने कहा था -
दुविधा ही दुविधा है
उत्तर की सुविधा भी एक दुविधा है
जो शब्दों में है
अभिव्यक्ति में पहुँच नहीं पाता
जो अभिव्यक्ति में पहुँचता है
जीवन में उतर नहीं पाता

ऐसा क्यों है
प्रेम की तरह लोकतंत्र दिखता खुला-खुला सा है
पर रहस्य है!

जब जो चाहे
कभी भाषा से
कभी शक्ति से
कभी भक्ति से
कभी छल कभी प्रेम से
अपनी सुविधा की व्याख्या रच लेता है
और काठ के घोड़े-सा लोकतंत्र टुकुर-टुकुर ताकता रह जाता है

यह सब कहते हुए
स्वर शांत था माँ का

कोई उद्विग्नता, क्षणिक आवेश, आवेग, आक्रोश न था उसमें
जैसे कही गई बातें महज प्रतिक्रिया न हों
निष्पत्तियाँ हों सघन अनुभव की
लोकतंत्र की आकांक्षा से भरे एक जीवन की

और यह सब सुनते हुए
जादुई वाणी वाले सिद्ध वक्ता मेरे पिता
चुप थे बिलकुल चुप
जैसे मैं हूँ इस समय
उस संवाद के ढाई दशक बाद
अपनी पत्नी के इस सवाल पर
ए जी, ये बराबरी क्या होती है?


>>खेतों का अस्वीकार

आज ज्योंही मैं पहुँचा
गाँव के गोंइड़े वाले खेत में
उसने नजर उठाकर देखा पल भर
फिर पूछा
कहो बाबू, कहाँ से आए हो
कुछ-कुछ शहरी जान पड़ते हो?

लगता है
कोई जान-पहचान है इस गाँव में
इधर निकल आए हो शायद निवृत होने!

मैं अचरज में पड़ा हुआ
किंकर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा हुआ
ताकने लगा निर्निमेश उसको
जिसकी मिट़्टी में लोट-लोट लहलोट हुआ
मैं बचपन में खेला करता था

मैं भागा तेज वहाँ से
पहुँचा नदी किनारे वाले चक में
चक ने देखा मुझको
कुछ चकमक-चकमक-सा लगा उसे
थोड़ी देर रहा चुप वह
फिर पूछा उसने
किसे ढूंढ रहे हो बाबू
इतनी बेसब्री से
यहाँ तो आँसू हैं
हत सपने हैं
अकथ हुई लाचारी है
लेकिन तुम कुछ अलग-अलग दिखते हो
कहाँ रहते हो?

इधर कहाँ निकल आए हो
यहाँ धूल है मिट्टी है
सड़क के नाम पर गिट्टी है
चारों ओर पसरा हुआ
योजनाओं का कीचड़ है

ख़ैर छोड़ो, कहाँ से आए हो
क्या करते हो
आखिर इतना चुप क्यों हो
क्या कभी नहीं कुछ कहते हो?

मैं ठकुआया खड़ा रहा
बहता रहा आँखों का द्रव
मैं भूला
भूला रहा बरस-बरस बरसों-बरस जिन खेतों को
यही सोच-सोच कि मालिक हूँ उनका
उन खेतों ने सचमुच मुझको भुला दिया था

कुछ देर
मैं अवसन्न खड़़ा रहा सच के सिरहाने

देवियो-सज्जनो
मालिक बनने को उत्सुक लोगो
आज उन खेतों ने
मुझे पहचानने से इंकार कर दिया है
जिनके मालिक थे मेरे दादा
उनके बाद मेरे पिता
और उनके बाद मैं हूँ
बिना किसी शक-सुब्हे के

आप सब अचरज में पड़ गए हैं सुनते-सुनते
यकीन नहीं कर पा रहे मेरी बातों का
पर सच यही है सोलह आना
कि मैं मालिक हूँ जिनका खसरा खतौनी में
उन खेतों ने
मुझे पहचानने से इंकार कर दिया है।


>>जब धर्म ध्वजाएं लथपथ हैं मासूमों के रक्त से

कल इकतीस जुलाई है
जहाँ-तहाँ याद किए जाएंगे प्रेमचंद
हो सकता है सरकार की ओर से जारी हो कोई स्मरण-पत्र
पर क्या सचमुच अब लोगों को याद आते हैं
प्रेमचंद या उन्हीं की तरह के दूसरे लोग?

एक सच यह भी है
परिवर्तन के लिए जूझ रहे लोग
यकीन नहीं कर पाते
सरकारी गैर सरकारी जलसों का
वे गला खखारकर थूकना चाहते हैं
जलसाघरों के प्रवेश द्वार पर
वे प्रेमचंद के फटे कोट और फटे जूते को
सजावट का सामान बनाना नहीं चाहते
वे उसके सहारे कुछ कदम और आगे जाना चाहते हैं

वे जानते हैं इस महादेश में
फटा कोट और फटा जूता पहनने वाले अकेले नहीं थे प्रेमचंद
आज भी करोड़ों ‘गोबर’
जी रहे हैं जूठन पर
उनके हिस्से में फटा कोट और फटा जूता भी नहीं है

वे प्रेमचंद के उस जीवन-प्रसंग का महिमा मंडन नहीं करते
उसे बदल लेते हैं अपनी ताकत में
प्रेमचंद की चेतना को घोल लेते हैं अपने रक्त में
बना लेते हैं अपना जीवद्रव्य

ये वे लोग हैं
जिन्हें अब भी यकीन है
‘साहित्य राजनीति के पीछे नहीं
आगे चलने वाली मशाल है’

वैसे कल सचमुच इकतीस जुलाई है
और यह महज संयोग हो सकता है
मगर एक तथ्य है
कल ही बीती है उनतीस जुलाई
जब देश भर में मनाई गई ईद
और एक खबरिया चैनल के ‘एंकर’ ने
याद किया ‘ईदगाह’ को लेकिन
हामिद की दादी को भूलवश बता गया उसकी माँ


कुछ साहित्य प्रेमी नाराज हैं इस घटना से
उनका कहना है
पूरी तैयारी से आना चाहिए ‘एंकर’ को

इस विवाद पर एक मित्र का कहना है
इस स्मरण को उस तरह न देखें
जैसे देखते हैं बहुसंख्यक
इसे अल्पसंख्यकों की निगाह से देखें
और सोचें कि जब पूरी दुनिया में घमासान है धर्मों के बीच
जब कत्ल हो रहे हैं बच्चे, बूढ़े, जवान और लूटी जा रही हैं स्त्रियाँ
जब धर्म ध्वजाएं लथपथ हैं मासूमों के रक्त से
तब हिन्दी के एक ‘एंकर’ को याद तो है ‘ईदगाह’।


>>वे योद्धा हैं नई सदी के

जो गा रहे हैं

नई संस्कृति के सृजन का गीत

जब वे बोलते हैं हमें महसूस होता है
वे हमारा अपमान कर रहे हैं
जबकि वे सदियों की चुप्पी का समापन करते हुए
बस मुँह खोल रहे होते हैं

उन क्षणों में वे अकन रहे होते हैं
अपनी आवाज का वज़न
महसूस रहे होते हैं उसका सौन्दर्य
और हम डर जाते हैं

वे हमसे पूछना नहीं
अपने हक़ का भूगोल स्वयं बताना चाहते हैं
संस्कृति की उपलब्ध सभी टीकाओं को
सहर्ष समर्पित करना चाहते हैं अग्नि को
कहीं कोई दुविधा नहीं है उनमें
वे नई संस्कृति के अग्रधावक हैं सौ फीसद

इन दिनों उनकी वाणी से हो रही अम्ल वर्षा
विषाद है उनके पूर्वजों का
उसका कोई लेना-देना नहीं
किसी आम किसी खास से

वे अनन्त काल से चलती चली आ रही
गलतियों पर अंतिम ब्रेक लगाना चाहते हैं
भस्म करना चाहते हैं
उस चादर के अंतिम रेशे को भी
जो कवच की तरह काम आती रही पुराण पंथियों के

सचमुच वे योद्धा हैं नई सदी के
हमारा विश्वास करीब लाएगा उन्हें
वे हमारे खिलाफ नहीं वंचना के विरुद्ध हैं
निश्चय ही हमें इस संग्राम में
होना चाहिए उनके साथ।


>>संजना तिवारी 

आप निश्चित ही जानते होंगे
एश्वर्य राय, प्रियंका चोपड़ा, कैटरीना कैफ़
एंजलीना जोली, सुष्मिता सेन सहित कई दूसरों को भी
और यकीन जानिए मुझे रत्ती भर भी ऐतराज नहीं
कि आप जानते हैं
ज़माने की कई मशहूर हस्तियों को

लेकिन क्या आप जानते हैं संजना तिवारी को भी ?

संजना तिवारी ने अभिनय नहीं किया
एकता कपूर के किसी धारावाहिक में
वे किसी न्यूज़ चैनल की एंकर भी नहीं हैं

मेरी अधिकतम जानकारी में उन्होंने
कोई जुलूस नहीं निकाला कभी

चमक-दमक
लाभ -हानि
प्रेम और घृणा के गणित में पड़े संसार को
ठेंगा दिखाती हुई    
वे फुटपाथ पर बेचती हैं दुनिया का महान साहित्य
और उन पत्रिकाओं को जिनमें
शृंगार, जिम और ‘मुनाफे’ पर कोई लेख नहीं होता

वैसे वे चाहतीं तो खोल सकती थीं
प्रसाधन का कोई छोटा-सा स्टोर
या ढूँढ सकती थीं अपने लिए कोई नौकरी
न सही किसी मल्टीनेशनल कम्पनी में
किसी प्रकाशन संस्था में टाइपिस्ट की ही सही

ऐसा तो हो नहीं सकता
कि कोई घर न हो उनका
और यह कैसे हो
कि घर हो और उम्मीद न हो

यह कहने-सुनने में चाहे जितना अटपटा लगे
पर सच यही है
घर और उम्मीद में वही रिश्ता है
जो साँसों और जीवन में होता है
खै़र, छोडि़ए इन बातों को
और थोड़ी देर के लिए
दुनिया को देखिए संजना तिवारी की निगाह से
जो इस बेहद बिकाऊ समय में
अब कम-कम बिकने वाली
सपनों से भरी उन इबारतों को बेचती हैं
जो फर्क़ करना सिखाती हैं
सपनों के सौदागरों और सर्जकों के बीच

संजना तिवारी महज एक स्त्री का नाम नहीं है
किताबें बेचना उनका खानदानी व्यवसाय नहीं है
वे किसी भी ‘साहित्यिक’ से अधिक जानती हैं
साहित्यिक पत्रिकाओं के बारे में

वे सुझाव भी देती हैं नए पाठकों को
कि उन्हें क्या जरूर पढ़ना चाहिए

संजना तिवारी महज एक नाम नहीं
तेजी से लुप्त हो रही एक प्रवृत्ति हैं
जिसका बचना बहुत जरूरी है

और जाने क्यों मुझे
कुछ-कुछ यकीन है आप सब पर
जो अब भी पढ़ते-सुनते हैं कविता
जिनकी दिलचस्पी बची हुई नाटकों में
जिनके सपनों का रंग अभी नहीं हुआ है धूसर

इसलिए अगली बार जब भी जाइएगा मण्डी हाऊस
श्रीराम सेण्टर के सामने
पेड़ के नीचे दरी पर रखी सैकड़ों किताबों-पत्रिकाओं में से
कम से कम एक जरूर ले आइएगा अपने साथ

और यकीन रखिए आपका यह उपहार
किसी और पर फर्क़ डाले न डाले
दाल में नमक जितना ही सही
जरूर डालेगा अगली पीढ़ी पर।


>>खाली मकान हो जाना एक घर का

एक-एक पैसा जोड़कर
अपनी जरूरतों को घटाकर
दिन-रात खटकर बनवाया था पिता ने
सपनों का एक घर

घर के रोशनदान, दरवाजे बरामदे, सीढि़याँ, आलमारियाँ,
सोच-सोच कर
बेटे-बेटियों की रुचियों को समझ-समझकर
बहुत आह्लाद से बनवाया था पिता ने

घर की बैठक में बैठते हुए चमकती थीं उनकी आँखें
वे सोचते थे
उन्होंने मुक्त कर दिया है बच्चों को घर बनवाने को जिम्मेदारी से
इस घर में रहेंगे उनके बच्चे
सुख से स्वाभिमान से प्रीतिपूर्वक

पिता के जीवन में यह घर
स्वर्ग था हमारा

हमारी आत्मा बसती थी इस घर में
पर अब कोई नहीं रहता इसमें
सब गए अपनी राह

पिता के सपनों का यह घर
एक खाली मकान है अब।


जब होड़ लगी है होशियारों में


>>यह कैसा समय है 

जब कुछ लोग पांगते चले जा रहे हैं स्वप्न-वृक्ष!

कुछ भी छिपा नहीं है
बिलकुल सामने है मानसरोवर की तरह पारदर्शी
पर कोई देखता क्यों नहीं
क्यों नहीं करता हाहाकार!

कुछ लोग माँगते चले आ रहे हैं हमारा यकीन
कुछ आ रहे हैं पूरब से
वे धीरे से रखेंगे हमारे कंधे पर हाथ
और सोख लेंगे तमाम शक्ति-स्रोत
कुछ आ रहे हैं पश्चिम से
कुछ उत्तर से, दक्षिण से, अनजान दिशाओं से
वे धीरे से फेरेंगे हमारे माथे पर हाथ
और ओरा जाएगा हमारा विवेक

आइए, उस तिथि के आने से पहले-पहले आइए
जब विलाप के लिए न बचें भरोसे वाले कंधे
जब अजनबी की तरह निहारने लगें हम एक दूसरे को
आइए, गले लगकर चीखें साथ-साथ
हे महाबुद्ध!
यह कैसा समय है
जब होड़ लगी है होशियारों में
अंधेरे को अपूर्व उजाला कहने की
जब छल-खल-मल से लबालब भरा है प्रेम!!


>>जैसे मुझे ही पुकार रहे हैं पिता



जब पिता गए
न जाने कहाँ से डगरता हुआ
आ खड़ा हुआ बचपन सिरहाने

याद आया पिता का कोमल-कठोर स्पर्श
गिरते-गिरते उठा लिया जाना गोद में
कुछ फटकारें भी याद आईं त्वचा में सनसनाती हुईं
याद आईं वे सीखें
जो अच्छी नहीं लगी थीं तब
पर जाने कब-कैसे
वे सारी की सारी समा गईं मेरे जीवन में

पिता को गए
अठारह वर्ष बीत गए धीरे-धीरे

धीरे-धीरे मैं भी
आ खड़ा हुआ
उम्र की दोपहरी में

अब मैं पुकारता हूँ अपनी बेटियों को
तो जाने क्यों लगता है
जैसे मुझे ही पुकार रहे हैं पिता
मेरी आवाज में समाकर।


>>असमाप्त थूक

मैं नहीं चाहता घृणा करना!

चाहता हूँ
समुद्र हों चारों ओर प्रेम के
ऊँचाइयाँ हों मनुष्यता की पर्वत शृंखलाओं-सी
इच्छाएं हों कुँए के मीठे जल-सी

मैं किसी स्वार्थ के लिए
टूट कर गिरना नहीं चाहता पीपल के पत्तों-सा
मैं आम के पत्तों की तरह
सजना भी नहीं चाहता पूजा की थाल में

मैं आदमी हूँ अदना-सा
और बना रहना चाहता हूँ अकिंचन
मुझे नहीं तोड़ना इच्छा फल

बहुत अंधेरा है, घुटन है, जूठन है
इच्छा फलों के संसार में

मेरा विश्वास कीजिए
मैं सचमुच नहीं चाहता
किसी से घृणा करना
पर जब भी दिखते हैं दृश्य बजबजाते
मुँह में पैदा हो जाता है असमाप्त थूक।


>>कैसे मनुष्य हो!

कैसे मनुष्य हो
जिनसे करनी चाहिए घृणा
उनसे करते हो प्रेम!

जिन्हें दुलराना चाहिए अंकवारी में भरकर
उन्हें दुत्कारते हो आवारा कुत्तों की तरह
उड़ाते हो उनका उपहास

कैसे मनुष्य हो
विधाता बनने की इच्छा में
पल-पल हो रहे हो अमानुष!


>>किसी दिन मलय समीर की तरह

कहाँ के लिए चले थे
कहाँ पहुँचे!
पलट कर देखा
दूर कहीं धुंधलके में खड़ा था इच्छा-मार्ग

तिश्नगी किस चीज की थी
बुझी किस चीज से!
जब सोचा
याद आए पानी के कई चेहरे
बदलते मौसमों के रंग
वे जरूरतें भी याद आईं जिन्हें लाँघ न सका

यूँ ही चलते-गुजरते
जब-जब मिला कुछ
ठहर कर देखा-स्वीकारा उसे
याद आईं साथ-साथ
खेत-खलिहानों में छूट गईं कुछ विह्वल इच्छाएं

अजब-गजब है यह जीवन का जादू
कभी न रुकता चलता जाता
थाह नहीं इसका

जो छूट गया
आ न सका संग-साथ हमारे
नहीं रहेगा हरदम छूटा
उठेगा किसी दिन मलय समीर की तरह अपनी जगह से
और समा जाएगा किसी की पुतलियों में!


>>लाख जतन के बीच

पुस्तक मेले में मिले एक अग्रज मित्र सपत्नीक
बरसों बाद देखा भाभी जी को
बहुत अच्छा लगा
याद आए कुछ बीते दिन, उनके मजाक

हालचाल और इधर-उधर की बातों के बीच
धीरे से कहा उन्होंने पति के कान में
जितेन्द्र्र तो बुढ़ा गए

हँसे मित्र
जितेन्द्र तो बुढ़ा गए
सुनकर मैं भी हँसा जोर से
पर लगा जैसे उनकी बात में
खनक है किसी अंकित छवि के टूटने की

थोड़ी देर गप-शप के बाद
हम बढ़ गए अलग-अलग स्टालों की ओर

उस शाम लौटते हुए सोचता रहा मैं
भले कोई छिपा ले कुबेर का खजाना
छिपा ले बड़ी से बड़ी बात
रिश्तों का सच
पर छिपा नहीं पाता उम्र

लाख जतन के बीच भी
झाँक ही जाती है वह
देह के किसी कोर-छोर से!




जितेन्द्र श्रीवास्तव


उ.प्र. के देवरिया जिले की रुद्रपुर तहसील के एक गाँव सिलहटा में।

बी.ए. तक की पढ़ाई गाँव और गोरखपुर मंे। जे.एन.यू., नई दिल्ली से हिन्दी साहित्य में एम.ए., एम.फिल और पी-एच.डी.। एम.ए. और एम.फिल. में प्रथम स्थान।

कविता - इन दिनों हालचाल, अनभै कथा, असुन्दर सुन्दर, बिल्कुल तुम्हारी तरह, कायान्तरण।

हिन्दी के साथ-साथ भोजपुरी में भी लेखन-प्रकाशन। कुछ कविताएं अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, उडि़या और पंजाबी में अनूदित। लम्बी कविता सोनचिरई की कई नाट्य प्रस्तुतियाँ।

आलोचना: भारतीय समाज, राष्ट्रवाद और प्रेमचंद, शब्दों में समय, आलोचना का मानुष-मर्म, सर्जक का स्वप्न, विचारधारा, नए विमर्श और समकालीन कविता, उपन्यास की परिधि।

संपादन: प्रेमचंद: स्त्री जीवन की कहानियाँ, प्रेमचंद: दलित जीवन की कहानियाँ, प्रेमचंद: स्त्री और दलित विषयक विचार, प्रेमचंद: हिन्दू-मुस्लिम एकता संबंधी कहानियाँ और विचार, प्रेमचंद: किसान जीवन की कहानियाँ, प्रेमचंद: स्वाधीनता आन्दोलन की कहानियाँ, कहानियाँ रिश्तों की ¬(परिवार)।

भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से प्रकाशित गोदान, रंगभूमि और ध्रुवस्वामिनी की भूमिकाएँ लिखी हैं।

प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘उम्मीद’ का संपादन।

कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल सम्मान और आलोचना के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान सहित हिन्दी अकादमी दिल्ली का ‘कृति सम्मान’, उ.प्र. हिन्दी संस्थान का ‘रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार’, उ. प्र. हिन्दी संस्थान का ‘विजयदेव नारायण साही पुरस्कार’, भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता का युवा पुरस्कार, डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान और परम्परा ऋतुराज सम्मान।

अध्यापन। कार्यक्षेत्र पहाड़, गाँव और अब महानगर। राजकीय महाविद्यालय बलुवाकोट, धारचूला (पिथौरागढ़), राजकीय महिला महाविद्यालय, झाँसी और आचार्य नरेन्द्रदेव किसान स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बभनान, गोण्डा (उ.प्र.) में अध्यापन के पश्चात इन दिनों इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के मानविकी विद्यापीठ में अध्यापन ।

हिन्दी संकाय, मानविकी विद्यापीठ, ब्लॉक-एफ, इग्नू, मैदान गढ़ी, नई दिल्ली-68, 
मोबाइल नं. -09818913798।
ई-मेल- jitendra82003@gmail.com
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Hindi Story: कोई रिश्ता ना होगा तब — नीलिमा शर्मा की कहानी
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'
कहानी ... प्लीज मम्मी, किल मी ! - प्रेम भारद्वाज
हमारी ब्रा के स्ट्रैप देखकर तुम्हारी नसें क्यों तन जाती हैं ‘भाई’? — सिंधुवासिनी
कहानी — नदी गाँव और घर  — स्वप्निल श्रीवास्तव kahani nadi gaanv aur ghar swapnil srivastava
 प्रेमचंद के फटे जूते — हरिशंकर परसाई Premchand ke phate joote hindi premchand ki kahani
मन्नू भंडारी: कहानी - एक कहानी यह भी (आत्मकथ्य)  Manu Bhandari - Hindi Kahani - Atmakathy