लोग भोले हैं, मूर्ख नहीं हैं — ओम थानवी #OmThanvi #UPElection2017


विकास या बेरोज़गारी-महँगाई जैसे मुद्दों को भुलाकर ज़मीन और बिजली के बहाने कथित धार्मिक भेदभाव को मुद्दा बनाना हिंदू मतदाताओं को भड़काने के अलावा और क्या है? — ओम थानवी

Om Thavi writes on prime minister Modi's statement—If there is a Kabaristaan, there should be Shamshaan too (गांव में कब्रिस्तान बनता है तो श्मशान भी बनना चाहिए)
क़ब्रिस्तान बनाम श्मशान? रमज़ान बनाम दिवाली? कल तक सुनामी का मुग़ालता था, आज फिर वही फ़िरक़ापरस्ती की शरण? क्या भाजपा को अपनी जीत का भरोसा नहीं रहा?  — ओम थानवी

बड़े नादान चेले हैं

— ओम थानवी

मोदी-भक्त मोदी का कल के भाषण के बचाव में लग गए हैं। कि वे तो यह कह रहे थे कि धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए! बड़े नादान चेले हैं। जो पार्टी ही धर्म की बुनियाद पर चलती हो (कितने मुसलमानों या ईसाइयों को भाजपा ने उत्तरप्रदेश में टिकट दिया है? एक को भी नहीं!),
जो प्रधानमंत्री गुजरात में मुसलमानों के क़त्लेआम के दाग़ अब भी सहला रहा हो—वह दूसरों को समझा रहा है कि धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए? — ओम थानवी
जिस पार्टी की पहचान बाबरी मस्जिद ढहा कर राममंदिर के शिगूफ़े पर धर्मपरायण हिंदू मतदाताओं को गोलबंद करना रही हो, जो प्रधानमंत्री गुजरात में मुसलमानों के क़त्लेआम के दाग़ अब भी सहला रहा हो—वह दूसरों को समझा रहा है कि धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए?

असल बात यह है कि उत्तरप्रदेश में विराट ख़र्च, मीडिया प्रबंधन, कांग्रेस के नेताओं को टिकट के बँटवारे, वंशवाद से समझौते आदि की तमाम कोशिशें हवा को (आँधी-सुनामी दूर की बात है) भाजपा के हक़ में नहीं कर पाई हैं। सर्जिकल स्ट्राइक को भी भुना नहीं पाए। नोटबंदी के ज़िक्र से आँख चुरानी पड़ रही है। तो क़ब्रिस्तान-श्मशान की गंदी राजनीति की शरण में जाना, हमें तो समझ आता है, मूढ़ और कूपमंडूक भक्तों की समझ में न आता होगा।
यह निपट चालाकी भरा रूपक था, इसलिए वही समझा गया जो मंतव्य  ध्वनित हुआ। — ओम थानवी

विकास या बेरोज़गारी-महँगाई जैसे मुद्दों को भुलाकर ज़मीन और बिजली के बहाने कथित धार्मिक भेदभाव को मुद्दा बनाना हिंदू मतदाताओं को भड़काने के अलावा और क्या है?

कहना न होगा, धार्मिक भेदभाव की राजनीति तो मोदी (फिर से) ख़ुद ही करने लगे। ऐसे मुद्दों की शरण में जाना अपनी जीत को सुनिश्चित न कर पाने की झुँझलाहट और बौखलाहट के सिवा कुछ नहीं।

'डैमेज़ कंट्रोल' करने की कोशिश करने वालों की नई दलील यह है कि भेदभाव वाले बयान पर मोदी की आलोचना में इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया जा रहा कि उन्होंने (मोदी ने) क़ब्रिस्तान बनाम श्मशान और रमज़ान बनाम दीवाली की बात कहने के साथ यह भी तो कहा था कि 'अगर होली में बिजली मिलनी चाहिए तो ईद पर भी मिलनी चाहिए'।

बिलकुल कहा था। मगर क़ब्रिस्तान और रमज़ान के बहाने मुसलमानों के प्रति उत्तरप्रदेश सरकार की दरियादिली और हिन्दुओं की अनदेखी का सांप्रदायिक आरोप उछालने के बाद होली को भी साथ रख दिया, ताकि वक़्त-ज़रूरत काम आए! ज़ाहिर है, यह निपट चालाकी भरा रूपक था, इसलिए वही समझा गया जो मंतव्य—उनकी पार्टी की विचारधारा, उनके अपने अतीत और चुनावी मंसूबे को ध्यान में रखते हुए—ध्वनित होता था।

होली वाली मासूमियत पर वह बात ख़याल आती है कि कैसे कोई पड़ोसी के बच्चे को सच्चे-झूठे आरोप पर कोसने बाद कहता है कि मेरा बच्चा ऐसा करता तो मैं उसे उलटा लटका देता। पड़ोसी कहेगा, तुम मेरे बच्चे को सज़ा देने की बात निराधार कर रहे हो। तो जवाब तैयार होगा—मैंने अपने बच्चे के बारे में भी तो बोला है!

लोग भोले हैं, मूर्ख नहीं हैं। आपका मंतव्य व्यक्तित्व और अतीत में आप झलक जाता है। अब लाख सफ़ाई दिलवाएँ।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل