समीक्षा
हो सकता है कि इस मुद्दे की कोई अंतर्कथा हो, लेकिन उनकी अनुपस्थिति खलती है और यह हिदी साहित्य के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है...
लमही के अमृत राय
अमृत राय का जन्म शताब्दी वर्ष अंततः बीत गया। हिन्दी के साहित्यकार अरण्य रोदन करते रहे कि हिंदी समाज का दुर्भाग्य है कि लोग अमृत राय के प्रति कृतज्ञता स्वरुप कुछ न कर सके। करें भी कैसे? आत्मश्लाघा से फुर्सत नहीं। धड़ेबाज़ी खूब है। अहो रूपम् अहो ध्वनि वातावरण में व्याप्त है। ऐसे में विजय राय ने अमृत राय पर केन्द्रित लमही के अंक का संपादन-प्रकाशन कर सच्ची और मौन श्रद्धांजलि दी है और वह भी इतने समर्पण भाव से कि कई आयोजनों पर भी यह आयोजन भारी पड़े।
इस अंक में पूर्व के विशेषांको की भांति जहाँ हम विजय राय के संपादन का कौशल देखते हैं, वहीं पर अमृत राय और उनके प्रति प्रेम भी देखते हैं। बहुत बड़ा कैनवास है इस अंक का। सब हैं इस अंक में—उनके व्यक्तित्व के कई महत्वपूर्ण पक्षों को उद्भासित करने वाले, उनसे प्रेम करने वाले, उनसे बात करने वाले और रचना-संसार के बारे में लिखने वाले । 325 पृष्ठों का यह विशेषांक और उसमें भी पचास से अधिक शीर्षस्थ रचनाकारों की सहभागिता संपादक के श्रम को तो व्यक्त करती ही है, अमृत राय को एक बड़े और प्रतिभाशाली रचनाकार के रूप में निर्विवाद रूप से स्थापित भी करती है। वे सही मायने में प्रेमचंद के वारिस थे।
इस अंक में समकालीन लेखक तो हैं ही, बहुतायत वे लेखक हैं, जो अब हमारे बीच नहीं हैं। उनकी लिखी सामग्रियों, तमाम दुर्लभ पत्रों व चित्रों को खोज कर, संकलित कर सम्पादित करना अवश्य एक कठिन और श्रमसाध्य कार्य रहा होगा।
सूची बने तो विष्णु खरे, अजित कुमार, विष्णुकांत शास्त्री, दूधनाथ सिंह, रणजीत साहा, शम्भुनाथ, सुधा चौहान, रमेश अनुपम, कुमार वीरेंद्र , राजेश कुमार, शम्भु गुप्त, विश्वनाथ त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, ओम निश्चल, रेखा अवस्थी आदि आदि लोग हैं इस अंक में। लेकिन विष्णु खरे का उन पर लिखा हुआ लेख जो कि 1996 में हंस के सितम्बर अंक में छपा था, उनको और उनके साहित्य-संसार को समझने का एक सम्यक दृष्टि देता है। चंचल चौहान, अमृत राय के ‘स्पार्टाकस’ के अनुवाद और अंगेजी के ‘अ हाउस डिवाइडेड’ के बारे में कहते हैं कि उसे खूब पढ़ा गया। विभूति नारायण राय उन्हें एक जटिल व्यक्तित्व का मालिक मानते हैं। दूधनाथ सिंह उनकी किताब ‘साहित्य में संयुक्त मोर्चा’ को डॉ. रामविलास शर्मा के सारे साहित्य पर भारी मानते हैं।
हरीश त्रिवेदी उन्हें ‘मामा’ के रूप में याद करते हुए उनके जीवन के उन पन्नो को खोलते हैं, जिसे पढना हिदी सहित्य के उस युग और अमृत राय के व्यक्तित्व को पूरी तरह समझना है । वे कहते हैं— ‘उनका हैमलेट का अनुवाद रांगेय राघव और बच्चन के अनुवाद से भी श्रेष्ठ है और उसे सबसे अधिक खेला गया’। उनके इस कथन का मैं भी समर्थक हूँ। नाटक और रंगमंच का विद्यार्थी होने के कारण मैंने भी इस तीनो का अनुवाद पढ़ा है और मुझे भी अमृत राय का अनुवाद सबसे अधिक मंचीय लगता है। राजेंद्र कुमार लिखते हैं कि अमृत राय की रामविलास शर्मा, नामवर सिंह या सरदार जाफरी से भले ही असहमतियां रही हों लेकिन शत्रुता नहीं थी। कुछ लोग असहमति को शत्रुता मान लेते हैं। अगर उनसे शत्रुता होती तो वे राम विलास शर्मा को अपनी पत्रिका में स्थान न देते। सुधा चौहान को पढना अपने आप को उस दुनिया में ले जाना है जो एक पति-पत्नी के विवाह और प्रेम की कथा कहता है। विष्णु कान्त शास्त्री के शब्दों में वे निश्छलता और स्वाभिमान के पर्याय थे।
इसके अलावा इस अंक में अमृत राय के कई साक्षात्कार हैं। जिनमे उनकी कमल गुप्त, अली अहमद फातमी और सदानंद शाही से बातचीत साहित्य, समाज और संस्कृति के कई महत्वपूर्ण पन्नों को खोलता है। वे एक महान अनुवादक भी थे और यहीं कारण है कि उनके अनूदित कामों की गंभीर रूप से इस अंक में चर्चा की गयी है । नरेन्द्र अनिकेत स्पार्टाकस के अनुवाद आदिविद्रोही के माध्यम से व अम्बरीश त्रिपाठी —अनुसृजन के प्रतिमान: अमृत राय, अवनीश राय –अमृतराय का अनूदित जगत जैसे के लेख ये सिद्ध करते हैं कि वे एक विलक्षण अनुवादक भी थे। किसी भी रचनाकार के रचना संसार के बारे में चर्चा हो और उसमें भी में यदि अनुवाद पर गंभीर चर्चा हो तो इससे इस विधा की शक्ति का पता चलता है। उपन्यासों पर हेम राज कौशिक, स्मृति शुक्ल, अनुराधा गुप्त, उन्मेष कुमार सिन्हा, स्नेहा सिंह, धर्मेन्द्र प्रताप सिंह और मुक्त टंडन की विशद समीक्षाएं हैं । अनिल राय की यादें, अमृत राय के नितांत व्यक्तिगत और मानवीय स्वरुप को जानने के लिए एक ज़रूरी संस्मरण है। इस अंक में इसके अलावा और बहुत सी सामग्री है जिसका विवरण इस छोटी टिप्पणी में नहीं दे सकते। हाँ, रंगभूमि में नाटककार राजेश कुमार का उनके नाटकों पर लिखे लेख-रंगमंच की नयी ज़मीन तोड़ते अमृत राय के नाटक पढ़ा जाना बहुत ज़रूरी है।
विजय राय की कर्मस्थली लखनऊ है और उनका एक वृहत साहित्यिक परिवार-मित्र मंडली भी है। लेकिन ये देख कर हैरानी हो रही है कि इस अंक में साहित्य बिरादरी का कोई योगदान नहीं है। एकाध हो सकते हैं। यहाँ शीर्षस्थ आलोचक, कथाकार और रचनाकार बसते हैं। मैं भी उन नामों को ढूँढ़ रहा था कि अंक में वे तो होंगे ही, लेकिन निराश हुआ। हो सकता है कि इस मुद्दे की कोई अंतर्कथा हो, लेकिन उनकी अनुपस्थिति खलती है और यह हिदी साहित्य के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है।
इस अंक को अमृत राय पर केन्द्रित लेख, संस्मरण और साक्षात्कार के धरोहर का अंक कहें तो अतिशयोक्ति न होगा। तमाम उन लोगों का योगदान है जो अब नहीं हैं। उनके लिखे को सहेजना विजय राय जैसे संपादक के बिना संभव न हो पाता। इसमें कोई संशय नहीं कि वे हिंदी साहित्य के उन बड़े संपादकों में से एक हैं, जिनमें दृष्टि है, सौन्दर्य बोध है और वे आग्रह रहित भी हैं।
प्रेमचंद की जीवनी ‘कलम का सिपाही’ लिखकर अमृत राय सभी प्रकार के ऋणों से मुक्त हो गए थे, पितृ-ऋण और गुरु-ऋण दोनों से। तभी तो विष्णु खरे ने कहा था कि प्रेमचंद के विरासत को संभालने, संजोने और संरक्षित रखने के लिए हमें श्रीपत और अमृत राय पर गर्व करना चाहिए। उसी क्रम में मैं भी यह कहना चाहूँगा कि अमृत राय पर इतने श्रम और सम्यक दृष्टि से लमही का विशेषांक निकालने के लिए हमें विजय राय पर गर्व करना चाहिए।
विजय पण्डित
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