विज्ञापन लोड हो रहा है...
कृपया एडब्लॉक बंद करें। हमारा कंटेंट मुफ्त रखने के लिए विज्ञापन ज़रूरी हैं।

हाईस्कूल-इंटर के दिन याद आ गए — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना




विपश्यना — सत्येंद्र प्रताप सिंह — संस्मरण: पार्ट 3

सुबह सबेरे उठना भी एक कठिन टास्क होता है। खासकर ऐसी स्थिति में जब आपको 3 बजे रात को सोने और 11 बजे दिन में उठने की आदत पड़ चुकी हो। पहले दिन परीक्षण होना था कि उठ पाते हैं या नहीं। घड़ी की घंटी भी इतनी तेज नहीं थी कि उसकी आवाज जगा सके। हां, इतना जरूर था कि थके होने की वजह से रात करीब साढ़े 9 बजे ही नींद आ गई थी। सुबह 4 बजने में 5 मिनट कम थे, तभी नींद खुल गई। 




मुझे हाई स्कूल और इंटर में पढ़ाई के दिन याद आ गए। पिता जी ने चाभी भरने वाली घड़ी खरीद दी थी, जिसकी घंटी हमें जगाती। उसमें सुबह 5 बजे घंटी बजने का टाइम सेट किया गया था। उसमें से इतनी कर्कश आवाज निकलती थी कि हम सभी भाई बहनों की नींद खुल जाए। दो चार दिन तो मैंने उस घड़ी को झेला। उसके बाद इतनी अच्छी आदत पड़ी थी कि 5 बजने के 5 मिनट पहले नींद खुलती थी और मैं घंटी बंद कर देता था। अम्मा पूछतीं कि आज घंटी सुनाई नहीं दी। मैं कहता कि घड़ी कुछ गड़बड़ होगी। कभी कभी घंटी बज भी जाने देता था, जिससे उन्हें शक न हो। हालांकि अम्मा का शक पुख्ता हो गया और उन्होंने कहा कि घड़ी गारंटी में है, उसे दिखा लो और बदल लाओ। मुझे तो पता ही था कि घड़ी का क्या खेल है... मैं घड़ी दुकान तक नहीं ले गया। घर आकर बताया कि वहां उसने खोलकर देखा। अब शायद सही चलेगी। वहां तो ठीक चल रही थी।

बड़ी धीमी चाल में वे खर्राटे ले रहे व्यक्ति तक बढ़े। चाल बहुत शांत थी। जैसा भारतीय समाज में नई नवेली बहू को निर्देश दिया जाता है कि ऐसा न चलो कि धम-धम की आवाज आए और कोई अहसास कर पाए। 

कुछ ऐसा ही विपश्यना विद्यापीठ में हुआ कि घड़ी की घंटी बजने के 5 मिनट पहले ही मैं सोकर उठ गया था। नींद पूरी हो चुकी थी। शौच और ब्रश करने के बाद सुबह सबेरे साढ़े चार बजे ध्यान करने वाले हॉल में पहुंच गया। करीब सभी लोग ध्यान करने आ गए थे। मैं 10 मिनट तक आंखें बंद कर बैठा रहा। आती-जाती सांस को महसूस करने के लिए। इसे आनापान कहा जाता है। यह काम बहुत बोरियत वाला लग रहा था। थोड़ी देर में आंखें बंद होने लगीं। झपकी सी आने लगी। मुझे अचानक दिव्य अनुभूति हुई कि तपस्या कर रहा हूं और नींद को भगाए रखना है। फिर आंख मूंदकर सांस पर ध्यान केंद्रित करने लगा। आधे पौन घंटे तक यह प्रक्रिया चली। मैंने देखने की कोशिश की कि और लोग कैसे हैं और किस हालत में हैं।



हॉल में 5 विदेशी थे। अगली पंक्ति में 3 बैठे थे और दो विदेशी पिछली पंक्तियों में थे। मतलब 3 ऐसे थे, जो एक से अधिक बार विपश्यना करने आए थे। दो युवा चुटिया धारक थे। एक ने अपनी चुटिया को जूड़े का आकार देकर बड़े करीने से सजाया था। दूसरा युवा टीनएजर दिख रहा था। उसने अपनी चोटी को पोनी के रूप में गांठ मार रखी थी। साढ़े पांच बजते ही असिस्टेंट टीचर पहुंचे। वह लोग चौकी पर बड़ी खामोशी से बैठे। पालथी बने पैर पर चद्दर रखी। टीचर भी कभी ध्यानमग्न और कभी लोगों को देखते नजर आए। एक घंटे तक ध्यान के बाद लोगों की हालत पतली थी। ज्यादातर लोग अपनी गद्दी पर बैठे हिल डुल रहे थे। कोई पैर फैलाने की कोशिश कर रहा था, कोई उकड़ूं बैठने की कवायद कर रहा था। दो लोग ऐसे थे, जो पालथी मारकर बैठे बैठे ही सो गए। उनकी नाक बजने लगी। पहली बार मुझे देखने को मिला कि पालथी मारकर सीधे बैठे होने पर भी कोई इस कदर सो सकता है कि खर्राटे निकलने लगें।

इसके अलावा बीच बीच में पादने की आवाज भी किसी शंख की ध्वनि का अहसास देने लगी। 8 बजे से 11 बजे तक चलने वाले ध्यान में लोगों की बेचैनी, पादने और डकारने की आवाज उस ध्यान केंद्र में सबसे ज्यादा ध्यान बिचलित करने लगा। 

खर्राटे निकलते ही धम्म सेवक सक्रिय हो गए। बड़ी धीमी चाल में वे खर्राटे ले रहे व्यक्ति तक बढ़े। चाल बहुत शांत थी। जैसा भारतीय समाज में नई नवेली बहू को निर्देश दिया जाता है कि ऐसा न चलो कि धम-धम की आवाज आए और कोई अहसास कर पाए। धम्म सेवक कुछ उसी स्टाइल में चलते थे, जिससे ध्यान में बैठे लोगों को पता न चले कि कोई चहलकदमी हो रही है। सो रहे व्यक्ति को धम्म सेवक धीरे से हिलाते थे। ज्यादातर यह देखने को मिला कि उस व्यक्ति को धम्म सेवक नहीं छूते थे, बल्कि उनके आसन को खींचकर हिलाते थे। जब सोने वाला व्यक्ति चेतन अवस्था में आकर धम्म सेवक को देखता था तो धम्म सेवक उनके सामने हाथ जोड़ते और वहां से चले जाते।

इस तरह से पहले दिन की तपस्या के दो घंटे गुजर गए। साढ़े छह बजे से आठ बजे तक के समय में कमरे पर जाकर आराम करने, नहाने, धुलने के लिए कपड़े देने और नाश्ता करने का वक्त मिलता है। पूरे डेढ़ घंटे तक बेतहाशा भागना, तभी इतने काम पूरे होने थे। कम से कम सोने का वक्त तो इस बीच नहीं ही मिलना था। पहले रोज मैं कमरे पर गया, जो ध्यान करने वाले हॉल से करीब 400 मीटर की दूरी पर था। नहाना भी जरूरी था, क्योंकि गरम पानी साढ़े छह से सवा सात बजे के बीच ही आने का नियम था। नहाकर वहां से भागते हुए नाश्ता करने पहुंचा। ठीक ठाक देरी हो चुकी थी। सवा सात बजे तक ही साधकों को नाश्ते का वक्त दिया जाता था, उसके बाद वहां के स्टाफ नाश्ता करते थे। मैंने जल्दी जल्दी नाश्ता ठूंसा। हल्दी मिलाकर दो गिलास दूध पिया। उसके बाद फिर कमरे की ओर भागा कि आराम किया जाए। आराम क्या होना था, करीब 15 मिनट लेटने के बाद आठ बजने वाले थे और फिर उठकर ध्यान कक्ष की ओर भागा।

इसके पहले के ध्यान दुरुस्त रहे। शाम भी अच्छी कट गई थी। सुबह साढ़े चार से साढ़े छह बजे तक भी जैसे तैसे बीत गया। लेकिन नहाने, नाश्ते और कथित आराम के बाद 8 बजे से ध्यान काफी भारी पड़ रहा था। मैंने देखा कि हॉल में अन्य लोग भी उतनी ही तकलीफ में थे, जितना कि मैं। लोग उसी आसन पर अपनी देह ऐंठने में लगे थे। आगे पीछे, दाएं बाएं मुड़ भी नहीं सकते थे। कुछ तंदुरुस्त दिखने वाले बॉडी बिल्डर टाइप युवा तो मुझसे भी पहले बेचैन हो उठे।



सिर्फ एक टाइम खाना मिलेगा और दो टाइम नाश्ता, इस दर्द में या रात की भूख में। ऐसा लगा कि लोगों ने नाश्ता कुछ ज्यादा ही कर लिया था। तमाम लोग तो इस कदर डकार मार रहे थे, जैसे किसी शेर को डराने के लिए दहाड़ लगा रहे हों। इसके अलावा बीच बीच में पादने की आवाज भी किसी शंख की ध्वनि का अहसास देने लगी। 8 बजे से 11 बजे तक चलने वाले ध्यान में लोगों की बेचैनी, पादने और डकारने की आवाज उस ध्यान केंद्र में सबसे ज्यादा ध्यान बिचलित करने लगा। असिस्टेंट टीचर भी आकर बैठे। साढ़े नौ बजे टेप ऑन हो गया। उसमें से आवाज आने लगी। फिर शुरू हो जाएं... फिर शुरू हो जाएं। उसी लरजती कंपकंपाती आवाज में बुद्ध के कुछ उपदेश चलते रहे। पहले हिंदी में, फिर अंग्रेजी में। बीच-बीच में बिचलित साधकों के लिए आवाज। फिर शुरू हो जाएं... फिर शुरू हो जाएं। आती जाती सांस को अनुभव करें। देखें कि वह नाक के भीतर कहां कहां स्पर्श करके अंदर या बाहर जा रही है। अगर महसूस न हो रहा हो तो बीच बीच में आप सांस तेज लेकर आती जाती सांस को महसूस करें। 10 बजे असिस्टेंट टीचर ने कहा कि नए साधक अपने कमरों में जाकर वहां ध्यान कर सकते हैं। अद्भुत खुशी महसूस हुई। मैं तो तुरंत जान बचाकर भागा। नए आए सभी साधक तत्काल प्रभाव से निकल गए। मैं कमरे पर जाकर सो गया। ध्यान करने का तो सवाल ही नहीं था।

खाना खाने के बाद 12 बजे मैं असिस्टेंट टीचर के पास मिलने पहुंच गया। उनसे मिलने का मकसद कोई साधना संबंधी सवाल नहीं, बल्कि यह बतलाना था कि मैं कौन कौन सी दवा खा रहा हूं। मैंने उन्हें बताया कि 3 साल पहले मुझे कैंसर हुआ था। अब ठीक हूं। सुबह शाम दवाएं खानी होती हैं। टीचर ने पूछा कि दवाएं खाने के पहले तो खाना खाने की जरूरत होती होगी। मैंने उनसे कहा कि अभी तक तो खाना अच्छा लग रहा है। दो टाइम नाश्ता और दोपहर का भोजन। मेरे लिए पर्याप्त था। घर पर भी नाश्ते की कोई आदत नहीं है। भारत में जैसे सामान्य मजदूर नहीं जानते कि नाश्ता क्या होता है, वही हाल मेरा भी है। एक बार सुबह, एक बार रात में ठूंसकर खाना खा लेने के बाद न तो मुझे किसी नाश्ते की जरूरत होती है न चाय की। विपश्यना केंद्र पर सुबह का नाश्ता ही भारी पड़ जाता था, उसके 3 घंटे बाद ही खाना। काम के नाम पर आती जाती सांस को महसूस करना। फिजिकल वर्क के नाम पर ध्यान केंद्र से आवास, आवास से भोजनालय, भोजनालय से ध्यान केंद्र की ओर भागना, जिससे समय पर सारे काम निपट जाएं। इतना शारीरिक श्रम पर्याप्त नहीं था, जो दो टाइम नाश्ता और खाने को पचा सके। टीचर को मैंने बता दिया कि खाने में कोई दिक्कत नहीं है और रात का खाना खाए बगैर भी दवा खा सकता हूं। उन्होंने कहा कि अगर कभी दिक्कत महसूस हो तो बताइए, रात को 9 बजे कुछ खाने का प्रबंध किया जा सकता है। हां, एक बात उन्होंने और पूछी। डिप्रेशन की दवा भी लेते हैं क्या?  मैंने उनसे कहा कि कभी नहीं ली, डिप्रेशन जैसा मुझे कभी हुआ भी नहीं है। इससे यह फील हुआ कि यहां मरीजों की संख्या ज्यादा है, जो ध्यान केंद्रित करने आते हैं। उम्मीद में आते हैं कि बीमारी भाग जाएगी। बहरहाल... खाने को लेकर कभी समस्या नहीं आई।

अगर उसके बावजूद कुछ लोग घंटी बाबा की तरफ ध्यान न देते तो घंटी बाबा पहले तो घटी बजाते, उसके बाद जैसे ही उनसे साधक की नजर मिलती, वो हाथ जोड़कर साधक को हॉल की ओर जाने का इशारा करते थे। इस तरह से घंटी बाबा का खौफ ऐसा था कि....

टीचर से बात करके मैं कमरे पर आराम करने साढ़े बारह बजे पहुंचा। 25 मिनट आराम करने के बात फिर ध्यान केंद्र की ओर चल पड़ा। इस 25 मिनट में जरा सी भी नींद न आई। एक बजे फिर से धम्म हॉल में पहुंचना और फिर वहां 5 बजे तक साधना करना था। यह साधना का सबसे लंबा दौर था। इसमें ढाई से साढ़े तीन बजे तक सामूहिक साधना का वक्त। जबकि शेष वक्त आपको कमरे पर ध्यान करना है या हॉल में बैठे रहकर करना है, यह टीचर को तय करना होता था। टीचर ने कुछ भी नहीं कहा कि आप लोग कब हॉल में आएं और कब कमरे पर। सभी लोग हॉल में ही ध्यान करने आ जाते थे और वह ध्यान कराते रहते थे।



पांच बजे नाश्ते के लिए भागना होता था। मैं पहले ही निकल गया कि पहले नाश्ता करके आधे घंटे सो लूंगा। लेकिन मुझसे चालाक भी वहां तमाम लोग थे और भोजनालय का दरवाजा खुलने के पहले ही 100 लोग वहां नाश्ते के लिए लाइन लगाकर खड़े हो गए। तब मुझे अहसास हुआ कि पहले नाश्ते या खाने के लिए पहुंचने में खाने की लाइन लगाना अतिरिक्त कार्य हो जाता है। बहरहाल शाम को केवल भूजा-नमकीन-कॉर्नफ्लैक्स का मिक्सचर और केले के अलावा दूध मिला। भूजा-मिक्सचर तो मेरे मुंह के मुताबिक नहीं था, लेकिन 4 केले खाकर मैंने दूध में हल्दी मिलाकर दो गिलास पी लिया। उसके बाद करीब साढ़े पांच बजे कमरे पर पहुंच गया और आधे घंटे नींद भी मार ली।

हॉल में पहुंचा तो छह बजे से कुछ ज्यादा वक्त हो गया था। साधक लोग पहुंच चुके थे। असिस्टेंट टीचर भी पहुंच गए थे। करीब एक घंटे तक कांखते कूंखते, अइंठते-गोइंठते अपने आसन पर बैठे लोगों ने ध्यान किया। सात बजे 5 मिनट की छुट्टी हुई। उतनी देर में पेशाब करने और पानी पीने का काम लोगों ने निपटाया। पांच मिनट बीतते ही घंटी लग गई। साथ ही धम्म सेवकों ने छोटी वाली टुनटुनिया घंटी बजाकर लोगों को हांकना शुरू किया। जो खड़े रह जाते और ध्यान केंद्र की ओर नहीं बढ़ते उन लोगों के पास जाकर धम्म सेवक घंटी बजाते। घंटी बाबा का इतना खौफ था कि लोग चल ही देते थे हॉल की ओर। अगर उसके बावजूद कुछ लोग घंटी बाबा की तरफ ध्यान न देते तो घंटी बाबा पहले तो घटी बजाते, उसके बाद जैसे ही उनसे साधक की नजर मिलती, वो हाथ जोड़कर साधक को हॉल की ओर जाने का इशारा करते थे। इस तरह से घंटी बाबा का खौफ ऐसा था कि लोग नियमों का पालन करते ही थे। या कहें कि नियमों का पालन करने के लिए लोग मजबूर रहते थे।

हॉल में पहुंचने पर टेलीविजन स्क्रीन वीडियो से जुड़ चुका था। वीडियो स्क्रीन पर सत्य नारायण गोयनका मौजूद थे। उन्होंने कहा कि आज साधना का पहला दिन पूरा हुआ। आप लोगों को खूब तपना है। जितना तपेंगे, उतना लाभ होगा। करीब डेढ़ घंटे भाषण चला। यह भी पता चला कि माइक पर जो कराहती हुई आवाज भवतु सब्ब मंगलं कहते हुए निकलती है, वह एक असाधारण वक्ता की आवाज है। उस तरह की की आवाज किसी शास्त्रीय संगीत की कलाकारी के अभ्यास से निकाली गई है! भाषण तो अच्छा था ही, लेकिन दिन भर तपने (मतलब पकने) के बाद वह भाषण या कहें प्रवचन कुछ ज्यादा ही प्यारा और कर्ण प्रिय लग रहा था। साढ़े आठ बजे तक भाषण के बाद 5 मिनट आराम और उसके बाद फिर आधे घंटे की तपस्या। शाम का यह सत्र बड़ी आसानी से बीत गया।  9 बजे के ठीक एक मिनट पहले माइक से आवाज आई भवतु सब्ब मंगलं... भवतु सब्ब मंगलं.... भवतु सब्ब मंगलं। उसके बाद आगे वाले लाइन में बैठे लोग साधु... साधु... साधु... बोले। साधु साधु के बाद गोयनका जी की आवाज आई। विश्राम करें, टेक रेस्ट। उसके बाद असिस्टेंट टीचर ने कहा कि अगर किसी का कोई सवाल हो तो वह पूछ सकते हैं, अगर कोई सवाल नहीं है तो अपने आवास पर जाकर विश्राम करें। यही बातें अंग्रेजी में भी दोहराई जाती थीं। ज्यादातर लोग अपने कमरे की ओर भागे। मैं भी निकल गया। देखने की कोशिश भी नहीं की कि क्या कोई ऐसा व्यक्ति है, जो अभी हॉल में और टिके रहकर सवाल भी पूछना चाहता है, या सभी लोग सोने के लिए अपने कमरे की ओर भाग पड़े हैं। क्रमशः...



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००
Bharat Web Developer

Morbi aliquam fringilla nisl. Pellentesque eleifend condimentum tellus, vel vulputate tortor malesuada sit amet. Aliquam vel vestibulum metus. Aenean ut mi aucto.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें