"मेरी दाढ़ी और मेरा मुल्क" के बहाने, विश्व स्तर पर भारत की पहचान और डॉ सच्चिदानंद जोशी
मुझे याद आ गया 1984 का साल। उन दिनों भी मैं दाढ़ी रखा करता था। ये वो काल था जब इश्क़ में मार खाये आशिकों में और नौकरी की तलाश में घूम रहे बेरोजगारों में दाढ़ी रखने का फैशन आम था। अपन दोनों ही समस्याओं से ग्रस्त थे लिहाज़ा दाढ़ी भी बड़ी थी। 1984 के सिख दंगे हुए और घर वालों ने तथा मित्रों ने जबरन मेरी दाढ़ी कटवा दी। उस दौरान कई सिख बंधुओं को अपनी दाढ़ी और बाल काट देने पड़े थे। उम्र कम थी और बेरोजगार भी था तो सोचा कहीं दाढ़ी ही न रोड़ा बन जाये रोजगार का।
मेरी दाढ़ी और मेरा मुल्क
— डॉ सच्चिदानंद जोशी
लेकिन वो अपनी बात कह चुका था और ये बता कर संतुष्ट से महसूस कर रहा था कि दाढ़ी रखने की स्टाइल से मैं मौलाना जोशी सा दिखने लगा हूँ।
दाढ़ी रखे कुछ दिन हो गए हैं, इसलिए इस सवाल से दो-दो हाथ करने के मौके कई बार आये थे। कई सारे उत्तर तैयार थे लेकिन उन्हें सुरक्षित रख लिया।
“क्यों अच्छी नहीं लग रही है क्या। कई लोगों ने तारीफ की है इस रूप की" मैने प्रतिप्रश्न किया।
"नहीं यार दाढ़ी अपन लोग कहाँ रखते है। एकदम 'वो' लग रहे हो।"
"दाढ़ी तो शिवजी की भी थी, हमारे प्रधानमंत्रीजी की भी है। इसमें क्या खराबी है?"
"उनकी दाढ़ी अलग है, तुम्हारी 'वैसी' लग रही है।
"अब यार ऐसी वैसी तो नहीं पता, बस रख ली।"
दोस्त शायद इशारों में बात करके थक गया था सो उसने सीधे बात कह दी "एकदम मियां भाई लग रहे हो। अब तो तुम्हें मौलाना जोशी कहना पड़ेगा।"
डॉ सच्चिदानंद जोशीसदस्य सचिव, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (IGNCA), नई दिल्ली
पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में अपने लम्बे अनुभव के साथ विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं में कार्य। कलात्मक क्षेत्रों में अभिरुचि के कारण रंगमंच, टेलीविजन तथा साहित्य के क्षेत्र में सक्रियता। पत्रकारिता एवं संचार के साथ-साथ संप्रेषण कौशल, व्यक्तित्व विकास, लैंगिक समानता, सामाजिक सरोकार और समरसता, चिंतन और लेखन के मूल विषय। देश के विभिन्न प्रतिष्ठानों में अलग-अलग विषयों पर व्याख्यान। कविता, कहानी, व्यंग्य, नाटक, टेलीविजन धारावाहिक, यात्रा-वृत्तांत, निबंध, कला समीक्षा इन सभी विधाओं में लेखन। बत्तीसवें वर्ष में विश्वविद्यालय के कुलसचिव और बयालीसवें वर्ष में विश्वविद्यालय के कुलपति होने का गौरव। देश के दो पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालयों की स्थापना से जुड़े होने का श्रेय। भारतीय शिक्षण मंडल के राष्ट्रीय अध्यक्ष।
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बचपन का दोस्त था और उसे मेरे साथ चाहे जैसी मजाक करने का जायज हक़ था। लेकिन वो अपनी बात कह चुका था और ये बता कर संतुष्ट से महसूस कर रहा था कि दाढ़ी रखने की स्टाइल से मैं मौलाना जोशी सा दिखने लगा हूँ।
भारत हमेशा विचारों का देश रहा है और हमने हमेशा संवाद से बड़ी से बड़ी कठिनाई का हल निकाला है। हमने विश्व को संवाद सिखाया है और विश्व को शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का मार्ग दिखाया है। लेकिन आज हम खुद ही अपने आपको कटघरे में खड़ा कर रहे है और अपने बनाये पूर्वाग्रहो के गुलाम होते जा रहे हैं।मुझे याद आ गया 1984 का साल। उन दिनों भी मैं दाढ़ी रखा करता था। ये वो काल था जब इश्क़ में मार खाये आशिकों में और नौकरी की तलाश में घूम रहे बेरोजगारों में दाढ़ी रखने का फैशन आम था। अपन दोनों ही समस्याओं से ग्रस्त थे लिहाज़ा दाढ़ी भी बड़ी थी। 1984 के सिख दंगे हुए और घर वालों ने तथा मित्रों ने जबरन मेरी दाढ़ी कटवा दी। उस दौरान कई सिख बंधुओं को अपनी दाढ़ी और बाल काट देने पड़े थे। उम्र कम थी और बेरोजगार भी था तो सोचा कहीं दाढ़ी ही न रोड़ा बन जाये रोजगार का। — डॉ सच्चिदानंद जोशी
आज एक बार फिर मेरी दाढ़ी मेरी पहचान के लिए प्रश्न चिन्ह बन गयी थी। वो दोस्त मेरे गेटअप को अच्छा या बुरा कहता तो ठीक था, लेकिन दाढ़ी के साथ उसने मुझे धर्म की पहचान का अहसास दिला दिया था। मैं सोच में था कि उसे क्या जवाब दूँ और ये भी पशोपेश था कि क्या उसे मेरा कोई भी जवाब वाजिब लगेगा। क्योंकि उसने अपनी आंखों पर एक पूर्वाग्रही चश्मा लगा लिया था।
लेकिन जब अपने आसपास और गौर से देखा तो लगा कि एक मेरा दोस्त ही नहीं है, मुल्क में और लोग भी है जो दाढ़ी से व्यक्ति का धर्म और नीयत तय कर रहे हैं। सोचने पर मजबूर हो गया कि कैसे हम धीरे धीरे अपने पूर्वाग्रहों के गुलाम होते जा रहे हैं और कैसे हमने किसी व्यक्ति या समुदाय के बारे में अपनी राय बना ली है। कैसे हमने धर्म को देश से जोड़ दिया है और कैसे भाषाओं के माध्यम से अपने बीच दरारें पैदा कर ली हैं।
पहले तो हमारा मुल्क भारत ऐसा नहीं था। हम सब मिलकर साथ रहते थे। साथ ही मिल बैठकर समस्याओं का, तकलीफों का सामना करते थे और उसमें से रास्ता निकलते थे। क्यों और कब ऐसा हुआ कि हमारा समाज खेमों में बटता जा रहा है और हम दाढ़ी पर, पाजामे पर, खाने पीने पर, रीति रिवाजों पर अपने पूर्वाग्रहों के चश्मे चढ़ाते जा रहे है। त्यौहार अब भारतीय त्यौहार न होकर हिन्दू त्योहार, मुस्लिम त्योहार , ईसाई या सिख त्यौहार हो गया है। अपराधी अब सिर्फ अपराधी न रहकर हिन्दू, मुस्लिम या ईसाई अपराधी हो गया है। पीड़ित भी अब संप्रदायों से जाना जा रहा है।
हमें एक बार फिर से नए सिरे से सोचने की शुरुआत करनी होगी, तब जाकर भारत अपनी पहचान के मुताबिक सही राह पर चल पायेगा। — डॉ सच्चिदानंद जोशी
आखिर कब तक हम इस तरह समाज को खेमों में बांटते रहेंगे और कब तक ऐसे सवालों से भारतीय समाज को नफरत की आग में झोंकते रहेंगे।
कुछ दिनों पहले एक वाक्य समाज में तैर गया था "हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान होता है"। काफी लोगों ने इसका प्रयोग अपनी तरह से किया और पूर्वाग्रह पक्के किये। फिर शब्द आया "हिंदू आतंकवाद" और पूर्वाग्रह की जड़ें और मजबूत हो गयी। भूल गए हम कि आतंकवाद सिर्फ आतंकवाद होता है वो किसी मजहब या धर्म का नहीं होता । आतंकवाद पूरे समाज की तबाही करता है, भारत की तबाही करता है। बच्चे फिर वो चाहे हिन्दू के हो या मुसलमान के, अगर गलत काम करें तो उन्हें सही राह पर लाना और नसीहत देना समाज का काम है, समाज के बुजुर्गों का काम है।
भारत हमेशा विचारों का देश रहा है और हमने हमेशा संवाद से बड़ी से बड़ी कठिनाई का हल निकाला है। हमने विश्व को संवाद सिखाया है और विश्व को शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का मार्ग दिखाया है। लेकिन आज हम खुद ही अपने आपको कटघरे में खड़ा कर रहे है और अपने बनाये पूर्वाग्रहो के गुलाम होते जा रहे हैं।
हमें एक बार फिर से नए सिरे से सोचने की शुरुआत करनी होगी, तब जाकर भारत अपनी पहचान के मुताबिक सही राह पर चल पायेगा।
हमें अपने अंदर पड़ताल करना होगी और पूरी शिद्दत के साथ उन सवालों के जवाबों को ढूंढना होगा जिनसे हम कन्नी काटते आ रहे हैं। हमें अपने पूर्वग्रहों से मुक्त होकर सकारात्मक सोच की ओर बढ़ना होगा।
आइए सोचें कि किस तरह हम अपने देश को इस तरह के पूर्वाग्रहों से मुक्ति दिला सकते हैं। कैसे हम फिर से एक हँसता मुस्कुराता शान्त भारत बना सकते हैं।
— डॉ सच्चिदानंद जोशी
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