head advt

मोहन राकेश की कहानी 'ग्लास टैंक' | Mohan Rakesh Ki Kahani Glass Tank


यदि कोई कहानी आपको उसे पढ़ते हुए लगातार अचंभित कर रही हो तो आप लेखक के बारे मे सोचा कीजिए। मोहन राकेश की 'ग्लास टैंक' पढ़ते हुए यही सोचता रहा कि कहानीकार के पास परकाया प्रवेश की असीम क्षमता होती है। इस बात को जिस तरह मोहन राकेशजी जैसे हमारे बड़े और प्रिय कथाकारों ने जाना, तलाशा, और संवारा है वह एक शिक्षा है। - सं०     

ग्लास टैंक

— मोहन राकेश

मोहन राकेश की कहानी ग्लास टैंक


मीठे पानी की मछलियाँ, कार्प परिवार की। देर-देर तक मैं उन्हें देखती रहती। शोभा पीछे से आकर चौंका देती। कहती, ” गोल्डफ़िश, फिर गोल्डफ़िश को देख रही है?” 

मैं जानती थी, वह मेरे भूरे—सुनहरे बालों की वजह से ऐसा कहती है। मुस्कराकर मैं टैंक के पास से हट जाती। ज़ाहिर करना चाहती कि ऐसे ही चलते-चलते रुक गई थी। शोभा सोफ़े के पास बिठा लेती और मेरे बालों को सहलाने लगती। कहती, ”यह ग्लास टैंक तेरे साथ भेज दें?” 

मुझे उसकी उँगलियों का स्पर्श अच्छा लगता। उन्हें हाथ में लेकर देखती। पतली-पतली उँगलियाँ! नसें नीली लकीरों की तरह उभरी हुई। मन होता, उनके पोरों को होंठों से छू लूँ, मगर अपने को रोक लेती। डर लगता कि वह फिर कह देगी, ”यू सेंशुअस गर्ल! तू ज़िन्दगी में निभा कैसे पाएगी?” 

उसकी उँगलियों में उँगलियाँ उलझाए बैठी रहती। सोफ़े के खुरदरे रेशों पर वे और भी मुलायम लगतीं। सेवार में तैरती नन्हीं—नन्हीं मछलियाँ। अपना हाथ जाल की तरह लगता। काँपती मछलियाँ जाल में सिमट आतीं। कुछ देर काँपने के बाद निर्जीव पड़ जातीं या हल्के से प्रयत्न से छूट जातीं। 

" तू खुश रहेगी न?” मैं पूछती, जैसे मेरे पूछने पर कुछ निर्भर करता हो। वह एक कोमल हँसी हँस देती — ऐसी, जो वही हँस सकती है। हवा में ज़र्रे बिखर जाते। मेरे अन्दर भी ज़र्रे बिखरने लगते। मगर कहीं सेवार नज़र न आती। उसकी आँखें भी हँसती—सी लगतीं। 

“ खुशी तो मन की होती है।” वह कहती। 

”अपने से ही पानी होती है। बाहर से कौन किसी को खुशी दे सकता है!”

बहुत स्वाभाविक ढंग से वह कहती, मगर मुझे लगता झूठ बोल रही है। उसकी मुस्कराती आँखें भीगी-सी लगतीं। एक ठण्डी सिहरन मेरी उँगलियों में उतर आती। 

" वह आजकल कहाँ है?” मैं पूछ लेती। 

" कौन?” वह फिर झूठ बोलती। 

" वह, संजीव।” 

" क्या पता!” उसकी भौंहों के नीचे एक हल्की—सी छाया काँप जाती, पर वह उसे आँखों में न आने देती।” साल-भर पहले कलकत्ता में था।” 

"इधर उसकी चिट्ठी नहीं आई?” 

" नहीं।” 

" तूने भी नहीं लिखी?” 

" ना।” 

" क्यों?” 

वह हाथ छुड़ा लेती। दरवाज़े की तरफ़ देखती, जैसे कोई उधर से आ रहा हो। फिर अपनी कलाई में काँच की चूड़ियों को ठीक करती। आँखें मुंदने को होतीं पर उन्हें प्रयत्न से खोल लेती। मुझे लगता, उसके होंठों पर हल्की-हल्की सलवटें पड़ गई हैं। ”वे सब बेवकूफी की बातें थीं।” वह कहती। 

मन होता, उसके होंठों और आँखों को अपने बहुत पास ले आऊँ। उसकी ठोड़ी पर ठोड़ी रखकर पूछूँ, ”तुझे विश्वास है न, तू खुश रहेगी?” मगर मैं कुछ न कहकर चुपचाप उसे देखती रहती। वह मुस्कराती और कोई धुन गुनगुनाने लगती। फिर एकाएक उठ जाती। 

" ममी मुझे ढूँढ़ रही होंगी!” वह कहती।” अभी आती हूँ। तू तब तक मछलियों से जी बहला। आंटी से कहना पड़ेगा कि अब तेरे लिए भी...।" 

" मेरे लिए क्या?” 

" उन्हीं से कहूँगी, तू क्यों पूछती है?” 

वह चली जाती तो सजा हुआ ड्राइंग-रूम बहुत अकेला हो जाता। मैं खिड़की के पास चली जाती। खिड़की के परदे, किवाड़ सब ठण्डे लगते। साँस अन्दर रुकती—सी प्रतीत होती। जल्दी-जल्दी साँस लेती कि कहीं ब्रांकाइटिस या वैसी कोई बीमारी न हो गई हो। शारदा की याद आती। ब्रांकाइटिस का दौरा पड़ता था, तो उसके मुँह से बात नहीं निकलती थी। 

लान में किन्नी और पप्पू खेल रहे होते। एक—दूसरे के पीछे दौड़ते, किलकारियाँ भरते हुए। किन्नी को गिराकर पप्पू उसके पेट पर सवार हो जाता। किन्नी उठने के लिए छटपटाती, हाथ-पैर पटकती, पर वह उसके कन्धों को हाथों से दबाए उसे ज़मीन से चिपकाए रहता। जितनी ही वह कोशिश करती, उतना ही उसे दबा देता। किन्नी चीख़ने लगती, तो एकाएक छोड़कर भाग खड़ा होता। किन्नी रोती हुई उठती, फ्रॉक से आँसू पोंछती और पल—भर रुआंसी रहकर उसके पीछे दौड़ने लगती। पप्पू उसे धमकाता। वह मुँह बिचका देती। फिर दोनों हँसने लगते। एक चिड़िया घास की तिगलियाँ तोड़-तोड़कर मुँह में भरती जाती...। 

शोभा से कितनी-कितनी बातें पूछा करती थी। वे मछलियाँ जीती किस तरह से हैं? खाने को उन्हें क्या दिया जाता है? कैसे दिया जाता है? उनकी ज़िन्दगी कितने दिनों की होती है? अंडे कहाँ देती हैं? और एक बार पूछ लिया था, ”यहाँ पाँच-छह तरह की मछलियाँ एक-एक ही तो हैं। इनकी इमोशनल लाइफ़...?” 

शोभा ने हँसकर फिर वही बात कह दी थी, ” अरे, मैं तो आँटी से कहना भूल ही गई। अब ज़रूर कह दूंगी कि जल्दी से तेरे लिए...।" 

मुझे ये मज़ाक अच्छा न लगता। वह न जाने क्या सोचती थी कि मैं टैंक के पास देर—देर तक क्यों खड़ी रहती हूँ। मैं उसे क्या बताती कि मैं वहाँ क्या देखने जाती हूँ। कैलिकोज़ के पैरों की लचक? ब्लैक मूर के जबड़ों का खुलना और बन्द होना? बिल्लौरी पानी में तैरती सुनहरी मछलियाँ अच्छी लगती थीं, मगर हर बार देखकर मन में उदासी भर जाती थी। सोचती, कैसे रह पाती हैं ये? खुले पानी के लिए कभी इनका जी नहीं तरसता? कभी इन्हें महसूस नहीं होता कि ये सब एक—एक और अकेली हैं? कभी ये एक—दूसरी से कुछ कहना चाहती हैं या कभी शीशे से इसलिए टकराती हैं कि शीशा टूट जाए? शीशे के और आपस के बन्धन से मुक्त हो जाएँ? शोभा कहती, ” देख, यह ओरिण्डा है, यह फैन टेल है। साल में एक बार, वसन्त में ये अंडे देती हैं। कुल दो साल की इनकी ज़िन्दगी होती है। हवा इन्हें एरिएटर से दी जाती है। पानी का टेम्परेचर पचास से साठ डिग्री फ़ैरनहाइट के बीच रखना होता है। खाने को इन्हें ड्राइफूड देते हैं, ब्रेन भी खा लेती हैं। नीचे समुद्री घास इसलिए बिछाई जाती है कि...” मेरे मुँह से उसाँस निकल पड़ती। जाने वह उसका भी क्या मतलब लेती थी। मेरे कन्धे पर हाथ रखकर मुझे अपने साथ सटाए कुछ सोचती-सी खड़ी रहती। उस दिन उसने पूछ लिया, ” सच-सच बता, तू किसी से प्यार तो नहीं करती?” 

मुझे शैतानी सूझी। कहा, ” करती हूँ।” 

उसने मेरे गाल अपने हाथ में लिये और मेरी आँखों में देखते हुए पूछा, ”किससे?” 

मैं हँस दी। कहा, ” तुझसे, ममी से, मछलियों से।” 

उसके नाखून गालों में चुभने लगे। वह उसी तरह मुझे देखती रही। मैंने होंठ काटकर पूछा, ”और तू?” 

उसने हाथ हटाए, तो लगा, मेरे गाल छील दिए हों। उसकी भौंहों के नीचे वही हल्की—सी छाया काँप गई – पर उतनी हल्की नहीं। फुसफुसाने की तरह उसने कहा, ”किसी से भी नहीं।” 

जाने क्यों मेरा मन भर आया। चाहा, उससे कहूँ, शादी न करे। पर कहा नहीं गया। सोचा, उसकी शादी से एक रोज़ पहले ऐसी बात कहना ठीक नहीं होगा...। 

सुभाष को आना था, लौटने की जल्दी थी। बार-बार ममा को याद दिलाती थी कि बृहस्पति को ज़रूर चल देना है, ऐसा न हो कि वह आए और हम घर पर न हों। ममा सुनकर व्यस्त हो उठतीं। सुभाष को आने के लिए लिखा खुद उन्होंने ही था। बचपन से जानती थीं। जब उसके पिता की मृत्यु हुई, कुछ दिनों के लिए उसे अपने यहाँ ले आई थीं। वह तब छोटा नहीं था, बी.ए. में पढ़ता था। हम लोग बहुत छोटे रहे होंगे, हमें उसकी याद नहीं। ममा से ज़िक्र सुना करते थे: वह हफ़्ताभर रहा था। सत्रह साल का था तब। बातों से लगता था जैसे बहुत बड़ा हो। डैडी के साथ फ़िलॉसफ़ी की बातें किया करता था। ममा उसकी बातें सुनते-सुनते काम करना भूल जाती थीं। डैडी गुस्सा होते थे। ममा को दुःख होता कि वह उस छोटी-सी उम्र में ऐसी—ऐसी बातें क्यों करने लगा है। वह उतना पढ़ता नहीं था जितना सोचता था। बात करते हुए भी लगता था जैसे बोल न रहा हो, कुछ सोच रहा हो। अपने घुँघराले बालों में उँगलियाँ उलझाए इनकी गाँठे खोलता रहता था। खाने को कुछ भी दे दिया जाए, चुपचाप खा लेता था। पूछा जाए कि नमक कम—ज़्यादा तो नहीं, तो चौंक उठता था। यह तो मैंने नोट ही नहीं किया, अब चखकर बताता हूँ। बताने के लिए सचमुच चीज़ चखकर देखता था। ममा जब भी उसका ज़िक्र करतीं, उनकी आँखें भर आतीं। कहतीं कि इस लड़के को ज़िन्दगी में मौका मिलता, तो जाने क्या बनता। जब पता चला कि वह ए.जी. ऑफिस में क्लर्क लग गया है तो ममा से पूरा दिन खाना नहीं खाया गया था। 

" ममी, सुभाष हम लोगों का क्या लगता है!” हम थोड़ा बड़े हुए तो ममा से पूछा करते थे। ममा मुझे और बीरे को बाँहों में लिए हुए कहतीं, ” वह तुम लोगों का वह लगता है जो और कोई नहीं लगता।” मैं और बीरे बाद में अनुमान लगाया करते, मगर किसी नतीजे पर न पहुँच पाते। आख़िर बीरे कहता, ” वह हम लोगों का कुछ भी नहीं लगता।” 

इस पर मेरी—उसकी लड़ाई हो जाती। 

बाद के सालों में कभी—कभी उसकी ख़बर आया करती थी। ममा बतातीं कि प्राइवेट एम .ए करके अब लेक्चरर हो गया है। उसे बाहर जाने के लिए स्कॉलरशिप मिल रहा है, मगर उसने नहीं लिया। कहता है, जिस सब्जेक्ट के लिए स्कॉलरशिप मिल रहा है, उसमें रुचि नहीं है। साल गुज़रते जाते। ममा उसे तीन-तीन चिट्ठियाँ लिखतीं तो उसका जवाब आता। वे सबको पढ़कर सुनातीं, दिन—भर उसकी बातें करती रहतीं, फिर चिट्ठी सँभालकर रख देतीं। सुना रही होतीं, तो उत्सुकता सिर्फ मुझी को होती। बीरे मज़ाक करता। कहता, उस नाम का कोई आदमी है ही नहीं, ममा ख़ुद चिट्ठी लिखकर अपने नाम डाल देती हैं। डैडी सुनते हुए भी न सुनते, अख़बार या किताब में आँखें गड़ाए रहते। कभी-कभी उनकी भौंहें तन जातीं और अपनी उकताहट छिपाने के लिए वे उठ जाते। मैं ममा से पूछ लेती, ” ममी, ये चिट्ठी तो लिख देते हैं, हमारे यहाँ कभी आते क्यों नहीं” 

" कोई हो तो आए!” बीरे कहता। 

ममा बिगड़ उठतीं। उन्हें लगता, बीरे अपशकुन की बात कह रहा है। बीरे हँसता हुआ लॉजिक झाड़ने लगता। ”ममी, किसी चीज़ के होने का सबूत यह होता है...” 

" वह चीज़ नहीं, आदमी है!” लगता, ममा उसके मुँह पर चपत मार देंगी। मैं बाँह पकड़कर बीरे को दूसरे कमरे में ले जाती। कहती, ” बीरे, तू इतना बड़ा होकर भी ममी को तंग क्यों करता है?” 

बीरे मुस्कराता रहता, जैसे डांट या प्यार का उस पर कोई असर ही न होता हो। कहता, “ उन्हें चिढ़ाने में मुझे मज़ा आता है।” 

" और वे जो रोती हैं...?” 

" इसलिए तो चिढ़ाता हूँ कि रोने की जगह हँसने लगें!” 

दो साल हुए ममा सुभाष के ब्याह की ख़बर लाई थीं। ट्यूमर के इलाज के लिए दिल्ली गई थीं तो अचानक उससे भेंट हो गई थी। छुट्टी में वह अपनी पत्नी के साथ वहीं आया हुआ था। ममा ने उसकी पत्नी को दूर से देखा था। वह दुकान के अन्दर शॉपिंग कर रही थी। सुभाष ने उन्हें मिलाने का उत्साह नहीं दिखाया, व्यस्तता दिखाते हुए झट से विदा ले ली। कहा, पत्र लिखेगा। ममा बहुत बुरा मन लेकर आईं। बोलीं, ” सुभाष, अब वह सुभाष नहीं रहा, बिल्कुल और हो गया है। शरीर पहले से भर गया है ज़रूर, मगर आँखों के नीचे स्याही उतर आई है। बातचीत का लहज़ा भी बदल गया है। खोया—खोया उसी तरह लगता है, मगर वह खुलापन नहीं है जो पहले था। कहीं अपने अन्दर रुका हुआ, बँधा हुआ-सा लगता है।” ममा के पूछने पर कि उसने ब्याह की ख़बर क्यों नहीं दी, वह बात को टाल गया। एक ही छोटा—सा उत्तर सब बातों का उसने दिया — पत्र लिखूँगा। 

ममा कई दिन उस बात को नहीं भूल पाईं। ट्यूमर से ज़्यादा वह चीज़ उन्हें सालती रही। सुभाष — वह सुभाष जिसे वे जानती थीं, जिसे वे घर लाई थीं, जिसे वे पत्र लिखा करती थीं, जिसकी वे बातें किया करती थीं, वह तो ऐसा नहीं था... ऐसा उसे होना नहीं चाहिए था... तेरह साल हो गए थे उसे देखे हुए, मिले हुए, फिर भी...। 

" पत्नी सुन्दर मिल गई होगी।” मैंने ममा से कहा, ”तभी न आदमी सब नाते-रिश्ते भूल जाता है।” 

ममा पल—भर अवाक्-सी मेरी तरफ़ देखती रहीं। जैसे अचानक उसे लगा कि मैं बड़ी हो गई हँ। सयानी बात कर सकती हैं। उन्होंने मेरे बालों को सहला दिया और कहा, ”नाता रिश्ता नहीं है, फिर भी मैं सोचती थी कि...।” 

" पत्नी उसकी सुन्दर है न?” मैंने फिर पूछ लिया। 

" ठीक से देखा नहीं।” ममा अन्तर्मुख-सी बोलीं।” दूर से तो लगा था सुन्दर है...।” 

" तभी...!” शब्द पर अपनी अठारह साल की परिपक्वता का इतना बोझ मैंने लाद दिया कि ममा उस मनःस्थिति में भी मुस्करा दीं। 

दो साल उसका पत्र नहीं आया। ममा ने भी उसे नहीं लिखा। उस बार मिलने के बाद उसका मन खिंच-सा गया। बातें कभी कर लेंती, मगर ज़िद के साथ कहतीं कि पत्र नहीं लिखेंगी। बीरे मज़ाक में कह देता, ” सुभाष की चिट्ठी आई है!” ममा जानते हुए भी अविश्वास न कर पातीं। पूछ लेतीं, ”सचमुच आई है?” मैं उलझती कि वे क्यों नहीं समझतीं कि बीरे झूठ बोलता है। ममा छिली-सी हो रहतीं। अकेले में मुझसे कहतीं, ” जाने उसे क्या हो गया है। यही मनाती हूँ खुश हो, खुश रहे। उस दिन ठीक से बात कर लेता, तो इतनी चिन्ता न होती...” 

मैं सिर हिलाती और तीलियाँ गिनती रहती। उन दिनों आदत—सी हो गई थी। जब भी ममा के पास बैठती, माचिस खोल लेती और तीलियाँ गिनने लगती। 



उस दिन कोई बाहर से आए थे। ममा और डैडी को तब से जानते थे, जब वे स्यालकोट में थे। एक ही गली में शायद सब लोग साथ रहते थे। यहाँ अपनी एजेन्सी देखने आए थे। डैडी को पता चला तो घर खाने पर बुला लाए। कुछ काम भी था शायद उनसे। ममा इससे खुश नहीं थीं। स्यालकोट में शायद वे उतने बड़े आदमी नहीं थे। ममा उन दिनों की नज़र से ही उन्हें देखती थीं। 

वे आए और काफी देर बैठे रहे। बहुत दिनों बाद डैडी ने उस दिन व्हिस्की पी। खूब घुल मिलकर बातें करते रहे। पहले कमरे में दोनों अकेले थे, फिर उन्होंने ममा को भी बुला लिया। 

ममा पत्थर की मूर्ति—सी बीच में जा बैठीं। पानी या पापड़ देने के लिए मैं बीच-बीच में अन्दर जाती थी। मुझे देखकर उन्होंने कहा, ”यह बिल्कुल वैसी नहीं लगती जैसी उन दिनों कुन्तल लगा करती थी? इतने साल बीत न गए होते, और मैं बाहर कहीं इसे देखता तो यही सोचता कि...” 

मुझे अच्छा लगा। ममा उन दिनों की अपनी तस्वीरों में बहुत सुन्दर लगती थीं। मैं ममा से कहा भी करती थी। मैं भी उन जैसी लगती हूँ, पहले यह मुझसे किसी ने नहीं कहा था। 

एक बार अन्दर गई तो वे कहीं डॉक्टर शम्भुनाथ का ज़िक्र कर रहे थे। कह रहे थे, “पार्टीशन में डॉक्टर शम्भुनाथ का सारा ख़ानदान ही तबाह हो गया — एक लड़के को छोड़कर! जिस दिन एक मुसलमान ने केस देखकर लौटते हुए डॉक्टर शम्भुनाथ को छुरा घोंपकर मारा...।” 

ममा किननी को सुलाने के बहाने उठ आईं। किननी पहले से सो गई थी। मगर ममा लौटकर नहीं गईं। गुमसुम—सी चारपाई की पायती पर बैठी रहीं। मैंने पास जाकर कहा, “ ममा!” तो ऐसे चौंक गईं जैसे अचानक कील पर पैर रखा गया हो। 

खाने के वक्त फिर वही ज़िक्र उठ आया। वे कह रहे थे, ” शम्भुनाथ का लड़का भी ख़ास तरक्की नहीं कर सका। बीवी के मरने के बाद शम्भुनाथ ने किस तरह उसे पाला था! कैसा लाल और गलगोदना बच्चा था। इधर उसका भी एक एक्सीडेंट हो गया है...।” 

" सुभाष का एक्सीडेंट हुआ है?” ममा, जो बात को अनसुनी कर रही थीं, सहसा बोल उठीं। डैडी ने ख़ाली डोंगा मुझे दे दिया कि और मीट ले आऊँ। उनके चेहरे से मुझे लगा जैसे यह बात पूछकर ममा ने कोई अपराध किया हो। 

मीट लेकर गई, तो ममा रुआंसी हो रही थीं। वह सज्जन बता रहे थे, ”... सुना है घर में कुछ ऐसा ही सिलसिला चल रहा था। असलियत क्या है, क्या नहीं, यह कैसे कहा जा सकता है? लोग कई तरह की बातें करते हैं। पर उसके एक ख़ास दोस्त ने मुझे बताया है कि वह जान—बूझकर ही चलती मोटर के सामने...” 

डैडी ने मुझे फिर किचन में भेज दिया। इस बार मेज़ पर चावल और चपातियों की ज़रूरत थी। वापस पहुँची तो डैडी को कहते सुना, ”आई आलवेज़ थाट द बाय हैड सुइसाइडल टेंडेंसीज़!” 

सुभाष का नया पता ममा ने उन्हीं से लिया था। डैडी कई दिन बिना वजह ममा पर बिगड़ते रहे। ख़ुद ही किसी तरह बात में डॉक्टर शम्भुनाथ का ज़िक्र ले आते, भरी नज़र से ममा की तरफ़ देखते, और फिर बिना बात उन पर बिगड़ने लगते। बिगड़ते पहले भी थे, मगर इतना नहीं। ममा चुपचाप उनकी डाँट सुन लेतीं, उनसे बहस न करतीं। बहस करना उन्होंने लगभग छोड़ दिया था। कड़ी-से-कड़ी बात दम साधकर सुन लेतीं और काम में लग जातीं। कोई काम डैडी की मर्जी के ख़िलाफ़ करना होता, तो उसके लिए भी बहस न करतीं, चुपचाप कर डालतीं। डैडी से कुछ कहने या चाहने में जैसा अपने—आप उन्हें छोटा लगता था। घर के खर्च तक के लिए कहने में भी। डैडी अपने—आप जो दे दें, दे दें। कम पड़ता, तो कुनमुना लेतीं, या मुझसे कह लेतीं। मगर मुझे भी डैडी से माँगने न देतीं। 

सुभाष को उन्होंने पत्र खुद नहीं लिखा, मुझसे लिखाया। जो कुछ लिखना था, वह मुझे बता दिया; मेरे लिखे को सुधार भी दिया। आशय इतना ही था कि हम एक्सीडेंट की ख़बर पाकर चिन्तित हैं। चाहते हैं कि एक बार वह आकर मिल जाए। पत्र पूरा करके मैंने ममा से पूछा, ” ममी, तुम ख़ुद क्यों नहीं देखने चली जातीं?” 

ममा ने सिर हिला दिया। सिर हिलाने से पहले एक बार डैडी के कमरे की तरफ़ देख लिया। डैडी किसी से बात कर रहे थे। ”आना होगा, आ जाएगा।” ममा ने कुछ तटस्थता और अन्यमनस्कता के साथ कहा। शायद उन दिनों हाथ—ज़्यादा तंग था, इसलिए घर का ख़र्च वे बहुत जुगत से चला रही थीं। उन्हीं दिनों शोभा की शादी में जाना था। उसके लिए भी पैसे की ज़रूरत थी। 

जवाब में चिट्ठी जल्दी ही आ गई। मेरे नाम थी। पहली चिट्ठी जो किसी अपरिचित ने मेरे नाम लिखी थी। लिखा था— फ़रवरी के अन्त में आएगा।” और मुझे —ब्राउन कैट, तू इतनी बड़ी हो गई कि अंग्रेज़ी में चिट्ठी लिखने लगी? 

ब्राउन कैट वह तब भी मुझे कहा करता था, ममा बताती थीं। बिल्ली की तरह ही गोद में लिटाए, सिर और पीठ पर हाथ फेरता था। मैं ख़ामोश लड़की थी। दम घुटने को आ जाता, तो भी विरोध नहीं करती थी। किन्नी बहुत ज़िद करती है, मैं नहीं करती थी। ज़रा-सी बात हो, वह चीख़-चीख़कर सारा घर सिर पर उठा लेती है। आठ साल की होकर भी ऐसी है। ममा कहती हैं कि यह उनकी अपनी ज़रूरत है। और कोई छोटा बच्चा नहीं है। एक वही है, जिससे वे जी बहला सकती हैं। मुझे अच्छा नहीं लगता। किन्नी डॉल की तरह प्यारी लगती है। फिर भी सोचती हूँ बड़ी होकर भी डॉल बनी रही तो? कान्वेंट में एक ऐसी लड़की हमारे साथ पढ़ती थी। नाम भी था, डॉली। उसकी आदतों से सबको चिढ़ होती थी, मुझे ख़ासतौर से। अच्छे-भले हाथ-पैर तन्दुरुस्त शरीर, और घूम रहे हैं डॉल बने। छिः! 

पर ममा नहीं मानतीं। बहस करने लगती हैं। मन में शायद यह सोचती हैं कि मैं किन्नी से ईर्ष्या करती हूँ — मैं भी और बीरे भी। क्योंकि बीरे किन्नी के गाल मसलकर उसे रुला देता है। इसकी कॉपियाँ-पेंसिलें छीनकर छिपा देता है। मैं उसे बिना नहाए नाश्ता नहीं देती। अपने से कँघी करने को कहती हूँ ममा ताना दे देती हैं, तो बुरा लगता है। कई बार वे कह देती हैं, “ तुम लोगों के वक्त हालात अच्छे थे। तुम्हें कान्वेंट में पढ़ा दिया, सब कुछ कर दिया, इस बेचारी के लिए क्या कर पाती हूँ?” मन में खीझ उठती है, पर चुप रह जाती हूँ। कई बार बात ज़बान तक आकर लौट जाती है। मैं जो एम.ए. करना चाहती थी, वह? डरती हूँ, ममा रोने लगेंगी। दिन में किसी-न-किसी से कोई ऐसी बात हो जाती है जिससे वे रो देती हैं। मैं जान बूझकर कारण नहीं बनना चाहती। 



सुभाष की गाड़ी रात को देर से पहुँची। बीरे लाने के लिए स्टेशन पर गया था। हम लोगों ने उम्मीद लगभग छोड़ दी थी। दो बार उसने प्रोग्राम बदला था। हम लोग घर की सफ़ाइयाँ कर रहे होते कि तार आ जाता: चार दिन के लिए अम्बाला चला आया हूँ, हफ्ते तक आऊँगा। फिर, काम से दिल्ली रुकना है, दूसरा तार दूंगा मुझे बहुत उलझन होती, गुस्सा भी आता। 

उससे ज़्यादा अपने पर और ममा पर। शोभा की शादी के बाद हम लोग एक दिन भी वहाँ नहीं रुकी, पहली गाड़ी से चली आईं। आकर कमरे ठीक करने में बाँहें दुखाती रहीं और आप हैं कि अम्बाला जा रहे हैं, दिल्ली रुक रहे हैं। उस दिन तार मिला, “पंजाब मेल से आ रहा हूँ।” मैंने ममा से कह दिया कि मैं घर ठीक नहीं करूँगी। मेरी तरफ़ से कोई आए, न आए। बीरे कह रहा था, ”ज़रूरत भी नहीं है। अभी दूसरा तार आ जाएगा।” दूसरा तार तो नहीं आया पर बीरे को एक बार स्टेशन जाकर लौटना ज़रूर पड़ा। पंजाब मेल उस दिन छह घंटे लेट थी। 
ममा को बुरा न लगे इसलिए घर मैंने ठीक कर दिया। मगर ख़ुद सोने चली गई। डैडी भी अपने कमरे में जाकर सो गए थे। ममा किन्नी को, जो पाँच साल के बच्चों की तरह रोती रूठती है, उससे लाड़ करतीं, मनातीं सुलाकर मेरे पास आकर लेट गईं, शायद मुझे जगाए रखने के लिए। मैं कुनमुनाकर कहती रही कि ममी, अब सो जाने दो, हालाँकि नींद आई नहीं थी। ममा ने बहुत दिनों बाद बच्चों की तरह मुझे दुलारा। मेरे गाल चूमती रहीं। मुँह में कितना कुछ बुदबुदाती रही - ”मेरी रानी बच्ची... अच्छी बच्ची!” मुझे गुदगुदी-सी लगी और मैं उठकर बैठ गई। कहा, ”क्या कर रही हो, ममी?” ममा ने जैसे सुना नहीं। आँखें मूंदकर पड़ी रहीं। केवल एक उसाँस उनके मुँह से निकल पड़ी। 

घोड़े की टापों और घुंघरुओं की आवाज़ से ही मुझे लग गया था कि वह ताँगा सुभाष को लेकर आ रहा है। और कई ताँगे सड़क से गुज़रे थे, मगर उनकी आवाज़ से ऐसा नहीं लगा था। शायद इसलिए कि आवाज़ सुनाई तब दी जब सचमुच आँखों में नींद भर आई थी। आँखें खोलकर सचेत हुए, तो बीरे दरवाज़ा खटखटा रहा था। वह साइकिल से आया था। ममा जल्दी से उठकर दरवाज़ा खोलने चली गईं। 

अजीब-सा लग रहा था मुझे। बैठक में जाने से पहले कुछ परदे के पीछे रुकी रही। जैसे ऊँचे पुल से दरिया में डाइव करना हो। कान्वेंट के दिनों में बहुत बोल्ड थी। किसी के भी सामने बेझिझक चली जाती थी। हरेक से बेझिझक बात कर लेती थी। संकोच में दिखावट लगती थी। मगर उस समय न जाने क्यों मन में संकोच भर आया। 

संकोच शायद अपनी कल्पना का था। उस नाम के एक आदमी को पहले से जान रखा था — सुनी-सुनाई बातों से। कितने ही क्षण उस आदमी के साथ जिये भी थे — ममा की डबडबाई आँखों को देखते हुए। उसकी एक तस्वीर मन में बनी थी, जो डर था कि अब टूटने जा रही है। कोई भी आदमी क्या वैसा हो सकता है जैसा हम सोचकर उसे जानते हैं? वैसा होता, तो परदा उठाने पर मैं एक लम्बे आदमी को सामने देखती, जिसके बाल बिखरे होते, दाढ़ी बढ़ी होती और मुझे देखते ही कहता, ” ब्राउन कैट, तू तो अब सचमुच लड़की नज़र आने लगी।” 

मगर जिसे देख, वह मँझले कद का गोरा आदमी था। इस तरह खड़ा था, जैसे कठघरे में बयान देने आया हो। माथे पर घाव का गहरा निशान था। कमीज़ का कालर नीचे से उधड़ा था जिसे वह उसे हाथ से पकड़े था। डैडी से कह रहा था, ”मैंने नहीं सोचा था गाड़ी इतनी देर से पहुंचेगी। ऐसे ग़लत वक्त आकर आप सबकी नींद ख़राब की...।” 

मैंने हाथ जोड़े, तो परेशान—सी मुस्कुराहट के साथ उसने सिर हिला दिया। मुँह से कुछ नहीं कहा। पूछा भी नहीं, यह नीरू है? 

आधी रात बिना सोए निकल गई। डैडी भी ड्रेसिंग गाउन में सिकुड़कर बैठे रहे। मैंने दो बार कॉफी बनाकर दी। बीरे किचन मे आकर मुझसे कहता, ”एक प्याले में नमक डाल दे। मीठी कॉफी ऐसे आदमी को अच्छी नहीं लगती।” 

"तूने तो सारी ज़िन्दगी ऐसे आदमियों के साथ गुज़ारी है न!” मैं उसे हटाती कि भाप उसकी या मेरी उँगलियों से न छु जाए। 

"सारी न सही, तुझसे तो ज़्यादा गुज़ारी है” वह उँगली से मेरे केतली वाले हाथ पर गुदगुदी करने लगता। ”स्टेशन से अकेला साथ आया हूँ।” 

"हट जा, केतली गिर जाएगी!” मैं उसे झिड़क देती। बीरे मुँह बनाकर उस कमरे में चला जाता। कहता, ”देखिए साहब, और बातें बाद में कीजिएगा, पहले इस लड़की को थोड़ी तमीज़ सिखाइए। बड़े भाई की यह इज़्ज़त करना नहीं जानती। इससे साल—भर बड़ा हूँ, मगर मुझे ऐसे झिड़क देती है जैसे अभी सेकेन्ड स्टैंडर्ड में पढ़ता हूँ। कह रही थी कि आप कॉफी में चीनी की जगह नमक लेते हैं। मैंने मना किया तो मुझ पर बिगड़ने लगी।” 

बीरे न होता, तो शायद वह बिल्कुल ही न खुल पाता। कभी बीरे अपने कॉलेज का कोई किस्सा सुनाने लगता, कभी बताने लगता कि उसने स्टेशन पर उसे कैसे पहचाना। ये गाड़ी से उतरकर इधर-उधर देख रहे हैं और मैं बिल्कुल इनके पास खड़ा मुस्करा रहा हूँ। देख रहा हूँ कि कब ये निराश होकर चलने को हों, तो इनसे बात करूँ। ये और सब लोगों को तलाशती आँखों से देखते हैं, मुझे ही नहीं देखते जो इनके पास इनसे सटकर खड़ा हूँ। मैं इनके उतरने से पहले से जानता हूँ कि जिसे रिसीव करने आया हूँ, वह यही परेशान-हाल आदमी है...।” 

ममा टोकती कि वह किसी और को भी बात करने दे। मगर बीरे अपनी बात किए जाता। हम सब हँसने लगते, मगर सुभाष गम्भीर बना रहता। थोड़ा मुस्करा देता, बस। कभी मुझे लगता कि वह बन रहा है। मगर उसकी आँखों से देखती, तो लगता कि कहीं गहरे में डूबा है, जहाँ से उबर नहीं पा रहा। उसका हाथ बार-बार उधड़े कालर को ढकने के लिए उठ जाता। 

" कमीज़ सुबह नीरू को देना, कालर सी देगी।” ममा ने कहा तो वह सकुचा गया। पहली बार आँख भरकर उसने मुझे देखा। फिर उसने उधड़े कालर को ढकने की कोशिश नहीं की। 

हैरान थी कि सबसे ज़्यादा बातें डैडी ने की। उन्होंने ही उससे सब कुछ पूछा। एक्सीडेंट कैसे हुआ? अस्पताल में कितने दिन रहना पड़ा? ज़ख़्म कहाँ-कहाँ हैं? कोई गहरी चोट तो नहीं? वे आजकल कहाँ हैं? मैरिड लाइफ़ कैसे चल रही है? ममा को अच्छा लगा कि यह सब उन्हें नहीं पूछना पड़ा। उन्हें बल्कि डर था कि डैडी इस बार ज़्यादा बात नहीं करेंगे। दो मिनट इधर-उधर की बातें करके उठ जाएँगे। फिर सुबह पूछ लेंगे, नाश्ता कमरे में करना चाहोगे, या बाहर मेज़ पर? 

उसे भी शायद डैडी से ही बात करना अच्छा लग रहा था। हम सबकी तरफ़ से एक तरह से उदासीन था। हममें से कोई बात करे, तभी उनकी तरफ़ देखता था। मैं देख रही थी कि ममा एकटक उसे ताक रही हैं, जैसे आँखों से ही उसके माथे के ज़ख़्म को सहला देना चाहती हों। बीच में वे उठीं और साथ के कमरे से अपना शॉल ले आईं। बोली, ”ठण्ड है, ओढ़ लो। ओढ़कर बात करते रहो।” 

उसने शाल भी बिना कुछ कहे ओढ़ लिया और गुड्डा-सा बना बैठा रहा। डैडी जो कुछ पूछते रहे, उसका जवाब देता रहा। ड्राइवर अच्छा था... शायद ब्रेक भी काफी अच्छी थी... ज्यादा चोट नहीं आई। मडगार्ड से टक्कर लगी, पहिया ऊपर नहीं आया... दस दिन में ज़ख़्म भर गए। बाएँ हाथ की कुहनी ठीक से नहीं उठती... डॉक्टरों का कहना है, उसमें पाँच—छह महीने लगेंगे। उसके बाद भी पूरी तरह शायद ही ठीक हो। 

मुझे तब लग रहा था कि वह अन्दर ही कहीं डूबा है। उसके होंठ रह-रह कर किसी और ही विचार से काँप जाते हैं। मन हो रहा था, उससे वे सब बातें न पूछी जाएँ, उसे चुपचाप सो जाने दिया जाए। उसका बिस्तर बिछा था, उसी पर वह बैठा था। सहसा मुझे लगा कि तकिये का ग़िलाफ़ ठीक नहीं है, बीच से सिला हुआ है। चढ़ाते वक्त ध्यान नहीं गया था। मैं चुपचाप तकिया उठाकर ग़िलाफ़ बदलने लग गई। 

दूसरा धुला हुआ ग़िलाफ़ नहीं मिला। सारे ख़ाने, टंक छान डाले। एक कोरा ग़िलाफ़ था, कढ़ा हुआ। उन दिनों का जब मैं नई-नई कढ़ाई सीखने लगी थी। आख़िर वही चढ़ाकर तकिया बाहर ले आई। 

आकर देखा, तो उसका चेहरा बदला हुआ लगा। माथे पर शिकन थी और सिगरेट के छोटे—से टुकड़े से वह जल्दी-जल्दी कश खींच रहा था। 

ममा का चेहरा फक् हो रहा था। डैडी बहुत गम्भीर होकर सुन रहे थे। वह एक—एक शब्द को जैसा चबा रहा था, 
”... नहीं तो... नहीं तो मेरे हाथों उसकी हत्या हो जाती... यह नहीं कि मैं समझता नहीं था... उसने मुझसे कह दिया होता, तो दूसरी बात थी... हर इनसान को अपनी ज़िन्दगी चुनने का अधिकार है... मगर इस तरह... मुझे उससे ज़्यादा अपने से नफ़रत हो रही थी...।” 

ममा ने गहरी नज़र से मुझे देखा कि मैं वहाँ से चली जाऊँ। मगर मैं अनबूझ बनी रही, जैसे इशारा समझा ही न हो। पैरों में चुनचुनाहट हो रही थी। मन हो रहा था कि उन्हें दरी से खुजलाने लगूं। पुलोवर के नीचे बग़लों में पसीना आ रहा था। 

कमरे में ख़ामोशी छा गई। बीरे ऐसे आँखें झपक रहा था जैसे अचानक उन पर तेज़ रोशनी आ पड़ी हो। उसके होंठ खुले थे। डैडी ड्रेसिंग गाउन के अन्दर से अपनी बाँह को सहला रहे थे। ममा काले शॉल में ऐसे आगे को झुक गई थीं जैसे कभी-कभी ट्यूमर के दर्द के मारे झुक जाया करती थीं। 

बाहर भी ख़ामोशी थी। खिड़की के सींखचों में से आती हवा परदे में से झाँककर लौट जाती थी। 

तभी डैडी ने घड़ी की तरफ़ देखा और उठ खड़े हुए। ”अब सो जाना चाहिए”, उन्होंने कहा, ”तीन बज रहे हैं।” 

सुबह जो चेहरा देखा, उसने मुझे और चौंका दिया। बढ़ी हुई दाढ़ी, पहले से साँवला पड़ा रंग... एक हाथ से अपने घुँघराले बालों की गाँठं सुलझाता हुआ वह अख़बार पढ़ रहा था। 

"आपके लिए चाय ले आऊँ?” पहली बार मैंने उससे सीधे कुछ पूछा। 

"हाँ—हाँ।” उसने कहा और अख़बार से नज़र उठाकर मेरी तरफ़ देखा। मैं कई क्षण उसकी आँखों का सामना किए रही। विश्वास नहीं था कि वह दूसरी बार इस तरह मेरी तरफ़ देखेगा। 

"रात को हम लोगों ने ख़ामख़्वाह आपको जगाए रखा!” मैंने कहा। ”आज रात को ठीक से सोइएगा।” 

उसके होंठों पर ऐसी मुस्कुराहट आई जैसे उससे मज़ाक किया गया हो। ”गाड़ी में खूब गहरी नींद आती है।” उसने कहा।

"आप आज चले जाएँगे?” 

उसने सिर हिलाया। ”एक दिन के लिए भी मुश्किल से आ पाया हूँ।” 

"वहाँ ज़रूरी काम है?” 

"बहुत ज़रूरी नहीं, लेकिन काम है। पहली नौकरी छोड़ दी है, दूसरी के लिए कोशिश करनी है।” 

"एक दिन बाद जाकर कोशिश नहीं की जा सकती?” एकाएक मुझे लगा कि मैं यह सब क्यों कह रही हूँ। डैडी सुनेंगे, तो क्या सोचेंगे? 

"परसों एक जगह इंटरव्यू है।” उसने कहा। 

"वह तो परसों है न! कल तो नहीं...।" और मैं बाहर चली आई। उसकी आँखों में और देखने का साहस नहीं हुआ। 

वह बात भी उसने कही जो मैंने चाहा था वह कहे। दोपहर को खाने के बाद किन्नी को गोद में लिए हुए उसने कहा, ”उन दिनों नीरू इससे छोटी थी, नहीं? बिल्कुल ब्राउन कैट लगती थी! ऐसे ख़ामोश रहती थी जैसे मुँह में ज़बान ही न हो।” 

"मैं भी तो ख़ामोश रहती हूँ!” किन्नी मचल उठी। ”मैं कहाँ बोलती हूँ?” 

उसने किननी को पेट के बल गोद में लिटा दिया और उसकी पीठ थपथपाने लगा। मैंने सोचा था, किन्नी इस पर शोर मचाएगी, हाथ-पैर पटकेगी। मगर वह बिल्कुल गुमसुम होकर पड़ी रही। मैं देखती रही कि कैसे उसके हाथ पीठ को थपथपाते हुए ऊपर जाते हैं, फिर नीचे आते हैं, कमर के पास हल्की—सी गुदगुदी करते हैं, और कूल्हे पर चपत लगाकर फिर सिर की तरफ़ लौट जाते हैं। हममें से कोई किन्नी से इस तरह प्यार करता, तो वह उसे नोचने को हो आती। सुभाष के हाथ रुके, तो उसने झुककर किन्नी के बालों को चूम लिया। कहा, “सचमुच तू बहुत ख़ामोश लड़की है!” किन्नी उसी तरह पड़ी-पड़ी हँसी। और भी कितनी देर वह उसकी पीठ सहलाता रहा। बीच-बीच में उसकी आँखें मुझसे मिल जातीं। मुझे लगता, जैसे वह दूर कहीं बियावान में देख रहा हो। मुझे अपना—आप भी अपने से दूर बियावान में खोया—सा लगता। यह भी लगता कि मैं आँखों से कह रही हूँ कि जिसे तुम सहला रहे हो, वह ब्राउन कैट नहीं है। ब्राउन कैट मैं हूँ...! 

डैडी दिन—भर घर में रहे, काम पर नहीं गए। इस कमरे से उस कमरे में, उस कमरे से इस कमरे में आते—जाते रहे। बहुत दिनों से उन्होने सिगार पीना छोड़ रखा था, उस दिन पुराने डिब्बे में से सिगार निकालकर पीते रहे। दो-एक बार उन्होंने उससे बात चलाने की कोशिश भी की। ”जहाँ तक जीने का प्रश्न है...” मगर बात आगे नहीं बढ़ी। उसने जैसे कुछ और सोचते हुए उनकी बात का समर्थन कर दिया। डैडी ने हरेक से एक—एक बार कहा, ”आज सिगार पी रहा हूँ, तो अच्छा लग रहा है। मुझे इसका टेस्ट ही भूल गया था!” शाम को बीरे उसे घुमाने ले गया। ममा उस वक्त मन्दिर जा रही थीं। मैं भी उन लोगों के साथ बाहर निकली। रोज़ बीरे और मैं घूमने जाते हैं, सोचा आज भी साथ जाऊँगी। डैडी सिगार के धुएँ में घिरे बैठक में अकेले बैठे थे। मुझे बाहर निकलते देखकर बोले, ”तू भी जा रही है नीरू?” मेरी ज़बान अटक गई। किसी तरह कहा, ”ममा के साथ मन्दिर जा रही हूँ।” अहाते से बाहर आकर ममा के साथ ही मुड़ भी गई। रास्ते भर सोचती रही, क्यों नहीं कह सकी कि बीरे के साथ घूमने जा रही हूँ? कह देती तो डैडी जाने से मना कर देते? 

बीरे लौटकर आया, तो बहुत उत्साहित था। कह रहा था, ”मैं आपको पढ़ने के लिए भेजूंगा, आप पढ़कर लौटा दीजिएगा। बट इट इज़ एंटायरली बिटवीन यू एण्ड मी!” दोनों बैठक में थे। मेरे आते ही बीरे चुप कर गया, जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो। फिर मुझसे बोला, ”तेरे लिए, नीरू, आज एक बाल पाइंट देखकर आया हूँ। तू कितने दिनों से कह रही थी। कल जाऊँगा तो लेता आऊँगा। या तू मेरे साथ चलना।” 

सोचा, यह मुझे रिश्वत दे रहा है... पर किस बात की? 

बीरे अपना माउथ आर्गन ले आया। एक के बाद एक धुन बजाने लगा। ”दिस इज़ माई फ्रेंड्स फ़ेवरिट...” एक धुन सुना चुकने के बाद उसने कहा। पर सुभाष उस वक्त मेरी तरफ़ देख रहा था। 

" आप समझ रहे हैं न?” बीरे को लगा, सुभाष ने उसका मतलब नहीं समझा, ” वही फ्रेंड, जिसका मैंने ज़िक्र किया था। माई ओनली फ्रेंड!” 

मैं चाह रही थी कि कोई और भी उससे कहे कि वह एक दिन और रुक जाए। मगर किसी ने नहीं कहा, ममा ने भी नहीं। मन्दिर से आकर शायद डैडी से उनकी कुछ बात हो गई थी। मैं उस वक्त रात के लिए कतलियाँ बना रही थी। सब लोग कहते थे कि मैं कतलियाँ अच्छी बनाती हूँ। पर मुझे लग रहा था कि आज अच्छी नहीं बनेंगी। जल जाएँगी, या कच्ची रह जाएँगी। तभी ममा डैडी के पास से उठकर आईं। नल के पास जाकर उन्होंने मुँह धोया। एक घुट पानी पिया और तौलिया ढूँढ़ती चली गईं। 

खाना खिलाते हुए मैंने उससे पूछा, ” कतलियाँ अच्छी बनी हैं?” 

वह चौंक गया, उसी तरह जैसे ममा बताती थीं। आधी खाई कतली प्लेट से उठाता हुआ बोला, ”अभी बताता हूँ...।" 

खाना खाने के बाद वह सामान बाँधने लगा। सूटकेस में चीजें भर रहा था, तो मैं पास चली गई। ”मुझे बता दीजिए, मैं रख देती हूँ” मैने कहा। 

" हाँ... अच्छा।” कहकर वह सूटकेस के पास से हट गया। 

" कैसे रखना है, बता दीजिए।” 

" कैसे भी रख दो। एक बार कुछ निकालूँगा, तो सब कुछ फिर उलझ जाएगा।” 

"मैंने सुबह कुछ बात कही थी...” मेरी आवाज़ सहसा बैठी गई। 

" क्या बात?” 

" रुकने की बात।” 

" हाँ, रुक जाता, मगर...।” 

बीरे नींबू उछालता हुआ आ गया।” आप कह रहे थे जी घबरा रहा है।” वह बोला, ” यह नींबू ले लीजिए। रास्ते में काम आएगा। एक काग़ज़ में नमक-मिर्च भी आपको दे देता हूँ। इस लड़की के हाथ का खाना खाकर आदमी की तबीयत वैसे ही ख़राब हो जाती है!” 

मैं चुपचाप चीज़े सूटकेस में भरती रही। वह बीरे के साथ डैडी के कमरे में चला गया। 

उसने चलने की बात कही, तो मुझे लगा जैसे कपड़े उतारकर किसी ने मुझे ठंडे पानी में धकेल दिया हो। डैडी सिगार का टुकड़ा प्याली में बुझा रहे थे। वह डैडी के पास चारपाई पर बैठा था। ममा, बीरे और मैं सामने कुर्सियों पर थे। किन्नी कुछ देर रोकर डैडी की चारपाई पर ही सो गई थी। सोने से पहले चिल्ला रही थी, ”हम फिर शोभा जिज्जी की शादी में जाएँगे! हमें वहाँ से जल्दी क्यों ले आई थीं? वहाँ हम पप्पू के पास खेलते थे। यहाँ सब लोग बातें करते हैं, हम किसके साथ खेलें?” 

सोई हुई किन्नी प्यारी लग रही थी। मैं सोचने लगी — जब मैं उतनी बड़ी थी, तब मैं कैसी लगती थी? 

वह चलने के लिए उठ खड़ा हुआ। उठते हुए उसने किन्नी के बालों को सहला दिया। फिर एक बार भरी—भरी नज़र से मुझे देख लिया। मुझे लगा, मैं नहीं, मेरे अन्दर कोई और चीज़ है जो सिहर गई है। 

ताँगा खड़ा था। बीरे पहले से ले आया था। हम सब निकलकर अहाते में आ गए। बीरे ने साइकिल सँभाल ली। 

"इंटरव्यू का पता देना” वह तांगे की पिछली सीट पर बैठ गया, तो ममा ने कहा। उसने सिर हिलाया और हाथ जोड़ दिए। 

मैं हाथ नहीं जोड़ सकी। चुपचाप उसे देखती रही। ताँगा मोड़ पर पहुँचा तो लगा कि उसने फिर एक बार उसी नज़र से मुझे देखा है। 

ममा आदत से मजबूर अपने आँसू पोंछ रही थीं। डैडी अन्दर चले गए थे। मैं कमरे में पहुँची, तो लगा जैसे अब तक घर के अन्दर थी — अब घर से बाहर चली गई हूँ। 



रात को ममा फिर मेरे पास आ लेटीं। मुझे उन्होंने बाँहों में ले लिया। मैं सोच रही थी कि उसे गाड़ी में सोने की जगह मिली होगी या नहीं, और मिली होगी, तो वह सो गया होगा या नहीं? न जाने क्यों, मुझे लग रहा था कि उसे नींद कभी नहीं आती। शरीर नींद से पथरा जाता है, तब भी उसकी आँखें खुली रहती हैं और अँधेरे की परतों में कुछ खोजती रहती हैं। 

ममा मुझे प्यार कर रही थीं। पर उनकी आँखें भीगी थीं। ”ममी, रो क्यों रही हो?” मैंने बड़ों की तरह पुचकारा।” तुम्हें खुश होना चाहिए कि ऐक्सीडेंट उतना बुरा नहीं हुआ। दुनिया में एक औरत ऐसी निकल आई तो...” 

ममा का रोना और बढ़ गया। मुझे भ्रम हुआ कि शायद मैं रो रही हूँ और ममा चुप करा रही हैं। मैंने अपने और उसके शरीर को एक बार छूकर देख लिया। 

" नीरू...” ममा कह रही थी, ”तू मेरी तरह मत होना... तेरी ममा... तेरी ममा...!” 

मैंने उन्हें हिलाया। लगा जैसे उन्हें फिट पड़ा हो। ”ऐसा क्यों कह रही हो, ममी?” मैंने कहा, ” तुम्हारे जैसे दुनिया में कितने लोग हैं? मैं अगर तुम्हारी जैसी हो सकूँ, तो...” ममा ने मेरे मुँह पर हाथ रख दिया, ” न नीरू..." वे बोलीं, ” और जैसी भी होना... अपनी ममा जैसी कभी न होना।” 

मैं ममा के सिर पर थपकियाँ देने लगी। जब उनकी आँख लगी, उनका सिर मेरी बाँह पर था। कम्बल तीन—चौथाई उन पर था, इसलिए मुझे ठंड लग रही थी। बाँह भी सो गई थी। पर मैं बिना हिले-डुले उसी तरह पडी रही। पहली बार मुझे लगा कि अँधेरे की कुछ आवाज़े भी होती हैं। गहरी रात की ख़ामोशी बेजान ख़ामोशी नहीं होती। अपनी सोई हुई बाँह को मैं इस तरह देखती रही जैसे वह मेरे शरीर का हिस्सा न होकर एक अलग प्राणी हो। मन में न जाने क्या—क्या सोचती रही। ममा की आँख में एक आँसू अब भी अटका हुआ था। मैंने दुपट्टे से उसे पोंछ दिया — बहुत हल्के—से, जिससे ममा की आँख न खुल जाए, और उनके सिर पर थपकियाँ देती रही।...

००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

गलत
आपकी सदस्यता सफल हो गई है.

शब्दांकन को अपनी ईमेल / व्हाट्सऐप पर पढ़ने के लिए जुड़ें 

The WHATSAPP field must contain between 6 and 19 digits and include the country code without using +/0 (e.g. 1xxxxxxxxxx for the United States)
?