रुचि भल्ला |
रचना का जीवंत होना ज़रूरी है. रचनाकार उसे जन्म देता है और उसे ही यह देखना होता है कि उसकी कृति, कवि की कविता, लोगों से दूर नहीं भागे, लोगों को दूर न भगाए. रुचि भल्ला ने अपनी कविताओं का लालनपालन बहुत ध्यान से किया है, उनकी कवितायेँ मन मोह गयीं. आप भी देखिये इन कविताओं के संस्कारों को कि
कितनी आत्मीयता से वो कहती हैं ...
मैं सहलाना चाहती हूँ पेड़ की पीठ / दाबना चाहती हूँ चींटी के पाँव...
और प्रेमी से यह भी कहा ...
कपड़े धोना बर्तन माँजना सब मेरे जिम्मे है / मेरे पास प्यार के लिए वक्त नहीं है / तुम्हें याद करने से मेरे काम बिगड़ जाते हैं / बुनाई करते हुए फंदे गिर जाते हैं / कढ़ाई करते हुए सुई चुभ जाती है मेरी उंगलियों में / उभर आते हैं वहाँ खून के कतरे / और तुम्हारा नाम मेरे होठों से बेसाख्ता निकल जाता है / किसी दिन जो सुन लेंगे अम्मा बाबू भईया तुम्हारा नाम / मेरी जान निकाल कर रख देंगे
भरत तिवारी
रुचि भल्ला की कवितायेँ
रेखाचित्र: अनुप्रिया |
भूरा साँप
जबकि कलकत्ता कभी नहीं गई
फिर भी चली जाती हूँ बेलूर मठ
बेलूर मठ को मैंने देखा नहीं है
छुटपन में पढ़ा था किसी किताब में
जब भी लेती हूँ उसका नाम
थाम लेती हूँ बचपन की उंगली
पाती हूँ खुद को स्मोकिंग वाली गुलाबी फ्रॉक में
जो सिली थी अम्मा ने प्रीतम सिलाई मशीन से
सात बरस की वह लड़की दौड़ते हुए
इलाहाबाद से चली आती है मेरे पास
जैसे पिता के दफ्तर से लौटने पर
खट्ट से उतर जाती थी घर की सीढ़ियाँ
जा लगती थी पिता के गले से
जैसे महीनों बाद लौटे हों पिता
सात समन्दर पार से
उम्र के चवालीसवें साल में
कस्तूरी की तरह तलाशती है अब
अपने बालों में उस कड़वे तेल की गंध को
जब सात बरस में कहती थी अम्मा से
बंटे सरीखी दो आँखें बाहर निकाल कर
"और कित्ता तेल लगाओगी अम्मा
भिगो देती हो चोटी में बंधे
फीते के मेरे लाल फूल "
लाल फूलों से याद आता है
दादी कहती थीं तेरी चोटी में दो गुलाब
तेरे गालों में दो टमाटर हैं
बात-बात पर तुनकती लड़ती चिढ़ाती
चालाकी से दादी को लूडो में हराती वह लड़की
अब रोज़ खुद हार जाती है
जीवन के साँप-सीढ़ी वाले खेल में
सौ तक जाते-जाते उसे काट लेता है हर रोज़
निन्यानबे नंबर का भूरा साँप
वह साँप से डर जाती है
डर कर छुप जाना चाहती है
इलाहाबाद वाले घर के आँगन में
जहाँ माँ पिता और दादी बैठा करते थे मंजी पर
देते थे घड़ी-घड़ी मेरे नाम की आवाज़
बहुत सालों से मुझे अब किसी ने
उस तरह से पुकारा नहीं
मैं उस प्रेम की तलाश में
इलाहाबाद के नाम को जपती हूँ
जैसे कोई अल्लाह के प्यार में फेरता है माला
इलाहाबाद को मैं उतना प्यार करती हूँ
जितना शीरीं ने किया था फ़रहाद से
कार्ल मार्क्स ने किया था अपनी जेनी को
कहते हुए -
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ मदाम !
उससे भी ज्यादा जितना वेनिस के मूर ने किया था
मैं इलाहाबाद को ऐसे प्यार करती हूँ
जैसे नाज़िम हिकमत कहते हैं प्रेम का स्वाद लेते हुए
प्रेम जैसे रोटी को नमक में भिगो कर खाना हो
मैं नाज़िम हिकमत से मिलना चाहती हूँ
बतलाना चाहती हूँ
कि इस्तानबुल में जैसे गहराती है शाम
उससे भी ज्यादा साँवला रंग होता है
इलाहाबाद का प्रेम में
जब संगम पर फैलती है साँझ की चादर
तुम नहीं जानोगे नाज़िम
तुमने कभी चखा जो नहीं है
इलाहाबाद को मीठे अमरूद की तरह
मेरे दाँत के नीचे आज भी दबा हुआ है
अमरूद का मीठा एक बीज
कभी लौटना नाज़िम दुनिया में
मैं दिखलाऊँगी तुम्हें
सात बरस की बच्ची का टूटा हुआ वह दूध का दाँत
जिसे आज भी रखा है
मुट्ठी में संभाल कर इलाहाबाद ने
रेखाचित्र: अनुप्रिया |
येसु ! कहाँ हो तुम अब
गोवा चर्च का देश है
इलाहाबाद में भी हैं चौदह गिरजे
अच्छे लगते हैं मुझे गिरजे मोमबत्तियाँ घंटियाँ
मरियम और यीशू से ज्यादा
मैंने चर्च से प्यार किया है
जब प्यार हुआ था चर्च से आठ बरस की थी मैं
अमर अकबर एंथनी पिक्चर के एंथनी से
प्यार हो गया था मुझको
उससे भी ज्यादा चर्च के फादर से
फादर से ज्यादा कन्फेशन बॉक्स से प्यार कर बैठी थी
धर्मवीर भारती का उपन्यास गुनाहों का देवता तो नहीं पढ़ा था
फिर भी प्यार भरा गुनाह कर लेना चाहती थी
कन्फेशन बॉक्स में जाकर गुनाह को
कबूल करना चाहती थी
प्यार भरे गुनाह मैं करती रही
कभी नहीं कह सकी फादर से कि अच्छा लगता था
वह हीरोहौंडा वाला मुसलमान लड़का
कभी बोल नहीं सकी खुल कर कि
अपने से छोटी उम्र के ब्राह्मण उस लड़के की आवाज़ में जादू है
न ही कह सकी कभी धीमे से भी कि वह बंगाली लड़का
जो बहुत बड़ा है मुझसे कॉलेज के बाहर
खत लिये खड़ा रहता है मेरे लिए
हमउम्र वह लड़का जो पढ़ता था कक्षा दो से मेरे साथ
बारहवीं कक्षा में गुलाब रखने लगा था किताबों में
कभी नहीं कह सकी थी दिल की कोई बात फादर से
फादर से तो क्या मदर मेरी से भी नहीं कह सकी मैं
जानते रहे हैं सब कुछ यीशू पर मेरी ही तरह बेबस रहे
मैं पत्थर गिरजे में जाकर कभी अपनी
कभी यीशू की बेबसी देखती रही
प्रज्ञा भी जाती थी आजमगढ़ के एक चर्च में
नन्ही हथेलियों को जोड़ कर घुटने टेक बैठ जाती थी
मैं अब भी लगाती हूँ चर्च के फेरे
गोवा में देखे हैं मैंने तमाम गिरजे
ऑवर लेडी ऑफ़ इमैक्यूलेट कन्सेप्शन
चर्च को भी देखा है
कहीं नहीं दिखा मुझे वह चर्च
जिसके पीछे लगा है वह एक पेड़
जिसके नीचे संजीव कुमार शबाना आज़मी
से मिलना चाहते थे
हाथ थाम कर गाते थे ...
चाँद चुरा कर लाया हूँ तो फिर चल बैठें
चर्च के पीछे ...
मैं ईमानदारी से कबूल करती हूँ खुलेआम
पत्थर गिरजे के बाहर खड़े होकर
मैंने चर्च से ज्यादा एंथनी से प्यार किया है
मोमबत्तियाँ घंटियाँ फादर से प्यार किया है
कन्फेशन बॉक्स से भी ज्यादा
चर्च के पीछे लगे उस एक पेड़ से किया है
चर्च के देश में जाकर तलाशा है
उस एक चर्च को
मुझे वहाँ गोवा मिला समन्दर सीपियाँ
काजू और मछली मिली
यीशू भी दिखे मरियम भी मिली
सेंट ज़ेवियर भी थे वहाँ
नहीं था तो बस वह एक चर्च
चर्च के देश में
रेखाचित्र: अनुप्रिया |
रंग का एकांत
राग वसंत क्या उसे कहते हैं
जो कोकिला के कंठ में है
मैं पूछना चाहती हूँ कोयल से सवाल
सवाल तो फलटन की चिमनी चिड़िया
से भी करना चाहती हूँ
कहाँ से ले आती हो तुम नन्हे सीने में
हौसलों का फौलाद
बुलबुल से भी जानना चाहती हूँ
अब तक कितनी नाप ली है तुमने आसमान की हद
बताओ न मिट्ठू मियाँ कितने तारे
तुम्हारे हाथ आए
कबूतर कैसे तुम पहुँचे हो सूर्य किरण
को मुट्ठी में भरने
कौवे ने कैसे दे दी है चाँद की अटारी से
धरती को आवाज़
आसमान की ओर देखते-देखते
मैंने देखा धरती की ओर
किया नन्हीं चींटी से सवाल
कहाँ से भर कर लायी हो तुम सीने में इस्पात ...
मैं पूछना चाहती हूँ अमरूद के पेड़ से
साल में दो बार कहाँ से लाते हो पीठ पर ढोकर फल
मैं सहलाना चाहती हूँ पेड़ की पीठ
दाबना चाहती हूँ चींटी के पाँव
संजोना चाहती हूँ
धरती के आँगन में गिरे चिड़िया के पंख
पूछना चाहती हूँ अनु प्रिया से भी कुछ सवाल -
जो गढ़ती हो तुम नायिका अपने रेखाचित्रों में
खोंसती हो उसके जूड़े में धरती का सबसे सुंदर फूल
कहाँ देखा है तुमने वह फूल
कैसे खिला लेती हो कलजुग में इतना भीना फूल
कैसे भर देती हो रेखाचित्रों में जीवन
मैं जीवन से भरा वह फूल मधु को देना चाहती हूँ
जो बैठी है एक सदी से उदास
फूलों की भरी टोकरी उसके हाथ में
थमा देना चाहती हूँ
देखना चाहती हूँ उसे खिलखिलाते हुए
एक और बार
जैसे देखा था एक दोपहर इलाहाबाद में
उसकी फूलों की हँसी को पलाश सा खिलते हुए....
रेखाचित्र: अनुप्रिया |
एक गंध जो बेचैन करे .........
एक अदद शरीफा भी आपको प्यार में
पागल बना सकता है
सुमन बाई आजकल शरीफे के प्यार में पागल है
शरीफे को आप आदमी न समझिए
पर आदमी से कम भी नहीं है शरीफा
कमबख्त पूरी ताकत रखता है मोहपाश की
मैंने देखा है सुमन बाई को
उसके पीछे डोलते हुए
उसके पेड़ की छाँव में जाकर
खड़े होते हुए
जब देखती है उसे एकटक
उसके होठों पर आ जाता है निचुड़ कर शरीफे का रस
मुझे देखती है और सकपका जाती है
जैसे उसके प्यार की चोरी पकड़ ली हो मैंने
आजकल उसका काम में मन नहीं लगता
एक-आध कमरे की सफाई छूट जाती है उससे
पर एक भी शरीफा नहीं छूटता है
उसकी आँखों से
उसने गिन रखा है एक-एक शरीफा
जैसे कोई गिनता है तनख्वाह लेने के लिए महीने के दिन
उसे याद रहता है कौन सा शरीफा पक्का है
कौन सा कच्चा
शरीफे को हाथ में पकड़ कर दिखलाती है
उसकी गुलाबी लकीरें
कि अब बस तैयार हो रहा है शरीफा
जैसे पकड़ लेती हो शरीफे की नब्ज़
कभी उसे फिक्र रहती है कि कोई पंछी न उसे खा जाए
कभी तलाशती है पंछी का खाया हुआ शरीफा
बताती है पंछी के खाए फल को खाने से
बच्चा जल्दी बोलना सीखता है
मैं शरीफे को नहीं सुमन को देखती हूँ
जब वह तोड़ती है शरीफा
उसके बच्चों के भरे पेट की संतुष्टि उसके चेहरे से झलकती है
शरीफे सी मीठी हो आती है सुमन
अब यह बात अलग है कि शरीफे के ख्याल में
उससे टूट जाता है काँच का प्याला
पर वह शरीफे को टूटता नहीं देख पाती
इससे पहले कि वह पक कर नीचे गिर जाए
वह कच्चा ही तोड़ लेती है
ले जाती है अपने घर
मैं देखती हूँ उसके आँचल में बंधा हुआ शरीफा
मुझे वह फल नहीं प्यार लगता है
जिसे आँचल में समेटे वह चलती जाती है
आठ किलोमीटर तक
पर उसे गिरने नहीं देती
बारिश से भरी सड़कों पर अपने कदम
संभाल कर चलती है
उसे खुद के गिरने का डर नहीं होता
पगली शरीफा खो देने से डरती है
रेखाचित्र: अनुप्रिया |
सिंड्रेला का सपना
मैं क्यों करूं फ़िक्र तुम्हारे रूखे बालों की
मुझे नारियल की चटनी भी बनानी होती है
मैं नहीं कर सकती हूँ तुम्हारे खाने की फ़िक्र
तवे पर डाली मेरी रोटी जल जाती है
तुम्हारी दवा तुम्हारे मर्ज़ की जो फ़िक्र करूं
हाथ जला बैठूंगी आँच पर अपने
मैं रो भी नहीं सकती हूँ तुम्हारे लिए
रोने से मेरी नाक लाल हो जाती है
दुनिया को खबर हो जाती है
लोग मोहल्लेदारी में फिर कहते फिरेंगे
40/11 की लड़की प्रेम में है आजकल
मैं तुम्हें खत भी नहीं लिख सकती
मेरी छत पर कबूतर नहीं आता
वहाँ बुलबुल का सख्त पहरा रहता है
वे कोई और लोग हैं जो बन गए हैं
सोहनी लैला हीर शीरीं
मेरे पास तो काम की लंबी फ़ेहरिस्त पड़ी रहती है
कपड़े धोना बर्तन माँजना सब मेरे जिम्मे है
मेरे पास प्यार के लिए वक्त नहीं है
तुम्हें याद करने से मेरे काम बिगड़ जाते हैं
बुनाई करते हुए फंदे गिर जाते हैं
कढ़ाई करते हुए सुई चुभ जाती है मेरी उंगलियों में
उभर आते हैं वहाँ खून के कतरे
और तुम्हारा नाम मेरे होठों से बेसाख्ता निकल जाता है
किसी दिन जो सुन लेंगे अम्मा बाबू भईया तुम्हारा नाम
मेरी जान निकाल कर रख देंगे
और हाँ सुनो !
मैं एक-दूजे के लिए पिक्चर वाली सपना भी नहीं हूँ
कि छलांग लगा दूँ अपने वासु के साथ
मैं मर जाऊँगी पर मरते हुए भी तुम्हें ज़िन्दा देखना चाहूंगी
एक बात और मुझे अनारकली न कहा करो
मुझे दीवारों में चिन जाने से डर लगता है
दम घुटने के ख्याल से ही घबराहट होने लगती है
मुझे इतिहास की कहानी नहीं बनना
मुझे तो जीना है
कविताएँ लिखते रहना है तुम्हें देखते हुए
बरगद की छाँव में बैठ कर
रेखाचित्र: अनुप्रिया |
एक रोज़ हर रोज़
देखती हूँ मक्खनी चाँद
याद आता है मिस्टर मेहरा का चेहरा
जाने कहाँ चले गए हिन्दोस्तान की गलियों से
निकल कर
जैसे उनके चना पिण्डी की महकती गंध
चली जाती थी कुकर की सीटी बजाते हुए
इन्दिरापुरम की गलियों से बाहर
उंगली पर गिन कर बताते चना पिंडी में डले
छप्पन मसालों के नाम
भूलती ही गई वे छप्पन नाम
तेरह के पहाड़े की तरह
मिस्टर मेहरा कहते
चलाओ मथनी मलाई के डोंगे में
जब तक टूट न जाएँ बाजू
तब आएगी हाथ में मक्खन की ढेली
हाँडी में मटन चढ़ाते
एक किलो मटन में लगाते
दो किलो प्याज़ का छौंक
नमक हल्दी मिर्च के साथ डाल देते
कमलककड़ी के गुटके आठ
मिसेज मेहरा बनातीं गर्म सूरज से पराँठे
कहतीं ठंडे चाँद सी रोटी नहीं खिलाऊँगी
मैं मोमबत्ती के प्रकाश में
रात ग्यारह बजे भी बनवाती
ज़ाफ़रानी ज़र्दा
मिस्टर मेहरा खिले चावलों के मन से
डाल देते ज़र्दे में केसर की पुड़िया
स्टाफ़ी पॉमेरियन रहा है गवाह इन बातों का
पर स्टाफ़ी पॉमेरियन ने देखा नहीं वह वक्त
उसके चले जाने से बीमार मिस्टर मेहरा को
अस्पताल में 435 शुगर के संग
मैंने देखा है
खुली आँखों से
यह कलयुग की ही घटना है
उसी दौर में
जब आदमी आदमी का नहीं होता
साया भी छोड़ रहा है उसका साथ
आ जाती है मिस्टर मेहरा की याद
चना पिण्डी के बहाने
जबकि भूल गई हूँ छप्पन मसालों के नाम
जिह्वा पर आज भी शेष है
रावलपिण्डी चने का वह इकलौता स्वाद
रेखाचित्र: अनुप्रिया |
प्रेम वहाँ भी मिला
मैं तलाशती रही प्रेम को
कोकिला के कंठ में
चाँद के सीने में
नाज़िम हिकमत की कविता
बटालवी की नज़्म
लैला की आँखों
हीर के फ़सानों में
भगत सिंह के बसंती चोले में
पाश के शहर बरनाला में
संगम के तैरते जल में भी तलाशा
चरणामृत के तुलसी दल में भी खोजा
तोताराम कुम्हार के चाक पर भी मिला प्रेम
हरबती के रोट में भी चखा मैंने प्रेम का स्वाद
जितना मिला प्यास बढ़ती गई
एक उम्र काट दी प्रेम के पीछे
चढ़ाती रही कभी मज़ार पर चादर
मंदिर में भी खोजा पत्थर की मूर्ति में
प्रेम वहाँ भी मिला जबरेश्वर मंदिर के
पिछवाड़े वाली दीवार के सहारे बैठा
पत्थर के सीने से बाहर झाँकता हुआ
जहाँ पीपल की नाज़ुक हरी एक टहनी
झूल रही थी पाँच पत्तों के संग
मैंने देखा ...
जहाँ जीवन के साँस लेने की भी संभावना नहीं
वहाँ इत्मीनान से बैठा
मृत्यु को अंगूठा दिखला रहा था
प्रेम
रेखाचित्र: अनुप्रिया |
अनगढ़ कहानी जो पढ़ी है
दालों के नाम पर अरहर की याद आती है
शहरों के नाम पर इलाहाबाद
दोस्तों का जो ज़िक्र चले
नाम प्रज्ञा का आता है
वैसे तो चली आती है अलका की याद
अलका वही जिससे प्यार हो गया था
बीसवें साल में
यह सोलहवें साल का प्यार नहीं
वैसे प्यार पैंतालीसवें साल में भी हो जाता है
परिपक्व उम्र में भी फ़िसल जाता है पाँव
चोट का क्या किसी वक्त भी लग जाती है
मोहब्बत का ज़ख्म तो कभी भरता नहीं
जैसे भरती नहीं है समन्दर की प्यास
एक-दो-तीन
न न न
मैं गिन नहीं सकूँगी नदियों के नाम
नदियों के प्रेम की कहानी फ़िर सही
आज सिर्फ कविता लिखने का
ख्याल चला आया है
ख्याल का क्या
ख्याल तो चला जाता है
तोताराम कुम्हार के भी पास
गर्मियों के मौसम में उसे भी आती होगी मेरी याद
जब मटके सभी बिक जाते होंगे
रह जाता होगा एक शेष मेरे नाम का
जिसे वह बेचता नहीं था
जिसे मैं समझती थी प्रेम
वह पुण्य कमाता था
लोग प्यासे को पानी पिलाते हैं
वह दरिद्दर मुझे मटका थमाता था
एक अदद कमीज़ में साल
बिता देता था तोताराम
प्यार का क्या
प्यार तो उससे बयालीसवें साल में हो गया था
उसके हाथ के बने कुल्हड़ में चाय पीते हुए
हरबती से हो गया था मुझे चालीस में
बाजरे का उसका रोट खाते हुए
लौतिफा से पैंतीस में
फौजिला से तीस में
न न न
इससे पीछे नहीं जाऊँगी
अब तो आगे जाना है
चलते चले जाना है
आखिरी प्रेम की तलाश में
रेखाचित्र: अनुप्रिया |
देशांतर रेखा पर खड़ी अकेली
बीत रहा है जेठ का मौसम
मैं उंगलियों पर दिन गिनती हूँ बसंत के लौटने का
जैसे गरमी की छुट्टियों में लौट आते हैं बच्चे
ननिहाल
कोयल भी चली आती है आम के पेड़ वाले
मायके में
मायका माँ-बाप भाई-बहन से ही नहीं होता
अपना शहर भी मायका होता है
मैं पुकारती हूँ इलाहाबाद
हाजिर हो जाती है जामुनी फ्रॉक पहने एक लड़की
सन् अस्सी का समय चला आता है उसके साथ
बालों की पोनीटेल बनाए
घर की छत पर टहलती वह लड़की
दोनों हाथों को आसमान की ओर उठाए
चाँद को देखते हुए पुकारती है
ओ ! अलफ़ान्सो ओ ! अलफ़ान्सो
देखी थी उसने जनरल नॉलेज की किताब में
कभी हापुस आम की तस्वीर
चाहा था चखना उसका निराला स्वाद
इलाहाबाद में हापुस उतना ही दूर था
जितना भूपेन हजारिका के गाए उस गीत में चाँद
तेरी ऊँची अटारी मैंने पंख लिए कटवाए
बड़ी होती लड़की फिर जान गई थी
चाँद चन्द्रमा को ही नहीं कहा करते
जो हाथ में न आए
जिस पर दिल चला आए
चाँद वही होता है
लड़की चाँद को देखती थी
उसे ओ! अलफ़ान्सो कह कर पुकारती थी
लड़की ने कभी नहीं देखा था बम्बई
बम्बई चाँद के पार की नगरी होती थी
लड़की तो मलीहाबाद भी नहीं गई थी कभी
पर मलीहाबाद चला आता था
दशहरी आमों का टोकरा सर पर उठाए
लड़की के पिता ने पहचान करवायी थी
दशहरी आम से
अम्मा ने सिखलाया था देसी-विदेशी तरीके से
आम खाना
यूँ तो घर पर चौसा ने भी सिक्का जमाया था अपना
पर हापुस की याद उगते चाँद के संग
चली आती थी
यह एक गुजरे वक्त की बात है
अब तो सन् 2017 का समय है
लड़की अब इलाहाबाद में नहीं रहती
सातारा जिले में रहती है
फलटन उसके कस्बे का नाम है
उसके घर के आँगन में ही अब
रत्नागिरी हापुस का पेड़ है
लड़की के दोनों हाथों में अब
दो-दो दर्जन हापुस आम हैं
लड़की उसे थाम कर खुशी से चिल्लाना चाहती है
ओ ! अलफ़ान्सो
पर उसके शब्द लड़खड़ा जाते हैं
हापुस के मीठे स्वाद में डूबी जुबान से
निकलता है दशहरी आमों का नाम
दशहरी आम के संग चली आती है
उस किताब की याद
लड़की चाहती है कहीं से हाथ लग जाए
जनरल नॉलेज की वह किताब
जिसके पन्नों पर ज़िक्र था
सबसे मीठे होते हैं हापुस आम
वह किताब के पन्ने फाड़ कर पतंग
बना देना चाहती है
उड़ा देना चाहती है आसमान में चाँद के पास
चिल्ला कर कहना चाहती है चाँद से
कि किताब में लिखी हर बात सच नहीं होती
जैसे कि यह कविता भी उतनी ही झूठी है
जितना झूठ इस कविता की लड़की का नाम रुचि है
रेखाचित्र: अनुप्रिया |
ऐ सूरज इधर से भी गुज़रो
विन्चूर्णी दूर नहीं है
जुड़ा हुआ है फलटन से
जैसे जुड़ी है मुझसे तुम्हारी याद
इतना ही फासला मेरा भी तुमसे है
पास होकर भी दूर हूँ
दूर होकर भी पास
फलटन से विन्चूर्णी
विन्चूर्णी से फलटन का रास्ता
रोज़ तय करती हूँ
बीच रास्ते में मुझे देखती है
पीली रेशमी चिड़िया
देखता है विन्चूर्णी का सूरज
फलटन का पुल
भीमा नदी भी देखती है मुझे
देखते हैं भीमा नदी में तैरते हुए फ्लैमिंगो
चले आए हैं अफ्रीका से
गर्म मौसम और मीठे पानी की तलाश में
उड़े चले आए हैं तीन हजार किलोमीटर
रोहू मछली से मिलने
मैं सोचती हूँ .......
तुम क्यों नहीं चले आते हो मेरे पास
मैं भी गंगा जल की मछली हूँ
फलटन से इलाहाबाद का फासला
भी पन्द्रह सौ किलोमीटर है
एक पठार है बीच
तुम लाँघ कर चले आओ वसंत !
मेरे आँगन की मिट्टी में आकर मल दो
इलाहाबाद की वासंती धूप
मेरे बालों में सजा दो गेंदे का एक फूल
भर दो मेरा आँचल फूलों से
इलाहाबाद की छत पर खिले हुए हैं
गेंदा गुलाब सूरजमुखी के फूल
केवल मैं बिछड़ी हूँ फूलों की डाल से
संपर्क :
Ruchi Bhalla ,
Shreemant, Plot no. 51,
Swami Vivekanand Nagar ,
Phaltan , Distt Satara
Maharashtra 415523
3 टिप्पणियाँ
बहुत सुंदर रचनाएं और वैसे ही कनुप्रिया जी के चित्र भी। कविताओं में माटी की सोंधी महक है जो अंदर तक असर डालती है। रुचि भल्ला जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (21-03-2018) को ) पीने का पानी बचाओ" (चर्चा अंक-2916) (चर्चा अंक-2914) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
wow nice lines especially in Love also got there . you will become a great writer
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