स्वाति श्वेता की कहानी - कैरेक्टर सर्टिफिकेट


“अरे मेहरा जी, दस साल से मैं रीडर हूँ । अभी तक प्रोफेसर नहीं बना । पन्द्रह साल सहायक प्रवक्ता रहा हूँ और यह सुनिधि बारह वर्षों में ही रीडर बन जाना चाहती है ? हमने उसे पढ़ाया और आज वह हमारी बराबरी में आकर बैठ जाना चाहती है ?”


“तो थोड़ा परेशान कीजिए न डॉक्टर साहब ।”
हमारे समाज के कुछ घृणित सच क्या इतने ताक़तवर है कि हम-सब इसके आगे झुके हुए हैं...डॉ० स्वाति श्वेता की कहानी ने मुझसे यही सवाल किया सो मैंने जवाब आपसे पूछ लिया है...

भरत तिवारी 


डॉ० स्वाति श्वेता,
एसो० प्रोफ़ेसर (हिंदी), गार्गी कॉलेज, नयी दिल्ली | ईमेल: swati.shweta@ymail.com | फोटो: भरत तिवारी

कैरेक्टर सर्टिफिकेट

— स्वाति श्वेता


1

आज पाँचवा दिन है। दिन के एक बज रहे हैं। मैं गर्मी से लथ-पथ कमरे के दरवाज़े पर खड़ी हूँ। यदि आज भी मेरा काम न हुआ तो...

अन्दर से कहकहों की आवाज़ें आ रही हैं। ये आवाज़ें कभी तेज़ तो कभी कम होती रहती हैं। साथ वाले कमरे से आती पंखे की तीखी आवाज़-‘चीं-चीं, चीं-चीं’ कानों को भेदती चली जा रही है। तभी सामने के कमरे से जोगिन्दर निकलता है-

“जोगिन्दर जी ।”

“यस जी ।”

“मेरा काम...।”

“साहब से मिलने अभी कोई आया है ।”

“जोगिन्दर जी चार दिन हो गये, आज हो जाता...।”

“आप समझती क्यों नहीं । आपका काम साहब के पास है, मेरे पास नहीं ।”

“मेरे नाम की पर्ची भेज देते तो...।”

“उससे कुछ नहीं होता । आपका काम उनके टेबल पर पड़ा है। उन्हें जब बुलाना होगा बुला लेंगे ।” इतना कह जोगिन्दर आगे गलियारे में निकल गया। पाँचवे दिन भी उसने यही कहा ।

क्या जोगिन्दर सचमुच कुछ नहीं कर सकता।

मैं फिर से उसी मुद्रा में खड़ी हो गयी। बर्फ की सिली की तरह धीरे-धीरे पिघलती हुई ।

मैं और रुमशा इसी गलियारे में दौड़ा करते थे । उस दिन उसके हाथ में पीनी का गिलास था और वह मुझे कहती जा रही थी...

“...देख मैं कहती हूँ रुक जा ।”

“नहीं रुकूँगी ।”

“नहीं । अच्छा तो ये ले...।”

और पानी का वह गिलास मेरी पीठ गीला कर गया था । उस दिन ठीक इसी दीवार के सहारे खड़ी हो कर मैं कितना रोई थी।

चीं-चीं, चीं-चीं... ।

2

मेरी पीठ पसीने से गीली हो चुकी है। पर्स में से छोटा तौलिया निकाल मैं पीठ पोंछती हूँ और फिर उसी मुद्रा में खड़ी हो जाती हूँ। साथ वाले कमरे से आती पंखे की आवाज़ बंद हो गयी है । लगता है किसी ने पंखा बंद कर दिया है । हेड के कमरे से आती आवाजें अब पूरी तरह सुनाई दे रही हैं-

“फिर हैड साहब क्या सोचा है आपने ?”

“अरे मेहरा साहब कृपा कर के मुझे हेड साहब न कहें ।”

“अच्छा डॉक्टर साहब ! क्या सोचा फिर आपने ?”

“किस विषय में मेहरा जी ?”

“वही, सुनिधि को रीडर बनाने के विषय में ।”

“अरे मेहरा जी, दस साल से मैं रीडर हूँ । अभी तक प्रोफेसर नहीं बना । पन्द्रह साल सहायक प्रवक्ता रहा हूँ और यह सुनिधि बारह वर्षों में ही रीडर बन जाना चाहती है ? हमने उसे पढ़ाया और आज वह हमारी बराबरी में आकर बैठ जाना चाहती है ?”

“तो थोड़ा परेशान कीजिए न डॉक्टर साहब ।”

“परेशान तो वह हो ही गई है मेहरा साहब ।”

“वह कैसे ?”

“अरे उसकी फाइल जो दबा दी मैंने । न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी ।” और सारा वातावरण उस विचित्र प्रकार की हँसी से गूँज उठा ।

क्या ये वही अध्यापक हैं जो हमें कक्षा में पढ़ाते थे कि “शिष्य गुरु से आगे बढ़े तो इससे अधिक गुरु के लिये गर्व का विषय और क्या होगा विश्वास नहीं होता ।”


3

मैं पानी पीकर रेलिंग पर ताज़ी हवा के लिये खड़ी हो जाती हूँ । तीन बज रहे हैं । उफ ! कितनी घुटन है । मोनी अब तक उठ चुकी होगी । घर जाकर सामान ठीक करना है । कल सुबह की टिकट मिली है । काश इस बार मेरा काम... ।

तभी जोगिन्दर पास से निकलता है।

“जोगिन्दर जी ।”

“यस जी ।”

“वह...।”

“देखो मैडम कुछ ठण्डा पिलाओ तो फिर सोचता हूँ कि आपका क्या करना है ।”

जोगिन्दर अपने कमरे में चला जाता है और मैं गलियारे से हो सीढ़ियाँ उतर जाती हूँ । मैं चल रही हूँ और चल रही हूँ और हर कदम के साथ मुझे अपनी आत्मा की धीमी आवाज़ सुनाई देती है-“शुक्र मना कि तू लड़की है नहीं तो उसका गला शराब से ठण्डा करना पड़ता ।” और तब मेरे मुँह से केवल एक ही शब्द निकला-‘हे प्रभु’ ।

कुछ ही देर में मैं एक कोक कैन्टीन से ले वापस आ जाती हूँ ।

“जोगिन्दर जी ये... ।”

“आप बैठो, मैं अभी आता हूँ ।” इतना कह जोगिन्दर मेरी हाथ से कोक ले अँधेरे गलियारे में ओझिल हो जाता है ।


एक घण्टे की प्रतीक्षा के बाद में पुनः हेड साहब के कमरे के बाहर खड़ी हो जाती हूँ । पंखे की चीं-चीं-चीं-चीं की आवाज़ गलियारे के अँधेरे को चीरती हूई मुझे सुनाई दे रही है और सुनाई दे रही है हेड साहब के कमरे से आती आवाज़ें-

“वह आपसे एक बात कहनी... चीं-चीं-चीं-चीं”

“जी कहिए मेहरा... चीं-चीं-चीं-चीं”

“वह...चीं-चीं- पी.एच.डी करवा दीजिए ।”

“भई मेहरा मेरे पास सीट... चीं-चीं-चीं-चीं”

“डॉक्टर साहब वह बहुत प्रतिभा... चीं-चीं-चीं-चीं सुन्दर भी ।”

“पर मेहरा मेरे पास सीट... चीं-चीं-चीं-चीं” ।

“सीट तो बनाने से... चीं-चीं-चीं-चीं” ।

इस कमरे की... चीं-चीं-चीं-चीं बढ़ जायेगी ।”

“पर...।”

‘आज रात... चीं-चीं-चीं-चीं देख लीजिएगा ।”

“मेहरा...चीं-चीं-चीं-चीं कहते हो ।”

“बिल्कुल सच ।”



“मैडम ।” सामने से आते जोगिन्दर ने इशारा किया-“इधर ।’

और मैं एकबार फिर जोगिन्दर के कमरे में चली जाती हूँ ।

“मैडम ऐसा है कि साहब के सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है । अगर आप उनके लिये दूध पत्ती मलाई मार कर भिजवा दें तो...।”

जोगिन्दर फिर बोला-“दो कप अन्दर और दो कप इधर और साथ में समोसे हो जाएँ तो और भी बढ़िया ।”

मैं गलियारे से हो सीढ़ियाँ उतर जाती हूँ ।



मैं चल रही हूँ और चल रही हूँ ।

चारों तरफ नई-नई इमारतें है । जिनके नाम महापुरुषों के नाम पर रखे हुए हैं । यहाँ हर कार्य इन महापुरुषों के नाम पर छोड़ दिए जाते हैं । मैं आगे बढ़ती जाती हूँ और एक-एक करके ये आत्मा-विहीन इमारतें पीछे छूटती जाती हैं और तब एक अरसे पहले कही रुमशा की सारी बातें मुझे याद आती जाती है...

“...तू क्या समझती है यह मात्र एक कुर्सी है ? नहीं डियर बिल्कुल नहीं । यह तो भ्रष्टाचार की जीती-जागती कहानी है । अपने आप में भ्रष्टाचार का दस्तावेज़ है । अफसर से लेकर चपड़ासी तक रसाला अपने आपको देवता समझता है । एक बार यह मिल जाए तो देखो इस पर बैठे ये सब कैसे फूलने लगते हैं और ये मुफ्त की चाय पीने वाला, घंटों कमरे के बाहर खड़ा रखने वाले, ‘ए लड़की’ से संबोधित करने वाला हमें पढ़ाने के एवज में कितनी बार तो गुरु दक्षिणा ले चुका है । यह छोटी सी कुर्सी बहुत बड़ी चीज़ है। इस पर बैठे हर एक शख्स को भी हमें ईश्वर मानना पड़ता है । देखा नहीं डॉ. मेहरा कैसे हर पुराने हेड़ को एक महीने पहले छोड़ नए हेड़ के साथ घूमते हैं । कुर्सी में बहुत ताकत होती है डियर बहुत ताकत... ।”

मैंने कैंटीन में चाय और समोसों का बिल दे दिया है और एक लड़का चाय और समोसे उठा मेरे साथ हो लेता है । “मैडम कौन सी मंजिल ?”

“अन्तिम ।”

और लड़का किसी सर्प की भाँति सीढ़ियाँ चढ़ जाता है । मेरे ऊपर पहुँचने से पहले ही जोगिन्दर लड़के से चाय ले चुका होता है । वह घण्टी बजाता है । बूढ़ी महिला चपरासी दौड़ी हुई अंदर आती है । ‘ये’ दो कप अंदर देकर आ और आकर समोसे ले जा ।”



...मैं, जोगिन्दर और हेड के कमरे के बीच गलियारे में दीवार के सहारे फिर खड़ी हूँ । जोगिन्दर के कमरे में लेडी क्लर्क और जोगिन्दर की आवाज़ें आ रही हैं । एक मिनट बाद गलियारे में शांति छा जाती है । न पंखे की आवाज़ । न हेड के कमरे से आते कहकहे, न जोगिन्दर के कमरे से आती हँसी । लगता है दरवाजा बंद हो गया है । गलियारे में व्याप्त अँधेरा सिनेमा हाल के अँधेरे में परिवर्तित हो जाता है । सामने की दीवार स्क्रीन बन जाती है और मुझे सब दीखता है । हाँ, वह सब दीखता है...

“...दत्त साहब अब मान भी जाईए ।”

“पर डाक्टर साहब रकम कुछ अधिक माँग रहे हैं आप ।”

“आपकी पत्नी भी तो तीस वर्ष नौकरी करेंगी । उस हिसाब से देंखे तो सौदा सस्ता है दत्त साहब ।”

“ठीक है कल ले आऊँगा सब ?”

“और टाइल्स ?”

“वह भी । अच्छा तो वह प्रश्न बता दें जो आप साक्षात्कार में पूछेंगे ।”

“कल काम हो जाये तो पत्नी सहित घर आ जाइएगा । वहीं सब तय कर लेंगे...”

मेरी पलक झपकती है और मुझे पुनः दीखता है कल अपनी पुस्तकों को लाइब्रेरी के लिए खरीदवाने के लिए हेड के पास आए प्रकाशक खन्ना साहब...

“...खन्ना साहब किताबें लगाने के लिये तीस प्रतिशत कमिशन लूँगा ।”

“पर रेट तो पन्द्रह प्रतिशत का है सर ।”

“तो ठीक है हम किसी और की किताबें लगा देंगे... ।”

हेड के कमरे का दरवाजा खोल मिस्टर मेहरा बाहर चले जाते हैं । अंदर से आती रौशनी सिनेमा हॉल के स्क्रीन को श्वेत कैनवस में परिवर्तित कर देती है । और मैं सोचने पर विवश हो जाती हूँ कि विद्या के इस मन्दिर का यह कैसा पुजारी है जो अपने कर्मों से विमुख है, जिसकी सारी संवेदनाएं मर चुकी हैं, जिसके चरित्र का स्वयं ही ह्रास हो चुका है वह दूसरों के चरित्र का प्रमाण-पत्र देता है !

 शायद यही जीवन की सबसे बड़ी विसंगति है । दफ्तर बंद होने में पन्द्रह मिनट शेष हैं मैं एक बार फिर आशा लिए जोगिन्दर के कमरे में जाती हूँ ।

“जोगिन्दर जी... ।”

“यस जी ।”

“वह... ।”

“बस एक मिनट । वैसे क्या काम था आपका ?

“जी कैरेक्टर सर्टिफिकेट... ।”

“बस, बस याद आ गया ।”

जोगिन्दर उठकर हेड के कमरे में जाता है और कुछ क्षण बाद बाहर आ मुझे अंदर आने को कह जाता है ।

“नमस्ते सर ।’ मैंने दोनों हाथ जोड़ हेड साहब की तरफ देखते हुए कहा ।

“नमस्ते । कहिए ।”

“सर मेरे कैरेक्टर सर्टिफिकेट पर आपके हस्ताक्षर चाहिए ।’’

“कहाँ है आपका कैरेक्टर सर्टिफिकेट ?”

“सर वह तो मैंने आपको चार दिन पहले ही दे दिया था ।”

“अच्छा ! जोगिन्दर इनका कागज देखो ?”

“मिला क्या ?

“सर ढूँढ रहा हूँ ।”

“भई जल्दी करो । एक तो गर्मी इतनी है यहाँ । गला सूख जाता है सिर में दर्द हो जाता है । भई मिला क्या ?”

“सर ढूँढ रहा हूँ ।”

“क्या नाम बताया आपने ?”

“जी, नीलम शर्मा ।”

“हाँ, तो नीलम जी आपको पूरा याद है आपने वह मुझे ही दिया था ।”

“जी सर ।”

“तो आप आज आ रही हैं लेने ?”

“सर मैं तो... ।”

“जोगिन्दर मिला या नहीं ।”

“सर ढूँढ़ रहा हूँ ।”

हेड साहब नीचे गिरे कागज़ों में से एक उठा, समोसे के तेल से सना अपना हाथ उसमें पोंछ उसे चाय के कप में मुचोड़ कर डाल देते हैं । फिर कप को नीचे रखते हुए वह कहते हैं-‘भई पाँच बजने में एक मिनट शेष हैं । मिल गया तो ठीक नहीं तो आप कल आईए ।”

“सर कल तो मैं वापस चली जाऊँगी ।”

“आपकी इच्छा । आप देख रहीं हैं कि यहाँ कितना व्यस्त रहता हूँ मैं । इतना काम है कि समाप्त नहीं होता है । जोगिन्दर मिला क्या ?”

“सर ढूँढ़ रहा हूँ ।”

“देखिए नीलम जी पहले आना था न ?” इतना कह हेड साहब अपनी कुर्सी से उठ जाते हैं कोट के बटन लगाते हैं ।

टन-टन-टन ।

घड़ी पाँच की सुई पर है। जोगिन्दर नीचे बिखरे कागजों को पढ़ रहा है । हेड साहब अपने जूतों को खडे-खड़े ही पैर में रगड-रगड़ के साफ कर रहै हैं और तभी...

‘सर यह रहा ।’ जोगिन्दर तेल और चाय में सने एक कागज को खोल हेड की तरफ बढ़ा देता है ।

हेड उसे पढ़ते हैं फिर मेरी तरफ देख कहते हैं-“यह तो खराब हो गया है । पहले कहना था जोगिन्दर कि यह वही कागज़ है जो इन्हें चाहिये । अब तो नीलम जी फिर से आपको नया कैरेक्टर सर्टिफिकेट बनाना पड़ेगा ।”

सामने दीवार पर टँगी घड़ी फिर टन-टन-टन करती है । मानो मेरा मज़ाक उड़ा रही हो । मैं कभी हेड साहब को, कभी जोगिन्दर को देखती हूँ और फिर समोसे के तेल से सने और चाय से गीले अपने कैरेक्टर सर्टिफिकेट को ।



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