कुच्ची का कानून, शिवमूर्ति की इस अविस्मरणीय कहानी का हर पाठक पर अलग और वृहत प्रभाव पड़ेगा... इसके बारे में फ़िलहाल इससे अधिक और कुछ भी नहीं कहूँगा बल्कि आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार करूँगा... कहानी लम्बी है इसलिए इसे एक से अधिक भागों में प्रकाशित किया जा रहा है...
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भरत तिवारी

कुच्ची का कानून
शिवमूर्ति
कुच्ची का कानून
गांव की औरतों ने दांतों तले उंगली दबायी।
अचरज तो इस बात का है कि गांव की उन बूढ़ियों, सयानियों को भी कानोंकान भनक नहीं लगी जो अपने को तीसमार खां समझती हैं। जो मानती हैं कि गांव की किसी बहू बेटी की सात पर्दे में छिपा कर की गयी ‘हरक्कत’ भी उनकी नजरों से बच नहीं सकती। वे अब भी अंदाजा नहीं लगा पा रही हैं कि इस सांड़नी ने किस छैल छबीले को भेंड़ा बनाया और भेंड़ा बनाया तो छिपाया कहां? झटके में हुई ‘राहचलंतू’ कमाई तो यह हो नहीं सकती। चार छः दिन का इत्मीनानी संग साथ चाहिए।
सबसे पहले चतुरा अइया की नजर पड़ी। नयी पीढ़ी की उन कुछ बहू बेटियों को छोड़ कर जिनके घर में पक्के संडास बन गये हैं, गांव की औरतें अब भी दिशा मैदान के लिए सुबह शाम बाबा के पोखरे वाले जंगल में जाती हैं। जिन घरों में संडास बन चुके हैं उन घरों की बूढ़ियां और चिरानी पुरानी हो चुकी बहुएं भी जंगल जाना ज्यादा पसंद करती हैं। उनकी यह आदत मरने के साथ ही जायेगी। पानी बूंदी के मौसम में मजबूरन घर में जाना पड़ा तो नाक, मुंह पर कपड़ा लपेट कर अंदर घुसती हैं।
जंगल जाना सिर्फ जंगल जाना नहीं होता। जो सुख झुंड में ‘बतकूचन’ से मिलता है वह घर में कैद रह जाने से कैसे मिलेगा? एक की बात खतम नहीं होती कि दूसरी की शुरू हो जाती है। घर वापसी हो जाती है और बात खत्म नहीं होती है। तब चलते चलते पूरा झुंड रुक जाता है।
उस दिन वापस लौटते लौटते उजास फैल गयी थी। पुरवा के झोंके से पल भर के लिए कुच्ची का आंचल उड़ा कि चतुरा अइया की नजर उसके पेट पर पड़ी। इतना चिकनाया पेट। पांच महीने का उभार। उनकी आंखों के कोए फैल गये। अभी तक सबकी आंखों में धूल झोंकती रही यह बछेड़ी। लेकिन एकदम मुंहामुंही कहें कैसे? पद में वे कुच्ची की अजिया सास यानी सास की भी सास लगती हैं। ...लेकिन इतनी बड़ी बात पेट में दबा कर रखें भी तो कब तक? अफारा हो जायेगा।
वे सारे दिन बेचौन रहीं। बाई उभर आयी। सांस उखड़ने लगी। किसी तरह रामराम करके दिन काटा। शाम को मिलते ही उसे घेरा— बाय गोला का रोग कहां से ले आयी रे बहुरिया?
अंदर तक हिल गयी कुच्ची। हाथ पैर के रोयें परपरा कर खड़े हो गये। चतुरा अइया जैसी छछंदी दूसरी कौन है गांव में? बहुत कुछ सुन रखा है उसने। पांच छः बच्चों की महतारी होने तक जिधर से निकलती थीं, पानी में आग लगाती चलती थीं। जिसके मर्द से हंस कर बोल लेतीं उसकी ‘जनाना’ को जूड़ी चढ़ जाती थी। कांपती आवाज को काबू में करती हुई वह मिमियायी— बाय गोला का रोग सात दुश्मन को लगे अइया।
— फिर यह कोंछ में क्या छिपा रखा है? अइया ने उसकी नाभि में उंगली धंसाते हुए पूछा— मुझे तो पांच छः महीने का लगता है।
— तुहूं गजब बाटू अइया। जब देने वाला ही चला गया तो ‘बायगोला’ क्या मैं ‘परुआ’ पा जाऊंगी?
बगल चलने वाली पड़ोसन ने टहोका मारा— ‘गोला’ देने वालों की कौन कमी है इस गांव में। जरा सी नजर फंसी नहीं कि ले ‘गोला’।
तब तक कुच्ची संभल चुकी थी। छिपाने से कितने दिन छिपेगा? जवाब तो देना ही पड़ेगा, लेकिन इतनी जल्दी देना पड़ेगा, यह नहीं सोचा था।
— जिसको आना है वह तो अब आकर रहेगा अइया। छिपाने से लौट थोड़े जायेगा।
— न आने के भी हजार रस्ते हैं बहू। तेरे आदमी को मरे दो साल से ज्यादा हो गये होंगे। आने वाला आ गया तो किसका नाम धरेगी?
— किसी का नाम धरना जरूरी है क्या अम्मा? अकेले मेरा नाम काफी नहीं है?
चतुरा अइया कुच्ची के आगे आ खड़ी हुईं। उसकी दोनों बाहों को पकड़ कर झिंझोड़ते हुए फुसफुसायीं — कैसे बोल रही है रे? किसी ने भूत प्रेत तो नहीं कर दिया? तेरे जेठ बनवरिया को खबर लगी तो पीस कर पी जायेगा।
— जेठ से क्या मतलब अइया? मैं उनकी कमाई खाती हूं क्या? उनका चूल्हा अलग, मेरा अलग।
ऐसे करम और ऐसा जवाब। सब सन्न रह गयीं।
तेरही के दूसरे दिन जब सारे मेहमान चले गये तो कुच्ची के बाप ने उसे एक किनारे बुला कर मद्धिम आवाज में समझाया— तुम्हारा दाना पानी अब इस घर से रूठ गया बिटिया। अब यहां की मोह माया छोड़ो। कुछ खा पी लो और चलने की तैयारी करो। यहां की चीजें, गहना गीठी सास को सौंप कर चलना है।
पैर के नाखून से नम फर्श की मिट्टी कुरेदते सिर झुकाये उसने सुना, फिर अंदर जाकर अपनी कोठरी में घुस गयी। खड़े नहीं रहा गया। एक कोने में जमीन पर बैठ गयी।
यहां की चीजें। क्या हैं यहां की चीजें? अभी तक यहां और वहां की चीजों को अलगाने की जरूरत नहीं पड़ी थी। आज पड़ गयी। उसे परम्परा से पता था कि अब यह घर उसका नहीं रह जायेगा। जिस खूंटे से बांधने के लिए उसे लाया गया था, जब वही नहीं रह गया तो...। उसकी आंखें झरने लगीं। ससुराल से मिले गहने— पायल, बिछुआ, झुमका और अंगूठी तो उसने उतार लिया लेकिन नाक की कील उतारते हुए उसके हाथ कांपने लगे। कील के अंदर के पेंच ने घूमने से इंकार कर दिया। कल तक ये चीजें उसकी थीं। आज परायी हो गयीं।
दो चप्पलें थीं। एक गौने में मिली थी, एक अभी दो महीने पहले ‘वे’ लाये थे। क्या दोनों छोड़नी पड़ेगी? नंगे पांव जाना पड़ेगा?
सास कोठरी में घुसीं तो वह कील की पेंच खोलने में ही परेशान थी। उसने सास से मदद ली। सूनी नाक को उंगलियों से छूते हुए उसे अजीब लगा।
सास ने उसे अंकवार में भरते हुए कहा— चाहती तो हूं कि तुम्हें कभी न जाने दूं लेकिन किस अख्तियार से रोकूं? जाओ, तुम्हें इससे अच्छा घर वर मिले। हमसे अच्छे परानी मिलें। कोस दो कोस पर रहना तो कभी कभार हमारी खबर भी लेती रहना।
गले लग कर दोनों कुछ देर तक सिसकती रहीं।
अचानक उसे याद आया कि अभी जानवरों को पानी नहीं पिलाया। बिना पिलाये चली गयी तो कहो दिन भर प्यासे ही रह जायें। वह बाल्टी लेकर बाहर आयी और हैण्डपम्प से भर कर उन्हें पानी पिलाने लगी। कुएं से पानी भरने की मेहनत से बचाने के लिए बजरंगी ने पिछले साल यह हैण्डपम्प लगवा दिया था।
नीले वेलवेट की एक छोटी सी थैली में वह अपने गहने रखती थी। इसमें सोने के टाप्स और जंजीर थी। इनको ‘उन्होंने’ दो महीने पहले खरीद कर दिया था। अभी सास को इनकी जानकारी नहीं थी।
हर महीने दूसरे महीने मोटर साइकिल पर बैठा कर वे उसे पिक्चर दिखाने शहर ले जाते थे। पिक्चर दिखाने और गोलगप्पे खिलाने। उसे गोलगप्पे का खट्टा पानी बहुत पसंद था।
वह कराहते हुए कहती— पेट में बहुत दरद हो रहा है अम्मा।
सास घबरा जातीं। ‘उनसे’ कहती— ले जा, किसी डाक्टर को दिखा दे।
लौटने पर पूछतीं— क्या बताया डाक्टर ने? कुछ उम्मीद है?
वह मुस्करा कर इंकार में सिर हिला देती। कभी कभी ब्लाउज से निकाल कर कैल्सियम या क्रोसीन की गोलियों की स्ट्रिप दिखा देती। पेटदर्द महीने दो महीने के लिए बंद हो जाता।
टाप्स और जंजीर भी लौटा दे कि साथ लेती चले? वह कुछ देर तक दुविधा में रही फिर तय किया— क्या फायदा? जब देने वाला ही चला गया।... वह जब भी इन्हें पहनेगी, ‘वे’ आकर सामने खड़े हो जायेंगे।
सास के हाथ में पकड़ाने से पहले उसने थैली का मुंह खोल कर गिना दिया— आपके दिये पांचों थान, साथ में ये टाप और जंजीर। इन्हें वे दो महीना पहले लाये थे। सहेज लीजिए।
सास ने बिना देखे थैली का मुंह बंद करके कमर में खोंस लिया।
कुच्ची ने बक्से का ताला खोल कर लाल रुमाल में लिपटा एक छोटा पैकेट निकाला और सास के हाथों में पकड़ाते हुए बताया— इसमें सात हजार रुपये हैं। उन्होंने हमें रखने के लिए दिया था।
पैकेट लेकर सास ने फिर उसी बक्से में डाला और जमीन पर पड़ा ताला बक्से में लगा कर चाबी अपने आंचल की टोंक में बांध ली।
सास बाहर निकलीं तो वह फिर अपना सामान सहेजने लगी। अपना क्या था? सब तो यहीं का था। वह खुद भी यहीं की हो चुकी थी। आज फिर मायके की हो रही थी। बल्कि अब कहीं की नहीं रह गयी थी। किनारी वाला एक झोला और प्लास्टिक की डोलची ही उसके मायके की थी। दो साड़ी, दो ब्लाउज, पेटीकोट, एक छोटा शीशा, एक कंघी, सिन्दूर की छोटी डिब्बी, क्लिप का पैकेट और सूती शाल जो विदाई के समय उसकी मामी ने दिया था, उन्हें रखने के लिए डोलची और झोला पर्याप्त थे। फ्रेम में मढ़ा पति के साथ तीन महीने पहले खिंचाया हुआ एक फोटो भी आले से झांक रहा था। इसे वह अपनी चीज मान सकती थी कि नहीं? जो भी हो, उसे भी उसने संभाल कर झोले में डाल लिया।
विदाई की बात जान कर आसपास की औरतें भी आ गयीं। एक लड़की ने उसकी डोलची और झोला उठा लिया। जेठानी उसे अंकवार में लेकर बाहर निकलने में मदद करने लगी। दो साल पहले घूंघट निकाले, गर्दन झुकाये, चूड़ियां खनकाते धीमे कदमों से चलते हुए उसने इस ड्योढ़ी में प्रवेश किया था। तांबे के पुराने बड़े पैसे के बराबर बुंदा लगाये, पान खाये, महावर से एड़ी रंगे, चुनरी ओढ़े, हंसती हुई सास ने परिछन करने के बाद बड़े दुलार से उसे डोले से उतारा था। पलाश के ताजे नरम पत्तलों पर एक एक पैर रखवाते हुए अंकवार में समेट कर ड्योढ़ी के अंदर ‘परवेश’ कराया था। एक एक पत्तल बिछाने के एवज में नाउन ने नेग में एक एक रुपये लिये थे। ग्यारह कदम के ग्यारह रुपये।
कांपते कदमों से चलती हुई वह बाहर आयी। एक तरफ ससुर चारपायी पर बैठे थे। सिर का पल्लू थोड़ा आगे खींच कर उसने ससुर के पैर पकड़ लिए— खता कसूर माफ करना बाबू।
बूढ़ऊ फफक पड़े— बेटे को तो भगवान ले गये समधी। उन पर कोई जोर नहीं चला, बहू को आप लिये जा रहे हैं। अब हमारे दिन किसके सहारे कटेंगे?
— वापस ले जाने के लिए तो भेजे नहीं थे समधी, लेकिन.... कुच्ची के बाप का गला रुंध गया। वे अंगोछे से आंसू पोंछने लगे।
लड़की ने झोला और डोलची साइकिल के हैण्डिल में दोनों तरफ टांग दिया। जेठानी को भेंटने के बाद कुच्ची ने सास के पैर छुए फिर औरतों के समूह से गले मिलने, पैर छूने लगी।
उसने घूंघट तनिक उठाते हुए स्वीकार में सिर हिलाया।
बाप ने ऊंची आवाज में बताया— आपका दिया हुआ गहना गीठी सास को सौप कर जा रही है मेरी बेटी। उसे इसी समय सहेज लीजिए समधी जी ताकि बाद में कोई तकरार न पैदा हो।
इतनी भीड़ देख कर बाहर बंधी भैंस खूंटे के चारों तरफ पगहे को पेरते हुए चोकरने लगी। यह भैंस भी गौने में उसके साथ मायके से आयी थी। उसके ‘आदमी’ को गवहीं खाने के नेग में दिया था उसके बप्पा ने। तो क्या उसके साथ भैंस को भी लौटना होगा?
वह धीमे कदमों से भैंस के पास गयी और उसके गले लग गयी। किसी की नजर उसके नंगे पैरों पर पड़ गयी। एक लड़की दौड़ कर अंदर गयी और चप्पल की जोड़ी लाकर उसे पहनाने लगी। सास को अचानक दांती लग गयी। औरतों ने उन्हें गिरने से बचाया और जमीन पर लिटा दिया। उनके मुंह में सीपी से पानी डालने की कोशिश होने लगी। मुंह पर छींटे मारे जाने लगे। औरतों के बीच फुसफुसाहट तेज हो गयी।
चतुरा अइया ने आगे बढ़ कर उसके बाप से कहा— अभी बूढ़े बूढ़ी बहुत सदमे में हैं समधी। खुद अपने खाने की सुध नहीं है और खूंटे से चार चार जानवर बंधे हैं। ये बिना चारा पानी के मर जायेंगे। जाना तो एक दिन है ही लेकिन आज का जाना ठीक नहीं लग रहा है। महीने खांड़ में जब ये दोनों परानी कुछ संभल जाते तब ले जाते तो न अखरता।
बाप ने बारी बारी सबके चेहरे देखे। फिर बेटी का मुंह जोहा। कुच्ची ने स्वीकृति में सिर हिलाया— ठीक है।
— हम एकाध महीने में आकर लिवा चलेंगे बिटिया। और साइकिल के हैण्डिल में टंगी डोलची झोला उतार कर बेटी के हाथ में पकड़ा दिया।
क्रमशः...
कुच्ची का कानून
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