सात समंद की मसि करौं — अनामिका


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बड़े प्रतिरोध की आलोचनात्मक भाषा तो और शिष्ट और तर्कसम्मत होनी चाहिए

— अनामिका

घृणा और आवेग से काँपती हुई भाषा यही बताती है कि आपके बचपन में आप पर ध्यान नहीं दिया गया और अब आपने अपने लिए ग़लत प्रतिमान चुने।

स्त्री लेखकों को जो लानतें-मलानतें पिछले दिनों भेजी गईं, उसका निरपेक्ष विश्लेषण कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े करता है। साथी पुरुषों से अनुरोध है कि जरा रुक कर सोचें —

• क्या आपको सचमुच यह लगता है कि स्त्रियाँ सिर्फ शरीर हैं और उनका प्रज्ञा पक्ष बाधित है? उनमें सिर्फ पाशविक संवेदनाएँ हैं और निरपेक्ष निर्णय का विवेक उन्हें छू तक नहीं गया, राग द्वेष से ऊपर उनका कोई निर्णय हो ही नहीं सकता ?

• क्या आपके मन में अपनी बेटियों के लिए ऐसे समाज की कल्पना है जहाँ कोई स्त्री सहज स्नेहवश किसी को घर बुला ही नहीं सकती। क्या घर एक ऐसा "रेजिमेंटेंड स्पेस" होना चाहिए जहाँ सिर्फ पुरुषों के मेहमान विराजें? क्या आपकी माँओं ने आपके दोस्तों को कभी लाड़ में आकर घर नहीं बुलाया ? क्या आप पत्नी के दोस्त / रिश्तेदारों / सहकर्मियों के लिए घर के दरवाज़े बंद रखते हैं? क्या हम मध्यकालीन समाज में रह रहे हैं जहाँ हर प्रौढ़ स्त्री "कुट्टिनी" ही होती थी और हर युवा स्त्री "मनचली ?"

• क्या सहज मानवीय गरिमा की रक्षा में उठी आवाज जातिसूचक और लिंगभेदी गालियों (कुंजरिन) आदि से कीलित की जानी चाहिए ?

क्या यह जेल जाने लायक कृत्य नहीं है ? कोई प्रखर स्त्री सार्वजनिक मंच से गंभीर प्रश्न उठा रही हो, उस समय उसका नख-शिख वर्णन करने लगना क्या उसे थप्पड़ मारने जैसा नहीं है ?

• क्या आपको ऐसा नहीं जान पड़ता कि घर-गृहस्थी चलाने वाली कामकाजी औरतों के पास मरने की भी फ़ुर्सत नहीं होती? पहले की स्त्रियाँ तन-मन से सेवा करती थी पर सिर्फ अपने घर की। अब की कामकाजी स्त्रियाँ तन-मन-धन से घर बाहर दोनों सींचती हैं, लगातार इतना श्रम करती हैं , समय चुरा कर लिखती-पढती भी हैं, तो किसलिए ? इसी महास्वप्न के तहत कि बिना दीवारों का एक बंधु परिवार गढ़ पाएँ जहाँ मीरां की प्रेम-बेल वर्ण वर्ग नस्ल और संप्रदाय की कँटीली दीवारें फलांगती हुई अपनी स्नेह-छाया दुनिया के सब वंचितों और परेशानहाल लोगों पर डाल पाए ताकि उनकी अंतर्निहित संभावनाएँ मुकुलित हो पाएँ ?

• क्या यह जरुरी नहीं कि हम अपने युवा साथियों में भाषिक संवेदना विकसित होने दें और उन्हें बताएं कि फ़तवे जारी करने से अपनी ही प्रतिभा कुंठित होती है। किसी के चरित्र पर या उसके लेखन पर कोई क्रूर टिप्पणी आपकी अपनी ही विश्वसनीयता घटाती है। किस बड़े आलोचक ने ऐसा किया ? आलोचना की भाषा में तो माली का धैर्य चाहिए।

बड़े प्रतिरोध की आलोचनात्मक भाषा तो और शिष्ट और तर्कसम्मत होनी चाहिए —  घृणा और आवेग से काँपती हुई भाषा यही बताती है कि आपके बचपन में आप पर ध्यान नहीं दिया गया और अब आपने अपने लिए ग़लत प्रतिमान चुने। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि यह स्थिति आपको करुणास्पद बनाती है या हास्यास्पद ?

मुक्तिबोध ने कवि को "आत्मा का जासूस" कहा था। परकायाप्रवेश की क्षमता ही किसी को बड़ा कवि बनाती है। एकबार ठहर भर कर क्या आपने सोचा कि क्या उस नवांकुर को कैसा लग रहा होगा इस समय जिसने "बच्चे धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं" जैसी संवेदनशील कविता लिखी।

हृदय से कृतज्ञ हूँ उन सभी साथियों की जो बिना किसी आह्वान के, सहज नैतिक तेजस्विता की माँगलिक प्रेरणा से यातना की इन अंधेरी रातों में हमारे साथ बने रहे।

मैं फेसबुक पर नहीं हूँ पर साथियों ने आप सबके नाम मुझ तक पहुँचा दिए हैं और मैंने अपनी कल्पना का एक बंधु परिवार गढ़ भी लिया है जिसका निर्णायक रक्त या यौन-संबंध नहीं, सहज स्नेह और ममता का नाता है।

इस बहाने हम उर्ध्वबाहू संकल्प लेते हैं कि (विमर्शों द्वारा प्रस्तावित) भाषी औज़ारों से लड़े जाने वाले मनोवैज्ञानिक युद्ध में हम हमेशा साथ बने रहेंगे।

— अनामिका


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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1 टिप्पणियाँ

  1. Koi bat uthti hai to jawab Jana hi chaihiye, sammanjank bhasha sammanit ke liye hot i hai, jinhe adat hai gali de ne ki 'we ßunne ke liye bhi taiyar rhe samany aur samany ka utpad kis i ko maf nhi karta .......

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