ज़मीन की पगडंडियों पर चलते चलते इंसान जब लहूलुहान होता है, तब आयतें लिखीं जाती हैं। दर्द जब कतरा कतरा रिसने लगता है तो कलम से शब्द नहीं आयतें दर्ज हुई जाती हैं। उनके आगे कोई लफ्ज़ नहीं होता बयाँ करने के लिए, सिर्फ़ आँख के आंसू होते हैं।

सारा शगुफ्ता का कांटेदार पैरहन : अमृता प्रीतम की जुबानी
— देवी नागरानी
सलीबों पर टंगे हुए हैं लफ्ज़
दर्द की जुबां पर लरज़ रहे हैं लफ्ज़...!
आंसुओं का ज़ायका लफ्ज़ दर लफ्ज़ हर दिल अज़ीज़ को ज़रूर कभी न कभी, कहीं न कहीं हुआ होगा उन्हें, जिन्हें आज भी अपनी औलाद के लिए कफ़न की तलाश है!
जिंदगी के आगामी दिनों में अमृता प्रीतम का नावेल ‘बंद दरवाज़ा’ पढ़ा, जिसने मेरे भीतर इतने दरवाजे खोल दिए कि मैं आज तक वापसी के दरवाज़े तक नहीं पहुँच पाई हूँ।
आज जब सारा शगुफ्ता की ‘आँखें’ मेरी आंखों के सामने से गुज़री, तो जाना कि एक माँ को मिट्टी के खिलौने से कैसे रिझाया जाता है। ऐसे जैसे वह मोहन-जदड़ो का एक हिस्सा है और वह बच्चा उसके वजूद का एक कलात्मक हिस्सा हो। इसीलिए जब सारा शगुफ्ता के आत्मकथ्य का एक हिस्सा पढ़ा और साथ में बेबाकी भरी तेजाबी तेवरों वाली उनकी शायरी पढ़ी तो मुझे वह किसी नर्तकी के सौंदर्यमय इंद्रजाल के फैलाव में, एक तपस्विनी की प्रतिज्ञा समान लगी। इस्टोपा से नीचे उतरते ही मोहन-जोदड़ो के खंडहरों की वीरान गलियों में जिस तरह बेखुदी में नाचती झूमती नर्तकी ‘संबारा’ के बारे में सुना-पढ़ा, कुछ ऐसे ही सारा शगुफ्ता के जीवन और जीवनी को करीब से देखने, जानने और महसूस करने वाली महबूब लेखिका अमृता प्रीतम ने सारा शगुफ्ता के शब्दों को दोहराते हुए लिखा है –
“ऐ खुदा, मैं बहुत कड़वी हूँ, पर तेरी शराब हूँ !’ और मैं उसकी नज़रों और उसके खत को पढ़ते पढ़ते खुदा के शराब की बूद-बूँद दूध पी रही हूँ।”
अमृता प्रीतम ने अपने दिल के दर्द की परिभाषा में लिखा है:
तेरे इश्क की एक बूंद
इसमें मिल गई थी
इसलिए मैंने उम्र की
सारी कड़वाहट पीली..!
ऐसे बेलौस शब्दों में अपने जज़्बों को शब्दों में दर्ज करना एक प्रबुध अनुभूति है, जिसके अस्तित्व के लिए सुध का होना काफी नहीं। ऐसी कायनाती पंक्तियों की तखलीक करने के लिए ऐसी रोशनी की दरकार है, जो रोशनी जिगर के खून का कतरा कतरा जलने पर हासिल होती है। और एक कलाकार-कलमकार उस रोशनी की छांव में बदबूदार रवायतें, रिवाजों और रस्मों से खिलाफत करने पर उतारू हो जाता है। पर अमरता प्रदान करती पीड़ा, तन मन से और ऊपर उठकर एक अनकहे शब्दों की गाथा को दीवानगी की हद तक दर्ज करती-कराती हुई सारा की रूदाद से वाकिफ करा रही है —
आतिश दानों से
अपने दहकते हुए सीने निकालो
वर्ना आखिर दिन
आग और लकड़ी को अशरफ़-उल-मख्लूक़
बना दिया जायेगा...!
ज़मीन की पगडंडियों पर चलते चलते इंसान जब लहूलुहान होता है, तब आयतें लिखीं जाती हैं। दर्द जब कतरा कतरा रिसने लगता है तो कलम से शब्द नहीं आयतें दर्ज हुई जाती हैं। उनके आगे कोई लफ्ज़ नहीं होता बयाँ करने के लिए, सिर्फ़ आँख के आंसू होते हैं। सीलन भरे माहौल की घुटन भी इन शब्दों में क़ैद नहीं हो पाई हैं जब सारा शगुफ्ता कि कलम लिखती है —
आँगन में धूप न आए तो समझो
तुम किसी ग़ैर—इलाक़े में रहते हो
मिटटी में मेरे बदन की टूट फूट पड़ी है
हमारे ख़्वाबों में चाप कौन छोड़ जाता है
और आगे....
हमें मरने की मोहलत नहीं दी जाती
क्या ख्वाइश की मियान में
हमारे हौसले रखे हुए होते हैं..!
सच के सामने आइना रखते हुए अमृता प्रीतम की शब्दावली उसी दर्द भरी आह को बेज़ुबानी की भाषा में कहती है—
बदन का मांस
जब गीली मिट्टी की तरह होता
तो सारे लफ्ज़—
मेरे सूखे हुए होठों से झरते
और मिट्टी में
बीजों की तरह गिरते…!
और यही आयतों की सिलसिलेवार अभिव्यक्ति है जहाँ ‘सारा’ अस्पताल का बिल भरने के लिए अपने मुर्दा बच्चे को अमानत के तौर नर्स के पास छोड़ गई। ऐसी ही अंगारों की आंच पर लेटी ‘सारा’ खुद एक मां और उस जैसी और भी कितनी मजबूर माएं जो दर्द की हांडी में पकने वाली पीड़ा को सीने में दाबे, जीती हैं, मरती हैं, उनके भीतर की सनसनाहट को एक व्यक्तिगत रूदाद के पहलू की तरह ज़ाहिर करते ‘सारा’ ने दर्ज किया है—
मौत की तलाश मत लो
इंसान से पहले मौत जिंदा थी
टूटने वाले जमीन पर रह गए
मैं पेड़ से गिरा साया हूँ
आवाज़ से पहले घुट नहीं सकती
मेरी आंखों में कोई दिल मर गया है!
और शायद औरत, औरत के दिल के तहलके से वाकिफ होते हुए अपने जीवन के अनुभवों के अधर पर लिखा हुआ सच आमने ले आती हैं —
मिट्टी के इस चूल्हे में
इश्क की आंच बोल उठेगी
मेरे जिस्म की हंडिया में
दिल का पानी खौल उठेगा — अमृता प्रीतम
सोचने वाली बात है, वह कौन सी दीवानगी के तहत ऐसे पागलपन की परिधि में सोच का यह संकल्प शब्दों में समा गया। जिसके लिए अमृता प्रीतम ‘सारा’ के दर्द का ज़हर पीते हुए कह उठती है: “यह जमीन वह जमीन नहीं है जहां वह (सारा) अपना एक घर तामीर कर लेती, और इसीलिए उसने घर की जगह एक कब्र तामीर कर ली। लेकिन कहना चाहती हूँ कि सारा कब्र बन सकती है, कब्र की खामोशी नहीं बन सकती! दिल वाले लोग जब भी उसकी कब्र के पास जाएंगे, उनके कानों में सारा की आवाज सुनाई देगी”
आज एक सोच ने मुझे जकड लिया है। क्या इंतिहा-ए-दर्द सिर्फ़ औरत के दिल को टटोलता है, चोट पहुंचता है, छलनी करते हुए उसके प्यार भरे दिल को चूर-चूर कर देता है? ला-इलाज इस मर्ज़ को बयाँ करते करते शब्द खुद ज़ख्म का मरहम बनने में नाकाम रहे हैं...
तेरे इश्क के हाथ से छूट गई
और जिंदगी की हंडिया टूट गई
इतिहास का मेहमान
चौके से भूखा उठ गया …! अमृता प्रीतम
दर्द जब कतरा कतरा रिसने लगता है तो कलम से शब्द नहीं आयतें लिखीं जाती हैं। सारा ने उसी घर में, जहां शायर और नक़ाद आते और फलसफे झाड़ते, वहीँ अद्मियात की बू के बीच रहकर गुज़ारा किया। उसके शब्दों में “वही फलसफे रोज़ पकते और मैं भूख को निगलते हुए झोपड़ी की जमीन पर चटाई पर लेटी दीवारें गिना करती।”
जब किरदार अपनी बेबसी को सामने खड़ा हुआ होता है और खुद से गुफ्तगू करता दिखाई देता है, तो उसे होश कहाँ होता है। सारा के नाम पर कीचड उछालने के नौबत यहाँ तक आई कि उसे बदचलन कहते हुए ‘तलाक’ हासिल करवा दिया गया। लेकिन सारा को बदचलन, बदकिरदार, आवारा ठहराए जाने का ग़म न था, था तो अपनी कोख जाये बच्चों से दूर होने का। कई छिछोरे लांछनों को स्वीकारते हुए सारा ने अपनी लेखनी को दर्ज करते हुए कहा है—
‘मैदान मेरा हौसला है
अंगारा मेरी ख्वाहिश
हम सर पे कफन बांध कर पैदा हुए हैं—
कोई अंगूठी पहनकर नहीं/ जिसे तुम चोरी कर लोगे’
‘सातवा महिना पेट शरीर दर्द शदीद! इल्म का गुरूर सातवें आसमान पर, पति बिना आंख झपके चला गया महफिलों को रंगीन बनाने। मेरी कराहती चीखों की आवाज सुनकर मकान मालकिन मुझे अस्पताल छोड़ आई। सारा की गाथा उसी के लफ़्ज़ों में सुनें—
“मेरे हाथ में दर्द और पांच कड़कड़ाते हुए नोट थे। दर्द के गर्भ से जन्म लिया मेरे बच्चे ने जो तौलिये में लिपटा हुआ मेरे बराबर में लिटाया गया।एक माह के भीतर प्रसव पीड़ा की ज्वाला और भड़की, भड़कती रही और शोला बन कर एक ललकार बनी। उसके पास था मुर्दा बच्चा और पांच रुपये। डॉक्टर ने 295 रुपये का बिल हाथ में धर दिया। तपते बदन की आग गवारा करते हुए घर पहुंची, घर क्या अपनी झोपड़ी में पहुंची। स्तनों से दूध बह रहा था, उसे गिलास में भरकर रख दिया...!
पांच मिनट के लिए बच्चे ने आंखें खोली और फिर क़फन कमाने चला गया…”
शायर पति को खबर दी। दो पल की खामोशी की रस्म अता हुई और फिर वही गुफ्तगू वही फलसफे। “मैं उठी, गिरती पड़ती एक दोस्त के पास पहुंची। 300 उधार लिये और अस्पताल पहुंचकर 295 रुपये का बिल भरा। अब मेरे पास एक मुर्दा बच्चा और 5 रुपये थे। डाक्टरों को यह कहते हुए कि –“आप लोग चंदा इकठ्ठा करके बच्चे को कफ़न दें, और इस की क़ब्र कहीं भी बना दें।”
“बे हताशा बेहोशी की हालत में मैं बस में चढ़ी, टिकट नहीं ली, पर 5 रुपये कंडक्टर के हाथ में थमाए और घर पहुंची। गिलास में दूध रखा हुआ था कफन से भी ज्यादा उजला।
‘मैंने अपने दूध की कसम खाई। शेर मैं लिखूंगी, शायरी मैं करूंगी, मैं शायरा कहलाऊंगी।’ और दूध के बासी होने के पहले मैंने एक नज़्म लिख ली थी। बावजूद इसके शायद मैं कभी अपने बच्चे को कफ़न दे सकूं। जिसकी असली कब्र ही मेरे दिल में बन चुकी हो... उसे मैं क्या दे सकती हूँ?
मेरे जज्बे अपाहिज कर दिए गए हैं
मैं मुकम्मल गुफ्तगू नहीं कर सकती
मैं मुकम्मल उधार हूं
मेरी कब्र के चिरागों से हाथ तापने वालो
ठिठुरे वक़्त पर एक दिन मैं भी कांपी थी!
अपनी नज्म ‘आंखें सांस ले रही हैं’ में एक मुकम्मल बेचैनी का बयान करने वाली ये सतरें हैं पाकिस्तानी शायरा सारा शगुफ्ता की। सारा ने 4 जून 1984 को साढ़े 29 साल की उम्र में खुदकुशी कर ली थी। इससे पहले वह ऐसी चार कोशिशें और कर चुकी थी। आखिर वो कैसी जिंदगी थी जिसकी शिद्दत को बार-बार इस नतीजे तक पहुंचने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह एक नारी के मन की अस्त-व्यस्त जीवन गाथा का अंश है, पर यकीनन एक माँ की रूदादा भी है। यह एक माँ की सूनी कोख की रूदाद नहीं, धरती मां की पुकार है जो अपने सपूतों को आवाज़ दे रही है, एक सुकून परस्त जीवन के लिए।, जो खून पसीने से सींचा गया हो, अमन की आबोहवा से फल-फूला हो। तब कहीं जाकर जीवन एकाकी रूहों के लिए एक ग़ैबी चादर बन जाए। ऐसी अभिव्यक्ति करने वाली शायरा में ऐसी ताकत होती है जिस की उड़ान हद-लाहद की मोहताज नहीं। उसकी तीसरी आंख वक़्त के गर्भ से घूम आती है, जिसकी खुशबू अमृता प्रीतम के शब्दों से एक ऐलान बनकर बिखरती है…!
किस्मत ने है रुई पिंजाई
ज्यों—ज्यों चरखा गूँज सुनायें
कांप रही है सांस जुलाहिन
काँप रही है तकली ।
नदी के उफान के पश्चात बूंद का शांत सागर में समाने का प्रयास इतना भारी है कि गहराइयों के सीने में वह बूँद सीप बने बिना नहीं रह सकती!
जयहिंद
देवी नागरानी
dnangrani@gmail.com
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