नामवर विफलताएँ - 1 — अशोक वाजपेयी #NamvarVajpeyi


Prof Namvar Singh's 90th Birthday Exclusive

Ashok Vajpeyi's critical analyses of  Prof Namvar Singh's work

Part 1 of 3
On Namvar Singh's 90th birthday, Ashok Vajpeyi critically analyse his work. Part 1 of 3

इस मुक़ाम पर उनकी विफलताओं पर ध्यान देना एक तरह से हिन्दी-आलोचना की कमियों का लेखा-जोखा लेना भी है

— अशोक वाजपेयी 


यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि नामवर सिंह हिन्दी-साहित्य के इतिहास में सबसे दीर्घजीवी आलोचक हैं। उन्होंने हिन्दी-आलोचना को उसके किताबीपन और अकादैमिक उलझावों से मुक्त कर संप्रेषणीय बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। बहुत कुछ उनके कारण आलोचना हिन्दी में हाशिये का मामला न रहकर केन्द्र में आई। उसने रचना को प्रभावित करना भी शुरू किया, भले वह रचना से स्वयं भी लगातार प्रतिकृत होती रही है। नामवर जी उन आलोचकों में से हैं जिन्होंने समकालीन और समवर्ती रचनशीलता पर विचार और उसके विश्लेषण को आलोचना का लक्ष्य बनाकर उसे ऐसी आलोचना दी जो पहले, कुल मिलाकर, नहीं थी। हिन्दी में, कम से कम पिछले दो-तीन दशकों से, जो भी विचार होता है आलोचना में ही तो होता है और वह उसकी एकमात्र प्रामाणिक विधा है : इसमें भी नामवर जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आलोचना अंततः वाद-विवाद, संवाद का क्षेत्र है और इस क्षेत्र में नामवर जी अर्से से बड़े सक्रिय हिस्सेदार रहे हैं, भले उनके नियामक होने का भ्रम उनके कुछ अनुयायियों और शायद स्वयं उन्हें होता रहा है। वे अधीत विद्वान हैं और उनकी ज्ञान के कई अनुशासनों में गहरी रुचि रही है : इस विद्वता का कोई बोझ उनकी आलोचना पर उन्होंने कभी नहीं डाला। हमारे समय और समाज में साहित्य की समझ बढ़ाने और उसके सामाजिक आशयों को देख पाने में नामवर जी ने निश्चय ही योगदान दिया है।

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उनका सारा साहित्यिक आकलन विचार पर केंद्रित रहा है 

उपलब्धि, भूमिका और प्रभाव के इस संदर्भ में, इस मुक़ाम पर उनकी विफलताओं पर ध्यान देना एक तरह से हिन्दी-आलोचना की कमियों का लेखा-जोखा लेना भी है। याद आता है कि अमरीकी कवि रॉबर्ट फ़्रोंस्ट के अस्सी वर्ष पूरे होने पर एक डिनर आयोजित हुआ था जिसमें शामिल सैकड़ों लोगों ने उसके लिए राशि खर्च की थी। उस समय प्रख्यात अमरीकी आलोचक लॉयनेल ट्रिलिंग ने एक व्याख्यान दिया था जिसमे फ़्रोंस्ट की कविताओं को पूरी तरह ध्वस्त किया गया था। उनकी स्थापनाओं से सहमति-असहमति को लेकर लंबी बहस चली। पर किसी ने भी इस पर आपत्ति नहीं की कि ‘ट्रिलिंग-ध्वंस’ फ़्रोंस्ट की अस्सी वीं वर्षगाँठ के अवसर पर किया गया। मैं इस पूर्वोदाहरण से प्रेरणा लेकर कुछ कहने की धृष्टता कर रहा हूँ। नामवर जी का मुझपर दशकों से स्नेह रहा है और मैं आश्वस्त हूँ कि वे इसका बुरा नहीं मानेंगे।

समाज को बदलने के अपने तरीक़े को ही एकमात्र वैध तरीक़ा मानने वाला आलोचक लोकतान्त्रिक नहीं कहा जा सकता

नामवर सिंह अपने साहित्य से अनुराग के लिए विख्यात रहे हैं : उनके पाठक और छात्र सभी इसकी ताईद करेंगे कि उनमें गहरी रसज्ञता है। वे लगातार साहित्य पढ़ते-गुनते हैं। यह इतना अप्रत्याशित भी नहीं है : आखिर आलोचना अनुराग से ही उपजती है। जो अप्रत्याशित है वह, नामवर जी के मामले में, यह है कि उनकी रुचि और दृष्टि में फाँक है – थोड़ी बहुत तो सबके यहाँ होनी स्वाभाविक है। पर उनके यहाँ यह फाँक उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता के चलते बराबर चौड़ी होती रहती है। इस फाँक का उन्होने कभी एहतराम किया हो ऐसा याद नहीं आता। जो बात ग़ौर करने की है वह यह है कि वे अपने अनुराग और रुचि की, विचारधारा के लिए, बलि देते रहे हैं और ऐसा करने में उन्हें कोई बौद्धिक संकोच या नैतिक बेचैनी हुई या होती है इसका कोई सार्वजनिक साक्ष्य नहीं है। साहित्य के अपने लंबे-गहरे अध्ययन-अध्यापन से वे जानते हैं कि साहित्य उसके निरे विचार में नहीं घटाया जा सकता : उसमें विचार होता है पर उसके अलावा और अक़्सर उससे अधिक महत्वपूर्ण कई और तत्व होते हैं जो साहित्य को साहित्य बनाते हैं। जब-तब वे इसका अपनी वाचिक अभिव्यक्ति में ज़िक्र भी कर देते हैं। पर उनका सारा साहित्यिक आकलन विचार पर केंद्रित रहा है इसमें कोई सन्देह नहीं। सच्ची-गहरी रुचि विचार से अलग भर नहीं उसके विरुद्ध भी जा सकती है। लेकिन नामवर जी के यहाँ वह कभी नहीं गई। यह गहराई से सोचें तो  साहित्य के सर्जनात्मक उन्मेष का अस्वीकार है। अगर साहित्य विचार और विचारधारा कि जकड़बन्दी तोड़ नहीं या उसका अतिक्रमण नहीं कर सकता तो उसे साहित्य मानने में संकोच होना चाहिए। नामवर जी के यहाँ ऐसा संकोच लगभग ग़ायब है।



नामवर जी का एक दुराग्रह यह रहा है कि साहित्य सामाजिक परिवर्तन का कारक उतना नहीं जितना कि उसका अनुगामी है : उनमें यह आग्रह इतना प्रबल और बद्धमूल है कि उन्होंने कभी इस सम्भावना या सचाई पर विचार ही नहीं किया कि साहित्य में कई परिवर्तन अपने आप या प्रतिभा के दबाव से होते हैं और उनका ज़रूरी तौर पर किन्हीं सामाजिक परिवर्तनों से कोई सम्बन्ध नहीं होता। साहित्य में अनेक सामाजिक प्रक्रियाएँ प्रतिबिम्बित होती हैं पर वह निरा प्रतिबिम्बन तो कभी नहीं होता – ऐसे प्रतिबिम्बन भी उसमें रूपांतरित हो जाते हैं। यह नामवर जी के एक दिलचस्प अंतर्विरोध को भी व्यक्त करता है : एक ओर तो वे लेखक के व्यक्तिगत स्वभाव और प्रतिभा को स्वीकार करते हैं लेकिन, दूसरी ओर, उनका आलोचनात्मक व्यवहार ऐसा है मानो कि साहित्य व्यक्ति नहीं समाज लिखता है। पिछले कई दशकों से उन्होंने भले रूढ़ मार्क्सवादी पदों जैसे वर्गबुद्धि आदि का इस्तेमाल नहीं किया है, उनके बौद्धिक चित्त में वर्गबोध और उसे साहित्य की रचना और आलोचना में लगभग केन्द्रीय मानने का पूर्वाग्रह बहुत गहरे धँसा हुआ है।

नामवर जी ने अपनी आलोचना में जो साहित्य-सामाजिकी विकसित या कि यहाँ-वहाँ से जोड़-तोड़ कर विन्यस्त की उसमें साहित्य की स्वायत्तता के लिए कोई जगह नहीं है। इस स्वायत्तता पर ज़ोर देनेवालों पर उनके प्रहार का मुख्य मुद्दा उन्हें समाज-विरोधी बताना रहा है। यह इसके बावजूद कि जिन लेखकों ने इस स्वायत्तता पर बल दिया है उनमें से, उदाहरण के लिए, अज्ञेय और निर्मल वर्मा ने कभी कहीं ऐसी समाज-निरपेक्ष स्वायत्तता की हिमायत या वकालत नहीं की। किसी भी समय विचार और व्यवहार के लोकतन्त्र में समाज के बारे में कई अवधारणाएँ हो सकती हैं – होती ही हैं। आप किसी अवधारणा से असहमत हो सकते हैं पर उसे इसलिए समाज-विरोधी कहना-मानना कि वह आपकी अवधारणा से इत्तफ़ाक़ नहीं रखता, न तो तर्क-तथ्यसंगत है, न ही बौद्धिक ईमानदारी। समाज को बदलने के अपने तरीक़े को ही एकमात्र वैध तरीक़ा मानने वाला आलोचक लोकतान्त्रिक नहीं कहा जा सकता।

इस सामाजिकी का हिन्दी-आलोचना पर गहरा असर पड़ा है। उसमें इन दिनों शिल्प और भाषा को विचार में लेने की जगह बहुत कम है। स्वयं नामवर जी ने, अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के बावजूद, इस सचाई की अधिकतर अवहेलना ही की है कि साहित्य भाषिक-संरचना है : उसमें भाषा शिल्पित होकर ही सार्थकता पाती है। साहित्य का सच बिना भाषा में सच हुए संभव ही नहीं है। फिर भाषा भले सामाजिक-सम्पदा और उत्तराधिकृत होती है, उसे शिल्पित तो लेखकीय प्रतिभा और कौशल ही करते हैं। पर नामवर जी की सामाजिकी में चूँकि उनके लिए जगह नहीं या बहुत कम है, उन्हें कलावादी आग्रह या सरोकार करार दिया गया है। अगर आज की ज़्यादातर हिन्दी-आलोचना में भाषा-विचार और शिल्प-विचार बहुत कम और दृष्टि और विचार से आक्रान्ति है तो इसे वैधता देने का काम इसी सामाजिकी ने किया है।
क्रमशः
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टंकण (साभार): अशोक कुमार व्यास

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