head advt

गर्दिश के दिन (आत्मकथ्य) — हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai Vyangya in Hindi

परसाई जी को पढ़ते रहना चाहिए — उनका दर्शन हमारे भीतर बना रहेगा। हरिशंकर परसाई हिंदी साहित्य में व्यंग्य के आधार स्तंभ तो हैं साथ ही, उनके व्यंग्य का अपना एक खूबसूरत साहित्य भी है। और जिस दर्शन की बात मैं कह रहा हूँ वह उनके इसी आत्मकथ्य की इन पंक्तियों से समझें:
मुक्ति अकेले की नहीं होती। अलग से अपना भला नहीं हो सकता। मनुष्य की छटपटाहट मुक्ति के लिये, सुख के लिये, न्याय के लिये। पर यह अकेले नहीं लड़ी जा सकती। अकेले वही सुखी हैं, जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी। 
इनदिनों शब्दांकन के माध्यम से वह साहित्य आपतक लाने कि कोशिश करता हूँ जिसे अपनी समझ ज़रूरी समझता हूँ। आप अपनी राय भी दे सकते हैं। ~ सं० 



गर्दिश के दिन — हरिशंकर परसाई

Harishankar Parsai Vyangya in Hindi

लिखने बैठ गया हूँ पर नहीं जानता संपादक की मंशा क्या है और पाठक क्या चाहते हैं, क्यों आखिर वे उन गर्दिश के दिनों में झांकना चाहते हैं, जो लेखक के अपने हैं और जिन पर वह शायद परदा डाल चुका है। अपने गर्दिश के दिनों को, जो मेरे नामधारी एक आदमी के थे, मैं किस हैसियत से फिर से जीऊँ? — उस आदमी की हैसियत से या लेखक की हैसियत से? लेखक की हैसियत से गर्दिश को फिर से जी लेने और अभिव्यक्ति कर देने में मनुष्य और लेखक, दोनों की मुक्ति है। इसमें मैं कोई भोक्ता और सर्जक की नि:संगता की बात नहीं दुहरा रहा हूँ। पर गर्दिश को फिर याद करने, उसे जीने में दारुण कष्ट है। समय के सींगों को मैंने मोड़ दिया। अब फिर उन सींगों को सीधा करके कहूँ — आ बैल मुझे मार!


गर्दिश कभी थी, अब नहीं है, आगे नहीं होगी — यह गलत है। गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है, मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूँ। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता, इस लिये गर्दिश नियति है। 

हाँ, यादें बहुत हैं। पाठक को शायद इसमें दिलचस्पी हो कि यह जो हरिशंकर परसाई नाम का आदमी है, जो हँसता है, जिसमें मस्ती है, जो ऐसा तीखा है, कटु है — इसकी अपनी जिंदगी कैसी रही? यह कब गिरा, फिर कब उठा? कैसे टूटा? यह निहायत कटु, निर्मम और धोबी पछाड़ आदमी है। 

संयोग कि बचपन की सबसे तीखी याद प्लेग की है। 1936 या 37 होगा। मैं शायद आठवीं का छात्र था। कस्बे में प्लेग पड़ी थी। आबादी घर छोड़ जंगल में टपरे बनाकर रहने चली गयी थी। हम नहीं गये थे। माँ सख्त बीमार थीं। उन्हें लेकर जंगल नहीं जाया जा सकता था। भाँय-भाँय करते पूरे आस-पास में हमारे घर में ही चहल-पहल थी। काली रातें। इनमें हमारे घर जलने वाले कंदील। मुझे इन कंदीलों से डर लगता था। कुत्ते तक बस्ती छोड़ गये थे, रात के सन्नाटे में हमारी आवाजें हमें ही डरावनी लगती थीं। रात को मरणासन्न माँ के सामने हम लोग आरती गाते
ओम जय जगदीश हरे, 
भक्त जनों के संकट पल में दूर करें। 

गाते-गाते पिताजी सिसकने लगते, माँ बिलखकर हम बच्चों को हृदय से चिपटा लेतीं और हम भी रोने लगते। रोज का यह नियम था। फिर रात को पिताजी, चाचा और दो-एक रिश्तेदार लाठी-बल्लम लेकर घर के चारों तरफ घूम-घूमकर पहरा देते। ऐसे भयानक और त्रासदायक वातावरण में एक रात तीसरे पहर माँ की मृत्यु हो गयी। कोलाहल और विलाप शुरू हो गया। कुछ कुत्ते भी सिमटकर आ गये और योग देने लगे। 

पाँच भाई-बहनों में माँ की मृत्यु का अर्थ मैं ही समझता था — सबसे बड़ा था। 

प्लेग की वे रातें मेरे मन में गहरे उतरी हैं। जिस आतंक, अनिश्चय, निराशा और भय के बीच हम जी रहे थे, उसके सही अंकन के लिये बहुत पन्ने चाहिये। यह भी कि पिता के सिवा हम कोई टूटे नहीं थे। वह टूट गये थे। वह इसके बाद भी 5-6 साल जिये, लेकिन लगातार बीमार, हताश, निष्क्रिय और अपने से ही डरते हुये। धंधा ठप्प। जमा-पूँजी खाने लगे। मेरे मैट्रिक पास होने की राह देखी जाने लगी। समझने लगा था कि पिताजी भी अब जाते ही हैं। बीमारी की हालत में उन्होंने एक भाई की शादी कर ही दी थी — बहुत मनहूस उत्सव था वह। मैं बराबर समझ रहा था कि मेरा बोझ कम किया जा रहा है। पर अभी दो छोटी बहनें और एक भाई थे। 

मैं तैयार होने लगा। खूब पढ़ने वाला, खूब खेलने वाला और खूब खाने वाला मैं शुरू से था। पढ़ने और खेलने में मैं सब कुछ भूल जाता था। मैट्रिक हुआ, जंगल विभाग में नौकरी मिली। जंगल में सरकारी टपरे में रहता। ईंटे रखकर, उन पर पटिया जमाकर बिस्तर लगाता, नीचे जमीन चूहों ने पोली कर दी थी। रात भर नीचे चूहे धमाचौकड़ी करते रहते और मैं सोता रहता। कभी चूहे ऊपर आ जाते तो नींद टूट जाती पर मैं फिर सो जाता। छह महीने धमाचौकड़ी करते चूहों पर मैं सोया। 

बेचारा परसाई? 

नहीं, नहीं, मैं खूब मस्त था। दिन-भर काम। शाम को जंगल में घुमाई। फिर हाथ से बनाकर खाया गया भरपेट भोजन शुद्ध घी और दूध!

पर चूहों ने बड़ा उपकार किया। ऐसी आदत डाली कि आगे की जिन्दगी में भी तरह-तरह के चूहों मेरे नीचे ऊधम करते रहे, साँप तक सर्राते रहे, मगर मैं पटिये बिछा कर पटिये पर सोता रहा हूँ। चूहों ने ही नहीं मनुष्यनुमा बिच्छुओं और सापों ने भी मुझे बहुत काटा पर जहरमोहरा मुझे शुरू में ही मिल गया। इसलिये बेचारा परसाई का मौका ही नहीं आने दिया। उसी उम्र से दिखाऊ सहानुभूति से मुझे बेहद नफरत है। अभी भी दिखाऊ सहानुभूति वाले को चाँटा मार देने की इच्छा होती है। जब्त कर जाता हूँ, वरना कई शुभचिन्तक पिट जाते। 

फिर स्कूल मास्टरी। फिर टीचर्स ट्रेनिंग और नौकरी की तलाश — उधर पिताजी मृत्यु के नजदीक। भाई पढ़ाई रोककर उनकी सेवा में। बहनें बड़ी बहन के साथ, हम शिक्षण की शिक्षा ले रहे थे। 


फिर नौकरी की तलाश। एक विद्या मुझे और आ गयी थी — बिना टिकट सफर करना। जबलपुर से इटारसी, टिमरनी, खंडवा, देवास बार-बार चक्कर लगाने पड़ते। पैसे थे नहीं। मैं बिना टिकट बेखटके गाड़ी में बैठ जाता। तरकीबें बचने की बहुत आ गयीं थीं। पकड़ा जाता तो अच्छी अंग्रेजी में अपनी मुसीबत का बखान करता। अंग्रेजी के माध्यम से मुसीबत बाबुओं को प्रभावित कर देती और वे कहते — लेट्स हेल्प दि पुअर ब्वाय। 

दूसरी विद्या सीखी उधार माँगने की। मैं बिल्कुल नि:संकोच भाव से किसी से भी उधार मांग लेता। अभी भी इस विद्या में सिद्ध हूँ। 

तीसरी चीज सीखी — बेफिक्री। जो होना होगा, होगा, क्या होगा? ठीक ही होगा। मेरी एक बुआ थी। गरीब, जिंदगी गर्दिश-भरी, मगर अपार जीव शक्ति थी उसमें। खाना बनने लगता तो उनकी बहू कहती — बाई, न दाल ही है न तरकारी। बुआ कहती — चल चिंता नहीं। राह मोहल्ले में निकलती और जहाँ उसे छप्पर पर सब्जी दिख जाती, वहीं अपनी हमउम्र मालकिन से कहती — ए कौशल्या, तेरी तोरई अच्छी आ गयी है। जरा दो मुझे तोड़ के दे। 

और खुद तोड़ लेती। बहू से कहती — ले बना डाल, जरा पानी जादा डाल देना। मैं यहाँ-वहाँ से मारा हुआ उसके पास जाता तो वह कहती — चल, चिंता नहीं, कुछ खा ले। 

उसका यह वाक्य मेरा आदर्श वाक्य बना — कोई चिन्ता नहीं। 

गर्दिश, फिर गर्दिश!

होशंगाबाद शिक्षा अधिकारी से नौकरी माँगने गये। निराश हुये। स्टेशन पर इटारसी के लिये गाड़ी पकड़ने के लिये बैठा था, पास में एक रुपया था, जो कहीं गिर गया था। इटारसी तो बिना टिकट चला जाता। पर खाऊँ क्या? दूसरे महायुद्ध का जमाना। गाड़ियाँ बहुत लेट होतीं थीं। पेट खाली। पानी से बार-बार भरता। आखिर बेंच पर लेट गया। चौदह घंटे हो गये | एक किसान परिवार पास आकर बैठ गया। टोकरे में अपने खेत के खरबूजे थे। मैं उस वक्त चोरी भी कर सकता था। किसान खरबूजा काटने लगे। मैंने कहा — तुम्हारे ही खेत के होंगे। बड़े अच्छे हैं। किसान ने कहा — सब नर्मदा मैया की किरपा है भैया! शक्कर की तरह हैं। लो खाके देखो। उसने दो बड़ी फांके दीं। मैंने कम-से-कम छिलका छोड़कर खा लिया। पानी पिया। तभी गाड़ी आयी और हम खिड़की में घुस गये। 

नौकरी मिली जबलपुर से सरकारी स्कूल में। किराये तक के पैसे नहीं। अध्यापक महोदय ने दरी में कपड़े बाँधे और बिना टिकट चढ़ गये गाड़ी में। पास में कलेक्टर का खानसामा बैठा था। बातचीत चलने लगी। आदमी मुझे अच्छा लगा। जबलपुर आने लगा तो मैंने उसे अपनी समस्या बताई। उसने कहा-चिन्ता मत करो। सामान मुझे दो। मैं बाहर राह देखूँगा। तुम कहीं पानी पीने के बहाने सींखचों के पास पहुँच जाना। नल सींखचों के पास ही है। वहाँ सींखचों को उखाड़कर निकलने की जगह बनी हुई है। खिसक लेना। मैंने वैसा ही किया। बाहर खानसामा मेरा सामान लिये खड़ा था। मैंने सामान लिया और चल दिया शहर की तरफ। कोई मिल ही जायेगा, जो कुछ दिन पनाह देगा, अनिश्चय में जी लेना मुझे तभी आ गया था। 

पहले दिन जब बाकायदा मास्साब बने तो बहुत अच्छा लगा। पहली तनख्वाह मिली ही थी कि पिताजी की मृत्यु की खबर आ गयी। माँ के बचे जेवर बेचकर पिता का श्राद्ध किया और अध्यापकी के भरोसे बड़ी जिम्मेदारियाँ लेकर जिंदगी के सफर पर निकल पड़े। 

उस अवस्था की इन गर्दिशों के जिक्र मैं आखिर क्यों इस विस्तार से कर गया? गर्दिशें बाद में भी आयीं, अब भी आती हैं, आगे भी आयेंगी, पर उस उम्र की गर्दिशों की अपनी अहमियत है। लेखक की मानसिकता और व्यक्तित्व निर्माण से इनका गहरा सम्बन्ध है। 

मैंने कहा है — मैं बहुत भावुक, संवेदनशील और बेचैन तबीयत का आदमी हूँ। सामान्य स्वभाव का आदमी ठंडे-ठंडे जिम्मेदारियाँ भी निभा लेता, रोते-गाते दुनिया से तालमेल भी बिठा लेता और एक व्यक्तित्वहीन नौकरीपेशा आदमी की तरह जिंदगी साधारण सन्तोष से गुजार लेता। 

मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ, जिम्मेदारियाँ, दुखों की वैसी पृष्ठभूमि और अब चारों तरफ से दुनिया के हमले — इस सब सबके बीच सबसे बड़ा सवाल था अपने व्यक्तित्व और चेतना की रक्षा | तब सोचा नहीं था कि लेखक बनूँगा। पर मैं अपने विशिष्ट व्यक्तित्व की रक्षा तब भी करना चाहता था। 

जिम्मेदारी को गैर- जिम्मेदारी की तरह निभाओ। 

मैंने तय किया — परसाई, डरो मत किसी से। डरे कि मरे। सीने को ऊपर-ऊपर कड़ा कर लो। भीतर तुम जो भी हो। जिम्मेदारी को गैर- जिम्मेदारी की तरह निभाओ। जिम्मेदारी को अगर जिम्मेदारी के साथ निभाओगे तो नष्ट हो जाओगे। और अपने से बाहर निकलकर सब में मिल जाने से व्यक्तित्व और विशिष्टता की हानि नहीं होती। लाभ ही होता है। अपने से बाहर निकलो। देखो, समझो और हँसो। 

मैं डरा नहीं। बेईमानी करने में भी नहीं डरा। लोगों से नहीं डरा तो नौकरियाँ गयीं। लाभ गये, पद गये, इनाम गये। गैर-जिम्मदार इतना कि बहन की शादी करने जा रहा हूँ। रेल में जेब कट गयी, मगर अगले स्टेशन पर पूड़ी-साग खाकर मजे में बैठा हूँ कि चिन्ता नहीं। कुछ हो ही जायेगा। मेहनत और परेशानी जरूर पड़ी यों कि बेहद बिजली-पानी के बीच एक पुजारी के साथ बिजली की चमक से रास्ता खोजते हुये रात-भर में अपनी बड़ी बहन के गाँव पहुँचना और कुछ घंटे रहकर फिर वापसी यात्रा। फिर दौड़-धूप! मगर मदद आ गयी और शादी भी हो गयी। 

इन्हीं परिस्थितियों के बीच मेरे भीतर लेखक कैसे जन्मा, यह सोचता हूँ। पहले अपने दु:खों के प्रति सम्मोहन था। अपने को दुखी मानकर और मनवाकर आदमी राहत पा लेता है। बहुत लोग अपने लिये बेचारा सुनकर सन्तोष का अनुभव करते हैं। मुझे भी पहले ऐसा लगा। पर मैंने देखा, इतने ज्यादा बेचारों में मैं क्या बेचारा! इतने विकट संघर्षों में मेरा क्या संघर्ष!

मेरा अनुमान है कि मैंने लेखन को दुनिया से लड़ने के लिये एक हथियार के रूप में अपनाया होगा। दूसरे, इसी में मैंने अपने व्यक्तित्व की रक्षा का रास्ता देखा। तीसरे, अपने को अवशिष्ट होने से बचाने के लिये मैंने लिखना शुरू कर दिया। यह तब की बात है, मेरा ख्याल है, तब ऐसी ही बात होगी। 

पर जल्दी ही मैं व्यक्तिगत दु:ख के इस सम्मोहन-जाल से निकल गया। मैंने अपने को विस्तार दे दिया। दु:खी और भी हैं। अन्याय पीड़ित और भी हैं। अनगिनत शोषित हैं। मैं उनमें से एक हूँ। पर मेरे हाथ में कलम है और मैं चेतना सम्पन्न हूँ। 

यहीं कहीं व्यंग्य-लेखक का जन्म हुआ। मैंने सोचा होगा — रोना नहीं है, लड़ना है। जो हथियार हाथ में है, उसी से लड़ना है। मैंने तब ढंग से इतिहास, समाज, राजनीति और संस्कृति का अध्ययन शुरू किया। साथ ही एक औघड़ व्यक्तित्व बनाया। और बहुत गम्भीरता से व्यंग्य लिखना शुरू कर दिया। 

मुक्ति अकेले की नहीं होती। अलग से अपना भला नहीं हो सकता। मनुष्य की छटपटाहट मुक्ति के लिये, सुख के लिये, न्याय के लिये। पर यह अकेले नहीं लड़ी जा सकती। अकेले वही सुखी हैं, जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी। उनकी बात अलग है। अनगिनत लोगों को सुखी देखता हूँ और अचरज करता हूँ कि ये सुखी कैसे हैं! न उनके मन में सवाल उठते हैं न शंका उठती है। ये जब-तब सिर्फ शिकायत कर लेते हैं। शिकायत भी सुख देती है। और वे ज्यादा सुखी हो जाते हैं। कबीर ने कहा है
सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवे। 
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवे। 

जागने वाले का रोना कभी खत्म नहीं | व्यंग्य-लेखक की गर्दिश भी खत्म नहीं होगी। 

ताजा गर्दिश यह है कि पिछले दिनों राजनीतिक पद के लिये पापड़ बेलते रहे। कहीं से उम्मीद दिला दी गई कि राज्यसभा में हो जायेगा। एक महीना बड़ी गर्दिश में बीता। घुसपैठ की आदत नहीं है, चिट भीतर भेजकर बाहर बैठे रहने में हर क्षण मृत्यु-पीड़ा होती है। बहादुर लोग तो महीनों चिट भेजकर बाहर बैठे रहते हैं, मगर मरते नहीं। अपने से नहीं बनता। पिछले कुछ महीने ऐसी गर्दिश के थे। कोई लाभ खुद चलकर दरवाजे पर नहीं आता। चिरौरी करनी पड़ती है। लाभ थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है, इस कोशिश में बड़ी तकलीफ हुई। बड़ी गर्दिश भोगी। 

मेरे जैसे लेखक की एक गर्दिश और है। भीतर जितना बवंडर महसूस कर रहे हैं, उतना शब्दों में नहीं आ रहा है, तो दिन-रात बेचैन हैं। यह बड़ी गर्दिश का वक्त होता है, जिसे सर्जक ही समझ सकता है। 

यों गर्दिशों की एक याद है। पर सही बात यह है कि कोई दिन गर्दिश से खाली नहीं है। और न कभी गर्दिश का अन्त होना है। यह और बात है कि शोभा के लिये कुछ अच्छे किस्म की गर्दिशें चुन ली जाएं। उनका मेकअप कर दिया जाये, उन्हें अदायें सिखा दी जायें — थोड़ी चुलबुली गर्दिश हो तो और अच्छा — और पाठक से कहा जाए — ले भाई, देख मेरी गर्दिश!

००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ