सूचना तकनीक के विस्तार ने असंख्य लोगों को लेखक होने के भ्रम में डाल रखा है जिसे प्रकाशक भी हवा दे रहे हैं। पर गंभीर रचनाकर्म अब भी जिन्दा है और समय के अनुरूप नई प्रविधि के साथ आ रहा है
हिन्दी की समकालीन रचनाशीलता का परिप्रेक्ष्य
डॉ. ज्योतिष जोशी
यह वर्ष साहित्य के लिए मिला जुला ही रहा है। प्रत्येक वर्ष की भाँति इस वर्ष भी असंख्य पुस्तकें प्रकाशित हुईं, पुरस्कृत हुईं और पढ़ी गईं पर चर्चा और विमर्श में बहुत कम पुस्तकें ही रहीं। मेरी अपनी जानकारी में ऐसी कोई नयी प्रवृत्ति नहीं दिखी जिसका विशेष उल्लेख हो; पर रचनात्मकता के स्तर पर नये-पुराने लेखकों में कइयों ने विषय, शिल्प और प्रविधि के नये रूप की रचनाएँ दीं। भुला-बिसरा दी गईं विधाओं में भी कुछ उल्लेखनीय पुस्तकें आईं तो आलोचना में भी कुछ नया हुआ-सा लगा। पुस्तकें बहुत-सी आईं पर जिनसे मैं गुजर पाया और जिनका प्रकाशन उल्लेखनीय लगा, उनकी चर्चा आवश्यक है।
उपन्यास
उपन्यास की बात करें तो निलय उपाध्याय के पहाड़ की चर्चा करनी होगी जिसमें दशरथ माँझी के जीवट और संघर्ष का ऐसा आख्यान है जो समय के प्रतिरोध की नई इबारत लिखता है। संजीव का फांस इस वर्ष प्रकाशित उपन्यासों में उल्लेखनीय है जिसमें किसानों की आत्महत्याओं को देश की एक बड़ी त्रासदी के रूप में देखा गया है। इस शृंखला में वरिष्ठ आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल का नकोहस भी नये ढंग का उपन्यास है जो आज के विरूपित समय को प्रतीकात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है। कैलाश नारायण तिवारी के उपन्यास बिरले दोस्त कबीर के को भी इस वर्ष के महत्वपूर्ण उपन्यास के रूप में देखा जा सकता है जिसमें कबीर की साधना और संघर्ष को अंकित कर उनके अवदान को आधुनिक संदर्भों में देखने का सफल प्रयत्न है। पीले रूमालों की रात नामक उपन्यास में नरेन्द्र नागदेव ने मध्यकाल से लेकर 19वीं शती के आरम्भ तक वनांचलों में ठगों के साम्राज्य और उनके उन्मूलन का रोचक वृत्तान्त प्रस्तुत किया है जो हिन्दी में नये प्रयोग की तरह है। इस कड़ी में प्रभात रंजन की कोठागोई एक यादगार पुस्तक के रूप में आई है जिसमें उन्होंने मुजफ्फरपुर (बिहार) स्थित चतुर्भुज स्थान की गुमनाम गायिकाओं की गायकी, प्रेम, रसिकता और समर्पण को अपनी आत्मीय भाषा में व्यक्त कर बदनाम समाज को किस्सों की शक्ल में आवाज़ दी है। कला की विरासत को लेखन के माध्यम से संरक्षित करने का यह सार्थक और सराहनीय प्रयत्न है। मुन्नी मोबाइल जैसे प्रयोगधर्मी उपन्यास के बाद प्रदीप सौरभ का और सिर्फ तितली अनेक स्तरों पर साहसिक प्रयत्न कहा जा सकता है जिसमें नष्ट होते समाज को फिर से बचा पाने की पुकार सुनी जा सकती है। वरिष्ठ उपन्यासकार रवीन्द्र वर्मा का घास का पुल नामक उपन्यास तथा रजनी गुप्त का कितने कटघरे भी अच्छे उपन्यास हैं जिनसे हिन्दी औपन्यासिक जगत का विस्तार होता है। कुछ अन्य उल्लेखनीय उपन्यासों में अलका सरावगी का जानकीदास तेजपाल मेंशन, विवेक मिश्र का डॉमनिक की वापसी, मलय जैन का ढाक के तीन पात और सत्यनरायण पटेल का गाँव भीतर गाँव शामिल हैं। इन उपन्यासों में बदले समय में समाज के यथार्थ और उसकी विडंबनाओं के बीच फँसे मनुष्य की वेदना का अंकन देखा जा सकता है। सीमाएँ सब की हैं, अपेक्षा और उम्मीद के निकष पर जरूरी नहीं कि सभी उपन्यास सब को अच्छे लगें; पर यह मानने में कोई हर्ज़ नहीं है कि हाल के वर्षों में हिन्दी के उपन्यासकारों की दृष्टि और समझ में तीक्ष्णता और परिपक्वता आई है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि हिन्दी का उपन्यास लेखन प्रगति की राह पर और संतोषजनक है, पर कालजयी रचनात्मकता की ज़मीन पाना अभी दूर है।कहानी
कहानियों की बात करें तो सामने अनेक नाम और संग्रह दिखते हैं, पर जिनसे मैं गुजर सका और प्रभावित हुआ उनमें वन्दना राग की हिज़रत से पहले और खयालनामा महत्वपूर्ण हैं। यह संग्रह भाषा और संवेदनात्मकता के कारण वंदना की ख्याति को द्विगुणित करते हैं। जयश्री राय ने अपने कहानी संग्रह कायांतर में स्त्री-संसार की यातना, संघर्ष और उसकी विडंबनाओं को जिस कुशलता और भाव-प्रवणता के साथ अंकित किया है, वह निश्चय ही महत्वपूर्ण है। कहानियों में स्त्री-जीवन के संघर्ष और विडंबनाओं को जिस संजीदगी से अंकित किया गया है, वह सराहनीय है। इसी वर्ष आया गीताश्री का स्वप्न, साजिश और स्त्री अभिव्यक्ति पर अपनी कुशलता तथा आख्यानात्मक कथारस के कारण प्रभावित करता है। पार उतरना धीरे से विवेक मिश्र का कहानी संग्रह है। इसमें परिवार, संबंध और समाज के विविध अनुभवों से निर्मित कहानियाँ हैं जिसमें व्यक्ति का भीतरी और बाहरी संसार एक साथ खुलता है और पाठक के मन पर अंकित हो जाता है। कला वीथिका कथाकार और वास्तुकार नरेन्द्र नागदेव का संकलन है जो कला और वास्तुकला पर आधारित है। कला कहानियों का विषय है तो उनका पाथेय भी। इस लिहाज से यह अन्यतम संकलन है। गालिब की माँ राधेश्याम तिवारी का कहानी संग्रह है जिसमें ग्राम्य जीवन से लेकर महानगरीय विडंबनाओं और पत्रकारिता जगत की स्थितियों का सजीव अंकन है। इंदिरा दांगी ने कम समय में सब का ध्यान अपनी तरफ खींचा है। विषय, भाषा, शिल्प के साथ जिस संवेदनात्मक सघनता के साथ इंदिरा अपने चरित्रों को जीती हैं, वह सराहनीय है। इसी वजह से उनका संग्रह शुक्रिया इमरान साहब बहुत प्रभावित करता है। एक दिन मराकेश प्रत्यक्षा का संग्रह है। यह हिन्दी की समकालीन कहानी में इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें अमूर्तता के भीतर जीवन की छवियाँ झाँकती हैं और कहानियाँ प्रतीकों के माध्यम से रोमांचित करने वाला प्रभाव छोड़ती हैं। मुकुटधारी चूहा राकेश तिवारी का संग्रह है जिसमें रुपकों, प्रतीकों और फंतासी के समन्वित प्रयोग से समकालीन जीवन की विडंबनाओं को उजागर करनेवाली कहानियाँ हैं तो दलदल सुशांत सुप्रिय का संग्रह है जिसमें किस्सागोई में चरित्रों को विन्यस्त कर अपने समय के विरुपित यथार्थ को अंकित करने का प्रयत्न है। सदी का शोकगीत सोमा बंद्योपाध्याय का संग्रह है जिसमें फरेब, झूठ और स्वार्थों से भरे समाज को प्रेम तथा संघर्ष के मूल्यों के साथ अंकित करतीं सोमा बांग्ला समाज को जिस ढंग से प्रस्तुत करती हैं, वह हिन्दी के लिए एक उपहार की तरह है। अन्य उल्लेखनीय कहानी संग्रह जो प्रकाश में आये और अपनी रचनात्मकता से प्रभावित कर सके, उनमें – दूधनाथ सिंह का जलमुर्गियों का शिकार, स्वयंप्रकाश का छोटू उस्ताद, संजय कुंदन का श्यामलाल का अकेलापन, हृषिकेश सुलभ का हलंत, प्रियदर्शन का बारिश धुआँ और दोस्त तथा अवधेश प्रीत का चाँद के पार चाभी शामिल हैं। यह संग्रह कहानी को नये शिल्प में बरतने के साथ-साथ रोजमर्रा के जीवन को उसके अँधेरों में देखते हैं और उससे एक नया यथार्थबोध निर्मित करते हैं। इस तरह हिन्दी कहानी का परिदृश्य नयेपन के साथ नई दिशा की खोज में मुब्तिला है, जो संतोष की बात है।कविता
कविता की तरफ रूख करें तो सबसे पहले दीर्घयामा पर नज़र जाती है। दीर्घयामा वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी की लम्बी कविताओं का चयन है जो कविता में आनुभूतिकता और मार्मिकता का विरल उदाहरण है। इसमें दुःख, शोक, प्रेम और जीवन की अनगिनत आवाजों के बीच व्यक्ति अपनी व्यक्तिता के साथ अडिग खड़ा है और जी लेना चाहता है। वरिष्ठ कवि रामदरश मिश्र का कविता संग्रह मैं तो यहाँ हूँ भी अपने मिजाज में उल्लेख्य संग्रह है जिसमें श्री मिश्र का गहरा जीवनानुभव कविता में ढलकर नये आस्वाद को जन्म देता है। हमारे समय में वरिष्ठ कवि अनंत मिश्र का कविता संग्रह है जिसमें काव्य-मर्म को जीवन मर्म में विन्यस्त करने का महत्वपूर्ण प्रयत्न है। इसमें कविता को नैतिक कर्म की तरह बरता गया है जो युवा कवियों के लिए प्रेरक है। इस वर्ष के अन्य उल्लेखनीय कविता संग्रहों में वरिष्ठ कवि कुँवर नारायण का कुमारजीव अपनी चिन्तनशीलता और विमर्शात्मक संरचना के कारण प्रभावित करता है तो नंद चतुर्वेदी का आशा बलवती है राजन, राजेश जोशी का जिद, चन्द्रकांत देवताले का खुद पर निगरानी का वक्त, राजकुमार कुंभज का उजाला नहीं है उतना, नंद किशोर आचार्य का आकाश भटका हुआ, अनामिका का टोकरी में दिगंत, दिविक रमेश का माँ गाँव में है, बाबुशा कोहली का प्रेम गिलहरी दिल अखरोट, शैलेय का जो मेरी जाति में शामिल है, गोविन्द प्रसाद का वर्तमान की धूल, सदानंद शाही का सुख एक बासी चीज़ है, शिरीष कुमार मौर्य का खाँटी कठिन कठोर अति, उमाशंकर चौधरी का चूँकि सवाल कभी खत्म नहीं होते, शैलजा पाठक का एक देह हूँ फिर देहरी, दिव्याभा का वापसी में, रजतरानी मीनू का पिता भी तो होते हैं माँ तथा हेमलता महेश्वर का नील, नीले रंग के जैसे संग्रह भी समकालीन हिन्दी कविता को अनेक स्तरों पर समृद्ध करते हैं।कुछ भी नहीं अंतिम सुधीर सक्सेना का नवीनतम संग्रह है जिसमें अपने समय के यथार्थ पर जिरह करती कविताएँ हैं जिसमें व्यक्ति की निजता और समाज की सार्वजनिकता दोनों की जगह है। धूसर में विलासपुर सुधीर सक्सेना की लिखी लम्बी कविता है। इसमें विलासपुर का समूचा जीवन प्रत्यक्ष हो गया है। लीलाधर मंडलोई की चुनी हुई कविताओं का संकलन भी चर्चा में रहा जिसमें व्यंग्य-विनोद के साथ समकालीन जीवन की सच्चाइयों से टकराने का साहसिक उद्यम दिखता है तो भाषा में नये प्रयोग की हिकमत भी। मिथिलेश श्रीवास्तव का संग्रह पुतले पर गुस्सा अपनी सर्जनात्मक और प्राविधिक कुशलता में उल्लेखनीय है। इसमें तल्ख जीवन की आपाधापी के बीच छीजती मनुष्यता की वेदना का स्वर है तो सर्वथा नये काव्य-मुहावरे का सधा प्रयोग भी। युवा कवि पंकज चतुर्वेदी के संग्रह रक्तचाप और अन्य कविताएँ में नये मिज़ाज़ की कविताएँ हैं जो उनके पिछले संग्रहों से भिन्न हैं। इनमें प्रेम है, तनाव है, अपने समय का छल और प्रवंचना है तो उसके पार जाने का मानवीय प्रतिरोध भी है। यह संग्रह एक साथ करुणा और आक्रोश को समन्वित कर कविता को संवादधर्मी बनाता है। कुल्हड़ में वोदका युवा कवयित्री रंजना त्रिपाठी का पहला संग्रह है जो प्रेम पर बुनी गई कविताओं का संकलन है। वह प्रेम जो निश्च्छल और पारदर्शी है और जिसकी आभा जीवन की प्रेरणा बनती है। उजली मुस्कुराहटों के बीच युवा कवि विमलेश त्रिपाठी का संग्रह है जो प्रेम पर आधारित है। इसमें भौतिकता से आक्रान्त समय में प्रेम की पुकार सुनी जा सकती है। अपना ही देश मदन कश्यप का संग्रह है जो अपने समय के यथार्थ को विमर्श में लाकर समकालीन जीवन की विडंबनाओं को उजागर करती कविताओं का संकलन है। हिन्दी में पहले संग्रह माँ होती हूँ जब से पदार्पण करनेवाली मेघना शर्मा की कविताओं में गहरी व्यंजना है और एक माँ, पत्नी तथा स्त्री के विकट संघर्ष की करुण कथा भी। इन कविताओं की व्यंजना, संवेदनात्मक सघनता और मर्मभेदी दृष्टि मेघना शर्मा को समर्थ कवयित्री बनाती हैं। प्रलय में लय जितना युवा कवि अशोक कुमार पांडेय का काव्य संकलन है जिसमें कवि ने विपरीत स्थितियों में मनुष्य जीवन के संघर्ष, संताप और नाउम्मीद स्वप्नों को स्वर दिया है और कविता को करुण क्रंदन की जगह प्रतिरोधजन्य मर्म बनाया है। इस घर में रहना एक कला है मोहन कुमार डहेरिया का संकलन है। इसमें विगत के संताप और आगत की उम्मीदों से बुनी गई कविताएँ हैं। भय और चिन्ता से आक्रान्त समय में जी सकने की लाचारी में भी तने रहने की ज़िद इसकी खासियत है। कुल मिलाकर कविता की बेपनाह आँधी में संतोष करने के लिए बहुत-कुछ है जिसमें बेहतर लिखनेवाले अब भी शेष हैं।
संस्मरण | आत्मकथा | डायरी | अनुवाद
अन्य विधाओं में उल्लेखनीय है - अलविदा अन्ना, जो सूर्यबाला का संस्मरण है। इसमें वैश्विक यात्राओं के बहाने अनेक मानवीय पक्षों पर भावभीनी याद को संस्मरणों की शक्ल में प्रस्तुत किया गया है। आत्मकथा के क्षेत्र में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की अस्ति और भवति तथा निर्मला जैन की जमाने में हम हैं शीर्षक कृतियाँ भी लेखकों के जीवन के साथ व्यापक सामाजिक प्रश्नों पर विचार करती हैं। इसी बीच प्रकाशित रमणिका गुप्ता की आत्मकथा ‘आपहुदरी’ की विशेष चर्चा रही है जिसमें उन्होंने अपने जीवन संघर्ष को एक रोचक आख्यान की तरह प्रस्तुत किया है। इस वर्ष दो उल्लेखनीय डायरियाँ प्रकाश में आईं, वे हैं-लीलाधर मंडलोई की दिनन-दिनन के फेर तथा कश्मीरी लेखक निदा नवाज की सिसकियाँ लेता स्वर्ग। इन दोनों डायरियों में काव्यात्मकता के साथ गहन मार्मिकता के दर्शन होते हैं जिसमें लेखकों के आत्म की पारदर्शी आभा दिखाई देती है।इस वर्ष की अन्य पुस्तकों में रामकीर्ति शुक्ल द्वारा अनूदित दो पुस्तकों की चर्चा जरूरी है जिनमें पहली है - एडवर्ड सईद के निबंधों के संकलन का अनुवाद - वर्चस्व, प्रतिरोध तथा इतिहास और एरिक जे. हॉब्सबाम के निबंधों का चयन - राजनीति और संस्कृति। नरेन्द्र दाभोलकर की पुस्तक का उल्लेख भी आवश्यक है जो हिन्दी में प्रकाशित होकर आई, शीर्षक है - ।
आलोचना
आलोचना का पक्ष पूर्व की भाँति ही दयनीय दशा में है जिसमें कुछ पुस्तकें ही ध्यान खींच पाती हैं। इस क्रम में मैनेजर पाण्डेय की पुस्तक साहित्य और दलित दृष्टि तथा नित्यानंद तिवारी की मध्यकालीन साहित्य पुनरावलोकन पुस्तकें उल्लेखनीय हैं जो क्रमशः दलित साहित्य की विवेचना-दृष्टि के आकलन के साथ मध्यकालीन साहित्य की व्याख्या और आख्यान के विविध स्तरों को समझने का सफल यत्न हैं। धनंजय वर्मा की पुस्तक आधुनिक कवि विमर्श भी उल्लेखनीय है जो कविता में आधुनिकता, समकालीनता और परम्परा पर विचार करके कविता के परिदृश्य की मीमांसा करती है। इन वरिष्ठ आलोचकों के अलावा नये और संभावनशील समीक्षकों ने भी कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकें इस वर्ष दी हैं जिनमें रामेश्वर राय की कविता का परिसर: एक अन्तर्यात्रा, रामनारायण पटेल की छायावाद और मुकुटधर पाण्डेय, कृष्णदत्त शर्मा की आलोचना और सृजनशीलता, बली सिंह की उत्तर आधुनिकता और समकालीन हिन्दी आलोचना, मृत्युंजय की हिन्दी आलोचना में कैनन निर्माण की प्रक्रिया, पंकज चतुर्वेदी की जीने का उदात्त आशय, पी.एन. सिंह की नामवर सिंह: संदर्भ और विमर्श, रोहिणी अग्रवाल की हिन्दी उपन्यास का स्त्री पाठ, आनन्द कुमार सिंह की सन्नाटे का छंद, श्रीभगवान सिंह की तुलसी और गाँधी, राजकुमार की हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति और भारतीय आधुनिकता, मीरा पर माधव हाड़ा की पंचरंग चोला पहर सखी री, अशोक त्रिपाठी की केदारनाथ अग्रवाल: लड़े द्वंद्व से कविता बन कर, बजरंग बिहारी तिवारी की दलित साहित्य पर विचार करतीं जाति और जनतंत्र, दलित साहित्य: एक अन्तर्यात्रा तथा भारतीय दलित साहित्य: आन्दोलन और चिन्तन तथा लीलाधर जगूड़ी की रचना प्रक्रिया से जूझते हुए उल्लेखनीय पुस्तकें हैं। यह पुस्तकें आलोचना को व्यावहारिक दृष्टि से बरतने और उनसे एक प्रभावी वैचारिक धरातल बनाने की ओर अग्रसर दिखती हैं।रवीन्द्र मनीषा नामक आलोचना पुस्तक इस वर्ष के महत्वपूर्ण प्रकाशनों में गिनी जानी चाहिये जिसमें रणजीत साहा ने बड़े मनोयोग से कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर के समस्त कृतित्व को आँकने का साहसिक प्रयत्न किया है तो समय के बीज में विनोद शाही ने औपन्यासिक विमर्श प्रस्तुत किया है। इसमें वे सांस्कृतिक और सामाजिक अधिरचना के प्रश्नों पर विचार करते हुए ‘गोदान’ से लेकर ‘कंदील’ तक का विश्लेषण करते हैं। शब्द परस्पर निरंजन देव शर्मा की कृति है जो कृष्णा सोबती के रचनात्मक अवदान पर केन्द्रित है। यह पुस्तक बहुत मनोयोग से उनके कृतित्व के अनुछुए पक्षों पर प्रकाश डालती है और आलोचना की एक समझ बनाती है। यात्रा चिन्तन: निर्मल वर्मा दिलीप कुमार गुप्त की पुस्तक है। इसमें लेखक ने निर्मल वर्मा के यात्रावृत्तों के चिंतनपरक आशयों को समझने-समझाने का अन्यतम प्रयत्न किया है। जगह पीयूष दईया द्वारा संपादित पुस्तक है जो अशोक वाजपेयी के कृतित्व पर केन्द्रित है। यह पुस्तक लगभग साठ लेखों का संकलन है जिसमें उनकी रचनाओं को नए सिरे से देखने का उद्यम है। इस कड़ी में अल्पना सिंह और आलोक कुमार सिंह द्वारा संपादित पुस्तक स्त्रीमुक्ति के प्रश्न और समकालीन विमर्श भी अच्छी कोशिश है जिसमें स्त्री-विमर्श को रचनाओं के माध्यम से देखने की सुन्दर पहल है। मदन वात्स्यायन: शब्द और संवाद रश्मि रेखा की संपादित पुस्तक है जो कवि मदन वात्स्यायन के कविकर्म पर विचार करती है। इस बीच अन्य संपादित कृतियों में लीलाधर मंडलोई द्वारा संपादित केदारनाथ सिंह संचयन, राजेश जोशी द्वारा संपादित मुक्तिबोध संचयन तथा समीर पाठक द्वारा संपादित बालकृष्ण भट्ट समग्र उल्लेखनीय हैं। इसी वर्ष देवशंकर नवीन के संपादन में राजकमल चौधरी रचनावली का प्रकाशन भी हुआ जो एक बड़े रचनाकार की सामग्री की उपलब्धता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
सुधीर विद्यार्थी की दो पुस्तकें - फतेहगढ़ डायरी और बरेली: एक कोलाज भी प्रकाशन के साथ चर्चा में रहीं जिनका साहित्यिक महत्व चाहे अधिक न हो, ऐतिहासिक महत्व बहुत है। इस क्रम में एक अन्य पुस्तक की चर्चा विशेष रूप से आवश्यक है और वह है मृणाल पाण्डेय की पुस्तक - ध्वनियों के आलोक में स्त्री। यह पुस्तक संगीत के साथ स्त्रियों के स्वाभाविक और नैसर्गिक संबंधों की खोज करती है। इस दृष्टि से यह बेहतर प्रयत्न है। प्रसिद्ध कलाविद रमेश कुंतल मेघ ने इसी वर्ष बहुत मनोयोग से विश्वमिथकसरित्सागर प्रकाशित किया है जो बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक है। रंग आलोचना के समर्थ आलोचक जयदेव तनेजा की पुस्तक रंग साक्षी इस वर्ष के उत्तरार्द्ध में प्रकाशित होकर भी पर्याप्त चर्चा में रही। इसमें तनेजा ने लगभग एक हजार नाट्य प्रस्तुतियों की समीक्षाएँ दी हैं और नाट्य समारोहों का परीक्षण किया है। लगभग चालीस वर्षों के हिन्दी और भारतीय नाट्य-प्रदर्शनों को एक साथ देखना और उनसे गुजरना रोमांचक अनुभव की तरह है। यह पुस्तक निसंदेह हिन्दी सहित भारतीय नाट्यालोचन को समृद्ध करती है। बावजूद इसके, संगीत, नृत्य तथा रूपंकर कला की आलोचना की दिशा में कोई उल्लेखनीय आलोचना पुस्तक का न आना निराश करता है; क्योंकि रचनाओं के समानांतर जिस संवादधर्मी विमर्श और सांस्कृतिक पाठ की दरकार आलोचना से है, वह पूरी होती नहीं दिखती। इतनी बड़ी भाषा में बौद्धिक विमर्श और सार्वजनिक जीवन की चुनौतियों के बरक्स सभ्यतामूलक विचार का न आना चिंतित करता है।
ज्योतिष जोशी
डी-4/37,
सेक्टर 15, रोहिणी,
दिल्ली-110089
ईमेल: jyotishjoshi@gmail.com
डी-4/37,
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दिल्ली-110089
ईमेल: jyotishjoshi@gmail.com
अंत में उपन्यास, कहानी, कविता सहित आलोचना की कुछ पुस्तकों की गवाही पर सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि हिन्दी का समकालीन लेखन अपने समय की चिन्ताओं की परवाह करता है तथा हिन्दी भाषा और समाज के प्रति जिम्मेदार है; हालाँकि इतनी बड़ी भाषा में रचना और विचार के स्तर पर जितनी गंभीरता दिखनी चाहिये, उतनी नहीं दिखती। लेखन जीवन के अनुभव और संघर्ष का हिस्सा कम, अध्ययन और अध्यवसाय और भी कम तथा शौक अधिक हो गया है जो चिन्ता का विषय है। हिन्दी के समकालीन लेखन में बहुत सारा लेखन औसत भी है और निरर्थक भी। सूचना तकनीक के विस्तार ने असंख्य लोगों को लेखक होने के भ्रम में डाल रखा है जिसे प्रकाशक भी हवा दे रहे हैं। पर गंभीर रचनाकर्म अब भी जिन्दा है और समय के अनुरूप नई प्रविधि के साथ आ रहा है; यही संतोष का विषय है।
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